कायाकल्प/१९
दूसरे दिन प्रातःकाल लौंगी ने पंडित की रट लगायी और दीवान साहब को विवश होकर मुंशी वज्रधर के पास जाना पड़ा।
वज्रधर सारी कथा सुनकर बोले—आपने यह बुरा रोग पाल रखा है। एक बार डाँटकर कह दीजिए—चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब? फिर देखूँ वह कैसे बोलती है!
दीवान—भई, इतनी हिम्मत मुझमें नहीं है। वह कभी जरा रूठ जाती है, तो मेरे हाथ-पाँव फूल जाते हैं। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि बिना उसके मैं जिन्दा कैसे रहूँगा। मैं तो उससे बिना पूछे भोजन भी नहीं कर सकता। वह मेरे घर की लक्ष्मी है। आपकी किसी ज्योतिषी से जान पहचान है?
मुंशी—जान-पहचान तो बहुतों से है, लेकिन देखना तो यह है कि काम किससे निकल सकता है। कोई सच्चा आदमी तो यह स्वाँग भरने न जायगा। कोई पण्डित बनाना पड़ेगा।
दीवान—यह तो बड़ी मुश्किल हुई।
मुंशी—मुश्किल क्या हुई। मैं अभी बनाये देता हूँ। ऐसा पण्डित बना दूँ कि कोई भाँप न सके। इन बातों में क्या रखा है?
यह कहकर मुन्शीजीने झिनकू को बुलाया। वह एक ही छँटा हुआ था। फौरन तैयार हो गया। घर जाकर माथे पर तिलक लगाया, गले में रामनामी चादर डाली, सिर पर एक टोपी रखी और एक बस्ता बगल में दबाये आ पहुँचा। मुन्शीनी उसे देखकर बोले—यार, जरा-सी कसर रह गयी। तोंद के बगैर पण्डित कुछ जँचता नहीं। लोग यही समझते हैं कि इनको तर माल नहीं मिलते, जभी तो ताँत हो रहे हैं। तोंदल आदमी की शान ही और होती है, चाहे पण्डित बने, चाहे सेठ, चाहे तहसीलदार ही क्यों न बन जाय। उसे सब कुछ भला मालूम होता है। मैं तोंदल होता तो अब तक न जाने किस ओहदे पर होता। सच पूछो, तो तोंद न रहने ही के कारण अफसरों पर मेरा रोब न जमा। बहुत घी-दूध खाया, पर तकदीर में बड़ा आदमी होना न बदा था, तोंद न निकली, न निकली। तोंद बना लो, नहीं तो उल्लू बनाकर निकाल दिये जाओगे, या किसी तोंदूमल को पकड़ो।
झिनकू—सरकार, तोंद होती, तो आज मारा-मारा क्यों फिरता? मुझे भी न लोग झिनकू उस्ताद कहते! कभी तबला न होता तो तोंद ही बना देता, मगर तोंद न रहने में कोई हरज नहीं है, यहाँ कई पण्डित बिना तोंद के भी हैं।
मुन्शी—कोई बड़ा पण्डित भी है बिना तोंद का?
मुन्शी—नहीं सरकार, कोई बड़ा पण्डित तो नहीं है। तोंद के बिना कोई बड़ा हो कैसे जायगा? कहिये तो कुछ कपड़े लपेटूँ?
मुन्शी—तुम तो कपड़े लपेटकर पिंडरोगी से मालूम होगे। तकदीर पेट पर सबसे ज्यादा चमकती है, इसमें शक नहीं, लेकिन और अंगों पर भी तो कुछ-न-कुछ असर होता ही है। यह राग न चलेगा, भाई किसी और को फाँसो।
झिनकू—सरकार, अगर मालकिन को खुश न कर दूँ, तो नाक काट लीजिएगा। कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ!
खैर, तोनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुँचे। दीवान साहब ने जाकर कहा—पण्डितजी आ गये; बड़ी मुश्किल से आये हैं।
इतने में मुंशीजी भी आ पहुँचे और बोले—कोई नया आसन बिछाइएगा। कुरसी पर नहीं बैठते। आज न जाने क्या समझकर इस वक्त आ गये, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपए भी दे तो नहीं जाते।
पण्डितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे। लौंगी ने उनकी ओर ध्यान से देखा और तीव्र स्वर में बोली—आप जोतसी हैं? ऐसी ही सूरत होती है जोतसियों की? मुझे तो कोई भाँड से मालूम होते हो! मुंशीजी ने दाँतों तले जबान दबा ली, दीवान साहब ने छाती पर हाथ रखा और छिनकू के चेहरे पर तो मुर्दनी छा गयी। कुछ जवाब ही देते न बन पड़ा। आखिर मुंशीजी बोले—यह क्या गजब करती हो, लौंगी रानी! अपने घर बुलाकर महात्माओं की यही इज्जत की जाती है?
