कलम, तलवार और त्याग/८-श्री गोपाल कृष्ण गोखले

कलम, तलवार और त्याग
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १०५ से – १२३ तक

 

भारतीय महापुरुषों में यों तो प्रायः सभी के जीवन-चरित्र अतिशय उत्साहवर्द्धक हैं, पर उस निष्काम देशभक्ति और आत्मत्याग का उदाहरण, जिसने गोपाल कृष्ण गोखले को सारे राष्ट्र के लिए गर्व और गौरव की वस्तु बना रखा है, कठिनाई से और कहीं मिल सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि देश में आज ऐसी विभूतियाँ विद्यमान है, जिनका बुद्धि-वैभव अधिक विशाल है, जिनको पाण्डित्य अधिक गंभीर है, जो पद-प्रतिष्ठा मैं आपसे बड़े हैं, पर वह सच्चा देश-प्रेम जिसके कारण आपने अपने आपको देश पर निछावर कर दिया है, अपनी विस्तृति, गहराई और लगन में बेजोड़ है। आपका जीवन उत्साही युवकों के लिए उच्छाकांक्षा का अनुकरणीय उदाहरण है। आज आपको देश के राजनीतिक मंडलों में बहुत ही ऊँचा पद प्राप्त है। और यह कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं कि आपके देशवासी आपकी पूजा करते हैं। इसका प्रमाण इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि महात्मा गांधी जैसे पूजनीय पुरुष भी आपको अपना गुरु मानते हैं। और इसमें तो शक-शुबहे की गुंजाइश ही नहीं हैं कि व्यवस्थापिका सभा में अपने जो बड़े-बड़े काम किये हैं वह उसके इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगे।

गोखले का जन्म १८६३ ई० में महाराष्ट्र के कोल्हापुर नगर में हुआ। मा-बाप अगर निर्धन और अर्थकष्ट में न थे, तो किसी प्रकार संपन्न भी न थे। अपने वहीं के स्कूलों में पढ़ कर एफ० ए० पास किया और फिर बम्बई जाकर एलफिंस्टन कालिज में नाम लिखाया। प्राचीनता और देशोपकार की दृष्टि से यह क़ालिज भारत के सब
क़ालिजों का सिरमौर है। दादा भाई नौरोजी, सर फ़ीरोज़ शाह मेहता जैसे राष्ट्रनायकों की शिक्षाशाला होने का गौरव इसी कालेज को प्राप्त है। मिस्टर गोखले की नैसर्गिक प्रतिभा की यहाँ बहुत जल्दी धुम मच गई । विद्यार्थी और अध्यापक सभी आदर की दृष्टि से देखने लगे। गणित से आपको विशेष रुचि थी और कालेज के गणिताध्या- एक मिस्टर हथियार्न अपने होनहार शिष्य के बुद्धि-वैभव पर गर्व किया करते थे। चूँकि आपके मा-बाप पढ़ाई का रत्नच न उठा सकते थे, इसलिए यह अत्यावश्यक था कि परीक्षाफल ऐसा हो जिससे आप छात्र-वृत्ति के अधिकारी ठहराये जायँ, और कोई भी आदमी जो आप और आपके गुणों से परिचित था, आपकी सफलता में रत्ती बराबर भी संदेह न कर सकता था। पर कुछ ऐसे संयोग उपस्थित हुए कि आप सम्मान के साथ बी० ए० की उपाधि नाव प्राप्त कर सके। इस बिफलन से आपको जो दुःख हुआ उसका अंदाजा वही अच्छी तरह कर सकता है जिसकी आशाओं पर इस प्रकार पानी फिर गया हो। अन्त में जीविका की चिन्ता आपको पूने ले गई। यहाँ इंजीनियरिंग कालेज में भरती होने का विचार था जिसके लिए गणित में प्रवीण होने से आप विशेष रूप से उपयुक्त थे। पर सफलता फिर अपना अमंगल-रूप लेकर सामने आई। ५ वेश की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और प्रिंसपल ने आपको भरती करने में असमर्थता प्रकट की। इस नई विफलता से आपको मन और भी छोटा हो गया। फल मनचाहा होता तो आप किसी डिवीजन के इंजीनियर हो जाते और धनवैभव के विचार से आपकी स्थितिं कहीं अच्छी होती। मगर फिर आपके हृदय मस्तिष्क के उच्च गुणों की अभिव्यक्ति जाने किस क्षेत्र में होती। सच तो यह हैं कि आपके भाग्य में देश और जाति पर निछावर होना लिखा था। आबकी वह विफलताएँ जो आपकी निजी आकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक हुई, राष्ट्र के लिए ईश्वर की बहुत बड़ी देन सिद्ध हुई। भगवान करे, ऐसी विफलताएँ जिनके शुभ परिणामों पर सहस्रौं सफलतए ईर्ष्या करें, सबको प्राप्त हौं। उसी समय वहाँ दक्षिण के कुछ उदारहृदय, उत्साही देशभक्तो ने जनसाधारण की शिक्षा के लिए एक अंग्रेजी स्कूछ खोला था और मिस्टर तिलक, मिस्टर आपटे और अन्य महानुभावों के संरक्षण में 'डेकन एजुकेशन सोसाइटी' नाम से संस्था स्थापित हुई थी, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षा का प्रचार करना था। मिस्टर गोखले ने जीविका का और कोई उपाय न देखा इस विद्यालय में एक पद स्वीकार कर लिया। आगे चलकर यही विद्यालय फर्गुसन कालेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ और आज तक दक्षिण की सहानुभूति, देश-सेवा के उत्साह और आत्म-त्याग के सजीव स्मारक-रूप में विद्यमान है। उक्त शिक्षा-संस्था के प्रत्येक सदस्य को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि मैं इस कालेज में बिना पारिश्रमिक का विचार किये, यथाशक्ति शिक्षण-कार्य करता रहूँगा। भारतवर्ष अनन्तकाल तक उन महानुभावों के आत्म त्याग की ऋणी रहेगा, जिन्होंने अपने निजी लाभ की ओर न देखकर अपना जीवन देश-सेवा के लिए अर्पण कर दिया और जिनके सप्रयत्न के फलस्वरूप एक छोटा-सा स्कूल आज देश को एक सुविख्यात और सुसम्मानित राष्ट्रीय महाविद्यालय है। प्रसन्नता की बात है कि देश-सेवा का उत्साह जिसने फर्गुसन कालेज को पाला-पोसा, आज हमारे ज्ञानालोक से वंचित प्रान्त में भी विशेष-रूप से प्रकट हो रहा है और कुछ प्रगतिशील देश- भक्तों ने सेंट्रल हिन्दुकालेज के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया है। और उनकी यह तपस्या आगे चलकर अवश्य सफल होगी।

