कवि-रहस्य/6 शब्द स्वरूप
व्याकरणशास्त्र के अनुसार जिसका रूप निर्णीत हो उसे 'शब्द' कहते हैं । निरुक्त-निघंटु-कोश आदि से निर्दिष्ट जो उस शब्द का अभिधेय है-वही उसका 'अर्थ' है । शब्द और अर्थ दोनों मिलकर 'पद' कहलाते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि जब तक हम किसी शब्द का अर्थ नहीं जानते तब तक हमारे लिए वह 'पद' नहीं है । पदों की वृत्ति पाँच प्रकार की है--सुब्वृत्ति, समासवृत्ति, तद्धितवृत्ति, कृवृत्ति, तिब्वृत्ति ।
सुब्वृति केभी पाँच भेद हैं । (१) जातिवाचक--‘गाय’, ‘घोड़ा’,‘पुरुष’, ‘हाथी’ । (२) द्रव्य (व्यक्ति) वाचक-‘हरि’, ‘हिरण्यगर्भ’,‘काल’, ‘आकाश’, ‘दिक्’। (३) गुणवाचक-‘श्वेत’, ‘कृष्ण’, ‘लाल’,
‘पीला’। (४) असत्त्ववाचक (जो किसी वस्तु का वाचक नहीं है)--जैसे प्रादि उपसर्ग । (५) कर्मप्रवचनीय--‘को’, ‘पर’ इत्यादि । यह पाँच प्रकार की सुब्वृत्ति समस्त वाङमय की ‘माता’ कहलाती हैं ।
सुब्वृत्ति ही समासवृत्ति है । भेद इतना ही है कि सुब्वृत्ति में शब्द व्यस्त रूप में--अलग अलग--रहते हैं और समासवृत्ति में समस्त--मिले हुए--रूप में इसके छः भेद हैं । इनके नाम चमत्कार के साथ इस श्लोक में कहे गए हैं--
द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥
इसका व्यंग्य अर्थ ऐसा है--‘मैं घर में द्वन्द्व (दो प्राणी, स्त्री-पुरुष) हूँ । द्विगु हूँ (दो बैल मेरे पास हैं ) । मेरे घर में नित्य अव्ययी-भाव रहता है (खरचा नहीं चलता ) । तत्पुरुष (इसलिए हे पुरुष महाशय) कर्मधारय (ऐसा काम करो) जिससे मैं बहुव्रीहि (अधिक अन्नवाला) हो जाऊँ ।’ व्यंग्यार्थ के द्वारा छः समासों के नाम भी बतलाए गए हैं ।
तद्धितवृत्तियाँ अनन्त हैं । ये वृत्तियाँ प्रातिपादिकसम्बन्धी होती हैं । जैसे ‘सिन्धु’ से ‘सैन्धव’, ‘लोक’ से ‘लौकिक’ ‘मुख’ से ‘मौखिक’ इत्यादि ।
कृद्वृत्ति धातु-सम्बन्धी होती है । ‘कृ’ धातु से ‘कर्ता’, ‘ह’ धातु से ‘हर्ता’ इत्यादि ।
‘तिब्वृत्ति’--दसों लकार लट् लिट् इत्यादि द्वारा--दस प्रकार की होती है । इसके भी दो प्रभेद ह-शुद्ध-धातुसम्बन्धी--जैसे ‘करोति’ ‘हरति’ इत्यादि-और नामधातु-सम्बन्धी जैसे ‘पल्लवयति’ ‘पुत्रीयति’ इत्यादि ।
ये पाँच प्रकार के पद परस्पर अन्वित होकर अनन्त रूप धारण करते हैं । इसी अनन्त रूप के प्रसंग यह उक्ति प्रसिद्ध है कि--‘बृहस्पति वक्ता थे, इन्द्र श्रोता, १००० दैवी वर्ष तक कहते रहे--पर--शब्दराशि का अन्त नहीं हुआ ।’
विदर्भदेश के वासी अपने बोल-चाल और लेखों में सुवृत्ति का
जिस अर्थ का कहना इष्ट है उस अर्थ के बोधक पदों के समूह को ‘वाक्य’ कहते हैं । वाक्य के बोधन प्रकार तीन हैं--वैभक्त, शाक्त, तथा शक्तिविभक्तिमय । प्रतिपद के साथ जो उपपद या कारक विभक्ति लगी हैं उनके द्वारा जो बोध होता है सो ‘वैभक्त’ है । जहाँ विभक्ति लुप्त हैं--जैसे समासों में--तहाँ जो बोध होता है सो केवल शब्दों के शक्ति द्वारा--इससे इसे ‘शाक्त’ कहते हैं । जिस वाक्य में दोनों तरह के पद हैं वहाँ शक्तिविभक्तिमय है ।
वाक्य के दस भेद हैं:--
(१) एकाख्यात--जिसमें एक ही क्रियापद है ।