लौंगी—लाला, तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाये है। एक बहुरूपिये को लाकर खड़ा कर दिया, ऊपर से कहते हैं, जोतसी है! ऐसी ही सूरत होती है जोतसी की? मालूम होता है, महीनों से दाने की सूरत नहीं देखी। मुझे क्रोध तो इन पर (दीवान) आता है, तुम्हें क्या कहूँ?
झिनकू—माता, तूने मेरा बड़ा अपमान किया है। अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहरूँगा। तुमको इसका फल मिलेगा, अवश्य मिलेगा।
लौंगी—लो, बस, चले ही जाओ मेरे घर से! धूर्त, पाखण्डी कहीं का। बड़ा जोतसी है, तो बता मेरी उम्र कितनी है? लाला, अगर तुम्हें धन का लोभ हो, तो जितना चाहो, मुझसे ले जाओ। मेरी बिटिया को कुएँ में न ढकेलो। क्यों उसके दुश्मन बने हुए हो? जो कुछ कर रहे हो उसका सारा दोष तुम्हारे ही सिर जायगा। तुम इतना भी नहीं समझते कि बूढ़े आदमी के साथ कोई लड़की कैसे सुख से रह सकती है! धन से बूढ़े जवान तो नहीं हो जाते।
झिनकू—माताजी, राजा साहब की आयु, ज्योतिष विद्या के अनुसार..
लौंगी—तू फिर बोला, चुपकर खड़ा क्यों नहीं रहता?
झिनकू—दीवान साहब, अब मैं नहीं ठहर सकता।
लौंगी—क्यों, ठहरोगे क्यों नहीं? दच्छिना तो लेते जाओ।
यह कहते हुए लौंगी ने कोठरी में जाकर कजलौटे से काजल निकाला और तुरन्त बाहर आ, एक हाथ से झिनकू को पकड़, दूसरे से उसके मुँह पर काजल पोत दिया। बहुत उछले-कूदे, बहुत फड़फड़ाये; पर लौंगी ने जौं भर भी न हिलने दिया, मानो बाज ने कबूतर को दबोच लिया हो। दीवान साहब अब अपनी हँसी न रोक सके। मारे हँसी के मुँह से बात न निकलती थी। मुंशीजी अभी तक झिनकू की विद्या का राग अलाप रहे थे और लौंगी झिनकू को दबोचे हुए चिल्ला रही थी—थोड़ा चूना लाओ, तो इसे पूरी दच्छिना दे दूँ! मेरे धन्य भाग्य कि आज जोतसीजी के दर्शन हुए।
आखिर मुंशीजी को गुस्सा आ गया। उन्होने लौंगी का हाथ पकड़ककर चाहा कि झिनकू का गला छुड़ा दें। लौंगी ने झिनकू को तो न छोड़ा, एक हाथ से तो उसकी गरदन पकड़े हुए थी, दूसरे हाथ से मुंशीजी की गरदन पकड़ ली और बोली—मुझसे जोर दिखाते हो, लाला? बड़े मर्द हो, तो छुड़ा लो गरदन। बहुत दूध घी बेगार में लिया होगा। देखें, वह जोर कहाँ है।
दीवान—मुंशीजी, आप खड़े क्या हैं, छुड़ा लीजिए गरदन।
मुंशी—मेरी यह साँसत हो रही है और आप खड़े हँस रहे हैं!
दीवान—तो क्या कर सकता हूँ। आप भी तो देवनी से जोर आजमाने चले थे। आज आपको मालूम हो जायगा कि मैं इससे क्यों इतना दबता हूँ।
लौंगी—जोतसीजी, अपनी विद्या का जोर क्यों नहीं लगाते? क्यों रे, अब तो कभी जोतसी न बनेगा?