मध्यवित्त वर्ग के दूसरे नवयुवकों की तरह गोखले के हृदय में भी नाम-प्रतिष्ठा के अतिरिक्त धन-सम्पत्ति की भी आकांक्षा भरी हुई थी। यह नौकरी उन्होने आवश्यकता से विवश होकर केवल अस्थायी रूप में स्वीकार कर ली थी। पर जब संस्था के सदस्यों के साथ उठने- बैठने, रहने-सहने और विचार-विनिमय का अवसर मिला, तो उनके उदार और सहानुभूति-युक्त विचारों का इन पर भी गहरा असर पड़ा। आप भी उसी रँग में रंग गये और देश सेवा की उमंग इतनी उमड़ी कि नाम, बड़ाई, धन-दौलत के हवाई क़िले क्षण में धराशायी हो गये।
आप जैसे युवक के लिए जिसके पास न पैतृक सम्पत्ति थी और नए आमदनी बढ़ाने का और कोई ज़रिया, इस शिक्षा संस्था के उद्योगों में हाथ बँटाना साधारण बात न थी। खासकर उस अवस्था में जब कि उन पर बहुतों के भरण-पोषण का भार हो. प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले कुछ समय तक आप बड़े पशोपेश में पड़े हुए थे, पर अंत में देश-प्रेम की विजय हुई और आप डेक्कन एजुकेशन सोसायटी में सम्मिलित हो गये, जिसका अर्थ यह था कि आप ७५ रुपये मासिक वेतन को उन्नति की चरम-सीमा समझकर २० वर्ष तक शिक्षण-कार्य करते रहें। इस त्याग से प्रकट हो सकता है कि अपकी दृष्टि में लोकहित का दरजा दूसरी लौकिक इच्छाओं की तुलना मैं क्या था। जब इस बात को सोचिए कि उस समय आपकी अवस्था कुल जमा १८ साल की थी, जब हृदय में उमंगों, आकांक्षाओं का सागर लहरात रहता है, तो स्वीकार करना पड़ता है कि आप सचमुच देवता थे। ऐसे देशभक्त तो बहुत मिलेंगे जो संसार के सुख-भोग से परितृप्त हो जाने के बाद अन्त के थोड़े-से दिन देशकार्य को दे दिया करते है, पर ऐसे कितने हैं जो मिस्टर गोखले की तरह अपना तन, मन, धन सब राष्ट्र के चरणों पर समर्पण कर देने को प्रस्तुत हो जायँ ?

उक्त संस्था में सम्मिलित होने के बाद आप बड़ी लगन, उत्साह और एकनिष्ठता के साथ अध्यापन-कार्य में जुट गये। अपने उत्साह और परिश्रम के कारण थोड़े ही समय में अध्यापकों में आपको विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया। और कुछ ही दिनों में आप कालेज के प्राण हों गये। उस समय कालेज की आर्थिक अवस्था ऐसी बुरी हो रही थी कि मजबूरन एक मामूली-से मकान में गुजर करना पड़ता था। आपने उसके लिए एक यथायोग्य, भव्य भवन बनवाने का निश्चय किया और अपने सहयोगिय के साथ दक्षिण देश का दौर शुरू किया। लगभग तीन बरस के अथक प्रयास के बाद अपने दो लाख रुपये एकत्र कर लिये। इस सफलता ने आपकी उद्योग-शीलता, कार्य- कुशलता और प्रबन्ध-पटुता का सिक्का बिठा दिया। कालेज के लिए
जल्द ही एक आलीशान इमारत बनकर तैयार हो गई जो सदा दाक्षिणात्यों की सच्ची देश-भक्ति और निःस्वार्थ प्रयत्न का प्रतीक बनी रहेगी। इस महिमा-मण्डित कालेज और उसके सच्ची लगनवाले कार्य- कर्ताओं के श्रम और उद्योग की सराहना लार्ड नार्थकोट और अन्य सज्जनों ने जिन शब्दों में की है, वह निश्चय ही अति उत्साह- वर्द्धक है।

चूँकि देश को गोखले का चिरऋणी होना था, इसलिए उसके सामान भी दैवगति से इकट्ठा होते गये। शिक्षा-संबंधी कार्य करते अभी पूरे तीन बरस भी न हुए थे कि आपको उस विद्या-गुण से पूरे, देवोपम, उदारहृदय, महापुरुष की शिष्यता का सुयोग प्राप्त हुआ जिसका यश आज भारत का बच्चा-बच्चा गा रहा है। ऐसा कौन होगा जो स्वर्गीय महादेव गोविन्द रानडे के पुनीत नाम से परिचित न हो ? हिन्दुस्तान की हर दरो-दीवार आज उस पुण्यकीर्ति को गुणगान कर रही है। उनका जीवन संसार के संपूर्ण सद्गुणों का उज्ज्वल उदाहरण है। उस देश के प्यारे के हृदय में देश और जाति की याद हरदम बनी रहती थी। भारतवर्ष की ऐसी कौन-सी सभा समिति थी जिसको उस साधु पुरुष से कुछ सहायता न मिली हो। उन दिनों पूने की सार्वजानिक सभा की ओर से पत्र निकालने के लिए एक उत्साही, परिश्रमी, प्रगतिशील विचारवाले युवक की आवश्यकता थी। मिस्टर गोखले को उम्र उस समय २२ साल से अधिक न थी। कितने ही परिपक्व वय और अनुभववाले सज्जन इस पद के लिए दावेदार थे। पर श्रीयुत रानडे की जौहरी निगाह में इस कार्य के लिए आपसे अधिक उपयुक्त दस दिखाई न दिया। वाह क्या परख थी! बाद की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि रानडे का चुनाव इससे अच्छा हो ही नहीं सकता था।

