कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ २३४ से – २३९ तक

 

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चक्रधर जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गये थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्न दान दिया जा रहा था और कँगले एक पर एक टूटे पड़ते थे। सिपाही धक्के-पर-धक्के देते थे, पर कगलों का रेला कम न होता था। शायद वे समझते थे कि कहीं हमारी बारी आने से पहले ही सारा अन्न समाप्त न हो जाय, अन्न कम हो जाने पर थोड़ा-थोड़ा देकर ही न टरका दें। मुंशी वज्रधर बारबार चिल्ला रहे थे—क्यों एक दूसरे पर गिरे पड़ते हो? सबको मिलेगा कोई खाली न जायगा, सैकड़ों बोरे भरे हुए हैं, लेकिन उनके आश्वासन का कोई असर न दिखायी देता था। छोटी सी बस्ती में इतने आदमी भी मुश्किल से होंगे! इतने कङ्गाल न-जाने कहाँ से फट पड़े थे।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर सामने देखा, तो भीड़ को हटाकर दौड़े और चक्रधर को गले लगा लिया। पिता और पुत्र दोनों रो रहे थे, पिता में पुत्र स्नेह था, पुत्र में पितृ भक्ति थी, किसी के दिल में जरा भी मैल न था, फिर भी वे आज पाँच साल के बाद मिल रहे हैं। कितना घोर अनर्थ है।

अहल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कुतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था। उसने समझा, इन दोनों में मार-पीट हुई है, शायद दोनों ने एक दूसरे का गला पकड़कर दबाया है, तभी तो यों रो रहे हैं। बाबूजी का गला दुख रहा होगा। यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया। मुंशीजी उसे रोते देखकर प्रेम से बढ़े कि उसको गोद में लेकर प्यार करूँ तो बालक ने मुँह फेर लिया। जिसने अभी-अभी बाबूजी को मारकर रुलाया है, वह क्या मुझे न मारेगा? कैसा विकराल रूप है? अवश्य मारेगा।

अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पायी थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखायी दिये। सूरत से नैराश्य और चिन्ता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते-ही-आते उन्होंने चक्रधर को गले लगाकर पूछा—मेरा तार कब मिल गया था?

चक्रधर—कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गये। रानीजी की क्या हालत है?

राजा—वह तो अपनी आँखों देखोगे, मैं क्या कहूँ। अब भगवान् ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।

यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में ले लिया और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले—मेरी सुखदा बिलकुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आँखों में है। मुख से बिलकुल ऐसी ही थी।

अन्दर जाकर चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसी समा गयी थी कि मालूम होता था कि पलँग खाली है, केवल चादर पड़ी है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुँह चादर से बाहर निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह असहाय नेत्रों से आकाश की ओर ताक रही थी!

राजा साहब ने आहिस्ता से कहा—नोरा, तुम्हारे बाबूजी आ गये!

मनोरमा ने तकिये का सहारा लेकर कहा—मेरे धन्य भाग! आइए बाबूजी, आपके दर्शन भी हो गये। तार न जाता, तो आप क्यों आते?

चक्रधर—मुझे तो बिलकुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।

मनोरमा—खैर, आपने बड़ी कृपा की। मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी।

राजा—बार-बार कहती थी कि वह न आयेंगे, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ; पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते। शहर के सब चिकित्सकों को देख चुका। किसी से कुछ न हो सका। अब तो ईश्वर ही का भरोसा है।

चक्रधर—मै भी एक डाक्टर को साथ लाया हूँ। बहुत ही होशियार आदमी हैं।

मनोरमा—(बालक को देखकर) अच्छा! अहल्या देवी भी आयी हैं? जरा यहाँ तो लाना, अहल्या! इसे छाती ने लगा लूँ।

राजा—इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है, नोरा! बिलकुल उसका छोटा भाई मालूम होता है?