झिनकू—नहीं माताजी, बड़ा अपराध हुआ, क्षमा कीजिए।
लौंगी ने दीवान साहब की ओर सरोष नेत्रों से देखकर कहा—मुझसे यह चाल चली जाती है, क्यों! लड़की को राजा से ब्याहकर तुम्हारा मरतबा बढ़ जायगा, क्यों? धन और मरतबा सन्तान से भी ज्यादा प्यारा है, क्यों? लगा दो आग घर में। घोंट दो लड़की का गला। अभी मर जायगी, मगर जन्म-भर के दुःख से तो छूट जायगी। धन और मरतबा अपने पौरुख से मिलता है। लड़की बेचकर धन नहीं कमाया जाता। यह नीचों का काम है, भलेमानसों का नहीं। मैं तुम्हें इतना स्वार्थी न समझती थी, लाला साहब। तुम्हारे मरने के दिन आ गये हैं, क्यों पाप की गठरी लादते हो? मगर तुम्हें समझाने से क्या होगा। इसी पाखण्ड में तुम्हारी उम्र कट गयी, अब क्या सँभलोगे! मरती बार भी पाप करना बदा था। क्या करते। और तुम भी सुन लो, जोतसीजी! अब कभी भूल कर भी यह स्वाँग न भरना। धोखा देकर पेट पालने से मर जाना अच्छा है। जाओ।
यह कहकर लौंगी ने दोनों आदमियों को छोड़ दिया। झिनकू तो बगटुट भागा; लेकिन मुंशीजी वहीं सिर झुकाये खड़े रहे। जरा देर के बाद बोले—दीवान साहब, अगर आप की मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साहब से कह दूँ कि दीवान साहब को मंजूर नहीं है।
दीवान—अब भी आप मुझसे पूछ रहे हैं? क्या अभी कुछ और साँसत कराना चाहते हैं?
मुंशी—साँसत तो मेरी यह क्या करती, मैंने औरत समझकर छोड़ दिया।
दीवान—आप आज जाके साफ-साफ कह दीजिएगा।
लौंगी—क्या साफ साफ कह दीजिएगा? अब क्या साफ-साफ कहलाते हो? किसी को खाने का नेवता न दो, तो वह बुरा न मानेगा, लेकिन नेवता देकर अपने द्वार से भगा दो, तो तुम्हारी जान का दुश्मन हो जायगा। अब साफ-साफ कहने का अवसर नहीं रहा। जब नेवता दे चुके, तब तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहें लोटा-थाली बेचकर ही क्यों न खिलाओ। कहके मुकरने से बैर हो जायगा।
दीवान—बैर की चिन्ता नहीं। नौकरी की मैं परवा नहीं करता।
लौंगी—हाँ, तुमने तो कारूँ का खजाना घर में गाड़ रखा है। इन बातों से अब काम न चलेगा। अब तो जो होनी थी, हो चुकी। राम का नाम लेकर ब्याह करो। पुरोहित को बुलाकर साइत-सगुन पूछ ताछ लो और लगन भेज दो। एक ही लड़की है, दिल खोलकर काम करो।
मुंशीजी को अपनी साँसत का पुरस्कार मिल गया। मारे खुशी के बगलें बजाने लगे। विरोध की अन्तिम क्रिया हो गयी।
आज ही से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। दीवान साहब स्वभाव के कृपण थे, कम-से-कम खर्च में काम निकालना चाहते थे, लेकिन लौंगी के आगे उनकी एक न चलती थी। उसके पास रुपए न जाने कहाँ से निकलते आते थे, मानो किसी रसिक के प्रेमोद्गार हों। तीन महीने तैयारियों में गुजर गये। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया।
सहसा एक दिन शाम को खबर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कन्धे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।
मनोरमा के विवाह की तैयारियाँ तो हो ही रही थीं और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिन्ता, हृदय को मथा करती थी। अन्धों की भाँति इधर-उधर टटोलती थी; पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसो में सन्तुष्ट रहना चाहती थी; लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अँधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घंटों वह मूर्छित-सी बैठी रहती, मानों कहीं कुछ नहीं है, अनन्त आकाश में केवल वही अकेली है।
यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी से बोली—लौंगी अम्माँ, मैं क्या करूँ? बाबूजी को देखे बिना अब नही रहा जाता। क्यों अम्माँ, घाव अच्छा हो जायगा न?
लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा—अच्छा क्यों न होगा, बेटी! भगवान् चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जायगा।
लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है! मन ही मन तिलमिलाकर रह गयी। हाय! चारे पर गिरनेवाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी! मोती में चमक है, वह अनमोल है, लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बाँध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।
मनोरमा ने फिर पूछा—भगवान् सज्जन लोगों को क्यों इतना कष्ट देते हैं, अम्माँ? बाबूजी का सा सज्जन दूसरा कौन होगा। उनको भगवान् इतना कष्ट दे रहे हैं! मुझे कभी कुछ नहीं होता, कभी सिर भी नहीं दुखता। मुझे क्यों कभी कुछ नहीं होता, अम्माँ?
लौंगी—तुम्हारे दुश्मन को कुछ हो बेटी, तुम तो कभी घड़ी-भर चैन न पाती थीं। तुम्हें गोद में लिये रात-भर भगवान् का नाम लिया करती थी।
सहसा मनोरमा के मन में एक बात आयी। उसने बाहर आकर मोटर तैयार करायी और दम-के-दम में राज भवन की ओर चली। राजा साहब इसी तरफ आ रहे थे। मनोरमा को देखा, तो चौंके। मनोरमा घबरायी हुई थी।
राजा—तुमने क्यों कष्ट किया? मैं तो आ रहा था।
मनोरमा—आपको जेल के दंगे की खबर मिली?
राजा—हाँ, मुन्शी वज्रधर अभी कहते थे।
मनोरमा—मेरे बाबूजी को गहरा घाव लगा है।
राजा—हाँ, यह भी सुना।
मनोरमा—तब भी आपने उन्हें जेल से बाहर अस्पताल में लाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की? आपका हृदय बड़ा कठोर है।
राजा ने कुछ चिढ़कर कहा—तुम्हारे-जैसा उदार हृदय कहाँ से लाऊँ।
मनोरमा—मुझसे माँग क्यों नहीं लेते? बाबूजी को बहुत गहरा घाव लगा है, और अगर यत्न न किया गया, तो उनका बचना कठिन है। जेल में जैसा इलाज होगा, आप जानते ही हैं। न कोई आगे, न कोई पीछे, न मित्र, न बन्धु। आप साहब को एक खत लिखिए कि बाबूजी को अस्पताल में लाया जाय।
राजा—साहब मानेंगे?
मनोरमा—इतनी जरा-सी बात न मानेंगे?
राजा—न-जाने दिल में क्या सोचें।
मनोरमा—आपको अगर बहुत मानसिक कष्ट हो रहा हो, तो रहने दीजिए। मैं खुद साहब से मिल लूँगी।
राजा साहब यह तिरस्कार सुनकर काँप उठे। कातर होकर बोले—मुझे किस बात का कष्ट होगा। अभी जाता हूँ।
मनोरमा—लौटिएगा कब तक?
राजा—कह नहीं सकता।
यह कहकर राजा साहब मोटर पर ना बैठे और शोफर से मिस्टर जिम के बँगले पर चलने को कहा। मनोरमा की निष्ठुरता से उनका चित्त बहुत खिन्न था। मेरे आराम और तकलीफ का इसे जरा भी खयाल नहीं। चक्रधर से न जाने क्यों इतना स्नेह है। कहीं उससे प्रेम तो नहीं करती? नहीं, यह बात नहीं। सरल हृदय बालिका है। ये कौशल क्या जाने। चक्रधर आदमी ही ऐसा है कि दूसरों को उससे मुहब्बत हो जाती है। जवानी में सहृदयता कुछ अधिक होती ही है। कोई मायाविनी स्त्री होती, तो मुझसे अपने मनोभावों को गुप्त रखती। जो कुछ करना होता, चुपके चुपके करती; पर इसके निश्छल हृदय में कपट कहाँ। जो कुछ कहती है, मुझी से कहती है; जो कष्ट होता है, मुझी को सुनाती है। मुझ पर पूरा विश्वास करती है। ईश्वर करे साहब से मुलाकात हो जाय और वह मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लें! जिस वक्त मैं आकर यह शुभ समाचार कहूँगा, कितनी खुश होगी।
यह सोचते हुए राजा साहब मिस्टर जिम के बँगले पर पहुँचे। शाम हो गयी थी। साहब बहादुर सैर करने जा रहे थे। उनके बँगले में वह ताजगी और सफाई थी कि राजा साहब का चित्त प्रसन्न हो गया। उनके यहाँ दर्जनों माली थे, पर बाग इतना हरा-भरा न रहता था। यहाँ की हवा में आनन्द था। इकबाल हाथ बाँधे हुए खड़ा मालूम होता था। नौकर-चाकर कितने सलीकेदार थे, घोड़े कितने समझदार, पौधे कितने सुन्दर, यहाँ तक कि कुत्तों के चेहरे पर भी इकबाल की आभा झलक रही थी।
राजा साहब को देखते ही जिम साहब ने हाथ मिलाया और पूछा—आपने जेल में दंगे का हाल सुना?