पत्र-सम्पादन का भार अपने ऊपर लेते ही अपने देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं का गंभीर अध्ययन आरंभ कर दिया, और इन गुत्थियों को सुलझाने के लिए मिस्टर रानडे से
अधिक उपयुक्त व्यक्ति और कौन हो सकता था। एक सज्जन का कथन है कि 'मिस्टर गोखले एक राष्ट्रीय मीरास है जो स्वर्गीय रानाडे ने, देश को प्रदान किया है। और यह कथन सर्वथा सत्य है। इससे कौन इनकार कर सकता है कि आप अपने गुरु के रंग में नख से शिखतक, डूबे हुए थे। एक भाषण मैं स्वयं सगर्व कहा था कि “मुझे १२ वर्ष तक उस महामति की शिष्यता का गौरव प्राप्त रहा और इस बीच मैंने उनके उपदेशों से अमिते लाभ उठाया। इन शब्दों में कितनी , श्रद्धा भरी है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। धन्य हैं वह देवोपम गुरु और गुणशाली शिष्य। आज मिस्टर रानडे की आत्मा स्वर्ग में अपने शिष्य की निःस्वार्थ देश-सेवा को देखकर आनंद में झूम रहीं होगी। मिस्टर गोखले को देश के आर्थिक तथा राजनीतिक प्रश्नो पर जो असाधारण अधिकार प्राप्त था, वह उसी महानुभाव के सत्संग का प्रसाद था। इस १२ वर्ष के शिष्यत्व में आपने कितनी ही आर्थिक रिपोर्टों और पत्रो के खुलासे किये जो संशोधन के लिए श्रीयुत रानडे की सेवा में उपस्थित किये जाते थे। और इसमें कोई संदेह है। कि उनके सशोधन श्रद्धावान् शिष्य के लिए आफत का सामान हो जाते थे! वह उसी कठिन साधना की सुफल था कि सरकारी आर्थिक रिपोर्टों की भूल-भुलैया को कोई चीज न समझते थे और चुटकी बजाते दूध का दूध, पानी का पानी अलग करके दिखा देते थे।

मिस्टर रानडे का सान्निध्य प्राप्त करने से आपको केवल यही लाभ नहीं हुआ कि आपको देश के उपस्थित प्रश्नों का मार्मिक ज्ञान हो गया, किंतु दिन-रात के साथ ने आपके हृदय पर भी अपने गुरु की श्रम-शीलता, दृष्टि की व्यापकता, विचारों की उदारता, निष्पक्षता, विवेचना-शक्ति और सचाई की ऐसी गहरी छाप डाल दी कि ज्यो-ज्यों दिन बीते, वह मिटने के बदले और उभरती गई। आठ बरस तक अपने शिक्षण कार्य करने के अतिरिक्त सार्वजनिक सभा के पत्र ‘ज्ञानप्रकाश’ को मिस्टर रानडे के तत्वावधान में बड़ी योग्यता से चलाया। आपके मत ऐसे प्रौढ़ और पके होते थे और आपके लेखों में वह सजीवता, नवीनता
और ओज होता था कि थोड़े ही दिनों में वह पन्ने शिक्षित-समुदाय में अंदर की दृष्टि से देखा जाने लगा। और सबको मालूम हो गया कि देश के सार्वजनिक जीवन में एक बड़े ही योग्य व्यक्ति की वृद्धि हुई है। इसका व्यावहारिक प्रमाण यह मिला कि आप बम्बई प्रान्तीय कौसिल के मंत्री बना दिये गये और चार साल तक इस कार्यं को भी आपने बड़ी तत्परता और योग्यता के साथ किया।

इन सेवाओं की बदौलत आपकी कीर्ति देश के दूसरे प्रान्तों मैं भी कस्तुरी की गन्ध की तरह फैलने लगी और अन्त में १८९७ ई० में आप इण्डियन नैशनल कांग्रेस के मन्त्री-पद पर प्रतिष्ठित हुए। इसी साल आपको अपनी देश-भक्ति का परिचय देने का एक सुयोग हाथ लगा। कांग्रेस और अन्य देश-हितैषी बहुत अरसे से यह शिकायत करते आ रहे थे कि ऊँचे पदों पर आम तौर से अंग्रेज ही नियुक्त किये जाते हैं और भारतवासी अधिक योग्यता रखने पर भी उनसे वंचित रहते हैं। अन्त मैं पार्लमेंट का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और लार्ड विलबी की अध्यक्षता में एक शाही कमीशन नियुक्त किया गया कि इस बात की जाँच-पड़ताल करे कि यह शिकायतें कहाँ तक साधार हैं और कुछ ऐसी तजवीजें पेश करे जो सरकार के लिए नियमावली का काम दें। दुःख है कि ब्रिटिश नेकनीयती और न्याय-निष्ठा का यह अन्तिम परिचय और प्रमाण था और ऐग्लो इंडियन वर्ग ने जिसे बेदर्दी के साथ इन प्रस्तावों को दलन किया वह उनके आचरण और नीति पर सदा एक काला धब्बा बना रहेगा।