(२) अनेकाख्यात--जिसमें अनेक क्रिया हैं । यहाँ अनेक क्रियापद होने के कारण यद्यपि अनेक वाक्य भासित होते हैं तथापि परस्पर सम्बद्ध होने के कारण ये मिलकर एक ही वाक्य समझे जाते हैं ।
(३) आवृत्ताख्यात--जिसमें एक ही क्रियापद बारम्बार आया है ।
(४) एकाभिधेयाख्यात--जिसमें एक ही अर्थ के कई क्रियापद हैं । जैसे--
हृष्यति चूतेषु चिरं, तुष्यति वकुलेषु, मोदते मरुति ।
(५) परिणताख्यात--जिसमें एक ही क्रियापद कई बार आवे पर स्वरूप-भेद से जैसे--
सोऽस्मिन्जयति जीवातुः पञ्चेषोः पंचमध्वनिः ।
ते च चैत्रे विचित्रलाकक्कोलीकेलयोऽनिलाः ॥
यहाँ ‘अनिलाः’ का क्रियापद ‘जयन्ति’ होगा--जो पहली पंक्ति के ‘जयति’ पद का परिणत रूप है ।
(६) अनुवृत्ताख्यात--जिसमें पूर्व वाक्यगत क्रियापद द्वितीय वाक्य के साथ पहले ही स्वरूप में अन्वित होता है । जैसे--
चरन्ति चचतुरम्भोधिबेलोद्यानेषु दन्तिनः ।
चक्रबालाद्रिकुञ्जेषु कुन्दभासो गुणाश्च ते ॥
यहाँ ‘चरन्ति’ क्रियापद का उसी रूप में ‘गुणाः’ के साथ भी अन्वय है ।
(७) समचिताख्यात——जहाँ एक ही क्रियापद ऐसा चुनकर रवखा गया जो उपमान उपमेय दोनों में यथावत् लगता है । जैसे--
परिग्रहभराक्रान्तं दौर्गत्यगतिचोदितम् ।
मनो गन्त्रीव कुपये चीत्करोति च याति च ॥
(८) अध्याहृताख्यात——जहाँ क्रियापद स्पष्ट नहीं है पर अध्याहृत हो सकता है--जैसे
चन्द्रचूडः श्रिये स वः
यहाँ ‘भूयात्’ अध्याहृत है ।
(९) कृदभिहिताख्यात——जहाँ क्रियापद का काम कृदन्तपद देता है--जैसे
अभिमुखे मयि संहृतमीक्षितम्
यहाँ ‘ईक्षितं समहार्षीत’ की जगह ‘ईक्षितं संहृतम्’ है । (१०) अनपेक्षिताख्यात——जहाँ क्रियापद के उल्लेख की आवश्यकता नहीं है । जैसे--
कियन्मात्रं जलं विप्र
यहाँ ‘अस्ति’, ‘भवति’ का प्रयोजन नहीं है
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गुण और अलंकारसहित वाक्य ही को ‘काव्य’ कहते हैं । काव्य के लक्षण के प्रसंग ग्रन्थों में अनन्त शास्त्रार्थ है । इस विचार का यहाँ अवसर नहीं है ।
काव्य के विरुद्ध कई आक्षेप किये जाते हैं ।
(१) काव्यों में प्रायः मिथ्या ही बातों के वर्णन पाये जाते हैं । इसलिए काव्य का उपदेश अनुचित है——
उपवीणयन्ति परमप्सरसो नृपमानसिंह तव दानयशः ।
सुरशाखिमौलिकुसुमस्पृहया नमनाय तस्य यतमानतमाः॥
मानसिंह की प्रशंसा में कवि कहता है——‘अप्सरा लोग आपके दान का यश गाती हैं--क्यों ?--कल्पद्रुम की ऊपरवाली डारों में जो फूल लगे हैं उनको वे तोड़ना चाहती हैं--जब तक पेड़ का सिर नीचा नहीं होगा तब तक यह नहीं हो सकता--इसलिए कल्पतरु से अधिक दानी के यश का वर्णन सुनकर उनका माथा अवश्य नीचा होगा फिर फूल चुनना सुकर हो जायगा’। यहाँ सभी बातें मिथ्या है--न अप्सरायें ऊपर का फूल चुनना चाहती हैं——न मानसिंह के दानयश को गाती हैं ।
पर यह आक्षेप ठीक नहीं । किसी की स्तुति में यदि अर्थवाद का प्रयोग किया जाय तो वह मिथ्या नहीं कहा जा सकता । विशेष कर जब स्तुत पुरुष स्तुति का पात्र है । और फिर ऐसी काल्पनिक उक्तियाँ तो काव्यों ही में नहीं––श्रुति और शास्त्रों में भी अनेक पाई जाती हैं––जैसे
यस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले ।
सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविदुष्यति चापशब्दैः ॥
