कवितावली
तुलसीदास, संपादक चंपाराम मिश्र

इलाहाबाद: के. मिश्र, द इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ११७ से – ३३१ तक

 

सवैया

[ १४३ ]

बालि से बोर बिदारि सुकंठ थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे।
पल में दल्यो दालरथा दसकंधर, लंक विभीषन राज विराजे॥
राम सुभाव सुने तुलसी हुलसे अलसी, हमसे गल गाजे।
कायर कूर कपूतन की हद तेउ गरीब नेवाज नेवाजे॥

अर्थ―बालि से वीर को मारकर सुग्रीन को जिसने राज पर बिठाया कि सब देवताओं ने प्रसन्न होकर बाजे बजाये। पल में रावण को रामचन्द्र ने मार डाला और लङ्का के राज पर विभीषण को बिठा दिया। रामचन्द्र के स्वभाव को तुलसीदास सुनकर प्रसन्न होता है कि हमसे आलसियों को गले लगाया अथवा ऐसे आलसी भी प्रसन्न होने पर बड़े बल (ज़ोर) से गाजे (गरजने लगे) अथवा तुलसीदास कहते हैं कि राम का स्वभाव सुनकर आलसी प्रसन्न हुए कि बिना परिश्रम ही तर जावेंगे। कायर कूर कपूतों की जो हद थे उन गरीबों को भी गरीबनिवाज ने निवाजा (अनुगृहीत किया)!

[ १४४ ]

बेद पढ़ैं बिधि, संभु सभीत पुजाक्न रावन सों नित आवैं।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तेँ सिर नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें जो प्रभुता कवि कोविद गावैं।
राम से बाम* भये तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं॥

अर्थ―जिस रावण के यहाँ डर से ब्रह्मा रोज़ वेद पढ़ते थे और महादेव नित्य पूजा कराने आते थे। सब दानव-देव दीन और दुखी होकर रोज़ दूर ही से सिर नवाते


  • पाठान्तर―सबाम। १२

थे। ऐसे भी ना काय भाग गया (उस्ले छोड़ गया ) कि जिनकी प्रभूता को कशि और मांगना लक्षाते रहते थे। सोला साहस रामचन्द्र के बाये (टेढ़े होने सो उनकर सब सुख र सम्पत्ति काम हो बाई । अथवा रामबन्द्र के बाम (खिलाफ) होने से उल्ल वाम' ( टेढ़े) को सब सम्पदा डन्टी हो गई। [१४५ ] बेद-बिरुद्ध, मही, मुनि, साधु लोक किये, सुरलोक उजारो। और कहा कहौं तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोप न धारो ॥ सेवक-छोह ते छाँडी छमा, तुलसी लख्यो राम सुभाव तिहारो। तालों न दाप दल्यो दसकंधर जाले विभीषन लात न मारो॥ अर्थ-जिसने वेद के विरुद्ध किया, पृथ्वी, मुनि और साधु को शोक-साहित किया और सुरलोक को उजाड़ दिया। और का क्या कहना है, जब रामचन्द्र की स्त्री को भी हर ले गया तब भी कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्र ने क्रोध न किया। परन्तु दाल के कारण क्षमा को छोड़ दिया । तुलसीदास कहते हैं कि हे राम! आपका स्वभाव खूब पहचाना है। तब तक रात्रण के अहङ्कार को नष्ट न किया जब तक उखने विभीषण को लात नहीं मारी। . [१४६ ] सोकसमुद्र निमज्जत काढ़ि कपीश कियो जग जानत जैसो । नीच निसाचर बैरी को बंधु बिभीषन कीन्ह पुरंदर कैसोछ । नाम लिये अपनाइ लियो, तुलसी से कहै जग कौन अनैसो। आरत-श्रारति-भंजन राम, गरीब-नेवाज न दूसर ऐसा ॥ अर्थ-शोक-समुद्र में डूबते सुग्रीव को निकालकर जैसा किया वैसा संसार जानता है। नीच निशाचर और बैरी के भाई विभीषण को कैसा इन्द्र का सा कर दिया। तुलसीदास सा और अनसा (खराब) संसार में कौन है, नाम लेने से उसे भी अपना लिया। भारत के दुःख को हरनेवाले राम हैं, उनसा गरीबनेवाज दूसरा नहीं है।

पाठान्तर---सैखा, ऐलो।

[ १४७ ]

मीत धुनीत कियो कार भालु को, पाल्यो ज्यों काहुन बाल तनूजो।
सज्जन-सींव विभीषन भो*, अजहूँ बिलसे वर बंधु-बधू जो॥
कोसलपाल बिना तुलली सरनागत पाल कृपासु न दूजो।
कूर कुजाति कुयूत अधो सबकी सुधरै जो करै नर पूजो॥

अर्थ―कपि और भालु को पवित्र और मित्र बनाया और ऐसा पाला जैसे कोई अपने पुत्र को भी नहीं पालता है। विभीषण सज्जनो की सर्य्यादा हो गया जो आज तक अपने भाई की स्त्री से विलास करता है। तुलसीदास कहते हैं कि विना कोमल के राजा रामचन्द्र के और दूसरा शरणागत का पालनेवाला नहीं है। जो मनुष्य पूजा करै वह चाहे जैसा क्रूर कुजाति कपूत और पापी क्यों न हो, उसकी भी सब सँभल जाती है।

शब्दार्थ―तनूजो = तन से उत्पन, पुत्र।

[ १४८ ]

तीय-सिरोमनि सीय तजी ज्यहि पावक की कलुषाई दही हैं
धर्म-धुरंधर बंधु तज्यो, पुरोगनि की विधि बोलि कही है॥
कीस निसाचर की करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागत की अनखौहीं अनैसी सुभाय सही है॥

अर्थ―स्त्रियों में श्रेष्ठ सीताजी को त्याग दिया, जिसके पाप को अग्नि ने जला दिया था अर्थात् जिसको अग्नि ने पवित्र कर दिया था, अथवा जिसने अग्नि की कालौंच को हर लिया था अर्थात् अग्नि सबके पाप हरती है उसकी कालौंच को भी सीताजी ने प्रवेश करके हर लिया था। धर्म-धुरन्धर भाई को छोड़ दिया। नगरवासियों को बुलाकर विधि ने कही अर्थात् सीख दो अथवा पुरलोगन (अयोध्यावासियों) को छोड़ दिया और विधि को बुलाकर कहा अर्थात वर्णन किया (रामचरितमानस का उत्तरकांड देखो―यह आचरन बस्य मैं भाई), कपि (सुग्रीव) और निसाचर (विभीषण) की करनी को न सुना न देखा न विचारा। राम ने सदा शरणागत की अनख देनेवाली बातों और बुराइयों को भी सहा है।


  • पाठान्सर―ओ।

अपराध अषाध भये* जान तें अपने उर आनत नाहिंन जू।
गणिका-गज-गीध-अजामिल के गनि पातक-पुंज सिराहिं न† जू॥
लिवे वारक नाम सुधाम‡ दियो जेहि धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी भजु दीनदयालुहि रे, रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू॥

अर्थ—सेवक से भारी अपराध पड़ने पर भी मन नहीं लाते हैं। गणिका, गज, गीध और अजामिल के पापों के ढेर को गिनकर भी उनकी सराहना की अथवा उनके ऐसे पाप जो गिनते नहीं सिराते (समाप्त) होते अर्थात् अनगिनतिन पापों को देखकर भी एक वेर नाम लेने से उनको वह धाम दिया जहाँ मुनि भी नहीं पहुँचते। तुलसीदास कहते हैं कि दीनदयालु रघुनाथ का भजन कर, जो अनाथ को सदा दाहिने रहते हैं।

[१५०]

प्रभु सत्य करी प्रहलाद-गिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
भखराज ग्रस्यो गजराज, कृपा ततकाल, बिलंब कियो न तहाँ॥
सुर-साखी दै राखी है पांडुवधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी भजु सोच-विमोचन को,जन को पन राम न राख्यो कहाँ?॥

अर्थ—प्रभु ने प्रह्लाद की बात को सच्चा किया, खम्भ में से नृसिंहरूप प्रगट हुए। जब मगर ने गजराज को ग्रसा तो क्षण भर की भी हेर न की, तत्काल (फौरन्) कृपा की। जब द्रौपदी का वस्त्र लूटा जाता था, जहाँ करोड़ो राजा थे, तो आपने उसकी लज्जा रक्खी, जिसके देवता साक्षी हैं। तुलसीदास कहते हैं कि शोच के छुड़ानेवाले राम की शरण जा, उन्होंने सेवक की बात को कहाँ नहीं रक्खा।

[१५१ ]

नरनारि उघारि सभा महँ होत दियो पट, सोच हर्यो मन को।
प्रहलाद-विषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकांंरन को॥



* पाठान्तर—परें।
†पाठान्तर—सिराहि न।


‡पाठान्तर—सो धाम।

जो कहावत दीनदयालु सही, जेहि[] आर सदा अपने पन को।
तुलसी तजि आन नरेश सजे भगवान भलो करिहैं जन को॥

अर्थ— द्रौपदी को सभा में नग्न होते देख वस्त्र दिया और मन का सोच हरा। वह प्रह्लाद के दुःख को हरनेवाले, हाथों के, तरनेवाले, कारण (बिना कारण) ही जो सबके मीत (मित्र) हैं, जो दीन-दयाल कहाते हैं वह हरी है, वह अपने प्रण सदा निर्वाह करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि जो दूसरे की आस छोड़कर ऐसे भगवान् का भजन करता है उस अपने सेवक का भगवान भला करेंगे।

[१५२]

ऋषिनारि उधारि, किया सठ केवट मीत, पुनीत सुकीर्ति लही।
निज लोक दियो सबरी खग को, कपि थाप्यो से मालुम है सबही॥
दससीस विरोध सभीत बिभीषन भूप कियो जग लीक रही।
करुणानिधि का भजु रे तुलसी, रधुनाथ अनाथ के नाथ सही॥

अर्थ—अहल्या, गौतम-ऋषि की स्त्री, का उद्धार करके, शठ केवट को मित्र बनाया और अच्छा यश पाया। शबरी और जटायु (गीध) को अपना लोक दिया, सुग्रीव को राज्य दिया; सो सभी को मालूम है।‌ रावण के वैर से डरे हुए विभीषण को राजा किया जिसका ज़िक्र संसार भर में है। तुलसीदास कहते हैं कि दया के समुद्र रामचन्द्र को भजो जो अनाथों के सच्चे नाथ हैं।

[१५३]

कौसिक बिप्रवधू मिथिलाधिप के सब[] सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-धन्धु कथा सुनि सत्रु सुसाहिब-सील सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायक की अगुनी गुन-गाहैं।
आरत दीन अनाथन को रघुनाथ करैं निज हाथ की छाहैं॥

अर्थ—कौशिक मुनि (विश्वामित्र), बिप्रवधू (अहल्या) और जनक के सब शांचों को पल में नाश किया। बालि और रावण के भाइयों की कथा सुनकर बैरी भी साहिब (रामचन्द्र) के शील की सराहना करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि राम चन्द्र की कथा अनुसार है कि अगुण भी गुण ग्रहण कर लेते हैं अथवा राम निर्गुणियों में भी गुण देखते हैं यह उनकी अनुपम बात है। आरत (दुखी), दीन और अनाथों पर राम अपने हाथों की छाया करते हैं अर्थात् उनकी रक्षा करते हैं।

[ १५४ ]

तेरे बेसाहे बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेंचनहारे।
ब्योम रसातल भूमि भरे नृप कूर कुसाहिब सेँतिहुँ खारे।
तुलसी तेहि सेवत कौन मरे? रजतें लघु को करे मेरु तें भारे?।
स्वामी सुसील समर्थ सुजान सो तासों तुही दसरत्थ दुलारे॥

अर्थ―तेरे मोल लिये और मोल लेते हैं अथवा जिसे तुम मोल ले लेते हो वह औरो को ख़रीद सकता है, और सब मोल लेकर बेचनेवाले हैं। आकाश, पृथ्वी और पाताल में बहुत से राजा भरे हैं परन्तु क्रूर हैं और मुफ्त में भी कडुवे हैं अथवा कुसाहिब हैं तिहुँ (वृथा) खार रखनेवाले हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उनकी सेवा में कौन मर सकता है अर्थात कोई नहीं। कौन कण से भी छोटे को मेरु से भी भारी करनेवाला है? दशरथ के दुलारे! तुझसा सुशील स्वामी समर्थ और सुजान तू ही है।

घनाक्षरी

[ १५५ ]

जातुधान भालु कपि केवट बिहंग जो जो,
पाल्यो नाथ सद्य सो सो* भयो कामकाज को।
भारत अनाथ दीन मलिन सरन आये,
राखे अपनाइ†, सो सुभाव महाराज को॥
नाम तुलसी पै भोंड़े भाग‡, सो§ कहायो दास,
किये अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाज को।
साहेब समर्थ दशरथ के दयालु देव,
दूसरो न तोसों तुही आपने की लाज को॥



*पाठान्तर―मद्य सो भयो।
†पाठान्तर―सनमानि।
‡पाठान्तर―भाँग।
§पाठान्तर―तें।
अर्थ—राक्षस (विभीषण), भालु (जाम्बवान), बन्दर (सुग्रीव), केवट, पक्षी (जटायु) को जो नाथ! आपने पाला है सो मालूम होता है कि यह काम-काज (पालना) का आप को यश सा हो गया है अथवा आपने जिसे पाला वह तुरन्त लायक हो गया। दुखी अनाथ दीन और पापी जो आपके शरण आये उनको आदर अथवा अपना करके रक्खा, यह महाराज का स्वभाव ही है। नाम तुलसी है और भाग्य का भोड़ा हूँ परन्तु दास कहलाया हूँ, आपने ऐसे बड़े दगाबाज़ को भी (सेवा में) स्वीकार किया है। हे दशरथ के दयालु लाल! आप सा समर्थ मालिक दूसरा नहीं है जो अपने दास की लाज रखता हो।

[१५६]


महाबली बालि दलि, कायर सुकंठ कपि
सखा किये, महाराज हौं न काहू काम को।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आये,
कियो अंगीकार नाथ एते* बड़े बाम को॥
राय दसरत्य के समर्थ तेरे नाम लिये,
तुलसी से कूर को कहत जग राम को।
आपने नेवाजे की तौ लाज महाराज को,
सुभाव समुझत मन मुदित गुलाम को॥

अर्थ—बड़े बलवान् बालि को मारकर कायर सुग्रीव को, जो किसी काम का नहीं था, महाराज ने अपना सखा बनाया अथवा जिस सुग्रीव को आपने सखा बनाया था वह भी किसी काम का नहीं था और मैं भी किसी काम का नहीं हूँ। भाई का घात करानेवाले पापी राक्षस को, ऐसे बड़े पापी को, भी शरण में आने पर नाथ ने अङ्गीकार किया। हे दशरथ के समर्थ लाल! तेरा नाम लेने से तुलसी से क्रूर को जगत् (संसार भर) राम का बताता है। अपने निवाजे की अर्थात् जिस पर एक बार कृपा की उसकी महाराज को लाज है। आपका स्वभाव समझकर गुलाम का मन प्रसन्न है।

[१५७]


रूप-सील सिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीन को,
दयानिधान, जान-मनि, बीर बाहु-बोल को।


*पाठान्तर—ऐसे।



स्त्राद्ध कियो गीध को, सराहे फल सबरी के,
सिला-साप-समन, निजाह्यो नेह कोल को॥
तुलसी उराउ होत राम को सुभाव सुनि,
को न बलि जाइ, न बिकाइ बिन मोल को?
ऐसेहू सुसाहेब सों जाको अनुराग न, सो
बड़ाई अभागा, भाग भागो लोभ-लाल को॥

अर्थ—आप रूप, शील और गुण के समुद्र हो, दीन के बन्धु हो, दयानिधान हो, जाननेवालों में श्रेंष्ठ हो, वीर हो और शरणागत-पाल हो। गीध (जटायु) का आपने श्राद्ध किया, शवरी के फल की प्रशंसा की, शिला (अहिल्या) के शाप की शान्ति को और कोल (निषाद) के प्रेम को निबाहा। तुलसीदास! राम के स्वभाव को सुनकर रोमाञ्च होता है। उस पर कौन न बलि जावे और कौन बिना मोल न बिकावै। ऐसे साहेब से भी जिसका प्रेम नहीं है वह बड़ा अभागा है। उसका मन लोभ के वश से चञ्चल हो रहा है और उसका भाग उसे छोड़कर भाग गया है।

[ १५८ ]


सूर सिरताज महाराजनि के महाराज,
जाको नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो।
साहब कहाँ जहान जानकीस सो सुजान,
सुमिरे कृपालु के मराल होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि, भालु तारे,
अपनायो तुलसी सो धींग धम-धूसरो।
बोल को अटल, बाँह को पगार, दीनबंधु,
दूबरे को दानी, को दयानिधान दूसरो?॥

अर्थ—आप बलवानों के सिरताज और महाराजों के महाराज हैं, आपका नाम लेते ही ऊसर भी अच्छा खेत हो जाता है। दुनिया में रामचन्द्र सा सुजान साहिब कहाँ है कि जिस कृपालु के सुमिरन से खूसट भी हंस हो जाता है। केवट, पत्थर, राक्षस, बन्दर, रीछ सब तारे और तुलसी से धमधूसर धींग (ऊटपटांग मनुष्य) को भी अपनाया। बोल का अटल, बाँह का अचल, दीन का बन्धु, दुबले (दरिद्री) को देनेवाला, हे दयानिधान! तुम सा दूसरा कौन है?

[ १५९ ]

कीबे को बिसोक लोक लोकपालहू तें सब,
कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि भालु को।
पवि को पहार कियो ख्याल ही कृपालु राम,
बापुरो बिभीषन घरौंधा हुतो बाल को॥
नाम ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल,
चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहाल को?।
तुलसी की बार बड़ी* ढील होति, सीलसिन्धु!
बिगरी सुधारिबे† को दूसरो दयालु को?॥

अर्थ―सब संसार को शोक-रहित करने को लोकपालों में से भी कोई बन्दरों भालुओं का चरवाहा न हुआ अथवा लोकपालों से लोक को शोकरहित करने के लिए कोई बंदर भालुओं को बचानेवाला कहीं नहीं हुआ। खयाल करते ही अर्थात् स्मरण मात्र से रामचन्द्र ने पवि (वज्र) का पहाड़ उस बेचारे विभीषण को किया जो बालू का सा घरौधा था यानी क्षण में उस बालू की दीवार की तरह नष्ट हो जाता जो लड़के खेलने के लिए बनाते हैं और बिगाड़ डालते हैं। राम की आड़ लेते ही खोटे खल भी निखोटे (बिना ऐब) मनुष्य हो जाते हैं। ऐसा कौन है जो बिना चोट (डर वा श्रम) के नाम लेते ही मोट (बहुत सा धन) पाकर निहाल न हो? तुलसीदास की बेर बड़ी ढील हो रही है, हे शील के समुद्र! बिगड़ी की सुधारनेवाला तुम्हारे बिना कौन है?

[ १६० ]

नाम लिये पूत को पुनीत कियो पातकीस,
आरति निवारी प्रभु पाहि कहे पील की।
छलिन की छोंड़ी सी निगोड़ी छोटी जाति पाँति,
कीन्हीं लीन आपु में सुनारी भोंड़े भील ‡की॥



*पाठान्तर―बलि।
†पाठान्तर―सम्हारिने को।


‡पाठान्तर―भाल की।

तुलसीऔ तारिबो विसारिबो न, अन्त मोहिं,
नीके हैं प्रतीति रावरे सुभाव सील की।
देव तौ दयानिकेत, देत दादि दीनन की,
मेरी बार मेरे ही अभाग नाथ ढोल की॥

अर्थ―पूत का पवित्र नाम लेने से पातकी अजामिल को पापरहित किया और हाथी का कष्ट "प्रभु पाहि" कहते ही नष्ट कर दिया। जाति-पाँति की छोटी, निगोड़ी, छलियों की लड़की भील की स्त्री (शवरी) को अपने में लीन कर लिया। "तुलसी को भी तारना है" यह भूलिए मत। अन्त में मुझे भी अच्छी तरह आपके स्वभाव और शील पर भरोसा है। देव! आप तो दया के घर हैं। दीनों की दादि (फ़रियाद) देते हैं (इन्साफ़ कर देते हैं)। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरी बार ढील डाल दी है।

[ १६१ ]

आगे परे पाहन कृपा, किरात, कोलनी,
कपीस, निसिचर अपनाये नाये माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराव,
ऋनियाँ कहाये हौ विकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी से खेटे खरे होत ओट नाम ही की,
तेजी* माटी मनहू की मृग मद साथ जू।
बात चले बात को न मानियो विलग, बलि,
काकी सेवा रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?॥

अर्थ―आगे पड़े पत्थर (अहिल्या) को, किरात को, कोलनी (शवरी) को, कपीश (सुग्रीव) को, राक्षस (विभीषण) को, कृपा करके माथ नाय (सिर नीचा करके अर्थात् सकुच सहित) अपनाया; अथवा ऊपर बताये हुए सबको अपनाया जिन्होंने माथा नवाया था अर्थात् जो आपकी शरण आये थे। सच्ची सेवकाई हनुमान की देखकर, हे सुजानों के श्रेष्ठ! आप उनके क़र्ज़ी कहाये, उनके हाथ बिक गये। नाम की ओट लेते ही तुलसीदास से ऐबी भी भले हो जाते हैं; जैसे कस्तूरी के साथ में रास्ते की मिट्टी भी महँगी बिक जाती है। बात चलने पर कहता हूँ, बुरा न मानना; पर किसकी सेवा


  • पाठान्तर―महँगी।

पर रीझि (प्रसन्न होकर) रघुनाथजी आपने किसको नियाजा (सब कुछ दिया)?―अर्थात् खोटे और नीचों ही सो न? अथवा किसकी की सेवा पर रीझि आपने अपनाया?―अर्थात् आप बिना होता ही अपनाते हैं।

[ १६३ ]

कौसिक की चलत, पथान की परस पायँ,
टूटत धनुष बनि गई है जनक की।
कोल पसु* सबरी विहंग भालु रातिचर,
रतिन के लालचिन प्रापति मनक की॥
कोटि-कला-कुसल कृपालु! नतपाल! बलि†,
बातहू कितिक तिन तुलसी तनक की।
राय दसरत्थ के समरथ राम राजमनि!
तेरे हरे लोपै लिपि विधि हू गनक की॥

अर्थ―विश्वामित्र की गति चलते ही अर्थात् राम के सङ्ग होते ही, पत्थर की अहिल्या पैरों के परस से, अर्थात् पैर के छू जाने मात्र से, और धनुष के टूटने से जनक की बात बन गई। कोल, पशु (मरीच), शबरी, पक्षी (जटायु), भालु (रीछ), राक्षस जो सदा काम के लोभी होते हैं उनको भी स्वर्ग प्राप्त हुआ अथवा रत्ती भर चाहनेवालों को मत भर मिल गया। हे कोटि कला में कुशल, हे कृपा की मूर्ति, हे शरणागत को पालनेवाले! तुलसीदास को क्यों नहीं पालते? ऐसे छोटे तिनके की क्या बात है अर्थात यह क्या भारी काम है? हे राजा दशरथ के समर्थ सपूत राजमणि रामचन्द्र! तेरे देखने ही से ब्रह्मा जैसे गणित जाननेवाले की भी लिपि (लेख) अर्थात् प्रारब्ध मिट जाती है अर्थात् ब्रह्मा जो एक-एक कर्म गिनकर प्रारब्ध बनाया है ऐसे गणितज्ञ की करनी भी नष्ट हो जाती है।

[ १६३ ]

सिला-साप-पाप, गुह गीध को मिलाप,
सबरी के पास‡ आप चलि गये हौ सो सुनी मैं।



*पाठान्तर―भील।
†पाठान्तर―तन पालतम।


‡पाठान्तर―बाप।


सेवक सराहे कपिनायक बिभीषन,
भरत सभा सादर सनेह सुर-धुनी मैं॥
आलसी-अभागी-अधी-भारत-अनाथपाल,
साहेब समर्थ एक नीके मन गुनी मैं।
दोष दुख दारिद दलैया दीनबंधु राम,
तुलसी न दूसरो दयानिधान दुनी मैं॥

अर्थ—मैंने तो सुना है कि आपने शिला (अहिल्या) को शाप से निवृत्त किया। गुह-गीध से मिले। शवरी के यहाँ आप स्वयं ही गये। सुग्रीव, विभीषण और भरत, अपने दासों को सभा में आदर सहित आपने जो सराहा और जिसपर आकाश में देवध्वनि हुई वह भी मैंने सुना है। मैंने भली भाँति मन में विचार किया है कि आलसी, अभागे, पापी, दीन और अनाथ के पालक आप एक ही समर्थ साहब हैं। तुलसीदास कहते हैं, कि दोष दुःख और दारिद्रय का नाश करनेवाला दीनबन्धु राम सा दयानिधान दुनिया में दूसरा नहीं है।

[१६४]


मीत बालि-बंधु, पूत दूत, दसकंध-बंधु
सचिव, सराध कियो* सबरी जटाइ को।
लंक जरी जोहे जिय सोच सो बिभीषन को,
कहौ ऐसे साहेब की सेवा न खटाइ को?॥
बड़े एक एक† तें अनेक लोक लोकपाल‡,
अपने अपने को तौ कहैगो घटाइ को?।
साँकरे के सेइबे§, सराहिबे, सुमिरिबे को,
राम सो न साहिब, न कुमति-कटाइ को॥



*पाठान्तर—साध।
†पाठान्तर—यकायक।
‡पाठान्तर—लोकनाथ ।
§पाठान्तर—साइबो।
अर्थबालि (अर्थात् बैरी) के भाई को तो मित्र और उसके पुत्र को दूत, तथा रावण (से वैरी) के भाई को मन्त्री बनाया, शवरी और जटायु का सराध साधा (किया), लङ्का जो जली तो विभीषण का सोच हुआ। कहो ऐसे साहब की सेवा की कौन इच्छा न करे? (यों तो) एक एक से बड़ा है और अनेक लोकों के अनेक लोकनाथ हैं और अपने-अपने की बात को कौन कम करके कहेगा, परन्तु छोटे की सेवा को सराहनेवाला, याद करनेवाला और कुमति को काटनेवाला राम सा दूसरा साहब नहीं है।

[१६५]


भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल,
कारन-कृपालु, मैं सवै के जी की थाह ली।
कादर को आदर काहू के नाहिं देखियत,
सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली॥
तुलसी सुभाय कहैं नाहीं कछु पच्छपात,
कौने ईस किये कीस भालु खास माहली।
राम ही के द्वारे पै बुलाइ सनमानियत,
मोसे दीन दूबरे कुपूत कूर काहली॥

अर्थभूमिपाल (राजा), ब्यालपाल (शेष आदि), स्वर्ग के पालक (देवता), लोकपाल, पाताल के पालक (दानव), मैंने सबके जी की थाह ली है। यह सब कारणवश कृपा करनेवाले हैं। कादर का आदर कोई नहीं करता दिखाई देता। सबको अच्छी सेवा-टहल भाती है। तुलसी सुभाय से कहता है, कोई पक्षपात नहीं है। (भला) बन्दर भालु को किसने खास माहलो (महलवाला) किया है? मुझसे दीन कपूत काहिल राम ही के द्वारे पर बुलाकर आहत होते हैं।

[ १६६ ]


सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों,
बिहूनेगुन पथिक पियासे जात पथ के।
लेखे जोखे चोखे चित तुलसी स्वारथ हित,
नीके देखे देवता देवैया घने गथ के॥


गीध माना गुरु, कपि भालु माने मौत कै,
पुनीत गीत साके सब साहेब समस्थ* के।
और भूप परखि सुलखि तोलि ताइ लेत,
लसम के खसम तुही पै दसरत्थ के॥

अर्थ—सेवा के अनुकूल सब राजा लोग, कुएँ की तरह, फल देते हैं। जो गुणविहीन होते हैं वे रास्ते चलनेवालों की भाँति प्यासे जाते हैं अर्थात् जैसे कुआँ बिना गुण(रस्सी)वालों का जल नहीं देता और वे प्यासे ही चले जाते हैं वैसे ही गुण-विहीनों का राजा लोग भी आदर नहीं करते। तुलसीदास ने सब लेखे मन में देख लिये। स्वार्थ ही के लिए देवता लोग भी बहुत से धन के देनेवाले होते हैं। गीध को किसने गुरु माना? कपि और रीछ को किसने मित्र माना? यह पवित्र साके (कहावतें) सब समर्थ साहब राम ही के हैं। और सब राजा देख-भालकर तौलकर लखकर ताइकर सेवक बनाते हैं, परन्तु लटे (बहुत कमज़ोर) के रखनेवाले हे दशरथ के लाल! तुम्हीं हो।

[१६७]

रीति महाराज की निवाजिए जो माँगनो सो,
दोष दुख-दारिद दरिद्र कैकै छोड़िए।
नाम जाको कामतरु देत फल चारि ताहि,
तुलसी बिहाइ कै बबूर रेंड़ गोड़िए॥
जाँचै को नरेस, देस देस को कलेस करै?
दैहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ो बड़ाई बौंड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ नाथ सीतानाथ,
तजि रघुनाथ हाथ और काहि ओड़िए?॥

अर्थ—महाराज की यह रीति है कि जिस माँगनेवाले पर कृपा की उसके दोष, दुःख और दारिद्रा को दरिद्र करके छोड़ा अर्थात् नष्ट कर दिया। जिसका नाम ही कल्पतरु है और जो चारों फलों को देनेवाला है क्या उसे छोड़कर तुलसी बबूर और रेंड़ को पाले? राजाओं से कौन माँगे? देश-देश के कलेश करनेवाले हैं अथवा


* पाठान्तर—समर्थ।
देश-देश में कौन फिरने का कष्ट करे? प्रसन्न होकर राजाओं ने दिया भी तो सारे जगत् की बड़ाई बढ़ावेंगे अथवा बड़ी बड़ाई से दमड़ी की कौड़ियाँ ही देंगे। कृपा के समुद्र, लोकों के नाथ, सीतानाथ, रघुनाथ के हाथ को छोड़कर और किसकी आड़ ली जावे?

शब्दार्थ—गोड़िए= गोड़ना, ज़मीन को नरम करने के लिए ऊपरी भाग को पलटना। औंड़िए= बौंड़ी, कली (छोटी चीज़), अथवा दमड़ी की कौड़ी, अथवा बौड़ना या बकना।

सवैया
[१६८]

जाके बिलोकत लोकप होत बिसोक, लहैं सुरलोग* सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता करि कोटि कला रिझवे सुरमौरहि॥
ताको कहाय, कहै तुलसी, तू लजाहि न माँगत कूकुर कौरहि।
जानकीजीवन को जन ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाँचत औरहि॥

अर्थ—जिसके देखने मात्र से लोकपाल विशोक होते हैं और सुरलोक में, अथवा देवताओं को, अच्छी ठौर मिलती है, जिस देवतानों के प्रभु (रामचन्द्र) को कमला (लक्ष्मी) चंचलता छोड़ और कोटि कला करके रिझाती है, तुलसीदास कहते हैं कि उसका कहलाकर तू और जगह कुत्ते की तरह टुकड़े माँगता हुआ शरमाता नहीं है? जानकीनाथ का सेवक होकर वह जीभ जल जावे जो और से याचना करती है।

[१६६]

जड़ पंच मिलै जेहि देह करी, करनी लखु धौं धरनीधर† की।
जन की कहु क्यों करिहैं न सँभार, जो सार करैं सचराचर की॥
तुलसी कहु राम समान को आन है सेवकि जासु रमा घर की।
जग में गति जाहि जगत्पति की, परवाह है ताहि कहा नर की॥

अर्थ—पाँच जड़ पदार्थ मिलाकर देह बनाई, इस धरनीधर (राजा रामचन्द्र) की करतूत को देख। जो सब चराचर की सँभाल करते हैं, सो अपने दास्र की क्यों न करेंगे? तुलसीदास! कहो, राम के बराबर और कौन है जिसके घर की दासी लक्ष्मी है। जिसे जगत्पति की गति है उसे मनुष्य की क्या परवाह है?



*पाठान्तर-सुरलोक।


†पाठान्तर-लघुधा धरणीधर।

[ १७० ]

जग जाँचिए कोउन;जाँचिए जौ*,जिय जाँचिए जानकी-जानहि रे।
जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाइ जो जारति† जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषन की, अरु आनु हिये हनुमानहि रे।
तुलसी भजु दारिद-दोष-दवानल, संकट-कोटि-कृपानहि रे॥

अर्थ—जग में किसी से न माँगना चाहिए। जो माँगना ही है तो हृदय में जानकीनाथ से माँगो, जिससे माँगने पर माँग स्वयं नष्ट हो जाती है और जो दुनिया को ज़ोर से जलाती है अथवा दुनिया का सब सामान इकट्ठा करते हैं अथवा जो जहान के ज़ोर को जला देते हैं अर्थात् भव-फन्द काट देते हैं। विभीषण की गति को विचार कर देखो और हनुमान को हृदय में लाना अर्थात् उनका ध्यान धरो। हे तुलसी! दारिद्रा-दोष को अग्नि-रूप और संकट को कोटि तलवार के समान अथवा करोड़ों संकटों को काटने के लिए तलवार के समान रामचन्द्र का भजन कर।

[१७१]


सुनु कान दिये नित नेम लिये रघुनाथहि के गुनगाथहिँ रे।
सुख-मंदिर सुंदर रूप सदा उर आनि धरे धनुभाथहिँ रे॥
रसना निसि बासर सादर सो तुलसी जपु जानकीनाथहिँ रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों तजि कूर कुपंथ कुलाथहिँ रे॥

अर्थ—सदा राम के गुणों की कथा को नेम से कान देकर सुना कर। सदा धनुष और तरकस लिये, सुख के मन्दिर (राम) के सुन्दर स्वरूप को हृदय में ला। हे तुलसी, जिह्वा से दिन-रात आदर सहित जानकीनाथ का नाम जप। कूर (बुरे जन), बुरी राह और बुरे संग को छोड़कर सुशील और संतों का संग कर।

[१७२]


सुत, दार, अगार, सखा, परिवार विलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजिकै, समता सजि संतसभा न बिराजहि रे॥



*पाठान्तर—तो।


†पाठान्तर—ओरत।

नरदेह कहा, करि देखु विचार, बिगारु* गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकुर ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥

अर्थ―पुत्र, स्त्री, महल, सखा, कुटुम्ब को कुसमाज जानकर, सबकी प्रीति छोड़कर, समता (एकाग्रता) को सज (ग्रहण कर)। संत-सभा में क्यों नहीं विराजता? मनुष्य देह क्या है, विचारकर देख। हे गँवार! अपने काम को मत बिगाड़, कुत्ते के समान लालची मत बन। तुलसीदास कहते हैं कि कोशलराज (राम) को भज।

[ १७३ ]

विषया परनारि निसा-तरुनाई, सु पाइ पर्यो अनुरागहि रे।
जम के पहरू दुख रोग बियोग, बिलोकत हुन बिरागहि रे॥
ममता बस तैँ सब भूलि गयो, भयो भोर, महा भय भागहि रे।
जरठाई दिसा, रविकाल उग्यो, अजहूँ जड़ जीव न जागहि रे॥

अर्थ―विषय-रूपी परनारि और तरुणाई-रूपी रात को पाकर मोह में पड़ गया है; यमराज के दूत, जो रोग, दुःख और वियोग हैं, उनको देखकर भी तुझे वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ। मोह-वश सब भूल गया, सबेरा होते अब डर से भागने लगा; अथवा भारी भय आ रहा है अर्थात् मौत पा रही है, अब भाग। वृद्धावस्था-रूपी दिशा में काल-रूपी सूर्य्य उदय हुआ, अब भी हे जड़ जीव! तु नहीं जागता है।

[ १७४ ]

जनम्यो जेहि जोनि अनेक क्रिया सुख लागि करी, न परे बरनी।
जननी जनकादि हितू भये भूरि, बहोरि† भई उर की जरनी॥
तुलसी अब राम को दास कहाइ, हिये धरु चातक की‡ धरनी।
करि हंस को वेष बड़ो सब सों§, तजि देबक बायस की करनी॥



*पाठान्तर―गँवार विगार न।
†पाठान्तर―बहार।
‡पाठान्तर―सी।
§पाठान्तर―तें।
अर्थ―जिस योनि से उत्पन्न हुआ है उसी में सुख-प्राप्ति के लिए अनेक क्रियाएँ करता है, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। माता-पिता आदि अनेक हित हो गये, फिर भी हृदय को जलानेवाली जलन रही। हे तुलसी! अब राम का दास कहाकर चातक ने जो हृदय में धारण किया है तू भी वही धारण कर अर्थात् अनन्य भाव से सेवा कर। सबसे बड़ा जो वेष हंस का है उसे धारण करके बगुले और कौए की बातों को छोड़ दे अर्थात् बगुले की सी मक्कारी और कौए की सी चालाकी को छोड़ दे।

[ १७५ ]

भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म, समाज सरीर भला लहिकै।
करषा तजिकै, परुषा वरषा, हिम मारुत घाम सदा सहिकै॥
जौ भजै भगवान सयान सोई तुलसी हठ चातक ज्यों गहिकै।
न तो और सबै विष-बीज बये हर-हाटक काम-दुहा नहि कै।

अर्थ―'भारत की अच्छी भूमि में, अच्छे कुल में जन्म पाकर, समाज और शरीर भी भले पाकर, क्रोध छोड़कर, वर्षा, बर्फ, हवा और घाम सदा सहकर जो चातक की तरह हठ करके भगवान् को गहै―अर्थात् जैसे चातक स्वाती का ही पानी पीता है नहीं तो प्यासा ही रहता है―और उनका भजन करे वही हे तुलसी! सयाना है अन्यथा और सब तो सोने के हल में कामधेनु जोतकर विष का बीज बोना है॥

[ १७६ ]

सो सुकृती, सुचि-मंत, सुसंत, सुजान, सुसील-सिरोमनि स्वै।
सुर तीरथ तासु मनावत आवत, पावन* होत हैं ता तनछवै॥"
गुन गेह, सनेह को भाजन सो, सब ही सों उठाय कहौं भुज द्वै।
सतिभाव सदा छल छाँड़ि सबै तुलसी जो रहै रघुबीर को ह्वै॥

अर्थ―वही धर्मात्मा है, वहीं पवित्र है, वही भला सन्त है, सुजान है, सुशील है और वही शिरोमणि अथवा सुशीलों में शिरोमणि है; देवता और तीर्थ उसके बुलाते ही आते हैं और उसके शरीर के स्पर्श मात्र से तीर्थादिक पवित्र हो जाते हैं; 'गुण का वही घर है, वही प्रेम का पात्र है' यह मैं दोनों भुजा उठाकर कहता हूँ, जो 'सति (सच्चे) भाव' से छल छोड़कर सदा रघुवीर का होकर रहे।


  • पाठान्तर―पाप न, अर्थः―न पाप उसे लगता है, न तात (अहित) उसे ल जाता है।
    [ १७७ ]

सो जननी,सो पिता,सोइ भाइ,सो भामिनि,सो सुत,सो हित मेरो।
सोई सगो,सो सखा,सोइ सेवक,सो गुरु,सो सुर,साहिब,चेरो॥
सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देह को गेह को नेह सनेह सो राम को होइ सबेरो॥

अर्थ—वही माता है, वही भाई है, वही स्त्री है, वही पुत्र है, वही मित्र है, वही सगा है, वही सखा है, वही दास है, वही गुरु है, वही देवता है जो साहब (राम) का दाम है अथवा वही देवता है, वही साहिब है, वही चेरा (नौकर) है। कहाँ तक बहुत बनाकर कहूँ, तुलसी को वह प्राण के तुल्य है, जो घर और देह का मोह छोड़कर जल्दी राम का होवै।

[१७८]

राम हैं मातु,पिता,गुरु,बंधु औ संगी,सखा,सुत,स्वामि,सनेही।
राम की सौंह भरोसो है राम को,रामरग्यो रुचि राच्यो न केही॥
जीयत राम, मुये पुनि राम, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिये जग में तुलसी, न तु डोलत और मुये धरि देही॥

अर्थ—जिसके राम ही माता, पिता, सुत और बन्धु हैं; वही सङ्गी हैं, वही सखा हैं, वही गुरु, स्वामी और सनेही हैं; जो राम के सन्मुख है, जिसे उन्हीं का भरोसा है, जो राम के रङ्ग में रँगा है और जिसे किसी और की रुचि, (अथवा राम की शपथ खाता हूँ) बिल्कुल नहीं है; जीते राम, मरते राम, जिसे सदा राम ही की गति है; वही हे तुलसी! जगत् में जीवित है और सब मुर्दे देह धारण किये घूमते हैं।

[१७६]

सिय-राम-सरूप अगाध अन्प बिलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा,मुख राम को नाम,हिये पुनि रामहिं को थलु है॥
मति रामहि सो;गति रामहिं सों,रति राम सों,रामहिं को बलु है।
सबकी न कहैं तुलसी के मते इतना जग जीवन को फलु है॥

अर्थ―सीता-दाम का अनूप स्वरूप नेत्र–रूपी मछलियों के लिए अगाध जल-रूप है; राम की कथा श्रवण करने को और मुँह में राम नाम का जप और हृदय में राम ही का स्थान है। राम ही से बुद्धि लगी है, राम ही की गति है, राम ही से प्रीति है,

राम ही का बल है। सबके बदले तुलसी यही क्यों न कहे कि जीवन का इतना ही फल है अथवा सबकी नहीं कहता अथवा और सब चाहे जो कहा करें परंतु तुलसी के मत में तो जीवन का यही फल है।

[१८०]

दशरथ के दानि, सिरोमनि राम, पुरान-प्रसिद्ध सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासुर जाचक जो तुमसों मन भावत पायो न कै*॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती जो कृपा करि दीनदयालु सुनैं।
जेहि देह सनेह न रावरे सों असि देह धराइकै जाय जियैं॥

अर्थ―दशरथ के पुत्र, दानियों में श्रेष्ठ, राम का यश पुराणों में प्रसिद्ध है और मैंने भी सुना है। नर और नाग, सुर और असुर, और जाचक कौन ऐसा है जिसने आपसे अपना मन-चाहा नहीं पाया। तुलसी हाथ जोड़कर विनती करते हैं जो दीनदयालु उसे कृपा करके सुनैं―जिस देह को आपसे प्रीति नहीं है ऐसी देह धारण करके ही क्या करैं अर्थात् उससे अच्छा कि जी जाता रहे, मर जावें।

[ १८१ ]

'झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जग' संत कहत जे अंत लहा है।
ताको सहै सठ संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जान-पनी को गुमान बड़ो, तुलसी के बिचार गँवार महा है।
जानकी-जीवन-जान न जान्यो तो जान कहावत जान्यो कहा है॥

अर्थ―यह जग झूठा है, सदा झूठा है, ऐसा वह सन्त कहते हैं जिनको इसका अन्त (भेद) मिला है, उसके लिए तू हे शठ! करोड़ सङ्कट सहता है और सदा हा-हा करता दाँत निकालता है। (अथवा संसार के लिए करोड़ों सङ्कट सहते हैं और हाहा खाते दाँत निकालते फिरते हैं परंतु मुँह से संसार को झूठा बताते हैं।)


  • पाठान्तर―पावन मैं। जिसको यह बड़ा गुमान है कि मैं बड़ा जाननेवाला हूँ, तुलसी की समझ में, वह बड़ा गवाँर है। जानकीनाथ को अगर नहीं जाना तो जाननेवाला कहलाते हुए भी क्या जाना है?

[ १८२ ]

तिन्ह तेँ खर सूकर खान भले, जड़ताबस ते न कहैं कछु वै।
तुलसी जेहि राम सों नेह नहीं सो सही पसु पूँछ बिखान न द्वै॥
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै*।
जरि जाउ सो जीवन, जानकीनाथ! जियै† जग में तुम्हरो बिनु ह्वै॥

अर्थ―उनसे गधे, सुअर और कुत्ते अच्छे हैं; क्योंकि जड़ होने के कारण वे कुछ कहते तो नहीं हैं। तुलसी कहते हैं कि जिसे राम से प्रीति नहीं है वह अवश्य पशु है यद्यपि उसके पूँछ और सींग नहीं। उसको पैदा करनेवाली माँ दस मास तक बोझा लादकर क्यों (व्यर्थ) मरी। अच्छा होता कि वह बाँझ होती या गर्भपात हो जाता। उसका जीवन हो जल जावे जो हे जानकीनाथ! जग में बिना तुम्हारा होकर रहता है।

[ १८३ ]

गज-बाजि-घटा भले भूरि भटा, बनिता सुत भौंह तक सब वै।
धरनी धन धाम सरीर भलो, सुरलोकहु चाहि इहै‡ सुख स्वै॥
सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछु सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जिये जग में तुम्हरो बिन ह्वै॥

अर्थ―हाथी-घोड़ों की घटा (समूह) है, बड़े वीर हैं, स्त्री-पुत्र सब कोई मुँह देखता है, पृथ्वी, धन, घर, शरीर सब अच्छा है, जो सुख वर्ग में है वह यहीं विद्यमान है परंतु तुलसीदास कहते हैं कि यह सब फोकट साटक (फ़िज़ूल और असार) है। यह जीवन दो दिन का सपना है। उसका जीवन जल जावे जो जग में बिना तुम्हारा होकर रहता है।



*पाठान्तर―स्वै।
†पाठान्तर―रहे।


‡पाठान्तर―चाहिय है।

[१८४]

सुरराज सो राज-समाज, समृद्धि, बिरंचि, धनाधिप सो धन भो
पवमान* सो, पावक सो, जस सोम सो, पूषन सो, भवभूषन भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै, धीर बड़ो, बसहू मन भो।
सब जाय, सुभाय कहै तुलसी, जो न जानकीजीवन को जन भो॥

अर्थ―इन्द्र का सा राज-समाज और ब्रह्मा की सी सम्पत्ति और कुबेर सा धन हुआ तो क्या? भव (जगत्) में मानी अथवा पवमान (पवन) सा और अग्नि यम, चन्द्र, सूर्य्य का सा या सबमें भूषण (सिरमौर) हुआ तो क्या? योग-समाधि करके, प्राण साधकर, बड़ा धीर हो गया या मन वश में हो गया तो क्या? तुलसी स्वभाव ही से कहते हैं कि यदि राम का दास न हुमा तो सब व्यर्थ हैं।

[ १८५ ]

काम से रूप, प्रताप दिनेस से, सोम से सील, गनेश से माने।
हरिचंद से साँचे, बड़े विधि से, मघवा से महीप बिषै सुखसाने॥
सुक से मुनि सारद से बकता, चिरजीवन लोमस तेँ अधिकाने।
ऐसे भये तो कहा तुलसी जु पै राजिव-लोचन राम न जाने॥

अर्थ―काम सा रूप, सूर्य्य सा प्रताप, चन्द्र सा शील और गणेश जैसी प्रतिष्ठा (सब से पहिले पूजा) होती है। हरिश्चन्द्र से सत्यवत्का, ब्रह्मा से बड़े, इन्द्र से राजा और सुख पानेवाले, शुक से मुनि, शारदा से सेवक और लोमश से दीर्घायु हुए तो क्या? हे तुलसी! यदि कमल-नयन राम को न भजा।

[ १८६ ]

झूमत द्वार अनेक मतंग जंजीर जड़े मदअंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति चंचल, पौन के गौनहु तेँ बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप खरे न समाते।
ऐसे भये तो कहा तुलसी जो पै जानकीनाथ के रंग न राते॥



*पाठान्तर―भवमान।
अर्थ―द्वार पर बहुत से हाथी झूमें जिनके बड़ी बड़ी ज़ञ्जीरें पड़ी हों और मद चूता हो, तो क्या? अच्छे तेज़ घोड़े, बड़े चञ्चल और पवनगामी हों, (तो क्या?) घर के भीतर चन्द्र के से मुखवाली स्त्री हुई और बाहर बड़े बड़े राजा हुए, तो क्या? ऐसे हुए भी तो क्या, हे तुलसी! जो रामचन्द्र के रङ्ग में न रँगे गये।

[ १८७ ]

राज सुरेस पचासक को, बिधि के कर को जो पटो लिखि पाये।
पूत सपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरता रति को मद नाये॥
सम्पति सिद्धि सबै तुलसी, मन की मनसा चितवैं चित लाये।
जानकी-जीवन जाने बिना जन ऐसेऊ जीवन जीव कहाये॥

अर्थ―पचासों इन्द्र के राज का यदि ब्रह्मा के हाथ का लिखा पट्टा पा गये तो क्या? सपूत पुत्र मार (पतिव्रता) स्त्री, जिसकी सुन्दरता के आगे रति का गर्व भी जाता रहा हो, पाने से क्या? सब सम्पदा और सिद्धि मन की इच्छा (चित्त) लगाये राह देखती हो (कि कब बुलावा हो कब जाऊँ) तो क्या? रामचन्द्र के जाने बिना, उत्पन्न होकर और जीते हुए भी ऐसे पुरुष नहीं जीते।

[ १८८ ]

कृसगात ललात जो रोटिन को, घर बात घरे* खुरपा खरिया।
तिन सोने के मेरु से ढेर लहे, मन तौ न भरो घर पै भरिया॥
तुलसी दुख दुनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुख दारिद को करिया।
तजि आस भो दास रघुप्पति को, दसरथ के दानि दया-दरिया॥

अर्थ―दुर्बलशरीर जिन्हें रोटियों के भी लालच थे, जिसके घर की पूँजी खुरपा और खरिया (जाला) ही थे, उनको यदि सोने का मेरु भी मिल गया तो घर तो भरा, पर मन न भरा। हे तुलसी! दोनों दशा देख, दूना दुःख हुआ। दरिद्र का मुँह काला किया, अर्थात् सन्तोष तभी हुमा जब प्राशा छोड़ दशरथ-कुमार, दया के दरिया (नदी) का दास हुआ।

शब्दार्थखरिया-जाली।


  • पाठान्तर―रवा।
    [११४]

को भरिहै हरि के रितये, रितवै पुनि को हरि जौ भरिहै।
उथपै तेहि को जेहि राम थपै, थपिहै तेहि को हरि जौ टरिहै?॥
तुलसी यह जानि हिये अपने सपने नहिं कालहुँ तेँ डरिहै।
कुमया कछु हा न न औरन की जोपै जानकीनाथ मया* करिहै॥

अर्थ—हरि के देने पर कौन (खज़ाना) खाली कर सकता है और हरि के रीते करने पर कौन भर सकता है? उसे कौन उखाड़ सकता है जिसे राम जमावें, उसे कौन जमा सकता है जिसे राम उखाड़ें। तुलसी यह मन में जानकर काल से स्वप्न में भी नहीं डरेगा। जो रामचन्द्र कृपा करेंगे तो औरों के किये कुछ भी हानि नहीं हो सकती।

[१६०]

ब्याल कराल, महाविष, पावक मत्त गयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपै हुते किंकर, ते करनी मुख मारे॥
नेकु बिषाद नहीं प्रहलादहि, कारन केहरि के बल हो रे।
कौन की त्रास करै तुलसी, जो पै राखिहैं राम तो मारिहै को रे?॥

अर्थ—बड़े विषवाले विकराल साँप, भोषण विष, अग्नि और मस्त हाथियों के दाँत तोड़े। साँँसत (ताड़ना) भी शङ्का करती (स्वयं डरती हुई) चली, डरे हुए नौकरों ने भी बुरी करनी (कर्म) से मुँँह मोड़े। अर्थात् राम के दास से विमुख होने से उन्हें भी शङ्का हुई और उसके साथ बुरी करनी करना उन्होंने छोड़ दिया। लेकिन प्रह्लाद को ज़रा भी विषाद (अफ़सोस) न हुआ, क्योंकि वह नृसिंह के बल हो रहे थे। तुलसी किसको डरे? यदि राम राखेंगे तो उसे कौन मारेगा?

[१६१]

कृपा जिनकी कछु काज नहीं, न अकाज कछू जिनके मुख मारे।
करैँ तिनकी परिवाहि ते जो बिनु पूँँछ विषान फिरैँ दिन दौरे॥
तुलसी जेहि के रघुवीर से नाथ, समर्थ सु सेवत रीझत थोरे।
कहा भव-भीर परी तेहि धौं, बिचरै धरनी तिन सो तिन तोरे॥


*पाठान्तर—कृपा। अर्थ—जिनकी कृपा से कुछ काम नहीं निकलता, और जिनके मुँँह मोड़ने से कुछ अकाज नहीं होता उनकी कौन परवाह करे? बही जिसके न सींग है न पूँछ, और दौड़ा दौड़ा फिरता है। हे तुलसी! जिसके राम से नाथ हैं, जो थोड़े ही में प्रसन्न हो जाते हैं, उस पर क्या संसार की भीर पड़ी है? इससे पृथ्वी पर उनसे, जिनका वर्णन ऊपर है, नाता तोड़े हुए क्यों न फिर अर्थात् स्वतंत्र क्यों न रहे?

[ १६२ ]

कानन,भूधर,बारि,बयारि,महाविष,व्याधि,दवा,अरि घेरे।
संकट कोटि जहाँ तुलसी, सुत मात पिता हित बंधु न मेंरे*॥
राखिहैं राम कृपालु तहाँ, हनुमान से सेवक हैं जेहि करे।
नाक, रसातल, भूतल में रघुनायक एक सहायक मेरे॥

अर्थ—वन, पहाड़, पानी और हवा में और जहाँँ विष, व्याधि, अग्नि और वैरी घेरते हैं, जहाँ सैकड़ों सङ्कट हैं, हे तुलसी! और न भाई, न माता, न पिता, न हितू हैं, वहाँ रामचन्द्र ही रक्षा करेंगे, जिनके हनुमान् से सेवक हैं। आकाश, पाताल, पृथ्वी सब में एक रघुनाथ ही मेरे सहायक हैं।

[१६३]

जबै जमराज रजायसु तेँ मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया।
तात न मात न स्वामि सखा सुत बंधु बिसाल विपत्ति बँटैया॥
साँसति घोर, पुकारत आरत, कौन सुने चहुँ भोर डटैया।
एक कृपालु तहाँ तुलसी दसरत्य के नंदन बंदि कटैया॥

अर्थ—जब यमराज के दूत उनकी आज्ञा से मुझे गला बाँधकर ले चलेंगे तब भाई, माता, स्वामी, सखा कोई विपत्ति का बाँटनेवाला न मिलेगा। जब घोर सज़ा मिलेगी और मैं दीन होकर पुकारूँगा तब कोई सुननेवाला न होगा, चारों ओर तो डाँटनेवाले ही होंगे। वहाँ एक रामचन्द्र ही कृपालु, दशरथ-नन्दन बेड़ी के काटनेवाले होंगे।


*पाठान्तर—मेरे।

[१६४]

जहाँ जम जातना घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत टेवैया।
जहँ धार भयंकर वार न पार, न बोहित नाव न मीत* खेवैया॥
तुलसी जहँ मातु पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अबलंब देवैया।
तहाँ बिनु कारन राम कृपालु बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया॥

अर्थ—जहाँ यम की यातना है, घोर वैतरणी नदी है और करोड़ों योद्धा (बलवान्) जलचर दाँत तेज़ करते हैं, जिसकी भयङ्कर धार का कोई पार नहीं है, न कोई नाव है, न उसका खेनेवाला है, हे तुलसी! जहाँ न माता, न पिता, न सखा, न और कोई सहारा देनेवाला है, वहाँ बिना कारण ही कृपालु राम बड़ो बाहों से हाथ पकड़कर निकालनेवाले हैं।

[१६५]


जहाँ हित, स्वामि, न संग सखा,
बनिता, सुत, बंधु न, बाप, न मैया।
काय गिरा मन के जन के,
अपराध सबै छल छाँड़ि छमैया॥
तुलसी तेहि काल कृपालु बिना,
दुजो कौन है दारुन दुःख दमैया।
जहाँ सब संकट दुर्घट सोच,
तहाँ मेरो साहब राखै रमैया॥

अर्थ—जहाँ न हितू है, न स्वामी, न सङ्गी, न सखा, न बन्धु, न पिता, न माता, वहाँ शरीर-वचन-मन के अपराधों को, छल छोड़कर, माफ़ करनेवाला, दारुण दुःख का नाश करनेवाला, हे तुलसी! कृपालु रामचन्द्र के सिवा दूसरा कौन है? जहाँ सब कठिन सङ्कट और शोध आते हैं वहाँ मेरा साहब, राम, ही रखने (बचाने) वाला है।

[१६६]

तापस को बरदायक देव, सबै पुनि बैर बढ़ावत बाढ़े।
थोरेहि कोप, कृपा पुनि थोरेहि, बैठि के जोरत तोरत ठाढ़े॥


* पाठान्तर—नीक।

ठांकि बजाय लखे गजराज, कहाँ लौं कहौं केहि सों रद काढ़े!।
आरत के हित, नाथ अनाथ के, राम सहाय सही दिन गाढ़े॥

अर्थ―अपने तपस्वी भक्तों को वर देनेवाले सब देव हैं, फिर बढ़ने पर (उन्नति होने पर) वैर बढ़ाते हैं। वह थोड़े ही में कृपा करनेवाले और थोड़े ही में क्रोध करनेवाले हैं, थोड़े ही में बैठकर मित्रता जोड़ते हैं और थोड़े ही में खड़े खड़े तोड़ते हैं। गजराज ने यह बात जाँच परताल ली थी, कहाँ तक कहूँ, किससे कहूँ और किसके सामने दाँत निकालूँ अर्थात् किसकी खुशामद करूँ? आरत के मित्र, अनाथ के नाथ, राम ही मुसीबत में सहायक होते हैं।

[ १९७ ]

जप, जोग, बिराग, महा मख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै।
मुनि, सिद्ध, सुरेस, गनेस, महेस से सेवत जन्म अनेक मरै॥
निगमागम, ज्ञान पुरान पढ़ै, तपसानल में जुग-पुंज जरै।
मन सों पन रोपि कहै तुलसी रघुनाथ बिना दुख कौन हरै?॥

अर्थ―जप, योग, वैराग्य, यज्ञ-साधन, दान, दया, दम करोड़ों करे; मुनि, सिद्ध, इन्द्र, महेश, गणेश की सेवा करते अनेक जन्म तक मरा करे; वेद, शास्त्र, ज्ञान, पुराण पढ़े और तप की अग्नि में युगों तक जला करे। मन से तुलसी प्रण करके कहता है कि राम के बिना दुख का हरनेवाला कोई नहीं है।

[ १९८ ]

पातक पीन, कुदारिद दीन, मलीन धरै कथरी करवा है।
लोक कहै बिधिहू न लिख्यो, सपनेहू नहीं अपने बरवा है॥
राम को किंकर सो तुलसी समुझेहि भलो कहिवो न रवा है।
ऐसे को ऐसे भयो कबहूँ न भजे बिनु बानर के चरवाहै॥

अर्थ―तुलसीदास महापापी और दरिद्री, दुखी, फटे मैले कपड़े पहने और करवा (मिट्टी का लोटा) लिये था। लोग कहते थे कि ब्रह्मा ने स्वप्न में भी (भूलकर भी) कुछ इसके भाग्य में नहीं लिखा है अथवा ब्रह्मा ने भी भाग्य में कुछ नहीं लिखा और स्वप्न में भी अपने सिर का बाल तक अपना नहीं है अथवा न ब्रह्मा ने ही भाग्य में लिखा न अपने बाहुओं ही का बल है। ऐसा तुलसी भी राम का दास हो यह बात समझने ही योग्य है, उससे कहना व्यर्थ है। राम का दास होकर ऐश की ऐसा हुआ अर्थात् इनका बड़ा नाम हो गया; क्या ऐसा कभी बंदरों के रक्षक (राम) को बिना भजे हो सकता है?