उस समय तक मिस्टर गोखले की सूक्ष्मदर्शिता, ओज-भरे वक्तृत्व भारतीय प्रश्नों से सम्यक अभिज्ञता और आर्थिक विषयों की समीक्षा की योग्यता की’ सारे भारत में धूम मच रही थी, इसलिए दक्षिण के लोगों के प्रतिनिधि बनाकर विलबी कमीशन के सामने मत-प्रकाश के लिए भेजे गये। मिस्टर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मिस्टर दीनशा ईदुलजी चाचा और मिस्टर सुब्रह्मण्य ऐयर के साथ अप इंगलैण्ड गये। वहाँ कमीशन के सामने अपने जो भाषण किया वह भाषा के सौष्ठव और
ओज, युक्ति, तक की सबलता और देश भक्ति के उत्साह की दृष्टि से बेजोड़ है। यद्यपि यह भाषण बड़ा लम्बा था, फिर भी कमिश्नरों ने बड़ी उदारता और प्रसन्नता के साथ उसकी सराहना की और इसमें भी सन्देह नहीं कि उनके प्रस्तावों पर उसका गहरा असर पड़ा। भारत की गरीबी और सरकार की अनुचित कठोरता का करुण शब्दों में वर्णन करने के अनन्तर आपने कहा--

'वर्तमान शासन प्रणाली का यह परिणाम हो रहा है कि हमारी शारीरिक और मानसिक शक्ति दिन दिन छीजती जा रही है। हम दैन्य और अपमान का जीवन स्वीकार करने को बाध्य किये जाते हैं। पद-पद पर हमको इस बात की याद दिलाई जाती है कि हम एक दलित-जाति के जन है। हमारी स्वाधीनता का गला बेदर्दी से घटा जा रहा है, और यह सब केवल इसलिए कि वर्तमान शासन-व्यवस्था की नींव और मजबूत हो जाय। इंगलैण्ड को हरएक युवक जिसको ईश्वर ने बुद्धि और उत्साह के गुण प्रदान किये हैं, आशा करता है कि मैं भी किसी न किसी दिन राष्ट्र:रूपी जहाज का कप्तान बनूंगा, मैं भी किसी न किसी दिन ग्लैडस्टल का पद और नेलसन का यश प्राप्त करूंगा। यह भावना एक स्वप्न-मात्र क्यों न हो, पर उसके उत्साह और उच्चकांक्षा को उभारती हैं। वह जी-जान से गुण सीखने और योग्यता बढ़ाने के यत्न में लग जाता है। हमारे देश के अभागे नौजवान ऐसे- उत्साह-वर्द्धक स्वप्न नहीं देख सकते। वे ऐसे ऊँचे हवाई महल भी नहीं उठा सकते। वर्तमान शासन-प्रणाली के रहते यह संभव नहीं कि हम उस ऊँचाई तक पहुँच सके, जिसकी शक्ति और योग्यता प्रकृति ने हमें प्रदान की है। वह नीति-बल जो प्रत्येक रवाधीन जाति का विशेष गुण है। हममें लुप्त होता जा रहा है। अन्त में इस स्थिति का शोचनीय परिणाम यही होगा कि हमारी शासन-प्रबन्ध और युद्ध की योग्यता, अव्यवहारवश मष्ट हो जायगी और हमारी जाति का इतना अधःपतन हो जायगा कि हम लकड़ी काटने और पानी भरने के सिवा और किसी काम के न रह जायेंगे।

कमीशन के सामने गवाही देने के बाद मिस्टर गोखले ने लण्डन और इंगलैंड के दूसरे जिलो की भ्रमण आरभ किया जिसमें अपनी जोरदार वक्तृताओं से ब्रिटिश जनता के हृदय में भारत के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करे और देश की स्थिति के विषय में उनकी शोचनीय उपेक्षा तथा अनभिज्ञता को दूर करें। आपके इन सत्प्रयत्नों की दाद ब्रिटिश जनता ने दिल खोलकर की। आपके भाषणों के साथ बड़ी दिलचस्पी दिखाई गई। सब ओर से साधुवाद की वर्षा होने लगी , बधाई के पत्र आने लगे और कुछ ही दिनों में सब पर आपके वक्तृत्व और विद्वत्ता का सिक्का जम गया। पर इस समय जब आप कृतकार्य होकर भारत लौटनेवाले थे, एक अनिष्ट घटना घटित हुई जिसके कारण कुछ दिनों तक आपको अपने अनभिज्ञ नोकझे देशवासियों में लांछित होना, उनके निष्ठुर व्यंग्य-आक्षेपों का निशाना बनना पड़ा। उन दिनों बम्बई के शासन की बागडोर लार्ड डस्ट के हाथों में थी। लेग के प्रतिबंध के लिए अपने बड़े कड़े नियम प्रचारित किये थे और उनको काम में लानेकोले अहलकार उन पर हाशिया चढ़ाकर जनता पर अवर्णनीय अत्याचार करते। सो जब पूने में इस महामारी का प्रकोप हुआ और सरकारी कर्मचारी उसके प्रतिबंध की धुन में अँघेर मचाने लगे तो जनता भड़क उठी। शिशित जनों को भी अधिकारियों का यह हस्तक्षेप अनुचित जान पड़ा। उन्होंने इसका जोरों से विरोध किया। समाचार पत्रों ने भी उनका साथ दिय। पर नौकर साही की नीद्रा न टूटी। अन्त में दो अंग्रेजों--रेंड और आयस्टे-को, जो जनता की भी निगाह में इन सारी ज्यादतियों के लिए कारणभूत थे, सरकार की करनी और जनता के क्रोध का फल भुगतना पड़ा।

