कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ९० से – ९७ तक

 

१२

दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गयी, लेकिन चक्रधर ने माता पिता से अहल्या का वृत्तान्त गुप्त ही रखा। जब मुशीजी पूछते—वहाँ क्या बात कर आये? आखिर यशोदानन्दन को विवाह करना है या नहीं? न आते हैं, न चिट्ठी-पत्री लिखते हैं, अजीब आदमी हैं। न करना हो, तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। ख्वाहमख्वाह झमेले में फँसा रखा है—तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानन्दन बार-बार लिखते, तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूँ? आखिर इस तरह कबतक समय टालोगे? अहल्या तुम्हारे सिवा किसी और से विवाह न करेगी। यह मानी हुई बात है। फिर उसे वियोग का व्यर्थ क्यों कष्ट देते हो। चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्योंही मौका मिला, जिक्र करूँगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायँगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च माँगा जाय। अब वह मनमाना दहेज ले सकते थे और धूमधाम से बारात निकाल सकते थे। राजा साहब जरूर उनकी मदद करेंगे, लेकिन मुंशी यशोदानन्दन को वचन दे चुके थे, इस लिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलम्ब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहाँ विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा—मुंशी यशोदानन्दन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं। क्या समझते हैं कि मैं गरजू हूँ?

चक्रधर—उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इन्तजार कर रहे हैं।

वज्रधर—मैं तो तैयार हूँ, लेकिन अगर उन्हें कुछ पशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। उन्हें अख्तियार है, जहाँ चाहें करें। यहाँ सैकड़ों आदमी मुँह खोले हुए हैं। उस वक्त जो बात थी, वह अब नहीं है। तुम आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें। उन्हें समझता क्या हूँ। तुम देखोगे कि उनके जैसे आदमी इसी द्वार पर नाक रगड़ेंगे। आदमी को बिगड़ते देर लगती है बनते देर नहीं लगती। ईश्वर ने चाहा, तो एक बार फिर धूम से तहसीलदारी करूँगा।

चक्रधर ने देखा कि अब अवसर आ गया है। इस वक्त चूके तो फिर न जाने कब ऐसा अच्छा मौका मिले। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए। बोले—उन्हें तो कोई पशोपेश नहीं। पशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि वह कन्या मुंशी यशोदानन्दन की पुत्री नहीं है।

वज्रधर—पुत्री नहीं है। वह तो लड़की ही बताते थे। तुम्हारे सामने की तो बात है। खैर, पुत्री न होगी, भतीजी होगी; भाञ्जी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से? जब लड़की तुम्हें पसन्द है और वह अच्छा दहेज दे सकते हैं, तो मुझे और किसी बात की चिन्ता नहीं।

चक्रधर—वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उसपर दया आ गयी, घर लाकर पाला, पढ़ाया लिखाया।

वज्रधर—(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमीं है। क्या अभी तक लड़की के मा-बाप का पता नहीं चला?

चक्रधर—जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की, पर कोई फल न निकला।

वज्रधर—अच्छा, तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा श्रादमी है, बना हुआ मक्कार।

निर्मला—जो लोग मीठी बातें करते, उनके पेट में छुरी छिपी रहती है। न जाने किस जाति की लड़की है। क्या ठिकाना। तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!

वज्रधर—मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हीं ने इतने दिनों नेक नामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए।

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा—कमल दावात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूँ। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।

चक्रधर आरक्त मुख और संकोच रुद्ध कण्ठ से बोले—मैं तो वचन दे आया हूँ।

निर्मला—चल, झूठा कहीं का, खा मेरी कसम!

चक्रधर—सच अम्माँ, तुम्हारे सिर की कसम।

वज्रधर—तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। फिर मुझसे क्या सलाह पूछते हो? आखिर विद्वान् हो, बालिग हो, अपना भला-बुरा सोच सकते हो, मुझसे पूछने की जरूरत ही क्या, लेकिन तुमने लाख एम॰ ए॰ पास कर लिया हो, वह तजुरबा कहाँ से लाओगे, जो मुझे है। इसी लिए तो मक्कार तुम्हें यहाँ से ले गया था। तुमने लड़की सुन्दर देखी, रीझ गये, मगर याद रखो स्त्री में सुन्दरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज यह शादी न करने दूँगा।

चक्रधर—अगर और लोग भी यही सोचने लगें तो सोचिए, उस बालिका की क्या दशा होगी?