'सुखदा' का नाम सुनकर अहल्या पहले भी चौंकी थी। अब की वही शब्द सुनकर फिर चौंकी! बाल-स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भाँति चेतना-क्षेत्र में आ गयी। उसने घूँघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपनी स्मृति पर ऐसा ही आकार खिंचा हुआ मालूम पड़ा।

बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर शरीर में एक स्फूर्ति-सी दौड़ गयी। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो। बालक को छाती से लगाये हुए उसे अपूर्व आनन्द मिल रहा था, मानों बरसों के तृषित कण्ठ को शीतल जल मिल गया हो, और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिये हुए उठ बैठी और बोली—अहल्या, मैं अब यह लाल तुम्हें न दूँगी। यह मेरा है। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुध न ली, यह उसी की सजा है।

राजा साहब ने मनोरमा को सँभालकर कहा—लेट जाओ, लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो।

किन्तु मनोरमा बालक को लिये हुए कमरे के बाहर निकल गयी। राजा साहब भी उसके पीछे पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहल्या रह गये। अहल्या धीरे से बोली—मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो मुझे लोग सुखदा कहते थे।

चक्रधर ने बेपरवाही से कहा—हाँ, यह कोई नया नाम नहीं।

अहल्या—मेरे बाबूजी की सूरत राजा साहब से बहुत मिलती है।

चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा—हाँ, बहुत-से आदमियों की सूरत मिलती है।

अहल्या—नहीं बिलकुल ऐसे ही थे।

चक्रधर—हो सकता है। २० वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती।

अहल्या—जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोयी थी?

चक्रधर ने झुँझलाकर कहा—चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोयी नहीं, मर गयी होगी।

राजा साहब इसी वक्त बालक को गोद में लिये मनोरमा के साथ कमरे में आये। चक्रधर के अन्तिम शब्द उनके कान में पड़ गये। बोले—नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में खो गयी थी। आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गयी थी। उसकी उम्न कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूँढा, पर कुछ पता न चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारीं। मैं भी बरसों तक पागल बना रहा। अन्त में सब करके बैठ रहा।

अहल्या ने सामने आकर निस्सकोच भाव से कहा—मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गयी थी। आगरा की सेवा समितिवालों ने मुझे कहीं रोते पाया, और मुझे आगरे ले गये। बाबू यशोदानन्दन ने मेरा पालन पोषण किया।

राजा—तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी?

अहल्या—चौबीसवाँ लगा है।

राजा—तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज का पेड़ था।

अहल्या—शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।

राजा—अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद आता है?

अहल्या—हाँ, याद क्यों नहीं आता। उनका साँवला रंग था, दुबली-पतली, लेकिन बहुत लम्बी थी। दिन-भर पान खाती रहती थी।

राजा—घर में कौन कौन लोग थे?

अहल्या—मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कन्धे पर मैं रोज सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बँधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआँ था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।

राजा ने सजल-नेत्र होकर कहा—बस बस, बेटी आ; तुझे छाती लगा लूँ। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गयी! मेरी सुखदा मिल गयी।

चक्रधर—अभी शोर न कीजिए। सम्भव है आपको भ्रम हो रहा हो।

राजा—जरा भी नहीं, जौं-भर भी नहीं; मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बतायीं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं। आह! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनन्द होता! क्या लीला है भगवान् की! मेरी सुखदा घर-बैठे मेरी गोद में आ गयी। जरा सी गयी थी, बड़ी-सी आयी। अरे! मेरा शोक-सन्ताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लायी। आओ, भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूँ। अब तक तुम मेरे मित्र थे, अब मेरे पुत्र हो। याद है, मैने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी, और मैं उसके नाम को रो बैठा था। अब मेरी सारी अभिलाषा पूरी हो गयी। जिस बात की आशा तक मिट गयी थी, वह आज पूरी हो गयी।

चक्रधर विमन भाव से खड़े थे, मनोरमा अंगों फूली न समाती थी। अहल्या अभी तक खड़ी रो रही थी। सहसा रोहिणी कमरे के द्वार से जाती हुई दिखायी दी। राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आये और बोले—कहाँ जाती हो, रोहिणी? मेरी सुखदा मिल गयी। आओ, देखो, यह उसका लड़का है।

रोहिणी वहीं ठिठक गयी और सन्देहात्मक भाव से बोली—क्या स्वर्ग से लौट आयी है, क्या?

राजा—नही-नहीं, आगरे में थी। देखो, यह उसका लड़का है। मेरी सूरत इससे कितनी मिलती है! आओ, सुखदा को देखो। मेरी सुखदा खड़ी है।

रोहिणी ने वहीं खड़े-खड़े उत्तर दिया—यह आपकी सुखदा नहीं, रानी मनोरमा की माया मूर्ति है, जिसके हाथों में आप कठपुतली की भाँति नाच रहे हैं।

राजा ने विस्मित होकर कहा—क्या यह मेरी सुखदा नहीं है। कैसी बात कहती हो? मैंने खूब परीक्षा करके देख लिया है।

रोहिणी—ऐसे मदारी के खेल बहुत देख चुकी हूँ। भड़री भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं। यह सब माया लीला है।

राजा—क्यों व्यर्थ किसी पर आक्षेप करती हो, रोहिणी? मनोरमा को भी तो वे बातें नहीं मालूम हैं, जो सुखदा ने मुझसे बता दीं। भला, किसी गैर की लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनायेगी? इसमें उसका क्या स्वार्थ हो सकता है?