[ १९९ ]

मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच, निरादर-भाजन, कादर, कूकर टूकन लागि ललाई॥
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी, प्रभु सों कह्यो बारक पेट खलाई।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई॥

अर्थ―माता पिता ने संसार में उत्पन्न करके त्याग दिया और ब्रह्मा ने भी भाग्य में कुछ भलाई नहीं लिखी। नीच और अनादर का पात्र, कायर, कुत्ते की तरह टूक पर लालच करनेवाला तुलसी था। उसने राम का सुभाव सुना और प्रभु से एक बार पेट खल्लाकर (देखाकर) कहा सो स्वारथ और परमारथ के देने में रघुनाथ ने कुछ कसर न रक्खी।

[ २०० ]

पाप हरे, परिताप हरे, तन पूजि भो हीतल सीतलताई।
हंस कियो बक ते बलि जाउँ, कहाँ लौं कहौं करुना अधिकाई॥
काल बिलोकि कहै तुलसी मन में प्रभु की परतीति अघाई।
जन्म जहाँ तहँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह सगाई॥

अर्थ―पाप हरे गये और दुख मिट गया, मेरी देह की पूजा हुई और हृदय ठण्डा हो गया। मैं कहाँ तक दया की अधिकता को कहूँ कि आपने बगुले से मुझे हंस किया, अपना समय देखकर अथवा अन्त काल समझकर तुलसी मन में प्रभु पर पूर्व विश्वास रखकर कहता है कि जहाँ कहीं भी जन्म हो वहाँ आप ही से सदा सनेह निबाहनेवाली देह मिलै।

[ २०१ ]

लोग* कहैं अरु हौं हूँ कहैं?, 'जन खोटो खरो रघुनायक ही को'।
रावरी राम बड़ी लघुता, जस मेरो भयो सुखदायक ही को॥


*पाठान्तर―लोक

कै यह हानि सहौ बलि जाउँ, कि मोहुँ करो निज लायक ही को।
आनि हिये हित जानि करो ज्यों, हौं* ध्यान धरों धनुसायक ही को॥

अर्थ―दुनिया कहती है और मैं भी कहता हूँ कि चाहे खोटा हूँ चाहे खरा, रामचन्द्र ही का हूँ। आपका तो छोटा पन है (आपके लिए मुझ-से नीच की सहायता करना छोटापन है अथवा आपका दास बुरा हो इसमें आपका छोटापन है)। परन्तु मेरा यश मुझे सुखदायक है अर्थात् उतने बड़े साहब का दास हूँ अथवा मेरा यश वो आपको सुखदायक है अर्थात् अपने दास के यश से आप प्रसन्न होते हैं परन्तु उसे अपने लायक तो कीजिए। यह हानि सहो या मुझे भी अपने लायक करो। यह मन में समझकर और मेरा हित जानकर ऐसा करो कि जिसमें मैं धनुषपाणि रामचन्द्रजी का ध्यान धरूँ।

[ २०२ ]

आपुहौं† आपको नीके कै जानत, रावरो राम! बढ़ायो गढ़ायो।
कीर ज्यों नाम रटै तुलसी सो कहै जग जानकीनाथ पढ़ायो॥
सोई है खेद जो बेद कहै, न घटै जन जो रघुबीर बढ़ायो।
हौं तो सदा खर को असवार, तिहारोई नाम गयंद चढ़ायो॥

अर्थ―मैं खुद ही अपने को अच्छी तरह समझता हूँ कि हे राम! आप ही का बढ़ाया गढ़ाया हुआ हूँ। तुलसी तोते की तरह राम राम रटता है, उसे दुनिया कहती है कि जग में राम ने पढ़ाया है। यही खेद है (कि आपका नाम तोते की भाँति रटता हूँ, मन में भक्ति नहीं है)। वेद भी कहता है कि जिस मनुष्य को राम ने बढ़ाया है वह नहीं घट सकता। मैं वैसे तो गदहे पर सवार होने लायक था परन्तु आपके नाम ने हाथी पर चढ़ाया है (इसलिए मुझे केवल नाम के वास्ते नहीं बल्कि सचमुच भक्त हो जाना चाहिए)।

घनाक्षरी

[२०३]

छार तेँ सँवारि कै पहार हू तेँ भारी कियो,
गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइकै।



*पाठान्तर―चाहो।


†पाठान्तर―आपुहि


हौ तौ जैसो तब तैसो अब, अधमाई कै कै
पेट भरौं राम रावरोई गुन गाइकै॥
आपने निवाजे की पै कीजै लाज, महाराज!
मेरी ओर हेरिकै न बैठिए रिसाइकै।
पालिकै कृपालु ब्याल-बाल को न मारियै
औ काटियै न, नाथ! विषहू को रूख लाइकै॥

अर्थआपने मुझे ख़ाक से ऐसा सँभाला (उठाया) कि पहाड़ से भी भारी कर दिया, फिर मैं आपका पवित्र पक्ष पाकर पंचों में भारी हुआ अथवा नये पंख पाकर पाँचों इन्द्रियों में फँसकर गारे की तरह वहीं फँस गया। मैं तो जैसा अधम तब था वैसा ही अब भी हूँ। परन्तु हे राम! आप ही का गुन गाकर पेट भरता हूँ। जो आपने कृपा की है, हे महाराज! उसकी लाज रक्खो और मेरी ओर से ख़फा़ होकर न बैठ रहो। हे कृपालु, साँप के बच्चे को भी पालकर न मारिए और विष के वृक्ष को भी अपने आप लगाकर न उखाड़िए।

[२०४]


बेद न पुरान गान, जानौं न विज्ञान ज्ञान,
ध्यान, धारना, समाधि, साधन प्रबीनता।
नाहिंन बिराग, जोग, जाग भाग तुलसी के,
दया-दान-दूबरो हौं, पाप ही की पीनता॥
लोभ-माह-काम-कोह-दोष कोष मोसो कौन?
कलि हू जो सीख लई मेरियै मलीनता।
एक ही भरोसो राम रावरो कहावत हौं,
रावरे दयालु दीन बन्धु, मेरी दीनता॥


*भोग।


राम को कहाइ, नाम बेंचि बेंचि खाइ,
सेवा संगति न जाइ पाछिले को उपखानु है॥
तेहू तुलसी को लोग भलो भलो कहै,
ताको दूसरो न हेतु, एक नीके कै निदानु है।
लोकरीति बिदित विलोकियत जहाँ तहाँ,
स्वामि के सनेह स्वान हूँ को सनमानु है॥

अर्थमेरा वचन विकार-युक्त (कड़ा) है, बहुत खुवार (बुराई) करनेवाला है अथवा करतब भी बुरा है, और मन विचारहीन तथा कलियुग के मैल (पाप) का घर है। राम का कहाता हूँ और नाम बेंच बेंच खाता हूँ। सजनों की सेवा-संगति में नहीं जाता हूँ, वही पिछली कहानी चली आती है अर्थात् अपनी टेव नहीं छोड़ता हूँ। उस तुलसी को भी लोग भला कहते हैं। उसका सिवाय इसके और दूसरा कारण नहीं है कि उसे एक अच्छे का सहारा है। जगत् की यह रीति ज़ाहिर है और जगह जगह दिखाई भी पड़ता है कि जहाँ स्वामी का प्रेम होता है वहाँ उसके कुत्ते का भी सन्मान होता है।

[२०७]


स्वारथ को साज न समाज परमारथ को,
मासों दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयों, करौं, न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचि हू भलाई भूलि भाल है॥
रावरी सपथ, राम! नाम ही की गति मेरे,
इहाँ झूठो झुठो सो तिलोक तिहूँ काल है।
तुलसी को भलो पै तुम्हारे ही किये, कृपालु॥
कीजै न बिलंब, बलि, पानी भरी खाल है॥

अर्थन तो स्वार्थ की सामग्री है और न परमार्थ की। मुझसा इस जग-जाल में दूसरा दगा़बाज़ कोई न होगा। न मैंने नेकी की है, न करता हूँ और न करूँगा। ब्रह्मा ने ही भूलकर भी भलाई मेरे भाग्य में नहीं लिखी है। आपकी कसम मेरे राम-


*पाठान्तर—मलीभला </noinclude>
नाम ही की गति है अन्यथा जो यहाँ झूठा है वह तीनों लोक और तीनों काल में सदा झूठा है। अर्थात् राम की शरण मुँँह से कहता हूँ परन्तु हृदय में नहीं लाता। तुलसी का भला आपही के कहने से होगा। हे कृपालु नाथ! अब देर न कीजिए, यह देह पानी भरी मशक के समान है (न मालूम कप फट जावे)।

[२०८]


राग को न साज न बिराग जोग जाग जिय,
काया नहिं छाँड़ि देत ठाटिबो कुठाट को।
मनो-राज करत अकाज भयो आजु लगि,
चाहै चारु चोर पै लहै न टूक टाट को॥
भयो करतार बड़े क्रूर को कृपालु, पायो
नाम प्रेम-पारस हौँ लालची बराट को।
तुलसी बनी है राम रावरे बनाये, ना तौ,
धोबी कैसो कूकुर, न घर को न घाट को॥

अर्थ—न राग की ही सामग्री है; न मन में वैराग्य, न योग, न यज्ञ है। यह शरीर बुरे कामों का प्रबन्ध करना नहीं छोड़ता। आज तक मन की भावनाएँ करते अकाज हो गया। सुन्दर वस्र की इच्छा करता है परन्तु पाता टाट का टुकड़ा भी नहीं। ब्रह्मा बड़े क्रूर, पर कृपालु हुए कि मुझसे बड़े लालचो को पारस नाम (राम) मिल गया। अथवा ब्रह्मा ने मुझ से बड़े क्रूर पर कृपा की कि मुझ से कौड़ी के लालची को नाम-रूपी पारस मिल गया। हे राम! तुलसी की तुम्हारे बनाये बनी है। नहीं तो धोबी का कुत्ता है न घर का न घाट का।

[२०६]


ऊँचो मन, ऊँची रुचि, भाग नीचा निपट ही*,
लोक-रीति-लायक न, लंगर लबारु है।
स्वारथ अगम, परमारथ की कहा चली,
पेट की कठिन, जग जीव को जबारु है॥


*पाठान्तर—निपटहि


चाकरी न आँकरी, न खेती, न बनिज भीखा,
जानत न कूर कछु किसव कबारु है।
तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम,
न तु भेंट पितरन कोँ न मूड़ हू में बारू है॥

अर्थ—मन तो ऊँचा है और रुचि बढ़ी हुई है परन्तु भाग छोटा है। दुनिया की रीति के लायक नहीं, खोटा है और झूठा है। स्वार्थ ही कठिन है, परमार्थ की क्या चर्चा; पेट ही के लाले हैं। संसार भी प्राणों का जन्जाल हो रहा है। न नौकरी किसी की है, न खेती है, न व्यापार, न भीख ही माँगना जानता हूँ और न कोई अन्य उद्यम है। तुलसी की बात राम-नाम ही ने रक्खी है, नहीं तो जल्दी पितरों से भेंट होती अर्थात् मर जाता और सिर में एक बाल न रहता (इतना मारा जाता) अथवा न पितृकर्म ही कर सकता, न देवकर्म ही के लिये सिर में बाल (धन) है।

[२१०]


अपत, उतार, अपकार को अगार जग,
जाकी छाँह छुए सहमत ब्याध बाधको।
पातक पुहुमि पालिवे को सहसानन सो,
कानन कपट को, पयोधि अपराध को॥
तुलसी से बाम को भी दाहिनो दयानिधान,
सुनत सिहात सम सिद्ध साधु साधको।
राम नाम ललित ललाम किये लाखनि को
बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को॥

अर्थ—बड़ा पतित है, जग में अपकार का घर है, जिसकी छाँह छू जाने से ब्याध और बधिक (कसाई) भी संकोच करते हैं। पृथ्वी में पाप की रक्षा करने को शेष का सा है। कपट का वन और अपराध का समुद्र है। तुलसी ऐसे क्रूर को दयानिधि दहिने हुए। [यह खबर पाकर ] सब सिद्ध "साधु" "साधु' कहकर अर्थात् "भला" कहकर उसकी सराहना करते हैं; अथवा सब सिद्ध, साधु (संन्यासी) और साधक (योगी जन) सराहना करते हैं अथवा सब उसकी साधु, सिद्ध वा साधक (योगी) कहकर तारीफ़ करते हैं। राम-नाम लाखों को बड़ा करता है, वे चाहे जैसे
क्रूर कायर कपूत क्यों न हों, चाहे आधी कौड़ी काम के भी न हों अथवा रामनाम ने तुलसी ऐसे मनुष्य को ललित और ललाम सा कर दिया, जो कौड़ी काम का न था उसे लाखों के मोल का कर दिया।

[२११]


सब-अंग-हीन, सब-साधन-विहीन, मन
बचन मलीन, हीन कुल करतूति हौं*।
बुद्धि-बल-हीन, भाव-भगति-विहीन, दीन,
गुन-ज्ञान-हीन, हीन-भाग हू विभूति हौं॥
तुलसी गरीब की गई-बहोर राम नाम,
जाहि जपि जीह राम हू को बैठो धूति हौं।
प्रीति राम नाम सों, प्रतीति रामनाम की,
प्रसाद रामनाम के पसारि पायँ सूति हौं†॥

अर्थ—सब अङ्गों से हीन हूँ और साधन से रहित हूँ, मन और वचन दोनों मैले हैं और अपने कुल के कर्तव्यों अथवा कुल और कर्चव्य (कर्मादिक) से भी हीन हूँ। बुद्धि और बल दोनों से रहित हूँ, न मुझमें भाव है न भक्ति, दीन हूँ, न गुण है न ज्ञान, न भाग्य ही अच्छा है न विभूति ही है। हे तुलसी! गरीब की गई बहोरने (लौटाने) वाला रामनाम है कि जिसे जोभ से जपकर पवित्र हो बैठा हूँ अथवा राम को भी धूति छखने बैठा हूँ। मेरी प्रीति रामनाम से है, राम ही का भरोसा है। रामनाम के प्रसाद से पैर पसारकर सोता हूँ। अथवा उसके एवज़ में केवल प्रसाद रूप पैर दबाना चाहता हूँ।

[२१२]


मेरे जानि जब तें हौं जीव ह्वै जनम्यों जग,
तब तें बिसाह्यो दाम लोह कोह काम को।
मन तिनहीं की सेवा, तिनहीं सोँ भाव नीको,
बचन बनाइ कहौं ‘हौं गुलाम राम को’॥



* पाटान्तर—धूति हों, अर्थ—धोता हूँ, छलता हूँ।


†पाठान्तर—सूति हों, अर्थ—सोता हूँ, दबासा हूँ।


नाथ हू न अपनायो, लोक झूठी है परी, पै
प्रभु हूँ तें प्रवल प्रताप प्रभु नाम को।
आपनी भलाई भलो कीजै तो भलाई, न तो
तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को॥

अर्थ—मेरी समझ में जब से मैं उत्पन्न हुआ हूँ तब से लोभ काम और क्रोध ही को बिसाहा (मोल लिया)। उन्हीं में मन लगा है, उन्हों की सेवा की है, उन्हीं का भाव है, बात बना-बनाकर कहता हूँ कि राम ही का गुलाम हूँ। नाथ ने भी न अपनाया और संसार भी झूठा हो गया अथवा राम का कहलाता था यह बात भी संसार में झूठी हो गई। परंतु प्रभु से भी प्रभु के नाम का प्रताप अधिक है, अपनी भलाई से भला कीजिए तो अच्छा है, नहीं तो तुलसी का खजाना खुलेगा जो खोटे दामों ही का है अर्थात् पाप से भरा है।

[२१३]


जोग न बिराग जप जाग तप त्याग ब्रत,
तीरथ न धर्म जानों बेद बिधि किमि है।
तुलसी सो पोच न भयो है, नहिं ह्वैहै कहूँ,
सोचैं सब याके अघ कैसे प्रभु छमिहै॥
मेरे तौ न डरु रघुबीर सुनौ साँची कहौं,
खल अनखैहैं, तुम्हें सज्जन न गमिहै।
भले सुकृती के संग मोहिँँ तुला तौलिए तौ,
नाम के प्रसाद भार मेरी ओर नमिहै॥

अर्थ—न मुझे योग आता है, न मेरे वैराग्य है, न जप न तप न त्याग है, न व्रत है, न मैंने तीर्थ किया है, न मैं धर्म जानता हूँ, न यह जानता हूँ कि वेद की क्या रीति है। तुलसी सा कमीना न है, न हुआ है, न होगा। सब इसके लिए सोच करते हैं कि इसके पापों को प्रभु कैसे क्षमा करेंगे। हे रघुवीर! सुनो, सच कहता हूँ, मुझे तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि खल अनखायँगे और सज्जन लोग भी न छोड़ेंगे परंतु चाहे जैसे पुण्यात्मा के साथ मुझे सौल देखिए नाम की बदौलत मेरा ही पल्ला भारी होगा।

[ २१४ ]

जाति के, सुजाति* के, कुजाति† के, पेटागि बस,
खाए टूँक सब के बिदित बात दुनी सो।
मानस बचन काय किए पाप सति‡ भाय,
राम को कहाय दास दगाबाज पुनी सो॥
राम नाम को प्रभाउ पाउ§, महिमा प्रताप,
तुलसी से जग मानियत महामुनी सो।
अति ही अभागो अनुरागत न रामपद,
मूढ़ एतो बड़ो अचरज देखि‖ सुनी सो॥

अर्थ―जाति, कुजाति, अच्छी जाति, सब के टुकड़े पेट की अग्नि के वश खाये, सो बात दुनिया जानती है। मन, वचन, शरीर से पाप सहज ही (अनेक) किये, फिर राम का कहाकर भी दग़ाबाज़ रहा। रामनाम का प्रभाव ऐसी महिमा और प्रताप रखता है कि जिससे तुलसी सा मनुष्य बड़ा मुनि सा गिना जाता है, ऐसा मैंने सुना है। वह बड़ा अभागा है जो राम के पद में प्रीति नहीं लगाता और इतना बड़ा मूढ़ है कि जिसके सुनने से अचरज होता है, अथवा हे मूढ़! इतना बड़ा अचरज देख सुनकर भी जो रामपद में प्रीति नहीं करता वह बड़ा अभागा है।

[ २१५ ]

जायो कुल मंगन, बधावनों बजायो सुनि,
भयो परिताप पाप जननी जनक को।



*पाठान्तर―कुजाति।
†पाठान्तर―अजाति।
‡पाठान्तर―सत्य।
§पाठान्तर―बाउ।
‖पाठान्तर―देखी।


पाठान्तर―वधायो न।


बारे तेँ ललात बिललात द्वार द्वार दीन,
जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को॥
तुलसी सो साहिब समर्थ को सुसेवक है,
सुनत सिहात सोच बिधि हू गलक को।
नाम, राम! रावरो सयानो किधौं बाबरो,
जो करत गिरी तेँ गरु तृन तेँ तनक को॥

अर्थमँगतों के कुल में जनमा हूँ। जन्म का बधावा न बजा, जन्म सुनकर माता-पिता दोनों को पाप का परिताप हुआ। छोटे से, द्वार द्वार ललचाता रोता फिरता हूँ, दीन हूँ और चार चनों ही को चारों फल जानता हूँ अर्थात् चार चने मिल जाने से जानता हूँ कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फल मिल गये। सो तुलसी समर्थ साहब का अच्छा सेवक है, जिससे की हुई सेवक की प्रशंसा को सुनकर ब्रह्मा से गणितज्ञ को भी शोच होता है अथवा जिसे सुनकर ब्रह्मा सराहना करते हैं और शोच करने लगते हैं कि यह इतना बड़ा कैसे हो गया। हे राम! आपका नाम सधाना है या बावला है जो तिनके से भी हलके को पहाड़ सा भारी करता है।

[२१६ ]


बेद हु पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
रामनाम ही सोँ रीझे सकल भलाई है।
कासी हू मरत उपदेसत महेस सोई,
साधना अनेक चितई न चित लाई है॥
छाछी को ललात जे ते रामनाम के प्रसाद
खात खुनसात सौँधे दूध की मलाई है।
रामराज सुनियत राजनीति की अवधि,
नाम राम! रावरे तौ चाम की चलाई है॥

अर्थवेद और पुराण में भी लिखा है और संसार में देखने में भी आता है कि सब भलाई रामनाम पर रीझती है अथवा रामनाम के रीझने पर सब भलाई होती है। काशी मरने के समय भी शिवजी यही उपदेश करते हैं और अनेक </noinclude>
साधनों को उन्होंने न तो देखा न उनको चित्त में लाया। मट्ठे का लालच करता हूँ जब कि रामनाम के प्रसाद से सब (खुनसें) एवं (सोधे) दूर होकर दूध की मलाई खाने को मिलती है अथवा जो छाछ का लालच करते थे वे तुलसीदास रामनाम के प्रसाद से दूध की सोंधी मलाई खाने में खुनलाते हैं (ख़फ़ा होते हैं)। राम के राज्य में राजनीति की हद सुनी जाती है, परन्तु हे राम! आपके नाम ने तो धाम की (नौका पानी पर) चलाई है, अथवा चाम (का सिक्का) चलाया है अथवा चाम (की धौंकनी, शरीर) को चलाया (सज्जीवित कर दिया) है।

[ २१७ ]


सोच संकटनि सोच संकट परत,
जर जरत, प्रभाव नाम ललित ललाम को।
बूड़ियौ तरति, बिगरीयौ सुधरति बात,
होत देखि दाहिनो सुभाव बिधि बाम को॥
भागत अभाग, अनुरागत बिराग, भाग
जागत, आलसि तुलसी हू से निकाम को।
धाई धारि फिरि कै गोहारि हितकारी होति,
आई मीचु मिटति जपत रामनाम को॥

अर्थ—शोच और सङ्कट भी शोच और सङ्कट में पड़ते हैं। जर (ज्वर अथवा जरा, बुढ़ापा) जल जाता (नष्ट हो जाता) है अथवा जर्जर (नष्ट) हो जाता है। यह प्रभाव ललित (सुन्दर) ललाम (माथेवाला) मुकुदमणि रामचन्द्र के नाम का है। डूबी हुई नाव भी तैरने लगती है और बिगड़ी हुई बात भी सुधर जाती है। रामनाम की बात होते ही देखकर क्रूर विधि (ब्रह्मा) का स्वभाव भी दाहिना हो जाता है। अभाग्य भाग जाता है, वैराग्य में भी प्रेम आ जाता है और तुलसी से बेकाम आलसी का भी भाग्य जाग जाता है। रामनाम के जपने से आई हुई मृत्यु भी लौट जाती है, धावा करने अर्थात् चढ़कर आई हुई धारि (फ़ौज) भी लौट जाती है, गोहारि हितकारी होती है।

[२१८]


आँधरो, अधम, जड़, जाजरो जरा जवन,
सूकर के सावक ढका ढकेल्यो मग में।


गिरो हिये हहरि, ‘हराम हो हराम हन्यो’
हाय हाय करत परी गो कालफँग में॥
तुलसी बिलोक ह्वै त्रिलोकपति-लोक गयो
नाम के प्रताप, बात बिदित है जग में।
सोई रामनाम जो सनेह सों जपत जन
ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमै॥

अर्थ—अन्धा, नीच, मूर्ख और जरा (बुढ़ापे) से जर्जर (टूटे हुए) (बुड्ढे) यवन (मुसलमान) कों शूकर के बच्चे ने रास्ते में ढकेल दिया। वह हृदय में घबराकर गिरा, हाय हाय करने लगा कि हराम, हराम (सुअर के बच्चे ) ने मारा। ऐसी ही दशा में काल के फन्दे में पड़ गया। हे तुलसी! सो शोक-रहित होकर त्रिलोक- पति के लोक को गया, सो केवल नाम (राम) ही के प्रताप से, यह बात जगत् में विदित है। वही रामनाम है जिसे दास बड़े प्रेम से जपते हैं और जिसकी अथवा जो दास उसी रामनाम को प्रेम-पूर्वक जपते हैं उनकी महिमा वेद से भी नहीं गाई जाती।

[२१९]


जाप की न, तप खप कियो न तमाइ जोग,
जाग न, बिराग त्याग तीरथ न तनको।
भाई को भरोसो न, खरोसो बैर बैरी हू सों,
बल अपनो न, हितू जननी न जन को॥
लोक को न डर, परलोक को न सोच,
देव सेवा न सहाय, गर्ब धाम को न धन को।
राम ही के नाम तें जो होइ सोइ नीको लागै,
ऐसोई सुभाव कछु तुलसी के मन को॥

अर्थ—मैंने न जप किया है, न तप सहन किया, न योग किया, न यज्ञ, न वैराग्य, न त्याग, न तनिक (ज़रा भी) तीर्थ ही किया। न भोई से भरोसा है, न बैरी से बड़ा बैर, और न अपना बल है। न माता पिता का प्रेम है, न दुनिया का डर है, न परलोक का शोच, न देवता की सेवा की है जिससे उनकी सहायता हाती, न धाम का
गरूर है न धन का। राम ही के नाम से जो होता है वह मुझे अच्छा लगता है। तुलसी के मन का कुछ ऐसा ही स्वभाव हो गया है।

शब्दार्थ--न तमाइ जोग= न योग की तमअ (लालच) है अथवा न तमअ (लालच करने) के योग्य है।

[२२०]


ईस न, गनेस न, दिनेस न, धनेस न,
सुरेस सुर गौरी गिरापति नहिं जपने।
तुम्हरेई नाम को भरोसो भव तरिबे को,
बैठे उठे जागत बागत सोये* सपने॥
तुलसी है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जिय कीजिए जु अपने।
जानकी-रमन मेरे! रावरे बदन फेरे,
ठाउँ न समाउँ कहाँ सकल निरपने॥

अर्थ—न ईश, न गणेश, न सूर्य्य, न कुबेर, न इन्द्र, न देवता, न पार्वती और न शिव को जपता हूँ। दुनिया से तरने के लिए तुम्हारे ही नाम का भरोसा है। बैठते-उठते, जागते-फिरते, सोते और सपने में यदि तुलसी बावला है तो भी तुम्हारा है। आपकी कसम यह जानकर अपने मन में आप भी उसे (उसका स्थान) कीजिए, अथवा यह अपने मन में जानकर (अपने दासों) में कीजिए अर्थात् अपनाइए। हे मेरे जानकी नाथ! आपके मुँँह फेर लेने से ऐसे निपट अकेले का न कहीं ठिकाना है, न कोई सँभालनेवाला है। सब निरपने अर्थात् बिराने हैं।

[२२१]


जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो,
बेचिए बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे
नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए॥



* पाठान्तर—सुख।


तुलसी तिहारो मन बचन करम, तेहि
नाते नेह-नेम निज ओर तें निबाहिए।
रंक के निवाज रघुराज राजा राजनि के,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥

अर्थ—यह बात संसार में ज़ाहिर है कि ज़माना ऐसा बुरा हो गया है कि कामधेनु वेचकर लोग गधी मोल लेते हैं। हे दयालु! ऐसे कराल कलियुग में भी तेरे नाम के प्रताप से तीनों ताप देह को नहीं जलाते हैं। हे राम! तुलसी तुम्हारा मनसा, वाचा, कर्मणा दास है, इस नाते से भी अपनी ओर से प्रीति निवाहिए। हे दरिद्रों पर कृपा करनेवाले रघुराज! हे राजाओं के राजा! हे महाराज! तुम्हारी उमर बड़ो चाहिए।

[२२२]


स्वारथ सयानप, प्रपंच परमारथ,
कहायो राम रावरो हौं, जानत जहानु है।
नाम के प्रताप, बाप! आज लौं निबाही नीके,
आगे को गोसाईं स्वामी सबल सुजानु है॥
कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव!*
पाहरूई चार हेरि हिय हहरानु है।
तुलसी की, बलि, बार बार ही सँभार कीबी
जद्यपि कृपानिधान सदा सावधानु है॥

अर्थ—स्वार्थ में बुद्धिमत्ता और प्रपञ्च में परमार्थ है, परन्तु मैं आपका कहाता हूँ— यह दुनिया में ज़ाहिर है। हे बाप! आपके नाम के प्रताप से भाज तक तो अच्छी रही और आगे के लिए स्वामी बुद्धिमान् और बलवान् है। कलियुग की कुचाल को देखकर प्रतिदिन दूना पहरा दूँँगा, क्योंकि चोरों को देखकर मन डरता है अथवा हे देव! काल की कुचाल को दिन-दिन दूनी देखकर और चौकीदार को ही चोर जानकर हृदय में भय होता है। हे महाराज! तुलसी की बार-बार सँभाल करना, यद्यपि आप सदा ही सावधान हैं (तथापि याद दिलाता हूँ)।


*पाठान्तर—देव।

[ २२३ ]

दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुख
दुरित दुराज, सख सुकृत सकोचु है।
माँगे पैंत पावत प्रचारि पातकी प्रचंड
काल की करालता भले को* होत पोचु है॥
आपने तौ एक अवलंब अंब डिंभ ज्यों†,
समर्थ सीतानाथ सब संकट-बिमोचु है।
तुलसी की साहसी सराहिए कृपालु, राम!
नाम‡ के भरोसे परिनाम को निसाचु है॥

अर्थ―यह देखकर कि दिन-दिन दुनिया में (दूना) दारिद्रर बढ़ता है, अकाल पड़ता है, दुःख और पाप जल्दी-जल्दी बनता है, सुख और पुण्य घटता है, पापीजन काल की करालता से माँगे पैत (दाँव) पाते हैं और भले को पोच (बुरा) होता है; जैसे बच्चे को एकमात्र सहारा माँ का होता है वैसे ही मुझे तो एक ही अवलम्ब समर्थ सीतानाथ का है जो सङ्कट से छुड़ानेवाले हैं। हे कृपालु राम! तुलसी के साहस को सराहिए कि उसे नाम के भरोसे पर परिणाम का कुछ सोच नहीं है।

[ २२४ ]

मोह-मद-मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारि सों,
बिसारि बेद लोक-लाज, आँकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुँह आवै सो कहत कछु,
काहू की सहत नाहिँ सरकस हेतु है॥
तुलसी अधिक अधमाई हु अजामिल तेँ
ताहू में सहाय कलि कपट-निकेतु है।



*पाठान्तर―पै।
†पाठान्तर―अम्बई भन्यौ।


‡पाठान्तर―राम।


जैबे को अनेक टेक, एक टेक ह्वैबे की,
जो पेट-प्रिय-पूत-हित रामनाम लेतु है॥

अर्थ—मोह के मद से मस्त और कुबुद्धि होकर कुलटा स्त्री रूपी कुमति से-वेद और लोक-लाज को छोड़कर-प्रीति लगाई है, सो आकरा (गहरा, निपट) अचेत है, जो जी चाहता है सो करता है, जो मुँह में आता है सो बकता है, किसी को कुछ नहीं सहता, बड़ा सरकस है। तुलसी अजामिल से भी अधिक नीच है और उस पर भी कलियुग, जो कपट का घर है, सहाय है। जाने की हज़ार बात है, होने की एक, जो पेट-रूपी प्रिय पुत्र के प्रेम से रामनाम लेता है।

[ २२५ ]


जागिए न सोइए बिगोइए जनम जाय,
दुख रोग रोइए कलेस कोह काम को।
राजा रङ्क, रागी औ बिरागी, भृरि भागी ये
अभागी जीव जरत, प्रभाव कलि वाम को॥
तुलसी कबंध कैसो धाइबो बिचारु, अंध!*
धंध देखियत जग सोच परिनाम को।
सोइबो जो राम के सनेह की समाधि-सुख,
जागिबो जो जी जपै नीके रामनाम को।

अर्थ—सचेत रहिए, साइए नहीं, जन्म को न बिगाड़िए, नहीं तो क्रोध और काम के दुःख से दिन भर रोया कीजिएगा। राजा दरिद्रो है, वैरागी रागी (भोग करनेवाले) हैं, बड़े भाग्यशाली भी अभागे हैं, इन सबसे जी जलता है, अथवा राजा, दरिद्री, वैरागी, रागी, भाग्यवान, अभागे सब जीव कलि के प्रभाव से जलते रहते हैं। यह सब कुटिल कलि का प्रभाव है। विचारकर देखने से ज्ञात होता है कि सिर कटे धड़ के समान बेसुध जगत् दौड़ता है, अँधाधुन्ध जगत् में दिखाई देता है अथवा हे अन्धे! (झूठे) जग के धन्धे को देख । (उसमें मन लगाते हैं) यह देखकर तुलसी को परिनाम का सोच है। सेना वही है जिससे राम के प्रेम की समाधि हो और जागना वही अच्छा है जो रामनाम को जीभ जपती रहे।


पाठान्तर—अंध।
[ २२६ ]


बरन-धरम गयो, आस्त्रम निवास तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो सो है।
करम उपासना कुबासना बिनास्यो, ज्ञान
बचन, बिराग बेष जगत हरो सो है॥
गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग,
निगम नियोग ते सो केलि ही छरो सो है।
काय मन बचन सुभाय तुलसी है जाहि
रामनाम को भरोसो ताहि को भरोसा है॥

अर्थ— वर्ण धर्म गया, और सब आश्रम के लोगों ने अपना स्थान (पद) छोड़ दिया, ड से चकित होकर परावना (भगी) सी पड़ी है। काम, उपासना (भक्ति) और ज्ञान की बुरी इच्छाओं ने कर्म आदि का नाश किया। वचन (बातों में) वैराग्य है, और वेश ने मानो जगत् को हर लिया है। गोरख ने योग जगाया सो राम की भक्ति वेद की आज्ञा से, लोगों को भगाया, सो मानो खेलही में छला है। शरीर-मन-वचन से सहज ही से, हे तुलसी! जिसे रामनाम का भरोसा है, उसी का भरोसा (सच्चा) है।

सवैया
[ २२७ ]

बेद पुरान बिहाइ सुपंथ कुमारग कोटि कुचाल चली है।
काल कराल नृपाल कृपालन राज-समाज बड़ोई छली है॥
बर्न-विभाग न आस्त्रम-धर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है।
स्वारथ को परमारथ को कलि राम को नाम-प्रताप बली है॥

अर्थ— वेद और पुराण के सन्मार्ग को छोड़कर करोड़ों कुमार्ग चले हैं, कराल काल है, राजा दयालु नहीं है और राजसमाज बड़ा छली है। वर्ण-विभाग नहीं रहा, न अब आश्रम धर्म है। दुःख, दोष और दरिद्र ने दुनिया को नष्ट कर डाला। स्वार्थ और परमार्थ के लिए रामनाम बड़ा बलवान् है।

[ २२८ ]

न मिटै भवसंकट दुर्घट है तप तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलि में न विराग न ज्ञान कहूँ सब लागत फोकट झूँठ जटो॥
नट ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुख चाहिय तो रसना निसि-बासर राम रटो॥

अर्थ―संसार का सङ्कट बड़ा कठिन है, मिटता नहीं, चाहे कितना ही तप क्यों न करो और तीर्थ में अनेको जन्म तक क्यों न फिरो। कलियुग में न कहीं वैराग्य है, न ज्ञान, सब फिज़ूल भूठ से जड़ा हुआ देखने मात्र ही को है। नट की भाँति पेट के पिटारे के लिए करोड़ों चेटक और तमाशों का ठाट मत रचो। तुलसी कहते हैं जो सदा सुख चाहिए तो जीभ से दिन-रात रामनाम रटो।

[ २२९ ]

दम दुर्गम, दान दया मखकर्म सुधर्म अधीन सबै धन को।
तप तीरथ साधन जोग बिराग सों होइ नहीं दृढ़ता तन को॥
कलिकाल कराल में, राम कृपालु! यहै अवलंब बड़ो मन को।
तुलसी सब संजम-हीन सबै, एक नाम अधार सदा जन को॥

अर्थ―दम, दान, दया, यज्ञ―ये सब काम मुश्किल हैं, सब सत्-धर्म धन के अधीन हैं। तप, तीर्थ, साधन, योग, वैराग्य बनता नहीं है। देह में इतनी दृढ़ता नहीं है। परन्तु कराल कलियुग में यही मन को बड़ा भरोसा है कि राम दयालु हैं। तुलसी के कोई संयम नहीं है। इस दास को सदा नाम ही का आचार है।

[ २३० ]

पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी लही, करनी न कछू की।
राम-कथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रू की॥
अब जोर जरा जरि गात गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीके के ठीक दई तुलसी, अबलंब बड़ी उर आखर दू की॥

अर्थ―सुन्दर देह पाकर बेखबर रहा, नदी में तरने को नौका न पाई, अथवा मोह की नदी में सुन्दर देह-रूपी नौका पाई, परंतु कुछ करनी न की, न कुछ सन्दर करनी की। राम-कथा को भी रचकर वर्णन न किया, न प्रह्लाद या ध्रुव की कथा को ही सुना। अब बुढ़ापा आया और गात जल गये, परन्तु मन ने ग्लानि मानकर अपनी कुबानि को न छोड़ा। तुलसी ने भलाई के लिए ठीक किया कि दो अक्षर (राम नाम) के अवलम्ब को उर में धारण किया।

[ २३१ ]

राम विहाय 'मरा' जपते बिगरी सुधरी कवि-कोकिल हू की।
नामहिं ते गज की, गनिका की, अजामिल की चलिगै चलचूकी॥
नाम प्रताप बड़े कुसमाज बजाइ रही पति पांडु-वधू की।
ताको भलो अजहूँ तुलसी जेहि प्रीति प्रतीति है आखर दू की॥

अर्थ―राम को छोड़कर 'मरा' जपने से कवि-कोकिल (वाल्मीकि) की बिगड़ी भी बन गई। नाम ही से गज, गणिका, अजामिल की भूल-चूक चली गई (माफ़ हो गई)। नाम के प्रताप से बुरी सभा में द्रौपदी की जाती हुई लाज रह गई अथवा कुसमाज में बजाय (डंके की चोट) रही। तुलसी! जिसे दो अक्षर पर प्रेम और उनपर भरोसा है उसका आज भी भला है।

[ २३२ ]

नाम अजामिल से खल तारन, तारन बारन बार बधू को।
नाम हरे प्रहलाद विषाद, पिता भय साँसति सागर सको॥
नाम सों प्रीति-प्रतीति विहीन गिल्यो कलिकाल कराल न चूको।
राखिहैं राम सो जासु हिये तुलसी हुलसै बल आखर दू को॥

अर्थ―नाम ने अजामिल से खल को भी तार दिया और वारण (हाथी) तथा गणिका का भी तारनेवाला नाम ही है। नाम ने प्रह्लाद के दुःख को हुरा, जिससे पिता की साँसति (ताड़ना) और भय का सागर सूख गया। रामनाम के प्रेम और विश्वास से जो विहीन है उससे गिलो (झगड़ा) करने में कलिकाल नहीं चूकता अथवा कलिकाल रामनाम से विहीन को गिला (लील लो), मत चूको। हे

तुलसी! राम उसे रखेंगे जिसका हृदय दो अक्षरों (राम) के नाम के बल पर प्रसन्न होता है।

[ २३३ ]

जीव जहान में जायो जहाँ सो तहाँ तुलसी तिहुँ दाह दहो है।
दोस न काहू, कियो अपनो, सपनेहु नहीं सुख-लेस लहो है॥
राम के नाम तें होउ से होउ, न सोऊ हिये, रसना ही कहो है।
कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछु, मरिबोई रहा है॥

अर्थ―तुलसीदास कहते हैं कि संसार में जहाँ जीव पैदा होता है वहीं तीनों दाह (ताप) से जला करता है, इसमें किसी का दोष नहीं है क्योंकि सब अपना ही किया हुआ है (पहले जन्मों के किये कर्मों का फल है)! मैंने तो सपने में भी लेश-मात्र भी सुख नहीं पाया। एक राम का नाम लेता हूँ जो हो सो हो, परन्तु राम- नाम भी मुँह से ही लेता हूँ, मन में वह भी नहीं लाता हूँ, न कुछ मैंने किया है, न कुछ करना है, न कुछ कहना है, बस मरना ही बाक़ी रह गया है।

[ २३४ ]

जीजै न ठाँउ, न आपन गाँउ, सुरालयहू को न संबल मेरे।
नाम रटौं, जम बास क्यों जाउँ, को आइ सकै जम किंकर नेरे?॥
तुम्हरो सब भाँति, तुम्हारिय सौं, तुम्हही, बलि, ही मोकों ठाहरु हेरे।
बैरष बाँह बसाइए पै, तुलसी धरु ब्याध अजामिल खेरे॥

अर्थ―जीने के लिए मेरे पास कोई जगह नहीं है, न अपना कोई गाँव है, स्वर्ग में जाने के लिए भी कोई साधन नहीं है। परंतु नाम रटता हूँ इसलिए यमलोक में क्यों जाऊँ, यम के नौकर मेरे पास क्यों आवेंगे। सब तरह तुम्हारा ही हूँ, तुम्हारी सौगन्ध है, तुम्ही मेरे लिए ठहरने (शान्ति पाने) के स्थान हो। अपनी शरण लेकर मुझे अपने ही झण्डे में बसाइए, तुलसी का घर व्याध और अजामिल के खेड़े पर बसे।

[ २३५ ]

का कियो जोग अजामिल जू, गनिका कबहीं मति पेम पगाई?
व्याध को साधुपनो कहिए, अपराध अगाधनि में ही जनाई॥
करुनाकर की करना करना-हित नाम सुहेत जो देत दगाई।
काहे को खोजिय? रीमिय पै, तुलसीहु सों है, बलि, सोइ सगाई॥

अर्थ―अजामिल ले कया योग किया था और गणिका ने कब अपनी बुद्धि को प्रेम में पागा था? व्याध की सज्जनता का वर्णन कीजिए, वह तो उसके अगाध अपराधों में ही दिखाई देती है। रामचन्द्रजी दमाही के लिए दया करते हैं, जो दगा देते हैं (जो दग़ाबाज़ हैं) उनके लिए नाम ही अच्छा हित है। क्यों रूठते हो, प्रसन्न हूजिए तुलसीदास से भी वही नाता है जो अजामिल आदि से था।

[ २३६ ]

जे मद-मार-विकार भरे ते अचार-विचार समीप न जाहों।
है अभिमान तऊ मन में 'जन भाषिहै दूसरे दीनन पाहीं'?
जो कछु बात बनाइ कहौं तुलसी तुम में तुम हूँ उर माहों।
जानकी-जीवन जानत हो हम हैं तुम्हरे, तुम में, सक नाहीं॥

अर्थ―जो मद और कामदेव के विकारों से भरे हैं, आचार और विचार उनके पास भी नहीं जाले। फिर भी मन में अभिमान है क्या आपका दास दूसरे के सामने दीन बचन बोलेगा? तुलसीदास कहते हैं कि यदि तुमसे कोई बात बनाकर झूठी बात कहता हूँ तो तुलसी तो आप में है और आप तो हृदय ही में मौजूद हैं। हे रामचन्द्रजी! आप जानते हैं कि मैं तो आप ही का हूँ, आपमें कुछ सन्देह नहीं रखता हूँ, अर्थात् मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मुझे अपनायेंगे; अथवा हम आप में हैं इसमें कुछ सन्देह नहीं है।

[ २३७ ]

दानव देव अहीस महीस महा मुनि तापस सिद्ध समाजी।
जग जाचक दानि दुतीय नहीं तुमही सबकी सब राखत बाजी॥
एते बड़े तुलसीस तऊ सबरी के दिए विनु भूख न भाजी।
राम गरीबनेवाज! भये हौं गरीबनेवाज गरीबनेवाजी॥

अर्थ―दानव, देवता, नाग, राजा, बड़े मुनि तपस्वी, सिद्ध और सामाजिक लोग संसार के भिखारी हैं। देनेवाला तुम्हारे सिवा कोई नहीं है। तुम्हीं सबकी लाज सब प्रकार से रखनेवाले हो। आप इतने बड़े हैं, हे रामचन्द्रजी, तब भी सबरी के दिये हुए फलों के बिना आपकी भूख नहीं मिटी। गरीबनिवाज रामचन्द्र! आप

गरीबों पर दया करके ही ग़रीबनिवाज हुए हो।

घनाक्षरी

[ २३८ ]

किसबी, किसान कुल, बनिक, भिखारी, भाँट,
चाकर, चपल, नट, चोर, चार, चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेट की॥
ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेंचत बेटा बेटकी।
तुलसी बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़बागि तें बड़ी है आगि पेट की॥

अर्थ―मज़दूर, किसान, बनिये, भिखारी, भाट, नौकर, नट, चोर, चार (हलकारे) बाज़ीगर, पेट ही के लिए लोग विद्या सीखते हैं और गुणों को गढ़ते हैं (पैदा करते हैं), पहाड़ों पर चढ़ते हैं, घने जंगलों में शिकारी शिकार की तलाश में फिरते हैं, भले बुरे कर्म, धर्म और अधर्म करते हैं और लड़के-लड़कियों को बेचते हैं। यह सब पेट के लिए करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि एक घनश्याम रामचन्द्रजी से बुझती है, पेट की आग तो बड़वानल से भी बड़ी है।

[ २३९ ]

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीद्यमान* सोच बस,
कहैं एक एकन सोँ “कहाँ जाई, का करी”?॥
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलाकियत,
साँकरे सबै† पै राम रावरे कृपा करी।



*पाठान्तर―विद्यमान।


†पाठान्तर―समै।

दारिद-दसानन दवाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥

अर्थ—किसान को खेती नहीं है, न भिखारी को भीख मिलती है, न बनिये का व्यापार है और न नौकर की नौकरी है। जीविका से हीन लोग पीड़ित होकर शोच में पड़े रहते हैं और परस्पर यही कहते हैं कि क्या करें? कहाँ जायँ? वेद और पुराण में भी कहा है और संसार में भी दिखाई देता है कि संकट में, हे राम! आप ही कृपा करते हैं। अब दुनिया को दरिद्र-रूपी रावण ने दबा लिया है, हे दीनबन्धु! आयको पापों से बचानेवाला देखकर तुलसी खुशामद करता है (जल्द बचाओ)।

[२४०]


कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन,
जोबन जरत जुर,* परै न कल कहीं।
राज काज कुपथ कुसाज, भोग रोग ही के,
बेद-बुध बिद्या पाइ बिबश बलकहीं॥
गति तुलसीस की लखै न कोउ जो करत,
पब्बइ तें छार, छारै पब्बइ† पलकहीं।
कासों कीजै रोष? दोष दीजै काहि? पाहि राम!
कियो कलिकाल कुलि खलल खलकहीं॥

अर्थ—कुल, काम, ऐश्वर्य, कीर्ति, स्वरूप, गुण और यौवन के मद-रूपी ज्वर में (संसार के सब जीव) जल रहे हैं, कहीं कल नहीं पड़ती। राज-काज ही कुपथ्य और कुलाज है, भोग रोग (ज्वर) के बढ़ाने के लिए ही होता है। वेद पढ़कर और विद्या पाकर पण्डित व्यर्थ ही वाद करते हैं। तुलसीश (राम) की गति को कोई नहीं देखता, जो क्षण में वज्र से क्षार और क्षार से वज्र करते हैं। किस पर क्रोध किया जावे और किसे दोष दिया जावे, हे राम! आप ही बचाइए, कलियुग ने सब संसार ही में गड़बड़ो मचा दी है।



*पाठान्तर—परत न कछू कही।


पाठान्तर—तुरत पविसो करत चार पवि सो।
[२४१]


बबुर बहेरे को बनाइ बाग लाइयन,
रूँधिवे को सोइ सुरतरु काटियत है।
गारी देत नीच हरिचन्द ह दधीचि हूँ को,
आपने चना चबाइ हाथ चाटियत है॥
आप महापातकी हँसत हरि हरहू को,
आपु है अभागी भूरिभागी डाटियत है।
कलि को कंलुष मन मलिन किये महत*,
मसक की पाँसुरी पयोधि पाटियत है॥

अर्थ—बबूल और बहेरे का बाग़ बना-बनाकर लगाया जाता है और उसके रूँधने के लिए (काँटें की जगह) कल्पवृक्ष काटा जाता है। हरिश्चन्द्र और दधीचि को भी नीच गाली देते हैं, यद्यपि अपने चना चबाकर हाथ चाटते हैं (चना भी पेट भर नहीं पाते हैं)। खुद महापापी हैं, किन्तु विष्णु और महादेव की भी हँसी उड़ाते हैं। स्वयं अभागे हैं, परन्तु भाग्यवानों को डाटते हैं। कलियुग पापी ने मन ऐसे मैले किये हैं कि मच्छड़ की पसुरियों से समुद्र पाटते हैं।

[२४२]


सुनिये कराल कलिकाल भूमिपाल तुम!
जाहि घालो चाहिए कहौ धौं राखै साहि को।
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारों ढारों रावरो न,
मैं हूँ तैं हूँ ताहि को सकल जग जाहि को॥
काम कोह लाइ कै† देखाइयत भाँखि मोहिं,
एते मान अकस कीबे को आपु आहि को?।
साहिब सुजान जिन स्वान हूँ को पच्छ कियो,
रामबोला नाम, हौं गुलाम राम साहि को॥



*पाठान्तर—कहत।
†पाहान्तरको—को हलाइ।
अर्थ―हे कठिन राजा कलि! सुनो, जिसे तुम मारना चाहो उसे कौन रख सकता है? मैं तो दीन और दुर्बल हूँ। आपका न कुछ बिगाड़ता हूँ, न ढारता हूँ (गिराता हूँ या बनाता हूँ)। मैं और तुम दोनों उसी के हैं जिसका सकल जग है। काम को हलाकर (झण्डी की तरह दिखाकर) अथवा काम और क्रोध मन में लाकर मुझे आँख क्यों दिखाते हो? मेरे माल को उलटा करनेवाले अथवा इतना विरोध करनेवाले आप कौन हैं? मैं तो "रामबोला" नाम रामचन्द्र राजा का नौकर हूँ, जो सुजान मालिक अपने कुत्ते का भी पक्ष करते हैं।

सवैया

[ २४३ ]

साँची कही कलिकाल कराल मैं, डारो बिगारो तिहारो कहा है?।
काम को,कोह को,लोभ को,मोह को,मोहि सों आनि प्रपंच रहा है॥
हौ जगनायक लायक आजु पै मेरियो देव कुटेव* महा है।
जानकीनाथ बिना, तुलसी, जग दूसरे सों करिहौं न हहा है॥

अर्थ―सच कहो, हे कराल कलियुग! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो काम, क्रोध, मोह और लोभ को लाकर मुझसे ही प्रपंच रचा है? आप आज जगनायक (राजा) के लायक हैं। परन्तु तुलसीदास कहते हैं कि मेरी भी तो यह बड़ी बुरी टेव है कि सिवा जानकीनाथ के दूसरे से याचना न करूँगा।

[ २४४ ]

भागीरथी जलपान करौं अरु नाम द्वै राम के लेत नितै हौं।
मोको न लेनो न देना कळू, कलि! भूलि नराबरी और चितैहौं॥
जानि कै जोर करौं परिनाम, तुम्है पछितैहो पै मैं न भितैहौं।
ब्राह्मन ज्यों उगिल्या उरगारि हौं त्योंहीं तिहारे हिये न हितैहैं॥

अर्थ―गङ्गा का जल पीता हूँ और श्री राम का नाम दो बार लेता हूँ मुझे किसी से न लेना है, न देना। हे कलि! आपकी और मैं भूलकर न देलूँगा। ऐसा जानकर भी प्रणाम करता हूँ अथवा ऐसा जानकर चाहे जितना जोर करो अन्त में तुम्हों


  • पाठान्तर―देव। पछताओगे; अयक्षा चाहे जितना पछताऊँ परन्तु मैं तुमसे डरूँगा नहीं। जैसे ब्राह्मण को गरुड़ ने जगल हिया या वैसे मैं भी तुम्हारे पेट में कभी न ठहरूँगा।

[ २४५ ]

राज मराल के बालक पेलिकै, पालत लालत खूसर को।
सुचि सुन्दर सालि सकेलि सुवारि कै बीज बटोरत ऊसर को॥
गुन ज्ञान-गुमान भभेरि बड़ी, कलपद्रुम काटत मूसर को।
कलिकाल बिचार अचार हरो, नहि सूझै कछू धमधूसर को॥

अर्थ―राजहंस के बच्चे को हटाकर खूसट को पालते हैं, अच्छे पवित्र चावल को छोड़कर असर का बीज बटोरते हैं, गुण और ज्ञान का बड़ा भड़दल है अथवा ज्ञान और गुण का बड़ा अहंकार है कि मूसर के लिए कल्पद्रुम को काटते हैं। कलियुग में आचार- विचार सब नष्ट हो गया, बड़ा कौन है यह दिखाई नहीं देता अथवा बेवकुफ़ को कुछ नहीं दिखाई देवा।

[ २४६ ]

कीबे कहा, पढ़िबे को कहा फल? बूझि न बेद को भेद बिचारै।
स्वारथ को परमारथ को कलिकामद राम को नाम बिसारै॥
बाद-बिबाद बिषाद बड़ाइ कै छाती पराई औ आपनी जारै।
चारिह को छहु को नव को दश पाठ को पाठ कुकाठ ज्यों फारै॥

अर्थ―क्या किया जावे, पढ़ने ही का क्या फल है, यदि वेद का भेद समझबूझकर न विचारा और स्वार्थ तथा परमार्थ दोनों देने के लिए कामधेनु समान रामनाम को यदि छोड़ दिया, वाद-विवाद और द्वेष बढ़ाकर अपनी और पराई छाती को जलाया, चारों वेद, छहों शास्त्र, नव व्याकरण और अठारहों पुराण का पाठ सूखे काठ की तरह फाड़ा अर्थात् बेकार इधर-उधर खींच तानकर कुछ न कुछ मतलब निकाला।

[ २४७ ]

आगम बेद पुरान बखानत, मारग कोटिन जाहि न जाने।
जे मुनि ते पुनि आपहि आपुको ईस कहावत सिद्ध सयाने॥

धर्म सबै कलिकाल ग्रेस, जप जोग विराग लै जीव पराने।
को करि सोच मरै, तुलसी, हम जानकीनाथ के हाथ बिकाने॥

अर्थ―वेद, शास्त्र, और पुराण करोड़ो धर्म के मार्गो का वर्णन करते हैं जिनका कुछ पता नहीं चलता; जो मुनियों के समूह हैं वे अपने आप को ईश्वर, सिद्ध और सयाने कहलवाते हैं। जितने धर्म हैं उन सबको कलियुग ने पकड़ रक्खा हैं, और जप और योग सब अपने अपने प्राण लेकर भाग गये हैं। तुलसी कहते हैं कि शोच करके कौन मरै, हम तो श्रीरामचन्द्रजी के हाथ बिक चुके।

[ २४८ ]

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
का की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ*।
माँगिके खैबो मसीत† को साइबो लैबे को एक न देवे को दोऊ॥

अर्थ―चाहे कोई धूर्त बतावे या अवधूत (फ़क़ीरर) कहै या रजपूत कहै, किसी की लड़की से मुझे लड़का ब्याहकर उसकी जात नहीं बिगाड़ना है। तुलसी तो राम का गुलाम प्रसिद्ध है, जिसका जो जी चाहे सो कहै; माँगकर खाता है, मज़े से सोता है। उसे न लेना एक है न देना दो। (अन्य पाठ मजीत को सोइबो अर्थात् मसजिद जहाँ सब की गम्य है ऐसे स्थान पर सोना।)

घनाक्षरी

[ २४९ ]

मेरे जाति पाँति, न चहौं काहू की जाति पाँति,
मेरे कोऊ काम को न हौं काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसी के एक नाम को॥
अति ही अयाने उपखानो नहिं बूझैं लोग,
साहही को गोत गोत होत है गुलाम को।



*पाठान्तर―सोज।
†पाठान्तर―मजीत।
साधु कै असाधु, के भला कै पोच, सोच कहा, काहूके द्वार परौं जो हैं। सा हैंराम को ॥ अर्थ--मेरी कोई जाति-पाँति नहीं है, और न मैं किसी की जाति-पाँति चाहता हूँ: न कोई मेरे काम का है, न मैं किसी के काम का; लोक-परलोक सब रामचन्द्र के हाथ है। तुलसी को एक राम नाम ही का भारी भरोसा है। लोग बड़े बेशऊर हैं जो इस कथा को नहीं जानते हैं कि साह ( मालिक ) का गीत ही गुलाम का गोत होता है। साधु हूँ तो, असाधु हूँ तो, भला हूँ या बुरा, किसी को क्या मतलब ? क्या मैं किसी के दरवाजे पर पड़ा हूँ ? जो हूँ, राम का हूँ। [२५० ] कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो, कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है। साधु जानै महासाधु, खल जाने महाखल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है ॥ चाहत न काहू सों, न कहत काहू की कछु, सबकी सहत उर अंतर न ऊब है। तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ ही के, राम की भगति भूमि, मेरी मति दूब है ॥ अर्थ-बाज़ लोग कहते हैं कि मैं बड़ा दगाबाज़ हूँ, कुसाज अर्थात् धोखा देने को बुरी सामग्रो इकट्ठा करता हूँ, और बाज़ लोग कहते हैं कि खूब रामचन्द्र का भक्त हूँ; मुझे साधु भला जानते हैं, खल महाखल, करोड़ों तरह की झूठी-सच्ची बातें मेरे लिए पानी फैसे बुदबुदे की सरह उठती हैं (कही जाती हैं)। न मैं किसी से कुछ चाहता हूँ, और न किसी से कुछ कहता हूँ, सब की सहता हूँ। मेरे मन में कुछ अब नहीं है यानी सहते-सहते थका नहीं हूँ। तुलसी का भला और बुरा रघुनाथ के हाथ है, राम की भक्ति रूपी दूब मेरी देह रूपी भूमि में सब जगह विद्यमान है।

  • पाठान्तर-सब
    [२५१]


जागैं जोगी जंगम, जती जमाती ध्यान धरैं,
डरैं उर भारी लोभ मोह कोह काम के।
जागैं राजा राजकाज, सेवक समाज साज,
सोचैं सुनि समाचार बड़े बैरी बाम के॥
जागैं बुध विद्याहित पंडित चकित चित,
जागैं लोभी लालच धरनि धन धाम के।
जागैं भोगी भोगही बियोगी रोगी सोगबस,
सोवै सुख तुलसी भरोसे एक राम के॥

अर्थ—योगी जन, जंगम (शिव-उपासक), और यतियों की जमाति जो सदा ईश्वर का ध्यान करते हैं और जो लोभ, मोह, क्रोध, काम से डरते हैं सदा जागा करते हैं। राजा लोग राज-काज के लिए और उनके सेवकगण बैरी के समाचार सुनकर सोच में पड़कर जागा करते हैं। विद्या के लिए पण्डित लोग चकित चित्त होकर जागते हैं और लोभी जन धन और धरती की लालच में जागा करते हैं; भोगी भोग के लिए, वियोगी विरह में, रोगी रोग के वश जागते हैं; तुलसीदास राम के भरोसे सुख से सोता है।

छप्पै
[ २५२ ]

राम मातु पितु बंधु सुजन गुरु पूज्य परम हित।
साहेब सखा सहाय नेह नाते पुनीत चित॥
देस कोस कुल कर्म धर्म धन धाम धरनि गति।
जाति-पाँति सब भाँति लागि रामहि हमारि पति*॥
परमारथ स्वारथ सुजस सुलभ राम तेँ सकल फल।
कह तुलसिदास अब जब कबहुँ एक राम तेँ मोर भल॥


*पाठान्तर—मत्ति 

अर्थराम मेरे माता, पिता, बंधु, सुजन, गुरु, पूज्य और परम हितैषी हैं, मालिक सखा और सहायक हैं, उन्हीं से पवित्र चित्त का नाता है। देश, खज़ाना, कुल, कर्म, धर्म, धन, धाम, धरती, गति, जाति-पाँति सब उन्हीं की है और उन्हीं में सब तरह हमारी बुद्धि लगी है अथवा उन्हीं को हमारी लाज है। परमार्थ, स्वार्थ, यश और सब फल राम से सुलभ हैं। तुलसीदास कहता है कि अब और तब (भूतकाल ) में और जब (भविष्यत् ) में एक राम ही से मेरा भला है।

[२५३]

महाराज बलि जाउँ रामसेवक सुखदायक।
महाराज बलि जाउँ राम सुन्दर सब लायक॥
महाराज बलि जाउँ राम सब संकट-मोचन।
महाराज बलि जाउँ रामराजीव बिलोचन॥
बलि जाउँ राम करुनायतन प्रनतपाल पातकहरन।
बलि जाउँ राम कलि-भय-विकल तुलसिदास राखिय सरन॥

अर्थहे महाराज! आपकी बलि जाऊँ, हे राम, सेवक को सुख देनेवाले! हे महाराज, आपकी बलि जाऊँ, हे राम! आप सुंदर और सब लायक हैं, हे राम! हे कमल-लोचन! हे महाराज! आपकी बलैया लूँ, हे राम, संकट से छुड़ानेवाले! हे राम! आपकी बलायें लूँ , हे दया के घर! हे शरणागत के पाप को हरनेवाले! हे राम! आपकी बलैया लूँ, कलि के भय से विकल तुलसीदास को अपनी शरण रखिए।

[२५४]

जय ताड़का-सुबाहु-मथन, मारीच-मान-हर।
मुनि-मख-रच्छन-दच्छ, सिला-तारन करुनाकर॥
नृप-गन-बल-मदसहित संभु-कोदंड-विहंडन।
जय कुठार-धर-दर्प-दलन, दिनकर कुल-मंडन॥
जय जनक-नगर-आनंद-प्रद सुखसागर सुखमा भवन।
कह तुलसिदास-सुर-मुकुट-मनिजय जय जय जानकि-रवन।

अर्थ—जय लाड़ुका और सुभाहु के मथनेवाले, जय मारीच के मान को हरनेवाले, मुनि के यज्ञ की रक्षा करनेवाले, शिला-रूप अहिल्या को तारनेवाले, करुणा के करनेवाले जय। जय राजाओं के बल और मद को शंभु के धनुष के साथ तोड़नेवाले, आनंद देनेवाले, जय परशुराम के दर्प (ग़रूर) को नाश करनेवाले, जय-जय

सूर्यकुल के आभूषण, जय मिथिला को सुख के समुद्र, सुंदरता के घर, तुलसीदास कहते हैं जय! देवताओं में मुकुट मणि (श्रेष्ठ) जय! जय, जानकी-रमण जय।

[ २५५ ]


जय जयंत-जय-कर, अनंत, सज्जन-जन-रंजन।
जय विराध-बध-बिदुष, बिबुध-मुनिगन-भय-भंजन॥
जय निसिचरी विरूप - करन रघुबंस - विभूषन।
सुभट-चतुर्दस-सहस-दलन त्रिसिरा खर-दूषन॥
जय दंडकबन-पावन-करन तुलसिदास संसय-समन।
जग विदित जगत-मनि जयति जय जय जय जयं जानकिरमन॥

अर्थ—जयन्त को जीतनेवाले, तुम्हारी जय। हे अनन्त! हे सजने को प्रसन्न करनेवाले! जय, विराध के मारने की रीति को जाननेवाले, जय। देवता और मुनियों के भय को नष्ट करनेवाले, जय। राक्षसी (शूर्पनखा) को कुरूप करनेवाले, जय! हे रघुवंशियों में अलंकार जय! चौदह हज़ार योधाओं सहित खर-दूषण और त्रिशिरा को मारनेवाले जय! दण्डक वन को पवित्र करनेवाले और तुलसीदास के सन्देहों को दूर करनेवाले, जय। जग में प्रसिद्ध जगत् के मणि, जय! हे जानकी-रमण जय।

[२५६]


जय माया-मृग-मथन गीध - सबरी - उद्धारन।
जय कबंध-सदन बिसाल-तरु-ताल - बिदारन॥
दवन-बालि-बल-सालि, थपन सुग्रीव संत हित।
कपि-कराल-भट-भालु कटक-पालन, कृपालु-चित॥
जय सिय-बियोग-दुख-हेतु-कृत-सेतु-बंध बारिधि-दमन।
दससीस विभीषन-अभय-प्रद जय जय जय जानकि-रमन॥

१५० कवितावली अर्थ-माया-मुद्र के मारनेवाले ! जय। गीध और शबरी का उद्धार करनेवाले ! जय । कबन्ध को मारनेवाले और बड़े वाल वृक्षों को वेधनेवारहे ! जय । बली बालि को नष्ट करनेवाले और संतों के हित करनेवाले, सुग्रीव को स्थापन करने वाले ! जय । विकराल बन्दरों और रीछों की सेना के पालक, हे कृपाल चित्त ! जय । सीताजी के वियोग के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र में सेतु (पुल ) बांधनेवाले ! जय । हे दशशीश का नाश करनेवाले, हे विभीषण को अभय करनेवाले अथवा रावण के भय से खुरे हुए विभीषण को अभय करनेवाले, हे जानकी-रमण ! जय, जय। [ २५७ ] कनक कुधर केदार, बीज सुंदर सुर-मनिवर । सीचि काम-धुक धेतु सुधामय पय बिसुद्ध तर ॥ तीरथ-पति अंकुर-सरूप, यच्छेस रच्छ तेहि । मरकत मय साखा, सुपत्र मंजरिय लच्छ जेहि ॥ कैवल्य सकल फल कल्पतरुसुभ सुभाव सब सुख बरिस । कह तुलसिदासरघुबंसमनि ता कि होहि तब कर सरिस ॥ अर्थ-सोने के पहाड़ (सुमेरु) का केदार (थाल्हा) हो, सुंदर सुरमनिवर (चिंता- मणि) का बीज हो और उसे देवता और श्रेष्ठ मुनि कामधेनु के अति पवित्र अमृत- मय दूध से सींचें, और तीर्थपति अंकुर स्वरूप उससे उत्पन्न हों, यक्षेश (कुवेर) उसकी रक्षा करें, मानिक और मुक्तादिक मणि उस वृक्ष के शाखा और पल्लव हो और लक्ष्मी मन्जरी हो, ऐसा कैवल्य और संपूर्ण फलों का देनेवाला कल्पतरु सुंदर स्वभाव से सब सुख का बरसानेवाला हो तब भी, तुलसीदास कहते हैं, क्या वह रामचन्द्र के हाथ के समान हो सकता है ? [२५८] जाय से सुभट समर्थ पाइ रन रारि न मडै । जाय सो जती कहाइ बिषय-वासना न छडै ॥ जाय धनिक बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महिं ।

जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं ॥

सुत जाय मात-पितु-भक्ति बिन,तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दास तुलसी कहै जो न रामपद नेह नित॥

अर्थ—वह सुभट गया जिसने रण में समर्थ योधा पाकर लड़ाई न की। वह भी जाय (नष्ट होवे) जो यति कहाकर विषय-वासना को नहीं छोड़ता। वह धनी जाय जो दान नहीं करता और वह निर्धनी जाय जो धर्म नहीं करता। वह पंडित जाय जो पुराण पढ़कर सुकर्म नहीं करता, वह लड़का जाय जो माता पिता का भक्त नहीं है, और वह स्त्री जाय जो पति का हित नहीं करती, और वह सब जायँ, तुलसीदास कहते हैं, जो रामचन्द्र के चरणों में नित प्रेम नहीं करते।

[२५६]

को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहिं कीन्हों?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हों?॥
कौन हृदय नहिं लाग कठिन अति नारि नयन सर।
लोचन जुत नहिं अंध भयो श्री पाइ कौन नर?॥
सुर-नाग-लोक महि-मण्डलहु को जु मोह कीन्हों जय न।
कह तुलसिदास से ऊबरै जेहि राखि राम राजिवनयन॥

अर्थ—किसको क्रोध ने नहीं जलाया और काम ने किस को बस में नहीं किया? किसको गहरे फन्दे में बाँधकर लोभ ने त्रास नहीं दिया? किस हृदय में स्त्री के नयनों का कड़ा तीर नहीं लगा, कौन मनुष्य ममता पाकर आँख रखते मी अंधा नहीं हो गया? सुरलोक और नागलोक में तथा पृथ्वी पर कौन है जिसको मोह ने नहीं जीता? तुलसीदास कहते हैं कि वही मनुष्य बचता है जिसे कमलनयन श्री राम रक्खें।

सवैया
[२६०]

भौंह कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बान तेँ बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट ज्यों जिनके मन आँच न आँचे॥
लोभ सबै नट के बस ह्वै कपि ज्यों जग में बहु नाच न नाँचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी पै तेई रघुवीर के सेवक साँचे॥

अर्थ—कौन ऐसे हैं जो की भौंह रूपी कमान के ठने हुए चितवन रूपी बाणसंधान से बचे, कोर रूपी अग्नि और गुमान के अँवा से जिलके मन रूपी घड़ा में आँच न लगै, जैसे नर बंदर को नचाता है वैसे लोभ के वश जो जग में बहुत नाच न नाचे हो? हे तुलसी, सभी साधु भले हैं परंतु उनमें भी वही अच्छे हैं जो रघुवीर

के सच्चे सेवक हैं।

घनाक्षरी
[२६१]


भेष सुबनाइ, सुचि बचन कहैं चुवाइ*,
जाइ तौ न जरनि धरनि धन धाम की।
कोटिक उपाइ करि लालि पालियत देह,
मुख कहियत गति राम ही के नाम की॥
प्रगटै उपासना, दुरावै दुरवासनाहिं
मानस निवास-भूमि लोभ मोह काम की।
राग रोष ईरषा कपट कुटिलाई भरे
तुलसी से भगत भगति चहैं राम की!॥

अर्थ— अच्छा वेश बनाकर और धीरे-धीरे अमृत से मीठा वचन बोलकर भी धन, पद और भूमि की इच्छा से उत्पन्न जलन नहीं जाती। करोड़ों उपाय करके देह को पाला जाता है और मुँह से यह कहा जाता है कि रामनाम ही की गति है। दिखाने को तो उपासना (भक्ति) करते हैं और बुरी बुरी इच्छाओं को उस मन में छिपाते हैं जो कि लोभ, मोह और काम के रहने की भूमि है; राग, रोष, ईर्ष्या और छल-कपट से भरे हुए तुलसी से भक्त, राम की भक्ति की इच्छा करते हैं सो कहाँ मिल सकती है?