वज्रधर—तुम कोई शहर के काजी हो? तुमसे मतलब? बहुत होगा, जहर खालेगी। तुम्हीं को उसकी सबसे ज्यादा फिक्र क्यों है? सारा देश तो पड़ा हुआ है।

चक्रधर—अगर दूसरों को अपने कर्तव्य का विचार न हो, तो इसका यह मतलब नहीं कि मैं भी अपने कर्तव्य का विचार न करूँ।

वज्रधर—कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी! जिस लड़की के मा-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबाओगे? ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म भी नहीं आती।

चक्रधर—मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।

वज्रधर—तुम्हारे सिर नयी रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था। एकाएक यह क्या कायापलट हो गयी?

चक्रधर—मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊँ, आपकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करूँ, लेकिन सिद्धान्त के विषय में मजबूर हूँ।

वज्रधर—सेवा करना तो नहीं चाहते, मुँह में कालिख लगाना चाहते हो, मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाये कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूँ।

चक्रधर—तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूँगा।

यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आये और बाबू यशोदानन्दन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अन्तिम शब्द ये थे—'पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धान्त के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता, लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुँचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यन्त अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असम्भव है कि कहीं और विवाह कर लूँ। जिस तरह अपनी इच्छा से विवाह करके माता पिता को दुखी करने की कल्पना नहीं सकता, उसी तरह उनकी इच्छा से विवाह करके जीवन व्यतीत करने की कल्पना मेरे लिए असह्य है।

इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहिल्या के नाम लिखा। यह काम इतना आसान न था, प्रेम पत्र की रचना कवित्त की रचना से कहीं कठिन होती है। कवि चौड़ी सड़क पर चलता है, प्रेमी तलवार की धार पर। तीन बजे कहीं जाकर चक्रधर ने यह पत्र पूरा कर पाया। उसके अन्तिम शब्द ये थे—'हे प्रिये मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। उनकी सेवा में अपने प्राण तक दे सकता हूँ, किन्तु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ, केवल इतनी ही याचना करता हूँ कि मुझपर दया करो।'

दोनों पत्रों को डाकघर में डालते हुए वह मनोरमा को पढ़ाने चले गये।

मनोरमा बोली—आज आप बड़ी जल्दी आ गये; लेकिन देखिए, मै आपको तैयार मिली। मैं जानती थी कि आप आ रहे होंगे, सच

चक्रधर ने मुस्कराकर पूछा—तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मै आ रहा हूँ?

मनोरमा—यह न बताऊँगी; किन्तु मैं जान गयी थी। अच्छा कहिए तो आपके विषय में कुछ और बताऊँ। आज आप किसी न किसी बात पर रोये हैं। बताइए, सच है कि नहीं?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा—झूठी बात है, मैं क्यों रोता, कोई बालक हूँ?

मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं। क्या रोना और हँसना बालकों ही के लिए हैं? जवान और बूढे नहीं रोते?

चक्रधर पर उदासी छा गयी। हँसने की विफल चेष्टा करके बोले—तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे दिव्य ज्ञान की प्रशंसा करूँ। वह मैं न करूँगा।

मनोरमा—अन्याय की बात दूसरी है; लेकिन आपकी आँखें कहे देती हैं कि आप रोये हैं। (हँसकर) अभी आपने वह विद्या नहीं पढ़ी, जो हँसी को रोने का और रोने को हँसी का रूप दे सकती है।

चक्रधर—क्या आजकल तुम उस विद्या का अभ्यास कर रही हो?

मनोरमा—कर तो नहीं रही हूँ; पर करना चाहती हूँ।

चक्रधर—नहीं मनोरमा, तुम वह विद्या न सीखना। मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती।

मनोरमा—होती है, बाबूजी, होती है। इससे सोने का मूल्य चाहे न बढ़े; पर चमक बढ़ जाती है। आपने महारानी की तीर्थ यात्रा का हाल तो सुना ही होगा। अच्छा बताइए, आप इस रहस्य को समझते हैं?

चक्रधर—क्या इसमें भी कोई रहस्य है?