यहाँ कहा है कि जो शुद्ध शब्दों का प्रयोग करता है सो परलोक में अनन्त फल पाता है । यहाँ अत्युक्ति स्पष्ट है ।
(२) काव्य के प्रति दूसरा आक्षेप यह है कि काव्यों में असदुपदेश पाये जाते हैं । जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री अपनी कन्या से कहती है——‘न मे गोत्रे पुत्रि क्वचिदपि सतीलाञ्छनमभूत्’(मेरे कुल में कभी पवित्र होने का कलंक नहीं लगा है) ।
इसका समाधान यह है——यह केवल उल्टा उपदेश का प्रकार है । सच्चरित्र होना उचित है, इस सीधे उपदेश का उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उलटे उपदेश की हँसी उड़ाने का । इसी उपदेशप्रकार का अवलंबन ऐसे श्लोकों में किया जाता है । जैसे--किसी ने अपने मित्र की बड़ी हानि की--तिस पर जिसकी हानि हुई वह कहता है——
उपकृतं बहु मित्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता परा।
विवधदीदृशमेव सदा सखे सुखितमास्स्व ततः शरदां शतम् ॥
‘आपने बड़ा उपकार किया––अपनी सज्जनता प्रकट की । ऐसा ही उपकार करते हुए आप चिरंजीवी हों’ ।
(३) तीसरा आक्षेप काव्य के प्रति यह है कि इसमें अश्लील शब्द और अर्थ पाये जाते हैं ।
इसका समाधान यह है——जहाँ जैसा प्रक्रम आ जाय वहाँ वैसा वर्णन करना उचित ही है । अश्लील काव्यों के द्वारा भी अच्छे-अच्छे उपदेश हो सकते हैं । और अश्लील वाक्य तो वेदों में और शास्त्रों में भी पाये जाते हैं । फिर काव्यों ही पर यह आक्षेप करना उचित नहीं है ।
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वाक्य ही को ‘वचन’ ‘उक्ति’ कहते हैं । कहनेवालों के भेद के अनुसार वचन तीन प्रकार के माने गये हैं--ब्राह्म, शैव, वैष्णव । वायुपुराण आदि पुराणों में जो वचन ब्रह्मा के कहे हुए मिलते हैं उन्हें ‘ब्राह्म’ कहते हैं । इन ब्राह्म वचनों के पांच प्रभेद हैं--स्वायम्भुव. ऐश्वर, आर्ष, आर्षीक, आर्षि-पुत्रक । ‘स्वयम्भू’ हैं ब्रह्मा--उनके वचन 'ब्राह्म’ हैं । ब्रह्म के सात मानस-पुत्र-भृगु (अथवा वसिष्ठ), मरीचि, अंगिरस्, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह,ऋतु--का नाम है ‘ईश्वर’--इनके कहे हुए वचन ‘ऐश्वर’ हैं । इन ईश्वरों के पुत्र हैं ऋषिगण--इनके वचन हैं ‘आर्ष’। ऋषियों की सन्तान हैं ऋषीकगण--इनके वचन हैं ‘आर्षिक’ । ऋषिकों के पुत्र हैं ऋषि-पुत्रक--इनके वचन हैं ‘आर्षिपुत्रक’ ।
इन पाँचों वचनों के लक्षण यों हैं--
(१) सर्वभूतात्मकं भूतं परिवादं च यद् भवेत् ।
क्वचिन्निरूमोक्षार्थ वाक्यं स्वायम्भुवं हि तत् ॥
अर्थात्--‘स्वायम्भुव’ वाक्य वह है जो सकल जीव-जन्तु के प्रसंग यथावत् उक्ति है और कहीं-कहीं मोक्ष का भी साधक है ।
(२) व्यक्तक्रममसंक्षिप्तं दीप्तगम्भीरमर्थवत् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च लक्ष्यतामैश्वरं वचः॥
‘ऐश्वर’ वचन वह है जिसका क्रम स्पष्ट है--संक्षिप्त नहीं है--उज्वल-गम्भीर-अर्थ से भरा--प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी ।
(३) यत्किञ्चिन्मन्त्रसंयुक्तं युक्तं नामविभक्तिभिः ।
प्रत्यक्षाभिहितार्थ च तवृषीणां वचः स्मृतम् ॥