[२६२]


“काल्हि ही तरुन तन, काल्हि ही धरनि धन,
काल्हि ही जितोंगो रन कहत कुचालि है।


*पाठान्तर—चुपाइ।


काल्हिही साधोंगो काज, काल्हिही राजा समाज,
मसक ह्वै कहै “भार मेरे मेरु हालि है॥”
तुलसी यही कुभाँति घने घर धालि आई
घने घर घालति है, घने घर घालि है।
देखत सुनत समुझत हू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न “कालहू को काल काल्हि है॥”

अर्थ—कल ही युवावस्था हो, कल ही पृथ्वी और धन मिल जावे, कल ही रण जीत लूँँ, ऐसी बुरी बुरी चाल सदा मन में रहा करती है। कल ही काम करूँगा, कल ही राजा का सा सामान इकट्ठा करूँगा, मच्छड़ का सा होकर भी कहता है कि मेरे बोझ से मेरु हिलेगा। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसी ही कुभाँति (दुर्वा-सना) ने बड़े-बड़े घरों को नष्ट किया है, बड़े घरों को नष्ट कर रही है और बड़े घरों को नष्ट करेगी। सो देखते, सुनते, जानते भी नहीं सुझाई देता और यह (किसी ने) कभी नहीं कहा कि मरने का भी समय कल होगा !

[ २६३ ]


भयो न तिकाल तिहूँलोक तुलसी सो मंद,
निंंदैँ सब साधु, सुनि मानौँ न सकोचु हौं।
जानत न जोग, हिय हानि मानौँ, जानकीस!
काहे को परेखो पातकी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबे के काज महाराज को कहायों,
महाराज हु कह्यो है प्रनत बिमोचु हौं।
निज अघ-जाल, कलिकाल की करालता
बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥

अर्थ—सीनों काल और तीनों लोक में तुलसी सा मन्द न हुआ, न है, न होगा, जिसकी सब साधु निन्दा करते हैं। वह निन्दा सुनकर भी कुछ संकोच नहीं करता है। मैं योग नहीं जानता हूँ। हे जानकीश! अथवा रामचन्द्र अपनी सेवा योग्य मुझे नहीं जानते, इसलिए मन घबराता है। मुझे क्यों परखा है अर्थात मुँह लगाया है?
अथवा इसका क्या उल्लहना है? मैं तो पापी और प्रपञ्ची, पोच हूँ। पेट भरने के लिए हे महाराज! मैं महाराज का कहाता हूँ, क्योंकि आपने स्वयं कहा है कि आप प्रणत (शरणागतों) को (भवबंधन से) छुड़ानेवाले हैं। अपने पापों के जाल और कलियुग की करालता को देखकर व्याकुल होता हूँ, यही सोच करता हूँ कि मेरा कैसे उबार होगा।

[२६४]


धरम के सेतु जग मंगल के हेतु,
भूमि-भार हरिबे को अवतार लियो नर को।
नीति औ प्रतीति-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,
लोक बेद राखिबे को पन रघुबर को॥
बानर बिभीषन की ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंग सुने अंग जरै अनुचर को।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि,
तुलसी तिहारो घर जायउ है घर को॥

अर्थ—धर्म के सेतु ने संसार का भला करने को और भूमि का भार हरने के लिए मनुष्य का अवतार लिया है। नीति, विश्वास और प्रीति को पालना आपका काम है, और हे रघुवर! लोक और वेद का मान रखने का आपका प्रण है। सुग्रीव और विभीषण के कौन ऋणी हैं, जिसकी कथा सुनकर मेरा अंग जलता है कि मुझ पर क्यों नहीं प्रसन्न होते। अपनी रीति रखिए, जो हो सो कीजिए परन्तु तुलसी आपका है। क्या अपने घर फिर जाय? अथवा भगा देने से घर चले जाने पर भी आपही के घर का है, अथवा आपही के घर का घर जायी (दास) है।

[२६५]


नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर,
सबहो सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर,
ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥


तुलसी बिलोकि कलिकाल की करालता,
कृपालु को सुभाव समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँति को, निलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोच, स्वामी-सोच ही सुखात हौं॥

अर्थ—भला मन में समझ तो देखो कि महाराज के नाम ने भलो निबाही, सबको अच्छा लगता है परन्तु मैं लोगों को अच्छा नहीं लगता, अथवा हे राम! महाराज के नाम ने जो नीको निबाही सो मन में सबको भली लगती है, परन्तु मैं अच्छा नहीं लगता। हे राम! इसी बेर मेरी तरफ आँख फेरिए कि जिसके लिए मैं दरिद्रों की भाँति ललचा रहा हूँ। तुलसी कलिकाल की करालता को देखकर और महाराज से दयालु का स्वभाव समुझकर सकुचाता है कि लोक इस तरह का है, और महाराज, त्रिलोकीनाथ होने के कारण, लोक के वश में हैं। हे स्वामी, मुझे अपना सोच नहीं है। स्वामी के सोच से मैं तो सूखता जाता हूँ।

[२६६]


तौलौं लोभ, लोलुप ललात लालची लबार
बार बार, लालच धरनि धन धाम को।
तबलौं बियोग रोग सोग भोग जातना को,
जुग सम लगत जीवन जाम-जाम को॥
तौलौं दुख दारिद दहत अति नित तनु,
तुलसी है किंकर बिमोह कोह काम को।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौलौं जन भयो न बजाइ राजा राम को॥

अर्थ—तब तक लोभ और लालच, लालची और लबार (झूठे) को बार बार ललचाता है और धरती, धन और धाम का लालच दिखाता है, तब तक वियोग, रोग, शोक मौर दुःख के भोग से एक-एक पहर का जोना एक युग सा लगता है, तब तक दुःख और दरिद्र नित्य शरीर को प्रति ही जलाया करता है, और क्रोध, मोह और काम का चाकर बना रहता है, तब तक सब दुःख अपने होते हैं और सब सुख पराये, कि जब तक तुलसी राजाराम का सेवक ताल ठोककर नहीं हो जाता।

[२६७]


तबलौं मलीन हीन दीन, सुख सपने न,
जहाँ तहाँ दुखी जन भाजन कलेस को।
तबलौं उबैने पायँ फिरत पेटौ खलाय,
बाये मुँह सहत पराभौ देस देस को॥
तब लौं दयावनो दुसह दुख दारिद को,
साथरी को साइबो, ओढ़िबो झूने खेस को।
जबलौं न भजै जीह जानकी जीवन राम,
राजन को राजा सो तो साहब महेस को॥

अर्थ—उस समय तक मनुष्य मैला, दीन, सब बात से गिरा हुआ, सुख जिसे सपने में नहीं है, दुःखी और क्लेश का भाजन रहता है, उस समय तक नंगे पैर पेट दिखाता फिरता है, भीख माँगा करता है और मुँह बाये देश-देश का निरादर सहता है, उस समय तक कड़ा दुःख सहता है, दरिद्र और दयाभाजन रहता है, चटाई का सोना और फटे खेस का ओढ़ना रहता है जब तक कि मनुष्य जीभ से जानकी-जीवन राम का भजन नहीं करता जो राजाओं का राजा और महादेव का भी मालिक है।

[२६८]


ईसन के ईस, महाराजन के महाराज,
देवन के देव, देव! प्रान हूँ के प्रान हौ।
कालहू के काल, महाभूतन के महाभूत,
कर्म हूँ के कर्म, निदानहु* के निदान हौ॥
निगम को अगम, सुगम तुलसीहू से को,
एते मान सीलसिंधु करुणानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोल को न बारापार,
बड़ी साहिबी में नाथ बड़े सावधान हौ।



* पाठान्तर—निदान। सुत्तरकाण्ड अर्थ-ईशों के ईश, महाराजों के महाराज, देवताओं के भी देव और प्राणों । प्राय श्राप हैं। काल के भी काल और महाभूतों के महाभूत, कर्मों के कर्म औ कारयों के भी झारय हैं। निवस ( वेदों) के पाप अगम ( दुर्लभ ) हैं और तुलसी से आदमी को भी सुलभ हैं। इतने बड़े पर भी शोल और मान के सिंधु और करुणा के निधान (घर) हैं। आपकी महिमा अपार है, किसी बात का पार नह है, इतनी बड़ी साहिबी पाकर भी प्राप बड़े सावधान हैं। सवैया [२६] आरतपालु कृपालु जो राम, जेही सुमिरे तेहि को तहँ ठाढ़े। नामप्रताप महा महिमा, अकरे किये खोटेउ, छोटेउ बाढ़े ॥ सेवक एक ते एक अनेक भये तुलसी तिहुँ तापन डाढ़े। प्रेम बदौं। प्रहलादहि को जिन पाहन ते परमेश्वर काढ़े ॥ अर्थ-दुखियों के पालक कृपालु राम को जो जहाँ याद करे उसके लिए वे वहीं मौजूद हैं। उनके नाम का प्रताप बड़ा और महिमा बड़ी है जिससे खोटे भी मँहगे या खरे हो गये और छोटे भी बढ़ गये। एक से एक अच्छे, बहुत से, राम के दास हुए, परन्तु तुलसी तीनों तापों से तपाया जा रहा है अथवा तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे एक से एक बड़े अनेक दास हुए जिनको तीनों तापों ने नहीं सताया। प्रेम प्रह्लाद ही का कहा जा सकता है। अथवा प्रह्लाद ही की बड़ाई है जिसके वश पत्थर से परमेश्वर निकले। [२७०] काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे । 'राम कहाँ 'सब ठाउँ हैं। 'खंभ मैं 'हाँ सुनि हाँक तृकेहरि जागे ॥ बैरि बिदारि भये बिकराल, कहै प्रहलादहि के अनुरागे । प्रीति प्रतीति बढ़ी तुलसी तबतें सब पाहन पूजन लागे ।

  • पाठान्तर-ठाड़े।

+ पाठान्तर--बड़ौ, बढ़ौ । पाठान्सर-हाकनि केहरि । १५८ सवितायता ___ अर्थ-पिता को लग्न तलवार हाथ में लिये और कृपारहित देखकर प्रसाद न भागे। पिता ने जब पूछा कि राम कहाँ है, लेह उत्तर दिया, कि सब कहीं। "क्या स्वम्भ में हैं ?" "हाँ" ! ऐसा शब्द सुनकर नृसिंह अगे, वैरी को मारकर विकराल रूप धारण किया। केवल प्रह्लाद के कहने से प्रसन्न हुए। उस समय से प्रोति और विश्वास दोनों बढ़ गये और सब लोग पत्थर पूजने लग गये। [२७१] अंतर्जामिहु तें बड़ बाहरजामि हैं राम, जे नाम लिये तें। धावत धेनु पन्हाइ लवाइ ज्यों बालक बोलनि कान किये ते॥ आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिले की न बावरि बात बिये तें। पैजु परे प्रहलादह को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिये तें॥ अर्थ-बाहरजामी अर्थात् घट से बाहर प्रगट होनेवाले अंतर्यामी से बड़े हैं, जो नाम लेने ही से दौड़े, जैसे हाल की ब्याई गाय बच्चे की आवाज़ सुनकर कान लगाकर दौड़ती है। तुलसी अपनी समुझ कहता है, बावले ! यह बात और से कहने- वाली नहीं है अथवा बावली बात कहने योग्य नहीं, प्रह्लाद का पैज (प्रण ) पूरा करने के लिए पत्थर से प्रभु प्रगट हुए, हृदय से नहीं अर्थात् पत्थर में प्रभु माननेवाले के कहने से पत्थर से निकले न कि निर्गुण्य उपासक के हृदय से अथवा प्रभु पत्थर से नहीं निकले बल्कि प्रह्लाद के हृदय से प्रकट हुए। [२७२] बालक बोलि दिये बलि काल को, कायर कोटि कुचाल चलाई। पापी है बाप बड़े परिताप ते श्रापनी ओर ते खोरि न लाई ॥ भूरि दई विषमूरि भई प्रहलाद सुधाई सुधा की मलाई । राम कृपा तुलसी जन को जग होत भले को भलोई भलाई ॥ अर्थ-हिरण्यकशिपु ने लड़के को बुलाकर काल को बलि कर दिया। कादर ने और करोड़ो कुचालें चलीं। बाप बड़ा पापी था कि जिसने पुत्र को दुःख देने में अपनी ओर से कुछ उठा नहीं रक्खा। बहुत सा विष दिया, वह भी प्रह्लाद की सिधाई से अमृत की मलाई हो गई। राम की कृपा से 'तुलसी' से सेवक की जग में सदा भलाई ही होती है। कवितावली अर्थ-जन ने ने श्याम जैसे ठप ये प्रोति की से सखी सयानी ने मुझे मना किया था, पर मुझे नहीं मालूम था कि प्रीति में आगे चलकर वियोग का राग है, इसलिए मैं इसका निरादर करके उस पर खफा हुई। अब प्रीति के मारे देह पट ( वस्त्र ) के समान हो गई है जिसकी खोज बिरहा सा दरज़ी कर रहा है अथवा जैसे दरजी ब्योतते समय वस्त्र फाड़ता है वैसे विरह इस देह को भी ब्योतना (फाड़ना) चाहता है। हे भुंग ! सुनो, बिना कृष्णा के कामदेव जी का प्राहक हो गया है अर्थात् प्राण निकाले लेता है। [२७६] जोगकथा पठई ब्रज को, सबसो सठ चेरी की चाल चलाकी । ऊधोज ! क्यों न कहै कुबरी जो बरी नट नागर हेरि हलाकी ॥ जाहि लगै परि, जानै साई, तुलसी सो सोहागिनि नंदलला की । जानी हैं जानपनी हरि की, अब बाँधियगी कछु मोटि कला की ॥ अर्थ-चेरी ( कुबरी) की चालाकी की सबसे की हुई चाल तो देखो जो कि ब्रज में योग की कथा कहला भेजी है। ऊधो जू ! जिन नटनागर ( कृष्ण ) ने हूँढ़कर मारनेवाली कुबरी को बरी है, वह हमसे ऐसी बात क्यों न कहे अर्थात् उनकी होशि- थारी वो इसी से जाहिर है कि कुबरी को व्याहा है वह हमको यो क्यों न कहेंगे ? अथवा कौन कहे अब नट-नागर कृष्ण ने मारनेवाली कुघरी को हेर (टूढ़) कर बरा है अथवा उधोजी, उसे कुबरी कौन कहे जिसे नटनागर (कृष्ध ) ने ढूँढ़कर बरा है। जिसके लगती है वही जानता है, हे तुलसो ! अब कुबरी नन्दलाल की सुहागिनी स्रो है। हरि की होशियारी देख ली, अब कला की कुछ गठरी और बाँधेगी अर्थात् कुछ और चालाकी की चाल चलेगी अथवा यदि कृष्ण कूबर ही पर रीझते हैं तो हम भी अब कला की गठरी बाँध कबर बनावेंगी। घनाक्षरी [ २७७] पठयो है छपद छबीले कान्ह केहू कहूँ खोजि कै खबास खासो कूबरी सो बाल को । ज्ञान को गरैया, बिनु गिरा को पढैया, बार खाल को कलैया सो बढ्या उरसाल को ॥ उत्तरकाण्ड प्रोति को बधिक, रसरीति को अधिक, नीति-निपुन विवेक है निदेस देसकाल को। तुलसी कहे न बने, सहेही बनेगी सब, जोग भयो जोग को, बियोग नंदलाल को॥ अर्थ-छबीले कन्हैया ने कहीं से खोजकर भला खवास, कूबरी का सा बालक, मारा भेजा है। वह ज्ञान का गढ़नेवाला, बिना बानी के पढ़नेवाला, बाल की खाल का निकालनेवाला और हृदय के दर्द का बढ़ानेवाला है। अथवा उर में साल (छिद्र) करने को बढ़ई सा है। वह प्रीति का नाश करनेवाला और रस की रीति में और भी बढ़कर है। नौति में निपुण, देश-काल का निदेश करने में मानवान है। तुलसी कहते हैं कि सहे ही बनेगी, कुछ कहीं नहीं जाती, नन्दलाल का वियोग सब योग का योग ( मेल ) हो गया अर्थात् योग खूब मिला यदि नन्दलाल का वियोग हुआ अथवा नन्दलाल का वियोग क्या हुआ योग तो अपने आप ही मिल गया। [२८] हनुमान है कृपालु, लाडिले लषन लाल, भावते भरत कीजैछ सेवक सहाय जू । बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो, बिगरे ते आपही सुधारि लीजै भाय जू ॥ मेरी साहिबिनि सदा सीस पर बिलसति, देवि ! क्यों न दास को देखाइयत पाय जू । खीझहू में रीभिबे की बानि, राम रीझता हैं, रीझे हैहैं राम की दुहाई रघुराय जू ॥ अर्थ-हे कृपालु हनुमान् ! लाडिले लषन लाल ! और भावते ( मन को लुभानेवाले) भरत ! दास के सहाय हूजिए । यह दीन दया का पात्र विनती करता है कि बिगड़े भाव को आप ही सुधार लीजिए। मेरी साहिबिनी (सीता) सदा सिर पर विलास करती हैं, हे देवि! मुझे पैर क्यों नहीं दिखाती ? रामचन्द्र पाठान्तर-हजे। +पाठान्तर-लगत । कवितात्रलो का स्वभाव ही प्रसन्न रहने का है वह गुस्सा होने पर भी प्रसन्न हुए होगें। आपको राम ही की दुहाई है, प्रसन्न हूजिए। सवैया ... [२७] बेष विराग को, राग भरो मनु, माय ! कहीं सति भाव हो तोसों। तेरे ही नाथ को नाम लै बेचिहौं पातकी पामर प्राननि पोस॥ एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहुछ अंब ! कि मेरो तू भोसों। स्वारथ को, परमारथ को, परिपूरन भो फिरि घाटि न हो सों॥ अर्थ-मैं तुमसे मन का भाव सत्य कहता हूँ कि मन राग से भरा है यद्यपि वेष वैरागियों का सा है। यद्यपि पापी और नीच हूँ परन्तु प्रापही ( सीताजी) के नाथ का नाम बेचकर प्राणों को बचाता हूँ अर्थात् उसी से जीवन निर्वाह होता है। इतने बड़े अपराधी और पापी को भी हे माँ ! तुम मुझसे कहो कि "तू मेरा है" तो परमार्थ और स्वार्थ से पूर्ण हो जाऊँ और कुछ घटो फिर कभी न हो ॥ घनाक्षरी [२८०] जहाँ बालमीकि भये व्याध ते मुनीन्द्र साधु, 'मरा मरा', जपे सुनि सिष रिषि सात की। सीय को निवास लव-कुश को जनमथल, तुलसी छुवत छाँह ताप गरै गात की ॥ बिदप महीप सुर सरित समीप सोहै, सीताबट पेखत पुनीत होत पातकी । बारिपुर दिगपुर। बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी चरन-जलजात की।

  • पाठान्तर-अधिक हूँ ते कहा अब कि।

+काशी और प्रयाग के बीच में सीतामढ़ी के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध बताया जाता है। वारिपुर और दिगपुर गाँव के नाम हैं। उत्तरकाण्ड अर्थ-जहाँ सप्त ऋषि की शिक्षा से वाल्मीकि मुनि 'मरमरा' जपकर व्याध से ऋषि हो गये, जहाँ सीता का निवास था और जो लव-कुश का जन्म स्थान है, और तुलसी कहते हैं, कि जहाँ की छाँह छूते ही अर्थात् जहाँ पहुँचते ही, शरीर का सब ताप नष्ट हो जाता है, जहाँ महावृक्ष गंगा के किनारे शोभायमान है जिसे सीता-वट कहते हैं कि जिसके देखते ही पापी भी पुनीत ( पवित्र ) हो जाता है। सो वारि- पुर और दिगपुर के बीच में श्री सीता के कमल-सदृश चरणों से अंकित भूमि अति रमणीक जान पड़ती है। [२८१] मरकत-बरन परन, फल मानिक से, लसै जटाजूट जन रूख बेष हरु है। सुखमा को ढेरु कधौं, सुकृत सुमेरु कैधौं, । संपदा सकल मुद मंगल को घरु है । देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइए, प्रतीति मानि तुलसी बिचारिकाको थर है। सुरसरि निकट सोहावनी अवनि सोहै, राम-रमनी को। बट कलि-कामतरु है ॥ अर्थ-मरकत के से जिसके पत्ते हैं और मानिक से लाल फल हैं, और अटा . के जूट जो घट की दाढ़ी कहलाती है मानों वृक्ष के वेष में महादेव हैं । वह वृक्ष सुन्दरता का समूह है, पुण्य का पहाड़ और सब संपदा, मोद और मंगल का घर है। जो विश्वास और प्रीति से सेवा करता है उसे इच्छित फल देता है। तुलसी कहते हैं कि यह विचारकर कौन स्थिर रह सकता है अर्थात् सेवा के लिए किसका मन न चलेगा अथवा यह विचारकर कि यह किसका घर (स्थान) है (अर्थात् जानकी का), प्रतीति और विश्वास सहित जो सेवा करते हैं उन्हें वह इच्छित फल देता है। सुरसरि के समीप सुन्दर भूमि है कि जहाँ सीताजी का घट फलि में कल्पद्रुम के समान विद्यमान है।

  • पाठान्तर-रूप ।

+ पाठान्तर-राध नीके।

२८२


देवधुनी पास मुनिबास श्रीनिवास जहाँ,
प्राकृत हूँ बट बूट बसत पुरारि हैं।
जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठ.
रागनि पै सीठि, डीठि बाहरी निहारिहैं॥
'आयसु' 'आदेस' 'बाबा' 'भलो भलो' 'भाव सिद्ध',
तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतन को तौ कामतरू तें अधिक,
सीयबट सेए करतल फल चारि हैं॥

अर्थदेव धुनी (गंगाजी) के पास जहाँ मुनियों का वास है और श्री (शोमा अथवा जानकी) का निवासस्थान है, जिस वट के वृक्ष में महादेव सहज ही निवास करते हैं, जो योग-जप-यज्ञ- वैराग्य का पवित्र स्थान है परन्तु रागियों को सीठा लगता है जो बाहरी दृष्टि से उसे देखते हैं। हे तुलसी! यहाँ आज्ञा को पूर्ण करनेवाले भले भले बाबू बसते हैं, यह बात योगी पुकार-पुकारकर कहते हैं अथवा यहाँ के योगी सबसे 'आयसु' 'आदेश' आदि शब्दों को कहकर बात करते हैं। रामभक्तों को कामतरु से भी अधिक सीता-वट है जिसकी सेवा करने से चारों फल करतलगत होते अर्थात् मिलते हैं।

[२८३]


जहाँ बन पावनो सुहावनो बिहंग मृग,
देखि अति लागत आनंद खेत खूँँट सो।
सीता-राम-लषन-निवास, बास मुनिन को,
सिद्ध साधु साधक सबै बिबेक बृट सो॥
भरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिनी मंजुल महेस जटा-जूट सो।
तुलसी जौ राम सों सनेह साँचो चाहिए
तो सेइए सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो।

</noinclude> अर्थ—जहाँ पवित्र वन है और पशु-पक्षी सुन्दर हैं, जो देखने में बड़ा आनन्द देनेवाले खेत के खूँट (कोना, सीमा) सा जान पड़ता है, जहाँ सीता-राम, लक्ष्मण और मुनियों का निवास है, जहाँ सिद्ध साधु साधक मानो ज्ञान के वृक्ष से हैं अथवा जो साधुओं को ज्ञान के वृक्ष का सा है। जहाँ झरनों से ठण्डा शीतल पवित्र जल निकलता है, जहाँ सुन्दर मन्दाकिनी महादेव के जटा-जूट से निकलकर बहती हैं, तुलसी कहते हैं कि यदि श्रीराम से सबा स्नेह चाहते हो तो प्रीति-पूर्वक ऐसे विचित्र चित्रकूट का सेवन करो।

[२८४]


मोह-बन कलिमल-पल-पीन जानि जिय,
साधु गाय बिप्रन के भय को निवारिहै।
दीन्हीं है रजाय राम पाइ सो सहाय लाल
लषन समर्थ बीर हेरि हेरि मारिहै॥
मंदाकिनी मंजुल कमान असि, वान जहाँ
बारि-धार, धीर परि सुकर सुधारि है।
चित्रकूट अचल अहेरि बैव्यो घात मानो,
पातक के ब्रात घोर सावज सँहारिहै॥

अर्थ—मोह के वन में कलि के मलरूपी मांस से अर्थात् पाप से मोटा हुआ हृदय में जानकर साधु, गौ और विप्रों के भय (डर) को नाश करेगा, राम ने जो आज्ञा दी है, उसे और समर्थ वीर लाल लक्ष्मण की सहायता पाकर पाप के समूह को ढूँँढ़-ढूँँढ़कर मारेगा, सुन्दर मन्दाकिनी जहाँ कमान जैसी है और उसकी वारि- धारा माना बाण है, उसे धीरज से अच्छे हाथों से सँभालेगा, ऐसा चित्रकूट मानों वधिक की तरह अथल बैठा है और पाप के समूह-रूपी जानवरों का नाश करेगा।

शब्दार्थ—पल= मांस। अहेरि= शिकारी। असि= ऐसी। ब्रात= समूह। सावज= जंगली जानवर।

सवैया
[२८५]

लागि दवारि पहार ठही लहकी कपि लंक जथा खर-खोकी।
चारु चवा चहुँ ओर चलैं लपटैं झपटैं सो तमीचर तौंकी॥

कावितावली

कोहि मानहा सुखना, उन लकि ताकत है कवि कोकी। मालेसी तुलली हनुमान हिये जग जाति जराय की चौकी ॥ अर्थ-बसन्त में पल्लास के फूलों का वर्णन है । पहाड़ को नष्ट करनेवाली आग अच्छी तरह से लगी जैसे हनुमान ने लङ्का में लगाई थी। सुन्दर पशु चारों ओर भाग चले, जैसे लङ्का में राक्षस अग्नि की मालाओं से भागते थे। बड़ी सुषमा क्यों. कर वर्णन की जावे, उपमा के लिए कवि कब से ताक रहा है अथवा कवि-कोकिल ताक रहा है। तुलसी कहते हैं कि वह ऐसी थी मानों हनुमान के गले में जगत् को जीतनेवाली जड़ाऊ चौकी शोभायमान थी। शब्दार्थ-खरखाकी =खर (तृण) खानेवाली अग्नि । तौकी = तपी हुई। कौकी = कब से अथवा (कोकी पाठ होने से) कोकिल । [२८६ ] देव कहें अपनी अपनी अवलोकन तीरथराज चलो रे। देखि मिटै अपराध अगाध, निमजत साधु-समाज भलो रे ॥ सोहै सितासित को मिलिबो, तुलसी हुललै हिय हेरि हलो रे। मानो हरे तृन चारु चरै' बगरै सुरधेनु के धौल कलारे ॥ अर्थ-देव तो अपनी-अपनी कहते हैं परन्तु तीर्थराज देखने को चलो, अथवा देवता अपनी-अपनी ( आपस में ) कहते हैं कि प्रयाग देखने चलो, जिसे देखकर अगाध पाप दूर हो जावेंगे। जहाँ अच्छा साधु-समाज नहाता है, जहाँ सफ़ेद और काले पानी (गङ्गा और यमुना) का मिलना ऐसा शोभा देवा है कि तुलसी का हृदय प्रसन्न होकर हिलोरें लेता है मानों सफ़ेद सुरधेनु की कलोरें ( ओसर गायें) फैली हुई सुन्दर हरी-हरी घास चर रही हैं। [२८७ ] देवनदी कहँ जो जन जान किये मनसा कुल कोटि उधारे । देखि चले झगरे सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे ॥ पूजा को साज बिरंचि रचैं, तुलसी जे महातम जाननहारे । ओक की नींव परी हरिलोक बिलोकत गंग-तरंग तिहारे ॥ अर्थ-गङ्गा को जो सेवक जानते हैं, उनके मन में गङ्गा प्राने ही अर्थात् स्मरण करते ही अथवा जो जन गङ्गा जाने का मन में विचार करते हैं उनके करोड़ों कुल उद्धार पा जाते हैं और चलते देख इन्द्र विमान सँभालने लगते हैं और सुरवधू ( उसे वरने को) भी झगड़ा करने लगती हैं। ब्रह्मा, जो माहात्म्य के जाननेवाले हैं, पजा का ठाट रचने लगते हैं यानी समझते हैं कि नहानेवाला हमारे पास अब आता है. हरिलोक में ओक ( घर ) की नींघ तभी पड़ जाती है जब कि हे गङ्गे! तुम्हारी तरङ्ग को देखा जाता है। [२८] ब्रह्म जो ब्यापक बेद कहैं, गम नाहि गिरा गुन ज्ञान गुनी को। जो करता भरता हरता सुर साहिब, साहव दीन दुनी को । सोई भयो द्रवरूप सही जु है नाथ बिरच महेस मुनी को। मानि प्रतीति सदा तुलसी जल काहे न सेवत देवधुनी को ? ॥ अर्थ-जिसको वेद व्यापक ब्रह्म बतलाते हैं, जिसके गुण जानने और गिनने की गवि गिरा (वाणी, सरस्वती) को भी नहीं है; जो कर्त्ता, भर्ता और हर्ता है, देवताओं का राजा और दीन-दुनिया का साहेब (मालिक) है, वह पानी के रूप में बहता है, जो ब्रह्मा, महेश और मुनियों का नाथ है, हे तुलसी ! विश्वास करके क्यों नहीं उस गङ्गाजल का लेग सेवन करते। [२८] बारि तिहारो निहारि मुरारि भये परसे पद पाय लहाँगो । ईस है सीस धरौं पै डरौं, प्रभु की समता बड़ दोष दुहोगा ॥ बरु बारहि बार सरीर धरौं, रघुबीर को है तव तीर रहैंगो । भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहाँगो ॥ अर्थ-तुम्हारे जल को देखकर यदि मुरारि हुमा तो पैर से छूने से मुझे पाप मिलेगा। भाव यह है कि तुम्हारे दर्शन-मात्र का यह फल है कि उत्तम पद मिलता है, यदि विष्णु पद मिला तो तुमको पैर दे धारण करना पड़ेगा, क्योंकि गंगा की उत्पत्ति विष्णुपद से है, सो इसमें पाप है कि जिसके दर्शन से पद मिला उसे ही पैर पाठान्सर-जन।
से दबाऊँ! यदि ईश हुआ तो शाश पर रक्खूँगा परन्तु डर है कि प्रभु को बनाबरी करके बड़े दोष से रहूँगा अर्थात महादेव होकर तुमको सिर पर रखना पड़ेगा, इससे यह दोष है कि महादेव मेरे प्रभु हैं उनकी बराबरी होती है। चाहे जितनी बेर शरीर धारण करूँ, रघुवीर की सेवा करके तेरे किनारे रहूँगा। हेगङ्गा! हाथ जोड़ तेरी विनती करता हूँ फिर दोष न मिले सो कहूँगा।

[२९०]
कवित्त


लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै न बिसूरना।
ताकत सराध कै बिबाह कै उछाह कछु,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल तूरना॥
प्यासे हू न पावै बारि, भूखे न चनक चारि,
चाहत अहार न पहार दारि करना*।
सोक को अगार दुख-भार-भरौ तौ लौं जन
जौ लौं देवी द्रवै न भवानी† अन्नपूरना॥

अर्थ—लालचा मन ललचाता है और द्वार-द्वार पर दीन होकर मैला बदन करके पुकारता है परन्तु उसका भटकना नहीं जाता। श्राद्ध, विवाह या किसी उत्सव की इच्छा करता रहता है और ढोल और तुरई की आवाज़ को सुनकर पूछता, लोभी बना फिरता रहता है, प्यासा पानी नहीं पाता, न भूखा चार चना, जो अन्न के पहाड़ माँगता है उसे दाल का दाना भी नहीं मिलता। शोक का घर रहता है और दुःख का भार उस समय तक उठता रहता है जब तक भवानी अन्नपूर्णा देवी प्रसन्न नहीं होतीं।

छप्पै
[२९१]

भस्म अंग मर्दन अनंग, संतत असंगहर।

सीस गंग, गिरिजा अधंग, भूषन भुजंगबर॥


*पठान्तर—चाहत अहार ते पहार डारि धूरना।
†पाठान्तर—जौलौं देवी देवी जी द्रवै नहीं।
दुमाला, विशु नारा भार, उ पास कर । त्रिभुवन सुखकन सधर ।। त्रिपुरारि निलावा विमानन विष भोजन भव-भाव हान। कह तुललिहास लेखन सुलभ लिबसिब लिवसकर सरन ॥ अर्थ-भस्म को प्राङ्ग में मलनेवाले और सदा कामदेव से अलङ्ग ( =दूर) रहनेवाले अथवा भस्म को अङ्ग में लगाये कालदेव का मर्दन ( नाश ) करनेवाले, सदा प्रसङ्ग (अकेले ),हर ( महादेव), जिनके सिर पर गङ्गा है और पार्वती श्रद्धाङ्गिनी है, जिनका भूषण सुन्दर सर्प है, (जिनके गले में) मुडो की माना है और लाद में दुज का चन्द्रमा है, उमरू और कराल हाथ में है, देवतागण-रूपी नये कुमुद के लिए जो चाँद के समान हैं, जो सुख के भूल और शूल धारण करनेवाले हैं, ऐसे त्रिपुरारि, तीन लोचनवाले, नग्न रहनेवाले और विष खानेवाले तथा संसार के भय को हरनेवाले (महादेव ) हैं। तुलसीदास कहते हैं कि सेवा करनेवाले को शिवजी सुलभ हैं और शरण प्राये को शङ्कर ( कल्याण करनेवाले ) हैं। [२६२] गरल-असन दिग्बसन, व्यसन-भंजन, जनरंजन । कुंद - इंदु · कर्पूर - गौर, सच्चिदानंद घन ॥ बिकट बेष, उर सेष, सीस सुर-सरित लहज सुचि । सिर अकाम, अभिराम धाम, नित राम नाम सचि॥ कंदर्य-दर्प-दुर्गम-दमन, उमारवन गुन-भवन हर । तुलसीस त्रिलोचन, निगुन-पर, त्रिपुरमथन जय त्रिदसवर ! अर्थ-विष उनका भोजन है और दिशा ही वस्त्र है ( नग्न रहते हैं ), वे ( दुःख या काम ) को तोड़नेवाले और सेवक को पालन करनेवाले हैं, वे कुन्द से कोमल और चन्द्र के से बदनवाले हैं, कपूर के से गौरवर्ण हैं और सच्चिदानन्ध के घन ( समूह ) हैं, बुरा वेष धारण किये हैं, शेषनाग को गले में पहने हैं, गङ्गा उनके सिर पर हैं और वे स्वभाव ही से पवित्र हैं, शिव सदा काम-रहित हैं और सुन्दरता के घर हैं, सदा राम के नाम से प्रेम रखनेवाले हैं। कामदेव के मद को चूर करनेवाले हैं, पार्वती के स्वामी और सब गुणों के घर महादेवजी हैं। महादेव तीन नेत्रवाले हैं,
और तीनों गुणों से परे हैं, त्रिपुर को मथन करनेवाले, देवताओं में श्रेष्ठ हैं, ऐसे महादेव की जय (हो)।

[२९३]


अर्ध-अंग अंगना, नाम जोगीस जोगपति।
विषम असन, दिग्वसन, नाम विस्वेस बिस्वगति॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, विषभूति विभूषन।
नाम सुद्ध, अबिरुद्ध, अमर, अनवद्य अदूषन॥
बिकराल भूत-बैताल-प्रिय, भीमनाम भव-भय-दमन।
सब विधि समर्थ महिमा अकथ तुलसिदास संसय समन॥

अर्थ—जिनकी स्त्री आधे अङ्ग में है, जो महायोगीश, योगियों के पति हैं, जिनका भोजन विषम (धतूरा आदि) है, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, जो विश्वपति हैं और विश्व की गति हैं, हाथ में जिनके कपाल है, गले में साँपों की माला है और विष-विभूति (ख़ाक) ही जिनका आभूषण है, जो पवित्र नामवाले हैं और जिनका कोई वैरी नहीं है, जो अमर हैं, दुःख-रहित और दोष-रहित हैं जिसको विकराल भूत और वैताल-प्रिय हैं, भीम (डरानेवाला) जिनका नाम है, जो विश्व के भय को नष्ट करनेवाले हैं, सब भाँति जो समर्थ हैं और जिनकी महिमा अकथनीय है, वही तुलसीदास के संशय का नाश करनेवाले हैं।

[ २९४]

भृतनाथ भयहरन, भीम, भय भवन भूमिधर।
भानुमंत भगवंत, भूति भूषन* भुजंग वर॥
भव्य-भाव बल्लभ, भवेस† भव-भार-बिभंजन।
भूरिभाग, भैरव कुजोग-गंजन जन-रंजन।
भारती-बदन, बिष-अदन सिव, ससि-पतंग-पावक-नयन॥
कह तुलसिदास किन भजसि मन, भद्र-सदन मर्दनमयन।



*पटान्तर—भूमि-भूषण।
†पठान्तर—महेश।
अर्थ-तुलसीदास कहते हैं कि हे मन्द ! ऋत्तों के साथ, सय को दूर करनेवाले, भीष्म-रूप, डरानेवाले और अब के घर, दुष्टों को शेररूप प्रदीत होनेवाले और भूनि को धारण करनेवाली, प्रकाशमान, साया और खाक का प्राभूप धारण करनेवाले, सुन्दर साँप को धारण करनेवाले, भव्य ( कल्याण-स्वमर ) भाव को चाहनेवाले, संसार के ईश, संसार के नाश करनेवाले, बड़े भाग्यवाले, भैरव, कुचाग को मिटानेवाले ( मृत्युञ्जय जप द्वारा), सेवक का पालन करनेवाले, भारतीवदन (सरस्वती जिनके मुख-स्वरूप हैं ), विष खानेवाले, चन्द्रमा, सूर्य और अग्निरूप नेत्रवान्ले हैं, ऐसे भद्र- सदन ( कल्याण के घर ) काम को नाश करनकाले का भजन क्यों नहीं करता ? सवैया नाँगा फिरै कहै माँगतो देखि "न खाँगो कछ,जनि माँगिएथोरो। रॉकनि नाकप रीमि कर, तुलसी जग जो जुरै जाचक जोरो ॥ "नाक सवारत आयो हैं। नाकहि,नाहिँ पिनाकिहि ने निहोरो। ब्रह्म कहै "गिरिजा ! सिखवा, पति रावरो दानि है बावरोभारा'। अर्थ-नङ्गा तो फिरता है परन्तु भिखारी देखकर कहता है कि देने में हटूंगा नहीं, थोड़ा मत माँगा, रीझकर गरीबों को इन्द्र करता है, हे तुलसी ! जहाँ तक जोरे जुड़ते हैं मांगनेवालों को जोड़ता है ( इकट्ठा करता है)। स्वर्ग ही संभालता हुआ (बनाता हुआ) मना करने को आया हूँ अथवा नाक में दम आ गया है, पिनाकी (महादेव ) कुछ निहोरा नहीं मानते हैं, ब्रह्मा पार्वती से कहते हैं कि अपने पति को समझाओ, वह तो दान देने में बावला और भोरा है। [२६] बिष-पावक, ब्याल कराल, गरे, सरनागत तो तिहुँ तापन डाढ़े। भूत बैताल सखा, भव नाम, दलै पल में भव के भय गाढ़े ॥ तुलसीस दरिद्र-सिरोमनि सो सुमिरे दुख-दारिद होहि न ठाढ़े। भान में भाँग, धतूरोई आँगन, नोंगे के आगे हैं माँगने बाढ़े ॥

  • पाठान्तर-कपाल। उतावला

___ .. विकासाला, अश्या कि नेत्र सो विष (सण्ठ में), मचानक सी ( गलों में है, परन्तु शरणागल के तीन ताओं सार । भूम-प्रेत जला हैं, भान नास है, परन्तु पल में संसार के बाद दुःखों करता है, तुलसी का इंश दरिद्रियों का शिरोमणि है, परन्तु उसके सुमिरने से दुःख और दरिद्रता बड़ी नहीं रहती, घर में भाग और आँन में कम ही हैं परन्तु नङ्गे के सामने मांगने- वाले बढ़ते जाते हैं। [२८] सीस बलै बरदा, बरदानि, बढ्यो बरदा, घरन्यौ बरदा है। धाम धतूरो, विभूति को कूरो, निवास तहाँ सब लै मरे दाहै ॥ ब्याली कपात्री है ख्याली, चार दिसि भांग की टाटिन को परदा है। रॉक-रि रोमनि काकिनिभाग* बिलोकत लोकप को करदा है। अर्थ-वर देनेवाले शिव के शीश (सिर ) पर वर देनेवाली नदी है, बैल पर सवार है, और स्त्री भी जिसकी वर देनेवाली है, घर में जिसके धतूरा है और विभूति (सम्पदा) जिसकी कूड़ा है। निवास वहाँ है जहाँ सबको ले जाकर (मुरदा) जलाया जाता है अर्थात श्मशान, साँप और कपाल धारण किये है और बड़ा खिलाड़ी है, जिसके घर का पर्दा माँग की टट्टियों का है, दरिद्रियों का सिरताज है, कौड़ी का जिनका भाग है अर्थात् अवि दरिद्री है परन्तु देखते हो (कर दाहै) दिकपालों का हाथ जलाता है अर्थात् दान में जिसे दिकपाल भी नहीं पाते अथवा देखते ही कौन दिकपालों का करदा (करने देनेवाला) है अर्थात् देखते ही भक्त इतना बड़ा हो जाता है कि लोक पालों की भी कदर नहीं करता, अथवा दिक्पालों को ( करदा-धूर्त ) सा देखता है अथवा लोकपालों को दान में (करदा ) खाक समझता है। दानी जो चारि पदारथ को त्रिपुरारि ति पुर में सिर टीको । भारो भलो भले भाव को भूखो, भलाई कियो सुमिरे तुलसी को॥

  • पाठान्तर- काकिणि भाक।

पाठान्तर-भोरो। ताबिनु शास के दास भो, कब मिट्यो लघुलाल जी ।। साधो कहा कारे इमारत और राधेर नहीं पति पारवती को ? अर्थ-जो चारों पदारथ ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को देनेवाले महादेव हैं और जिनके सिर तीनों लोक में दीका है अर्थात् जो तीनों लोक में दानि-शिरोमणि हैं, बड़े भारी (धैर्यवान ) हैं, और अच्छे भाव के भूले हैं, जिन्होंने याद करने पर तलसी का भला किया है। विना उनके सदा आशा का दास हो रहा, कभी मन का लालच न गया। साधन करके क्या बनेगा यहि पारवतीजी के पति ( महादेव ) की आराधना नहीं की। [२६] जात जरे सब लोक बिलोकि त्रिलोचन सो बिष लोकि लिया है। पान कियो बिष भूषन भो, कसना-बरुनालय साँ-हियो है। मेरोई फोर जोग कपार, किधों कछु काहू लखाइ दियो है।। काहे न कान करो बिनती, तुलसी कलिकाल बिहाल किया है। अर्थ-तीनों लोकों को जले जाते देखकर महादेव ने विष को पी लिया था। वह पिया हुआ विष भी आभूषण हो गया। ऐसा महादेव का हृदय करुणा का समुद्र है। या तो मेरा हा भाग्य फोड़ने लायक है या किसी ने आपसे कुछ कह दिया है। क्यों नहीं विनवी सुनते ! तुलसी को कलि ने घबड़ा दिया है। कषित [ ३००] खायो कालकूट भयो अजर अमर तनु, भवन मसान, गथ गाँठरी गरद की। . डमरू कपाल कर, भूषन कराल ब्याल, बावरे बड़े की रीभ बाहन-बरद की ॥ - hine

  • पाठान्तर-तो।

पाठान्तर-किया है। कवितामली तुलसीविलाल गोरे भात बिललति श्रुति, मानों हिमगिरि चार चाँदनी सरद की । अर्थ धर्म काम मोक्ष वसत बिलोकनि में, कासी करामाति जोगी जागति मरद की ॥ अर्थ-जिसने विष को खाया और उससे जिसका शरीर अजर ( जरा या बुढ़ापा से रहित) और अमर हो गया, जिसका घर श्मशान है; खाक की गठरी ही जिसका धन है; उमरू और मुण्ड जिसके हाथ में है; विकरात साँप जिसका आभूषण है; बड़े बावले को अपने वाहन बैल पर बड़ी रीझ है; गोरा बड़ा बदन है, जिस पर विभूति ऐसी चमकती है मानो हिमालय पर सुन्दर शरद् रात्रि की चाँदनी; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिसकी चितवन में हैं, उस वीर योगी की करामात काशी में जगती है अर्थात तत्काल दिखाई देती है। [ ३०१ ] पिङ्गल जटा-कलाप, माथे पै पुनीत आप, पावक नयना, प्रताप 5 परछ बरत हैं। लोचना बिसाल लाल, सोहै बाल-चंद्र भाल, कंठ कालकूट, ब्याल भूषन धरत हैं ॥ सुंदर दिगंबर बिभूति गात, भाँग खात, रूरे स्टूगी पूरे काल-कंटक हरत हैं। देत न अघात, रीझि जात पात आक ही के, भोलानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं । अर्थ-(महादेवजी ) पिङ्गल (भूरी ) जटा का समूह धारे हैं। उनके सिर पर पवित्र पाप (गङ्गाजी) हैं, अग्नि नेत्र हैं, भौह पर उसका प्रताप जाज्वल्यमान है, लाल नेत्र बड़े हैं और बाल (दूज का) चन्द्रमा माथे पर शोभायमान है, गले में विष और साँपों का जेवर धारण किये हैं; सुन्दर हैं, नङ्गे हैं, शरीर पर भस्म रमाये हैं, भाँग खाते

  • पाठान्तर-भूपर।

पाटान्तर-लायन। सुपर काण्ड हैं, अनोखे और शृङ्गो हैं { अति सींग बजाते हैं ), और सम्पूर्ण काल के काँटों को हरनेवाले हैं। देते हुए नहीं थमने, जवा जी हानाथ ( महादेव ) अबढर ढरते हैं तब माक (मदार ) के पत्तों ही पर रीझ जाते हैं। देने पर उतारू होते हैं। [३०२ देत संपदा समेत श्रीनिकेत जाचकनि, भवन विभूति भाँग बृषभ वहनु है । नाम बामदेव, दाहिना सदा, असंग रंग, अर्द्ध अंग अंगना, अनंग को महनु है ॥ तुलसी महेस को प्रभाव भाव ही सुगम, निगम अगम हूँ को जानिवा गहनु है। बेष तो भिखारि को, भयंक रूप संकर, दयालु दीनबंधु दानि दारिद-दहनु है ।। अर्थ-माँगनेवालों को, सब सम्पदा सहित, श्री-निकेत (लक्ष्मी का स्थान-स्वर्ग) देते हो, घर में भाँग और भस्म ही हैं और वैल की सवारी है: नाम से आपका वाम- देव है मगर सदा दाहिने ( अनुकूलत ) रहते हो, विरति ( किसी में श्रासक्त न होना) ही रङ्ग है परन्तु खो सदा सङ्ग है यद्यपि आप कामदेव को मारनेवाले हैं; तुलसी कहते हैं कि महादेव का यही प्रभाव है कि भाव से सुगम ( भावना करनेवालों को सुलभ ) हैं और पूजा इत्यादि नहीं चाहते, यद्यपि वेद और शास्त्र को आपका जानना दुर्गम है। आपका वेष भयंकर और भिखारियों का सा है परन्तु श्राप शङ्कर (कल्याणकारी), दयालु, दीनबन्धु और दरिद्रता का नाश करनेवाले हो। ३०३] चाहै न अनंग-अरि एको अंग मंगन को, देबोई पै जानिए सुभाव-सिद्ध बानि सो। बारि-बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिए तो, देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥ -- -

___* पाठान्तर-माँगये ।


तुलसी भरोसो न भवेस भोलानाथ को तौ,
कोटिक कलेस करौ मरौ† छार छानि सो।
दारिद-दमन, दुख-दोष-दाह-दावानल,
दुनी न दयालु दूजो दानि सूलपानि सो॥

अर्थकामदेव के वैरी (महादेव) माँगने (भिखारी) से एक भी अङ्ग (भक्ति का) नहीं चाहते, देना उनका स्वभाव-सिद्ध बान (प्रण) है। पानी की चार बूँँदें महादेव पर डालने से वे सच्ची सेवा मान लेते हैं और चारों फल देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यदि भोलानाथ का भरोसा नहीं किया है अर्थात् उन पर विश्वास नहीं किया है तो करोड़ों क्लेश होते हैं चाहे जितनी खाक छानो। दरिद्र को मिटानेवाले, दुःख और दोष को जलाने में दावानल के समान महादेव सा दुनिया में दूसरा दयालु नहीं है।

[ ३०४]


काहे को अनेक देव सेवत जागै मसान,
खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे।
काहे को उपाय कोटि करत मरत धाय,
जाचत नरेस देस देस के, अचेत रे!
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु,
धन ही के हेतु दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वे धतूरै के दै* भोरे के भवेस सो,
सुरेस हू की संपदा सुभाय सों न लेत रे।

अर्थ—क्यों व्यर्थ अनेक देवताओं की सेवा करके मसान जगाते हो अर्थात् उनकी भक्ति की प्राप्ति मसान के जगाने सी दुर्लभ है, अथवा कोई बताओ कि क्यों अनेक देवताओं की सेवा करते हो, क्यों मसान जगाते हो। अपान खाते हो (प्राणायामसाधते हो) अथवा अपान (अपने को) खाते (बिगाड़ते) हो और हठ करके हे शठ! प्रेत क्यों होते हो (अकाल-मृत्यु वाले प्रेत-योनि पाते हैं), क्यों करोड़ों उपाय



†पाठान्तर—मरो।
*पाठान्तर—हैं।
करते हो, क्यों व्यर्थ दैाड़-दौड़कर मारते हो और देश-देश के राजाओं से माँगते हो? तुलसी शहते हैं कि क्यों व्यर्थ, बिना विश्वास, प्रयाग में देह छोड़ते हो, या धन के लोभ से कुरुक्षेत्र में दान देते हो, (जब कि) देश धतूरों के पत्ते ही भवेश (महादेव) को सीधे चढ़ाने से सहज ही इन्द्र की सी सम्पदा मिलती है, उसको क्यों नहीं लेते?