मनोरमा—और नहीं क्या! मै परसों रात को बड़ी देर तक वहीं थी। हर्षपुर के राजकुमार आये हुए थे। उन्हीं के साथ गयी हैं।

चक्रधर—खैर; होगा, तुमने आज क्या काम किया है? लाओ, देखूँ।

मनोरमा—एक छोटा-सा लेख लिखा है; पर आपको दिखाते शर्म आती है।

चक्रधर—तुम्हारे लेख बहुत अच्छे होते हैं। शर्म की क्या बात है? मनोरमा ने सकुचाते हुए अपना लेख उनके सामने रख दिया और वहाँ से उठकर चली गयी। चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गये। विषय था ऐश्वर्य से सुख! वे क्या हैं? काल पर विजय, लोकमत पर विजय, आत्मा पर विजय। लेख में इन्हीं तीनों अंगो की विस्तार के साथ व्याख्या की गयी थी? चक्रधर उन विचारों की मौलिकता पर मुग्ध तो हुए, पर इसके साथ ही उन्हें उनकी स्वच्छन्दता पर खेद भी हुआ। ये भाव किसी व्यंग्य में तो उपयुक्त हो सकते थे, लेकिन एक विचारपूर्ण निबन्ध में शोभा न देते थे। उन्होंने लेख समाप्त करके रखा ही था कि मनोरमा लौट आयी और बोली—हाथ जोड़ती हूँ बाबूजी, इस लेख के विषय में कुछ न पूछिएगा, मैं इसी के भय से चली गयी थी।

चक्रधर—पूछना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो न पूछूँगा। केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्योंकर आये? ऐश्वर्य का सुख विहार और विलास तो नहीं, यह तो ऐश्वर्य का दुरुपयोग है। यह तो व्यंग्य मालूम होता है।

मनोरमा—आप जो समझिए।

चक्रधर—तुमने क्या समझकर लिखा है?

मनोरमा—जो कुछ आँखों देखा, वही लिखा।

यह कहकर मनोरमा ने वह लेख उठा लिया और तुरन्त फाड़ कर खिड़की के बाहर फेंक दिया। चक्रधर 'हाँ हाँ' करते रह गये। जब वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठी, तो चक्रधर ने गम्भीर स्वर से कहा—तुम्हारे मन में ऐसे कुत्सित विचारों को स्थान पाते देखकर मुझे दुख होता है।

मनोरमा ने सजल-नयन होकर कहा—अब मैं ऐसा लेख कभी न लिखूँगी।

चक्रधर—लिखने की बात नहीं है। तुम्हारे मन में ऐसे भाव आने ही न चाहिए। काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यश से, व्रत से। परोपकार ही अमरत्व प्रदान करता है। काल पर विजय पाने का अर्थ यह नहीं है कि कृत्रिम साधनों से भोगविलास में प्रवृत्त हों, वृद्ध होकर जवान बनने का स्वप्न देखें और अपनी आत्मा को धोखा दें। लोकमत पर विजय पाने का अर्थ है, अपने सद्विचारों और सत्कर्मों से जनता का आदर और सन्मान प्राप्त करना। आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषय-वासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है। यह मैं नहीं कहता कि तुमने जो कुछ लिखा है, वह यथार्थ नहीं है। उनकी नग्न यथार्थता ही ने उन्हें इतना घृणित बना दिया है। यथार्थ का रूप अत्यन्त भयंकर होता है और हम यथार्थ ही को आदर्श मान लें, तो संसार नरक के तुल्य हो जाय। हमारी दृष्टि मन की दुर्बलताओं पर पड़नी चाहिए, बल्कि दुर्बलताओं में भी सत्य और सुन्दर की खोज करनी चाहिए। दुर्बलताओं की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं। ऐश्वर्य का एक सुख और है जिसे तुमने न जाने क्यों छोड़ दिया। जानती हो, वह क्या है? मनोरमा—अब उसकी और व्याख्या करके मुझे लज्जित न कीजिए।

चक्रधर—तुम्हें लज्जित करने के लिए नहीं, तुम्हारा मनोरञ्जन करने के लिए बताता हूँ। वह पुरानी बातों को भूल जाता है। ऐश्वर्य पाते ही हमें अपना पूर्व-जीवन विस्मृत हो जाता है। हम अपने पुराने हमजोलियों को नहीं पहचानते। ऐसा भूल जाते हैं, मानो कभी देखा ही न था। मेरे जितने धनी मित्र थे, वे मुझे भूल गये। कभी सलाम करता हूँ, तो हाथ तक नहीं उठाते। ऐश्वर्य का यह एक खास लक्षण है। कौन कह सकता है कि कुछ दिनों के बाद तुम्हीं मुझे न भूल जाओगी!