राजा—जी हाँ! सुनकर बड़ा अफसोस हुआ।
जिम—सब उसी का शरारत है, उसी बागी नौजवान का।
राजा—हुजूर का मतलब चक्रधर से है?
जिम—हाँ, उसी से! बहुत ही खौफनाक आदमी है। उसी ने कैदियों को भड़काया है।
राजा—लेकिन अब तो उसको अपने किये की सजा मिल गयी। अगर बच भी गया तो महीनों चारपाई से न उठेगा।
जिम—ऐसे आदमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं। हम उस पर मुकदमा चलायेगा।
राजा—मैंने सुना है कि उसके कन्धे में गहरा जख्म है और आपसे यह अर्ज करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाय, जहाँ उसका अच्छा इलाज हो सके। आपकी इतनी कृपा हो जाय, तो उस गरीब की जान बच जाय और सारे जिले में आपका नाम हो जाय। मैं इसका जिम्मा ले सकता हूँ कि अस्पताल में उसकी पूरी निगरानी रखी जायगी।
जिम—हम एक बागी के साथ कोई रियायत नहीं कर सकता। आप जानता है, मुगलों या मरहटों का राज होता, तो ऐसे आदमी को क्या सजा मिलता? उसका खाल खींच लिया जाता, या उसके दोनों हाथ काट लिये जाते। हम अपने दुश्मन को कोई रियायत नहीं कर सकता।
राजा—हुजूर, दुश्मनों के साथ रियायत करना उनको सबसे बड़ी सजा देना है। आप जिस पर दया करें, वह कभी आपसे दुश्मनी नहीं कर सकता। वह अपने किये पर लज्जित होगा और सदैव के लिये आपका भक्त हो जायगा।
जिम—राजा साहब, आप समझता नहीं। ऐसा सलूक उस आदमी के साथ किया जाता है, जिसमें कुछ आदमियत बाकी रह गया हो। बागी का दिल बालू का मैदान है। उसमें पानी की एक बूँद भी नहीं होती, और न उसे पानी से सींचा जा सकता है। आदमी में जितना धर्म और शराफत है, उसके मिट जाने पर वह बागी हो जाता है। उसे भलमनसी से आप नहीं जीत सकता।
राजा साहब को आशा थी कि साहब मेरी बात आसानी से मान लेंगे। साहब के पास वह रोज ही कोई-न-कोई तोहफा भेजते रहते थे। उनकी जिद पर चिढ़कर बोले—जब मैं आपको विश्वास दिला रहा हूँ कि उस पर अस्पताल में काफी निगरानी रखी जायगी, तो आपको मेरी अर्ज मानने में क्या आपत्ति है?
जिम ने मुस्कराकर कहा—यह जरूरी नहीं कि मैं आपसे अपनी पालिसी बयान करूँ।
राजा—मैं उसकी जमानत करने को तैयार हूँ।
जिम—(हँसकर) आप उसकी जवान की जमानत तो नहीं कर सकते? हजारों आदमी उसे देखने को रोज आयेगा। आप उन्हें रोक तो नहीं सकते? गँवार लोग यही समझेगा कि सरकार इस आदमी पर बड़ा जुल्म कर रही है। उसे देख-देखकर लोग भड़केगा। इसको आप कैसे रोक सकते हैं?
राजा साहब के जी में आया कि इसी वक्त यहाँ से चल दूँ और फिर इसका मुँह न देखूँ। पर खयाल किया, मनोरमा बैठी मेरी राह देख रही होगी। यह खबर सुनकर उसे कितनी निराशा होगी। ईश्वर! इस निर्दयी के हृदय में थोड़ी-सी दया डाल दो। बोले—आप यह हुक्म दे सकते हैं कि उनके निकट सम्बन्धियों के सिवा कोई उनके पास न जाने पाये?