इन दो अंग्रेजों के क़तल से अंग्रेज अधिकारियों के कान खड़े हो गये। उनको संदेह हुआ कि यह उपद्रव शिक्षित-वर्ग को उठाया हुआ
है। अंग्रेजी अखबारों ने भी हल्ला मचाना शुरू किया और प्रतिहिंसा के आवेश में ईश्वर जाने क्या-क्या लिख डाला। किसी ने सलाह दी--हिन्दुस्तानी अखबारों की धज्जियाँ उड़ा दो। किसी ने कहा-पूने की ईंट ईंट से बजा दो। भारतीय पत्रों का साहस भी सराहनीय है कि वह सच कहने से न चुके; अंग्रेजों को खूब तुक-बेतुकी जवाब दिया। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने कुछ देश-भक्तों के रक्त से अपने क्रोध की आग ठंडी की। ऍग्लोइंडियन समुदाय ने घी के चिराग जलाये, खुशी मनाई और सरकार के अति कृतज्ञ हुए।

मिस्टर गोखले अभी इंगलैंड में ही थे कि उनके मित्रों ने भारत (बंबई ?) सरकार के अत्याचार-उत्पीड़न के दिल हिला देनेवाले विवरण पूने से लिख-लिखकर भेजना आरंभ कर दिये। उनको आशा थी कि आप इङ्गलैंड में सरकार की इन अनुचित कार्रवाइयों को मशहूर करके उनकी ओर पार्लमेन्ट का ध्यान खींच सकेंगे। अपने देश- वासियों की यह दुर्दशा ऐसे देशभक्त के जो देश पर तन-मन बार चुका हो --जोश को न उभारे, यह असंभव था। फिर भी आपने बड़े धैर्य और संयम से काम लिया। आप भली-भाँति जानते थे कि सरकार पर यह इलज़ाम लगाने के लिए सबूत जुटाना असंभव हो जायगा और इन घटनाओं को प्रकट करने के पूर्व अपने बड़े सोच विचार से काम लिया। पर इसी बीच रैंड और आय की हत्या का भयावना समाचार पहुंचा और उसने ब्रिटिश जनता में अजीब हलचल मचा दी। भारतियों को दण्ड देने के उपाय सोचे जाने लगे। अफवाह उडी की पूने के २५ प्रतिष्ठित और प्रभावशाली जन फाँसी पर लटका दिये जायँगे। इसी प्रकार के और भी आतंक-जनक समाचार जो.सर्वथा निराधार थे, प्रसिद्ध हुए।

अब आपसे जब्त न हो सका और आवश्यक हो गया कि आप भी अपनी आवाज उठायें। अतः आपने उन पत्रों के आधार पर जो पूने से आपके मित्रों ने लिखे थे, सरकार की अनुचित कठोरता और अत्याचार की जोरदार शब्दों में घोषणा की और यह साबित करते की
कोशिश की कि यह प्रजा को दोष नही है कि वह सरकार से विमुख हो रही है, किन्तु सरकार की नासमझी है कि वह उसे दुःख देकर उत्तेजित कर रही है। आपने जो कुछ कहा वह केवल उन्हीं पत्रों के आधार पर था। पर तत्कालीन भारत-सचिव लॉर्ड जार्ज हौमिलटन ने, लार्ड सैंटस्ट के पत्र के आधार पर आपके बयान और इलज़ाम को खण्डन किया! अब आपके लिए इसके सिर और कोई उपाय न रहा कि या तो तथ्यों और प्रमाणों से अपने अभियोगों को सिद्ध करें या लज्जापूर्वक उनको वापस ले। अस्तु, आप भारत लौटे, पर इसी बीच बंबई सरकार ने पूने के मुखियों की गिरफ्तारी का हुक्म निकाल दिया था और जब आप अदन पहुँचे तो उन्हीं खबर देनेवाले मिंत्रों के पत्र मिले, जिनमें प्रार्थना की गई थी कि हमारे नाम न प्रकट किये जायें। गिरफ्तारी के हुक्म ने उन लोगों को इतनी भयभीत कर दिया था कि वह क़सम खाने को तैयार थे कि वह पत्र हमारे लिखे हुए न थे। मित्रों के इस तरह धोखा देने और कायरपन दिखाने से उस निर्मल, निष्पाप हृदय को जो चिन्ता और व्यथा हुई, उसका अनुमान करना असंभव है।

कुछ दिन तक सबको भय था कि आप सदा के लिए सार्वजनिक ,जीवन से अलग हो जाने को विवश किये जायेंगे। आपको निश्चय हो गया कि उन अभियोगों को जो मैंने सरकार पर लगाये हैं, साबित करना कठिन ही नहीं, स्पष्टतः असाध्य कार्य है। इसलिए अब शराफत और मर्दानगी का अनुरोध यहीं था कि आप भूल-स्वीकार और खेद-प्रकाश के द्वारा अपने उन शब्दों का शोधन-मार्जन करें जिनसे सरकार के आचरण पर धब्बा लगता था। जब अपने दावे को साबित करने का कोई उपाय दिखाई न देता था, तब भी उस पर अड़े रहना आपकी न्यायशील दृष्टि में सरकार का अकारण अपमान करना था। अतं सब पहलुओं पर भली-भाँति विचार कर लेने के बाद आपने अपनी सुप्रसिद्ध क्षमायाचना प्रकाशित की। पर आपके देशवासी जौ वस्तु-स्थिति से पूर्ण परिचित न थे, तुरंत आपसे अप्रसन्न हो गये और
आपके इस कार्य को अव्यवस्थित चित्तता तथा भीरुता आया है बड़ी निष्ठुरता से आप पर भर्त्सना के वाण बरसाये गये। यहाँ तक कि 'मिलीमार' और खुशामद के इलज़ाम भी लगाये गये। यद्यपि उस समय भी भारत और इंगलैण्ड दोनों ही देशो में ऐसे न्यायशील और दृढ़ विचार के पुरुष विद्यमान थे, जिन्होंने दिल खोलकर आपके इस सत्साहस की सराहना की। स्वर्गीय जस्टिस रानडे ने, जो अपने सुयोग्य और सच्चे शिष्य की गतिविधि को वितृसुलभ स्नेह और उत्सुकता से देख रहे थे, आपके इस प्रकार हृदय-शुद्धि का प्रमाण देने पर प्रसन्नता प्रकट की। पर धन्य है वह उदाराशयता और महानुभावता कि मित्रों और शुभचिन्तकों के दिल को टुकड़े-टुकड़े कर देनेवाले वचन और कर्म आपके उत्साह को तनिक भी घटा न सके। आपने इस फारस कहावत---‘हरेक अर्ज दोस्त मीरसद् नेकोस्त' (मित्र से जो कुछ भी मिले शुभ ही होगा।) का अनुसरण कर सारे निन्दा-अपमान को माथे चढ़ा लिया। ऐसी स्थिति में एक बनावटी देश भक्त अपने देशवासियों को कृतघ्नता का दोषी ठहराता, देश की नाकद्री और बेवफाई का रोना रोता और शायद सदा के लिए सार्वजनिक जीवन से मुँह फेर लेता है पर आप उन देश-भक्तों में नहीं थे। जन्मभूमि का प्रेम और भाइयों की भलाई का भाव आपकी प्रकृति बन गया था। अपनी सहज अध्यवसायशीलता और एकाग्रता से फिर स्वदेश की सेवा में जुट गये और प्रसन्नता की बात है कि वह दिन जल्दी हीं आया कि आपके, भ्रम में पड़े हुए विरोधी अपने आक्षेपों पर लज्जित हुए।