मनोरमा—मैं आपको भूल जाऊँगी! असम्भव है। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि पूर्व जन्म में भी मेरा और आपका किसी-न-किसी रूप में साथ था। पहले ही दिन से मुझे आपसे इतनी श्रद्धा हो गयी, मानो पुराना परिचय हो। मैं जब कभी कोई बात सोचती हूँ, तो आप उसमें अवश्य पहुँच जाते हैं। अगर ऐश्वर्य पाकर आपको भूल जाने की सम्भावना हो, तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखूँगी।

चक्रधर ने मुस्कराकर—जब हृदय यही रहे तब तो! मनोरमा यही रहेगा, देख लीजिएगा। मैं मरकर भी आपको नहीं भूल सकती।

इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गये। आज वह बहुत प्रसन्नचित्त मालूम होते थे। अभी थोड़ी ही देर पहले राजभवन से लौटकर आये थे। रात को नशा जमाने का अवसर न मिला था, उसकी कसर इस वक्त पूरी कर ली थी। आँखें चढ़ी हुई थीं। चक्रधर से बोले—आपने कल महाराजा साहब के यहाँ उत्सव का प्रबन्ध कितनी सुन्दरता से किया, उसके लिए आपको बधाई देता हूँ। आप न होते, तो सारा खेल बिगड़ जाता। महाराजा साहब बड़े ही उदार आदमी हैं। अब तक मै उनके विषय में कुछ और ही समझे हुए था। कल उनको उदारता और सज्जनता ने मेरा संशय दूर कर दिया। आपसे तो बिल्कुल मित्रों का सा बर्ताव करते हैं।

चक्रधर—जी हाँ, अभी तक तो उनके बारे में कोई शिकायत नहीं है।

हरिसेवक—महाराजा को एक प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत तो पड़ेगी ही। आप कोशिश करें, तो आपको अवश्य ही वह जगह मिल जायगी। आप घर के आदमी है, आपके हो जाने से बड़ा इतमीनान हो जायगा। एक सेक्रेटरी के बगैर महाराजा साहब का काम नहीं चल सकता। कहिए तो जिक्र करूं।

चक्रधर—जी नहीं, अभी तो मेरा इरादा कोई स्थायी नौकरी करने का नहीं है, दूसरे मुझे विश्वास भी नहीं है कि मै उस काम को सँभाल सकूँगा।

हरिसेवक—अजी, काम करने से सब आ जाता है और आपकी योग्यता मेरे सामने है। मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आये, कोई भी दो-चार महीनों से ज्यादा न ठहरा। आप जब से आये हैं इसने बहुत खासी तरक्की कर ली है। मैं अब तक आपकी तरक्की नहीं कर सका, इसका मुझे खेद है। इस महीने से आपको ५०) महीने मिलेंगे, यद्यपि मैं इसे भी आपकी योग्यता और परिश्रम को देखते बहुत कम समझता हूँ।

लौंगी देवी भी आ पहुँचीं। कही बदी बात थी। ठाकुर साहब का समर्थन करके बोलीं—देवता-रूप हैं, देवता-रूप! मेरी तो इन्हें देखकर भूख प्यास बन्द हो जाती है।

हरिसेवक—तो तुम इन्हीं को देख लिया करो, खाने का कष्ट न उठाना पड़े।

लौंगी—मेरे ऐसे भाग्य कहाँ। क्यों बेटा, तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेते?

चक्रधर—जितना आप देती हैं, मेरे लिए उतना ही काफी है।

लौंगी—इसी से शादी-ब्याह नहीं करते? अब की लाला (वज्रधर) आते हैं, तो उनसे कहती हूँ, लड़के को कब तक छटा रखोगे।

हरिसेवक—शादी यह खुद ही नहीं करते, वह बेचारे क्या करें। यह स्वाधीन रहना चाहते हैं।

लौंगी—तो कोई रोजगार क्यों नही करते, बेटा?

चक्रधर—अभी इस चरखे में नहीं पहना चाहता।

हरिसेवक—यह और ही विचार के आदमी हैं। माया फाँस में नहीं पड़ना चाहते।

लौंगी—धन्य है, बेटा! धन्य है। तुम सच्चे साधु हो।

इस तरह की बातें करके ठाकुर साहब अन्दर चले गये लौंगी भी उनके पीछे पीछे चली गयी। मनोरमा सिर झुकाये दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल काँप रहा था। किसी आदमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती ही है। आज दादाजी इतने उदार क्यों हो रहे हैं? आज तक इन्होंने किसीको पूरा वेतन भी नहीं दिया, तरक्की करने का जिक्र ही क्या। आज विनय और दया की मूर्ति क्यों बने जाते हैं, इसमें अवश्य कोई रहस्य है। बाबूजी से कोई कपट-लीला तो नहीं करना चाहते हैं? जरूर यही बात है। कैसे इन्हें सचेत कर दूँ?

वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कन्धे पर बन्दूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आये और बोले—कहिए महाशय, दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे।

चक्रधर ने कहा—यह उनकी कृपा है।

गुरुसेवक—कृपा के धोखे में न रहिएगा। ऐसे कृपालु नहीं हैं। इनका मारा पानी भी नहीं माँगता। इस डाइन ने इन्हें पूरा राक्षस बना दिया है। शर्म भी नहीं आती। आपसे जरूर कोई मतलब गाँठना चाहते हैं।

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा—लौंगी अम्मा से आपका मेल नहीं हुआ?

गुरुसेवक—मेल? मैं उससे मेल करूँगा! मर जाय, तो कन्धा तक न दें। डाइन है, लंका की डाइन, उसके हथकण्डों से बचते रहिएगा। वेतन कभी बाकी न रखिएगा। दादाजी को तो इसने बुद्धू बना छोड़ा है। दादाजी जब किसी पर सख्ती करते हैं तो तुरन्त घाव पर मरहम रखने पहुँच जाती हैं। आदमी धोखे में आकर समझता है, यह दया और क्षमा की देवी है | वह क्या जाने कि यही आग लगानेवाली है और बुझाने-वाली भी। इसका चरित्र समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी बड़े पण्डित की जरू-रत है।

चक्रधर ने श्राकाश की ओर देखा, तो घटा घिर आई थीं । पानी बरसा ही चाहता था। उठकर बोले-आप इस विद्या में बहुत कुशल मालुम होते हैं ।

जब वह बाहर निकल गये, तो गुरुसेवक ने मनोरमा से पूछा-आज दोनो इन्हें क्या पढ़ा रहे थे ?

मनोरमा-कोई खास बात तो नहीं थी।

गुरुसेवक-यह महाशय भी बने हुए मालूम होते हैं । सरल जीवनवालों से बहुत घबराता हूँ। जिसे यह राग अलापते देखो, समझ जाओ कि या तो उसके लिए अंगूर खट्टे हैं, या वह स्वांग रचकर कोई बड़ा शिकार मारना चाहता है।

मनोरमा-बाबूजी उन यादमियों में नहीं हैं।

गुरुसेवक-तुम क्या जानों। ऐसे गुरुघण्टालों को मैं खूब पहचानता हूँ।

मनोरमा-नहीं भाई साहब, बाबूजी के विषय में आप धोखा खा रहे हैं । महा-राजा साहब इन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते हैं, लेकिन यह मंजूर नही करते ।

गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो ४-५ सौ से कम न होगा ।

मनोरमा--इससे क्या कम होगा। चाहें तो इन्हें अभी वह जगह मिल सकती है । राजा साहब इन्हें बहुत मानते हैं, लेकिन यह कहते हैं, मैं स्वाधीन रहना चाहता हूँ। यहाँ भी अपने घरवालो के बहुत दबाने से आते हैं।

गुरुसेवक-मुझे वह जगह मिल जाय, तो बड़ा मजा आये ।

मनोरमा--मैं तो समझती है, इसका दुगुना वेतन मिले, तो भी बाबूजी स्वीकार न करेंगे। सोचिए, कितना ऊँचा आदर्श है !

गुरुसेवक-मुझे किसी तरह वह जगह मिल-जातो, तो जिन्दगी बड़े चैन से कटती ।

मनोरमा-अब गाँवों का सुधार न कीजिएगा ?

गुरुसेवक-वह भी करता रहूँगा, यह भी करता रहूँगा। राजमन्त्री होकर प्रजा की सेवा करने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना स्वाधीन रहकर नहीं। कोशिश करके देखू, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।

यह कहते हुए वह कमरे में चले गये।

मेघों का दल उमडा चला पाता था । मनोरमा खिड़की के सामने खड़ी अाकाश को ओर भयातुर नेत्रों से देख रही थी। अभी वाबूजी घर न पहुँचे होंगे। पानी या गया तो जरूर भीग जायँगे । मुझे चाहिये था कि उन्हें रोक देती । भैया न आ जाते, तो शायद वह अभी खुद ही बैठते । ईश्वर करे, वह घर पहुंच गये हों।