जिम—मेरे हुक्म में इतनी ताकत नहीं है कि वह अस्पताल को जेल बना दे।
यह कहते-कहते मिस्टर जिम फिटिन पर बैठे और सैर करने चल दिये।
राजा साहब को एक क्षण के लिए मनोरमा पर क्रोध आ गया। उसी के कारण मैं यह अपमान सह रहा हूँ। नहीं तो मुझे क्या गरज पड़ी थी कि इसकी इतनी खुशामद करता। जाकर कहे देता हूँ कि साहब नहीं मानते, मैं क्या करूँ? मगर उसके आँसुओं के भय ने फिर कातर कर दिया। आह! उसका कोमल हृदय टूट जायगा। आँखों में आँसू की झड़ी लग जायगी। नहीं, मैं अभी इसका पिण्ड न छोडूँगा। मेरा अपमान हो, इसकी चिन्ता नहीं। लेकिन उसे दुख न हो।
थोड़ी देर तक तो राजा साहब बाग में टहलते रहे। फिर मोटर पर जा बैठे और वटे-भर इधर-उधर घूमते रहे । ८ बजे वह लौटकर आये, तो मालूम हुआ, अभी साहब नहीं पाये । फिर लोटे, इसी तरह वह घण्टे घण्टे भर के बाद वह तीन बार पाये, मगर साहब बहादुर अभी तक न लौटे थे ।
सोचने लगे, इतनी रात गये अगर मुलाकात हो भी गयी, तो बात-चीत करने का मौका कहाँ। शराब के नशे में चूर होगा । आते ही आते सोने चला जायगा । मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जायगा कि वह वेचारे अभी तक खडे हैं । शायद दया श्रा जाय ।
एक बजे के करीब बग्यो की अावाज पायी। राजा साहब मोटर से उतरकर खडे हा गये । जिम भो फिटिन से उतरा । नशे से आँखे सुर्ख थी। लड़खड़ाता हुआ चल रहा था। राजा को देखते ही बोला-श्रो, श्रो, तुम यहाँ क्यो खड़ा है ? बाग जायो अभी जानो, वागो ।
राजा-हुजूर मैं हूँ राजा विशालसिंह ।
जिम-श्रो ! डैम राजा, अबी निकल जायो । तुम भी वागी है । तुम बागी का सिफारिश करता है. वागी को पनाह देता है। सरकार का दोस्त बनता है ! अबी निकल जायो । राजा और रैयत सब एक है । हम किसी पर भरोसा नहीं करता। हमको अपने जोर का भरोसा है । राजा का काम बागियों को पकड़वाना, उनका पता लगाना है । उनका सिफारिश करना नहीं । अबी निकल जायो।
यह कहकर वह राजा साहब की ओर झपटा । राजा साहब बहुत हो बलवान् मनुष्य थे। वह ऐसे-ऐसे दो को अकेले काफी थे; लेकिन परिणाम के भय ने उन्हे पगु बना दिया था । एक चूंसा भो लगाया और ५ करोड़ रुपये की जायदाद हाथ से निकली। वह चूसा बहुत मेहगा पड़ेगा । परिस्थिति भी उनके प्रतिकूल थीं। इतनी रात को उसके बंगले पर ग्राना इस बात का सबूत समझा जायगा कि उनकी नीयत अच्छी नहीं थी। दीन-माव से बोले-साहब, इतना जुल्म न कीजिए। इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ ? कहिए तो अापके पैरों प: । जो कहिए करने को हाजिर हूँ। मेरो अर्ज कबूल कीजिए।
जिम-कबो नइ होगा, कवो नई होगा। तुम मतलब का आदमी है । हम तुम्हारी चालों को खूब समझता है।
राजा-इतना तो आप कर ही सकते हैं कि मै उनका इलाज करने के लिए अपना डाक्टर जेल के अन्दर भेज दिया करूं?
