कवि-रहस्य/5 'कवि' लक्षण तथा भेद
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प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों जिसमें है वही 'कवि' है। 'कवि' तीन प्रकार के होते हैं—(१) शास्त्रकवि, (२) काव्यकवि, (३) शास्त्र-काव्योभयकवि। कुछ लोगों का सिद्धांत है कि इनमें सबसे श्रेष्ठ शास्त्रकाव्योभयकवि, फिर काव्यकवि, फिर शास्त्रकवि। पर यह ठीक नहीं। अपने अपने क्षेत्र में तीनों ही श्रेष्ठ हैं—जैसे राजहंस चन्द्रिका का पान नहीं कर सकता पर नीरक्षीरविवेक वही करता है । कोई अपनी सहृदयता ही के द्वारा काव्यमर्म समझता है--कोई काव्य से उत्पन्न सात्विकादि अनुभावों के द्वारा समझता है । फिर कोई भावक ऐसा होता है जिसकी दृष्टि केवल दोष ही पर जाती है--किसी की दृष्टि गुणों ही पर--और किसी की दृष्टि जाती है दोनों पर, किन्तु गुणों का तो वह आदर करता है और अवगुणों का परित्याग--जैसा एक पुरानी उक्ति में कहा है--
गुणदोषौ बुधो गृह्णन् इन्दुश्येडाविवेश्वरः ।
रसा श्लाघते पूर्व परं कण्ठे नियच्छति ॥
पण्डित गुण-दोष दोनों का ग्रहण करके गुण की प्रशंसा करके व्यवहार करते हैं पर दोष को अपने हृदय के भीतर ही डाल देते हैं । जैसे शिवजी ने समुद्रमन्थन-काल में चन्द्रमा और विष दोनों का ग्रहण किया--पर चन्द्र को तो सिर पर रक्खा और विष को शरीर के अन्दर ।
चकोर यद्यपि नीरक्षीरविवेक नहीं कर सकता तथापि चन्द्रिका का पान वही कर सकता है । इसी तरह जैसे शास्त्र-कवि के काव्य में रससम्पत्ति नहीं होती उसी तरह काव्यकवि के काव्य में शास्त्रानुसार तर्क-युक्ति नहीं होती । असल में दोनों बराबर ही हैं--और दोनों को एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है । बात यों है कि शास्त्रज्ञान से जो संस्कार उत्पन्न होता है सो संस्कार काव्यरचना में मदद करती है परन्तु शास्त्र में तन्मय बुद्धि काव्यरचना में बाधा डालती है । इसी तरह काव्यपरिशीलनजनित संस्कार शास्त्रज्ञान में उपकारक होता है--पर काव्य में तन्मय होना शास्त्रज्ञान में बाधक होता है ।
शास्त्रकवि तीन प्रकार के होते हैं--(१) जो शास्त्र का निबन्धन करते हैं--(२) जो शास्त्र में काव्य का सम्मिश्रण करते हैं (जैसे लोलिम्बराज का वैद्यक ग्रन्थ)--(३) जो काव्य में शास्त्रार्थ का सम्मिश्रण करते हैं (जैसे नैषधचरित में दर्शनसर्ग, या शिशुपालबध में राजनीतिसर्ग)।
काव्यकवि के आठ प्रभेद हैं--(१) रचना-कवि (२) शब्द-कवि (३) अर्थ-कवि (४) अलंकार-कवि (५) उक्ति-कवि (६) रसकवि (७) मार्ग-कवि (८) शास्त्रार्थ-कवि । (१) रचना-कवि के काव्य में शब्द का चमत्कार रहता है। अनुप्रास, लम्बे समास, आरभटी रीति इत्यादि । (२) शब्द-कवि तीन तरह के होते हैं-एक जो नाम-शब्द (संज्ञा) का प्रचुर प्रयोग करते हैं । दूसरे आख्यात (क्रिया) का अधिक प्रयोग करते हैं । और तीसरे में नाम आख्यात दोनों का प्रचर प्रयोग रहता है । (३) अर्थ-कवि के काव्य में अर्थ का चमत्कार--(४) अलंकार-कवि के काव्य में अलंकारों का चमत्कार--(५) उक्ति-कवि के काव्य में उक्ति का चमत्कार--(६) रस-कवि के काव्य में रस का चमत्कार-(७) मार्ग-कवि के काव्य में मार्ग (ढंग) का चमत्कार--और (८) शास्त्रार्थ-कवि के काव्य में शास्त्र के गूढ़तत्त्वों को सरस रूप में कहने का चमत्कार रहता है ।