अभी पत्रकारों का क्रोध ठंडा न हुआ था कि बंबई में प्लेग से त्राहि-त्राहि मच गई। लोग लड़के-बाले, घरबार छोड़-छाड़कर भागने लगे। आवश्यक जान पड़ा कि उत्साही देश-भक्त रोगियों की चिकित्सा और सेवा के लिए अपनी जान जोखिम में डालें। जिस आदमी ने सबसे पहले इस भयावनी घाटी में कदम रखा वह श्री गोखले ही थे। जिस तरह, तन्मयता और विनम्रता के साथ अपने प्लेग-प्रतिबन्धक
अधिकारियों का हाथ बँटाया वह आपका ही हिस्सा था। सारा देश आपकी प्रशंसा से गूंजने लगा। लार्ड सैंडस्ट भी जिन्होंने पहले कितनी ही बार आप पर चोटें की थी, इस समय आपको देश-भक्ति और जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति के क़ायल हो गये और कौंसिल में आपको धन्यवाद देकर अपनी गौरव बढ़ाया।

लोकहित में आपका अथक प्रयास देखकर देश फिर आपका भक्त बन गया। दक्षिण के लोगो ने सर्वसम्मति से आपको बंबई कौंसिल की सदस्यता पर प्रतिष्ठित किया। यहाँ आपने ऐसी लगन और एकनिष्ठता से देश की सेवा की कि सबके हृदय में आपके लिए आदर- सम्मान उत्पन्न हो गया। ‘बांबे लैण्ड रेवेन्यु' (मालगुजारी) बिल के संबन्ध में जो जोरदार बहसे हुई उनमें आपने प्रमुख भाग लिया और सरकार को विश्वास दिला दिया कि गैरसरकारी सदस्य सरकार के कार्यों की टीका विरोध की नीयत से नहीं करते, किन्तु सद्भावमयं सहयोग की नीयत से करते है। विदेशी सरकारों में सदा यह दोष रहता है कि उनकी हरेक तजजीज के दो पहलू हुआ करते है। सरकार अपने पहले के हानि-लाभ पर तो विचार कर लेती है। पर गरीब प्रजा के पक्ष की सर्वथा उपेक्षा कर जाती है। आपने सदा सच्चे मन से इसकी यत्न किया कि सरकार के सामने आनेवाले प्रत्येक प्रश्न और योजना की प्रजा की दृष्टि से समीक्षा करें और सरकार को उसके अवश्यंभावी परिणाम सुझाये, जिसमें वह प्रजा के विचारों और आवश्यकताओं को जानकर उसकी भलाई की चिन्ता और उपाय करती रहे।

इन महत्वपूर्ण सेवाओं के कारण आपके प्रशंसकों और भक्तों की परिधि और भी विस्तृत हो गई और आप बंबई की ओर से वाइसराय की कौंसिल के गैरसरकारी सदस्य चुने गये। सार्वजनिक जीवन से दिलचस्पी रखनेवाला हरएक आदमी जानता है कि वहाँ आपने अपने कर्तव्यों का पालन कितने परिश्रम, सचाई और जागरूकता के साथ किया। आपकी वक्तृताएँ खोज, बहुभ्रता, ओजस्विता और
साहस भरी भाषा की दृष्टि से अपना जवाब नहीं रखतीं। यूनिवर्सिटी बिल, और अफीशल सीक्रेट (सरकारी रहस्य-गोपन) बिल के विरोध में आपकी ललकारें अभी तक हमारे कानों में गूंज रही हैं और आशा है कि आपकी ये वक्तृताएँ सदा अपने ढंग की सर्वोत्तम वक्तृ- ताएँ मानी जायँगी। आपके गर्जन से लार्ड कर्जन जैसे शेर की भी बोलती बन्द हो जाती थी। इसमें सन्देह नहीं कि बड़ी कौंसिल में आप ही एक योद्धा थे, जिससे लार्ड महोदय आँखें बचाते फिरते थे। आपकी आलोचनाओं पर अकसर विरोध की नीयत को सन्देह किया गया, पर उसका कारण केवल यह है कि लार्ड कर्ज़न जैसा अभिमानी निरंकुश व्यक्ति अपनी कार्रवाइयों का भंडाफोड़ होना सहन नहीं कर सकता था, इसलिए आपकी नीयत में बुराई दिखाकर अपने दिल की गुबार निकाल लेता था।