जिम--यो डैमिट ! बक बक मत करो, सुअर अभी निकल जायो, नहीं तो हम ठोकर मारेगा।
अब राजा साहब से नन्त न हुआ । क्रोध ने नारी चिन्ताओं को, सारी कमजोरियों को निगल लिया। राज्य रहे या जाय, वला से! जिम ने ठोकर चलायी ही थी कि राजा साहब ने उसकी कमर पकटकर इतने जोर से पटका कि वह चारो खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। फिर उठना चाहता था कि राजा साहब उसकी छाती पर चढ़ बैठे और उसका गला जोर से दबाया। कौड़ी-सी आँखें निकल आयीं। मुँह से फिचकुर बहने लगा। सारा नशा, सारा क्रोध, सारा रोब, सारा अभिमान, रफू-चक्कर हो गया।
राजा ने गला छोड़कर कहा—गला घोंट दूँगा, इस फेर में मत रहना। कच्चा ही चबा जाऊँगा। चपरासी या अहलकार नहीं हूँ कि तुम्हारी ठोकरें सह लूँगा।
जिम—राजा साहब, आप सचमुच नाराज हो गया। मैं तो आपसे दिल्लगी करता था। आप तो पहलवान है। आप दिल्लगी मे बुरा मान गया।
राजा—बिलकुल नहीं। मैं दिल्लगी कर रहा हूँ। अब तो आप फिर मेरे साथ दिल्लगी न करेंगे?
जिम—कबी नईं, कबी नईं।
राजा—मैंने जो अर्ज की थी, वह आप मानेंगे या नहीं?
जिम—मानेंगे, मानेंगे, हम सुबह होते ही हुक्म देगा।
राजा—दगा तो न करोगे?
जिम—कबी नईं, कबी नईं। आप भी किसी से यह बात न कहना।
राजा—दगा की, तो इसी तरह फिर पटकूँगा, याद रखना। यह कहकर राजा साहब मिस्टर जिम को छोड़ कर उठ गये। जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया। जरा भी शोर गुल न हुआ। जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने यह मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी।
राजा साहब दिल में सोचते जाते थे कि देखें वादा पूरा करता है या मुकर जाता है। कहीं कल कोई शरारत न करे। उँह, देखी जायगी। इस वक्त तो ऐसी पटकनी दी है कि बचा याद करते होंगे। यह सब वादे के तो सच्चे होते हैं। सुबह को दखूँगा। अगर हुक्म न दिया, तो फिर जाऊँगा। इतना डर तो उसे भी होगा कि मैंने दगा की, तो वह भी कलई खोल देगा। सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा करेगा। मनोरमा अपने घर चली गयी होगी। तड़के ही जाकर उसे यह खबर सुनाऊँगा। खिल उठेगी। आह! उस वक्त उसकी छवि देखने ही योग्य होगी।
राजा साहब घर पहुँचे, तो डेढ़ बज गया था, पर अभी तक सोता न पड़ा था। नौकर-चाकर उनकी राह देख रहे थे। राजा साहब मोटर से उतरकर ज्योंही बरामदे में पहुँचे, तो देखा मनोरमा खड़ी है। राजा साहब ने विस्मित होकर पूछा—क्या तुम घर नहीं गयीं? तब से यहीं हो? रात तो बहुत बीत गयी।
मनोरमा—एक किताब पढ़ रही थी। क्या हुआ?
राजा—कमरे में चलो, बताता हूँ।
राजा साहब ने सारी कथा आदि से अन्त तक बड़े गर्व के साथ खूब नमक लगाकर बयान की। मनोरमा तन्मय होकर सुनती रही। ज्यों-ज्यों वह यह यह वृत्तान्त सुनती थी, उसका मन राजा साहब की ओर खिंचा जाता था। मेरे लिए उन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा। जब वृत्तान्त समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गद् होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और काँपती हुई आवाज से बोली—मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूँगी।
आज ज्ञातरूप से उसके हृदय में प्रेम का अंकुर पहली बार जमा। वह एक उपासक की भाँति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आयी थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी। फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आँखों में समायी हुई थी। उसके रोम रोम से यही ध्वनि निकलती थी—आपका एहसान कभी न भूलूँगी। स्तुति के शब्द उसके मुँह तक आकर रह गये।
वह घर चली, तो चारो ओर अंधकार और सन्नाटा था; पर उसके हृदय में प्रकाश फैला हुआ था और प्रकाश में संगीत की मधुर ध्वनि प्रवाहित हो रही थी। एक क्षण के लिए वह चक्रधर की दशा भी भूल गयी, जैसे मिठाई हाथ में लेकर बालक अपने छिदे हुए कान की पीड़ा भूल जाता है।