रोहिणी—वह हमारी जड़ खोदना चाहती है। क्या आप इतना भी नहीं समझते? चक्रधर को राजा बनाकर वह आपको कोने में बैठा देगी। यही बालक, जो आपकी गोद में है, एक दिन आपका शत्रु होगा। यह सब सधी हुई बातें हैं। जिसे आप मिट्टी की गऊ समझते हैं, वह आप जैसों को बाजार में बेच सकती है। किसकी बुद्धि इतनी ऊँची उड़ेगी!

राजा ने व्यग्र होकर कहा—अच्छा, अब चुप रहो, रोहिणी! मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे हृदय में मेरे अमंगल के सिवा और किसी भाव के लिए स्थान नहीं है! आज न-जाने किसके पुण्य प्रताप से ईश्वर ने मुझे यह शुभ दिन दिखाया, है, और तुम मुँह से ऐसे कुवचन निकाल रही हो। ईश्वर ने मुझे वह सब कुछ दे दिया, जिसकी मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। यह बाल-रत्न मेरी गोद में खेलेगा, इसकी किसे आशा थी। और ऐसे शुभ अवसर पर तुम यह विष उगल रही हो। मनोरमा के पैर के धूल की बराबरी भी तुम नहीं कर सकतीं। जाओ, मुझे तुम्हारा मुख देखते हुए रोमाञ्च होता है। तुम स्त्री के रूप में पिचाशिनी हो।

यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश में दीवानखाने में जा पहुँचे। द्वार पर अभी तक कँगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बालक को कन्धे पर बिठाकर उच्च स्वर से कहा—मित्रों। यह देखो, ईश्वर की असीम कृपा से मेरा निवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में खो गयी थी? वही सुखदा आज मुझे मिल गयी है और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गारद से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबतखाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।

यह हुक्म देकर राजा साहब बालक को गोद में लिये ठाकुरद्वारे में जा पहुँचे। वहाँ इस समय ठाकुरजी के भोग की तैयारियाँ हो रही थीं। साधु-सन्तों की मण्डली जमा थी। एक पण्डित कोई कथा कह रहे थे; लेकिन श्रोताओं के कान उसी घण्टी की ओर लगे थे, जो ठाकुरजी की पूजा की सूचना देगी और जिसके बाद तर माल के दर्शन होंगे। सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दण्डवत् करने लगे। इतनी श्रद्धा से उन्होंने अपने जीवन में कभी ईश्वर की प्रार्थना न की थी। आज उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ। ठाकुरजी स्वयं अपने सिंहासन से उतरकर बालक को गोद में लिये हुए हैं। आज उनकी चिर-संचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हुई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी। यह ईश्वर की दया नहीं तो और क्या है? पुत्र-रत्न के सामने संसार की सम्पदा क्या चीज है? अगर पुत्र-रत्न न हो, तो संसार की सम्पदा का मूल्य ही क्या है, जीवन की सार्थकता ही क्या है, कर्म का उद्देश्य ही क्या है? अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बाँधता है? अपना जीवन तो मनसूबों में ही व्यतीत हो जाता है, यहाँ तक कि जब मनसूबे पूरे होने के दिन पाते हैं, तो हमारी संसार-यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पुत्र ही आकाक्षाओं का स्रोत, चिन्ताओं का आगार, प्रेम का बन्धन और जीवन का सर्वस्व है। वही पुत्र आज विशालसिंह को मिल गया था। उसे देख-देखकर उनकी आँखें आनन्द से उमड़ी जाती थीं, हृदय पुलकित हो रहा था। इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था। अब उनके लिए संसार ही स्वर्ग था।

पुजारीने कहा—भगवान् राजकुँवर को चिरञ्जीव करें!

राजा ने अपनी हीरे की अँगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए १०० बीघे जमीन मिल गयी।

ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं, और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है। उसके मुख-पटल पर हार्दिक उल्लास की कान्ति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई थी।