आप जैसे विद्वान् और बहुज्ञ व्यक्ति से यह बात छिपी नहीं थी कि विदेशी सरकार सदा जनता की सहानुभूति से वञ्चित और गलत फहमियों का शिकार बनी रहती है। उसको एक-एक क़दम खूब ऊँचा नीचा देखकर धरना होता है। इसी दृष्टि से अपने कभी सरकार को जनसाधारण की निगाह में गिराने या दोषी बनाने की चेष्टा नहीं की, बल्कि जब कभी मौक़ा मिला, बड़े गर्व से उन बड़े बड़े लाभ की चर्चा की जो अंग्रेजी राज्य की बदौलत हमें प्राप्त हैं। अँग्रेजों की प्रमाणि- कता, शुद्ध व्यवहार और नेकनीयती के आप सदा से प्रशंसक थे, पर इसके साथ ही उन दोष-त्रुटियों से भी अनभिज्ञ नहीं थे, जो अंग्रेजी शासन में मौजूद हैं और जिन्होंने उसको बदनाम कर रखा है। आय- का विश्वास था कि यह दोष बदनीयती के कारण ही नहीं है, किन्तु गलत और अनुपयुक्त सिद्धान्तों को काम में लाने के कारण हैं, और उसका कोई उपाय हो सकता है तो यही कि भारतवासियों को शिक्षा-संपादन की प्रगति के साथ-साथ राजकाज मैं “अधिकाधिक भाग लेने का अवसर दिया जाये। उनकी आवाजें अधिक सहानुभूति के साथ सुनी जायँ, इनके गुणों तथा योग्यता का आदर अधिक उदारता के साथ
किया जाय। और उनकी अपनी जिम्मेदारी आप उठाने की योग्यता उत्तरोत्तर बढ़ाई जाय। निस्संदेह आपका आदर्श बहुत ऊँचा है, पर यही आदर्श सदी से न केवले उच्चाकांक्षी भारतीयों का रहा है, किन्तु उन उदारमना न्यायप्रिय अंग्रेजो को भी रहा है जो भूतकाल में भारतीयों के भाग्य के मालिक थे। जान ब्राइट, ब्रौडला, मेकाले और फास्ट जैसे मानव-हितैषों, उदाराशय पुरुषों के सामने भी यही आदर्श था। लार्ड बेंटिक, और लार्ड रिपन जैसे महानुभावों ने भी इसी आदर्श के अनुसरण का यत्न किया। और राजा राममोहन राय, जस्टिस रानडे और दादा भाई नौरोजी जैसे राष्ट्र के पथ-प्रदर्शक भी इसी आदर्श का पुकार- पुकारकर समर्थन करते गये। मिस्टर गोखले भी इसी आदर्श के उत्साही समर्थकों में थे और जब तक वह शुभ दिन न आये, जब कि सरकार इस आदर्श का अनुसरण करे, प्रत्येक उच्चाकांक्षी देश-हितैषी की प्रथम कर्तव्य यही होगा कि वह इस आदर्श को कार्य-रूप देने के यत्न में संलग्न रहे।

मिस्टर गोखले को जो लोकप्रियता और देश के नेताओं में जो प्रमुख स्थान प्राप्त था, उस पर प्रत्येक व्यक्ति को गर्व हो सकता है। आपने अपने को राष्ट्र पर उत्सर्ग कर दिया था। आपके हृदय में कोई लौकिक कामना थी तो यही कि भारत भूमण्डल के उन्नत राष्ट्रों में सम्मान का पद प्राप्त करे और रारीबी के गहरे गढ़े से निकलकर समृद्धि के सतखंडे पर अपनी पताका फहराये। आप दिन-रात देश की भलाई के, उपाय सोचने में ही डूबे रहते थे। निस्संदेह आप देश के नाम पर बिक गये थे। और यद्यपि सरकार ने आपकी निःस्वार्थं देश- भक्ति, लोकहित की सच्ची कामना तथा न्यायशीलता का आदर किया और आपको सितारेहिन्द की उच्च उपाधि से सम्मानित किया, पर आप इतने विनम्र और शालीन थे कि इस आदर-सम्मान को अपनी योग्यता से अधिक मानते थे। देशहित-साधन की धुन में आपको मान प्रतिष्ठा की तनिक भी इच्छा न थी।

मिस्टर दादाभाई नौरोजी में आपको भरपूर श्रद्धा थी। बंबई में
उनकी सालगिरह का जलसा हुआ तो उनके गुणगान में अपने बड़ी ओजस्विनी वक्तृता की, जिसके अन्तिम शब्द सोने के पानी से लिखे जाने योग्य हैं-

'मेरे नौजवान दोस्तो! सोचो कि मिस्टर दादाभाई को जीवन कैसा उज्ज्वल आदर्श है जो ईश्वर ने तुम्हारे लिए प्रस्तुत किया है। जिसे उत्साह से तुमने उनको श्रद्धांजलि अर्पित की उसे देखकर हृदय को आनन्द होता है। पर हम इस जलसे को कदापि सफल न समझेंगे, अगर तुम्हारा उभरा हुआ उत्साह इतने ही से संतुष्ट हो जाय। तुम्हारा फर्ज़ है कि उस जीवन से शिक्षा ग्रहण करो और अपनी भीतर-बाहर उसी नमूने पर सँवारने की कोशिश करो जिसमें किसी दिन यह गुण तुम्हारी प्रकृति के भी अंग बन जायें। सज्जनो, सब कुछ जानने और देखनेवाला परमात्मा प्रत्येक देश में समय-समय पर ऐसी आत्माएँ भेजा करता है जो मार्गक्षष्टों को रास्ता दिखायें और जिनके पदचिह्न का अनुसरण कर भूले-भटके बटोही अपने गन्तव्य स्थान को पहुँचे। निस्संदेह, दादाभाई नौरोजी इस अभागे देश की आँखों के तारे हैं। मुझसे कोई पूछे तो मैं जरूर कहूँगा कि आप जैसा ऊँचे विचार का देशभक्त दुनिया के किसी देश में मुश्किल से पैदा हुआ होगा। हममें से संभवतः कोई भी ऐसा न होगा जो उस ऊँचाई तक पहुँच सके। ऐसे बहुत कम होंगे, जिन्होंने चित्त की इतनी दृढ़ता और ऐसी ऊँचा दिमाग पाया हो। पर हम सभी आपके समान जाति-धर्म का भेदभाव न रखकर अपने देश को प्यार कर सकते हैं। हम सभी उस सब लक्ष्य के लिए जिस पर आपने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया है, कुछ न कुछ यत्न कर सकते हैं। आपके जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि देश और जाति की सेवा करो। अगर हमारे नौजवान भाई इस शिक्षा से थोड़ा-बहुत भी लाभ उठायेंगे, तो देश का भविष्य निस्सन्देह उज्जवल होगा, चाहे कभी-कभी समाँ अंधेरी ही क्यों न हो जाय।