[३०५]


स्पंदन, गयंद, बाजि-राजि, भले भले भट,
धन-धाम-निकर, करनि हू न पूजे क्वै*।
बनिता बिनीत, पूत पाचन सोहावन, औ
बिनय बिबेक विद्या सुभग† सरीर ज्वै‡॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक,
ताको फल§ तुलसी सोँ सुनौ सावधान ह्वै‖।
जाने, बिदु जाने, कै रिसाने, केलि कबहुँक,
सिवहि चढ़ाये ह्वै हैं बेल के पतौवा द्वै¶॥

अर्थ—इस लोक में जिसे रथ, हाथी और घोड़ों का समूह, अच्छे-अच्छे योधा और ऐसी करनी (करतूत) कि जिसको कौन नहीं पूजता है (अर्थात् सब लोग सम्मान करते हैं) अथवा जिसको कोई नहीं पूजता अर्थात् पहुँचता है, विनीत स्त्री, पवित्र और सुन्दर पुत्र, विनय, ज्ञान तथा विद्या समेत सुन्दर शरीर आदि सब सुख प्राप्त हैं और जिसे परलोक में शिवलोक की प्राप्ति होती है; सो तुलसीदाम कहते हैं कि सब सावधान होकर सुनो कि यह उसी का फल है कि उसने जान-बूझकर या बिना जाने, गुस्से में या खेल में, दो बेल के पत्ते शिवजी पर कभी चढ़ा दिये होंगे।

[३०६]


रति सी रवनि, सिंधु-मेखला-अवनिपति,
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।



* पाठान्तर—पूजै क्वय।
†पाठान्तर—सुलभ।
‡पाठान्तर—वय।
§पाठान्तर—फलै।
‖पाठान्तर—ह्वम।
¶पाठान्तर—द्वय। कवितावली संपदा समाज देखि लाज तुरराज ए के, सुख सब विधि विधि दीन्हें हैं सँवारि कै॥ इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथ-पद, ताको फल तुलसी से कहेगा बिचारि के। आक के पौवा चारि, फूल कैछ धतूरे के द्वै, दीन्हे है हैं बारक पुरारि पर डारि कै ॥ अर्थ-रति सी लो और इतनी भूमि जिसकी मेखला ( मोट ) सिंधु है अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी के मालिक हैं, जिसके पागे अनेक राजा लोग हाथ जोड़े खड़े रहे, जिसकी सम्पदा और ठाठ देखकर इन्द्र को भी लाज प्रावे, और सब तरह के सुख सँभाल-संभालकर जिसे ब्रह्मा ने दिये हैं, यहाँ यह सुख और मरने के बाद इन्द्र की पदवी, यह सब किसका फल है, सो तुलसी विचारकर कहता है कि चार आफ के पत्ते और दो धतूरे के फूल कहीं महादेव पर डाल दिये होंगे। [३०७] देवसरि सेवौं वामदेव गाँउ रावरे ही, नाम राम ही के माँगि उदर भरत है।। दीबे जोग तुलसी न लेत काहू को कछुक, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हैं। ॥ एते पर हू जो कोऊ रावरे ह जोर करे, ताको जोर, देव दीन द्वारे गुदरत हौं । पाइकै उराहनो उराहना न दीजै मोहिं, ___ काल-कला कासीनाथ कहे निबरत हौं ॥ अर्थ-गङ्गा का सेवन करता हूँ, आपकी काशी में रहता हूँ, रामचन्द्र के नाम से माँग-माँगकर पेट भरता हूँ, न तुलसी किसी को देने योग्य है, और न किसी से कुछ

  • पाठान्तर-हू।
  • पाठान्वर-कालिकला। लेता है, न इसके कर्म में मलाई लिखी है परन्तु इसका मुझे कुछ सच नहीं है अथवा

किसी का कुछ विगाडला भी नहीं हूँ, इतने पर भी यदि आपका होकर ( दास बनकर) जल्म करे तो उसके जोनको पाप ही कहता हूँ। यदि वह मेरे स्वामी रामचन्द्र से उराहना पाकर आपसे उराहना करे अथवा योदे मेरे स्वामी रामचन्द्रजी आपसे उराहना करें तो मुझे उराहना न दीजिएगा। हे काशीनाथ ! काल ( कलियुग) की कला (मापसे) कहकर मैं (अपने फ़र्ज़ ले) निवृत्त होता हूँ अथवा हे काशीनाथ ! यदि कालिकला (कदाचित) कोई कभी उराहना दे तो मैं पहले ही से कहकर निहस होता हूँ। [३८] चेरो राम राय को सुजस सुनि तेरो, हर : पाइँ तर श्राइ रह्यों सुरसरितीर हैं।। बामदेव, राम को सुभाव सील जानि जिय, नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हैं। ॥ प्राविभूत, बेदन बिषम होत, भूतनाथ ! तुलसी विकल पाहि पचत कुपीर हौं । मारिए तो अनायास कासीबास खास फल, ज्याइए तो कृपा करि निरुज सरीर हौं । अर्थ-राम का सेवक हूँ और हे महादेव ! आपका यश सुनकर यहाँ गङ्गा के किनारे आपके चरणों में पा रहा हूँ। हे महादेव ! रामचन्द्र का स्वभाव और शील आप जानते हैं और मेरा रामचन्द्र से नाता और नेह भी जानते हैं कि हृदय से राम- चन्द्र ही पर सब भार रखता हूँ। हे भूतनाथ ! तुलसी को बाहरी पोड़ा बड़ी होती है, यह बेकल और बड़ी पोर में पच रहा है। बचाओ, यदि मारना है तो बिना परिश्रम के काशोवास का खास फल ( मोक्ष ) दीजिए और अगर जिलाना है तो शरीर रोग-रहित कर दीजिए। [३०] जीबे की न लालसा, दयालु महादेव ! मोहि,

मालुम है तोहिं मरबेई को रहतु हौं ।


कामरिपु राम के गुलामनि को कामतरू,
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत लो, कुसृत* भयो तुलसी को,
भूतनाथ पाहि पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइए तो जानकी-रमन-जन जानि जिय,
मारिए तौ माँगी मीचु सृधियै कहतु हौं।

अर्थ— हे दयालु महादेव! मुझे जीने की कोई इच्छा नहीं है, आपको मालूम है कि मैं मरने को तैयार रहता हूँ। महादेव! आप राम के दासों को कल्पतरू समान हैं, मैं भी जगदम्बा सहित आप ही का अवलम्ब (सहारा) चाहता हूँ, रोग तुलसी को बुरे भूत की भाँति लगा है, तुलसी को अब कुछ सहारा नहीं रहा है, हे भूतनाथ! बचाइए, आपके चरण–कमल पकड़ता हूँ, यदि जिलाना है तो रामचन्द्र का सेवक मन में समझकर और मारना है तो मैं भी सच कहता हूँ कि सीधी मृत्यु चाहता हूँ।

[३१०]


भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
आपनो समाज, सिव! आपु नीके जानिए।
नाना बेष बाहन बिभूषन बसन, बास,
खान-पान, बलि पूजा बिधि को बखानिए॥
राम के गुलामनि की रीति प्रीति सृधी सब,
सब सों सनेह सबही को सनमानिए।
तुलसी की सुधरै सुधारे भृतनाथ ही के,
मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानि ए॥

अर्थ—हे महादेवजी! भवत् (आप) पिशाच, भूत-प्रेतों को प्रिय हैं। यह आपका समाज है, हे शिवजी! आप ही इसे खूब जानते हैं। नाना वेष, वाहन, आभूषण और वस्त्रधारी, नाना स्थान पर रहनेवाले, खान-पान करनेवाले, उनकी बलि और पूजा के विधान का वर्णन कौन कर सकता है? राम के गुलामों की रीति सीधी एकमात्र



प्रेम है, वे सबसे प्रेम करते हैं, सबका आदर करते हैं। तुलसी की, हे महादेव, आप ही के सँभालने से बनेगी। मेरे मा-बाप गुरु, शंकर-भवानी ही हैं, अर्थात् आपका समाज तो टेढ़ा है पाप स्वयं मेनी बनादेंगे तेह बनेगी।

[३११]


गौरीनाथ भोलानाथ भवत भवानीनाथ,
बिस्वनाथ-पुर फिरी आन कलिकाल की।
संकर से नर, गिरिजा सी नारी कासीबासी,
बेद कही, सही ससि-सेखर कृपाल की॥
छमुख गनेस तेँ महेस के पियारे लोग,
विकल बिलोकियत, नगरी विहाल की।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि,
निठुर निहारिए उघारि डीठि भाल की॥

अर्थ—गौरीनाथ! भोलानाथ! हे भवानीनाथ! आपकी पुरी काशी में कलिकाल को आनि है अर्थात् यहाँ नहीं सता सकता है अथवा काशी में कलि की आन (दुहाई) फिरी है। यहाँ शंकर से नर और गिरिजा सी नारी सदा वास करते हैं, यह बात वेद में कही गई है और उस पर कृपालु महादेव ने सही (दस्तखत) कर दिया है, यहाँ के लेाग महेश को छः मुख (कार्तिकेय) और गणेश से भी प्यारे हैं, पर अब नगरी बेहाल की (विकल) दिखाई पड़ती है। उस सुरबेलि-समान पुरी को निठुर कलिरूपी किरात काटता है, अतः भाल की दीठि (तीसरा नेत्र) उधारकर देखिए अर्थात् कलि को भस्म कीजिए।

[३१२]



ठाकुर महेस, ठकुराइन उमा सी जहाँ,
लोक बेदहू बिदित महिमा ठहर की।
भट रुद्रगन, भूत गनपति सेनापति,
कलिकाल की कुचालि काह तौ न हरकी॥

विदावली बोली बिस्वनाथ की बिसाद बड़ो बारामती, बूझिए न ऐसी गति संकर-सहर की। कैसे कहै तुलसी, बृषासुर के बरदानि ! वानि जानि सुधा तजि पियनि जहर की ॥ अर्थ-जहाँ महादेव से मालिक और पार्वती सी मालकिन हैं, जिस जगह की महिमा दुनिया और वेद दोनों में जाहिर है, जहाँ रुद्र के गण वीरभद्र से योधा और कार्तिकेय षडानन और गणेश से सेनापति हैं, वहाँ कलियुग की कुचाल को किसी ने भी न हरका या मना किया। कुछ न पूछिए, यदि विश्वनाथ की बस्ती को ऐसा बड़ा दुःख और शंकर के शहर बाराणसी की ऐसी गति हो अथवा विश्वनाथ की बीसी में काशी में ऐसा दुख है कि महादेव के शहर की हालत कुछ न पूछिए । हे वृषासुर के वर देनेवाले ! अमृत छोड़कर विष पीने की आपकी बानि जानकर तुलसी क्या कहे अर्थात् यदि ऐसी बानिवाले के शहर की यह गति है तो क्या अचम्भा है जो अमृत छोड़कर विष पीता है और वैरी वृषासुर को वर देता है। [३१३] लोक बेदह बिदित बारानसी की बड़ाई, बासी नर-नारि ईस-अंबिका-स्वरूप हैं। कालनाथ कोतवाल दंडकारि दंडपानि, सभासद गनप से अमित अनूप हैं । तहाँ ऊँ कुचालि कलिकाल की कुरीति, कैधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं। फलें फूलै फैले खल, सौंदै साधु पल पल, खाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं ॥ अर्थ-लोक और वेद सबमें काशी की महिमा विदित है, जहाँ के रहनेवाले स्त्री और पुरुष साक्षात् महेश और पार्वतीजी के स्वरूप हैं। जहाँ कालनाथ भैरव स्वयं कोतवाल हैं, दण्डपाणि भैरव दण्ड देनेवाले हैं और गयोश से अनेक अप

  • पाठान्तर-वाती दीपमालिका लाइसत सप है।
    सभासद हैं, वहाँ भी कलियुग को कुचालि चलती है, कुरीति दिखाई देती है। कदाचित् कलियुग बेवकूफ़ यह कहीं जानता है कि यहाँ के राजा भूतनाथ (शिवजी) है, खल फलता फूलता और बढ़ता है, साधु पल-पल पर दुःख पाते हैं, जैसे दिया तो घी खाता है और सूप ठठाये (बजाये) जाते हैं अर्थात् दिवाली के दिन दीप घी

खाते हैं और सूप इत्यादि पीटे जाते हैं सो मानो दीपावली ने घी चुराया और मारे गये सूप अर्थात् दुःख दिया खल ने, मारे गये साधु।

[३१४]


पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ परारथ को,
जानि आप आपने सुपास बास दिया है।
नीच नर-नारि न सँभारि सकैं आदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न किया है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्र चक्रपानि,
मानि हित हानि सो मुरारि मन भियो है।
रोष में भरोसो एक आसुतोष कहि जात,
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥

अर्थ—स्वार्थ और परमार्थ के पुण्यकोश (पुण्य के ख़जा़ने) पञ्चकोश को जानकर आपने अपने पास स्थान दिया है, नीच नर और नारी आदर को सँभाल नहीं सकते, जो काम विचारकर नहीं किया है उसी का फल कायर पाते हैं। जब काशी को चक्रपाणि के बिना कहे चक्र ने जला दिया था तो अपने हितू महादेव की हानि मानकर मुरारि के मन में डर हुआ था, यद्यपि बिना आज्ञा चक्र ने जलाया था तो भी चक्रपाणि को डर हुआ। आपके गुस्से में एक भरोसा है कि भाप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) कहे जाते हैं, संसार को विकल देखकर आपने कालकूट विष पिया था, क्या इस विष को आप न पियेंगे?

[ ३१५ ]


रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर,
तेरे ही प्रसाद जग अग-जग-पालिके।

राहिली बिकास बिस्व तो है जिल्लामा सन, ताहि में सनात नातु भूलिधर-शालिके। दीजै अवलंब जगदंब न बिलंब कीजै, करना-तरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके। रोष महामारीकै परितोष, महतारी ! दुनी देखिए दुखारी मुनि-मानस-मरालिके ॥ अर्थ-जग (संसार ) को ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं और विष्णु रक्षा करते हैं. महादेव हरते हैं, परंन्तु तेरी ही कृपा से, हे चराचर को पालनेवाली, तुझ ही में इस जगत् का विकास होता है, और तुझ ही में उसका भोग है और फिर तुझ ही में सब समा जाता है। हे हिमाचल की कन्या पार्वती ! हे जगदम्बा ! अब देर न कीजिए, सहारा दीजिए। हे दया की तरङ्गवाली ! हे कृपा की तरह की खानि! हे मुनियों के मन में हंसिनी-रूप! दुख से भरी हुई दुनिया की ओर देखिए ! हे मा! कृपा कीजिए, यह रोष (क्रोध) बड़ा भारी है अथवा महामारी ने क्रोध कर रक्खा है। [३१६] निपट बसेरे, अघ औगुन घनेरे, नर नारिऊ अनेरे, जगदंब ! चेरी चेरे हैं। दारिदी दुखारी, देखि भूसुर भिखारी भीरु, लोभ मोह काम कोह कलिमल-घेरे हैं ॥ लोक-रीति राखी राम, साखी बामदेव जान, जन की बिनति मानि मातु कहि 'मेरे हैं। महामारो महेशानि महिमा की खानि, मोद-मंगल की रासि, दास कासी-बासी तेरे हैं। अर्थ-तेरे ही भरोसे पर बसे हैं, पाप और अवगुण बहुतों से भरे हैं, नर और नारी सब अनजान हैं, परन्तु हे जगदम्बा! तेरे दास हैं, अथवा यद्यपि नर-नारी सब अनाड़ो, पाप और औगुण के निरे बसेरे (घर) हैं। दरिद्र से दुःखी हैं और ब्राह्मण

  • पाठान्तर-महाभारी।
    और भिखारी देखकर डरते हैं। इन्हें लोभ, मोह, काम, क्रोध और कलि के मल (पाप) घेरे हैं। महादेव साक्षी हैं कि रामचन्द्र ने लोक-रीति को रक्खा (खूब निबाहा)। हे माता! पाप भी सेवक की विनय मानकर महामारी से कहें कि ये मेरे हैं। हे पार्वती! महिमा की खानि! मोद और हर्ष की राशि! हे महामाया! देवि! हे महेशानी, काशी के रहनेवाले तो आपके दास हैं। अतएव उन्हें क्षमा कीजिए।
[३१७]


लोगन के पाप, कैधौं सिद्ध-सुर-साप,
काल के प्रताप कासी तिहूँ-ताप-तई है।
ऊँचे, नीचे, बीच के, धनिक रंक राजा राय,
हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान,
जसरासि जहाँ तहाँ तैंहो लूट लई है॥

अर्थ—लोगों के पाप से अथवा किसी देवता या सिद्ध के शाप से या कलिकाल के प्रभाव से काशी को तीनों तापों ने घेर लिया है। छोटे, बड़े, बीच के, धनी, निर्धन, राजा, राय सबने हठ (मज़बूती) से पीठ देकर दृष्टि फेर ली है अर्थात् नगर छोड़ दिया है अथवा धर्म छोड़ दिया है। देवताओं से विनती की, महामारी देवी के सामने हाथ जोड़े, भोलानाथ को भोला जानकर महामारी ने अपनी सी कर रक्खी है अर्थात् मनमानी कर रक्खी है। हे करुणानिधान बली वीर हनुमान्! हे यश की राशि! जहाँ-तहाँ जान पड़ता है मानों (काशी को) किसी ने लूट लिया है, अथवा जहाँ-तहाँ यश की राशि तुम्हीं ने लूटी है, यहाँ भी यश तुम्हारे हाथ है।

[३१८]


संकर सहर सर नरनारि बारिचर,
विकल सकल महामारी माँजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगत जल-थल मीच मई है॥


देव ल दयालु महिपाल न कृपालुचित,
बारानसी बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज, पाहि कपिराज रामदूत,
राम हू की बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥

अर्थ—काशो-रूपी तड़ाग (तालाब) के स्त्री-पुरुष रूपी जीवों को विकल करने के लिए महामारी माँजा हो गई है। ये जन्तु तैरते हैं, घबराते हैं, मर जाते हैं या घबड़ाकर भाग जाते हैं, जल और स्थल सब जगह मौत ही मौत दिखाई देती है, न देवता दया करते हैं, न मन में राजा कृपा करता है, काशी में रोज़ नई-नई अनीति बढ़ती है, हे रामचन्द्र! कृपा करो, हे हनुमान्! कृपा करो तुमने रामचन्द्र की बिगड़ती गति को भी सँभाल लिया था।

शब्दार्थ—माँजा= विष।

[३१६]


एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें,
कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की
बेद-धर्म दूरि गये, भूमि* चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान, जानि† रीति पाप-पीन की॥
दुबरे को दूसरो न द्वार, राम दया-धाम!
रावरीई गति बल-विभव बिहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहि,
महाराज आजु जो न देत दादि दीन की॥

अर्थ—एक तो कलियुग ही बड़ी पीड़ा की जड़ है तिसमें भी शनैश्चर मीन के हैं, सो मानो कोढ़ में खाज है, वेद और धर्म दूर हो गये, राजा पृथ्वी के चोर हो गये, साधु पीड़ा पाते हैं, सो मोटे पाप का ही फल जानना चाहिए। दुबले को कोई दूसरा द्वार नहीं है, हे राम! दया के धाम! बल और ऐश्वर्य से रहित जन को आप ही की



*पाठान्तर—भूप।
†पाठान्तर—सिद्ध मान जात वा जान।
गति है। यदि आप दीन की फरियाद नहीं सुनेंगे तो अपने विरद पर आरूढ़ महाराज को लाज आयेगी।

शब्दार्थ— सीद्यमान= पीड़ा पाना। बिरुद= शरणागत की रक्षा करने का प्रण।

[३२०]


राम नाम मातु पितु, स्वामी समरथ, हितु,
आस राम नाम की, भरोसो राम नाम को।
प्रेम राम नाम ही सों, नेम राम नाम ही को,
जानौं न मरम पद दाहिनो न बाम को॥
स्वारथ सकल परमारथ को राम नाम,
राम-नाम-हीन तुलसी न काहू काम को।
राम की सपथ सरबस मेरे राम नाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को

अर्थराम नाम ही मेरा माता-पिता है, वही समर्थ स्वामी है, वही हितू है, राम नाम ही की मुझे आशा है, उसी का मुझे भरोसा है, राम नाम ही से प्रीति है, राम नाम ही का नियम है, राम नाम ही जानता हूँ, न दक्षिण मार्ग का मुझे ज्ञान है न वाम मार्ग का अथवा न अच्छा रास्ता जानता हूँ न बुरा, अथवा दाहिने से बाँया पाँव नहीं पहचानता हूँ अर्थात् इतना भोला हूँ कि मुझे कुछ ज्ञात नहीं है अथवा दहिने बायें पद का कुछ मर्म (भेद) नहीं जानता हूँ। सब स्वार्थ और परमार्थ राम नाम ही है, बिना राम नाम के तुलसी किसी काम का नहीं है, राम नाम की सौगन्ध, राम नाम ही मेरे लिए सब कुछ है, राम नाम कामधेनु है, मेरे जैसे दुर्बल और हलके को वही कल्पतरु है।

सवैया
[३२१]

मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिक कै धन लीयो।
संकर कोप सों पाप को दाम परीछित जाहिगो जारिकै हीयो॥
कासी में कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपना कीयो।
आज की काल्हि परौं कि नरौं जड जाहिंगे चाटि दिवारीको दीयो॥

१८८

कवितावली सर्थ-मार्ग को बिगाड़कर अथवा मार्ग में लूटकर, ब्राह्मणों को मारकर, कुमार्ग को सँभालकर, करोड़ों का धन जीत लिया, शङ्कर के क्रोध से वह पाप की कौड़ी हृदय जलाकर जायगी, यह बात आज़माई हुई है, काशी में जितने काँटे (विघ्नकर्ता) हुए हैं उन्होंने अपना किया भर पाया। आज या कल या परसों या अगले दिन- अर्थात् कभी न कभी-ये सब जड़ दिवाली का सा दिया चाटकर जायँगे, अवश्य अपने पाप नष्ट हो जायेंगे। [३२२] कुंकुम रंग सु-अंग जितो, मुखचंद सो चंद से होड़ परी है। बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच बिषाद हरी है। गौरी, कि गंग बिहंगिनि बेष, कि मंजुल मूरति माद भरी है । पेखि सप्रेम पयान समय सब-सोच-बिमोचन छेमकरी है ॥ अर्थ-अङ्ग ने कुङ्कम के रङ्ग को जीत लिया और मुखचन्द्र से चन्द्रमा से होड़ पड़ी (बाज़ी लगी) है। वाणी ऐसी बोलती है, मानो सम्पत्ति चूती है; और देखते ही शोच और दुःख दर हो जाते हैं। गौरी है वा पक्षी के रूप में गङ्गा है, सुन्दर मूर्ति माद से भरी है; चलने के समय प्रीति (प्रेम ) सहित देखती हुई क्षेमकरी सब शोक को हरनेवाली होती है।। शब्दार्थ--छेमकरी (हेमकरी) पक्षी विशेष, मार्ग में उसका दर्शन शुभ माना जाता है। घनाक्षरी [३२३] मंगल की रासि, परमारथ की खानि, जानिल, बिरचि बनाई विधि, केसव बसाई है प्रलय हूँ काल राखी स्लपानि सल पर, मीचु बस नीच साऊ चहत खसाई है ॥ छोडि छितिपाल जो परीछित भये कृपालु, भलो कियो खल को निकाई सो नसाई है । पाठान्तरजाकी जाति। पाहि हनुमान ! करुनानिधान राम पाहि ।। कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है। अर्थ-काशी मङ्गल की ढेर है और परमार्थ की खानि है, जिसको ब्रह्मा ने अच्छी तरह रचकर बनाया और केशव ने बसाया है, प्रलय के समय भी उसे महादेवजी ने शूल पर धारण करके रक्खा था, नीच ( कलि ) उसे भी गिराना चाहता है, मानों नीच का काल आ गया है। राजा परीक्षित ने इसे छोड़कर, कलि पर कृपालु होकर, इस खल का भला किया था सो भलाई मानों उसने खो डाली, हे हनुमान् ! करुणा के घर ! हे राम! काशो की रक्षा करो, इस कामधेनु को कलियुग-रूपी कसाई काटे डालता है। शब्दार्थ-कुहत - कहरत । [ ३२४ ] विरची बिरंचि की बसति विस्वनाथ की जो, प्रानहूँ तें प्यारी पुरी केसब कृपाल की। ज्योति-रूप-लिंग-मई, अगनित-लिंग-मई, मोक्ष-बितरनिक बिदरनि जग-जाल की ।। देवी देव देवसरि सिद्ध मुनिबर बास, लोपति बिलोकत कुलिपि भेड़े भाल की हा हा करै तुलसी दयानिधान राम ! ऐसी, कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की। अर्थ-ब्रह्मा की रची, विश्वनाथ की बस्ती, जो दयानिधि केशव को प्राण से भी प्यारी है, ज्योति-रूप लिङ्ग ( विश्वनाथ ) जहाँ विराजमान है और जहाँ अनेक लिङ्गों की स्थापना है, मोक्ष को देनेवाली, जो जगत् के जाल को विदारण करनेवाली है, देव, देवी, गङ्गा, सिद्ध और मुनियों का जहाँ वास है, जो काशी देखते ही भाग्य के लिखे खोट को नष्ट कर देती है, तुलसी हा हा खाता है (निहोरा करता है) कि हे कृपानिधान राम ! कराल कलिकाल ने उसी काशो की यह दुर्दशा कर डाली है।

  • पान्तर-सा छषि तरणि ।
    [ ३२५]


आस्त्रम बरन कलि-बिबस विकल भये,
निज-निज-मरजाद मोटरो सी डार दी।
संकर सरोष महामारिही तेँ जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन-दिन दारदी॥
नारि-नर आरत पुकारत, सुनै न कोउ,
काहू देवतनि मिलि मोटी मूठि मार दी।
तुलसी संभीत-पाल सुमिरे कृपालु राम,
समय सुकरुना सराहि सनकार दी॥

अर्थ—(चारों) आश्रम और (चारों) वर्ग कलियुग के कारण भ्रष्ट हो गये, सबने इस युग में अपनी-अपनी मर्यादा को बोझ समझकर फेंक दिया, महामारी होने से प्रतीत होता है कि महादेव क्रोधित हैं और साहेब के क्रोधित होने से दिन-दिन दूनी उनकी स्त्री क्रोधित हैं-अथवा साहब के क्रोध से दुनिया में दिन-दिन दूना दरिद्र हो गया है-स्त्री-पुरुष बड़े विकल होकर पुकारते हैं परन्तु कोई नहीं सुनता है, देवताओं ने भी मिलकर मुट्ठी सी मार ली है (अर्थात् चुप हो गये हैं, अपने हाथ बन्द कर लिये हैं अथवा मूँठ मार दी है अर्थात् जादू डाल दिया है)! तुलसी कहते हैं कि ऐसे समय में भी भयभीत को पालनेवाले दयालु श्रीरामचन्द्रजी को जब याद किया तभी उन्होंने दया को सनकार दिया अर्थात् उस पर दया की, उसे बचा लिया।

इति उत्तरकाण्ड
इति श्रीगोस्वामीतुलसीदासकृत कवितावली रामायण समाप्त


_______

टिप्पणी


१—गौतम की तीय-अहल्या। (बालकाण्ड छं० २१)

एक आश्रम में गौतम मुनि और उनकी स्त्री अहल्या दोनों रहा करते और तप किया करते थे। एक दिन जब गौतम मुनि बाहर गये तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र गौतम का भेष धरकर आश्रम में आया और भोग की इच्छा प्रकट की। अहल्या ने जानकर भी भोग किया। जब इन्द्र जाने लगा तो गौतम कुटा के द्वार पर मिले। उन्होंने योग-बल से सब जान लिया और इन्द्र को शाप देकर कुटी के भीतर आकर अहल्या को भी शाप दिया कि तू सहस्र वर्ष पर्य्यन्त यहीं वायु खाकर निवास करेगी और किसी को दिखाई न पड़ेगी जब रामचन्द्र यहाँ आवेंगे सब तू लोभ और मोह-रहित होकर उनका सत्कार करेगी, तब पाप से छूटेगी और मेरे पास आवेगी। जब मिथिला को जाते हुए विश्वामित्र के साथ रामचन्द्र इस स्थान पर पहुँचे तो उन्होंने विश्वामित्र से पूछा कि यह निर्जन स्थान किसका है। तब विश्वामित्र ने ऊपर की सब कथा कही और कहा कि अहल्या तुम्हारी राह देख रही है। रामचन्द्र ने उस शिला-रूप अहल्या को पैर से छू दिया तो उसका शाप छूट गया। वह फिर स्त्री हो गई और अपने पति से जा मिली।


२—‘छत्र मिस मौलि दस दूरि कीन्हें’ ( लङ्का० छं० १०३)

जब रामचन्द्रजी सेना-सहित समुद्र पार करके सुवेल पर्वत पर ठहरे तो देखा कि एकदम रात में बिजली चमकने लगी, घटा छा गई, मेघ के गरजने का सा शब्द होने लगा। बादल चारों ओर कहीं न देखकर रामचन्द्रजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा कि यह क्या है तो विभीषण ने बताया कि रावण की सभा में नाच हो रहा है, छत्र बादल सा दिखाई देता है, मन्दोदरी के कर्णफूल बिजली से चमक रहे हैं और मृदङ्ग का शब्द बादल की गरज सा मालूम हो रहा है। रामचन्द्र को रावण के अभिमान पर क्रोध हुआ और उन्होंने एक बाण मारा। बाण ने छत्र, मुकुट और कर्णफूल एक साथ भूमि में गिरा दिये, किसी ने न जान पाया क्या हुआ।


३—‘बालि हू गर्व जिय माहिं ऐसो कियो’ (लङ्का० छं० १०४)

बालि सुग्रीव का भाई था, दोनों भाई प्रेम से रहते थे। बालि को वर मिला था कि जो कोई उसके सम्मुख लड़ने को आता था, उसका आधा बल उसमें आ जाता था, इस तरह बालि से कोई जीत न पाता था। एक बार एक राक्षस आया और
रात को उसने बालि को लड़ाई के लिए ललकारा। बालि ने उसका पीछा किया। राक्षस भागकर एक गुफा में घुस गया। बालि भी उसके पीछे गया, जाते समय सुग्रीव से कह गया कि १५ दिन मेरा इन्तज़ार दरवाजे़ पर करना, फिर समझना कि मैं मारा गया। सुग्रीव ने एक महीना राह देखी, तब गुफा से रुधिर की धारा निकली। सुग्रीव ने समझा कि बालि मारा गया और राक्षस निकलकर उसे भी मारेगा। वह गुफा के द्वार पर एक भारी शिला रखकर चला आया। शहर में राजा न होने से लोगों ने बालि को मरा जानकर सुग्रीव को राजा बना दिया। इतने में बालि राक्षस को मारकर नगर को लौटा और सुग्रीव को राजा देखकर बड़ा क्रोधित हुआ। सुग्रीव को मारकर बालि ने भगा दिया और वह फिर राजा हो गया तथा सुग्रोव की स्त्री को भी हर लिया। सुग्रीव एक पहाड़ पर जाकर रहने लगा। जब रामचन्द्रजी उधर से निकले तो सुग्रीव से उनकी मित्रता हो गई। सुग्रीव ने अपना सब हाल रामचन्द्र से कहा। रामचन्द्र ने एक ही बाण से बालि को मार डाला और जो वर उसे मिला था उसे कायम रखने के लिए पेड़ की ओट से बान चलाया।
४—‘माहिष्मती को नाथ’ (लङ्का० छं० १०९)

सहस्रबाहु माहिष्मती का राजा था। एक बेर शिकार खेलते-खेलते यह जमदग्रि मुनि के आश्रम में पहुँचा। वहाँ ऋषि ने कामधेनु के द्वारा ससैन्य उसका आतिथ्य किया। राजा को भारी आश्चर्य हुआ और कामधेनु को ही सब ऐश्वर्य का मूल जानकर वह उस पुकारती हुई गाय को माहिष्मती ले गया। जब जमदग्रि के पुत्र परशुरामजी, जो अस्त्रविद्या में बड़े ही निपुण थे, घर आये और उन्होंने जब यह वृत्तान्त सुना तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने सहस्रबाहु का पीछा किया। सहस्रबाहु भी दल-सहित उनसे लड़ा, परन्तु परशुराम ने उसे ससैन्य मार डाला और वह कामधेनु को घर लौटा लाये।

एक बार रावण सहस्रबाहु के ऐश्वर्य और शक्ति तथा बल को सुनकर उससे लड़ने को गया। सहस्रबाहु का बल सुनने का अवसर यह हुआ कि एक बार रेवा नदी के किनारे सहस्रबाहु विहार कर रहा था और विहार में अपने १००० बाहुओं से उसने नदी का प्रवाह रोक दिया जिससे नदी उलटी बहने लगी और रावण का डेरा बह गया। जब रावण लड़ने गया तो सहस्रबाहु ने उसे सहज ही कै़द कर लिया और स्त्रियाँ आकर उसे मार-मार जाती थीं। यह दशा देख पुलस्त्य ऋषि को दया आई और उन्होंने जाकर छुड़ा दिया।


५—‘बायस, बिराध, खर, दूषन, कबन्ध, बालि’ (लङ्का० छं० १११)।

(अ) ‘वायस’

इन्द्र का बेटा लवन्त एक बेर पञ्चवटी में गया, जहाँ सीता-साहित राम-लक्ष्मणा रहते थे। जयन्त सीताजी को चोंच मारकर भागा। रामचन्द्र सीता की गोद पर सिर रक्खे हुए सो रहे थे। रुधिर की धारा देखकर रामचन्द्र जाग पड़ें और उनको बड़ा क्रोध आया। बस उन्होंने एक वाण चलाया जो जयन्त के पीछे चला। जयन्त को भारी भय हुआ और वह भागा! परन्तु जहाँ कहीं वह गया, अस्त्र ने उसका पीछा किया। अन्त में नारदजी के उपदेश से वह फिर रामचन्द्रजी की शरण में आया और रामचन्द्र ने इसकी एक आँख फोड़कर उसे छोड़ दिया।

(क) ‘विराध’

यह एक राक्षस था जब रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण-सहित, वन में घूम रहे थे तब उन्हें विराध मिला। उसने सीता को हरना चाहा कि रामचन्द्र ने उसे मार डाला।

(ब) ‘खर, दूषण’

खर, दूषण दोनों दण्डक वन के रखवाले सूर्पनखा के भाई थे। जब सूर्पनखा की नाक लक्ष्मण ने काट ली तो वह खर-दूषण को लड़ने के लिए बुला लाई। खर-दूषण बड़ी फ़ौज लेकर चढ़ आये परन्तु रामचन्द्र ने अकेले ही सबको मार गिराया।

(सं) ‘कबन्ध’

‘कबन्ध’ एक गन्धर्व था जो शापवश राक्षस हो गया था। रामचन्द्र ने उसे मारा तो वह शाप से छूट गया।

(द) ‘बालि’

इसकी कथा ऊपर देखो।
६—नाथ सुनी भृगुनाथ कथा बलि बालि गये (लङ्का० छं० ११२)।

(अ) ‘भृगुनाथा’

परशुराम की कथा रामायण में है। धनुष-भङ्ग का शब्द सुनकर वे जनकपुर में आये और समस्त सभा को डाँटकर उन्होंने अपना रोष दिखलाया। रामचन्द्र का बल देखकर उन्हें धनुष देकर वे चुपचाप सप करने जङ्गल को चले गये।

(ब) ‘बलि’

इसको वामन रूप धर विष्णु ने नष्ट किया।
७—मट भीम से भीमता निरखिकर नयन ढाँके। (लङ्का० छ० १२९)

२५ गन्धमादन पर एक बार भीम गये और हनुमानजी से कहा कि अपना रूप दिखाइए। हनुमानजी ने कहा कि तुम देख न सकोगे। तब भीम ने हठ किया और हनुमानजी ने अपना रूप दिखाया। भीम डर गये और आँखों पर हाथ रख लिया।
८—आँधरो अधम इत्यादि। (उत्तर० छं० २१८)

इस छन्द का आधार बैजनाथदास ने वाराह पुराण के निम्नलिखित श्लोक को बताया है—


दैवाच्छूकरशावकेन निहतो म्लेच्छो जराजर्जरो
हा रामेति हतास्मि भूमिपतितो जल्पन्तनुं त्यक्तवान्।
तीर्णो गोष्पदवद्भवार्णवमहो नाम्नः प्रभावात्पुनः
किञ्चित्रं यदि रामनामरसिकास्ते यान्ति रामास्पदम्॥

अर्थात् एक बुड्ढे यवन ने, जिसको एक सुअर के बच्चे ने धक्का देकर गिरा दिया था, प्राण छोड़से समय हराम (सुअर, हा राम) कहकर प्राण छोड़ दिये। इसके प्रभाव से वह संसार को तर गया। भला उन आदमियों का क्या कहना है जो राम नाम के रसिक हैं अर्थात् जो श्रद्धा-सहित राम का नाम लेते हैं।
९—सुनी न कथा प्रहलाद न धू की। (उत्तर० छं० २३०)

(अ)‘प्रह्लाद’

नारद से गर्भ में राम नाम का माहात्म्य सुनकर जन्म ही से प्रह्लाद भगवद्भक्ति करने लगे। जब वे गुरु के यहाँ गये तो राम नाम ही लिखने और पढ़ने लगे और सहपाठियों को भी बताने लगे। पिता ने इसका विरोध किया और जब प्रह्लाद न माने तो उन पर शस्त्रों का प्रहार कराया परन्तु उन पर शस्त्रों का कुछ असर न हुआ। तब उन्हें पहाड़ से गिरवाया, जल में डुबाया, अग्नि में जलाया, विष दिलवाया, हाथी से दबवाया, साँप से कटवाया, परन्तु वह प्रह्लाद को न दबा सका, न राम नाम उनसे छुड़ा सका। जब गुरु ने पिता से यह सब कहा तो उसने प्रह्लाद को अपने सामने बुलाकर पूछा कि जिस भगवान् का तू स्मरण करता है वह कहाँ है। प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि सर्वत्र। उनके पिता ने पूछा कि खम्भे में है। प्रह्लाद ने कहा, हाँ। इस प्रकार उत्तर पाकर पिता ने कहा कि अपनी रक्षा के लिए बुला, मैं तुझे मारता हूँ।

यह कहकर उसने खड्ग उठाया और खम्भे में एक मुक्का मारा। इस पर भारी शब्द हुआ; खम्भे को चीरकर नृसिंह भगवान् निकल आये और असुर हिरण्यकशिपु को—अपनी गोद में लिटाकर—देहली के ऊपर सायङ्काल के समय मार डाला।

(क) ‘ध्रू (ध्रुव)’

राजा उत्तानपाद की हो स्त्रियाँ थीं, एक सुनीति और दूसरी सुरुचि। सुनीति का लड़का ध्रुव और सुरुचि का लड़का उत्तम था। राजा की सुरुचि पर अधिक प्रीति थी। एक बेर उत्तम राजा की गोद में बैठा था कि ध्रुव भी खेलते-खेलते राजा की गोद में चढ़ने लगा। राजा ने गोद में न चढ़ाया बल्कि सुरुचि ने ताना देकर कहा कि ध्रुव! तुम मेरे गर्भ से उत्पन्न नहीं हो इसलिए तुम गोद में नहीं चढ़ सकते। ध्रुव को ग्लानि आई और वे अपनी मा के पास गये और सब कथा कह सुनाई। माता से आज्ञा लेकर ध्रुव तप करने चले गये। मार्ग में नारद मिले और उन्होंने ध्रुव को इस मार्ग से हटाने का प्रयत्न किया। जब ध्रुव ने न माना और त्रिलोकी पद जीतने के मार्ग को जानने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने द्वादश-अक्षर मन्त्र ध्रुव को सिखाया और मथुरा भेजा। ध्रुव मथुरा जाकर तप करने लगे। ध्रुव का तप देखकर देवता घबरा गये और विष्णु की शरण में गये। विष्णु ने उन्हें तो घर भेजा और स्वयं ध्रुव को दर्शन देकर वरदान दिया जिससे ध्रव को ऐसा दुर्लभ पद मिला जहाँ आज तक कोई नहीं पहुँँचा था। वह ३६००० वर्ष राज्य कर अचल-पद को प्राप्त हुआ।
१०—राम विहाय ‘मरा’ जपते बिगरी सुधरी कवि-कोकिल हू की। (उत्तर० छं० २३१)

यहाँ वाल्मीकि मुनि की कथा का इङ्गित है। वाल्मीकि मुनि सदा चोरों में रहा करते थे और पथिकों को मारकर उनको लूटा करते थे। एक दिन सप्तर्षि उन्हें वन में मिले और जब वें उन्हें लूटने और मारने को उद्यत हुए तो उन्होंने पूछा कि ऐसा नीच कर्म वे क्यों करते हैं। इस पर वाल्मीकि ने उत्तर दिया कि स्त्री और लड़कों के पोषण के लिए। तब सप्तर्षियों ने वहीं खड़े रहने का वचन देकर वाल्मीकि को भेजा कि जाकर स्त्री-पुत्रों से पूछ आवें कि वे जीवहत्या के पाप के भी भाग में उनके साथी होंगे। वाल्मीकि ने ऐसा ही किया तब सबने एक ही उत्तर दिया कि हमको तो धन से काम है, कहीं से वे लावें, पाप से हमें क्या प्रयोजन? इस पर वाल्मीकि को वैराग्य हुआ और वे धनुष-बाण फेंककर सप्तर्षियों के चरणों पर गिर पड़े। सप्तर्षियो ने ‘मरा-मरा’ जपने का उपदेश किया। उन्होंने ऐसा ही किया और वहीं उनको दिव्य दर्शन हुए।
११—नामहि ते गज की, गनिका को, अजामिल को चलिगै चलचूकी।(उत्तर० छं० २३१)

(अ) ‘गज’

क्षीर-सागर में त्रिकूट पर्वत पर, वरुण के उद्यान में, एक कमल और कुमुदिनी से भरा हुमा सरोवर है। उस पर एक बेर एक हाथी अपने झुण्ड के साथ आया और पानी पीकर तथा स्नान करके अपने साथियों को भी पानी पिलाने लगा। इतने में एक

(§)


बलवान् ग्राह में उसका पैर पकड़ लिया। दोनों में महान् शुद्ध आरंभ हुआ और १०० वर्ष पर्यन्त होता रहा। गज थक चला और उसको बहुत कुछ ग्राह जल में खींच लें गया था कि गज ने निराश होकर भगवान् की स्तुति की। तब तो भगवान् चक्र लेकर गरुड़ पर चढ़कर गज के सामने आये। उनको इस प्रकार देख गज बड़े जो़र से पुकारने लगा और एक कमल लेकर उनको अर्पण किया। भगवान गरुड़ के जाने में विलम्ब देखकर स्वयं कूद पड़े और जो तिल भर सूँँड़ जल से अपर रह गई थी उससे गज को पकड़कर ग्राह समेत जल से निकाल लिया। फिर चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गज को बचा लिया। ग्राह तो अपने गन्धर्व के स्वरूप को प्राप्त हो गया और शाप से मुक्त हो गया तथा गज को भगवान् ने अपना पार्षद बना लिया।

(क) ‘गणिका’

सत्ययुग में एक गणिका ने एक सुआ पाला। उनमें परस्पर बहुत स्नेह हो गया। गणिका ने सुए को राम नाम पढ़ाया। इसी राम नाम के प्रभाव से सुआ और गणिका दोनों तर गये।

(ख) ‘अजामिल’

प्राचीन काल में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था जो बड़ा दुराचारी था। उसके १० पुत्र थे परन्तु उसका छोटे पुत्र पर बड़ा प्रेम था जिसका नाम नारायण था। उसका नाम वह सदा पुकारा करता था और उसी का स्मरण किया करता था। इसलिए अन्त समय भी जब यमराज के दूत उसे पकड़ने आये तो नारायण में वह ऐसा लीन था कि नारायण के पार्षदों ने उसे बचा लिया और वह आयु भोगकर नारायण के पद को प्राप्त हो गया।
१२—‘सबरी’। (उत्तर० छं० २३७)

शबरी जाति की भीलनी थी, परन्तु मतङ्ग ऋषि की सेवा किया करती थी। मतङ्ग ऋषि से उसने वर पाया कि जब त्रेतायुग में भगवान् आवेंगे तब उसे दर्शन देंगे। सीता की खोज में जब भगवान् गये तो उन्होंने शबरी को दर्शन दिया और उसके जूठे बेरों को खाया। शबरी ने उन्हें सुग्रीव का पता दिया और फिर योगाग्नि में अपने आपको जला दिया जिससे स्वर्ग पा गई।
१३—गारी देत नीच हरिचन्द हू दधीचि हूँ को। (उत्तर० छं० २४१)

(अ) ‘हरिचन्द’

हरिश्चन्द्र अयोध्या के नामी राजा, दानी और धर्मात्मा थे। इन्द्र ने द्वेष से विश्वामित्र को इनकी परीक्षा के लिए भेजा। विश्वामित्र ने स्वप्न में हरिश्चन्द्र से सब अनुक्रमणिका छन्दांक पृष्ठांक कांडांक लं० ४८ " १५ १३२ मङ्ग अङ्ग दलित ललित फूले किसुक से अति कोप सो रोप्यो है पाँव सभा अवधेस के द्वारे सकारे गई अन्तर्जामिहु तें बड़ बाहरजामि हैं अपत, सतार, अपकार को अगार जग अपराध अगाध भये जन ते अर्ध-अंग अंगना, नाम अवनीस अनेक भए अवनी उ० १२६ , ६८ १५८ १२४ २७१ २१० १४६ २६३ ,,१५१ १७० ३७ २२ २०२ आँधरो, अधम, जड़, जाजरो जरा जवन आगम बेद पुरान बखानत मागे परे पाहन कृपा, किरात, कोलनी आगे खाद साँवरो कुँवर गोरो पाछे पाछे मापु है। आपको नीके कै जानत आये सुक सारन बोलाय ते कहन लागे 'आयो आयो आयो सोई बानर बहोरि, भयो आयो हनुमान प्रान-हेतु, अंकमाल देत भारतपालु कृपालु जो राम प्रास्रम बरन कलि-बिवस बिकल भये 4 Mor व उ० १२७ ,१८५ २६८ ३२५ इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात __ ७२ ४५ ईसन के ईस, महाराजन के महाराज ईस' न, गनेस न, दिनेस न, धनेसन उ०१२६ , ७८ १५६ १३१ २२० कांडांक लं० २४ "उदधि अपार उतरत नहिंलागी बार छन्दक पृष्ठांक १०८ ६६ ऊँचे। मन, ऊँची रुचि, भाग नीचा निपट ही ऋषिनारि उधारि, कियो सठ केवट मीत " १० उ० १७६ ३१६ एक करै धौज, एक कहै कादो सौज एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें एहि घाट ते थोरिक दूरि अहै ओ ओझरी की झोरी काँधे, आँतन की सेल्ही बाँधे लं० ५० १३४ क २७३ २५७ Sy IN N० २३५ कल करी ब्रजबासिन सों कतहुँ बिटप भूधर उपारि कनक कुधर-केदार उ० ११५ कनक गिरि सृग चढ़ि देखि मर्कट कटक लं० १७ कबहूँ ससि माँगत प्रारि करें कह्यौ मत मातुल विभीषनहु बार बार का कियो जोग आमिल जू कागर-कीर ज्यों भूषन चीर काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ कानन उजारथो तो उजायोन. बिगारेउ कछ 'कानन उजारि, अच्छ मारि, धारि धूरि कीन्हीं लं० २२ 'कानन, भूधर, वारि, बयारि कानन बास, दसानन सो रिपु लं. ५३ काम से रूप, प्रताप दिनेस से काल कराल नृपालन के बा० २२ काल्हि ही वरुन तन, काल्हि 'ही धरनि धन० १२० १५७ ११५ १३७ १८५ ८७ ११२ २२ २६२ १५२ ३०४ १६ कांडांक छन्दक पृष्टक काहे को अनेक देव सेवत जागै मसान उ० १६२ किसबी किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाँट " १६ २३८ "कीजै कहा, जोजीजू ! सुमित्रा परि पाय कहै अ. ४ "कीन्हीं छोनी छत्री बिनु, छोनिय-छपनहार लं० २६ ११० कौबे कहा, पढ़िबे को कहा उ०१०४ कीबे को बिखेक लोक लोकपालहू ते सब कीर के कागर ज्यौं नृप चीर अ० १ . २३ कुंकुम रंग सु-अंग जितो उ०१८२ ३२२ कुंभकरन्न हन्यो रन राम लं. ५७ १४१ कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन । १४१ कृपा जिनकी कछु काज नहीं कृसगात ललात जो रोटिन को ४६ १५८ ११३ कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ी "१०८ २५० कोन क्रोध निरदह्यो कोपि दसकंध तब प्रलय-पयोद बोले सुं० १६ ७१ को भरिहै हरि के रितये कोखलराज के काज है। आज कौसिक की चलत, पपान की परस पायें उ० २० कोसिक विप्रबधू मिथिलाधिप १५३ कौन की हाँक पर चौक चंडीस विधि १२६ ७० २४० "४६ ११४ "११७ 3०१५८ खायो कालकूट भयो अजर अमर तनु खेती न किसान को, भिखारी को न भीख २३६ गगन निहारि, किलकारी भारी सुनि गज-बाजि-घटा भले भूरि भटा गरल-असन दिग्बसन गर्भ के अर्भक काटन को "गहन उजारि पुर जारि सुत मारि तव सुं० २८ उ० ४१ "१५० २६२ . १६८ बा० २०२० लं० २१ १०५ ६७ कांडांक गहि मंदर बंदर भालु पले लं० ३४ गाज्यो कपि गाज ज्यो विराज्यो ज्वाल जाल जुत सुं० ८ गौरीनाथ भोलानाथ भवत भवानीनाथ उ० १७१ छन्दांक पृष्ठांक ११८ ७६ ६० ३११ चल्यो हनुमान सुनि जातुधान कालनेमि चाहै न अनंग-परि एको अंग मंगन को चेरो राम राय को.सुजस सुनि तेरो लं० ५५ १६१ १३६ ३०३ छार ते सँवारि कै पहारह ते भारी किया छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हें छन्न-छाया ch बा० ३० २८ १७० १०६ + " ३२ उ० ५५ कि० १ १३३ लं. ६ ५१ " ११३ १७४ १६७ ५२ २७५ १०७ ११७ २५५ जग जाँचिए कोउ न; जाँचिए जड़ पंच मिलै जेहि देह करी जनम्यो जेहि जोनि अनेक क्रिया जप, जोग, विराग, महा मख-साधन जब अंगदादिन की मति गति मंद भई जब नयनन प्रीति ठई ठग श्याम सों जब पाहन भे बनबाहन से जबै जमराज रजायसु ते जय जयंत-जय-कर जय ताड़का-सुबाहु-मथन जय माया-मृग-मथन "जल को गये लक्खन, हैं लरिका जलजनयन, जलजानन, जटा हैं सिर जहाँ जम जानना घोर नदी जहाँ तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत जहाँ बन पावनो सुहावनो विहंग मृग जहाँ बाल्मीकि भये ब्याध ते मुनीन्द्र साधु जहाँ हित, स्वामि, न संग सखा । ११ ११४ अ. १२ २५६ ३४ १४८ १४६ २० उ० ५२ उ० १४१ " १३८ २८३ २८० ११६ कांडांक छन्दांक पृष्ठांक १६८ उ० २६ वं. २५ उ. ८३ "१०६ " १५७ २२५ २५१ २६६ २१४ १०५ ७० १३४ १४७ १७३ १२७ लं. ४६ जाकी बाँकी वीरता सुनत सहमत सूर जाके बिलोकत खोकर हात "जाके रोष दुसह त्रिदोष दाह दूरि कीन्हें जागिर न सोइए भिगोइए जनम जाय जानें जोगी अंगम, जती जमाती ध्यान धरै जात जरे सब लोक बिलोकि जाति के, सुजाति के, कुजाति के, पेदागिबस जातुधान भालु कपि केवट बिहंग जो जो जातुधानावली मत्त-कुंजर-घटा जाप की न, तप खप कियो न तमाइ जोग आय से सुभट समर्थ पाइ जायो कुल मंगन, बधावना बजायो सुनि जारि बारिकै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो जिनको पुनीव बारि, धारे सिर पै पुरारि जीजै न ठाँउ, नापन गाँउ जीचे की न लालसा, दयालु महादेव ! मोहि जीव जहान में जायो जहाँ जे मद-मार-बिकार भरे जे रजनीचर बीर बिसाल जोगकथा पठई ब्रज को जोग न विराग जप जाग तप त्याग व्रत जो दससीस महीधर-ईस ___५११६ " ७३ २५८ २१५ १५० १२७ ७८ उ० ७६ २२१ १३१ १६ २३४ १३८ उ०६२ " __"६१ "६४ लं० ३७ उ० १३४ " ७१ १३८ १३६ २३३ २३६ १२१ २७६ २१३ १६० १२६ १२२ ७७ 'झूठो है, भूठो है, झूठो सदा मूमत द्वार अनेक मतंग " ४४ १५६ ११२ ३१२ ठाकुर महेस, ठकुराइन उमा सी जहाँ ठाड़े हैं नौ द्रुम डार गर्दै ८० १५२ म. १३ ३५ २१ डिगति उबि असि गुर्वि कोडक छन्दक पृष्ठांक बा० ११ ११६ बा०३ ३० १२५ ३ २६७ १६६ लं० ३२ उ० ६ १४८ सन की दुति स्याम सरोरुह तब लो मलीन हीन दोन, सुख सपने न तापस को बरदायक देव तिन्ह ते खर सूकर स्वान भले तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि तीय-सिरोमनि सीय सजी तुलसी सबल रघुबीर जू के बालिसुत्र तू रजनीचरनाथ महा बिजटा कहत बार बार तुलसीरवरी सो तेरे बेसाहे बेसाहत औरनि तोस कहाँ दसकंधर रे तौलौं लोभ, लोलुप ललात लालची लबार १५४ उ० १२ लं० १२ उ०१२४ २६६ १२५ २२६ ११० २३७ १७२ २२३ १३३ दबकि दबारे एक बारिधि में बोरे, एक दम दुर्गम, दान दया मख कर्म दशरथ के दानि, सिरोमनि राम दानव देव प्रहीस महीस दानि जो चारि पदारथ को दिन दिन दूनी देखि दारिद दुकाल दुख दिवस छ सात जात जानिवे न, मातु धरु दुर्गम दुर्ग पहार से भारे दूंब दधि रोचना कनकथार भरि भरि दूलह श्री रघुनाथ बने दूषन विराध खर त्रिसर कबंध बधे देखि ज्वाल-जाख हाहाकार दसकंध सुनि देत संपदा समेत श्रोनिकेत जाचकनि १३ लं० ३६ बा० १३ " १७ सं० ११ मुं० ७ उ० १६० देव कहैं अपनी अपनी देवधुनी पास मुनिवास श्रीनिवास जहाँ देवनदो कहँ जो जन जान देवसरि सेवौं बामदेव गाँउ रावरे ही कांडांक छन्दांक पृष्ठांक उ० १४४ २८६ " १४० २८२ २८७ १६६ ३०७ २६४ १५४ धरम के सेतु जग मंगल के हेतु धरि धीर कहै "चलु देखिय जाइ धृत कही, अवधूत कहै। उ. १२२ अ० २३ उ० १०६ ८४ सु. ___३२ बा० १४ ___ उ० ८६ १३६ २२८ १५१ २६५ " १५३ १७१ नगर कुबेर को सुमेरु की बराबरी नगर निसान बर वाज, व्योम दुंदुभी न मिटै भवसंकट दुर्घट है नरनारि उघारि सभा मह होत नाँगो फिर कहै माँगता देखि नाम अजामिल से खल कोटि नाम अजामिल से खल तारन नाम महाराज के निबाद नीको कीजै उर नाम लिये पूत को पुनीत कियो पातकीख निपट निदरि बोले बचन कुठारपानि निपट बसेरे, अघ प्रागुन घनेरे, नर २६५ बा० १६ ___उ० १७६ ३१६ १८४ य ३१४ १८३ ० उ० १७४ आ० १ बा० २ ___ उ० १३५ पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ परारथ को पंचवटो बर पर्नकुटी पग नूपुर श्री पहुँची करकंजनि पठया है छपद छबीले कान्ह केहू कहूँ पद कंजनि मंजु बनी पनहीं एद कोमल, स्यामल गौर कलेवर प्रबल प्रचंड बरिषंड बाहुदंड बीर प्रभु रुख पाइकै बोलाइ बाल घरनिहि २ २७७ १ १६० ० अ० २४ लं० ४२ अ. १० १२६ ३२ १६ (१६) कांडांक छन्दांक पृष्ठांक लं० २३ १०७ ६८ १६८ . ११७ सुं० २३ ७५ प्रभु सत्य करी प्रहलाद-गिरा "पवन को पूत देखो, दूत बोर आँकुरा, जो पाइ सुदेह बिमोह-नहो-तरनी -पातक पीन, कुदारिद दोन पात भरी सहरी सकल सुत बारे बार। पान, पकवान बिधि नाना को, सँधानो सीधे 'पानी पानी पानी' बस रानी अकुलानी कहैं पाप हरे, परिताप हरे पालिबे को कपि-भालु-चमू "पावक, पवन, पानी, भानु, हिमवान, जम पिंगल जटा-कलाप, माथै पै पुनीत आप पुर ते निकसी रघुवीरबधू प्रेम से पीछे तिरीछे प्रियाहि ६ NoCom MGIG cmM उ० ५८ लं० २६ सुं० २१ उ० १५६ अ० ११ 6 २० " २६ प उ० ६४ २०६ ० ० ० २४१ १४२ ३ १३५ २२६ बचन बिकार, करसबड खुमार, मन । बड़े बिकराल भालु, बानर बिसाल बड़े बड़ो बिकराल बेष देखि, सुनि सिंहनाद बनिता बनी श्यामल गौर के बीच बबुर बहेरे को बनाइ बाग लाइयत बर दंत की पंगति कुन्दकली बरन-धरम गयो, पाश्रम निवास बज्यो बल्कल बसन, धनु-बान पानि, तून कटि बसन बटोरि बारि बारि खेल तमीचर व्यात कराल, महा विष, पावक बानी, विधि, गौरी, हरि, सेस हूँ, गनेस कही बापु दियो कानन भो मानन सुभानन सो धारि तिहारो निहारि मुरारि बालक बोलि दिये बलि काल, को बालधी बिसाल विकराल ज्वाल-जाल मानों . Je १६० ११४ ___३० ४८ बा० १६ पद ११४७ १४० २८९ २७२ ५७ १५८ ३५ सु. ५ कांडांक छन्दक पृष्टांक लं० १६ १०३ अ. २८५० २६ 10 दर उ० १२४ ३२४ १८६ "बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किय बालि से बीर बिदारि सुकंठ बासव बरुन विधि बन ते सुहावतो बिंध्य के बासी उदासी बिनय सनेह सौ कहति सीय बिजटा से बिपुल बिसाल बिकराल कपि भालु मानौ बिरची बिरंचि की बसति बिस्वनाथ की जो बिस्वबिजयी भृगुनायक से बीथिका बजार प्रति, अनि अगार प्रति बेद न पुरान गान, जानौं न विज्ञान ज्ञान बेद पढ़े बिधि, संभु सभीत बेद-बिरुद्ध, मही, मुनि, साधु बेद पुरान बिहाइ सुपंथ बेद हू पुरान कही, लोकहू बिलोकियत देष बिराग को, राग भरो मनु ब्रह्म जो व्यापक बेद कहैं विष-पावक, ब्याल कराल गरे मुं० १७ उ० ६२ " २ २०४ १४४ १२० ? ६२ १३५ २२७ २१६ २७६ १२८ १३७ " १५४ १७१ १०८ बा. १५ उ. १२१ १५३ भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म भले भूप कहत भले भदेस भूपनि सौ भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी सो मंद भस्म अंग मर्दन अनंग भागीरथी जलपान करौ भूतनाथ भयहरन भूतभव ! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय भूप मंडली प्रचंड चंडीस-कोदंड खंड्यौ भूमिपाल, व्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल भूमि भूमिपाल च्यालपालक पताल भेष सु बनाइ, सुचि बचन कहैं चुवाइ " १०२ " १५२ " १७० चा० १८ २६३ २६१ २४४ २६४ ३१० १८ १४३ १७० १८० १० १०३ सुं० २२ उ० ११६ २६१ कांडांक छन्दांक पृष्ठांक उ० ११८५ २६० १५१ भौंह कमान सँधान सुठान १८३ बा० २१ १८८ २१ ० ४४ बा० १० उ०१३६ १२८ १० २८१ C60 १ १११ २५३ ११८ लं० ५२ मंगल की रासि, परमारथ को खानि, जानि भख राखिबे के काज राजा मेरे संग दये मत्त भट-मुकुट-दसकंध-साहस-सइल- मयनमहन पुर-दहन गृहन जानि मरकत-बरन परन, फल मानिक से महाबली बालि दलि, कायर सुकंठ कपि महाराज बलि जाउँ मातु पिता जग जाय तज्यो मानी मेघनाद सो प्रचार भिरे भारी भट मारग मारि, महीसुर मारि मारे रन रातिचर रावन सकुल दल माली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट मीत पुनीत कियो कपि भालु को मीत बालि-बंधु, पूत, दून, दसकंध-बंधु मुख पंकज, कंज बिलोचन मंजु मेरे जाति पाँति न, चही काहू की जाति पाँति मेरे जानि जब हौं जीव है जनम्यों जग मोह-बन कलिमल-पल-पीन आनि जिय मोह-मद-मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारि सों १८७ ३२१ १४२ ५४ Thd m " २२ अ० २५ उ० १०७ १०२ २८ १४५ " २४८ २१२ २८४ १२५ " ८२ ३१५ १५३ लं० १७५ लं० ३६ उ० ६६ १२० रचत विरंचि, हरि पालत, हरत हर रजनीचर मत्तगयद-घटा राम को न साज, न बिराग जोग जाग जिय राज मराल के बालक पेलि के राज सुरेस पचासक को रानी अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं रानी मैं जानी अजानी महा २०५ २४५ .१८७ १२३ १४४ ११३ सुं०. १२ अ. २० C कांडांक उ० १८० " ११० छन्दांक पृष्ठीक ३२० १७ २५२ २३१ १३५ लं० ५१ १७८ १०६ राम नाम मातु पितु, स्वामी समग्थ, हितु राम मातु पितु बंधु राम विहाय 'मरा' जपते राम सरासन में चले लीर "राम से: साम किये नित है राम हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु रावन की रानी जातुधानी बिलखानी कहैं रावन सो राज रेग बाढ़त बिराट उर रावरे दोष न पायेन को रावरो कहावौं, गुन गावौं राम रावराई रीति महाराज की निवाजिए जो माँगने सो रवि सी रवनि, सिंधु मेखला-अवनिपति रूप-सील-सिंधु, गुन-सिंधु, बंधु दीन को "रे नीच ! भारीच बिचलाइ, इति ताड़का रोप्यो पाँव पैज के बिचारि रघुवीर बल रोध्यो रन रावन, बोलाए बीर बानइत २०५ १२१ ” २५ उ० १६४ १०४ १७७ 5530 उ० १४३ २८५ ४२ उ० १४८ २६० लपट कराल वाल जालम लाइ लाइ आगि भागे बाल-जाल जहाँ तहाँ लागि दवारि पहार ठही 'तागि लागि प्रागि', भागि भागि चले लालची ललात बिललात द्वार-द्वार दीन लीन्हों उस्लारि पहार बिसाल लोक बेदहू विदित बारानसी की बड़ाई लोग कहैं अरु हौं हूँ कहाँ लोगन के पाप, कैधौं सिद्ध-सुर-साप लोचनाभिराम धन-स्याम राम रूप खोथिन सौ लोहू के प्रवाह चले जहाँ वहाँ उ० १७३ ३१३ १८२ २०१ ७ बा० १२ लं. ४ १२ १३३ २७ कांडोक हुन्दाक पृष्टॉक ३० ३१ १७३ १०७ पिया परनारि निसा-तरुनाई १८५ २११ १२५ श्र. २७ बा० ७ 6 ११६ ३०५ १७७ २०७ २२२ २४३ ११५ संकर सहर सर, नरनारि बारिचर सब-अंग-हीन, सब-साधन-विहीन, मन सर चारिक चारु बनाइ कसे सरजू पर तौरहि तीर फिरें सर तामर सेल समूह पवारत स्पंदन, गयंद, बाजि-राज, भले भले भट स्वारथ को साजन समाज परमारथ को स्वारथ सयानप, प्रपंच परमारथ साँची कहौ कलिकाल कराल मैं साँवरे गोरे सलोने सुभाय साजि के सनाह गजगाह स उछाह दल साहसी समीर-सूनु नीर-निधि लंघि, लखि सिथिल सनेह कहै कासिला सुमित्रा जू से सिय-राम-सरूप अगाध अनूप सिला-साप-पाप, गुह गीध को मिलाप सीय के स्वयंबर समाज जहाँ राजनि को सीय को सनेह सील, कथा तथा लंक की सीस जटा, उर बाहु बिसाल सीस बसै बरदा बरदानि सुंदर बदन, सरसोरुह सुहाये नैन सुत, दार, अगार, सखा, परिवार सुनिये कराल कलिकाल भूमिपाल तुम सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सुनु कान दिये नित नेम लिये सुभुज मारीच खर त्रिसिर दूषन बालि सुरराज से राज-समाज, समृद्धि १५ ८० २५ १७६ १६३ ९० १०६ सुं० WWh अ० २१ उ. १५५ अ० १६ १७२ १७२ २४२ १४२ प्र० २२ उ० २६ १०६ उ० ४२ १८४ ( २१ ) कांडांक छन्दांक पृष्ठांक तं० ३३ ११७ ७५ or - सूर सजाइल साजि सुबाजि सूर सिरताज महाराजनि के महाराज सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों सैन के कपिन को को गनै अर्बुदै सोकसमुद्र निमज्जत काढ़ि सोच संकटनि सोच संकट परत, सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ सो सुकृती, सुचि-मंत, सुसंत उ० ४ १२ १२८ १४६ २१४ १७७ १७६ ___ " ३५ १०६ १८ ५१ हनुमान द्वै कृपालु, खाडिले लषन लाल हाट, बाट, कोट, ओट, अट्टिनि, अगार, पौरि हाट बाट हाटक पधिल चलो घी सो घने हाथिन खो हाथो मारे, घोरे पोरे सो सँहारे सुं० १४ ” २४ लं. ४० भावार्थ—हें राम, मै स्वय अपने को अच्छी तरह जानता हूँ कि आपका ही बनाया हुआ हूँ। तोते की तरह नाम रटता हूँ और सारा ससार यही कहता है कि इसको रामचंद्रजी ने ही पढ़ाया है (अर्थात् आप ही की कृश से मुझमें भक्ति का संचार हुआ हैं)। पर मै केवल तोते की तरह राम राम रटता हूँ (भक्ति से नही), इसी बात का मेरे मन में दुःख है। क्योंकि वेद कहते हैं कि जिस आदमी को रामजी बढाते हैं वह कभी नहीं घटता (अर्थात् जिस पर रामजी की कृपा होती है उसकी कभी अवनति नहीं होती। मै तो सदा एक साधारण पुरुष था, आप ही के नाम के प्रताप से पूज्य हुआ हूँ।)