इन आठों गुणों में से दो या तीन गुण जिस कवि के काव्य में हों वह नीच श्रेणी का कवि है । जिसके काव्य में पाँच गुण हों वह मध्यम श्रेणी का कवि है । जिसके काव्य में सभी गुण हों वह ‘महाकवि’ है ।
कवियों की दस अवस्थायें होती हैं। इनमें सात तो ‘बुद्धिमान्’ और ‘आहार्यबुद्धि’ कवियों में और तीन ‘औपदेशिक’ कवि में । ये दसों अवस्थायें यों हैं——
(१) काव्यविद्यास्नातक--जो कवित्व-सम्पादन की इच्छा से काव्य-विद्या और उपविद्या पढ़ने के लिए गुरु के पास जाता है ।
(२) हृदय-कवि--जो मन ही मन काव्य करता है, उसे व्यक्त नहीं करता ।
(३) अन्यापदेशी--काव्य-रचना करके कहीं लोग दुष्ट न कह दें इस डर से दूसरे की रचना कह कर प्रकाश करता है ।
(४) सेविता--काव्य करने का अभ्यास हो जाने पर पुरवासी कवियों में से किसी एक की रचना को आदर्श मान कर उसका अनुकरण करता है ।
(५) घटमान--जो शुद्ध फुटकर कवितायें तो करता है पर कोई प्रबन्ध नहीं रचता ।
(६) महाकवि--जो किसी एक तरह का काव्य-प्रबन्ध रचता है ।
(७) कविराज--जो अनेक भाषाओं में भिन्न-भिन्न रसों के काव्य- प्रबन्धों की रचना करता है । ऐसे कवि संसार में बहुत कम होते हैं ।
(८) आवेशिक--जो मन्त्रादि उपदेश के बल से सिद्धि प्राप्त करके जिस समय उस सिद्धि का प्रभाव रहता है तब तक काव्य करता है ।
(९) अविच्छेदी--जो जभी चाहे निरवच्छिन्न कविता कर सकता है ।
(१०) संक्रामयिता--जो मन्त्र-सिद्धि के बल से अपनी सरस्वती (कवित्व-शक्ति) का कन्याओं या कुमारों में संक्रमण कर सकता है ।
मन्त्रसिद्ध कवियों के दो उदाहरण प्रसिद्ध हैं । पर नाम उनका ज्ञात नहीं है । एक वे जो सभाओं में जाकर जो बात करें सब भुजंगप्रयात छन्द में । उनकी प्रतिज्ञा होती थी ।
अस्यां सभायां ममैषा प्रतिज्ञा भुजंगप्रयातैर्विना वाङ न वाच्या ॥
दूसरे काश्मीर राजा की सभा में जाकर शास्त्रार्थ करने लगे--सभी बात पद्यों ही में कहे । उनके प्रतिवादी कई कक्षा के बाद गद्य में बोलते हुए भी शिथिल पड़ने लगे । तब सिद्धजी ने कहा--
अनवये यदि पद्ये गये शैथिल्यमावहसि ।
तत्कि त्रिभुवनसारा तारानाराधिता भवता ॥
अर्थात्--मेरे अनवद्यपद्यों के सामने गद्य कहते हुए भी आप शिथिल हो चले, सो क्या आपने श्रीतारादेवी की आराधना कभी नहीं की ?
कविता के सतत अभ्यास से सुकवि की रचना परिपक्व होती है । कविता का ‘परिपाक’ क्या है इसमें मतभेद है । वामन का मत है कि जब कविता के शब्द ऐसे ठीक बैठ जायें जिससे एक अक्षर का भी उलट फेर होने से सब बिगड़ जाय तो उस कविता को ‘परिपक्व’ समझना । पर अवन्तिसुन्दरी का मत है कि यह तो एक प्रकार की कवि में न्यूनता है कि अपने काव्य को केवल एक ही तरह की शब्द-रचना में
यह परिपाक नव प्रकार का होता है--(१) आदि में और अन्त में जो विरस है उसे 'पिचुमन्दपाक' कहते हैं । (२) आदि में विरस अन्त में मध्यम उसे ‘वदरपाक’ । (३) आदि में विरस अन्त में सरस उसे ‘मद्वीकापाक’ । (४) आदि में मध्यम अन्त में विरस ‘वार्ताकपाक’ । (५) आदि में और अन्त में मध्यम ‘तिन्तिडीपाक’ । (६) आदि में मध्यम अन्त में सरस ‘सहकारपाक’ । (७) आदि में सरस अन्त में विरस ‘क्रमुकपाक’ । (८) आदि में सरस अन्त में मध्यम ‘पुसपाक’ । (९) आदि में अन्त में सरस ‘नारिकेलपाक’ । इनमें (१), (४), (७) सर्वथा त्याज्य हैं । (२), (५), (८) का संशोधन करना और बाकी (३), (६), (९) का ग्रहण करना चाहिए ।