‘आर्ष’ वचन वह है जिसमें कुछ मन्त्र मिले हैं--नाम और विभक्ति से संयुक्त हैं——और जिसका अर्थ स्पष्ट उक्त है ।
(४) नैगमैविविधः शब्दैर्पातबहुलं च यत् ।
न चापि सुमहद्वाक्यमृषीकाणां वचस्तु तत् ॥
‘आर्षीक’ बचन वह है जिसमें वैदिक शब्द नाना प्रकार के हैं--निपात शब्दों का अधिक प्रयोग है--और बहुत विस्तृत नहीं है ।
(५) अविस्पष्टपदप्रायं यच्च स्याद् बहुसंशयम् ।
ऋषिपुत्रवचस्तत् स्यात् सपर्वपरिदेवनम् ॥
‘आर्षिपुत्रक’ वचन बह है जिसमें बहुत से पद स्पष्ट नहीं हैं-- जो बहुत संदिग्ध है--और सब लोगों के परिदेवन के सहित है ।
इनके प्रत्येक के उदाहरण पुराणों में मिलते हैं ।
वचन के विषय में प्राचीन ‘सारस्वत’ कवियों का सिद्धांत ऐसा है——
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, गुह, बृहस्पति, भार्गव इत्यादि ६४ शिष्यों के प्रति जो उपदेश वाक्य है उसे ‘पारमेश्वर’ कहते हैं । वही पारमेश्वर वचन क्रम से देव और देवयोनियों में यथामति व्यवहृत होने पर ‘दिव्य’ कहलाया । देव——योनि हैं-विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, रक्षस्, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, गुहयक,भूत और पिशाच । इनमें पिशाचादि--जो शिव के अनुचर हैं——अपने स्थान में संस्कृत बोलते हैं पर मर्त्यलोक में जब उनके वचन लिखे जायेंगे तो भूतभाषा में । अप्सराओं की उक्ति प्राकृत भाषा में ।
यह ‘दिव्य’ वचन चार प्रकार का होता है--वैबुध, वैद्याधर, गान्धर्व और योगिनीगत । इनमें (१) ‘वैबुध’ वचन समस्त और व्यस्त दोनों प्रकार के पद सहित हैं--शृंगार और अद्भुतरस से पूर्ण-अनुप्रास
शब्द नहीं रहते ।
इन ‘दिव्य’ वचनों का उपदेश इसलिए आवश्यक है कि नाटकों में जब कवि इन देवताओं या देवयोनियों की उक्तियों को लिखेगा तो उनके वचन किस प्रकार के होने चाहिए सो जाने बिना कैसे लिख सकेगा ?
यह बात प्रसिद्ध है कि मर्त्यलोक में अवतार लेने पर जैसे वचनों में भगवान् वासुदेव की अभिरुचि थी वही ‘वैष्णव’ वचन है--उसी को ‘मानुष’ वचन भी कहते हैं ।
इस ‘वैष्णव’ ‘मानुष’ वचन के तीन भेद हैं --जिसे तीन ‘रीति’ कहते हैं । इनके नाम हैं--वैदर्भी, गौडी, पांचाली ।
इसके अतिरिक्त ‘काकु’ अनेक प्रकार की होती है । ‘काकु’ ध्वनि(उच्चारण) के विकार का नाम है। राजशेखर ने इसका लक्षण लिखा है ‘अभिप्रायवान् पाठधर्मः काकु:’--अर्थात् किसी अभिप्रायविशेष से यदि उच्चारण के स्वरादि में कुछ विलक्षण परिवर्तन कर दिया जाय उसी को ‘काकु’ कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है--साकांक्ष, निराकांक्ष । जिस काकु के समझने में दूसरे वाक्य की अपेक्षा होती है वह काकु साकांक्ष है । जो काकु वाक्य के बाद स्वतन्त्र रूप से भासित हो सो निराकांक्ष है । साकांक्ष काकु तीन प्रकार की है--आक्षेपगर्भ, प्रश्नगर्भ, वितर्कगर्भ । निराकांक्ष काकु भी तीन प्रकार की है--विधिरूप, उत्तररूप, निर्णयरूप । इनके अतिरिक्त मिश्रित काकु के अनन्त प्रकार हैं । जैसे अनुज्ञा-उपहास-मिश्रित, अभ्युमगम-अनुनय-मिश्रित इत्यादि । जो अर्थ का चमत्कार केवल शब्दों से नहीं निकलता सो काकु से निकलता है ।
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