मूल—
(मनहरण कवित्त)

छार ते सॅवारिकै पहार हू ते भारो कियो,
गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइकै।
हों तौ जैसो तब तैसो अब, अधमाई कै कै,
पेट भरौं राम रावरोई गुन गाइकै।
आपने निवाजे की पै कीजै लाज, महाराज,
मेरी ओर फेरिक न बैठिए रिसाइकै।
पालिकै कृपालु ब्याल-बाल को न मारिए,
औ काटिए न, नाथ! बिषहू को रुख लाइकै॥६१॥

शब्दार्थ—छार ते सॅवारिकै॥ छार अर्थात् धूल की तरह निकम्मे को सँभालकर। गारो= गौरव, बड़ाई। पच में= आदमियों में। अधमाई कै कै= नीचता करके। मेरी ओर हेरिकै= मेरी करनी की ओर दृष्ठि करके। रिसाइकै= क्रोध करके। ब्याल-बाल= सॉप का बच्चा। रूख= (वृक्ष=प्रा० रुक्ख) पेड़।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि हे रामचंद्रजी, आपने मुझ धूलि की तरह निकम्मे की रक्षा करके पहाड़ से भी भारी बना दिया है। आपके तुल्य पवित्र का पक्ष पाकर मैं लोगों मे पूज्य हो गया। मैं तो जैसा पहले था वैसा ही अब भी है, और आपके गुण गा-गाकर नीचता से अपना पेट पालता हुँ। हे महाराज, मेरी करनी की ओर देखकर मुझसे अप्रसन्न होकर मत बैठिए। जिसको आपने कृपा कर बड़ाई दी उसकी लाज तो रखिए। क्योंकि
हे कृपालु नाथ, पालन करके खॉप के बच्चे को भी नहीं मारना चाहिए और विष के पेड़ को भी लगाकर काटना नहीं चाहिए।

मूल―बेद न पुरान गान, जानौं न बिज्ञान ज्ञान,
ध्यान, धारना, समाधि, साधन-प्रबीनता।
नाहिंन बिराग, जोग, जाग, भाग 'तुलसी' के,
दया-दान दूबरो हौं, पाप ही की पीनता।
लोभ-मोह-काम-कोह-दोष-कोष मो सो कौन?
कलिहू जो सीखि लई मेरियै मलीनता।
एक ही भरोसो राम रावरो कहावत हौं,
राबरे दयालु दीनबंधु, मेरी दीनता॥६२॥

शब्दार्थ―साधन-प्रबीनता= साधनों में चतुरता। जाग= यज्ञ। दयादान दूबरो= दया और दान मे दुर्बल हूँ। पाप ही की पीनता= महापापी। पीनता= मोटाई। कोह= क्रोध। दोप-कोष= दोषों का खजाना। मो सो= मेरे समान। कलि हूँ= कलियुग ने भी। मेरियै= मेरी ही।

भावार्थ―तुलसीदास कहते हैं कि न तो मै वेद और पुराण का पढ़ना जानता हूँ, न ज्ञान और विज्ञान जानता हूँ, न ध्यान, धारणा, समाधि आदि साधनों में ही निपुण हूँ और न मेरे भाग्य में विराग, योग यज्ञादि ही हैं। दया और दान में तो मैं दुर्बल हूँ और पाप की ही मोटाई है अर्थात् महापापी हूँ। मेरे समान लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों का खजाना कौन है, यहाँ तक कि कलियुग ने भी मलिनता मुझसे ही सीख ली है। परतु हे रामचद्रजी, मुझे भरोसा केवल यही है कि मैं आपका कहलाता हूँ और आप दीनों के बंधु और दयालु हैं और मै दीन हूँ (अर्थात् यदि आप सच्चे दीनबंधु हैं तो मुझ दीन पर दया करते ही बनेंगा)।

मूल--रावरो कहावौं, गुन गावौं राम राबरोई,
रोटी द्वै हौं पावौं राम रावरी ही कानि हौं।
जानत जहान, मन मेरे हू गुमान बड़ो,
मान्यो मै न दूसरो, न मानत, न मानिहौ।


पाँच की प्रतीति न, भरोसो मोहिं आपनोई,
तुम अपनायो हौं तबै हीं परि जानिहौं।
गढ़ि गुढ़ि, छोलि छालि कुंद की सी भाई बातैं,
जैसी मुख कहौ तैसी जीय जब आनिहौं॥६३॥

शब्दार्थ—कानि= मर्यादा, लाज। गुमान= गर्व। पाँच= पच देवता (विष्णु, महेश, गणेश, सूर्य और देवी)। परि= निश्चय रूप से। गढ़ि गुढि= बना बनाकर। छोलि छालि= काट कूट कर। कुंंद की सी भाई= खराद पर चढाई हुई। जीय= मन। कुद= खराद का औजार।

भावार्थ—हे रामचद्रजी, मैं आप ही का दास कहलाता हूँ और आप ही के गुण गाता हूँ, और आप ही की लाज से मै दो रोटी पा जाता हूँ। मैंने आपके अतिरिक्त किसी दूसरे को न माना, न मानता हूँ और न मानूँँगा। इस बात को ससार जानता है और मेरे मन में भी बड़ा गर्व है। न तो मुझे पंच देवताओं का ही विश्वास है और न अपने कर्तव्य का ही भरोसा है। आपने मुझे छपना लिया है इस बात को मै तभी निश्चय रूप से जानूँगा जब काट-कूट कर खराद पर चढ़ाई हुई बाते बना-बनाकर जैसे मुख से कहता हूँ वैसे ही भाव मन मे भी हो जाएँ (अर्थात् जब मुझमे अंतःकरण से आपकी भक्ति आ जायगी)।

मूल—बचन बिकार, करतबऊ खुआर, मन
बिगत-बिचार, कलिमल को निधानु है।
राम को कहाइ, नाम बेचि बेचि खाइ, सेवा
संगति न जाइ पाछिलें को उपखानु है।
ते हू ‘तुलसी’ को लोग भलो भलो कहैं, ताको
दूसरो न हेतु, एक नीके कै निदान है।
लोकरीति बिदित बिलोकियत जहाँ तहाँ,
स्वामी के सनेह स्वान हू को सनमानु है॥६४॥

शब्दार्थ—खुआर= (फा० ख्वार) खराब, बुरा कलिमल= पाप। निधानु= खजाना। सेवा सगति न जाय= ऐसी संगति में नही जाता जहाँ सेवा करनी पड़े। पाछिले को उपखानु है= जैसा कि प्राचीन लोगों ने कहा हैं (कि ‘सेवा चोर निवाले हाजिर’, अथवा ‘काम का न काज का दुश्मन
अनाज का इत्यादि) उपखान= (उपाख्यान) कहावत। निदानु= निश्चय। स्वान= कुत्ता।

भावार्थ—जिसके (तुलसी के) वचन में विकार है (कटुवादी है), जिसके कर्म भी बुरे हैं तथा मन भी सुविचारहीन है और जो पापों का खजाना ही है, जो (तुलसीदास) कहलाता तो है रामदास, पर सच्चा दास न होकर केवल पेट-पालनार्थ राम राम जपता है और जो (तुलसी) बड़ों के पास नहीं जाता कि सेवा करनी पड़ेगी, जिस (तुलसी) पर प्राचीन कहावत (काम का न काज का दुश्मन अनाज का) खूब चरितार्थ होती है, उस (तुलसीदास) को भी लोग भला आदमी कहते हैं, इसका कोई अन्य हेतु नहीं है, वरन् अच्छी तरह से यही निश्चित होता है और लोक-व्यवहार में विदित है तथा जहाँ तहाँ देखने में भी आता है कि बड़े के स्नेहपात्र कुत्ते का भी लोग सम्मान करते हैं।

अलंकार—विभावना से पुष्ट उपमान-प्रमाण।

मूल—स्वारथ को साज न समाज परमारथ को,
मो सो दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयौं, करौं न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचि हू भलाइ भूलि भाल है।
रावरी सपथ, राम नाम ही की गति मेरे
इहॉ झुँँठी झुँठी सो तिलोक तिहूँ काल है।
‛तुलसी‘ को भलो पै तुम्हारे ही किये कृपालु,
कीजै न बिलंब, बलि, पानी भरी खाल है॥६५॥

शब्दार्थ―स्वारथ को साज= सासारिक सुख-भोग की सामग्री (स्त्री= पुत्रादि)। परमारय को समाज= मोक्ष-साधन के उपाय (तीथ, जप, तप आदि)। दगाबाज (उर्दू)= धोखेबाज। जगजाल= इस मायामय ससार में। कै न आयौं= न मैने पहले किया। करतूति= कर्म। बिरचि= ब्रह्मा। भूलि= भूलकर भी। भाल= भाग्य, ललाट, माथा। नाम= राम नाम। गति= शरण, पहुँच। इहॉ= आपसे। पानी-मरी खाल है= यह शरीर नाशवान है। पै= निश्चय।

भावार्थ―न मेरे पास सासारिक सुख-भोग की सामग्री है, न कोई
मोक्ष प्राप्त करने के उपाय ही जानता हूँ और न इस मायामय संसार में मेरे समान कोई धोखेबाज है। अच्छे कर्म तो न मैने पहले किये, न वर्तमान काल मे करता हूँ और न भविष्य में कभी करूँँगा। भलाई करना तो ब्रह्मा ने भूल से भी मेरे भाग्य मे नही लिखा। हे राम, मुझे आपकी शपथ है मेरी तो ‘राम’ नाम तक ही पहुँँच है। मै सत्य कहता हूँ क्योंकि जो आपसे झूठ बोलता है वह तीनो लोक (स्वर्ग, मर्त्य, पाताल) मे और भूत भविष्य वर्तमान तीनो काल मे झूठा है (अर्थात् कोई उसका विश्वास न करेगा)। हे कृपालु, तुलसीदास का भला तो निश्चय ही आपके द्वारा हो सकता है, अतः बलि जाऊँ देर न कीजिए, क्योकि यह शरीर क्षणभंगुर है, कब नष्ट हो जाय कुछ ठीक नही (अर्थात् कृपा करके शीघ्र ही अपनाइए)।

अलंकार—छेकोक्ति।

मूल—राग को न साज, न बिराग जोम जाग जिय,
काया नहिं छॉड़ि देत ठाटिबो कुठाट को।
मनोराज करत अकाज भयो आजु लगि,
चाहै चारु चीर पै लहै न टूक टाट को।
भयो करतार बड़े कूर को कृपालु, पायो
नाम-प्रेम-पारस हौं लालच बराट को।
‘तुलसी’ बनी है राम रावरे बनाए, ना तो,
धोबी कै सो कूकर न घर को न घाट को॥६६॥

शब्दार्थ—राग को न साज= सासारिक सुख भोग को सामग्री। राग= (सासारिक विषयो पर) प्रेम या अनुराग। काया= शरीर। कुठाट को ठाठिबो= (सासारिक सुख भोग के हेतु) अनुचित उपाय करना। मनोराज= मनोरथ, वासनाएं। अकाज= (अकार्य) हानि।चारु चीर= सुन्दर वस्त्र। पै= परतु। लहै= पाता है [लाभ से लभना (लहना) क्रिया]।टूक= टुकड़ा। टाट= सन का मोटा और भद्दा कपड़ा। करतार=(कर्तार) ईश्वर, रामचद्रजी। कूर= निकम्मा। नाम-प्रेम-पारस= राम नाम का प्रेम ही जो पारसवत् है। पारस= एक प्रकार का पत्थर जिसको छूकर लोहा सोना हो जाता है । हौं= मैं। वराट= कौड़ी। बनी है= सुधरी है। न तौ=
नहीं तो। धोबी कै सी कूकर न घर को न घाट को=(कहावत) न इधर का न उधर का, अर्थात् रामचद्रजी की कृपा न होगी तो लोक परलोक एक भी न बन पड़ेगा।

भावार्थ—न मेरे पास सासारिक सुख-भोग की ही सामग्री है और न मन में विराग, न कभी योग-यज्ञादि ही किए। यह शरीर सासारिक सुख के लिए अनुचित उपाय करना भी नहीं छोड़ता। अनेक बासनाएँ करते करते आज तक हानि ही होती रही क्योकि मैं चाहता तो हूँ सुदर शाल-दुशाले, पर पाता नहीं हूँ टाट का टुकड़ा भी। कृपालु रामचद्रजी, मुझ निकम्मे पर भी आप बड़े कृपालु हुए हैं जो मुझ कौड़ी के लालची ने राम नाम का प्रेम रूपी पारस पाया (अर्थात् तुच्छ विषय-भोग के लालची को राम-भक्ति मिल गई)। तुलसीदास कहते हैं कि हे राम, आप ही की कृपा से मेरी बनेगी, नहीं तो मैं लोक और परलोक दोनो में से एक भी नहीं सुधार सकता।

अलंकार—छकोक्ति।

मूल—ऊँचो मन, ऊँची रुचि, भाग नीचो निपट ही,
लोकरीति-लायक न लंगर लबारु है।
स्वारथ अगम परमारथ की कहा चली,
पेट की कठिन, जम जीव को जवारु है।
चाकरी न आकरी न खेती न बनिज, भीख,
जानत न कूर कछु किसव कबारु है।
'तुलसी' की बाजी राखी राम ही के नाम, नतु,
भेंट पितरन को न मूड़ हू में बार है॥६७॥

शब्दार्थ—मन= मनोरथ। रुचि= इच्छा। निपट= अत्यंत, बिलकुल। लोकरीति-लायक न= लोगों से व्यवहार करने के लायक भी नहीं हूँ। लगर= ढीठ, नटखट। लबारु= भूटा। स्वारथ अगम= स्वार्थ अर्थात् भोजन वस्त्र भी इच्छापूर्वक मिलना कठिन है। परमार्थ= परलोक, मोक्ष। परमारथ की कहा चली= मोक्ष प्राप्त करने की बात क्या कहूँ। जवारु= (फा० बवाल) भार, जंजाल, झंझट। चाकरी= सेवकाई= नौकरी। आकरी= खान खोदने का काम। बनिज= वाणिज्य। किसन(अ०)कारीगरी। कबारु= कबाड़, ब्यवसाय, रोजगार। बाजी= प्रतिष्ठा, प्रतिज्ञा। भेट पितरन को न मूड हू मे
वार है= (कहावत) पास मे कुछ भी नहीं है (रामचद्रजी के शरणागत होने को मुझमे कोई भी गुण नही)।

भावार्थ— मेरी अभिलाषाएँ बड़ी बड़ी हैं, रुचि भी ऊँची है, पर भाग्य अत्यंत हीन है। लोकव्यवहार के योग्य भी नहीं हूँ, क्योंकि ढीठ और झूठा हूँ। यहाँ तो भोजन-वस्त्र मिनना भी कठिन है, मोक्ष प्राप्त करने की कौन बात कहूँ? मुझे पेट भर भोजन मिलना कठिन हो रहा है। (दूसरों पर निर्भर रहने के कारण) संसार के लोगो के लिए भार हो रहा हूँ। न मै कोई नौकरी कर सकता हूँ, न खान-खुदाई कर सकता हूँ, न खेती ही कर सकता हूँ, न बाणिज्य ही कर सकता हूँ, न भीख मॉग सकता हूँ, और न मै निकम्मा कुछ कारीगरी या व्यवसाय ही जानता हूँ। अतः तुलसीदासजी कहते हैं कि मेरी प्रतिष्ठा तो रामनाम के प्रताप से ही रह सकती है, नहीं तो मेरे पास (और तो और) पितरों को भेट देने के लिए सिर से बाल भी नहीं हैं, अर्थात् मेरे पास राम तक पहुँचने के लिए रामनाम-प्रेम के अतिरिक्त और कोई भी गुण नहीं।

अलंकार—छेंकोक्ति।

मूल-अपत उतार, अपकार को अगार, जग,
जाकी छॉह छुए सहमत व्याध बाधको।
पातक-पुहुमि पालिबे को सहसानन सो,
कानन कपट को पयोधि अपराध को।
'तुलसी से बाम को भो दाहिनो दयानिधान,
सुनत सिहात सब सिद्ध साधु साधको।
राम नाम ललित ललाम कियो लानि को,
बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को॥६८॥

शब्दार्थ— अपत= अप्रतिष्ठित। उतार= सबसे उतरा हुआ, अधम। सहमत= डरते हैं। बाधको= बाधक भी, विघ्नकर्ता भी। पातक-पुहुमि= पापरूपी पृथ्वी को। पुहुमि= भूमि । सहसानन= शेषनाग। बाम= कुटिल भी। दाहिनो= अनुकूल हुए। सिहात= ईर्ष्या करते हैं। ललित= सुन्दर। खलाम= भूषण। लाखनि को= लाखों के मोल का। कौड़ी आध को= जो आधी कौड़ी मोल का था।

भावार्थ— तुलसीदास कहते हैं कि मै अति अधम और अपकार का
धर हूँ पापी इतना कि संसार में जिसकी छाया को स्पर्श करते हुए विध्नकर्तां जीवहिंसक व्याच भी डरते हैं। मैं पापरूपी पृथ्वी को पालने के लिए शेषनाग के समान हूँ (अर्थात् जैसे शेषनाग ने पृथ्वी के बोझ को धारण कर रक्खा है ऐसे ही मैंने भी पाप का बोझ सिर पर धारण कर रक्खा है) मैं काट का वन हूँ अर्थात् अनेक कपट करता हूँ और अपराधों का समुद्र हूँ अर्थात् महा अपराधी हूँ; ऐसे कुटिल तुलसीदास पर दयालु रामचद्रजी अनुकूल हुए, ऐसा सुनकर सब सिद्ध, साधु और साधक भी ईष्या करते है। मै बड़ा कपटी कायर, कुपुत्र और आधी कौड़ी के मोल का अर्थात् निकम्मा था, उसको रामनाम ने लाखों के मोल का सुन्दर भृषण कर दिया अर्थात् सबमें पूज्य बना दिया।

मूल—सब अंगहीन, सब साधन बिहीन, मन
वचन मलीन, हीन कुल-करतूति हौं।
बुधि-बल-हीन, भाव-भगति-बिहीन, हीन
गुन, ज्ञान हीन, हीन भाग हू बिभूनि हौं।
‘तुलसी’ गरीब की गई बहोरी रामनाम,
जाहि जपि जीह राम हू को बैठो धूति हौं।
प्रीति रामनाम सों, प्रतीति रामनाम की,
प्रसाद रामनाम के पसारि पायँ सूतिहौं॥६९॥

शब्दार्थ—सब अगहीन= योग के आठो अगो से रहित। हीन कुल-करतूति हौं= अपने कुल के योग्य कर्म भी नहीं करता हूँ। भाव= प्रेम। विभूति= ऐश्वर्य। गई बहोरी= गई हुई वस्तु को लौटा दिया, बिगड़ी हुई बात सुधार दी। जीह= जिह्वा। बैठो धूति हौं= छल लिया है। प्रतीति= विश्वास। प्रसाद= प्रसन्नता से। पॉय पसारि सूतिहौ= पाव फैलाकर सोऊँगा अर्थात् निःशक होकर सोऊँगा।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि मैने योग का एक भी अग नहीं किया और मुक्ति-साधन के जो उपाय है वे भी मैने नहीं किए। मन और बचन से पापी हूँ, अपने कुल के करने योग्य कर्तव्य भी मैंने नहीं किये, बुद्धि और बल भी मुझमें नहीं है, प्रेम और भक्ति से भी वंचित हूँ और भाग्य और धनसपत्ति से भी हीन हूँ। जो राम का नाम गरीबों की गई हुई संपत्ति को फिर लौटा देता है उसी ने मेरी भी बिगड़ी बात बना दी है, उसी नामको
अपनी जिह्वा से जप कर मैने रामचंद्रजी को भी छल लिया है। उसी राम नाम से मेरी प्रीति है, उसी रामनाम का मुझे भरोसा है, और उसी रामनाम के प्रसाद से मैं निश्चित होकर सोऊँगा (मेरा ऐसा ही विश्वास है)।

मूल—मेरे जान जब ते हो जीव ह्वै जनम्यो जग
तब ते बेसाह्यो दाम लोह कोह काम को।
मन तिनहीं की सेवा, तिनही सो भाव नीको,
बचन बनाइ कहौ ‘हौ गुलाम राम को’।
नाथ हू न अपनायो, लोक झूठी ह्वै परी, पै
प्रभु हू ते प्रबल प्रताप प्रभु-नाम को।
आपनी भलाई भलो कीजै तो भलाई, न तौ,
‘तुलसी’ जो खुलैगो खजानो खोटे दाम को॥७०॥

शब्दार्थ—मेरे जाने= मेरी समझ मे। बेसाह्यो= खरीदा आ। लोह= लोभ। कोह= क्रोध। तिनहीं= लोभादिको की हा। भाव= प्रेम। नीको= अधिक। बचन बनाइ कहौ= मन से सत्य सत्य नहीं कहता हूँ बरन् बनाकर अर्थात् झूठ ही कहता हूँ। गुलाम (अ०)= दास। पै= परतु। खुलैगो खजानो खोटे दाम को= (मुहाबरा) खोटाई प्रकट हो जायगी, भडाफोड़ हो जायगा।

भावार्थ—मेरी समझ मे जब से मैने इस ससार में जन्म पाया है तब से लोभ, क्रोध और काम ने मुझे दाम देकर मोल ले लिया है। अतएव मेरा मन उन्ही की सेवा मे लगता है और उन्ही से मुझे अतिशय प्रेम है। परतु झुठ बोलकर प्रकट करता हूँ कि मै राम का सेवक हूँ। मुझे अयोग्य जानकर स्वामी (रामचन्द्रजी) ने भी नहीं अपनाया, झूठ ही यह प्रसिद्धि हो गई कि मै राम का सेवक हूँ, परतु रामचन्द्रजी के नाम का प्रताप रामचद्रजी से भी प्रबल है। अतः हे नाथ, अपनी स्वाभाविक भलाई से आप मेरा भला करे तो अच्छा ही है, नही तो मेरे (तुलसीदास के) पापों का भंडा-फोड़ हो जायगा (तब आप ही को बदनामी होगी कि रामदास भी बुरे होते हैं)।

मूल—जोग न बिराग जप जाग तप त्याग ब्रत,
तीरथ न धर्म जानौं बेद विधि किमि है।

१५५

उत्तरकांड 'तुलसी' सो पोच न भयो है, नहि है है कहूँ, सोच सब याके अघ कैसे प्रमु छमि है। मेरे तो न डरु रघबीर सनौ साँची कहीं खल अनखैहैं तुम्हें, सज्जन न गमिहै। भले सुकृती के संग मोहि तुला तौलिए तौ, नाम के प्रसाद भार मेरी ओर नमिहै ।।७।। शब्दार्थ-जोग=अष्टाग योग । विराग-ससार से उदासीनता । जप- विधिपूर्वक मत्रों को जपना। जाग%ाश्वमेध यज्ञ । तप-तपस्या करना। त्याग-दान। बत-चाद्रायणादि । वेदविधि-वेद का विधान । किमि = किस प्रकार, कैसा। सब सत्र लोग। याके -इस (तुलसीदास ) के। अध पाप । छमिहै - क्षमा करेगे । खल = दुष्ट । अनम्बै? = अप्रसन्न होंगे, बिगड़ेंगे। न गमिई = गम न करेंगे गम न खाएँगे ( वे भी आपको लेथारेंगे कि यह क्या बात है ।। सुकृती = पुण्य कर्म करनेवाला । तुला= तराजू । प्रसाद = प्रसन्नता, कृपा। मार-माझ, पल्ला । मेरी ओर नमिहै- मेरी तरफ मुकेगा। भावार्थ-तुलसीदास कहते है कि मे योग, वैराग्य, जप, यज्ञ, तपस्या. दान, बत, तीर्थ और धर्म कुछ नहा जानता चौर बेद का विधान कैसा है यह भी नहीं जानता। मेरे समान नीच न कभी हुधा हे न कभी होगा। इसी लिए सब लोग सोचते हैं कि रामचद्रजी कैसे इसके अपराध क्षमा करेगे । हे रामचद्रजी, मुझे तो डर नही है और मे सच-सच कहता हूं। सुनिए, अगर श्राप मुझे क्षमा करेगे तो दुष्ट लोग तो आपने अप्रसन्न हो जायेंगे और सज्जन लोग भी गम न खाएँगे। अगर आप मुझे किसो अतिशय पुण्यात्मा के साथ तराजू में तोले तो श्रापके नाम की कृपा से पलड़ा मेरी ही ओर झुकेगा अर्थात् मैं ही भारी हूँगा। मूल---जाति के, सुजाति के, कुजाति के पदागिबस, खाए टूक सबके, विदित बात दुनी सो। मानस बचन धाय किये पाप मतिभाय, राम को कहाय दास, दगाबाज पुनी सो। कवितावली रामनाम को प्रभाउ, पाउ महिमा प्रताप, 'तुलसी' सो जग मानियत महामुनी सो। अति ही अभागो, अनुरागत न रामपद, मूढ़ ऐतो बड़ो अचरज देखि सुनी सो ॥७२॥ शब्दार्थ-पेटागिबस =जठराग्नि के वश, भूख के कारण । टूक = टकड़े। बिदित प्रकट है। दुनी-दुनिया, ससार । मानस-मन | काय%D शरीर । सतिभाय-सद्भाव । दगाबाज %=(फा०) धोखेबाज । पुनी- पुना, फिर। पाउ-पाया। महामुनीवाल्मीकि मुनि । अनुरागत-प्रेम करता है (अनुराग से 'अनुरागना' क्रिया बना ली)। एतो=इतना । अच- रख =आश्चर्य। भावार्थ-पेट भरने के लिए मैने अपनी जाति, अपने से ऊँची जाति. और अपने से नीची जाति अर्थात् सबसे रोटी के टुकड़े मॉग-मॉगकर खाए. यह बात ससार जानता है। मन, वचन और शरीर से अनेक पाप किए. राम का भक्त कहलाया और फिर भी बैठा ही धोखेबाज बना रहा, पर मुझ ऐसे कुटिल ने भी रामनाम के प्रभाव से महिमा और प्रताप पाया और ससार में महामुनि वाल्मीकि के समान मान्य हो गया। हे मूर्ख, इतना बडा भारी आश्चर्य देख-सुनकर भी तू बड़ा ही अभागा है जो रामचद्रजी के चरणों में प्रेम नही करता। मूल-जायो कुल मंगन, बधावनो बजायो, सुनि, भयो परिताप पाप जननी जनक को। बारे ते ललात बिललात द्वार द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को। 'तुलसी' सो साहिब समर्थ को सुसेवक है, सुनत सिहात सोच बिधि हू गनक को। नाम, राम ! रावरो सयानो किधौं बावरो, जो करत गिरी ते गरु तन ते तनक को ॥७३॥ शब्दार्थ--जायो कुल मंगन-दरिद्रों के कुल में जन्म लिया। बधावा बमना-पानदसूचक बाजे बजना। परिताप = सताप। पाप कष्ट । बारे ते= बचपन से । ललात- ललचाता था। बिललात= बिलखाते हुए । जानत उत्तरकांड हो-जानता था। चारि फल = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चनक-चने। सिहात-ईया करता है बिधिह गनक को ज्योतिषी ब्रह्मा भी। सयानो- (सजान) चतुर । बाबरो- उन्मत्त, पागल ! किधौं = अथवा। जो तुन ते तनक को गिरी ते गरु करत जो तृण के समान हलके को पहाड़ से भी भारी करता है ( मेरे समान पतित को भी अपना सेवक बनाकर इतना पूज्य बना देता है)। भावार्थ-मै भिक्षुको । ब्राह्मणो) के कुल में उन्पन्न हुआ, यह सुनकर बधावा बजवाया गया। परतु मैं माता पिता के लिए सताप और दुःख का देनेवाला हुश्रा ! मै दरिद्र बचपन से भूख से ब्याकुल होकर लालच के मारे घर-घर भटकता फिरता था, और चार दाने चने पाकर ही इतना प्रसन्न हो जाता था कि उनको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो फलो के बराबर जानता था। वहो मैं ( तुलसीदास , अब समर्थ स्वामी रामचद्रजी का सेवक हूँ, यह सुन कर ज्योतिषी ब्रह्मा तक जिसका लेख झूठा नही हो सकता) ईर्ष्या करता है और सोचता है (कि यह अभागा राम-सेवक कैसे हुआ)। हे रामचद्रजी, श्रापका नाम न जाने समझदार है अथवा उन्मत्त जो तृण समान हलके व्यक्ति को भी पहाड़-समान गरू बना देता है अर्थात् पवितों को पवित्र और पूज्य बना देता है। भूल-बेद हू पुरान कही, लोक हू विलोकियत, राम-नाम ही सों रीमे सफल भलाई है। कासी हू मरत उपदेसत महेस सोई, साधना अनेक चितई न चित लाई है। छाँछी को ललात जे, ते राम-नाम के प्रसाद, खात खुनसात सौंधे दूध की मलाई है। रामराज सुनियत' राजनीति की अवधि, नाम, राम । रावरो तो चाम की चलाई है ॥४॥ शब्दार्थ-रीके -मन लगाने से । सोई वही राम का नाम | साधना%3D मोक्ष प्राप्त करने के अनेक उपायों को। चितई न चित लाई हैन उसकी ओर देखा, न ध्यान दिया। छॉडी-माललात - ललचाते हैं। खुनसात- नाक भौं सिकोड़ते हैं। सौंधा = पका हुआ। रामराज सुनियत राजनीति की
अवधि= सुना जाता है कि राम के राज्य में सबसे राजनीति के अनुसार अर्थात् योग्यता के अनुसार (बड़े से बड़ी छोटे, से छोटी) व्यवस्था की जाती थी। अवधि= सीमा। चाम की चलाई है= चमड़े का सिक्का चला दिया है, पतितो को भी उबार कर पूज्य बना दिया है।

भावार्थ—वेद पुराणों मे भी कहा गया है और लोक मे भी देखा जाता है कि रामनाम मे ही मन लगाने से सब प्रकार की भलाई है। काशी में मरते समय भी महादेवजी (मोक्ष-प्राप्ति के लिए) रामनाम जपने का ही उपदेश देते हैं, न और साधनो की ओर देखते हैं न उन पर कुछ ध्यान ही देते हैं। (यह तो वेद पुराणो की बात हुई) लोक मे भी देखा जाता है कि जो मट्ठा पीने के लिए लालायित रहते थे वे ही अब रामनाम के प्रसाद से (इतने समृद्धिशाली हो गए हैं कि) पके दूध की मलाई खाने में भी नाक भौं सिकोड़ते हैं। हे रामचद्रजी, सुना जाता है कि आपके राज्य मे तो राजनीति की पराकाष्ठा थी अर्थात् सबसे न्यायानुकूल व्यवहार किया जाता था, पर आपके नाम ने तो चमडे का सिक्का चला दिया है, अर्थात् पतितो को भी मान्य बना दिया है।

अलंकार—लोकोक्ति।

मूल—सोच-संकटनि सोच-संकट परत, जर
जरत, प्रभाव नाम ललित ललाम को।
बूड़ियौ तरति, बिगरीयौ सुधरति बात,
होत देखि दाहिनो सुभाय बिधि बाम को।
भागत अभाग, अनुरागत बिराग, भाग
जागत, आलसि ‘तुलसी’ हू से निकाम को।
धाई धारि फिरि कै गोहारि हितकारी होति,
आई मीचु मिटति जपत राम-नाम को॥७५॥

शब्दार्थ—सोच-सकटनि सोच-सकट परत= शोक-सकटों को भी शोक संकटा पड़ जाता है, अर्थात् शोक-संकट मिट जाता है। जर जरत= ज्वर भी जल जाता है अर्थात् ज्वर भी दूर हो जाता है। ललित= सुन्दर ललाम= भूषण, श्रेष्ठ। बूड़ियौ= डूबता हुआ भी। तरति= तर जाता है। बिधि बाम को स्वभाव दाहिनो होत देखियत= प्रतिकूल विधाता का
स्वभाव भी अनुकूल होता हुआ जान पड़ता है, दुर्भाग्य भी सौभाग्य हो जाता है। अनुरागत बिराग= वैराग्य भी प्रेन करने लगता है, अर्थात् उदासीन भी प्रेम करने लगता है। निकाम= निकम्मा, व्यर्थ। धारि= झुड (लुटेरों का)। फिरि कै= लौटकर। गोहारि= रक्षक। मीचु= (स० मृत्यु, प्रा०

भावार्थ—रामनाम के जपते ही शोक और दुःख मिट जाते हैं। उस सुन्दर श्रेष्ठ नाम के प्रभाव से ज्वर भी दूर हो जाता है, डूबता हुआ भी पार हो जाता है, बिगड़ी हुई बात भी सुधर जाती है, प्रतिकूल विधाता भी अनुकूल हो जाता है, अभाग्य भाग जाता है, उदासीन भी प्रेम करने लगता है। तुलसीदास के समान आलसी और निकम्मे के भी भाग्य उदय हो जाते हैं। लूटने को आई हुई लुटरो की सेना भी उलटे रक्षक और हितकारी हो जाती है और आई हुई मौत भी मिट जाती है (भाव यह कि रामनाम के जपने मात्र से ही सब अमगल भी मगल हो जाते हैं, यहाँ तक कि मौत भी मिट जाती है)।

अलंकार—व्याघात से पुष्ट हेतु।

मूल—ऑधरो, अधम, जड़, जाजरो जरा जवन,
सूकर के सावक ढका ढकेल्यो मग मैं।
गिरो, हिये हहरि, ‘हराम हो हराम हन्यो’
हाय हाय करत परी गो काल-फँग मैं।
‘तुलसी’ बिसोक ह्वै त्रिलोकपति-लोक गयो,
नाम के प्रताप, बात बिदित है जग मैं।
सोई रामनाम जो सनेह सों जपत जन,
ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमैं॥७६॥

शब्दार्थ—आबरो= अधा। जड़= मूर्ख। जाजरो बर= वृद्धावस्था के कारण जर्जर अर्थात् निर्बल। जवन= यवन। सावन= बच्चा। ढका ढकेल्यो= धक्का देकर गिरा दिया। हिये= हृदय में। इहरि= डर के मारे। हराम= सूअर (अरबी भाषा)। ‘हराम हो हराम इन्यो’= हराम, मुझे हराम (सूअर) ने मार दिया। काल-फँग में परी गो= काल के पॅजे में फँस गया, मर गया। बिसोक= विगत शोक, शोक से रहित। त्रिलोक-पति
लोक= बिष्णु-लोक। अगमै=(महिमा का विशेषण है) न कही जा सकने योन्य।

भावार्थ— किसी समय एक अधे, नीच, मूर्ख, और बृद्वावस्था के कारण निर्बल यवन (भ्लेन्छ) को एक सूअर के बच्चे ने धक्का देकर ढकेल दिया। वह मार्ग में गिरा और हृदय मे भयभीत होकर "मुझे हराम (सूअर) ने मार डाला" इस प्रकार हाय हाय करते हुए मर गया। तुलसीदास कहते हैं कि वह रामनाम के प्रताप से शोकरहित बैकुठ लोक को चला गया, यह यात संसार में प्रकट है। अतः इस रामनाम की, जिसे आदमी स्नेहपूर्वक जपता है, अकथनीय महिमा कैसी कही जा सकती; है (भाव यह कि अज्ञानावस्था में रामनाम लेने से तो मोक्ष हो गया, प्रेम से रामनाम जपने से तो अपूर्व ही फल मिलेगा)?

मूल—जाप की न, तप खप कियो न तमाइ जोग,
जाग न, बिराग त्याग तीरथ न तनको।
भाई को भरोसो न खरो सो बैर बैरी हू सों,
'बल अपनो न, हितू जननी जनक को।
लोक को न डर, परलोक को न सोच,
देव-सेवान सहाय,गर्व धाम को न धन को।
राम ही के नाम ते जो होइ सोई नीको लगै,
ऐसोई सुभाय कछु'तुलसी' के मन को॥७७॥

शब्दार्थ—जाप न की= मैने जप नही किया। न तप खप कियो= न खूब अच्छी तरह से तप ही किया। खप= खपकर, पचकर, कष्ट सहकर। तमाइ= (तमअ-अरबी) लालच। न तमाइ जोग= योग द्वारा कुछ प्राप्त होने का भी मुझै लालच नहीं। विराग= सासारिक सुखो से उदासीनता। त्याग-दान। तनको= थोड़ा भी। खरो सो= अच्छी तरह। हितू= हितकारी। धाम= घर। नीको= अच्छा।

भावार्थ—न मैने मत्र का जाप ही किया, न कष्ट सहकर तपस्या ही मुझसे हो सकी, न मुझे योग द्वारा कुछ सिद्धि प्राप्त करने का ही लालच है, न मैंने कोई यज्ञ ही किया, न कुछ वैराग्य, दान या तीर्थ ही किया, न मुझे अपने भाई का कुछ भरोसा है और न मेरा किसी वैरी से ही
अच्छी तरह वैर है। अपने शरीर में बल भी नहीं है और हितकारी माता पिता का भी बल नहीं है, न मुझे इस लोक का डर है, न परलोक की ही चिंता है, न आज तक मैंने किसी देवता की सेवा ही की जिससे मै उस देवता से कुछ सहायता की आशा रखूँँ, न मेरा कोई घर, न मेरे पास सपत्ति ही है जिसका मै गर्व करूँ (भाव यह कि न मैने कुछ पुण्य कर्म ही किए, न मेरे पास कुछ है)। तुलसीदास कहते हैं कि मेरे मन का स्वभाव तो कुछ ऐसा ही विचित्र है कि रामचन्द्रजी के ही नाम से जो कुछ भी हो वही मुझे अच्छा लगता है।

मूल—ईस न गनेस न, दिनेस न, धनेस न,
सुरेस सुर गौरि गिरापति नहिं जपने।
तुम्हरेई नाम को भरोसो भव तारिबे को,
बैठे उठे जागत बागत सोए सपने।
‘तुलसी’ है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जिय, कीजिये जु अपने।
जानकी-रमन! मेरे, रावरे बदन फेरे,
ठाऊँन, समाउँ कहाँ, सकल निरपने॥७८॥

शब्दार्थ—ईस= महादेव। दिनेम= सूर्य। धनेस= कुबेर। सुरेस= इंद्र। गिरापति= सरस्वती के पति, ब्रह्मा। भव= संसार। बागत= चलते फिरते। सौं= शपथ। रावरे बदन फेरे= आपके मुँह फेरने पर, आपके विमुख होने से, आपके रूठने से। ठाउँ= स्थान। समाउँ= रहूँ। निरपने= (निर+अपने) अपने नहीं, अर्थात् पराये, बेगाने।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि मैं शिव, गणेश, सूर्य, कुबेर, इंद्र और अन्य देवता, पार्वती और ब्रह्माजी किसी का जप-पूजन नहीं करता। बैठे में, उठे में, चलते में, जागते में, सोते मे, सपने में हर समय संसार से तारने के लिए आप ही के नाम का भरोसा है। मैं बाबला आप ही का दास हूँ, यह मैं आपकी ही शपथ लेकर कहता हूँ। अतः अपने मन में यह जानकर कि मैं आपका ही हूँ मुझे अपना कीजिए। हे सीतापति रामचंद्रजी, आपके नाराज होने से मेरे लिए कहीं भी स्थान नहीं, कहाँ रहूँगा? सब मेरे लिए बेगाने हो गए हैं (किसी से भी मेरा संबंध नहीं)।


मूल—जाहिर जहान में जमानो एक भॉति भयो,
बेचिये बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे
नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए।
‘तुलसी’ तिहारो मन बचन करम, तेहि
नाते नेह-नेम निज ओर तें निबाहिए।
रंक के निवाज रघुराज राजा राजनि के,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥७९॥

शब्दार्थ—जाहिर= प्रकट। जहान= संसार। जमानो= समय। जमानो एक भॉति भयो= समय बहुत खराब आ गया है। बिबुध-धेनु= देवताओ की गाय, कामधेनु। रासभी= गदही। बेसाहिए= मोल लीजिए। त्रिताप= दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो प्रकार के कष्ट। दाहिए= जलाते हैं। तेहि नाते= उसी संबंध से। नेह-नेम= स्नेह का नियम। रक= दरिद्र, दीन। उमरि= (अ०) आयु। दराज= (फा०) दीर्घ।

भावार्थ—संसार मे प्रकट है कि समय ऐसा बुरा आ गया है कि लोग कामधेनु को बेचकर गदही खरीदने लगे हैं। हे कृपालु, ऐसे भयकर कलियुग में भी आपके नाम के प्रताप से मै दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो तापों से नही बलता। तुलसीदास कहते हैं कि मै मन-वचन-कर्म से आपका ही भक्त हूँ, अतः उसी सम्बन्ध से अपनी ओर से मेरे स्नेह के नियम का निर्वाह कर दीजिएगा। हे दीनदयालु, राजाओ के राजा महाराज रामचद्रजी आपकी आयु बड़ी हो, मै ऐसी ही कामना रखता हूँ।

मूल—म्वारथ सथानप, प्रपंच परमारथ,
कहायो राम रावरो हौं; जानत जहानु है।
नाम के प्रताप, बाप! आजु लौं निबाही नीके,
आगे को गोसाई स्वामी सबल सुजानु है।
कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव!
पाहरूई चोर हेरि, हिय हहरानु है।
‘तुलसी’ की बलि, बार बार ही सँभार कीबी,
जद्यपि कृपानिधान सदा सावधान है॥८०॥

शब्दार्थ—स्वारथ सयानप= स्वार्थ-साधन करने अर्थात् अपना काम सिद्ध करने में ही अपनी चतुराई समझता हूँ। प्रपंच परमारथ= मोक्ष-प्राप्ति के उपायो मे छल करता हूँ।जहानु= दुनिया। बाप= हे पिता। आगे को= भविष्य से मेरा निर्वाह करने को। सुजानु= अच्छी तरह जानकर। पाहरूई= पहरुवा ही। हेरि= देखकर। हिय हहरानु है= हृदय डर गया है। कीबी= कीजिये।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि यह सारा संसार जानता है कि मै स्वार्थ-साधन करने में ही अपनी चतुरता समझता हूँ, और परमार्थ के कार्यों में छल करता हूँ। हे पिता! अपने नाम के प्रताप से आपने आज तक मेरा अच्छी तरह निर्वाह किया है। भविष्य में भी इसी प्रकार मेरा निर्वाह करने को हे स्वामी, आप समर्थ और सुजान हैं। हे देव, कलि की कुचाल प्रतिदिन दूनी देखकर और पहरुवे को ही चोर देखकर मेरा हृदय डर के मारे भयभीत है। हे कृपालु, मै आपकी बलि जाऊँ। यद्यपि आप अपने भक्तों की रक्षा करने को सदा सावधान रहते हैं तथापि में प्रार्थना करता हूँ कि बार बार मेरी सँभाल कीजिएगा जिसमें मेरे मन में विकार न आवे।

मूल—दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुःख,
दुरित दुराज, सुख सुकृत सकोचु है।
माँगे पैत पावत प्रचारि पातकी प्रचंड,
काल की करालता भले को होत पोचु है।
आपने तौ एक अवलंब, अंब डिंंभ ज्यों,
समर्थ सीतानाथ सब संकट-बिमोचु हैं।
‘तुलसी’ की साहसी सराहिये कृपालु राम।
नाम के भरोसे परिनाम को निसोचु है॥८१॥

शब्दार्थ—दारिद= दरिद्रता। दुकाल= अकाल, अन्न के अभाव का समय। दुरित= पाप। दुराज= दुष्ट राज्य, राज्यविप्लव। सुकृत= पुण्य। सकोच है= घटते जा रहे हैं, कम हो रहे हैं। पैत= दॉव। पावत= पा जाते हैं, विजय पाते हैं। पोचु= बुरा। अवलब= सहारा। अंब= माता। डिंंभ= बच्चा, बच्चे को जैसे माता का सहारा रहता है।.
संकट-बिमोचु= सकटो से छुड़ानेवाले। परिनाम को निसोच है= परिणाम के बारे में निश्चिन्त है।

भावार्थ—प्रतिदिन दरिद्रता, अकाल, दुःख, पाप और राज्य-विप्लव बढ़ते जा रहे है जिससे सुख और पुण्य घटते जा रहे हैं। समय ऐसा विपरीत हो गया है कि बड़े से बड़े पापी को इच्छित वस्तु मिल जाती है, और भले का बुरा होता है। तुलसीदास कहते हैं कि मेरा तो एकमात्र सहारा समर्थ, और सब सकटो से छुडानेवाले सीतापति रामचद्रजी का ही है, जैसे बच्चे का सहारा केवल माता ही है। हे कृपालु, रामचद्रजी, मेरी हिम्मत की प्रशसा तो कीजिए, क्योकि मुझे आपके नाम के भरोसे परिणाम की कुछ भी चिंंता नहीं है।

मूल—मोह-मद-मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारि सो,
बिसारि वेद लोक-लाज, ऑकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुँह आवै सो कहत, कछु
काहू की सहत नाहि, सरकस हेतु है।
‘तुलसी’ अधिक अधमाई हू अजामिल तें,
ताहू में सहाय कलि कपट-निकेतु है।
जैबे को अनेक टेक, एक टेक ह्वैबे की, जा
पेट प्रिय पूत-हित रामनाम लेतु है॥८२॥

शब्दार्थ—मोह-मद-मात्यो= अज्ञानता रूपी मद अर्थात् शराब से उन्मत्त हूँ। रात्यो= आसक्त, अनुरक्त, कुमति-कुनारि= कुबुद्धि रूपी वेश्या। बिसारि= भुलाकर। आँकरो= गहरा। अचेतु= बेसुध। भावै= जो अच्छा लगता है। सरकस= सरकश, प्रबल। हेतु= कारण। अधमाई= नीचता। कपट-निकेतु= कपट का घर। जैबे को= नष्ट होने को। अनेक टेक= अनेक आश्रय हैं, अनेक कारण हैं। टेक= आसरा। ह्वैबे को= भलाई होने के लिए। पेट-प्रिय-पूत-हित= पेट रूपी प्रिय पुत्र के लिए।

भावार्थ—(तुलसीदास अजामिल से अपना रूपक बाँधते हैं) अजामिल शराब में मस्त रहता था, मैं (तुलसीदास) अज्ञानता में मस्त रहता हूँ। अजामिल सदा वेश्याओ से आसक्त रहता था, मैं कुबुद्धि में रत रहता हूँ। उसने वेदमार्ग भुला दिए थे, मैंने लोक लाज छोड़ दी है। उसकी
तरह मैं भी बहुत बेसुध रहता हूँ। उसको जो अच्छा लगता था वही करता था और मैं जो मुख से निकलता है कह देता हूँ। वह भी किसी बात को नहीं सह सकता था, मैं भी राम का भरोसा होने के प्रबल कारण से किसी को नहीं मानता हूँ। मेरी नीचता तो अजामिल से भी अधिक है, उस पर भी कपट का घर कलियुग भी मेरा सहायक है। नष्ट होने के लिए तो अनेक कारण हैं, पर भलाई होने के लिए, भवसागर पार होने के लिए केवल एक ही कारण है। वह यह कि उसने अपने प्यारे पुत्र का नाम लिया था, मैं अपने पेट रूपी पुत्र को पालने के लिए राम का नाम लेता हूँ।

अलंकार—रूपक से पुष्ट व्यतिरेक।

मूल—जागिये न सोइए, बिगोइए जनम जाय,
दुःख रोग रोइए, कलेस कोह काम को।
राजा,रंक,रागी औ बिरागी,भूरि भागी ये,
अभागी जीव जरत,प्रभाव कलि बाम को।
‘तुलसी’ कबंध कैसो धाइबो बिचार अंध!
धुंध देखियत जग, सोच परिनाम को।
सोइबो जा राम के सनेह की समाधि सुख,
जागिबो जो जीह जपै नीके रामनाम को॥८३॥

शब्दार्थ—बिगोइए= बिगाड़िए। जाय= व्यर्थ ही। रागी= सासारिक सुखो के अनुरागी। भूरि भागी= बड़े भाग्यवान्। कबंध= रुड। अध= मूर्ख। धुध= धु धला, अस्पष्ट ।

भावार्थ—इस संसार में न तो हम जागते ही हैं न सोते ही हैं (विलक्षण भ्रम मे पड़े हैं)। व्यर्थ ही जीवन नष्ट करते हैं, दुःख और रोग से रोते हैं, क्रोध और काम का क्लेश सहते हैं। राजा, रंक, रागी, विरागी,भाग्यवान् और अभागी सब जीव जले जाते हैं, इस कुटिल कलिकाल का यही प्रभाव है। तुलसीदास कहते हैं कि हे मूर्ख! यह (अपना चलना फिरना, काम करना इत्यादि) कबध का सा दौड़ना समझो। ससारी लोगों में परिणाम की चिंता बहुत धुंंधली सी दिखाई पड़ती है (बहुत कम लोग परिणाम की चिंता करते हैं)। अगर तुम सोना चाहते हो तो रामप्रेम की सुखद समाधि में सोओ—
यही तो ठीक सोना है, और जागना चाहते हो तो जीभ से अच्छी तरह से रामनाम जपो—यही ठीक जागना है।

मूल—बरन-धरम गयो, आस्रम निवास तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो सो है।
करम उपासना कुबासना बिनास्यो, ज्ञान
बचन, बिराग, बेष, जगत हरो सो है।
गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग,
निगम नियोग ते सो केलि ही छरो सो है।
काय मन बचन सुभाय ‘तुलसी’ है जाहि,
रामनाम जो भरोसो, ताहू को भरोसो है॥८४॥

शब्दार्थ—त्रासन चकित= अधर्म के भय से भयभीत होकर। परावनो सो परो है= भगदड पड़ गई है, भाग गए हैं। करम उपासना कुवासना विनास्यो= कवासना ने कर्म और उपासना का नाश कर दिया। ज्ञान बचन= ज्ञानियो के से वचन बोलकर। बिराग बेघ= विरागियो का सा वेष बनाकर। इरो सो है= ठग सा लिया है। भगति भगायो लोग= लोगो को हरिभक्ति से भगा दिया है। निगम= वेद। नियोग= आज्ञा। केलि ही= खेल ही मे। छरो सो है= छल लिया है।

भावार्थ— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों ने अपना अपना धर्म छोड़ दिया है, ब्रह्मचर्यादि आश्रमो में रहकर अपने जीवन को व्यतीत करना भी लोगों ने छोड़ दिया है। अधर्म के भय से भयभीत होकर वर्णाश्रम धर्मों में भगदड़ पड़ गई है। कुवासनाओ ने कर्म और उपासना का नाश कर दिया। ज्ञानियों के से बचन बोलकर और विरागियो का सा वेष धारण कर संसार को ठग सा लिया है। गोरख ने लोगो मे योग क्या फैलाया, उनको रामभक्ति से विमुख कर दिया तथा वेदों की आज्ञाओं को तो खेल ही में छल लिया है अर्थात् वेद की आज्ञा का कपट से निर्वाह कर देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि जिसको कर्म मन वचन से स्वभावतः रामनाम का भरोसा है उसी का सच्चा भरोसा है। (कलिकाल मे मोक्ष के अन्य साधन सफल नहीं हो सकते हैं)। उत्तरकांड १६७ (मत्तगयंद सवैया ) षेद पुरान विहाइ सुपंथ कुमारग कोटि कुचाल चली है। काल कराल, नृपाल कृपालन राजसमाज बड़ोई छली है। बर्न-विभाग न आश्रम-धर्म, दुनी दुख-दोष दरिद्र-नली है। स्वारथ को परमारथ को कलि' राम को नाम-प्रताप बली है ॥८॥ भावार्थ-बिद्दाइ =छोड़कर । सुपथ = सुमार्ग । राजसमाज=मत्री श्रादि । दुनी-दुनिया को ! दली है = पीड़ित कर दिया है। भावार्थ-कलियुग के कारण लोगों ने वेदों और पुराणों में कहे हुए सु दर मार्ग को छोड दिया है, और कुमार्ग से चलकर करोड़ो कुचालें की हैं। समय भी विपरीत हो गया है। राजा अगर कृपालु भी हैं तो उनके दीवान मत्री आदि कर्मचारी बडे कपटी हैं। वर्ण विभाग और शाश्रमधर्म सब मिट गए हैं। दुःख, दोष और दरिद्रता ने संसार को पीड़ित कर दिया है। इतना सब कुछ होते हुए भी इस कलिकाल में सासारिक सुख- भोग के लिए और मोक्ष प्राप्त करने के लिए रामचंद्र जी के नाम का प्रताप ही बड़ा अली है। मूलन मिटै भवसंकट दुर्घट है, तप तीरथ जन्म अनेक अटो। कलि में न बिराग न ज्ञान कहूँ, सब लागत फोकट झूठ-जटो। नट ज्यों जनि पेट-कुपटक कोटिक चेटक कौतुक ठाठ ठटो। 'तुलसी' जुसदा मुखचाहिये तौरसना निसिबासर राम रटो॥८६॥ शब्दार्थ-दुर्घटन कर सकने के योग्य । अटो = धूमो । फोकट = निस्सार, कुट। जटो-मूर से जड़ा हुआ, दिखावा मात्र, पाखड । जनि- मत। कुपेटक- बुरे पिटारे से ( जैसा आजीगर रखते है ) चेटक =मत्र टोटके इत्यादि । कौतुक ठाठ बनि ठटो= कौतुक की सामग्री मत बनो, हँसी मत कराश्रो। रसना-जिह्वा से । निसिबासर-रात दिन। भावार्थ----तप करना कठिन है, अतः सासारिक दुःख नहीं मिट सकते। अनेक जन्मो तक तीर्थो में भ्रमण करो पर कलियुग में ज्ञान और वैराग्य कही भी प्राप्त न होगा, सब निस्सार और पाखडमय है। अत: नट की तरह अपने पेट रूपी बुरे पिटारे से मत्रों द्वारा करोडों खेल तमाशे मत करो।
तुलसीदास कहते हैं कि जो सदा सुख चाहते हो तो जिह्वा से रात दिन राम का नाम रटो।

मूल—
 

दम दुर्गम, दाम, दया, मख-कर्म, सुधर्म अधीन सबै धन को।
तप तीरथ साधन जोग विराग सो होइ नहीं दृढ़ता तन को।
कलिकाल कराल में, राम कृपालु यहै अवलंब बड़ो मन को।
'तुलसी' सब संजम हीन सबै इक नाम अधार सदा जन को ४८७॥

शब्दार्थ— दम= इद्रियो को रोकना दुर्गम= कठिन। मख= यज्ञ। तन को= शरीर को। अवलब-सहारा।

शब्दार्थ—इस भयकर कलिकाल से इद्रियों को दमन करना कठिन है। दान, दया, यज्ञकर्म और सुधर्म सब ही धन के अधीन हैं। तपस्या, तीर्थ, साधना, योग और वैराग्य हो नहीं सकते, अतः शरीर दृढ़ नही होता। तुलसीदास कहते हैं कि इस कलिकाल में मन का सबसे बड़ा अवलब यही है कि रामचद्रजी कृपालु हैं। सब ही सब सयमो से हीन हैं, अतः भक्तो को सदा एक आपके नाम का ही आधार है।

मूल
 

पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की।
रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रू की।
अब जोर जरा जरि गात गयो;मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीके कै ठीक दई 'तुलसी' अवलंब बड़ी उर आखर दू की॥८॥

शब्दार्थ सुदेह= नरदेह। बिमोह-नदी तरनी= अज्ञानतारूपी नदी को पार करने के लिए नाव। ध्रू= ध्रुव। जोर= जोरदार भरपूर। जरा= बुढ़ापा। गात= (गात्र) शरीर। गलानि= (ग्लानि) घृणा। कुबानि= बुरा स्वभाव। मूकी= (स० मुच् धातु से) छोड़ी। नीके कै= अच्छी तरह से। ठीक दई= निश्चय कर दिया है। आखर दू की= दो अक्षर अर्थात् 'र' और 'म' की।

भावार्थअगर नरदेह के समान सुंदर देह पाकर अज्ञानता रूपी नदी को पार करने के लिए नाव न पाई, इस संसार मे आकर कुछ अच्छा कर्तव्य भी न किया, रामचंद्रजी के चरित्र की कथा बनाकर औरों से न कही, प्रह्लाद </noinclude> और ध्रुध की कथा भी न सुनी, और अब भरपूर वृद्धावस्था से शरीर गल गया है तब भी मन में ग्लानि मानकर अपने बुरे स्वभाव को न छोड़ा, अर्थात्, इनमें से कुछ भी न किया तो तुलसीदास कहते हैं कि मैंने अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि ऐसे समय में दो अक्षर 'राम' नाम का ही मन में बड़ा भारी सहारा है।

मूल—

राम विहाय ‘मरा’ जपते बिगरी सुधरी कबि-कोकिल हू की।
नामहि ते गज की, गनिका की, अजामिल की चलि गै चल-चूकी।
नाम-प्रताप बड़े कुसमाज बजाइ रही पति पांडुबधू की।
ताको भलो अजहूँ ‘तुलसी’ जेहि प्रीति प्रतीति है आखर दू की॥८९॥

शब्दार्थ—बिहाय (सं०)= छोड़कर। कवि-कोकिल= वाल्मीकि। चल-चूकी= चचलता और अपराध। चलि गै= चल गई, निभ गई। कुसमाज= दुष्ट दुर्योधन की सभा में। पति= प्रतिष्ठा, लाज। पति बजाइ रही= प्रतिष्ठा (रामनाम के प्रताप का) डका बजाकर बनी रही। पाडु-बधू= द्रौपदी।

भावार्थ―शुद्ध 'राम' शब्द को जपना छोड़कर महामुनि वाल्मीकिजी ने 'मरा' शब्द को जपो, तब भी उनकी बिगड़ी हुई बात सुधर गई। नाम ही के प्रताप से हाथी की, वेश्या की और अजामिल की चंचलता और उनके सब अपराध निभ गए। रामनाम के प्रताप से दुष्ट दुर्योधन की बड़ी भारी सभा में द्रौपदी की प्रतिष्ठा डका बजाकर बनी रही। तुलसीदास कहते हैं कि जिसको दो अक्षर 'रा' और 'म' पर प्रीति और विश्वास है उसका अब भी भला है।

मूल―

नाम अजामिल से खल तारन, तारत बारन बार-बधू को।
नाम हरे प्रहलाद बिषाद, पितामय सॉसति-सागर सूको।
नाम सों प्रीति प्रतीति बिहीन गिल्यो कलिकाल कराल न चूको।
राखिहै राम सो जासु हिये 'तुलसी' हुलसै बल आखर दूको॥९०॥

शब्दार्थ―तारन= तारनेवाले। बारन= हाथी। बारबधू= वेश्या। विषाद= दु:ख। पितामय साँसति-सागर सूको= पिता के भय के कष्ट

तुम्हरो सब भॉति, तुम्हारिय सौं, तुम ही, बलि हौ मोकों ठाहरु हेरे।
बैरष बाँह बसाइए पै, ‘तुलसी’ घर ब्याध अजामिल खेरे॥९२॥

शब्दार्थ—जीजै= जीविति रहने को। ठाऊँ= स्थान। सुरालय हू को न सबल नेरे= स्वर्ग में जाने के लिये भी मेरे पास संबल नही है, अर्थात् मैने इतने पुण्य नहीं किए हैं जो मै स्वर्ग जा सकूँँ। जमबास= यमलोक। जमकिकर= यमदूत। नेरे= निकट। तुम्हारि सौं= आपको ही शपथ। ठाहरु= स्थान। हेरे= दिखलाई देता है। वैरष= (तु० बैरक) पताका, झंडा। प्राचीन काल में अगर किसी को घर, कुऑ, मदिर आदि बनाने होते थे तो जिस भूमि में बनाना चाहता था उसी भूमि को राजा से मॉग लेता था और उस भूमि मे राजा की अनुमति सूचित करने को एक झंडा गाड़ दिया जाता था जिससे कोई उसमे राजा की आज्ञा समझकर बाधा नही पहुँचा सकता था। पै= निश्चचय। तुलसी-घर= तुलसीदास का घर। खेरे= घरों का एक छोय समूह।

भावार्थ—जीवित रहने को न कोई स्थान है, न मेरा कोई अपना गाँव है, न मेरे पास स्वर्ग में जाने को ही संबल है (अर्थात् मैने ऐसे सुकृत भी नहीं किए जो मेरे स्वर्ग जाने में सहायक हो)। यमलोक मै जाऊँ क्योंकर? मै राम का नाम रटता हूँ, कौन यमदूत नेरे निकट आ सकता है। तुलसीदास कहते हैं कि हे रामचद्रजी, मुझे आपकी ही शपथ है, मै सब प्रकार से आपका हूँ। मै आपकी बलि जाऊँ, आप ही मुझको स्थान दिखलाई देते हैं। अपनी आज्ञासूचक पताका देकर अपनी शरण मे बसाइए। तुलसीदास का घर व्याध और अजामिल के ही गाँव मे हो (अर्थात् मै उन्ही के साथ आपके लोक मे बसूँँ)।

मूल—
 

का कियो जोग अजामिल जू, गनिका कबहीं मति पेम पगाई?
व्याध को साधुपनो कहिये, अपराध अगाधनि मै ही जनाई।
करुनाकर की करुना करना-हित, नाम-सुहेत जो देत दगाई।
काहे को खीझिय? रीझिय मै तुलसीहु सों है बलि सोई सगाई॥९३॥

शब्दार्थ—जोग= योग। पेम-प्रेम। मति पेम पगाई= प्रेम मे मन
लगाया। करना-हित= करुणा के लिए है। नाम सुहेत जो देत दगाई= नाम से प्रेम करने मे जो धोखा करते थे, अर्थात् जो धोखे से भी राम का नाम नहीं लेते थे। खीझीय= अप्रसन्न होइए। रीझीय= प्रसन्न होइए। तुलसीहु सो= तुलसीदास से भी। सगाई= सबध, प्रेम।

भावार्थ—अजामिल ने क्या योग किया था? वेश्या की बुद्धि क्या कमी आपके प्रेम में अनुरक्त हुई थी? व्याध (वाल्मीकि) की साधुता को क्या कहे, वह तो भारी अपराधो मे ही जनाई पडती थी अर्थात् वह नरहत्या को ही अच्छी बात समझता था। दयालु रामचद्रजी की दया दया करने के लिए है अर्थात् अकारण ही दयापात्र के ऊपर दया करना रामचद्रजी का काम है)। उनका नाम जपकर जो उनसे अपने ऊपर करुणा कराना चाहता है वह तो उनसे दगा ही करता है अर्थात् उनको कलकित्त करना चाहता है (कि रामजी नाम जपने पर दया करते है) तुलसीदास कहते हैं कि हे भगवान्, मै आपको बलैया लूँ, मुझसे भी वही नाता है (अर्थात् पापी हूँ अतः अकारण ही मुझ पर दया कीजिये)। अतः आप मुझसे अप्रसन्न क्यों होते हैं? मेरे ऊपर तो आपको निश्चय अकारण कृपा करनी चाहिए क्योंकि मै यह दावा नहीं करता कि मै आपका नाम जपता हूँ)।

मूल—
 

जे मद-मार बिकार भरे ते अचार-विचार समीप न जाहीं।
है अभिमान तऊ मन में जन भाखिहै दूसर दीन न पाहीं?
जो कछु बात बनाइ कहौं 'तुलसी' तुम तें तुम हौ उर माहीं।
जानकी जीवन जानत हौ हम है तुम्हरे, तुममें सक नाहों॥९४॥

शब्दार्थ—मद-मार-विकार भरे= घमंड और कामदेव के विकार से भरे हुए, अर्थात् मदोन्मत्त और कामपीड़ित। अचार-विचार= (मुहावरा) धार्मिक, कृत्य, शौच, पूजा पाठ आदि। जानकी-जीवन= जानकी के प्राणनाथ (रामचन्द्रजी)। सक नाही= इसमे कुछ सदेह नही।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि जो मदोन्मत्त और काम-पीड़ित हैं वे धार्मिक कृत्यों के पास भी नहीं फटकते। तब भी अपने मन मे अभिमान रखते हैं कि यह ज़न दूसरे से दीन वचन न बोलेगा (तात्पर्य यह कि घमंड के मारे औरों को तुच्छ समझकर उनसे बोलने में भी अपनी हीनता समझते
है) यदि मैं आपसे कुछ झूठ कहता हूँ तो आप मेरे हृदय में हैं ही (अतएव झूठ या सच आपसे छिपा नहीं रहेगा)।हे सीतापति रामचद्रजी, आप जानतें ही हैं कि मैं आपका ही हूँ और आपकी शरणागतपालकता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है।

मूल—
 

दानव देव अहीस महीस महामुनि तापस सिद्ध समाजी।
जाचक, दानि दुतीय नही तुम ही सबकी सब राखत बाजी॥
एते बड़े तुलसीस तऊ सबरी के दिए वितु भूख न भाजी।
राम गरीबनेवाज! भए हौ गरीब-नेवाज गरीब नेवाजी॥६५॥

शब्दाथे— अहीस= शेषनाग आदि बडे़ बडे़ सर्पं। महीस= राजा लोग। महामुनि= बड़े बड़े मुनि। तापस= तपस्वी। समाजी= साप्रदायिक जन। सब बाजी राखत= सच कार्य निभाते हो, सब मनोरथ पूर्ण करते हो। गरीब (अ०)= दीन। नेवाज (फा०)= रक्षक। गरीब नेवाज= दीनदयालु।

भावार्थ— हे रामचद्रजी! दानव, देवता बडे़ बड़े सर्पों के राजा, राजा लोग, बड़े बडे़ मुनि-जन तपस्वी, सिद्ध और अन्य सम्प्रदायों के लोगों समेत सारा संसार मॉगनेवाला है। पर दानी आपके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं; आपही सब याचकों के सपूर्ण मनोरथो को पूर्ण करते हैं। आप ऐसे महानुभाव हैं, तब भी शबरी के दिए हुए (जूठे बेर खाए बिना आपकी भूख न मिटी। अतएव हे दीनो के रक्षक रामचन्द्र जी! आप दीनो की रक्षा करके ही दीनदयालु कहलाए हैं।

अलंकार—विधि।

मूल—
(मनहरण कवित्त)


किसबी, किसान-कुछ, बनिक, भिखारी, भाट
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-बन अहन अखेटकी।
ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।

१६

‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की॥६६॥

शब्दार्थ—किसबी= परिश्रमी, मजूर। भाट= गा-गाकर मॉगनेवाले। चाकर= नौकर, सेवक। चार= हलकारे। चेटकी= तमाशा करनेवाले, बाजीगर। पेट को= पेट भरने के लिए, आजीविका करने के लिए। अटत= भटकते हैं। अहन= दिन दिन भर (स० अहः=दिन) अखेटकी= शिकारी। पेट ही को पचत= पेट भरने के लिए मरे मिटते हैं। बेटकी= बेटी। धनस्थामा= काला बादल ('घनस्याम' शब्द यहाँ पर साभिप्राय है। आग बुझाने के लिए समचद्रजी को 'घनस्याम' कहना अति ही उपयुक्त हुआ है)। बड़वागि= समुद्र की अग्नि। आगि पेट की= जठराग्नि।

भावार्थ—मजदूर, किसानो का समूह, बनिये, भिखारी, भाट, नौकर, चचल नट, चोर, हलकारे, बाजीगर आदि सब लोग पेट भरने के लिए ही पढ़ते हैं और (पेट भरने को ही) अपने मन से अनेक गुणो को गढ़ते हैं (अर्थात् अनेक उपाय करते हैं), (पेट ही के लिए) पहाड़ों पर चढते हैं और (पेट ही के लिए) शिकारी लोग घने वनों में दिन भर भटकते फिरते हैं। भले बुरे सब प्रकार के कर्म और धर्म-अधर्म करके पेट के लिए मरे मिटते हैं। यहाँ तक कि पेट के लिए अपने बेटा-बेटी तक को बेच देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यह पेट की अग्नि (जठराग्नि) बढ़वाग्नि से भी बड़ी है और केवल घने बादल रूपी रामचद्रजी से ही बुझ सकती है।

अलंकार—‘घनस्याम’ में परिकर अलकार है।

मूल—खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-बिहीन लोग सीद्यमान, सोचबस,
कहैं एक एकन सों “कहाँ जाई, का करी?”
बेद हू पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
सॉकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबधु!
दुरित-दहन देखि 'तुलसी' हहा करी॥६७॥

शब्दार्थ—सीद्यमान= (स०) दुखित। साकरे= सकट के अवसर पर। दारिद-दसानन= दारिद्रय रूपी रावण ने। दुनी= दुनिया। दबाई दुनी= संसार को पीड़ित किया है। दुरित-दहन= पापो को जलानेवाला। हहा करी= विनती करता है।

भावार्थ—तुलसीदास कदत है कि हे रामचद्रजी, मे आपकी बलि जाऊँ, अब ऐसा कुसमय आ गया है कि किसान की तो खेती नहीं लगती, भिखारी को भीख नहीं मिलती, बनिये के पास बाणिज्य का साधन नही और नौकर को कही नौकरी नहीं मिलती। इस प्रकार जीविका से हीन होने के कारण सब लोग दुःखित हे और शोक के वश होकर एक दूसरे से कहते हैं कि कहाँ जायँ (कुछ नहीं सूझ पडता)। हे रामजी, वेद और पुराणों मे भी कहा है और संसार में देखा भी जाता है कि सकट पड़ने पर आपने सब पर कृपा की है। दरिद्रता रूपी रावण ने संसार को पीडित किया है, अतः हे दीनबधु रामचन्द्रजी, आपको पाप नाशक समझकर मैं विनती करता हूँ।

अलंकाररूपक (दारिद-दसानन)।

मूल—कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन,
जोबन जरत जुर, परै न कछू कही।
रामकाज कुपथ, कुसाज, भोग रोग ही के,
बेद-बुध विद्या पाइ बिबस बलकही।
गति तुलसीस की लखै न कोऊ जो करत,
पब्बइ ते छार, छारै पब्बइ पलक ही।
कासों कीजै रोष? दोष दीजै काहि? पाहि राम।
कियो कलिकाल कुलि खलल खलक ही॥९८॥

शब्दार्थ—कुल= वश। करनूति= अच्छे काम, बड़े बड़े काम। भूति= ऐश्वर्य। जुर= ज्वर। बिबस= बेबस होकर। बलकही= प्रलाप करते है। तुलसीस= श्रीरामजी। पब्बह= पर्वत। कुलि= समस्त। खलक (अरबी)= संसार। खलल= बाधा, अस्त-व्यस्त दशा।

भावार्थ—>यौवन रूपी ज्वर मे वश-मर्शदा, पुरुषो के अच्छे काम, ऐश्वर्य, सुयश, सुन्दर रूप और गुण सब जल रहे हैं (अर्थात् युवावस्था
पाकर लोग अविचार से ये सब नष्ट कर डालते है)। कुछ कहा नहीं जाता कि क्या होगा। (यौवन रूपी ज्वर मे) राज्याधिकार कुपथ्य है, उसका बुरा सामान भोग करना रोग को बढ़ाना है। (ज्वर मे कुपथ्य हुआ और रोग बढा तब) वेदपाठी जन (विद्वान् लोग) विद्या पाकर विवश होकर अडबड बकने लगते हैं (तात्पर्य यह कि जवानी, अधिकार और विद्या पाकर लोगों को कलिकाल मे त्रिदोष ही हो जाता है), (परंतु) रामजी की महिमा कोई नहीं जानता, जो पर्वत को छार और छार को एक पल मात्र मे पर्वत बना देते हैं। अतः हे रामजी, मेरी रक्षा करो। मै किससे क्रुद्ध हूँ और किसको दोष दूँ कलियुग ने तो सारे संसार की दशा को अस्तव्यस्त कर डाला है।

अलंकार—रूपक (प्रथम दो चरणो में)।

मूल—बबुर बहेरे को बनाय बाग लाइयत,
रुँँधिबे को सोई सुरतरु काटियतु है।
गारी देत नीच हरिचंद हू दधीचि हू को,
आपने चना चवाइ हाथ चाटियतु है।
आप महा पातकी हॅसत हरि हर हू को,
आपु है अभागी, भूरिभागी डाटियतु है।
कलि को कलुष, मन मलिन किये महत,
मसक की पॉसुरी पयोधि पाटियतु है॥६६॥

शब्दार्थ—रुँधिबे को= रक्षार्थ बाग को घेरने के लिए। सुरतरु= कल्पवृक्ष। भूरिभागी= भाग्यवानो को। डातियतु है= फटकारते हैं। कलुष= (स०) पाप। मसक= मच्छर। पॉसुरी= हड्डी, पसली। पयोधि= समुद्र।

भावार्थ—इस कलियुग मे नीच लोग बबूल और बहेड़े के बागो को अच्छी प्रकार लगाते हैं और उस बाग की रक्षा करने के लिए बारी लगाने के लिए कल्प वृक्ष को काटते हैं (ऐसे निर्बद्ध हैं) हरिश्चंद्र और दधीचि के समान दानियों को गाली देते हैं, पर आप इतने कजूस हैं कि चना चबाकर मी हाथ चाटते हैं (कि कहीं कुछ लगा तो नहीं है)। आप तो बड़े पापी हैं पर सपूर्ण पापों को नाश करने में समर्थ विष्णु और शिवजी की भी हॅसी करने सकते हैं। आप तो भाग्यहीन हैं पर बड़े बड़े भाग्यवानो को भी ऐसी फटकार
देते हैं मानों वे उनको कुछ समझते ही नहीं। कलियुग के पापों ने बड़े लोगों के मन को अति ही मलिन कर दिया है। पर वे मच्छर की पसुलियों से समुद्र को पाटना चाहते हैं (अर्थात् बड़े पाप करने पर भी यह समझते हैं कि हम भवसागर पार हो जायँगे)।

अलंकारछेकोक्ति।

मूल—सुनिये कराल कलिकाल भूमिपाल तुम!
जाहि घालो चाहिये कहौ धौं राखै ताहि को?
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारो ढारो रावरो न,
मैं हूँ तैं हूँ ताहि को सकल जग जाहि को।
काम कोह लाइ कै देखाइयत आँखि मोहिं,
एते मान अकस कीबे को आपु आहि को?
साहिब सुजान जिन स्वानहू को पच्छ कियो,
रामबोला नाम, हौं गुलाम राम-साहि को॥१००॥

शब्दार्थ—'घालो चाहिये= नाश करना चाहते हो। दूबरो= (सं०) दुर्बल। बिगारो ढारो राबरो न= (मुहावरा) आपका कुछ भी बिगाड़ा, गिराया नहीं। आँखि देखाइयत= डराते हो। एते मान= इतने परिमाण में, इतना। अकस= विरोध। आहि= (स० असि) हो। सुजान= जान कर। स्वान= (स० श्वान) अवध का कुक्कुर। पच्छ कियों= तरफदारी की।

भावार्थ— हे कराल कलिकाल तुम आज राजा हो, पर मेरी बात सुनो। जिसको तुम मारना चाहते हो उसे कौन बचा सकता है? मैं तो दीन और दुर्बल हूँ और मैने आपका कुछ बगाड़ा या गिराया नहीं (अर्थात् मेरा आपका कुछ सरोकार नहीं है)। मै भी और आप भी उसी ईश्वर के जिसका सारा संसार है, फिर मुझसे इतना विरोध करनेवाले आप हैं कौन, जो काम और क्रोध को मेरे पीछे लगाकर मुझे डराते हैं। मेरे स्वामी सुजान रामचद्रजी हैं, जिन्होंने कुत्ते का भी पक्ष किया था। मैं स्वामी रामचंद्रजी का सेवक हूँ और मेरा नाम ‘रामबोला’ है। १७८ कवितावली (मत्तरायद सबैया) साँची कही कलिकाल कराल मै, हारो बिगारो तिहारो कहा है? काम को, कोह को, लोम को. मोह को, मोहि सों आनि प्रपंच रहा है। हौ जगनायक लायक आजु, पै मेरियौ देव कुटेव महा है। जानकीनाथ बिना, 'तुलसी जग दूसरे सो करिहों न हहा है ॥१०॥ शब्दार्थ-प्रपच = माया, जाल । मोहि सो पानि प्रपच रहा है = मेरे ही ऊपर जाल फैलाना हे। जगनायक - ससार के स्वामी । लायक-बड़े योग्य । व्यग्य से, बड़े खराब)। पैपर । मेरियो = मेरी भी। कुटेव= बुरी वान, हठ । हहा करिहौं - विनती करूंगा। भावार्थ-हे कराल' कलियुग, मैं सच कहता हूँ। मैने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मेरे आर काम, क्रोध, लोभ, मोह का जाल फैलाता है (अर्थात् मुझे काम, क्रोध, लोभ और मोह में फंसाता है)। तुम ससार के स्वामी हो और सब कुछ करने में समर्थ हो, पर मेरी भी यह बड़ी भारी हठ है कि मैं सीतापति रामचद्रजी के अतिरिक्त किसी दूसरे से विनती नहीं करूँगा। नोट-----सत्सग मे सुना है कि 'मेवा' नामक एक भक्त की स्त्री ने गोस्वामी जी की परीक्षा लेनी चाही थी। कई बार एकात मे उनके पास थाई । पर गोस्वामीजी उसके चरणो पर गिर कर समझा बुझाकर लौटा देते थे। उसी समय ये छद (न०१००, १०१, १०२) गोस्वामीजी ने कहे थे। मूल- भागीरथी जलपान करौं अरु नाम द्वै राम के लेत नितै हौं । मोको न लेनो न देनो कछू कलि | भूलि न रावरी ओर चितैहों ।। जानि के जोर करौ, परिनाम, तुम्हें, पछितैहो पै मैं न भितैहौं।' ब्राह्मन ज्यों उगिल्यौ उरगारि, हौं त्योंही तिहारे हिये न हितैहौं॥१०२।। शब्दार्थ-नाम ? = सीता राम । नितै = प्रति दिन । चितेहौं = देलूँगा। जोर करौ =जबर्दस्ती करो । परिनाम - अतिम फल । पै-परंतु । मितेहौं- डरूँगा । उगिल्यौ- वमन कर दिया। उरगारि गराड़। हौ. मैस्यों ही- उसी प्रकार | हिये - ( यहाँ पर) पेट में। हितही=पचंगा, हितकारक हूँगा। भावार्थ—प्रतिदिन गंगाजी का जल पीता हूँ और सीताराम चेण्दो नाम लेता हूँ। हे कलि! मेरा तुमसे लेना देना कुछ नहीं है (अर्थात् मेरा तुमसे कुछ भी सरोकार नहीं), अतः मैं भूलकर भी कभी तुम्हारी शोर नहीं देखूँगा। अतिम फल समझकर मुझ पर अत्याचार करो; अन्त में तुम्हीं पछताओगे. पर मै तुमसे न डरूँगा। जैसे गारुड़ ने ब्राहाण को न वचा-साकने के कारण वमन कर दिया था वैसे ही मै भी तुम्हारे पेट में न पचूँँगा (और अन्त में तुमको मुझे छोड़ ही देना पड़ेगा।)

नोट— गरुड़ ने एक समय धोखे से एक ब्राह्मण को निगल लिया था। उससे उनके पेट में जलन पैदा हुई। अन्त में उन्हें उसे अपने पेट से निकाल देना पड़ा।

मूल— राजमराल के बालक पेलि कै, पालत लालत खूसर को।
सुचि सुन्दर सालि सकेलि सुबारि कै बीज बटोरत ऊसर को।
गुन-ज्ञान गुमान भभेरि बड़ो, कलपद्रुम काटत मूसर को।
कलिकाल बिचार अचार हरो, नहि सूझै कछू घमघूसर को॥१०३॥

शब्दार्थ—राजमराल= राजहस। पेलि कै= ठेलकर। खूसर= उलुक, खूसट। सुचि= (शुचि) पवित्र। सालि= (शालि) धान। सकैलि= (स० संकलन से) बटोरकर। सुबारि कै= जलाकर। ऊसर= अनुत्पादक भूमि। गुमान= घमंड। भभेरि= मूर्ख। मूसर को= मुशल बनाने के लिए। बिचार= धर्माधर्म का विचार। अचार= तप शौचादि का आचरण । धूसर=निबुद्धि।

भावार्थ— सुन्दर राजहंसों के बालकों को (अर्थात् विवेकियों को) ठेलकर अब के लोग उल्लू के बच्चो का लालन पालन करते हैं, सुन्दर बानी की एकत्र करके उनको बलाकर ऊसर भूमि में खाने के लिए दाने बटोरते फिरते हैं। उन्हें गुण और ज्ञान का बड़ा घमंड है पर मूर्ख इतमें बड़े हैं कि मुशल बनाने के लिए कल्पवृक्ष का पेड़ काटते हैं। इस कलियुग ने उनेको सब आचार विचार हर लिया है पर बेवकूफों को कुछ सूझता नहीं।

मूल—
 

कीबे कहा पढ़िबे को कहा फल बूझि न बेद को भेद विचारै।
स्वारथ को परमारथ को कलि कामद नाम को राम बिसारै।

बाद विवाद बिसाद बढाइ कै छाती पराई औ आपनी जारै।
चारिहु को,छहु को,नव को,दस आठ को,पाठ कुकाठ ज्यो फारै॥१०४॥

शब्दार्थ—स्वारथ= सासारिक सुख। परमारथ= मोक्ष। कामद= सब कामनाओ को देनेवाला। बिसारै= भुला देता है। बिषाद= दुःख। चारिहु= चारो वेद (ऋक्, यजुः, साम, अथर्वं)। छहु= छः शास्त्र (मीमासा, साख्य, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदात)। नव= नौ व्याकरण (इद्र, चद्र, काशकृत्स्न, शाकटायन, पिशालि, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र, सरस्वती) दस-आठ= अठारह पुराण। पाठ कुकाठ ज्यो फारै= इन सब का पढना ऐसा निष्फल है जैसा कुकाठ का फाड़ना निष्फल होता है, क्योकि कुकाठ सीधा नहीं फटता।

भावार्थ—क्या करना चाहिए, क्या पढना चाहिए, यह समझ बूझ कर वेद का भेद न विचारा तो नर-देह पाकर क्या किया? और इस प्रकार बिना विचारे पढ़ने का क्या फल रहा? यदि स्वार्थ और परमार्थ के देनेवाले, और कलियुग के सब मनोरथो के पूर्ण करनेवाले राम के नाम को भुला दिया, और व्यर्थ के वादविवाद से दुख बढाकर अपनी और दूसरों की भी छाती जलाई अर्थात् अपने को और दूसरों को भी चिंतित कर दिया तो चारो वेदो, छहों शास्त्रों, नवो व्याकरणो और अठारहो पुराणो का पढ़ना ऐसा ही निष्फल हुआ जैसा कुकाठ का फाड़ना।

मूल—
 

आगम बेद पुरान बखानत मारग कोटिक जाहि न जाने।
जो मुनि ते पुनि आपुहि आपु को ईस कहावत सिद्ध सयाने।
धर्म सबै कलिकाल असे, जप जोग बिराग लै जीव पराने।
को कार सोच मरै,‘तुलसी’ हम जानकीनाथ के हाथ बिकाने॥१०५॥

शब्दार्थ—आगम= शास्त्र। लैजीव पराने= प्राणों को लेकर अर्थात् डर के मारे भाग गए।

भावार्थ—शास्त्र, वेद और पुराय वर्णन करते हैं कि मोक्ष-साधन के अनेक उपाय हैं परन्तु वे तो समझ में नहीं पाते और जो मुनिगण हैं वे अपने ही को ईशवर और सयाने सिद्ध कहलवाते हैं, परन्तु इस कलियुग ने सब धमों को बस लिया है; जाप, योग, विराग आदि तो डर के मारे लोप हो गए हैं। उत्तरकांड १८१ अतएव तुलसीदास कहते है कि ( जन मोक्ष-साधन से उपायों की यह दशा है तो ) व्यर्थ की चिता मे पड़कर अपने को क्यों कष्ट दे १ हम तो रामचंद्रजी के हाथो बिक गए हैं, अथति रामचद्रजी की शरण में हो गए हैं ( हमें किसी की कुछ परवाह नहीं है)। मूल- धूत कहो, अवधूत कही, रजपूत कहो, जोलहा कहौ कोऊ। काहू की बेटी सों बेटा न ब्यांहब, काहू की जाति बिगारौं न सोऊ। 'तुलसी' सरनाम गुलाम है राम को, जाको मचै सो कहौ कछुओंऊ। मॉगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ ॥१०॥ शब्दार्थ-धूत =धूर्त (छली)। अवधूत = जोगी, भिखमंगा। रजपूत = क्षत्रिय (स राजपुत्र से) जोलहा- ततुवाय, कपड़ा बुननेवाली एक जाति- विशेष । सरनाम= प्रसिद्ध । गुलाम (अ०)सेवक | रुचै- अच्छा लगे। श्रोऊ- वह भी । मसीत = मसजिद (देवालय)। "लेना एक न देना दो'- (एक लोकोक्ति है ) कुछ भी सरोकार नही। भावार्थ-कोई चाहे मुझे धूर्त कहे, चाहे भिखमंगा कहे, चाहे क्षत्रिय कहे, चाहे जोलहा कहे, मुझे कुछ परवा नहीं। न मुझे किसी की लड़की से अपने लड़के का व्याह ही करना है (जो मै पतित होने का डर करूँ), न मैं क्सिी जाति के साथ संपर्क रख के उसे बिगाड़ गा जिसको अच्छा लगे वह वही कहे । तुलसी तो रामचद्रजी का प्रसिद्ध सेवक है। मॉगकर स्वाना और निश्चि । होकर देवालय में सो रहना, यही मेरा काम है; और किसी से मेरा कुछ प्रयोजन नही (न मै कलिकाल की 'गुलामी लूँगा, न 'राम' नाम के दोनो अक्षर छोड़ गा)। ( मनहरण कवित्त) मेरे जाति पॉति, न चहौं काहू की जाति पॉति, , मेरे कोऊ काम कों, न हौं काहू के काम को । लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब, .. ___भारी है भरोसों 'तुलसी' के एक नाम को। वति ही अयाने उपखानों नहिं बूझै लोग, "साह ही को गोत मोत होत है गुलाम को।' १८२ कवितावली साधु कै असाधु के भलो के पोच, सोच कहा, का काहू के द्वार परो ? जो हौं सो हौं राम को ॥१०॥ शब्दार्थ-~~जाति पॉति = ( मुहावरा ) जाति-भेद । पॉति= (स०) पक्ति । श्रयाने = अज्ञान । उपखानोउपाख्यान को, कहावत को । साह:स्वामी। गीत-( स०) गोत्र । पोच-नीच । का काहू के द्वार परो=क्या किसी की शरण मांगता हूँ, अथवा क्या किसी के द्वार पर रक्षा पाने के लिए, धरना दिए बैठा हूँ। भावार्थ- मुझे जाति-भेद का धमड नहीं, न मैं किसी को जाति-पाति चाहता हूँ। न किसी से मेरा कोई कार्य सिद्ध होता है, न मै ही किसी का कुछ प्रयोजन साध सकता हूँ। मेरा तो लोक और परलोक दोनों ही रामचद्रजी के हाथ हैं और मुझे तो केवल रामनाम का बड़ा भरोसा है। लोग अत्यंत मूर्ख हैं जो इस कहावत को नहीं समझते कि सेवक भी स्वामी के ही गोत्र का होता है 1 सजन हूँ अथवा दुर्जन, मला हूँ चाहे बुरा, मुझे इसकी परवाह नही । क्या मैं किसी के दरवाजे धरना दिए पड़ा हूँ। मै जैसा कुछ भी हूँ, रामचंद्र जी का हूँ; अन्य किसी से मुझे कोई सम्बन्ध नहीं। गूल-कोंऊ कहै करत कुसाज दगाबाज बड़ो, . कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है। साधु जानै महासाधु, खल जाने महा खल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है। चहत न काहू सों, न कहत काहू की कछु, सब की सहत उर अंतरान ऊब है। 'तुलसी' को भलो पांच हाथ रघुनाथ ही के, राम की भगति भूमि मेरी मति दूब है ॥१६॥ शब्दार्थ-कुसाज = कुसग, बुरी वस्तुओं का संग्रह । खरो खूब है = अत्यंत निष्कपट है। बानी बाते । इबूब - (श्र हुबाब=पानी के बुलबुले) चर्चा | ऊब घबराहट । भावार्थ- कोई कहते हैं कि वह तुलसी बुरी वस्तुओं का संग्रह करता है, अतः बड़ा छली है, और कोई कहते हैं कि यह राम का सच्चा सेवक है।
सजन तो मुझे (तुलसीदास को) बड़ा भारी सज्जन समझते हैं और दुष्ट खोग दुर्जन ही समझते हैं। इस प्रकार करोड़ों भॉति की झूठी सच्ची चर्चाएँ उठती रहती हें। पर मैं न किसी से कुछ चाहता हूँ, न किसी के विषय में कुछ भला बुरा ही कहता हूँ। सबका कथन सुन लेता हूँ, चित्त में कोई घबराहट नही है। मेरा तो भला-बुरा सब श्रीरामचद्रजी के ही हाथ है। रामचंद्रजी की भक्ति भूमि है जिसमे मेरी बुद्धि दूब होकर जमी है (अर्थात् मेरी बुद्धि रामचद्रजी की भक्ति में ही लगी हुई है)।

मूल—जागै जोगी जंगम, जती जमाती ध्यान धरैं,
डरै उर भारी लोभ मोह कोंह काम के।
जागै राजा राजकाज सेवक समाज साज
सौचै सुनि समाचार बड़े बैरी बाम के।
जागै बुध बिद्याहित पंडित चकित चित,
जागै लोभी लालच धरनि धन धाम के।
जागै भोगी भोग ही, बियोगी रोगी सोगबस,
सोबै सुख 'तुलसी' भरोसे एक राम के ॥१०६॥

शब्दार्थ—जोग= योगी। जगम= भ्रमण करनेवाले संन्यासी। जती= (यती) संयमी। जमाती= समूह में रहनेवाले संन्यासी। बाम= कुटिल। भोग ही= भोग करने के लिए।

भावार्थ—योगी, जगम, यती, जमायती आदि संन्यासी जागते रहते हैं क्योकि वे एक तो परमेश्वर के ध्यान में लगे रहते हैं और दूसरे लोभ, मोह, क्रोध और काम से हृदय में सदा डरते रहते हैं (कहीं वे उनको अपने वश मे न कर ले, इस भय से वे सदा सावधान रहते हैं। राजा लोग अपने राजकाज की चिता के कारण जागते रहते हैं और सेवकगण अपने कामकाज की देख-भाल के लिए जागते रहते हैं; वे अपने बड़े कुटिल शत्रु के समाचार सुनकर (उसके निवारण का उपाय) सोचते रहते हैं। बुद्धिमान् पंडित जन सावधान चित्त से विद्योपार्जन के लिए जागते रहते हैं। लोभी जन, भूमि और घर के पाने के लालच के वश होकर जागते रहते हैं। सुख-भोग करनेवाले सुख भोग करने के लिए और विरदी और रोगी शोक के कवितावली कारण जागते रहते हैं, परतु मै ( तुलसीदास) केवल रामचंद्रजी के भसेसे सुख से सोता हूँ। (छप्पय छद) राम मातु, पितु, बंधु, सुजन, गुरु पूज्य, परम हित । साहेब सखा सहाय नेह नाते पुनीत चित । देस कोस कुल कर्म धर्म धन धाम धरनि गति । जाति पॉति सब भॉति लागि रामहिं हमारि पति । परमारथ स्वारथ सुजस सुलभ राम ते सकल फल । कह 'तुलसिदास' अब जब कबहुँ एकाराम ते मोर मल ॥११०॥ शब्दार्थ-सुजन-( स० स्वजन) आत्मीय । हित = हितकारी, मित्र । साहेब- स्वामी। लेह - (सं०) स्नेह । नाता= सबध । 'पुनीत- पवित्र । कोस=(कोष खजाना । गति-पहुँच, शरण । पति= प्रतिष्ठा । परमारय = मोक्ष । स्वास्थ लौकिक सुख । भावार्थ-मेरे माता, पिता, बधु, आत्मीय, पूज्य गुरु, परम हितकारी, स्वामी, सखा, सहायक और जहाँ तक पवित्र मन से स्नेह के सबंध हैं सब कुछ रामनन्द्रजी ही हैं । देश, कोष, वश, कर्म, धर्म, धन, घर, पृथ्वी मेरी पहुँच और सब प्रकार से मेरी जाति-पॉति की प्रतिष्ठा रामचद्रजी ही तक है। स्वार्थ परमार्थ, सुयश आदि सब फल राम-कृपा से ही सुलभ हैं। तुलसीदास कहते हैं कि इस समय या जब कभी हो, मेरा भला एक रामचंद्रजी से ही 'हो सकता है। मूल-महाराज बलि जाउँ राम सेवक-सुखदायक । महाराज बलि जाउँ राम सुन्दर सब लायक। महाराज बलि जाउ राम सब संकट मोचन। मराज बलि जाउँ राम राजीव-विलोचन । बलि आउँ राम करुनायतन प्रनतपाल पातफहरान । "बलि जाउँ राम कलि-भय-बिकल 'तुलसिदास' राखिय सरन ॥११॥ 'शब्दार्थ---राजीव - कमल । राजीव-विलोचनकमल के समान अखिों वाले। करुनायतन-करुणा के घर । प्रनतपाल = प्रणत (शरणागत) उत्तरकांड १८५ भावार्थ-हे सेवकों को सुख देनेवाले महाराज रामचद्रजी. मैं आपकी बलि जाऊँ। सदर और सब प्रकार से समर्थ महाराज रामचंद्रजी, मैं आपकी बलि जाऊँ। हे सब सकटो से छुड़ानेवाले महाराज रामचद्रजी, मै आपकी बलि जाऊँ। हे कमलनेत्र महाराज रामचंद्रजी. मैं श्रापकी बलि जाऊँ। हे दयालु शरणागत-रक्षक, पापो को दूर करनेवाले रामचद्रजी, मै आपकी बलि जाऊँ। हे रामचन्द्रजी, मै श्रापकी बलिहारी जाऊँ कलियुग के मय से व्याकुल इस तुलसीदास को शरण मे लीजिए। मूल-जय ताड़का-सुबाहु-मथन, मारीच-मानहर। मुनि-मख-रच्छन-दच्छ, सिलातारन करुनाकर । तृपगन-बलमद सहित संभु-कोदंड-विहंडन । जय कुठारधर-दर्पदलन, दिनकरकुल-मंडन । जय जनकनगर-श्रानंदप्रद, सुखसागर सुखमाभवन । कह तुलसिदास' सुर-मुकुटमनि जय जय जय जानकिरवन ॥११२।। शब्दार्थ--मानहर-धमड चूर करनेवाले। मख =(सं० यज्ञ। दन्छ-(स० दक्ष) चतुर । सिलातारन -शिलारूप में परिणत अहल्या का उद्धार करनेवाले। करुनाकर -(करुणा+आकर-खदान) दयालु । कोड-धनुष । बिहडन-(विखडन) तोड़नेवाले कुठारधर-परशुराम । मंडन-भूषण । सुखमा%3D(१० सुषमा ) अत्यत शोभा। आनकि-रवन- (जानकी-रमण) रामचद्रजी। भावार्थ-ताड़ का और सुबाहु को मारने वाले और मारीच का दर्प दूर करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। विश्वामित्र मुनि के यश की रक्षा करने में चतुर, शिलारूप में परिणत अहल्या के उद्धार करनेवाले, दयासागर रामचंद्रजी की जय हो । राजसमूह के धमड सहित शि धनुष को तोड़नेवाले (अर्थात् राजाश्रो के बल का घमड चूर कर शिवधनुष को तोड़नेवाले), परशुराम के दर्प का नाश करनेवाले, सूर्य-कुल को भूषित करनेवाले रामचद्रजी की जय हो । जनकपुरी को आनंद देनेवाले, सुख के सागर और अत्यन्त सुन्दर रामचन्द्रजी की जय हो। तुलसीदास कहते हैं कि देवताओ में श्रेष्ठ बानकीपति रामचन्द्रजी की जय हो, जय हो, जय हो। १८६ कवितावली अलंकार-अाशिषालकार ( केशव के मत से) मूल-जय जयत-जयकर, अनंत, सज्जन-जन-रजन । जय बिराध-बध-बिदुप, बिबुध-मुनिगन भय-भंजन । जय निसिचरी-विरूप-करन रघुबंस-विभूपन । सुभट चतुर्दस-सहस-दलन निसिरा खर दूषन । जय दंडकबन-पावन-करन तुलसिदास' संसय-समन । जग बिदित जगतमनि जयति जय जय जय जय जानकिरमन ।।११।। शब्दार्थ-अयन्त =इंद्र का पुत्र । अनत = जिसका श्रत न पाया जाय । सजन-जन-रजन = सज्जन गणो को अानदित करनेवाले । बिराध-बध बिदुष- बिराध नामक राक्षस के वध करने में निपुण । विबुध%3(विशेष प्रकार से बुद्धिमान् ) देवता। निसिचरी-बिरूप-करन = शूर्पनखा को (उसके नाक कान काटकर) कुरूपा कर देनेवाले । सुभट योद्धा। पायन - पवित्र । ससथ- समन =(संशय-शमन) सदेह को दूर करनेवाले । विदित =प्रख्यात, प्रकट । बगतमनि = ससार में सबसे श्रेष्ठ । भावार्थ-जयंत पर जय प्राप्त करनेवाले, अन त और सज्जनगणों को श्रानन्दित करनेवाले रामचंद्रजी की जय हो । विराध को मारने मे पडित और देवता और मुनिगण का भय दूर करनेवाले रामचद्रजी की जय हो । शूर्पनखा को कुरूप करनेवाले रघुवंश के विभूषण-स्वरूप रामचद्रजी की जय हो। त्रिशिरा, खर, दूषण के चौदह सहस्र योद्धाओं को मारनेवाले रामचद्रजी की जय हो । दडकारण्य को पवित्र करनेवाले और तुलसीदास के सब सदेहो को दूर करनेवाले रामचन्द्रजी की जय हो । ससार मे प्रख्यात जगत्मारिए सीतापति रामचंद्रजी की जय हो, जय हो, जय हो, जय हो। मुल-जय मायामृग सथन गीध-सबरी-उद्धारन । जय कबंध-भूदन बिसाल तरु-ताल-बिदारन । दवन बालि बलसालि, थपन सुग्रीव, संत-हित। कपि-कराल-भट-भालु कटक पालन, कृपालु चित । जय सियबियोग-दुखहेतु-कृत-सेतु-बंध बारिप-दमन । दससीस-बिभीषन अभयप्रद जय जय जय जानकिरमन ॥११४॥ शब्दार्थ—मायामृग-मथन= माया से हरिण बने हुये मारीच को मारने वाले। कबंध-सूदन= कबंध नामक राक्षस को मारनेवाले। तरुताल= सात ताल के वृक्ष। दवन= (दमन) मारनेवाले। थपन= स्थापित करनेवाले। सत-हित सज्जनों के हितकर्ता। कटक= सेना। सियबियोग दुख-हेतु-कृत-सेतु बघ= सीता के वियोग के दुःख के कारण किया है सेतु बध जिसने ऐसे रामचद्रनी (बहुव्रीहि समास)। बारिधि= समुद्र। दससीस-विभीषन अभयप्रद= रावण से भयभीत विभीषण को अभय देनेवाले।

भावार्थ—कपट के मृग को मारनेवाले, गृद्धराज जटायु और शबरी का उद्धार करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। कबध नामक राक्षस को मारनेवाले और बड़े भारी (सात) ताल के वृक्षों को (एक बाण से) गिरा देनेवाले रामचद्रजी की जय हो। बली बालि को मारनेवाले, सुग्रीव को राजगद्दो पर स्थापित करनेवाले, सज्जनो के हितकर्ता, वानर और भयकर योद्धा भालुओं की सेना के रक्षक, दयालु रामचद्रजी जी की जय हो। सीता के वियोग के दुःख के कारण सेतु बँधानेवाले और समुद्र का दमन करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। रावण द्वारा भयभीत विभीषण को अभय देनेवाले जानकीपति रामचद्रजी की जय हो, जय हो, जय हो।

मू०—कनक-कुधर केदार, बीज सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक-धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर।
तीरथपति अंकुर-सरूप, जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकत-मय साखा-सुपत्र, 'मंजरि सुलच्छि जेहि।
कैवल्य सकल फल कल्पतरु सुभ सुभाव सब सुख बरिस।
कह 'तुलसिदास' रघुवंसमनि तौ कि होहि तुव कर सरिस॥११५॥

शब्दार्थ—कनक-कुधर-केदार= सुमेरु पर्वत रूपी क्यारी में। कनक= सोना। कुधर= (कु= पृथ्वी+धर) पर्वत। केदार= क्यारी। सुरमनिवर= चितामणि। कामधुक= कामनाओ की दुहनेवाली अर्थात् मनोरयों को पूर्ण करनेवाली। धेनु= गाय। कामधुकधेनु= कामधेनु नाम की देवताओं की एक गाय। सुधामय= अमृतमय। पय= दुग्ध। बिसुद्धतर= अति शुद्ध। तीरथपति= प्रयागराज। जच्छेस= यक्षो के स्वामी, कुवेर। रच्छ= रक्षा करते हो। मरकत= पन्ना। मजरि= बौर। लच्छि
=लक्ष्मी। कैवल्य (स०)= मोक्ष। बरसि= बरसावे। सरिस= (स० सदृश) समान।

भावार्थ—समेरु पर्वत रूपी क्यारी मे चितामणि रूपी श्रेष्ठ बीज बोया जाय, उसको कामधेनु के अत्यन्त शुद्ध अमृतमय दूध से सीचे, तीर्थराज प्रयाग उसके अकुर स्वरूप उत्पन्न हों, कुवेर उसकी रखवाली करते हों, पन्ना रत्न ही जिसकी शाखा और पत्र हो और लक्ष्मी ही जिसकी सुन्दर मंजरी हो, ऐसा सुन्दर स्वभाववाला, सब सुखो को बरसानेवाला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि सब फलों का देनेवाला जब कोई कल्पवृक्ष हो, तब भी (तुलसी-दास कहते हैं कि) हे रामचद्रजी, क्या वह दान देने में आपके हाथ की बराबरी कर सकता है (अर्थात् नहीं)?

अलंकार—समस्तवस्तु विषयक साग रूपक से पुष्ट अतिशयोक्ति।

नोट—अत्यत ऊँची कल्पना है। इसी प्रकार को एक दूसरी कल्पना सीताजी के सौदर्य के विषय में रामायण के बालकाड मे है जिसका आरभ— “जो छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई” से होता है।

मूल—जाय सो सुभट समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय विषय-बासना न छंडै।
जाय धनिक बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महिं।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं।
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दास ‘तुलसी’ कहै जौ न रामपद नेह नित॥११६॥

शब्दार्थ—जाय= व्यर्थ। पाइ रन रारि न मडै= युद्ध करने का सुअवसर पाकर भी युद्ध न करे। जती= सयमी। विषय-वासना= सासारिक वस्तुओं के सुख-भोग की इच्छा। छंडै= छोड़े। रत= अनुरक, लगा हुआ। पति न हित= पति प्यारा न हो।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि वह शक्तिमान् योद्धा व्यर्थ है जो युद्ध करने का सुअबसर पाकर युद्ध न करे। वह सयमी व्यर्थ कहाता है जो सासारिक विषय-भोग से विरक्त न हो। दान न देनेवाला धनवान व्यर्थ है। धर्महीन निधन व्यर्थ है। वह पंडित भी व्यर्थ है जो पुराणों
का अध्ययन करने पर भी पुण्य कर्म में नहीं लगता। माता-पिता की भक्ति से रहित पुत्र व्यर्थ है। वह स्त्री भी व्यर्थ है जिसको पति से प्रेम न हो। परन्तु यदि रामचंद्रजी के चरणो से नित्य स्नेह नही है तो उपर्युक्त सब ही व्यक्ति व्यर्थ हैं।

अलंकार—तुल्ययोगिता।

मूल—को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहिं कीन्हों?
को न लोभ दृढ़ फंद बॉधि त्रासन कर दीन्हों?
कौन हृदय नहि लाग कठिन अति नारिनयन-सर?
लोचनजुत नहि अध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नागलोक-महिमंडलहु को जो मोह कीन्हों जय न?
कह 'तुलसिदास' सो ऊवरै जेहि राख राम राजिवनयन॥११७॥

शब्दार्थ—निरदह्यो= जलाया सतप्त किया। त्रासन= भयभीत। कौन= किसके। नारिनयन सर= स्त्रियो के कटाक्ष। लोचनजुत= लोचनयुक्त होंते हुए भी। श्री= लक्ष्मी, धन-सपत्ति। नागलोक= पाताल। ऊपरै= छूट जाता है, बच जाता है।

भावार्थ—ऐसा कौन है जिसको क्रोध ने नही जलाया? काम ने किसको वश में नही किया? लोभ ने दृढ़ फदे में बाँधकर किसको भयभीत नहीं किया? स्त्रियों के तीव्र कटाक्ष ने किसके हृदय में कुछ असर नहीं किये? धन वैभव पाकर ऑख होते हुए भी कौन मनुष्य अधा नहीं हुआ? स्वर्ग, पाताल और पृथ्वीमडल में ऐसा कौन है जिसको मोह ने न जीता हो? (तात्पर्य यह कि ऐसा कोई भी नही जो काम, क्रोध, लोभ, मोह और स्त्री के वश में न हुआ हो) तुलसीदास कहते हैं कि इनसे तो वही बच सकता है जिसको कमलनेत्र रामचन्द्रजी अपनी शरण में ले ले।

अलंकार—काकुवक्रोक्ति।

मूल—
(सवैया)

भौंह-कमान-सॅधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बान तें बाँचे।
कोप कृसानु गुमान अवॉ घट ज्यों जिनके मन आँच न आँचे।
लोंभ सबै नट के बस ह्वै कपि ज्यों जग मे बहु नाच न नाँचे।
नीके हैं साधु सबै 'तुलसी', पै तेई रघुबीर के सेवक साँचे॥११८॥

१७ एक "उत्तरकांड शब्दार्थ-भौह-क्रमान-सॅधान सुठान =भौह रूपी धनुष से अच्छे प्रकार किया गया है संघान जिनका । नारि-बिलोकनि-बान-स्त्रियो के कटाक्ष रूपी बाण | कोप-कृसानु - कोप रूपी अग्नि । गुमान-अवाँ = अहकार रूपी भट्ठी में। ऑच न ऑचे गरमी से सतप्त न हुए।। भावार्थ-जो साधु स्त्रियो के भौह रूपी धनुष मे अच्छे प्रकार सधान किए हुए कटाक्ष रूपी बाणों से बच गए हो (अर्थात् उनके लक्ष्य न हुए हो). अहकार रूपी भट्ठी में क्रोध रूपी अग्नि की आँच से जिनके मन घड़े की तरह न तपे हों, लोम रूपी नट के वश मे होकर जो ससार मे अनेक प्रकार नाच न नाचे हो (अर्थात् लोभ के कारण जिन्होंने अनेक भाँति के कृत्य न किए हों), तुलसीदास कहते हैं कि वे ही माधु रामचद्रजी के सच्चे सेवक हैं: यो तो सब साधु अच्छे कहे ही जाते हैं। (मनहरण कवित्त) भेष सुबनाइ, सुचि बचन कहैं चुवाइ, जाइ तौ न जरनि धरनि धन धाम की। कोटिक उपाय करि लालि पालियत देह, मुख कहियत गति राम ही के नाम की। प्रगटै उपासना, दुरावै दुरबासनाहि, ___ मानस निवास-भूमि लोभ, मोह काम की। राग रोष ईरषा कपट कुटिलाई भरे, __ 'तुलसी' से भगत भगति चहैं राम की ! ॥११॥ शब्दार्थ-मेष सुबनाइ सुन्दर साधुओं का सा वेष बनाकर । चुवाइ% शात और मधुर करके । गति = पहुँच, शरण । उपासना- पूजा-पाठ, भक्ति। दुरावै-छिपाता है। दुरबासनाहि दुर्वासना को, बुरी इच्छाओ को। मानस =मन । निवास-भूमि-रहने का स्थान । राग = साचारिक विषयों से प्रेम । रोष - क्रोध । ईरषा-(स० ईर्ष्या) पराई उन्नति देखकर जलना। भावार्थ-मन से पृथ्वी, धन और घर की चिता नही छूटती, पर सुन्दर साधुओं का वेष बनाकर मुख से शात और मीठे वचन बनाकर कहते हैं । करोड़ों प्रकार के भले बुरे उपायों से अपनी देह का लालन-पालन करते हैं पर मुख से कहते हैं कि हम तो राम नाम की शरण हैं। उपासना को तो प्रगट
करते हैं, पर अपने मन मे कुवासनाओ को छिपाए रखते हैं। मन तो लोभ, मोह और काम का निवासस्थान ही है। इस प्रकार के राग, रोष, ईर्ष्या, कपट और कुटिलता से भरे तुलसीदास के समान भक्त भी राम की भक्ति चाहते हैं। क्या ही आश्चर्य की बात है!

मूल—काल्हि ही तरुन तन, काल्हि ही धरनि धन,
‘काल्हि हो जितौंगो रन’, कहत कुचालि है।
‘काल्हि ही साधौं गो काज’, काल्हि ही राजा समाज,
मसक ह्वै कहै ‘भार मेरे मेरु हालि है’।
‘तुलसी’ यही कुमॉति घने घर घालि आई;
घने घर घालति है, घने घर घालि है।
देखत सुनत समुझत हू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न ‘कालहू को काल काल्हि है’॥१२०॥

शब्दार्थ— साधौगो= सिद्ध करूँगा। मसक= मच्छर। हालिहै= हिल जायगा। यही कुभाँति= इसी प्रकार की दुबुद्धि। घने= बहुत, असख्य। घालना= नष्ट करना। सूझै न= समझ में नहीं आता।

भावार्थ— कुचाली लोग कहते है कि कल ही हमारे शरीर मे यौवन आएगा, कल ही पृथ्वी और धन पैदा करेगे, कल ही युद्ध मे जय प्राप्त करेंगे, कल ही अपने सब कार्य साधन कर लेगे और कल ही राज-समाज जोड़ लेंगे (अर्थात् राजा हो जाएँगे)। मच्छर के समान छोटे होकर भी कहते हैं कि हमारे बोझ से सुमेरु पर्वत भी हिल जायगा। तुलसीदास कहते हैं कि यही दुर्बुद्धि बुरी तरह से असख्य घरो को नष्ट कर आई, अनेक घर उजाड़ रही है, और अनेक घरो को उजाड़ेगी। ऐसा सब देखते-सुनते और समझते हुए भी किसी की बुद्धि मे यह न सूझा और न किसी ने कभी यह कहा कि ‘कल ही काल (मौत) का भी काल है।’ (कौन निश्चय है कि ‘कल’ आवेगा ही, संभव है श्राज ही अतिम दिवस हो)।

मूल—भयो न तिकाल तिहूँ लोक ‘तुलसी’ सो मंद,
निदै सब साधु, सुनि भालौं न सकोचु हौं।
जानत न जोग, हिय हानि सानै जानकीस,
काहे को परेखो पातकी प्रपंची पोचु हौं।


पेट भरिवे.के काज महाराज को कहायों,
महाराज हू कह्यो है, ‘प्रनत बिमोचु हौं’।
निज अघ-जाल, कलिकाल की करालता,
बिलोकि होत व्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥१२१॥

शब्दार्थ—तिकाल= त्रिकाल (भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनो कालों में)परेखो= उलाहना। पातकी= पापी। प्रपची= छली। पोचु= नीच। प्रनत= भक्त, शरणागत। प्रनत-बिमोचु= भक्तो को सकट से छुड़ानेवाला। अघजाल= पापो का समूह ।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि मेरे समान तीनो कालो मे (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनो लोको मे (स्वर्ग, मर्य, पाताल) कोई बुरा नही हुआ, इसलिए सब सजन लोग मेरी निदा करते है पर मै इस पर कुछ भी सकोच नहीं मानता। रामजी मुझे अपने योग्य नही मानते, इसलिए मुझे अपनाने में अपनी हानि (बदनामी) समझते है। अतः जानकीश, मैं आपको क्योकर उलाहना दूँँ। मै वास्तव मे पापी, छली और नीच हूँ। मै अपना पेट भरने के लिए आपका कहलाता हूँ, और आपने भी कहा है कि “मै शरणागतो को संकट से बचानेवाला हूँ।” परतु मै अपने असख्य पाप, और उस पर कलियुग की कड़ाई देखकर व्याकुल होता हूँ। इसी कारण मुझे चिंता है।

मूल—धरम के सेतु जगमंगल के हेतु भूमि,
भार हरिबे को अवतार लियो नर को।
नीति औ प्रतीति-प्रीति-पाल प्रभु चालि मान,
लोक बेद राखिबे को पन रघुबर को।
बानर बिभीषन की ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंग सुने अंग जरै अनुचर को।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि,
‘तुलसी’ तिहारो घरजायऊ है घर को॥१२२॥

शब्दार्थ—धरम के सेतु= धर्म की मर्यादा। हेतु= कारण। पन= प्रण। कनावड़े= एहसानमंद, ऋणी। प्रसंग= कथा, वार्ता। अनुचर= सेवक (तुलसीदास)। घरजायऊ= घरजाया, गुलाम। भावार्थ—श्रीरामचद्रजी धर्म की मर्यादा हैं। उन्होने संसार का मंगल करने और पृथ्वी का भार हरण करने के लिए मनुष्य का अवतार लिया है। प्रभु की चाल है कि विश्वास और प्रीति का पालन करते हैं। लोक और वेदों की मानरक्षा करना रामचंद्रजी का प्रण है। तुलसीदास कहते हैं कि हें रामचद्रजी, आप विभीषण और वानरो के ऋणी हैं, यह कथा सुनकर मुझ सेवक को ईर्ष्या होती है (कि मेरे भी ऋणी क्यो न हुए)। अतएव, मैं आपकी बलैया लूँ, अपने प्रण की रक्षा करके जो हो सके वही कीजिए। मैं तो आपके घर का घरजाया सेवक हूँ।

मूल—नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर,
सब ही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर,
ताहि लगि रक ज्यों सनेह को ललात हौं।
'तुलसी' बिलोकि कलिकाल की करालता,
कृपालु को सुभाव समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भॉति को, तिलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोच, स्वामी-सोच ही सुखात हौं॥१२३॥

शब्दार्थ—नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर= उर (में) महाराज के नाम के सग नीको निबाह कीजै। बार यहि= इस बार। चखकोर कीजै= सुदृष्टि फेरिए। ताहि लगि= उस सुदृष्टि के लिए। रक ज्यों= दरिद्र की तरह। सनेह= घी। ललात हौ= इच्छुक रहता हूँ। लोक एक भॉति को= लोग बहुत बुरे हो गए हैं। तिलोकनाथ लोकबस= क्या त्रिलोकानाथ भी लोगो की तरह हो गए?

भावार्थ— रामचद्रजी के नाम के साथ अच्छे प्रकार निर्वाह करनेवाला (अर्थात् रामनाम जपनेवाला) सबको मन से अच्छा लगता है, पर मैं लोगों को अच्छा नही लगता, अतः हे रामचद्रजी, इस बार मेरी ओर अपनी शुभ दृष्टि फेरिए। आपकी उस सुदृष्टि के लिए मै उसी प्रकार लालायित रहता हूँ जैसे दरिद्री घृत के लिए (अच्छे पकवानों का) इच्छुक रहता है। तुलसीदास कहते हैं कि कलियुग की इस करालता को देख कर (अर्थात् घोर कलियुग देखकर) और कृपालु रामचद्रजी का स्वभाव समझकर (अर्थात् रामचन्दजी</small </noinclude>
पापियों का उद्धार करनेवाले है यह समझकर) मै सकुचता हूँ (कि रामचन्द्रजी किस किस का उद्धार करेंगे और उनमें मेरा नबर कैसे आवेगा?)। संसार के लोग तो बहुत बुरे हो गये हैं, पर क्या त्रिलोकीनाथ भी वैसे ही हो गए हैं? हे स्वामी, मुझे अपने बुरे होने का सोच नही, मै तो आपके सोच से सूखा जाता हूँ (कि लोग यह कहने लगेगे कि रामजी भी कलियुग में अपना सुभाव छोड़कर ऐसे करुणारहित हो गए कि अपने भक्त तुलसी को न तार सके)।

नोट—निहायत उत्तम व्यग्य है।

मूल—तौ लौं लोभ-लोलुप ललात लालची लबार,
बार बार लालच धरनि धन धाम को।
तब लौं बियोग-रोग सोग, भोग जातना को,
जुग सम लगत जीवन जाम जाम को।
तौ लौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु,
‘तुलसी’ है किकर बिमोह कोह काम को।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौ लौं जग भयो न बजाइ राजा राम को॥१२४॥

शब्दार्थ—तौ लौं= तब तक। लोलुप= इद्रिय-सखों का लालची। लबार= झुठा। जातना= (स० यातना) कष्ट। जुग= युग। जाम=(याम) प्रहर। तनु= शरीर। किंकर= सेवक। निरापने= (निर्+आपने) अपने नहीं अर्थात् पराये। जन= भक्त। बजाइ= डके की चोट, खुल्लमखुल्ला। जौ लों= जब तक।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि जब तक मनुष्य खुल्लमखुल्ला राजा रामचंद्रजी का भक्त नहीं हो जाता तभी तक वह इंद्रिय सख-लोलुप, टुकड़े-टुकड़े को लालायित्त रहनेवाला, धन-संपत्ति का लालची, बार बार झठ बोलनेवाला और पृथ्वी, धन तथा घर का लालची रहता है। तभी तक बियोग और रोग का शोक रहता है, तभी तक कष्ट भोगने पड़ते हैं, और पहर पहर का जीवन युग के समान प्रतीत होता है, तभी तक दुःख और दारिद्रथ नित्य ही शरीर को अतिशय कष्ट देते हैं, तभी तक वह लोभ, मोह, काम और क्रोध
का दास रहता है जिससे सब दुःख तो अपने हो जाते हैं और सब सुख पराये हो जाते है।

अन्वय—तौ लो लोभ, मोह, कोह, काम को किंकर है। प्रथम पाद में ‘लोभ’ का समन्वय तृतीय पाद के उत्तरार्द्ध से करना ठीक है।

मूल—तब लौ मलीन हीन दीन, सुख सपने न,
जहाँ तहाँ दुखी जन भाजन कलेस को।
तब लौं उबेने पायँ फिरत पेटै खलाय,
बाए मुँह सहत पराभौ देस देस को।
तब लौं दयावनो, दुसह दुख दारिद को,
साथरी को सोइबो, ओढी़बो झूने खेस को।
जब लौं न भजै जीह जानकीजीवन राम,
राजन को राज सो तौ साहेब महेस को॥१२५॥

शब्दार्थ—उबेने पायँ= नगे पाँव। पेटै खलाय= लोगों को अपना खाली पेट दिखाकर। चार मुँँह= मुँँह खोलकर। पराभौ= (सं० पराभव) तिरस्कार, अपमान। दयावनो= दया का पात्र। साथरी= चटाई। झूने= झीने, झाझरे, बारीक। खेस= पुरानी रुई के पहले का बना हुआ खुरदुरा कपड़ा। जीह= जिह्वा। साहेब= स्वामी।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि तभी तक मनुष्य पापी, दीन, हीन रहता है, (तभी तक) स्वप्न में भी उसे सुख नहीं मिलता, (तभी तक) वह दुःखी मनुष्य जहाँ कहीं भी जाता है क्लेश का पात्र होता है, तभी तक वह नगे पाँव, भूखे पेट और मुँँह खोले हुए भटकता हुआ जगह जगह अपमान सहता है, तभी तक वह दयापात्र है, (तभी तक) उसे दरिद्रता का असह्य दुःख है, (तभी तक) उसे चटाई पर सोना और बारीक खुरदुरे कपड़े को ओढ़ना पड़ता है, जब तक उस मनुष्य की जीभ जानकीपति रामचन्द्रजी को न भजे, जो राजाओ के भी राजा और महादेवजी तक के स्वामी हैं।

मूल—ईसन के ईस, महाराजन के महाराज,
देवन के देव, देव! प्रान हूँ के प्रान हौ।
काल हू के काल, महाभूतन के महाभूत,
कर्म हूँ के करम, निदान के निदान हौ।

१६६

कवितावली निगम को अगम, सुगम 'तुलसी' हू से को, एते मान सीलसिधु करुनानिधान हो। महिमा अपार काहू बोल को न वारापार, बड़ी साहिबी में नाथ बड़े सावधान हो ॥१२६॥ शब्दार्थ-महाभूत = पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पच महा- भूत हैं। महाभूतन के महाभूत =पंच महाभूतो से संपूर्ण सृष्टि बनती है उन पंच-महाभूतों के भी श्रादि कारण । निदान कारण निगम वेद । अगम जहाँ कोई न जा सके, जिसकी थाह कोई न ले सके । एते मान = इतने । बोल वचन। भावार्थ--तुलसीदास कहते हैं कि देव रामचंद्रजी, श्राप समर्थों के भी स्वामी हैं, महाराजाओं के भी महाराजा है, देवताओं के भी देवता हैं, प्राणों के भी प्राण है, काल के भी काल हैं, पंच महाभूतो के भी आदि कारण है. कर्म के भी कर्म हैं और कारण के भी कारण हैं। आप वेद को भी अगम हैं और मुझ ऐसो को (भक्तों को) सुलभ हैं। श्रापकी महिमा अपार है, आपके किसी वचन का वारापार नही (अर्थात् आपकी आशा अटल है)। हे स्वामी, आप अपने इस बड़े प्रभुत्व को निबाहने में बड़े सावधान हैं। अलंकार—अत्युक्ति। मूल- (मत्तगयंद सवैया ) भारत-पालु कृपालु जो राम, जेही सुमिरे तेहि को तहँ ठाढ़े। नाम प्रताप महा महिमा, अकरे किये खोटेउ, छोटेउ बाढ़े। सेवक एक तें एक अनेक भए 'तुलसी' तिहुँ ताप न डाढ़े। प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन ते परमेसुर काढ़े ॥१२७|| शब्दार्थ---भारत-पालु-दुःखियो के रक्षक । जेहि-जिसने भी । सुमिरे स्मरण किया। ॲकरे(स० अक्रय) महँगा। खोटेउ =निकम्मे भी। तिहुँ ताप - दैहिक, दैविक, भौतिक तीन प्रकार के ताप । डाढ़े दग्ध, जले हुए। बदौ = मानता हूँ। पाहन %=(सं० पाषाण) पत्थर । काढ़े निकाले, प्रकट करा दिया। भावार्थ-तुलसीदास कहते हैं कि रामचन्द्रजी कृपालु और दुखियों के रक्षक है । जिसने भी (जिस स्थान पर) उनका स्मरण किया, उनके लिए उसी स्थान पर उपस्थित हो जाते हैं। रामनाम के प्रताप की महिमा बड़ी भारी है। इसने खोटो को भी बहुमूल्य और छोटो को भी बड़ा कर दिया। यद्यपि सेवक तो एक से एक बढ़कर अनेक हुए जो तीनो तापों से दग्ध नहीं हुए, पर मैं तो प्रह्लाद का ही प्रेम श्लाघनीय मानता हूँ जिसने पत्थर से भी परमेश्वर को प्रकट करा दिया।

मूल
 

काढ़ि कृपान, कृपा, न कहूँ पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
'राम कहाँ? 'सब ठाँउ है' 'खंभ में?' 'हाँ' सुनि हाँक नृकेहरि जागे।
बैरी विदारि भए बिकराल, कहे प्रहलादहि के अनुरागे।
प्रीति प्रतीति बढ़ी 'तुलसी' तब तें सब पाहन पूजन लागे॥१२८॥

शब्दार्थ―काढ़ि= निकालकर। कृपान= (सं० कृपाण) तलवार। ठाँउ= स्थान। नृकेहरि= नसिंह अवतार। जागे= प्रकट हुए। बिदारि= फाड़कर, विदीर्ण करके।

भावार्थ=हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए तलवार खीची। उसने अपने पुत्र पर कुछ भी कृपा न की, परन्तु प्रह्लाद भयकर काल के समान अपने पिता को देखकर भगे नहीं। हिरण्यकश्यप ने पूछा, "बता तेरा रक्षक राम कहाँ है (इस समय तुझे क्यो नहीं बचाता)?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया, "मेरे राम सर्वत्र विराजमान हैं।" हिरण्यकश्यप ने पूछा, "क्या इस (जिसमें प्रह्लाद को बाँधा था) खभे में भी है?" उसने उत्तर दिया, "हाँ।" प्रह्लाद की इस 'हाँ' को सुनते ही नरसिंह खभा फाड़कर प्रकट हो गए और हिरण्यकश्यप को अपने नखो से विदीर्ण करके बड़े भयकर बन गए, परन्तु प्रह्लाद की विनय से फिर भक्त के प्रेम के कारण शात हो गए। तुलसीदास कहते हैं कि तब से भगवान् पर सबका प्रेम और विश्वास बढ़ गया, और इसी कारण तब से लोग पत्थरो को (उनमे ईश्वर का अस्तित्व समझकर) पूजने लगे।

विशेष―तुलसीदासजी ने इस छंद द्वारा बड़ी युक्ति से मूर्तिपूजा का समर्थन किया है।

मूल-अंतरजामिहु ते बड़ बाहरजामि हैं राम, जे नाम लिये तें।
धावत धेनु पन्हाइ लवाई ज्यो बालक बोलनि कान किये ते।

कवितावली

आपनी बूझि कहै 'तुलसी, कहिबे की न बावरी बात बिये तें। पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें न हिये तें ॥१२६।। __ शब्दार्थ--अतर्जामी = अतस् ही में जानने योग्य, निर्गुण । बाहर- जामी-बाह्य जगत् म जानने योग्य, सगुण रूप। धेनु गाय । पन्दाइ =थन मे दूध उतारती हुई । लवाई = हाल की ब्याई हुई गाय । बावरी =पागलपन की सी बुरी। बिये ते= दूसरे से । पैज-(सं० प्रतिज्ञा, (प्र० पइज्जा )। भावार्थ-ईश्वर के निगुण रूप से सगुण रूप श्रेष्ठ है, क्योंकि सगुण रूप ईश्वर नाम लेते ही अपने भक्त पर कृपा करने को उसी प्रकार दौड़ पाते हैं जैसे हाल की ब्याई हुई गाय दूर से अपने बछडे का रेभाना सुनते ही स्तनो में दूध उतारकर दौड़ी पाती है। तुलसीदास कहते हैं कि मैं अपनी समझ से कहता हूँ, अपनी पागलपने की सी बाते दूसरे से कहने योग्य नहीं हैं। प्रसाद की प्रतिमा का निर्वाह करने के लिए भगवान् पत्थर से प्रकट हुए, न कि हृदय से। बालक बोलि दियो बलि काल को, कायर कोटि कुचाल चलाई। पापी है बाप, बड़े परिताप ते आनो ओर ते खारिन लाई। भूरि दई विषमूरि, भई प्रहलाद सुधाई सुधा को मलाई । रामकृपा 'तुलसी' जन को, जग होत भले को भलोई भलाई ॥१३०॥ शब्दार्थ-बालक-पुत्र (प्रह्लाद) । खोरि न लाई कसर न की । भूरि = बहुत । सुधाई - सीधेपन के कारण । सुधा=अमृत । जन-भक्त। भावार्थ-हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बुलाकर काल को बलि दे दिया। उस कायर ने पुत्र को मारने के लिये करोड़ों कुचाले चली। वह बड़ा पापी पिता था, अतः उसने अपने पुत्र को बड़े बड़े कष्ट देने में अपनी श्रोर से कुछ कसरन की। प्रह्लाद को बहुत सी विष-सूले दी, पर प्रह्लाद की सिधाई के कारण वह भी अमृत की मलाई के समान गुणकारी हुई । तुलसी- दास कहते हैं कि इसका कारण भकों पर रामचन्द्र जी की कृपा है, और ससार में रामकृपा से भले आदमी को मलाई ही भलाई है। उत्तरकांड कंस करी ब्रजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई। पांडु के पूत सपूत, कुपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई । कान्ह कृपाल बड़े नतपालु गए खल खेचर खीस खलाई। ठीक प्रतीति कहै 'तुलसी' जग होइ भले को भलोई भलाई ॥१३१॥ शब्दार्थ--सुजोधन = दुर्योधन का ही नाम है। भो = हुा । कलि छोटो = कलियुग का छोटा भाई । छलाई छल मे। कान्ह %= कृष्णजी। नतपालु-शरण में आए हुए के रक्षक 1 नत = मुका हुअा (सं० नम्= झुकना) । खेचर-(खे=आकाश मे चर-भ्रमण करनेवाले ) राक्षस घमडी वा अत्याचारी। खीस गए 3 नष्ट हो गए। खलाई = दुष्टता के कारण । भावार्थ-कस ने व्रजवासियों से बहुत बुरा व्यवहार किया, पर (अज- वासियो के रक्षक कृष्णा थे, अतः) उसके किए कुछ न हो सका, पाडु के पुत्र सुपुत्र थे, और कुपुत्र दुर्योधन तो बन करने में इतना निपुण था मानो वह कलियुग का छोटा भाई हो; (पर कृष्णजी पाडवो के सहायक थे अतः उनको कुछ भी हानि न पहुँचा सका) कृष्णजी बडे कृपालु और शरणागतो के रक्षक हैं. श्रतः अपनी दुष्टता के कारण दुष्ट अत्याचारी नष्ट हो गए। तुलसीदास विश्वासपूर्वक ठीक कहते हैं कि संसार में भले को भलाई ही भलाई है। अवनीस अनेक भए अवनी जिनके डर ते सुर सोच सुखाहीं। मानव-दानव-देव-सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं। ते मिलए धरि धूरि, सुजोधन जे चलते बहु छत्र की छॉही। बेद पुरान कहै, जग जान, गुमान गबिदहि भावत नाहीं ॥१३२॥ शब्दार्थ-अवनीस =(सं० अवनि - पृथ्वी+ईश ) राजा । दानव = कश्यप की दनु माम्नी स्त्री से उत्पन्न संतान दानव कहलाती है (दानव लोग भी देवताओं के वैरी थे)। सतावन - सतानेवाला । घाटि रच्यो-बुराई का आयोजन किया। ते-वे। जग जान ससार भी जानता है। गुमान अभिमान | भावत - अच्छा लगना । जे चलते बहु छत्र की छॉही = जिनके कवितावली ऊपर राजछत्र सदा छाया रहता था, छत्र की छाया मे चलने के कारण जिन पर धूल भी नहीं पड़ने पाती थी। भावार्थ-इस पृथ्वी मे अनेक बड़े बड़े राजा हुए हैं जिनके डर के कारण देवता शोच से सूख जाते थे। मनुष्य, दानव और देवताश्रो का सतानेवाला रावण, जिसने स सार में बुरा आयोजन किया, और दुर्योधनादिक बड़े बड़े प्रतापशाली राजा, जिनके ऊपर सदा राजछत्र तने रहते थे, केवल अभिमान के कारण धूल मे मिल गए । वेद और पुराणों ने भी कहा है. और सारा संसार भी इस बात को जानता है कि भगवान् को घमड अच्छा नही लगता। मूल--- जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी। नहिं जान्यो बियोग सो रोग है आगे झुकी, तब हौं तेहि सों तरजी। अब देह भई पट नेह के घाले सों, ब्योंत करै बिरहा दरजी। ब्रजराज-कुमार बिना सुनु, भृङ्ग अनङ्ग भयो जिय को गरजो॥१३३।। शब्दार्थ-ठई-ठानी । स्याम-कृष्ण । स्यानी%3D(स. अज्ञान चतुर। हौ-मुझे । बरजी-मना किया, प्रीति करने से रोका । जान्यौ=जानती है मुकी =नाराज हुई । तरजी-दड दिया, निरादर किया। पट = वस्त्र नेह के घाले सो= स्नेह करने से । ब्योंत करे-काट-छॉट करता है, दुबला बना देता है। बिरहा दरजी-विरह रूपी दरजी । भृक्ष-भौरा । अनंग-कामदेव । जिय को गरजी = प्राणो का ग्राहक । प्रकरण-कृष्णजी के मथुरा जाने पर गोपियाँ कृष्ण के विरह में व्याकुल थीं। कृष्ण ने उद्धवजी को गोपियो को समझाने के लिए भेजा। उद्धवजी उनको प्रेम-मार्ग छोड़कर योग-मार्ग मे जाने का उपदेश देने लगे। अतः प्रेम-मार्ग की उपासिका गोपियाँ उद्धव को भ्रमर मानकर उलाहना देती हैं। ऐसे काध्य को 'भ्रमर-गीत' कहते हैं । इसके आगे के २ छद और भी 'भ्रमर- गीत के हैं। भावार्थ-एक गोपी उद्धव को भ्रमर सज्ञा देकर कहती है-जब मेरे इन नेत्रों ने ठग कृष्ण से प्रीति लगाई तब चतुर सखी ने मुझे (कृष्ण से प्रीति करने से मना किया। उसने अप्रसन्न होकर कहा कि नहीं जानती कि आगे उत्तरकांड वियोग रूपी कोई रोग भी है। तब मैंने उसको निरादर रूपी दंड दिया। अब मेरा शरीर स्नेह करने के कारण वस्त्र के समान हो गया है और विरह रूपी दरजी उस वस्त्र की काट लॉट करता है (तात्पर्य यह है कि विरह के कारण मेरी देह दुर्बल होती जाती है)। हे भ्रमर । सुनो, नद के कुमार श्रीकृष्ण के बिना कामदेव हमारे प्राणों का ग्राहक हो गया है (अर्थात् कृष्ण के वियोग के कारण हमारे प्राण छूटना चाहते हैं )। जोग-कथा पठई, ब्रज को, सब सो सठ चेरी की चाल चलाकी । ऊधो जू क्यों न कहे कुबरी जो बरी नटनागर हरि हलाकी। जाहि लगै पर जाने सोई 'तुलसी' सो सुहागिनि नंदलला की। जानी है जानपनी हरि की, अब बांधियैगी कछु मोदि कला की ॥१३४॥ शब्दार्थ—पठई = भेजी । सठ चेरी = दुष्टा दासी अर्थात् कुब्जा, कुबड़ी । चाल चलाकी = ( मुहावरा ) धूर्तता, चालाकी की चाल । कुबरी - (१) कुबड़ी, (२) कु (बुरी)+बरी (ब्याहा)। जो= जिसको । बरी- ब्याहा । नटनागर चतुर खिलाड़ी। हलाकी मार डालनेवाला, घातक । जाहि लगै पर जानै सोई - जिस पर बीतती है वहीं जानता है। सुहागिनि = सौभाग्यवती । जानमनी = ज्ञानपना, ज्ञानीपन । हरि = कृष्ण । बॉ धियेगी= (हम भी) बाँधेगी। मोटि गठरी। भावार्थ-हे उद्धवजी । कृष्ण ने व्रज को ( श्रापके द्वारा हमें सिखलाने को ) योग की कथा भेजी है, वह सब उसी दुष्टा कुबड़ी की धूर्तता है, जिसने चतुर खिलाड़ी और घातक कृष्णा को भी एक दृष्टि देखते ही वरण कर लिया। भला वह कुबरी क्यो न ऐसा सदेश भेजे । परतु जिस पर बीतती है वही जानता है कि वियोग की व्यथा क्या पदार्थ है। वह तो कृष्ण की सौभाग्यवती ( सयोगिनी ) है। (हमारे वियोग के दुःख को क्या समझे)। अब हमने कृष्ण का शानीपन जान लिया है। ( वे उसकी कुबड़ी पीठ देखकर लुब्ध हो गए)। अतः हम भी किसी कला की गठरी अपनी पीठ पर बाँध लेगी। (मनहरण कवित्त) पठयो है छपद छबीले कान्ह कैहूँ कहूँ,

खोजि कै खवास खासो कबरी सी बाल को।


ज्ञान को गढ़ै या, बिनु गिरा को पढ़ैया, बार-
खाल की कढ़ैया, औ बढ़ैया उर-साल को।
प्रीति को बधिक, रसरीति को अधिक, नीति,
निपुन-बिबेक है, निदेस देसकाल को।
‘तुलसी’ कहे न बनै, सहे ही बनैगी सब,
जोग भयो जोग को, बियोग नंदलाल को॥१३५॥

शब्दार्थ— पठयो है= भेजा है। छपद = (सं० षट्पद) भ्रमर। छवीले= छबिवाले, सुँँदर। कैहूँ= किसी प्रकार से। कहूँ= कही से। खोजि कै= ढैढकर। खवास= सेवक। खासी= प्रसिद्ध। बाल= (सोलह वर्ष की स्त्री बाल कहलाती है) युवती स्त्री। ज्ञान को गढ़ैया= ज्ञान की बाते बनानेवाला। गिरा= बाणी बिनु गिरा को पढ़ैया= बिना वाणी के पढ़नेवाला। बारखाल को कढ़ैया= बाल की खाल खीचनेवाला। उर-साल को बढै़या= हृदय के कष्ट को बढानेवाला। प्रीति को वधिक= प्रीति की हत्या करनेवाला। अधिक= और भी अधिक (हत्यारे से भी बढ़कर)। निदेश= आज्ञा। जोग= संयोग, अवसर।

भावार्थ— छबीले कृष्ण ने, किसी प्रकार (बड़ी मुश्किल से) कही से खोजकर कुबड़ी के उत्तम सेवक को भ्रमण रूप से भेजा है। यह भ्रमर गढ़ गढ़ कर ज्ञान की बाते करनेवाला, बिना वाणी के ही पढ़नेवाला (केवल गुजार करनेवाला) बाल की खाल खीचनेवाला और हृदय की पीड़ा को बढ़ानेवाला है। यह प्रीति का वधिक है और इस रीति (श्रृङ्गार भाव) के लिए तो हत्यारे से भी बढ़कर है, नीति में निपुण और विवेकी है, सो यह बात देश और काल की आज्ञा के अनुसार ही है (हमारा समय ही ऐसा बुरा आ गया है) अतः इसकी बातों का उत्तर देना ठीक नहीं, सब सह लेना ही ठीक है, क्योकि जब नदलाल से वियोग हो गया, तब योग करने का सयोग आ ही गया। (अब उनके बियोग में योगिनी बनना ही उचित है)।

अलंकार—हेतु (द्वितीय)—'नंदलाल का वियोग ही योग का संयोग होने से।

मूल—हनुमान ह्वै कृपालु, लाड़िले लखन लाल,
भावते, भरत कीजै सेवक सहा य जू।

उत्तरकांड

२०३ बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो, बिगरे ते आपु ही सुधारि लीजै भाय जू। मेरी साहिबनी सदा सीस पर बिलसति, देबि क्यों न दास को दिखाइयत पाय ज। खीमहू में रीझिबे की बानि, राम रीझत हैं, रीम है हैं राम की दुहाई रघुराय जू ॥१३६।। शब्दार्थ? =होकर । लाडिलै-प्यारे । भावते -प्यारे । बिगरे ते = बिगड़ने से, अर्थात् यदि मुझमे बिनती न करते बनी हो । भाय जू = भाईजी। साहिधिनी =स्वामिनी । बिलसति = विशेष प्रकार से लसती है अर्थात् शोभा- यमान है। खीझह मे- क्रोध में भी। रीझिये की बानि = प्रसन्न होने के स्वभाव से ! रीझ है हैं = प्रसन्न हुए होंगे। भावार्थ-हे इनुमानजी, हे प्यारे लक्ष्मणजी, हे प्यारे भरतजी, कृपालु होकर मुझ सेवक की सझयता कीजिए। मैं दीन, दुर्बल और दया का पात्र श्रापसे विनती करता है। अगर मुझसे विनती करते न बनी हो तो आप चात सुधार लीजिएगा । हे मेरी मालकिन सीताजी, (अथवा तुलसीजी आप तो सदा ही सब की शिरोभूषण हो, अतः हे देवि, मुझ दास को अपने चरण क्यों नहीं दिखलाती ( दर्शन क्यो नही देती)। श्रीरामजी का तो यह स्वभाव है कि वे क्रोध में भी रीझते हैं। अतएव मै रामचद्रजी की शपथ लेकर कहता हूँ कि रामचद्रजी मुझसे प्रसन्न ही होगे (अतः आप भी सिफारिश कर दीजिए तो मेरा काम बन जाय)। मूल-- (मत्तगयद सवैया) बेष बिराग को, राग भरो मनु, माय ! कहौं सतिभाव हौं तोसों। तेरे ही नाथ को नाम लै बेचि हौं पातकी पामर प्राननि पोसों। एते बड़े अपराधी अघी कह, तें कहु अंत्र ! कि मेरो तू मोसों। स्वारथ को परमारथ को परिपूरन भो फिरि घाटि न होसों ॥१३७॥ शब्दार्थ-राग-सासारिक सुखों से प्रेम । सतिभाव= सत्य भाव से, निष्कपट मन से । पामर-नीच । पोसों - पुष्ट करता हूँ, पालन करता है। एते-इतने । अघी-पापी || घाटि-कमती । घाटिन होसों-कमती न होगी। २०४ कवितावली भावार्थ-तुलसीदास कहते है कि हे माता, मैं आपसे शुद्ध चित्त से कहता हूँ कि यद्यपि मेरा वेष वैरागियो का सा है तथापि मन अभी सासारिक सुखो मे लगा हुआ है। मै नीच पापी आपके ही स्वामी रामचद्रजी का नाम बेचकर अर्थात् राम के नाम पर भीख मांगकर अपने प्राणो की रक्षा करता हूँ। हे माता, इतने बड़े अपराधी और पापी से तू कह दे, 'तू मेरा है तो बस फिर स्वार्थ और परमार्थ सब पूरे हो जाएंगे, किसो बात की कमतीन होगी (ऐसा मेरा विश्वास है)। मूल- (कवित्त-सीतामढी का वर्णन) जहाँ बालमीकि भए ब्याध ने मुनींद्र-साधु, 'मरा-मरा' जपे सुनि सिख ऋषि सात की। सीय को निवास लव-कुस को जनमथल, ____ 'तुलसी' छुवत छाँह ताप गरे गात की। बिटप-महीप सुरसरित-समीप सोहै, सीताबद पेखत पुनीत होत पातकी । बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी-चरन-जलजात की॥१३८।। शब्दार्थ-सिख = (स.) शिक्षा । ऋषि सात की = सप्तर्षियों की। गरगल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। गात = ( स० गात्र ) शरीर । बिटप =(स.) वृक्ष । सुरसरित = गगाजी। सीनाबट%Dउस वृक्ष का नाम जहाँ सीताजी रही थी। पेखत%=(H० प्र+ईद ) देखने से। बारिपुर - ग्राम विशेष । दिगपुर ग्राम विशेष । जलजात = कमल । अकित = चिह्नित। भावार्थ-जिस स्थान पर सप्तर्षियों का उपदेश सुनकर 'मरा मरा' (रामनाम का उल्टा) जपने से ही वाल्मीकि जी वधिक से सजन और मुनियों में श्रेष्ठ हो गए, जो स्थान सीता के रहने की जगह थी, जो लवकुश की जन्म भूमि थी, जिस स्थान की छाया के स्पर्श से भी शरीर के (दैहिक, दैविक, भौतिक ) तीनों प्रकार के बाप नष्ट हो जाते हैं, जिस भूमि पर गंगाजी के समीप सीतावट नामक वृक्षो का राजा (अर्थात् अति श्रेष्ठ वृक्ष) शोभायमान है, जिसको देखने से ही पापी पवित्र हो जाता है, और उत्तरकांड जो सीताजी के चरण-कमलों से चिह्नित है (अर्थात् जिस स्थान पर सीनाजी के चरण पड़े हैं) 'सीतामढी' नामक यह भूमि बारिपुर और दिगपर के बीच शोभायमान है। नोट-यह स्थान फँसो से कुछ दूर पूर्व भीटी' नामक स्टेशन के पास गगातट पर है। 'दिगपर' को अर'दीप' वा 'दिधउर' कहते हैं। 'वारिपुर' का मुझे पता नहीं चला। मूम-मरकत-बरन परन, फल मानिक से, लसै जटाजूट जनु रूख वेष हरु है। सुषमा को ढेरु, कैधौं सुकृत सुमेरु कैधौं, ___ संपदा सकल मुद-मंगल को घर है। देन अभिमत जो समेत प्रीति सेइये, प्रतीति मानि 'तुलसी' विचार काको थर है? सुरसरि निकट सोहावनी अवनि सोहै. राम-रमनी को बद कलि कास-तम है ।।१३६।। शब्दार्थ-मरक्त-वरन - पन्ना रन के समान अर्थात् हरे वर्ण के। वरन%=(स० वर्ण) रंग। परन % (स० पण) पत्ते । लसै = सुशोभित है। रूख =(स- वृक्ष प्रा. रुक्ख) पेड़। हरु = शिवजी। सुखमा(सं० सुषमा) परम शोभा (अत्यत शोभा को 'सुषमा' कहते हैं। सुकृत-मुमेरु पुण्यो का पर्चत । सुमेरु = यहाँ 'पर्वत' अर्थ में प्रयुक्त है । मुद -( स०) श्रानद । अभि मत-मन का इच्छित पदार्थ । काको थरु है - यह किसका स्थान है , वनि से यह अर्थ निकलता है कि यह स्थान सब मनोरथो को पूर्ण करनेवाली जगज्जननी सीताजी का है. किमी ऐसे वैसे का नहीं)। अवनि-पृथ्वी । राम- रमनी = सीताजी । कलि-कलियुग मे । कामतर = मनकामनाओं को देने- वाला कल्पवृक्ष । भावार्थ-(सीतावट के) पन्ना के रग के पचे और माणिक-समान फल हैं। उस पर जटाजूट ऐसे शोभायमान हैं मानों साक्षात् शिवजी वृक्ष के वेष में विराजे हो, यह वृक्ष अत्यंत शोभा का ढेर है, या पुण्यों का पर्वत है, अथवा सपत्ति और स पूर्ण श्रानन्द-मगल का घर है। अगर प्रीति-सहित उसकी सेवा करो वह स पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करता है। तुलसीदास
कहते हैं कि वह स्थान किसका है (अर्थात् सब मनोरथो की दात्री जगज्जननी सीताजी का है। वह विचार कर मेरी बात पर विश्वास करो। गगा के निकट सुन्दर (सीतामढी नामक) स्थान मे वह सीतावट शोभायमान है, जो कलियुग में कल्पवृक्ष है।


मूल—देवधुनी-पास मुनिबास सी-निवास जहॉ,
प्राकृत हूँ बट बूट बसत पुरारि है।
जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठ,
रागिन पै सीठि, डोठि बाहरी निहारिहै।
‘आयसु’,‘आदेस’,‘बाबा’,‘भलो भलो’,‘भाव सिद्ध’,
‘तुलसी’ बिचार जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतन को सौ कामतरु ते अधिक,
सियबट सेए करतल फल चारि है॥१४०॥

शब्दार्थ—धुनी= (स०) नदी। देवधुनि= गंगाजी। सी= सीताजी। प्राकृत वट= साधारण वट वृक्ष। बूट= वृक्ष। पुरारि= त्रिपुर नामक दैत्य के अरि शिवजी। पीठ= पवित्र स्थान। रामिन पै= सासारिक विषयो से अनुरक्तों के लिए। सौठि= नीरस। डीठि= (स०) दृष्टि। ‘आयसु•••••••••••• ‘भावसिद्ध’= साधु सन्तो की बोलचाल के वाक्य, अर्था वहाँ के रहनेवाले इसी प्रकार के शिष्ट और मधुर शब्दो का व्यवहार करते हैं। करतल फल चारि हैं= धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो फलो का पाना तो इतना सुलभ है जैसे हथेली में रखी हुई वस्तु का पाना अर्थात् अत्यंत सुलभ है। अधिक= इस कारण कि कल्पवृक्ष केवल अर्थ, धर्म काम का देनेवाला है, पर यह वट मोक्ष भी देता है।

भावार्थ—साधारण वट वृक्ष भी शिव का निवास माना जाता है, फिर यह बट तो गंगा के निकट है, जहाँ मुनियो की कुटियाँ हैं और जहाँ सीताजी का निवास स्थान रहा है। वह स्थान योग, जप और यज्ञ करने के लिए और वैराग्य साधन के लिए पवित्र है। पर सासारिक सुखो में लिप्त और बाहरी दृष्टि से देखनेवालों के लिए वह स्थान नीरस है। तुलसीदास कहते हैं कि वहाँ ऐसे योगी वसते हैं जो परस्पर शिष्टाचारसूचक ‘आयस’, ‘आदेश’, ‘बाबा’, ‘भलो भलो’, ‘भावसिद्ध’ आदि शब्दों का व्यवहार करते हैं? अर्थात्
अत्यत शिष्ट साधुजन का निवास वहाँ अब भी है)। रामभक्कों के लिए तो यह सीतावट कल्पवृक्ष से भी बढ़कर है, और इसकी सेवा करने से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो फल करतलगत (अत्यत सुलभ) हो जाते हैं।

अलकारसमुच्चय और व्यतिरेक।

मूल—
(चित्रकूट-माहात्म्य)


जहाँ बन पावनो, सुहावने बिहंग मृग,
देखि अति लागत अनंद खेत खूँट सो।
सीतारामलषन निवास, बास मुनिन को,
सिद्ध साधु साधक सबै बिबेक बूट सो।
झरना झरत भारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिना मजुल सहेस जटाजूट सो।
'तुलसी' जो राम सो सनेह साँचो चाहिये,
तौ सेइये सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो॥१४१॥

शब्दार्थखेत खूट सी= खेत के टुकड़े की भाँति अत्यत हरा भरा। विवेक= भले बुरे का ज्ञान। बूट= वृक्ष। बारि (स०)= जल। मजुल= सुंदर। सेइये= सेवा कीजिए।

भवार्थजहाँ पवित्र वन है, सुन्दर सुहाबने पक्षी और पशु हैं, जिस स्थान को खेत के टुकड़े की भाँति हरा-भरा देखकर अत्यंत आनंद होता है, जहाँ सीताराम और लक्ष्मण रहते थे, जो मुनियों का वासस्थान है जो सिद्ध, साधु और साधक सभी के लिए ज्ञान रूपा वृक्ष है (अर्थात् जहाँ सभी ज्ञान प्राप्त करते हैं), जहाँ ठडा और पवित्र जल गिराते हुए झरने झरते हैं, जहाँ महादेवजी के जटाजूट से निकली हुई सुन्दर मदाकिनीजी है (यथा-सुरसरिधार नाम मदाकिनि), तुलसीदास कहते हैं कि अगर रामचद्रजी से सच्चा स्नेह चाहते हो तो स्नेहपूर्वक ऐसे (उपयुक्त प्रकार के) विचित्र चित्रकूट पर्वत की सेवा करो (अर्थात् वहाँ रहो)।

मूल—मोहबन कलिमल-पल पीन जानि जिय,
साधु गाय बिप्रन के भय को नेवारि है।
दीन्ही है रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल,
लषन समर्थ बीर हेरि हेरि मारिहै।

</noinclude> २०६ उत्तरकाड क्यों कहि जाति महा सुषमा, उपमा तकि ताकत है कवि की की । मानों लसी 'तुलसी हनुमान हिये जगजीति जराय को चौकी ॥ १४३॥ श्दार्थ-दवारि= बन की अन्नि | ठही %Dटहकर, जमकर, अच्छी तरह। लक्ष्की ==लहकाई, प्रज्ज्वलित की । खर-खौको =तृण यो खानेवाली अर्थात् आग। चारु =सुन्दर। चुवा=चौवा, चतुष्पद (मृगादि) । लपटै= ज्वालाएँ । तमीचर=राक्षस । तौंकी= तौककर, आँच से तपकर | की की=कच की, बरडी देर से । तकितर्कना करके, विचार करके लसी %=3D शोभायमान हुई | जराय की चौकी= जड़ाऊ चौकी, नगदार पदिक । সकरणएक समय चित्रकूट में इनुमानधारा के पास दावाग्नि लगी । तुलसीदासजी उस समय वहाँ उपस्थित ये उसी दृश्य का वर्णन इस छुद में है । भावार्थ-पहाड़ में दाबाग्नि खूब श्रच्छी तरह से इस प्रकार लगी हुई है जैसे इनुमान ने लका मे आग लगाई थी | दावाग्नि के ताप से तपकर सुन्दर पशु चारो ओर को इस प्रकार भागे जाते हैं, जैसे लका में आग की ज्वालाओ की लपक से तपकर राक्षस लोग इधर उधर भगे थे । उस समय की शत्यधिक सुघमा का वर्णन कैसे किया जाय । कवि ( तुलसीदास ) उसकी उपमा को विचारते हुए बड़ी देर से ताकता रह गया है । जन्न कोई उपमा न सूझी तब (तुलसीदास ) उत्प्रेक्षा करते हैं कि नानो संसार भर में सर्वोत्तम विजयी होने के कारण हनुमानजी के हृदय में रामचद्रजो की ओर से जड़ाऊ पदिक ( पुरस्क्रार-स्वरूप ) शोभावमान है। अलंकार-उत्प्रे्ष । (गगा-यमुना सगम-वर्णन ) मूल-- देव कहै अपनी श्रपना अवलोकन तीरथराज चलो रे। देखि मिटैं अपराध , निमज्त साधु-समाज भलो रे । सोहै सितासित को भिलिबो, 'तुलसों' हुलसे हिय हेरि हलोरे । भानों हरे तृन चारु चरै बगरे सुरधेतु के धौल कलोरे।। १४४ । शब्दार्थ-अपनी अपनापरस्पर। अरवलोकन=दर्शन को। तीरथ- राज =प्रयाग। निमज्त=स्नान करते हैं। सितासित( सित=सफेद+
असित= काला)। हुलसै= उल्लसित होता है, आनदित होता है। हेरि= देखकर। हलोरे= तरगे। चारु= सुन्दर। बगरे= फैले हुए। सुरधेनु= कामधेनु। धौल= (स० धवल) सफेद। कलोरे= बछड़े।

भावार्थ—सब देवता परस्पर कहते हैं कि तीर्थराज प्रयाग के दर्शन को चलो। प्रयाग-राज के दर्शन से बड़़े बड़े अपराध नष्ट हो जाते हैं। वहाँ साधुओं के समूह स्नान करते हैं। श्वेत जलवाली गंगा और नीले जल बाली यमुना का सगम अति ही सुहावना है। उस स्थान पर दोनों नदियो की तरगें देखकर मेरा (तुलसीदास का) मन आनदित होता है। वह दृश्य ऐसा दिखलाई देता है मानो इधर उधर फैले हुए कामधेनु के सफेद बछडे (गंगा की तरगें) सुन्दर हरे हरे तृणो को (यमुना की तरगो को) चर रहे हैं।

नोट—सगम में यसुना की लहरे गंगा की लहरो मे लीन हो जाती हैं (यमुनाजी गंगाजी मे लीन हो जाती हैं) अत्यत विचारपूर्ण और उत्तम उत्प्रेक्षा है।

अलंकार—उत्प्रेक्षा ।

मूल—देवनदी कहँ जो जन जान किये मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले, झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सॅवारे।
पूजा को साज विरंचि रचै, ‘तुलसी’ जे महातम जाननहारे।
ओक की नींव परी हरिलोक बिलोकत गंग तरग तिहारे॥१४५॥

शब्दार्थ—देवनदी= गंगा। उधारे= उद्धार किया। सुरनारि= यहाँ अप्सराओं से तात्पर्य है। सुरेस= इंद्र। विरंचि= ब्रह्मा।ओक= घर। हरिलोक= बैकुठ।

भावार्थ—ज्यो ही किसी ने गगास्नान को जाने की इच्छा की त्यों ही उस मनुष्य के करोड़ पीढ़ी के पुरषा तर जाते हैं। उसको गगास्नान करने को चला हुआ देखकर अप्सराएँ उसको वरण करने के लिए झगड़ने लगती हैं। इद्र उसको स्वर्ग में ले जाने के लिए विमान सजाकर तैयार करने लगते हैं। ब्रह्मा जो गंगा का माहात्म्य जानते हैं उसकी पूजा करने की सामग्री एकत्र करने लगते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि हे गंगाजी, आपकी तरगों के दर्शन से ही (निकट पहुँचते ही) दर्शक के लिए बैकुठ में घर की नीव पड़ जाती है (तो स्नान करने का माहात्म्य मै क्या कहुँ?)। उत्तरकांड २११ अलंकार-अ्रत्यतातिश्योक्ति |। मूल- ब्रह्म जो व्यापक बेद कहं, गम नाहिं गिरा गुन-ज्ञान गुनी को । जो करता भरता हरता सुर-साहिब, साहिब दीन दुनो को । सोइ भयो द्रवरूप सही जुहै नाथ बिरंचि महेस मुनी को । मानि प्रतीति सदा 'तुलसी' जल काहे न सेवत देवघुनी को ॥१४६!॥ शब्दारथ-जो =जिसको । गम नाहि %3D यम्य नही है ( जिसको जान नहीं सकते ) । गिरा =सरस्वती । करता=उत्पन्न करनेाला । भरता = भरण- पोघण करनेवाला । हरता -सहार करनेवाला | दुनी - दुनिया । द्रवरूप = जल रूप । सही =सत्य ही, वास्तव में। देवधुनी ंगा । भावाथ-जिस परब्रह्म परमात्मा को वेद सर्वव्यापी कहते हैं, जिस पर - मात्मा के गुण श्रौर ज्ञान की थाह गुरगोजन और शारदा भी नही पा सके, जो ब्रह्म सृष्टि का कर्ता, भर्ता, और हरता है, देवतों में श्रेष्ठ, और दीन -दुनिया का स्वामी है, जो वास्तव मे ब्रह्मा, शिव श्रऔर मुनियो का स्वामी है, वही विष्णु भगवान् जलरूप हुए हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यह विश्वास मानकर नत्य गगा-जल का सेवन क्यों नहीं करते हो ? विशेष-गङ्गाजी विष्पु के चरणो से निकली हैं ऐसा ही माना जाता है कि मङ्गाजी परमेश्वर का द्रव रू प हैं । सूल- बारि तिहारो निहारि, मुरारि भए परसे पद पाप लहौंग । ईस ह सीस धरी पै डरौ, प्रभु की समता बड़ दोष दहौगो । बरु बारहि बार सरीर धरीं, रघुबीर को ह्रन तव नीर रहौगे । भागीरथी ! विनवा कर जोरि बहोरि न खोरि लगे सो कहोंगो।॥१४७ शब्दार्थ -बारि=जल । मुरारि=D मुर नामक दैत्य के शत्रु विष्यणु वान् । परसे=रपर्श करने से ! पद =D पैरो से। लौंमो = ( स० लमম् से लह) प्राप्त करूमा । ईस = शिव ! दीष दहौगो = दोष से दग्ध हूँगा। बरु = भले ही। बारहि बार सरीर धरौ =बार बार जन्म धारण करू 1 तीर -तट पर । बहोरि = फिर ! खोरि न लगै= दोष न लगै । भगभावार्थ—हे गंगे! यह जानकर कि तुम जलरूप ईश्वर ही हो, तुम्हें अपने चरणो से स्पर्श करने से मुझे पाप लगेगा (इसी से मै तुममे पैठकर स्नान नहीं करता), शिव के समान शिर पर धारण करते भी डरता हूँ कि बड़ो की बराबरी करने से बडे भारी दोष में दग्ध हो जाऊँगा (इसी से सिर पर भी तुम्हारा जल नही छिड़कता)। (तुम्हारा इस प्रकार अनादर करने से) मुझे भले ही अनेक बार जन्म लेना पड़े, पर मै तो रामचन्द्रजी का भक्त होकर तुम्हारे तट पर ही निवास करूँगा (स्नान चाहे ने करूँँ)। हे गगे, मै हाथ जोड़कर बिनती करता हूँँ कि जिससे फिर मुझे दोष न लगै मैं ऐसा ही सत्य वचन कहूँगा। (तात्पर्य यह कि गगातट पर रहकर भी जो मै गङ्गा- स्नान करने नही जाता उसका कारण आपका निरादर नही करन् रामभजन में संलग्नता है)।

मूल—
(कवित्ता)

लालची ललात, बिललात द्वार द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै न बिसूरना।
ताकत सराधे कै, बिबाह, कै उछाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल तूरना।
प्यासे हू न पावै बारि, भूखे न चनक चारि,
चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोक को अगार दुख-भार-भरो तौ लौं जन,
जौ लौं देवी द्रवै न भवानी अन्नपूरना॥१४८॥

शब्दार्थ—बिसूरना= चित्ता, सोच। सराध= (स० श्राद्ध) पितृकर्म। उछाह= उत्सव। डौलै= भटकता है। लोल=चंचल। बूझत सबद ढोल तूरना= ढोल और तूरी का शब्द सुनकर पूछने लगता है (कि यहाँ कोई उत्सव तो नहीं )। अहारन पहार=अहारों के पहाड़, अर्थात् अपरिमित भोजन। दारि= दाल का दाना। घूर ना= घूरे पर बिनने से भी नही मिलता। दुख-भार-भरो= दुःख के बोझ से भरा हुआ। द्रवै= पिघले अर्थात् दया करे।

भावार्थ—लालची टुकड़े-टुकड़े के लिए लालायित होकर दरवाजे दरबाजे दीन होकर विललाता है, उसका मुँह मलिन हो बाता है, और मन की चिंता
नहीं मिटती। कही श्राद्ध या विवाह या कोई उत्सव तो नहीं, इसकी टोह में लगा रहता है। अस्थिर होकर इधर-उधर फ़िरता रहता है और ढोल औंर तुरी के शब्द सुनकर पूछने लगता है कि यहाॅ कोई उत्सव तो नहीं जिसमें कुछ खाने को मिले। अत्यंत प्यासा होने पर भी उसे पीने को जल नहीं मिलता, अतिशय भूखा होने पर भी उसे खाने को चार दाने चने के नही मिलते। वह चाहता तो है अपरिमित भोजन पर उसे घुरविनिया करने पर भी एक दाना दाल का भी नहीं मिलता। ऐसा आदमी तभी तक शोक का घर है और दुःख के बोझ से दना हुआ रहता है जब तक उस पर भवानी अन्नपूर्णाजी कृपा न करें।

मूल—
(छप्पय)

भस्म अंग, मर्दन अनंग, संत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अधग भूमन भुजंगबर।
मुंडमाल बिघुवाल भाल, डमरू कपाल कर।
बिबुध-बृन्द-नवकुरुद-चद, सुखकंद, सूलधर।
त्रिपुरारि त्रिलोचत दिग्बसन विषभोजन भव-भय-हरन।
कह ‘तुलसिदास’ सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥१४६॥

शब्दार्थ—मर्दन= नाश करनेवाले। अनग= कामदेव। सतत असग= निरंतर एकात में रहनेवाले। हर= सहारकर्ता। गिरिजा= गिरि (हिमालय) की पुत्री पार्वतीजी। अधग= (सं० अर्द्धङ्ग) आधे (बाम) अग मे। भुजरावर= श्रष्ठ सॉप। बाल-विधु= द्वितीया का चन्द्रमा। भाल= मस्तक पर। डमरू= शिवजी का बाजा। कपाल= खप्पर। बिबुध-वृन्द-नवकुमुद्र-चद= देव-समूह रूपी नवीन कुमुदो को प्रफुल्ल करने के लिए चन्द्रमा के समान। सुखकद= सुख के मूल। सूल= त्रिशूल। त्रिपुरारि= त्रिपुर नामक दैत्य के शत्रु। दिग्वसन= दिशाएँ ही हैं वस्त्र जिनके, नगे।

भावार्थ—अग पर विभूति रमाए हुए, कामदेव को भस्म करनेवाले , सदा एकाकी रहनेवाले, जगत् के सहारकर्त्ता, शिर पर गंगा, बाघँ अग में पार्वतीजी को धारण किए हुए , श्रेष्ठ सर्पो के भूषण पहने हुए, गले मे मुडमाला, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और हाथो में डमरू और खप्पर लिए हुए, देवगण रूपी नवीन कुसुदो को प्रफुल्लित करने के लिए चन्द्रमा के
तुल्य, सुख के मूल, त्रिशल धारण किए हुए, त्रिपुर दैत्य के शत्रु, त्रिलोचन, नग्न, कालकूट विप को भक्षण करनेवाले, सासारिक अर्थात् जन्म-मरण के भय से छुडानेवाले और जिनकी सेवा करने से तीनो लोको तीनो कालों में कल्याण प्राप्त करना सुलभ है, तुलसीदास कहते हैं कि मै ऐसे शंकर (कल्याए-कर्ता) की शरण हूँ।

मूल—गरल-असन, दिग्बसन, व्यसन-भंजन, जन-रंजन।
कुंद-इंद-कर्पूर-गौर, सच्चिदानंद घन।
विकट बेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव, अकाम, अभिराम, घाम, नित रामनाम रुचि।
कन्दर्प-दर्पदुर्गम-दवन,उमा-रवनगुनभवन हर।
तुलसीस त्रिलोचन, त्रिगुन-पर, त्रिपुर-मथन, जय त्रिदस-बर॥१५०॥

शब्दार्थ—गरल= विष, हलाहल। असन= (स० अशन) भोजन। व्यसन-भजन= बुरे स्वभाव को तोड़नेवाले। जन-रजन= दासो को आनदित करनेवाले। कुन्द= एक सफेद फूल। इंदु= चंद्रमा। कुन्द-इंदु कर्पूर-गौर= कुन्द, चन्द्रमा और कर्पूर के समाम श्वेत वर्णवाले। सच्चिदानन्दघन= सत्, चित् और आनन्द का समूह। बिकट= भयंकर। सेष= सर्प। अकाम= इच्छा-रहित। खिव= (सं० शिव) कल्याण-स्वरूप। अभिराम= आनन्द। धाम= घर। कंदर्प= कामदेव। दुर्गम कदर्प-दर्प दबन (दमन)= कामदेव के बड़े भारी अभिमान को नाश करनेवाले। उमा-रवन= उमारमण। हर= संहार-कर्त्ता। त्रिगुन-पर= सत्व, रज, तम तीनो गुणो से परे। त्रिदस-वर= देवताओ मे श्रेष्ठ।

भावार्थ— विषभोजी, नग्न, दुःखों का नार करनेवाले, लोगों को आनन्ददायक, कुन्द, चन्द्रमा और कर्पूर के समान गौर वर्ण, सत्, चित् और आनन्द के समूह, भयकर वेष घारण किए हुए, छाती पर सॉप का जनेऊ पहने हुए, सिर पर स्वभाव से ही पवित्र गंगाजी को धारण किए हुए, कल्याणस्वरूप, इच्छारहित, आनन्द के घर, नित्य रामनाम से प्रेम करनेवाले, कामदेव के बड़े भारी अभिमान को चूर चूर करनेवाले, पार्वतीजी के स्वामी, समस्त संद्गुणों के घर, जगत् के सहार-कर्त्ता तुलसीदास के स्वामी, त्रिलोचन तस्व- </noinclude>
रज-तम इन तीनो गुणो से परे, त्रिपुर का नाश करनेवाले और देवताओं में श्रेष्ठ ऐसे शिवजी की जय हो।

'मूम—अर्थ-अंग अंगना, जोगीम जोगपति।
विषम असन, दिग-बसन, नाम बिस्वेस विस्वगति।
कर कपाल, सिर माल व्याल, बिष भूति बिभूषन।
नाम सुद्ध, अविरुद्ध, अमर, अनवद्य, अदूषन।
बिकराल भूत-बैताल-प्रिय, भीम नाम भवभय-दमन।
सब बिधि समर्थ, महिमा अकथ 'तुलसिदास' संसयसमन॥१५१॥

शब्दार्थ—अङ्गना= स्त्री। जोगीस= योगियों के स्वामी। जोंगपति= योग के पति। वषम असन= भॉग, धतूरा भोजन करनेवाले। बिस्वेस= (स० विश्वेश) संसार के स्वामी। विश्ववगति = संसार भर की शरण। व्याल= सर्प। भूति= विभूति। अविरुद्ध= जिसका कोई प्रतिद्वन्द्री न हो। अमर= कभी न मरनेवाले। अनवद्य= निंंदा के अयोग्य अर्थात् स्तुत्य, प्रशसनीय। अदूषन= दोपरहित। भीम= भयंकर। भवभय= जन्म- मरणादि के भय। महिमा अकथ= जिसकी महिमा का वर्णन नही किया जा सकता। संसय-समन= (सशय समन) सन्देह को हटानेवाले।

भावार्थ—शिवजी के बॉए अङ्ग में स्त्री विराजमान है, पर नाम है योगियों के स्वामी और योग के पति। भॉग, धतूरा आदि का भोजन करते हैं और नग्न रहते हैं, नाम है संसार के स्वामी और संसार को शरण देनेवाले। हाथ में खप्पर है, सिग में सॉपो की माला लिपटाए हुए हैं, विष (गले मे कालक्ट बिष की नीलिमा) और भस्म ही इनके अभुषण हैं, तिस पर भी नाम है शुद्ध। जिनका प्रतिद्वन्द्वी कोई नहीं हैं, जो अमर हैं स्तुति करने योग्य हैं, दोष-रहित हैं, विकराल भूत वैताल-प्रिय ऐसा भयकर नाम है, तब भी सासारिक भयों को दूर करते हैं। जो सब प्रकार से समर्थ हैं और जिनकी महिमा कही नही जा सकती, वही शकर तुलसीदास के सब्र सन्देहों को मिटनेवाले हैं।

मूल—भूतनाथ भयहरन, भीम भय-भवन भूमिघर।
भांतुमंत, भगवंत, भूति भूषन भुजग बर।

कवितावली

२१६ भव्य, भाव-बल्लभ, भवेस भवभार-बिभंजन । भूरि भोग, भैरव, शुजोग गंजन, जनरंजन । सिव, कह 'तुलसिदास' किन सजसि मन भद्रसदन मर्दैन मयन !| १५२॥ शब्दार्थ-भूतनाथ == भूतो के स्वामी। भीम =भयकर । भानुमत = प्रकाशवान् , दिव्य प्रभा से युक्त । मागवत-D ऐश्वर्थमान् । भूति= विभूति, भर्म । सुज़मवर भूषन- सपों के भूषण पहने हुए,। भव्य = सुन्दर, रोब दार । भाव-वल्लभ= प्रेम अथवा भ्ति को चाहनेवाले । भवेस-ससार के स्वामी। मवभार-त्रभजन = ससार के भार ( पाप ) की नाश करनेवाले । मूरि भोग = जिसे सब भोग मुयस्सर हैं । मैरव = भयकर शब्द करनेवाले । कुजोग- गजन= दुर्भाग्य को मिटानेवाले । जनरजन -दासो को आनदित करनेवाले । भारती=सरस्वती । भारती-बदन -मुँह पर जिनके सरस्वती है । अदन खानेवाले । सिव = कल्याणकारी । ससि-पतग पावक नयन - चन्द्रमा, सूर्य श्रौर श्ग्नि जिनकी ऑखे हैं । किन भजसि क्यों नषहीं मजता १ भद्र-सदन - भारती-बदन, बिष-अदन ससि-पतंग-पावक-नथन | कल्याण के घर । मयन =( स० मदन, प्रा० मश्रन ) कामदेव । भावार्थ-शिवजी भूत-प्रेतों के नाथ हैं, पर लोगो के भय को दूर करते हैं। वे भवंकरो के लिए भी भय के घर हैं, पृथ्वी को धारण करनेवालं हैं, प्रकाशवान् और ऐश्वर्यमान् हैं ! विभूति र श्रेष्ट सॉप ही ( उनके भूषण हैं), सुन्दर प्रेमभाव ही उनको प्यारा है । वे स सार के स्वामी और स सार के पापों को नाश करनेवाले हैं । वे भोग के भोक्ता हैं, भयंकर कुयोग के नाशक और दासों को आनद-प्रद हैं । उनके मुख मे सरस्वतीजी रहती हैं अर्थात् बडे बक्ता हैं। वे विष का भोजन करते हैं पर कल्याण-कर्ता हैं, चन्द्रमा, सूर्थ और अग्नि उनकी तीनों ऑखे हैं । तुलसीदास कहते हैं कि रे मन, दू ऐसे कल्याण के घर, कामदेव के नाशकतां शिवजी को क्यों नही मजता १ ( सवैया ) मूल নॉगो फिर", कहै माँगनो देखि " न खाँगो कछू , जनि माँ गिये थोरो । राँकनि नाकप रीमि करै, 'तुलसी' नाक सँवारता आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो । ब्रह्म कहै"गिरिजा? सिखवो , पति रावरो दानि है वावरो भोरो" ॥१५ जग जो जुरै जाचक जोरो। शब्दार्थ—न खाँगो कछु= मेरे पास (धन-सपत्ति किसी वस्तु की मी) कमी नही है। रॉकनि= रकों को, दरिद्रो को। नाकप= (स० नाक= स्वर्ग+प) इंद्र, रीझि= प्रसन्न होकर। जग जो जुरैं जाचक जोरी= संसार में जितने भी याचक जोड़े जुड़ सकते हैं, उन्हे, एकत्र करते हैं। नाक सँवार= स्वर्ग बनाते बनाते। आयो हौ नाकहि= मेरी नाक मे दम आ गया, मै हैरान हो गया। नाहि पिनाकिहि नेकु निहोरो= शिवजी मेरा थोंड़ा भी एहसान नहीं मानते। सिखवो= हटको (कि ऐसा न करे)। बावरो=बावला। भोरो= सीधा-खादा, भोला।

भावार्थ—ब्रह्माजी पार्वतीजी से कहते हैं कि हे पार्वती, अपने पति को हटको। तुम्हारा पति दानी तो है, पर साथ ही बड़ा पागल और भोला है (अर्थात् जिसको किस प्रकार दान देना चाहिए यह ज्ञान नहीं है), नंगा होकर तो इधर उधर घूमता फिरता है, पर भिखारियो को देखकर कहता है कि मेरे पास कुछ कमती नही है, अतएव जो कुछ मॉगना हो भरपूर मॉग लो, थोडा मत मॉगना। संसार के जितने भी भिखारी उसके जोड़े जुड़ सकते हैं जोड़ता है, और प्रसन्न होकर दरिद्रो को इद्र बना देता है। उन इद्रो के लिए स्वर्ग बनाते बनाते मेरी नाक में दम आ गया है, पर शिवजी मेरा जरा भी एहसान नही मानते।

मूल—
 

बिष-पावक-व्याल कराल गरे, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
भूत बैताल सखा, भव नाम दलै पल में भव के भय गाढ़े।
तुलसीस दरिद्र-सिरोमनि सो सुमिरे दुखदारिद होहि न ठाढ़़े।
भौन में भाँग, धतूरोई ऑगन मॉगे के आगे हैं मॉगने बाढे़॥१५४॥

शब्दार्थ—पावक= (सु०) अग्नि। व्याल= सॉप। गरे= गले में। तिहुँ ताप= दैहिक, दैविक, भौत्तिक तीन प्रकार के कष्ट। न डाढे़= दग्ध नही होते, पीड़ित नहीं होते। भव= (१) शिवजी का नाम (२) संसार। दलै= नाश करते हैं। गाढ़े= कठिन। भोन= (स० भवन) घर। माँगने= भिखारी। बाढ़े हैं= बढ़ गए हैं।

भावार्थ—शिवजी के कठ मे विष है, ऑखो मे अग्नि है और गले में भयकर सर्प लटकाए हुए हैं, परतु तिस पर भी शरणागत तीनों तापों (दैहिक,
दैविक, भौतिक, अथवा, विष-अग्नि सर्प) से दग्ध नहीं होते। भंयकर भूत-बैताल इनके सखा है, और नाम इसका ‘भव’ है; फिर भी संसार के बडे़ बडे़ भयो को क्षण में नाश कर देते हैं। तुलसीदास के स्वामी शिवजी स्वयं तो बड़े दरिद्री से है,पर उनको स्मरण करने से दुःख और दारिद्र्य पास भी नहीं फटकते। यद्यपि (शिवजी के) घर में भग और ऑगन में धतूरे के वृक्षों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं, तब भी इस न गे के सामने मॉगने- वालो की भीड़ लगी रहती है।

मूल—
 

सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ़यो बरदा , घरन्यौ बरदा हैं।
घाम धतूरो बिभूति को कूरो, निवास जहाँ सब लै मरे दाहैं।
व्याली कपाली है ख्याली चहूँ दिसि भाँग की टाटिन के परदा हैं।
रॉक-सिरोमनि काविनिभाग विलोकत लोकप को? करदा हैं॥१५५॥

शध्दार्थ—बरदा= (१)वर देनेवाली गड्ग, (२)बैल। घाम= घर। कूरो= देर। सब= लाश। दाहैं= जलाते हैं। व्याली= सॉपो को (भूषण की तरह) धारण करनेवाला, शिवजी का नाम। कपाली= कपाल, खप्पर) धारण किए हुए, शिवजी का नाम। ख्याली= कौतुकी। रॉक-सिरोमनि= (रकशिरोमणि) दरिद्रों में श्रेष्ठ। काकिनिभाग= एक कौड़ी पाने की योग्यता रखनेवाला। विलोकत= दयादृष्टि से देखते ही। लोकप= लोकपाल। करदा= धूल, मैल। लोकप को= लोकपाल क्या हैं। करदा हैं= धूल हैं, तुच्छ हैं?

भावार्थ—शिवजी के सिर पर वर देनेवाली गङ्गाजी विराजमान हैं, स्वयं भी वर देनेवाले (अथवा श्रेष्ठ दानी) है, वरदा (बैल) पर ही चढ़े रहत हैं, गृहिणी पार्वती भी वरदेनेवाली है। पर घर मे धतूरे और विभूति का ही ढेर हैं श्रौर निवास भी वहाँ है जहाँ मृतको के शरीर ले जाकर जलाए जाते हैं (मसान)। सर्पं और खप्पर धारण करनेवाले शिवजी बड़े कौतुकी हैं। भॉग की टट्टियों का तो घर के चारों परदा है, पर दरिद्रों में श्रेष्ठ और कौड़ी पाने की योग्य। रखनेवाले को भी देखते ही इतना संपत्तिमान् बना देते हैं कि लोकपाल भी उसके सामने क्या हैं? केवल धूल से जान पड़ते हैं।

मूल—
 

दानी जो चारि पदारथ को त्रिपुरारि तिहूँ पुर में सिर टीको।
भोरो भलो, भले भाय को भूखो, भलोइ कियो सुमिरे 'तुलसी' को।
ता बिनु आस को दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालच जी को।
साधो कहा करि साधन तैं जो पै राधो नहीं पति पारवरती को॥१५६॥

शब्दार्थ—नारि पदारथ= धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। सिर टीको= शिरोमणि! भोरो= भोले हैं। भले भाय= सद्भाव, शुद्ध भक्ति। सुमिरे= स्मरण करने से। साधो= सिद्ध किया, लाभ उठाया। राधो= आराधना की।

भावार्थ—जो त्रिपुरारि शिवजी धर्मार्थकाममोक्ष चारो पदार्थों के देनेवाले हैं, और तीनो लोको मे सबके शिरोमणि हैं, बडे भोले-भाले (अर्थात् थोढे मे प्रसन्न हो जानेवाले) हैं, अपने भक्तो मे शुद्ध भक्ति के अतिरिक्त और कुछ नही चाहते और जिन्होने केवल स्मरण करने से ही तुलसीदास का भला किया, एसे शिवजी को स्मरण करना छोड़कर तू श्राशा का दास बना रहा (अर्थात् सासारिक सुखों की आशा लगाए रहा) और तेरे मन से लालच थोड़ा भी दूर न हुआ। अगर ऐसे पार्वतीपति शिवजी की आराधना नही की तो योगादि साधनो से तूने क्या लाभ उठाया?

मूल—
 

जात जरे सब लोक विलोकि त्रिलोचन सो बिष लोक लियो है।
पान कियो बिष, भूषन भो, करुना-बरुनालय साँइ हियो है।
मेरोई फोरिबे जोग कपार, किधौं कछु काहू लखाय दियो है।
काहे न कान करो बिनती 'तुलसी' कलिकाल बिहाल कियो है॥१५७४॥

शब्दार्थ—लोकि लियो है= झपट कर ले लिया, देखकर विष का प्रभाव कम कर दिया! पान कियो= पी लिया। बरुनालय= (वरुण=जल + आलय= घर) समुद्र (वरुण जल के अधिष्ठाता देवता हैं)। करुना-बरुना-लय= दया के सागर। किधौं कछु काहू लखाई दियो है= अथवा किसी ने आपको मरा कोई दोष दिखला दिया है। कान करना= (मुहावरा) सुनना। बिहाल= व्याकुल।

भावार्थ—सब लोको को (विष से) जलता हुआ देखकर त्रिलोचन शिवजी ने उस विष को झपटकर ग्रहण कर लिया और पी गए जिससे वह
भूषण की भाँति कठ में स्थित हो गया। अतः हे स्वामी, आपका हृदय तो करुणा का समुद्र है, पर मेरा ही कपाल फोडने योग्य है (अर्थात् मै ही अभागा हूँ)। अथवा किसी ने आपको मेरा कोई अपराध दिखलाया है (जो आप मुझ पर कृपा नहीं करते)। तुलसीदास कहते हैं कि हे शिवजी, मुझे कलियुग ने पीड़ित किया है, मेरी विनती क्यो नही सुनते।

मूल—
(कवित्ता)

खायो कालकूट, भयो अजर अमर तनु,
भवन मसान, गथ गाठरी गरद की।
डमरू कपाल कर भूषन कराल व्याल,
बाबरे बड़े की रीझ बाहन बरद की।
‘तुलसी’ बिसाल गोरे गात बिलसति भूति,
मानो हिमगिरि चारु चॉदनी सरद् की।
धर्म अर्थ काम मोक्ष बसत बिलोकनि मे,
कासी करामाति जोगी जगति मरद की॥१५८॥

शब्दार्थ—कालकूट= हलाहल विष। अजर= जिसकी जरा (वृद्धावस्था) न आए। अमर= जो मरे नही। भवन= घर। मसान=(स० श्मथान) मरघट। गथ= धन। गरद= विभूति। डमरू= बाजा विशेष। रीझ= प्रसन्न होते हैं। बरद= बैल। गात= (स० गात्र) शरीर। बिलसति= सुशोभित होती है। सरद= शरद ऋतु। चारु= सुन्दर, निर्मल। बिलोकनि= दयाहृष्टि मे। जोगी मरद की करामाती कासी (मे) जगति= इस योगी व्यक्ति की अर्थात् शिवजी की उपर्युत करामात काशी मे प्रकट होती है। जगति= प्रकट होती है।

भावार्थ—शिवजी ने कालकूट विष को पिया, पर मरने के बदले उनका शरीर अजर और अमर हो गया। उनका घर श्मशान में है, भस्म की पोटली ही उनका घन है, हाथों में डमरू और खप्पर है, हाथों में डमरू और खप्पर है, भयकर सॉप उनके आभूषण हैं, बड़े भारी गौर-वर्ण शरीर में विभूति इस प्रकार शोभा देती है मानों हिमालय मे शरद् ऋतु की चादनी फैली हो; और इनकी दयादृष्टि से ही धर्मार्थकाममोक्ष प्रात्त हो जाते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि योगिराज शिवजी की सामर्थ्य काशी मे प्रकट होती है।

मूल—पिंगल जटा कलाप माथे पै पुनीत आप,
पावक नैना प्रताप भ्रू पर बरत है।
लोचन बिसाल लाल, सोहै बाल चंद्र भाल,
कंठ कालकूट, व्याल भूषण धरत है।
सुंदर दिगंबर बिभूति गात, भाँग खात,
रूरे सृङ्गी पूरे काल-कंटक हरत है।
देत न अघात, रीझि जात पात आक ही के,
भोलानाथ जोगी जब औढर ढरत है॥१५६॥

शब्दार्थ—पिंगल= भूरी। कलाप= समूह। पुनीत आप= पवित्र जल अर्थात् गंगाजी। पावक-नैना= जिसके नेत्रो में अग्नि है। भ्रू= भौंह। बरत है= बलता है, जलता है। दिगवर= नग्न। रूरे= सुन्दर। सृङ्गी= शिवजी का बाजा। पूरे= बजाकर। काल-कटक= मूत्यु और बाधा। अघात न= तृस नहीं होते। आक ही के पात= आक के पत्तें को चढ़ाने से। औढर ढरत है= बेतरह प्रसन्न होते हैं।

भावार्थ—शिवजी की भूरी जटाओ के ऊपर गंगाजी विराजमान हैं, ऑखों में अग्नि है जिसका प्रताप भौंहो पर दमकता है, बड़ी बडी लाल आँखें हैं, ललाट पर द्वितीया का चद्रमा सुराभित है, कठ में कालकूट का चिह्न वर्तमान है, सॉपों के गइने पहनते हैं, सुन्दर और नग्न शरीर में विभूति लगाए हुए हैं, भाँग खाते हैं। अच्छी तरह सिंगी बाजा बजाकर मृत्यु और बाधाओं को हरते हैं। केवल आक की पन्तियो के चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं, और जब योगी भोलानाथ बेतरह प्रसन्न होते हैं तब देते देते इनको तृप्ति ही नहीं होती।

मूल—देत संपदा समेत श्रीनिकेत जाचकनि,
भवन बिभूति, भाँग, वृषभ बहनु है।
नाम बामदेव, दाहिनो सदा, असंग रंग,
अर्द्ध अंग अंगना अनग को महनु है।
‘तुलसी’ महेस को प्रभाव भाव ही सुगम,
निगम अगम हूँ को जानिबो गहनु है।

१६ कवितावली २२२ बेष तौ भिखारि को, भयंक रूप संकर, दुयालु दीनबंधु दानि दारिद -दहनु है |॥१६०॥ शब्दार्थ-श्रीनिकेत्त =( श्री 3 लक्ष्मी+ निकेत -धर ) बैकठ | र्षम रग= एकात प्रेमी। गना=स्त्री, पावेतीजी ! महनु=(स० मथन) नाशक । भाव = ग्रेम, भक्ति । निगम- केद । अ्रगम= शास्त्र | जामित्रो 3D जानना । गहनु है= कठिन है | भयक = डरावना । सकर = (में ० श=कल्याण+ कर) कल्याणकारी । दहनु = जलानेवाले । भावार्थ-शिघजी के धर मे तो विभूति, भाग और वैल की सबारी ही है, पर याचचकों को धन-संपत्ति सहित लक्मी का घर ( बैकुठ ) ही दे डालते हैं | नाम तो वामदेव है पर सदा दाहिने रहते हैं ( अर्थात् भकतो पर सदा श्रनुकूल रहते है )। एकाकी रहना पसद् है, आधे शरीर मे स्त्री ( पार्वती ) पर कामदेव को भस्म करनेवाले हे । तुलसीदास कहते हैं कि शिवजी का हैं, प्रभाव भक्ति से ही सुगम हो सकता है, क्योकि उन्हे जानना शास्त्र र वेद के लिए भी कठिन है । उनका वेप तो भिखारियों का सा है, रूख मयकर है , पर वे कल्याण-कर्ता, दयालु, दीनो के बधु और दानी है औ दरिद्रता को दूर करनेवाले हैं । मूल-चाहै न अनंग-अरि एकौ अंग सरान को, बानि सो । देबोई पै जानिये सुभाव-सिद्ध बारिबुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिए तौ, देत फल चारि, लेत सेवा साची (मानि सेो । 'तुलसी' भरोसो न भवेस भोलानाथ को तौ, कोटिक कलेख जरौ, मरौ छर छानि सो । दुख-दोष-दाह-दाबानल, दुनी न द्यालु दूजो दानि सूलपानि सो ॥१६१ शब्दार्थ-अनंग-अरि=कामदेव के शत्रु, शिवजी । एकौ अ- षोडशोपचार पूजा के १६ प्रकार के अयों में से एक भी अस । मगन को = मॉगनेवाले से । पै= निश्चय | सुभाव- सिद्ध - स्वाभाविक बानि =आदत । बारिदुद= जल की बूँ दे | मवेस ससार के स्वामी भोलानाथ= शिरजी का नाम। छार छानि मरौী %= धूल छानते छानते मर जाओ । छानि 3= ढूँढ़कर द्वारिद-दमन, ]]
दुख-दोष-दाह दावानल= दुःख, दोष और ताप को भस्म करने के लिए दावाग्नि के समान। दूजो= दूसरा। सूलपानि= हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, शिवजी।

भावार्थ—महादेवजी भिक्षुक से षोडशोषचार पूजा का एक भी अङ्ग नहीं चाहते। देना ही उनकी स्वाभाविक आदत है, इसे निश्चय जानिए। अगर शिवजी पर चार बूँँदे जल की छिड़का दो तो वे उसे सच्ची सेवा मान कर ग्ररण करते हैं और धर्मार्थकाममोक्ष चारों फल दे देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि अगर संसार के स्वामी शिवजी का भरोसा नही है, तो चाहे करोड़ो कष्ट उठाओ, सब जगह की धूल छान कर मर जाओ, तो भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा। दारिद्र्य को नाश करनेवाला , दुःख, दोष और सरापो को मिटानेवाला दानी और दयालु संसार में शिवजी के समान दूसरा नहीं है।

मूल—काहे को अनेक देव सेवत, जागै मसान,
खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रें!
काहे को उपाय कोटि करत मरत धाय,
जाचत नरेस देस देस के, अचेत रे!
‘तुलसी’ प्रतीति बितु त्यागै तै प्रयाग ततु,
घन ही के हेतु दान देत कुरु-खेत रे!
पात द्वै धतूरे के दै, भोरे कै भवेस सों
सुरेस हू की संपदा सुभाय सों न लेत रे॥१६२॥

शब्दार्थ—जागै मसान= मसान जगाना, अमावास्या की रात को श्मशान में उसी दिन के मरे हुए मनुष्य की लाश पर वैठ कर मत्र जपते हैं। इसमें अनेक बाधाएँ होती हैं। पर मत्र सिद्ध होने पर यथेष्ट फल मिलता है। अपान= अपनापन, आत्मसंमान। भोर कै= भोला भाला चना कर। तै= तू। भवेस= सखार के स्वामी, शिवजी।

भावार्थ—अरे मूर्ख, तू अनेक देवतो की सेवा क्यों करता फिरता है? क्यों मसान जगाता है? क्यो आत्मसमान खोता है? और क्यों हठ करके प्रेत बनता है? अरे वेसमझ! तू क्यों करोड़ो उपाय करता हुआ इधर उधर दौड़ कर मरता है और देश देश के राजाओ से क्यों माँँगता फिरता है?
तुलसीदास कहते हैं कि दूसरे जन्म में सकल पदार्थों को पाने के लिए बिना विश्वास के भी प्रयाग में देह-त्थाग क्यों करता है? परलोक, और अतोल धन-वैभव पाने के लिए कुरुक्षेत्र में दान क्यो देता है? घतूरे के दो पत्ते शिवजी को देकर उनको भोरा कर, संसार के स्वामी से सहज ही में इंद्र का ऐश्वर्य क्यों नहीं प्राप्त कर लेता?

शब्दार्थ—स्यदन= रथ। गयद= (स० गजेद्र) हाथी। बाजिराजि= घोड़ों की पक्ति। भट= योद्धा। निकर= समूह। करनि हू न पूजै क्वै= करतूत में कोई बराबरी नही करता। क्वै= कोई। ज्वै= जो कुछ। इहॉ= इस लोक मे। ओक= घर। कै= अथवा। रिसाने= क्रोध में। केलि= खेल से ही। चढ़ाये ह्वै हैं= चढाये होगे। पतौवा= पत्ते।

मूल—स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले भले भट,
धन धाम-निकर, करनि हू न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन औ
बिनय, विवेक, विद्या सुलभ, सरीर ज्वै।
इहाँ ऐसो सुख, परलोक, सिवलोक ओक,
जाको फल ‘तुलसी’ सो सुनौ सावधान ह्वै।
जाने, विनु जाने, कै रिसाने, केलि कबहुँक,
सिवहि चढ़ाये ह्वै हैं बेल के पत्तौवा द्वै॥१६३॥

भावार्थ—रथ, हाथी, घोड़े, अच्छे अच्छे योद्धा, धन और घरों का समूह, सबसे बढ़कर करतूत, विनीत पत्नी, पवित्र आचरणवाली और सुन्दर पुत्र, विनय, सदसद् का ज्ञान, विद्या, सुन्दर शरीर आदि जो कुछ भी सुन्दर पदार्थ हैं (सब प्राप्त), इस लोक मे तो इस प्रकार का सुख और मरने पर अन्त मे शिव-लोक की प्राप्ति, यह जब जिस कर्म का फल है वह सावधान होकर तुलसी से सुन लो, (कि) ये सब फल पानेवाले ने जानकर वा बेजान ही, रिस में या खेल में कभी शिव पर दो दो बेलपत्र चढ़ा दिए होंगे।

अलंकार—परिवृत्ति

मूल—रति सी रबनि, सिंधु-मेखला-अवनिपति,
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारिकै।


संपदा समाज देखि लाज सुरराज हू के,
सुख सब बिधि वबिधि दीन्हे हैं सॅवारि कै।
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथ-पद,
जाको फल ‘तुलसी’ सो कहैगो बिचारि कै।
आक के पतौवा चारि, फूल कै धतूरे के द्वै,
दीन्हें ह्वै हैं बारक पुरारि पर डारि कै॥१६४॥

शब्दार्थ—रति= कामदेव की स्त्री। रवनि= (सं० रमणी) स्त्री। सिधु-मेखला अवनि-पति= समुद्र पर्येत का राजा। सिंधु-मेखला-अवनि= सिंधु है करधनी जिसकी ऐसी अवनि (बहुब्रिही समास)। औनिप= (सं० अवनिप) राजा। सुरनाथ= इंद्र। आक= मदार। कै= अथवा। डारि दीन्हें ह्वै हैं= चढ़ाए होंगे। बारक= एक बार, कभी।

भावार्थ—रति की तरह सुन्दरी पत्नी हो, समुद्र पर्येत पृथ्वी का राज्य हो, अनेक राजा उससे हार मानकर हाथ जोड़े हुए उसके सामने खडे हों, उसकी सपत्ति के समूह को देखकर इद्र को भी लज्जा हो, ब्रह्मा ने भी सब प्रकार के सुख एकत्र कर उसको दिए हो, इस लोक में तो ऐसा सुख भोग करे, और मरने पर स्वर्ग में इद्र की पदवी को पावे। यह सब जिस कर्म का फल है, वह तुलसीदास विचारकर कहता है कि) उसने कभी (इस जन्म में अथवा पूर्व जन्म में) एक बार शिवजी पर आक के चार पत्ते अथवा धतूरे के दो फूल चढ़ाए होंगे।

अलंकार—परिवृत्ति।

मूल—देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरे ही,
नाम राम ही के माँगि उदर भरत हौं।
दीबे जोग ‘तुलसी’ न लेत काहू को कछुक,
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं।
एते पर हू जो, कोऊ रावरो ह्वै जोर करै,
ताको जोर, देव दीन द्वारे गुदरत हौं।
पाइकै उराहनो, उराहना न दीजै मोहिं,
काल-कला कासीनाथ कहे निवरत हौं।॥१६५॥

शब्दार्थ—देवसरि= गंगा। बामदेव= शिवजी। उदर= पेट। ऐते पर हू= इतने पर भी। रावरो है= आपका जन होकर। जोर करै= बल प्रयोग करे। गुदरत हौ= कहे देता हूँ, प्रकट कर देता हूँ। ठराहना= उलाहना उपालम्भ। काल-कला= कलिकाल की करनी। कहे= कहकर। निबरत हौं= छुटकारा पाता हूँ।

प्रकरण—एक बार शिवोपासकों ने तुलसीदास के प्रति ईर्ष्या कर उनको काशी से चले जाने को विवश किया। गोसाइँजी शिवनाथजी के मंदिर के कवाट पर उपर्युक्त छद लिख कर चले गए। दूसरे दिन शिवभक्तो को कपाट बंद मिले और भीतर से वाणी हुई कि तुमने भगवद्भक्त का अपमान करके भगवान् का अपराध किया है। यह सुन कर वे सब तुलसीदासजी को लौटा लाए।

भावार्थ—हे शिवजी, मै आपके गॉव काशी में ही गगा का सेवन करता हूँ, और रामचंद्रजी के नाम से माँग कर पेट भरता हूँ। अगर मुझे किसी को देने की योग्यता नहीं है तो मैं किसी से कुछ लेता भी नहीं हूँ। किसी का उपकार करना तो मेरे भाग्य में नहीं लिखा है पर मै किसी की हानि भी नहीं करता। इतने पर भी अगर आपको कोई भक्त मुझे कष्ट दे तो हे देव, मै दीन होकर आप ही के पास उसका कष्ट देना निवेदन किए देता हूँ। मैं रामचंद्रजी का भक्त हूँ, अतः रामचंद्रजी से उलाहना पाकर (कि आपने अपने भक्तों से मेरे भक्त की रक्षा क्यों न की) आप मुझे उलाहना न दीजिएगा (कि तुमने मुझसे अपना दुःख क्यों नहीं कहा)। अतः हे काशीनाथ, मै आपसे अपना दुःख कहके छुटकारा पाता हूँ, जिससे आप समय पर उलाहना न दे।

मूल— चेरो राम को, सुजस सुनि तेरो हर!
पाइँ तर आई रह्यों सुरसरि तीर हौं।
बामदेव, राम को सुभाब सील जानि जिय,
नातो नेई जानियत, रघुबीर भीर हौं।
अधिभूत-बेदन बिषम होत, भूतनाथ!
‘तुलसी’ विकल, पाहि, पचत कुपीर हौं।
मारिए तो अनायास कासी बास खास फल,
ज्याइए तौ कृपा करि निरुज सरीर हौं॥१६६॥

शब्दार्थ—चेरी= दास श। हर= शिव। रघुबीर भीर हौं= मैं केवल रामचंद्रजी से ही डरता हूँ। अविभूत= आधिभौतिक बाधा। बेदन= वेदना, केट, पीड़ा। विषम= असह्य। पाहि= मेरी रक्षा करो। कुपीर पचत्त= बुरी पीड़ा से पीडित हूँ। अनायास= सहज ही। खास= प्रसिद्ध। निरुज(सं०)= रोगहीन।

भावार्थ—हे शिबजी, मैं राजा रामचद्र जी का दास हैं, और आपका सुयश सुनकः आपके चरणों के पास आकर गंगा के किनारे रहता हूँ। हे वामदेव, आप अपने मन में राम को शील-स्वभाव जानते ही हो, और उनका मुझसे स्नेह का सबध है यह भी जानते ही हो। मैं केवल रामचचद्रजी से ही डरता हूँ। हे भूतनाथ, मुझे बड़ी विषम आधिभौतिक वेदना हो रही है, मैं (तुलसीदास) अत्यन्त व्याकुल हूँ। मेरी रक्षा करो। यह पीड़ा मुझे बुरी तरह से दुःख दे रही है। अगर मुझे मार डाले तो मुख्य फल यही है कि मुझे सहज ही काशीवास का फल प्राप्त होगा। अगर जीवित रखना हो तो ऐसी कृपा कीजिए जिससे मेरा शरीर नीरोग रहे।

मूल—जीबे की न लालसा, दयालु महादेव! मोहिं,
मालुम है तोहि मरिबेई को रहुतु हौं।
कामरिपु! राम के गुलामनि को कामतरु,
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।
रोग भयौ भूत सो, कुसूत भयो ‘तुलसी’ को,
भूतनाथ पाहि पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइए तौ जानकीरमन जल जानि जिय,
मारिए तौ मॉगी मीचु सुधियै कहतु हौं॥१६७॥

शब्दार्थ—जीबे की= जीवित रहने की। लालसा= इच्छा। कामतरु= कल्पवृक्ष, कामनाओं को देनेवाला। कुसूत= कुप्रबंध, असुविधा। तुलसी को= तुलसीदास के लिए। पाहि= रक्षा कीजिए। गहतु हौं= पकड़ता हूँ। ज्याइए= जीवित रखिए तो।

भावार्थ—रोग से पीड़ित होकर तुलसीदास शिवजी से प्रार्थना करते हैं कि हे दयालु शिवजी, मुझे जीने की इच्छा नही है। आपको मालूम ही है। कि मै काशी में मरकर माक्ष पाने के लिए ही रहता हूँ। हे कामदेव के शत्रु
शिवजी, आप रामजी के भक्तों की इच्छाएँ पूरी करने के लिए कल्यवृन्ह के समान हैं, अतएव मै साता पर्वेती सहित ऋरपका सहारा चाहता हूँ । यह रोग भूत की तरह मुझ्के पीड़ित करता है जिससे मेरे लिए सब प्रकार की असुविधा हो रही है। [तः हे भूतनाथ, इस रोग रूपी भूत से मेरी रक्षा करो । मै आपके चरणकमलों को हाथ जोड़कर प्रार्थना करता आरप मुझे सीतापति रामचद्रजी का भक्त जानकर जिला दे तो ही है, नही तो मै आपसे सच कहता हूँ कि अगर आप मुझे मार दे तो मुझे मुँह मॉगी मौत मिलेगी (क्योंकि मै तो काशी में मरने ही के लिए रहता हूँ )। पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय, आपनी समाज सिव !आपु नीके जानिये । हूँ कि अगर मूल--भूतभव । भवत नाना बेष, बाहन, विभूषन, बसन, बास, खान पान, बलि पूजा बिधि को बखानिये ? राम के गुलामनि की रीति प्रीति सूधी सब, सबसों सनेह 'तुलसी' की सुधरै सुधारे भूतनाथ ही के, सबही को सनमानिये । मेरे माय बाथ गुरु संकर भवानिये | १६८॥ शब्दार्थ--भूतभव =पंच महाभूतो के कारण स्वरूप । भवत -श्राप | नीके= अच्छी तरह । बसन = वस्त्र | बास = निवासस्थान । को बखानिए कौन बर्णन कर सकता है । भवानिये 3 भवानी ही ( पार्वतीजी ही ) । भावार्थ-हे पच महाभूतो के दि करण शिवजी, आप पिशाच, भूत और प्रेतों के प्रिय हैं ( सब भूत आपके सेवक हैं ) । अत: पश्रपने (भूत-प्रेतादि के) समाज को अच्छी प्रकार जानते हैं | उनके अनेक प्रकार के घेष, अ्नेक प्रकार के बाहन, अनेक प्रकार के आभूषण, अनेक प्रकार के वस्त्र, अ्रनेक प्रकार के निवासस्थान, अनेळ ढंग के खान - पान और बलि पूजा के विधान का वर्णन कौन कर सकता है १ ( मैं कहाँ तक उনको प्रसन्न करने को सामग्री जुटाऊ)। रामचद्रभी के भकों की तो रीति-प्रीति सब सीधी-सादी है। ने सबसे स्नेह करते हैं श्रौर संवका सम्मान भी करते हैं । तुलखीदासजी कहते हैं कि मेरी बात तो शिवजी के सुधारने से ही सुधरेगी क्योंकि मेरे माई बाप, गुरू, सब कुछ श्रोशिव-पार्वती ही तो हैं। अलंकार—तुल्ययोगिता।

मूल—गौरीनाथ, भोलानाथ, भवत भवानीमाथ,
विस्वनाथ-पुर फिरी आन कलिकाल की।
संकर से नर, गिरिजा सो नारी कासी-बासी,
वेद कही, सही ससिसेखर कृपाल की।
छसुख गनेस तें महेस के पियारे लोग,
बिकल बिलोकियत, नगरी बिहाल की।
पुरी-सुरवेलि, केलि काटत किरात-कलि,
निठुर! निहारिये उघारि डीटि भाल की॥१६६॥

शब्दार्थ—भवत= आप। आन= दुहाई। सही की= समर्थन किया। ससिसेखर= (शशिशेखर) शिवजी। छसुख= कार्तिकेय। बिहाल= व्याकुल। सुरवेलि= कल्पलता। केलि= खेल ही मे। किरात-कलि= कलियुग रूपी किरात। भाल की डीठि= ललाट पर का तीसरा नेत्र (जिसको उधारने से कामदेव जलकर राख हो गया था)।

भावार्थ—हे शिवजी, आप गौरीनाथ, भोलानाथ, और भवानीनाथ हैं, आपकी पुरी काशी में कलियुग को दुहाई फिरी है। वेदों ने कहा है कि काशी के रहनेवाले पुरुष महादेवजी के समान और स्त्रियॉ पार्वतीजी के समान हैं। इस बात को कृपालु शशिशेखर ने अर्थात् आपने समर्थन किया है। जो लोग शिवजी को कार्तिकेय और राणेश से भी प्यारे थे वे ही बड़े व्याकुल दिखलाई देते हैं। सारी काशीपुरी को इस कलियुग ने व्याकुल कर दिया है। यह कलियुग रूपी किरात काशी रूपी कल्पलता को खेल ही खेल में काटना चाहता है। हे निष्टुर शिवजी, अपने ललाट की आँख को खोलकर इसकी ओर देखिए (अर्थात् उसको भस्म कीजिए)।

नोट—इस छंद से अंत सक के छंद उस समय कहे गए हैं जब काशी में महामारी फैली थी।

मूल—ठाकुरक महेस, ठकुराइनि उमा सी जहाँ,
लोक बेद हू।। बिदित महिमा ठहर की,
भट रुद्रमन, पूत गनपति सेनपाति,
कलिकाल की कुचाल काहू तौ न हरकी।

बीसी बिस्वनाथ की विवाद बढ़ो बारानसी,
बूझिये न ऐसो गति संकर-सहर की।
कैसे कहै ‘तुलसी’ वृषासुर के बरदानि।
बानि जानि सुधा तजि पियनि जहर की॥१७०॥

शब्दार्थ—ठाकुर= मालिक। ठकुराइन= मालकिन। उमा= पार्वती। ठहर= स्थान। सेनापति= कार्तिकेय। हरकी= मना की, रोकी। बीसी बिस्व नाथ की= साठ (प्रभव से क्षय तक) सवत्सरों को तीन भागों में बाँटा गया है। प्रथम बीस ब्रह्मा की बीसी, द्वितीय बीस विष्णु की बीसी, अंंतिम बीस सवत्सर विश्वनाथ की बीसी कहलाते हैं। यह शिवजी की बीसी (रुद्रबीसी) सवत् १६६५ से १६८५ तक रही। बृषासुर= भस्मासुर का दूसरा नाम है।

भावार्थ—जहाँ के मालिक शिवजी और मालकिन पावतीजी के सदृश हैं, जिस स्थान को महिला लोक और वेद दोनो में प्रकट है, जहाँ योद्धा वीरभद्रादि शिवजी के रण है, जिनके दोनो पुत्र गणपति और सेनापति सरीखे हैं, वहाँ इस कलियुग की कुचाल को किसी ने नहीं रोका। इस रुद्रबीसी मे शिवजी की पुरी में बड़ा भारी दुःख है। शकरजी के समान कल्याण-कर्ता के नगर की ऐसी दशा क्यो हुई यह समझ में नहीं आता। उनको तुलसीदास कैसे कह सकते हैं? हे वृषासुर को वरदान देनेवाले शिवजी, आपकी तो अमृत छोड़कर विष पीने की आदत प्रकट है (अतः आप कलियुग को क्यों बरजेगे?)।

नोट—इस छद में ध्वनि यह है कि काशी को दुर्दशा आप स्वयं करा रहे हैं, क्योंकि आपकी आदत है कि अडबड काम कर बैठते हैं। भस्मासुर को बरदान देकर तथा हलाहल पीकर आप स्वयं हैरान हुए, वैसे ही यह भी आपकी कोई विलक्षण लीला होगी, तुलसी आप से क्या कहे।

मूल—लोक वे हू बिदित बारानी की बड़ाई,
बासी नरनारि ईस अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल, दंड-कारि दंडपानि,
सभासद गनप से अमित अनूप हैं।
तहाँऊ कुचालि कलिकाल की कुरीति, कैधौं,
जानत न मूढ़, इहाँ भूतनाथ भूप हैं।


फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल पल,
खाती दीपमालिका, उठाइयत सूप हैं॥१७१॥

शब्दार्थ—बासी= रहनेवाले। काल-नाथ= कालभैरवजी। दडकारी= दड देनेवाले। दंडपानि= दंडपाणिभैरवजी। गनप= गणेशजी। अमित= अनेक। तहॉऊ= वहा भी। कैधौं= या तो, अथवा। मूढ़= मूर्ख कलियुग। फलै फूलै= सफल मनोरथ होते हैं। सीदैं= कृष्ट पाते हैं। पल पल= हर घड़ी। ‘खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं’= (कहावत है) दिवाली की रात भर तो घी तेल दियों में भरा जाता है पर प्रभात होते समय सूप खटखटाए जाते हैं, अर्थात् दुष्टता तो करे दुष्ट यौर वे ही मौज उड़ावे पर दुःख पावे सज्जन।

भावार्थ—काशी की बड़ाई लोक और वेद दोनो मे विदित है। यहाँ के निवासी पुरुष और स्त्री शिव पार्वतीजी के स्वरूप हैं। कालभैरवजी के समान तो यहाँ के कोतवाल हैं, दडपाणि भैरवजी के समान यहॉदंड देनेवाले जज हैं, और गणेशजी के समाने अनेक अद्वितीय सभासद हैं। यहाँ भी कुचालि कलियुग ने अपनी कुरीति को चलाया (बड़ा आश्चर्य है) अथवा मूर्ख कलियुग यह नहीं जानता कि यहाँ के राजा भूतनाथ, शिवजी) हैं। (उनका प्रभाव उसे ज्ञात नहीं हैं) क्योंकि दुर्जन तो मौज उड़ाते हैं, और सज्जन लोग हर घड़ी दुःख पा रहे हैं। मानो वही कहावत है कि घी तो खाय दीपमालिका और पीटा जाय सुप।

अलंकार—छेकोक्ति।

 
मूल—पंचकोस पुन्यकोस, स्वारथ परारथ को,
जानि आप आपने सुधास बास दियो है।
नीच नरनारि ने सँभारि सकैं अदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न किया है।
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोष में भरोसो एक, आसुतोष कहि जात,
विकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥१७२॥

शब्दार्थ—पचकोस= असी से वरुणा नदी तक काशी की परिक्रमा पाँच कोस की है। परारथ= परमारथ, पारलौकिक सुख। सुपास= (स्वपार्श्व) अपने पास। बारी= जला दी। चक्रपानि= श्रीकृष्ण।हितहानि= अपने मित्र शिव्जी की हानि मान कर। मुरारी= मुर नामक दैत्य के शत्रु श्रीकृष्ण। मन भियो है= मन में संकुचित हुए, डरे। आसु-तोष= शीघ्र ही संतुष्ट हो जानेवाले शिवजी।

भावार्थ—यह पंचकोसी के भीतर की भूमि पुण्यमय है और स्वार्थ के निवासियों को कृपा करके अपने पास वसाया, पर वे नीच प्रकृति नर-नारी इस आदर को न सँभाल सके (मोह-अभिमानवश सुकर्म त्यागकर कुकर्म करने लगे अतः) वे कायर जन अपने अविचार का फल पाते हैं (अर्थात् हे शिवजी! तुम्हारा कुछ दोष नहीं, यह महामारी यहा के निवासियों के कर्मों का फल है)। पर आपसे तो उस समय श्रीकृष्णजी भी (जिन्होंने मुर नामक प्रबल दैत्य को मारा था) प्रेम-हानि समझ कर डर गए थे जब मिथ्या वासुदेव को मारने के लिए उन्होने सुदर्शन चक्र छोड़ा था और उसने उसे मारकर काशी नगरी को भी (बिना कृष्ण की आशा के ही) जला दिया था—(सो क्या कलिकाल आपसे डरेगा?) और यदि यह कहो कि हम ही ने यहाॅ के वासियो के कुकर्मो से नाराज होकर उन्हे दंड देने के हेतु यह महामारी फैलाई है तो हे शकर, आपके इस क्रोध के समय में भी मुझे एक भरोसा है और मै उसे कहे डालता हूँ कि आपका नाम ‘आशुतोष’ है और आप ऐसे दयालु हैं कि (पहले एक समय) आपने लोगों को विकल देखकर कालकूट पी लिया था, तो क्या अ आप इस महा- मारी के विष को नही पी सकते— अर्थात् पी सकते हैं— अतः इस महामारी को आप पी जाइये।

नोट—एक समय काशी के एक ‘मिथ्या वासुदेव’ नामक राजा ने द्वारका पर चढ़ाई की। कृष्ण ने सुदर्शन चक्र छोंड़ा। चक्र ने उस राजा को परास्त करके उसकी काशी को भी जला डाला था। उस समय कृष्णजी ने शंकर से माफी माँगी थी कि चक्र ने बिना मेरी आज्ञा के ही तुम्हारी पुरी जला दी है, अतः मुझे क्षमा कीजिए।

</noinclude>

मूल—रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर,
तेरे ही प्रसाद जग, अगजग-पालिके।
तोहि में बिकास बिस्व, तोहि में बिलास सब,
तोहि में समात मातु भूमिघर बालिके।
दीजै अवलंब जगदंब न बिलंब कीजै,
करूना-तरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी मुनि-मानस-मरालिके॥१७३॥

शब्दार्थ—बिरचि= ब्रह्मा। हरि= विष्णु। हरत= संहार करते हैं। हर= शिव। अग= अचर। जग= जगम चर। विकास= उत्पत्ति। बिस्व= सृष्टि। बिलास= पालन। भूमिघर= पर्वंत (हिमालय)। करुनातरंगिनि= करुणा की नदी अर्थात् करुणामयी। कृपातरगमालिका= कृपा रूपी तरंगों की माला, अर्थात् अत्यत कृपा करनेवाली। परितोष= सतुष्ट हो। मुनिमानसमरालिके= मुनियो के मनरूपी मानसरोवर के लिए हंसी के समान। (अर्थात् जैसे हंसी मानसरोवर मे रहती है वैसे ही तुम मुनियों के मन में बसती हो)।

भावार्थ—हे चराचर का पालन करनेवाली, तुम्हारी ही प्रसन्नता (इच्छा) से ब्राह्मा संसार को रचते हैं, विष्णु पालन करते हैं, और शिवजी संहार करते हैं। हे हिमालय की पुत्री पार्वतीजी, सारी सृष्टि तुम्हीं से उत्पन्न होती है, तुम्हीं से इसका पालन होता है, और हे माता, अंंत में यह संसार तुम्हीं में समाता है। हे करुणा की नदी और कृपा की तरगमाला जयदबा, अब सब को सहारा दीजिए, विलंब न कीजिए, यइ महामारी इस समय क्रुद्ध होकर सब जगत् को खाए जाती है और तू जगन्माता होकर संतुष्ट होकर बेफिकिर बैठी है। अतः हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हसी के समान जगदबे! संसार को दीन और दुःखी देखकर सब पुत्रो पर प्रसन्न होकर इसका निवारण कीजिए ।

अलंकार—परिकराकुर (‘जगदंब’ शब्द खाभिप्राय है)

मूल— निपट अने रे, अध औगुन बसेरे, नर
नारि ये घनेरे जगदब चेरी चेरे हैं।


दारिदी दुखारी देखि भूसुर भिखारी भीरु,
लोभ मोह काम कोह कलिसल घेरे हैं।
लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जान,
जन की बिनति मानि, भातु! कहि मेरे हैं।
महामायी, महेसानि, महिमा की खानि, मोद,
मंगल की रासि, दास कासी बासी तेरे हैं॥१७३॥

शब्दार्थ— निपट = अत्यत। बसेरे= स्थान, निवासस्थान। औगुन= अवगुण। घनेरे= बहुत। अनेरे= अनीति मे रति। चेरी चेरे= दासीदास। भूसुर= ब्राह्मण। कलिमल= पाप। लोकरीति रखी= अपने पुर (अयोध्या) वासियों को सुखी रखा। साखी= (स० साक्षी) गवाह। महेसानि= पार्वतीजी। मोद= आनंद। महामाई= जगदबा।

भावार्थ— है जगदबा, ये निपट अन्यायी, पाप और अवगुणो के घर काशीवासी स्त्री-पुरुष, तेरे ही दास-दासी है। यद्यपि इनके आचरण ऐसे हैं की दरिद्री और दुखी ब्राह्मण और भिखारियो को देखकर डरते हैं (कि कहीं कुछ मॉग न बैठे— इतने अदानियाँ है) और लोभ, मोह काम, क्रोध की जमात से घिरे रहते हैं (तो भी तुझे इन पर दया ही करनी चाहिए )। श्रीरामजी ने इस लोकरीति को (दासी-दासो पर सदा दया करते रहना) अच्छी रक्षा की है, जिसके साक्षी महादेवजी हैं। (तुम भी लोकरीति रखो) मुझ दास की विनय मानकर, हे माता तुम भी (महामारी से) कह दो कि ये मेरे दास-दासी हैं, इन्हे मत सता। हे महामाया, हे महेशानी, तुम महिमा की खानि और मोद तथा मगल की राशि हो, और काशीवासी वास्तव में तेरे सेवक हैं (तुम्हें उन पर दया करनी ही पड़ेगी, नहीं तो संसार में तुम्हारी निदा होगी और तुम जगदबा कैसे कहलाओगी)।

मूल—लोगन के पाप, कैधौं सिद्ध सुर-साप कैधौ
काल के प्रताप कासी तिहूँ-ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीच के, धनिक, रक, राजा, राय
हठनि बजाय, करि डीठि, पीठि दुई है।
देवता निहोरे, महामारिन्ह सो कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी सी ठई है।

</noinclude>

करुनानिधान हनुमान बीर बलवान
जसरासि जहाँ तहाँ ते ही लुटि लाई है॥१७५॥

शब्दार्थ—कैधौ= अथवा। सिद्ध-सुर-साप= सिद्ध और देवतोंर के शाप से। तिहूँ-ताप तई है= दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो तापो से तप्त हुई हैं। राय= छोटे छोटे राजा। हठनि बजाय= हठ करके खुल्लमखुल्ला। करि डीठि= देखकर। पीठि दई है= विमुख हुए हैं। निहोरे= विनती की। अपनी सी ठई है= अपनी चाही बात की हैं, अपना प्रभाव फैलाया हैं। जसरासि= यश का ढेर। तैही= तुमने ही।

भावार्थ— लोगो के पाप के कारण, अथवा सिद्ध और देवतो के शाप के वश, अथवा समय के फेर से इस समय काशी दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के कष्टो से पीड़ित है। उत्तम, अधम, मध्यम, धनी, दरिद्री, बड़े बड़े राजा,छोटे राजा, सब हठपूर्वक खुले मैदान जान बूझकर धर्म-कर्म से विमुख ही बैठे हैं (देख-सुनकर जनता की सहायता करने से विमुख हो गए हैं)। देवतों से भी महामारी के निवारण के लिए प्रार्थना की, स्वंय महामारी से भी हाथ जोड़कर विनती की; पर सब निष्फल हुआ। शिवजी को सीधा-सादा जानकर महामारी ने अपनी मनसा पूरी की अर्थात् जो जी चाहा सो किया। ऐसे समय में हें दयासागर, वीर और बलवान हनुमानजी निवारण करके आप ही यश लीजिए क्योकि कठिन समयो में जहाँ तहाँ ही ने यश की ढेरी लूटी है (यश प्राप्त किया हैं)।

मूल—संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर,
बिकल सक्कल महामारी मॉजा भई है।
उछरत उत्तरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात, जल थल मीचु भई हैं।
देव न दयालु, महिपाल न कृपालु चित,
बारानसी बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज, पाहि कपिराज रामदूत,
रामहू की बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥१७६॥

शब्दार्थ—सकर-सहर= काशी। सर= तालाब। बारिचर= जलजंतु। </noinclude>
हहरात= हाय हाय करते हुए। भमरि= भयभीत होकर, घबराकर। मीचु मई= मृत्युमय। मीचु= (स०) मृत्यु, (प्रा० मिच्चु)। पाहि= रक्षा करो।

भवार्थ— काशी मानो एक तालाब है, वहाँ के स्त्री पुरुष मानो उस तालाब के जलजतु हैं, वे जलजतु महामारी रूपी माजा (वर्षांतऋतु के आरभ का जल) के पानी से व्याकुल हो गए हैं, और उछलते हुए पानी के ऊपर उत्तराते हुए हाय हाय करके मरे जाते हैं, और कोई घबराकर भाग रहे हैं। जल थल सब मृत्युमय है, देवता भी दया नहीं करते, राजाओं का चित्त भी कृपापूर्ण नहीं है, क्योकि काशी में नित्य ही नई नई अनीति बढ़़ रही है। हे रामचंद्रजी, तुम्ही रक्षा करो। हे रामदूत हनुमानजी, तुम्ही रक्षा करो क्योंकि तुमने तो रामचंद्रजी की भी बिगड़ी बात सुधार ली थी (रामचंद्रजी के भाई लक्ष्मण को सजीवन बूटी लाकर जिलाया था)।

मूल—एक तो कराल कलिकाल सूलमूल ता में,
कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की।
बेद धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भए,
साधु सीद्यमान, जानि रीति पाप-पीन की।
दूबरे को दूसरो न द्वार, राम दयाधाम।
रावरी ही गति बल बिभव-विहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहिं,
महाराज आजु जौ न देत दादि दीन की॥७७॥

शब्दार्थ— सूलमूल= दुखों का मूल कारण। कोढ़ में की खाजु सी= (कहावत) एक तो कोढ़ स्वय एक भयानक और कष्टप्रद रोग हैं, अगर उसमें खाज भी हो जाय तो कष्ट का क्या ठिकाना; अर्थात् और भी अधिक दुःख देनेवाला। सनीचरी है भीन की= मीन राशि पर शनैश्चर की स्थिति की दशा। इसका फल है राजा प्रजा दोनों का नाश। यह योग संवत् १६६६ के आरभ से १६७१ के मध्य तक पढ़ा था। सीद्यमान= कष्ट पाते हैं। जानि रीति पाप पीन की= इसे बड़े भारी दुष्ट पाप का फल ही जानो। दूबरे= (सं०) दुर्बल। द्वार= गति, शरण। विभव= ऐश्वर्थ। बिरुद= यश। जौ= अगर उसमें अगार। दादि न देत= न्याय नहीं करते हो तो। </noinclude> भावार्थएक तो स्वयं भयकर कलियुग ही दुःखदायी है, उस पर भी 'कोढ़ में खान की तरह' महा उपद्रवकारी मीन की सनीचरी पड़ गई हैं, जिससे वेद और धर्म लुप्त हो गए हैं, राजा अपनी प्रजा की भूमि का हरण कर लेते हैं, और सज्जन लोग कष्ट पा रहे हैं। इसे भारी पाप का ही परिणाम समझों। हे दयालु रामचंद्रजी, दुर्बल के लिए आपके अतिरिक दूसरे का आश्रय नहीं है। बल और ऐश्वर्य से रहित मनुष्य के लिए आप ही शरण हैं। हे महाराज, अगर आज आप दोनो की फरियाद न सुनेगे तो निश्चय ही आपके उस सुशोभित यश को लज्जा लगेगी (अर्थात आप जो दीन-बधु कहलाते हैं उस पर बट्टा लगेगा)।


मूल—रामनाम मातुपितु स्वामि, समरथ हितु,
आस रामनाम की, भरोसो रामनाम को।
प्रेम रामनाम ही सों, नेम रामनाम ही को,
जानौं न मरम पद दाहिनो न बाम को।
श्वारथ सकल, परमारथ को रामनाम,
रामनाम-हीन 'तुलसी' न काहू काम को।
राम को सपथ, सरबस मेरे रामनाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को॥१७८॥

शब्दार्थ—हितु= हितकारी, मित्र। नेम= (स०) नियम। मरम = भेंद। अन्वय= न दाहिनी न बाम पद को मरम जानौं= सुमार्ग और कुमार्ग का भेद नहीं जानता हूँ। कामतरु= कल्पवृक्ष। छीन= (स० क्षीणा) दुर्बल। छाम= (स० क्षाम) दुर्बल। छीन छाम= अत्यत दुर्बल।

भावार्थ— रामनाम ही मेरा माता, पिता, स्वामी और समर्थ मित्र है। मुझे रामनाम की ही आशा है, रामनाम का ही भरोसा है, रामनाम ही से प्रेम है, रामनाम रटने का ही मैं नियम करता हूँ। रामनाम के अतिरिक्त न तो मैं सुमार्ग जानता हूँ न कुमार्ग। संपूर्ण सासारिक सुख और पारलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए मैं रामनाम ही रटता हूँ। तुलसीदास कइते हैं कि रामनामीहीन मनुष्य तो किसी काम का नहीं हैं, मैं राम की शपथ लेकर सत्य कहता हूँ कि रामनाम ही मेरा सर्वेस्ध है और मेरे समान अत्यत दुर्बल के लिए रामनाम ही कामधेनु और कल्पवृक्ष है।

२०

मूल—
 

मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिक कै धन लीयो।
संकर कोप सो पाप को दाम परीच्छितु जाहिगो जारि के हीयो।
कासी में कंटक जेते भए ते गे पाइ अघाई कै अपनो कीयो।
आजु कि काल्हि परौं कि नरौं जड़ जाहिगे चाटि दिवारी को दीयो॥१७६॥

शब्दार्थ— मारग मारि= पथिकों को लूटकर। महीसुर= ब्राह्मण। कै= करके। दाम= धन। पाप की दाम= पाप से कमाया धन। परीच्छित= (सं० परीक्षित) निश्चय ही यह बात परीक्षा की हुई है। जाहिगो = नष्ट हो जायगा। जारि कै हीयो= हृदय जलाकर, मनमें दुःख पैदा करके। कटक= बाधक। जेते= जितने। तेगे= वे नष्ट हो गए। अपनी कीयो अघाई कै पाइ= अपने किये का भरपूर फल पाकर, तृप्त होकर। जड़= मूर्ख, कुमार्गी। जाहिंगे= नष्ट हो जाएँगे। चाटि दिवारी को दीयो= ऐसा कहते हैं कि कीट पतंगादि दिवाली का दीया चाटकर चले जाते हैं अर्थात् दीवाली के बाद नही रह जाते, समय पर स्वयं नष्ट हो जायँगे।

भावार्थ— कुमार्गी लोग राहगीरों को लूटकर, ब्राह्मणों को मारकर, करोड़ों कुरीतियों द्वारा धन एकत्र करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि शिवीजी के कोप से पाप की कमाई मन में दुःख बढ़ाकर अवश्यमेव नष्ट हो जाएगी। क्योंकि काशी में जितने भी बाधक हुए हैं, सब अपनी करनी का भरपूर फल पाकर नष्ट हो गए हैं। जैसे दीवाली के बाद कीट पतंगादि नही रह जाते, उसी प्रकार से मूर्ख भी आज या कल या परसों या नरसों, कभी न कभी समय पर स्वतः नष्ट हो जाएँँगे।

मूल—
 

कुंकुम रंग सुअंग जितो, मुखचंद सो चंद सो होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्ध चुवै, अवलोकत सोच विषाद हरी है।
गौरी कि गंग बिहंगिनि बेष, कि मंजुल मूरति मोद-भरी है।
पेखि सप्रेम पयान-समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है॥१८०॥

शब्दार्थ— कुंकुम रंग= केसरिया रंग। सुअंंग= चौंच। जितो= जीत लिया है। होड़ परी है= बाजी लगी है, शर्त लगी है। समृद्धि= धन, संपत्ति। विहगिनि= पक्षिणी। मजुल= सुन्दर। पेखि= (स० प्रेक्ष्य) देखकर। पायन= (स० प्रयाण) यात्रा को जाते समय। छेमकरी= (स० क्षेमकरी) (१) एक पक्षी का नाम, (२) कुशल करनेवाली।

प्रकरण—किसी यात्रा के समय तुलसीदासजी ने क्षेमकरी पक्षी को देखा और उसकी प्रशंसा में यह छद कहा;

भावार्थ—इस क्षेमकर ने अपनी चोच के रग से कुकुम को भी जीत लिया है। इसका मुखचद्र इतना सुन्दर है कि आकाशीय चद्रमा से समता करता हैं। इसके वचन बोलते ही मानो धन-वैभव टपकता है, देखते ही यह पक्षी सोच और दुःख को दूर कर देता है। क्या यह चिड़िया के वेष में पार्वती है अथवा गंगा है? अथवा आनद से परिपूर्ण किसी अन्य सुन्दर देवी की मूर्ति? प्रस्थान करते समय प्रेम-सहित क्षेमकरी के दर्शन पाना सब चिंताओं को मिटाकर मुगलकारी होंता है।

अलंकार— ‘मुखचद सो चद सो होंड़ पर है’ में ‘ललितोपमा’। तृतीयपाद मे ‘संदेहालंकार’।

मूल—
(कवित्त)


मंगल की रासि, परमारथ की खानि, जानि,
बिरचि बमाई बिधि, केसव बसाई है।
प्रलय हु काल राखी सूलपानि सूल पर,
मीचुवस नीच सोऊ चहत खसाई है।
छॉड़ि छितिपाल जो परीछित भए कृपालु,
भलो कियो खल को, निकाई सो नसाई है।
पाहि हनुमान! करुनानिधान राम पाहि!
कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है॥१८१३॥

शब्दार्थ—रासि=(स० राशि) ढेर। खानि= उत्पत्ति भूमि। बिरचि बनाई= अच्छी तरह रचकर बनाई। केसव= विष्णु। बसाई है= पलान किया है। सूलपानि= त्रिशूल हाथ में धारण करनेवाले, शिवजी। सूल= त्रिशूल। चहत खसाई= नाश झरना चाहता है। छितिपाल= राजा। परीछित= अर्जुन का पौत्र परीक्षित। निकाई= भलाई। कुहन हैं= मारता हैं।

भावार्थ— मंगल-पूर्ण और मोक्ष देनेवाली जानकार व ने विशेष रीति
से काशी को बनाया, विष्णु ने इसका पालन किया, शिवजी ने प्रलय के समय भी इसको अपने त्रिशूल पर रखकर नाश होने से बचाया, उसी काशी को नीच कलियुग मृत्यु के वश मे होकर नाश करना चाहता है। राजा परीक्षित इसको छोड़कर इस पर कृपालु हुए और इस दुष्ट का भला किया, उस उपकार को इस दुष्ट ने भुला दिया है। अतः है हनुमान! रक्षा करो। हे करुणानिधान रामचद्रजी! रक्षा करो, कलिरूपी कसाई काशीरूपी कामधेनु को मार डालता है।


मूल— विरची बिरंचि की बसति बिस्वनाथ की जो,
प्रान हू तें प्यारी पुरी केसव कृपाल की।
ज्योतिरुप-लिंगमई, अगनित लिगमई,
मोक्ष वितरनि बिदरनि जगजाल की।
देवी देव देवसरि सिद्ध मुनिवर बास,
लोपति बिलोकत कुलिपि भोंड़े भाल की।
हा हा करै 'तुलसी' दयानिधान राम! ऐसी,
कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की॥१८२॥

शब्दार्थ- बसति= बस्ती, पुरीं। ज्योतिरूप लिंगमई= द्वादश ज्योतिलिंगों में से एक लिग (विश्वनाथजी का) काशी में भी हैं। मोक्ष-बितरनि= मोक्ष बॉटनेवाली। बिदरनि= काटनेवाली। जलजाल= सासारिक प्रपंचों का जाल। लोपतिं= नास हो जाती है। विलोकत= दर्शन मात्र से। भोंड़े भाल की= अभागे के कपाल पर लिखी हुई। कुलिपि= दुर्भाग्य की रेखा। हा हा करै= विनती करता है। कदार्थना= दुर्दशा

भावार्थ— जो कोशी ब्रह्मा ने बनाई, जो शिवजी की पुरी है, जो दयालु भगवान् विष्णु की प्राणों से भी प्यारी नगरी है, जहाँ द्वादश ज्योतिलिंग में से एक लिंग (विश्वनाथजी का) विराजमान है, जहाँ असख्य शिवलिंग हैं, जो मोक्ष देनेवाली है, जो सासारिक कष्टों का नाश करनेवाली है, और जहाँ देवी, देवता, गंगा, सिद्धजन, और श्रेष्ठ मुनियों का निवासस्थान है, जो अभागों के कपाल पर लिखे हुए दुर्भाग्य की रेखा को मिटा देती है, ऐसी काशी की कराल कलियुग ने दुर्दशी की है। अतएव हे दया के घर रामचंद्रजी! मैं विनती करता हूँ कि आप काशी की रक्षा कीजिए।

</noinclude>


मूल— आस्रम बरन कलि-बिबस बिकल भए,
निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी।
सकर सरोव महामारि ही तें जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन दिन दारदी।
नारि नर आरत पुकारन, सुनै न कोऊ,
काहू देवतमि मिलि मोटी मूठि मार दी।
‘तुलसी’ सभीत-पाल सुमिरे कृपालु राम,
समय सुकरुना सराहि सनकार दी॥१८३॥

शब्दार्थ— अस्रम= ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। बरन= (वर्ण) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मोटरी= गठरी। डार दी= फेक दी। मोटरी सी डार दी= गठरी ही फेंक दी है, भार समझकर छोड़ दिया है। दारदी= दारिद्रथ। मोटी =अधिक। मूठ मार दी= (मुहावरा) जादू डाल दिया। समय= समय पर। सुकरुना सराहि= स्व (अपन) करुणा की प्रशंसा कर। सनकार दी= इशारा कर दिया।

भावार्थ चारो आश्रमो और चारों वर्षों के लोगो ने कलियुग के कारण व्याकुल होकर अपनी अपनी लोकमर्यादा भार-स्वरूप जानकर छोड़ दी है। शिवजी तो क्रुद्ध हैं, यह महामारी के प्रकोप से ही जाना जाता है। स्वामी के क्रुद्ध होने से संसार में दिन दिन दारिद्रय बढ़ता जाता है पुरुष स्त्री सब आर्त होकर प्रार्थना करते हैं पर कोई सुनता नही। जान पड़ता है कि कुछ देवताओं ने मिलकर बड़ा भारी जादू कर दिया हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे समय भयभीतो के रक्षक कृपालु रामचंद्रजी को स्मरण करते हो, उन्होंने अपनी करुणा की प्रशसा करके ठीक अवसर पर लोगों की सहायता का सकेत कर दिया (राम की कृपा से काशी से महामारी चली गई)।

कथा-प्रसंग
१— नारद (छंद १६, बाल०)

नारदजी पूर्वजन्म में वेदवादी ऋपियों के दासी के पुत्र थे। माँ ने इन्हें ऋषियों की सेवा के लिए रख दिया था। ये मन लगाकर श्रद्धापूर्वक उनके सेवा करते थे। उन मुनियों को जो जूठन बचता था उसी को खाकर अपना पेट भरते थे, इसके प्रभाव से उनका अतःकरण शुद्ध हो गया। ऋषियों ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें उपदेश दिया जिससे उनके मन में दृढ़ भक्ति पैदा हो गई। ऋषियो के चले जाने पर कुछ दिनों बाद उनकी माता सर्प काट लेने के कारण मर गई। तब वे उत्तर दिशा में जाकर तपस्या करने लगे। लेकिन अनुपयुक्त शरीर होने के कारण ध्यान जमता नहीं था। एक दिन काल पाकर उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया और जब ब्रह्माजी जगत् की रचना करने लगे तब मरीचि, अगिरा आदि ऋषियों के साथ उत्पन्न हुए। तब से वे वीणा लिए सर्वत्र हरिगुण गाते विचरा करते हैं, उनकी गति कहीं भी नहीं रुकती।

२— अहल्या (छंद ३१, बाल०)

एक बार ब्रह्माजी ने अपनी इच्छा से एक परम मनोहर कन्या उत्पन्न की जिसकी सुन्दरता देखकर सभी मोहित होते थे। ब्रह्माजी उसे गौतमजी को धरोहर की भाँति सौंपकर चले गए। कुछ दिन बाद ब्रह्माजी ने उनसे वह कन्या मॉगी तब उन्होंने ज्यो की त्यों उन्हे सौपदी। ब्रह्माजी ने गौतमजी की जितेन्द्रियता देखकर उस कन्या का विवाह उन्हीं के साथ कर दिया। यह बात इन्द्र को बहुत बुरी लगी। एक दिन जब गौतमजी बाहर गए थे, इन्द्र गौतम को बनावटी रूप धारण करके आया और उसने धोखा देकर अहल्या के साथ संभोग किया। वह संभोग कर ही रहा था कि गौतम ऋषि आ पहुँचे। अहल्या ने घबड़ाकर इन्द्र से उसका नाम पूछा; उसने नाम। बता दिया। अहल्या इसे छिपाकर देर से द्वार खोलने आई। ऋषि ने देर से आने का कारण पूछा, अहल्या ने इसे छिपाया। तब ऋषि ने अपने तपोबल से सारा हाल जानकर इन्द्र को शाप दिया कि तेरे शरीर में सब भग हो जायँ </noinclude> 
और अहल्या को शाप दिया कि तू शिला ही जा। जब रामजी दर्शन देगे तब तेरा उद्धार होगा। वह शिलारूपिणी अहल्या रामजी के चरणस्पर्श से पवित्र होकर स्त्री-रूप होकर पुनः गौतम के पास चली गई।

३—सहस्रबाहु (छंद ५, लंका०)

एक दिन हैहय-वंशी राजा सहस्रबाहु शिकार खेलते-खेलते जमदग्नि मुनि के आश्रम में पहुँचा। कामधेनु के प्रभाव से मुनि ने सेना-सहित सहस्रबाहु का यथोचितसत्कार किया। मुनि में अपने से अधिक सामर्थ्य देखकर सहस्रबाहु उनसे कुढ़ा, उसकीआज्ञा से उसके नौकर बलपूर्वक बछडे सहित उस धेनु को माहिष्मती नगरी में उठा ले गए। जब मुनिजी के पुत्र परशुराम जी को यह समाचार मालूम हुआ तब उन्होने अपना फरसा लेकर सहस्रबाहु पर चढ़ाई की। सहस्रबाहु ने उनके मारने के लिए १७ अक्षौहिणी सेना भेजा, उसे परशुरामजी ने काट डाला। इस पर जब सहस्रबाहू लड़ने आया तब उसे भी मार डाला।

४—गणिका (छंद ७, उत्तर०)

सत्ययुग का परशुराम वैश्य श्वासरोग से मर गया, तब उसकी स्त्री अपनी कुल-धर्म छोड़कर स्वजनों से दूर जाकर वेश्यावृत्ति करने लगी। एक दिन एक बहेलिया एक सुग्गे की बच्ची बेचने आया। उसने सुग्गा खरीदकर पुत्रभाव में उसे पुत्र बत् स्नेह से पाला और उसे रामनाम पढ़ाया। रामनाम पढ़ाते-पढ़ाते दोनों एक ही समय में मर गए, रामनाम के उच्चारण के प्रभाव से दोनो को मुक्ति हो गई।

५–गज (छंइ ७, उत्तर०)

किसी प्राचीन सत्ययुग में क्षीरसागर के त्रिकूट नामक पर्वत में वरुण देव का ऋतुमत् नामक बगीचा था; एक दिन उस बगीचे के सरोवर में एक मुदमत गजथूथपृति हरानियों सहित नहा रहा था। उसी समय एक बलवान् मकर ग्राह जो पूर्वजन्म में हूहू नाम का गंधर्व था) ने उसका पैर पकड़ लिया। गजराज तथा उसके साथियों ने भरसक उससे छुड़ाने के लिए चेष्टा की, परतु कोई भी इसे जल से निकाल न सका। जब गजराज अपने जीवन से हताश हो गया तब वह भगवान् का ध्यान करके उनकी स्तुति करने लगा। </noinclude>
उसका आतनाद सुनकर भगवान् गरुड़ को छोड़कर गजेंद्र की सहायता के निमित्त आए। भगवान् ने गजेंद्र की सूँँड़ पकड़ कर ग्राह सहित जल से बाहर खीचकर चक्र से ग्रह का मुख फाड़कर उसे छुडाया और वे गजेंद्र को अपना पार्षद बनाकर अपने साथ ले गए।

६—अजामिल (छंद ७, उत्तर०)

कान्यकुब्ज देश मे अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था। उसने अपनी विवाहिता पत्नी को त्याग कर दासी से प्रीति की थी। वह जुआ, चोरी, ठगी आदि अनेक प्रकार के निदित कर्म करता था। एक दिन जब वह बाहर गया था उसके घर पर कुछ साधु आए। उसकी गर्भवती स्त्री ने साधुओं का बड़ा आदर-सत्कार किया। जाते समय साधुओ ने उसे आशीर्वाद दिया कि तेरे पुत्र होगा। तू उसका नाम 'नारायण' रखियो। अजामिल अपने दस पुत्रों में सबसे छोटे 'नारायण' को सबसे ज्यादा प्यार करता था। बिना छोटे पुत्र के उसे चैन नही पड़ता था। अत में मरते समय जब उसे यमराज के दूत भय दिखाने लगे, तब उसने अपने प्रिय पत्र नारायण' को पुकारा नाम लेते ही भगवान् के दूतो ने आकर उसे यमदूतों के पजे से छुड़ाया। भगवान् ने उसे सुन्दर गति दी।

७–प्रह्लाद छंद (८, उत्तर०)

जब प्रह्लाद अपनी माता कयाधु के गर्भ में थे, उस समय एक दिन नारदजी ने आकर उनकी माँ को ज्ञानोपदेश किया। मॉ को तो ज्ञान नहीं हुआ, पर गर्भ के बालक को ज्ञान हो गया ।प्रह्लाद रामजी के बड़े भारी भक्त हुए; इनके लिए भगवान् को नृसिंह अवतार धारण करना पड़ा जिसकी कथा लोक-प्रसिद्ध है

८–शवरी (छद १०,उत्तर०)

यह जाति की मीलनी थी, मतग ऋषि की सेवा किया करती थी; जब ऋषि परमधाम को जाने लगे तो इसने भी ले जाने का हठ किया। परंतु ऋषि ने कहा कि तु अभी यहीं रह। तुझे त्रेता में भगवान् के दर्शन मिलेगे। गृध्र को परमधाम देकर भगवान् शवरी के आश्रम मे गए, भगवान् ने उसके बेर खाए और उसे नवधा भक्ति का उपदेश दिया। शबरी रामजी को सुग्रीव 
की मित्रता का संकेत करके उनके चरण-कमलों का ध्यान धरकर योगाग्नि में देई जलाकर परधाम हो गई।

६-यवन (छंद ७६, उत्तर०)

यवन एक पापी म्लेच्छ था। वह अपनी बद्धावस्था में एक दिन शौच के उपरात आबदस्त ले रहा था कि उसे एक शूकर ने जोर से ढकेल दिया। इस पर वह चिल्ला उठा कि मुझे ‘हराम ने मारा,’ ‘हराम ने मारा’। वृद्धावस्था की कमजोरी के कारण वह इस आघात से मर गया। मरते समय हराम, हराम उच्चारण करने से भगवान् ने उसे अपना भक्त समझ कर (क्योंकि उसने हराम के साथ राम राम उच्चारण किया था) मुक्ति दी।

१०-ध्रुव (छंद ८८, उत्तर०)

स्वायंभुव मनु के पुत्र राजा उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नाम की दो स्त्रियाँ थीं। ध्रुव बड़ी रानी सुनीति के और उत्तम छोटी रानी सुरुचि के पुत्र थे। राजा छौटी रानी से विशेष प्रेम रखते थे। एक समय राजा उत्तम को गोद में बैठाकर प्यार कर रहे थे। उस समय ध्रुव खेलते-खेलते आ पहुँचे और राजा की गोद में चढ़ने लगे। परतु राजा ने कुछ आदर या प्यार नहीं किया। गोद में चढ़ते देखकर विमाता ने डाहवश ध्रुव से कहा, “तुम राजा के पुत्र तो हों परतु मेरे गर्भ से न उत्पन्न होने के कारण राजा के आसन पर चढ़ने योग्य नहीं हो। अगर तुम राज्यासन पर चढ़ना चाहते हो तो मेरे गर्भ से उत्पन्न होने के लिए परमात्मा की आराधना करो।” यह सुनकर ध्रव को बडी़ ग्लानि हुई। वे माता से तप करने की आज्ञा लेकर घर से निकले; और तप करके अचल लोक के स्वामी हुए।

११–ब्याध (छंद ६२, उत्तरा०)
व्याधू वाल्मीकि जी को ही समझना चाहिए।
(देखो वाल्मीकि)
१२-श्वान (छंद १००, उत्तर०)
श्रीरामजी ने अयोध्या के एक कुत्ते की नालिश पर एक संन्यासी को दंड

</noinclude>

  1. पाठान्तर—त्याहि।
  2. पाठान्तर—कैशव।