मिस्टर गोखले को दिल से लगी थी कि श्री दादाभाई नौरोजी अपनी सारी जिन्दगी की कोशिश से जिस कल्याणकारी कार्य का
आरभ-मात्र कर पाये, वह देशवासियों की लापरवाही और कमहिम्मती से नष्ट न हो जाय। इसका सर्वोत्तम उपाय आपको यही दिखाई दिया कि उनके पदचिह्नों का अनुसरण किया जाय। यद्यपि इतने दिनों के अनुभव के बाद भारतवासियों को अब मालूम हो गया है कि अपने कष्टों की कहानी इंगलैण्डवालों को सुनाना बेकार है, और हमारा उद्धार होगी तो अपनी हिम्मत और पुरुषार्थ से ही होगा, पर आपका विश्वास था कि भारत के विषय में ब्रिटिश जनता की वर्तमान उपेक्षा का कारण केवल उसका अज्ञान है। उसकी सहज न्यायप्रियता अब भी लुप्त नहीं हुई है। आपको पूरा भरोसा था कि भारत की स्थिति से परिचित हो जाने के बाद वह अवश्य उसकी ओर ध्यान देगी। हमारे लोक-नायकों की सदा यही विचार रहा है। अतः समय-समय पर कांग्रेस के प्रतिनिधियों को विलायत भेजने के यत्न होते रहे हैं। पहली बार जो प्रतिनिधि गये थे, उनमें सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और स्वर्गीय मिस्टर मनमोहन घोष जैसे धुरन्धर वक्ता थे। उनका यत्न बहुत कुछ फल-जनक सिद्ध हुआ। १९०६ ई० में फिर यही आन्लदोन उठा और निश्चय हुआ कि हर सूबे से एक-एक प्रतिनिधि इंगलैण्ड भेजा जाय। इस गुरुतर कार्य के लिए सारे बम्बई प्रांत की अनुरोध भरी दृष्टि सिस्टर गोखले की ओर उठी और उनके कठिन कार्य-साधन में आनन्द पानेवाले स्वभाव से बड़े उत्साह से इस भार को अपने ऊपर लिया जिसे उठाने के लिए आपसे अधिक उपयुक्त व्यक्ति मिल नहीं सकता था।

इङ्गलैण्ड में विचारवान् व्यक्तियों ने आपको बड़े प्रेम और उत्साह से स्वागत किया। पर चूँकि इसी बीच वङ्गभङ्ग और स्वदेशी आंदोलन की चर्चा भी उठ गई थी, इसलिए भारतवासियो को आशंका थी कि मैंचेस्टर और लंकाशायरवाले, जो स्वदेशी आंदोलन के कारण रुष्ट हो रहे हैं, आपकी उपेक्षा न करें। सोचा जाता था कि उन स्थानों में जाते हुए आप खुद भी हिचकेंगे। पर आपकी गहरी निगाह ने भाँप लिया कि उनसे दूर रहना और भी बिलगाव को कारण होगा। जब
दवा की आशा उनसे की जाती है तो दर्द भी उन्हीं से कहना चाहिए। अतः आपने उन नगरों में जाकर ऐसे नपे, प्रभावशाली और ओजस्वी भाषण किये कि सुननेवालों के विचार पलट दिये। स्वदेशी आंदोलन को आपने जोरों से समर्थन किया जो आपके नैतिक बल का प्रमाण है। आपने फरमाया कि बङ्गाल में ब्रिटिश माल के तिरस्कार का कारण यह नहीं है कि बङ्गालियों के विचार विप्लववादी हो गये हैं। इति- हास और अनुभव इसके गवाह हैं कि जैसी राजभक्त और आज्ञापालक जाति भारतीयों की है, वैसी दुनिया की और कोई जाति नहीं हो सकती। जो जाति डेढ़ सौ साल से तनिक भी गरदन न उठाये उसका यकायक बिगड़ उठना अनहोनी बात है, जब तक कि उसके दिल को कोई असह्य चोट न पहुँचे। इसमे सन्देह नहीं कि लार्ड कर्जन की कार्रवाइयाँ, और खासकर उनके आखिरी काम ने बंगालियों को बहुत दुःखी और क्षुब्ध कर दिया है। फिर भी अभी तक कोई ऐसी घटना नहीं हुई है जो किसी सभ्य सरकार के लिए हस्तक्षेप या विरोध को समुचित कारण हो सके। शान्ति और व्यवस्था में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ा है। इस स्थिति में दुनिया की कोई और सभ्य जाति ईश्वर जाने क्या क्या उपद्रव मचाती। कोई निष्पक्ष व्यक्ति बंगाल- वालों के धैर्य और संयम की सराहना किये बिना नहीं रह सकता। यह सोचना निरा भ्रम है कि स्वदेशी आंदोलन पर इसलिए जोर दिया जा रहा है कि अंग्रेजों के प्रति उनके मन में शत्रुता का भाव है। बहुत-से ऐंग्लोइडियन पत्र लोगों को बहका रहे हैं। इस गलतफहमी में फंसे हुए लोगों को मालूम हो कि बगलिवालों ने यह तरीका महज़ इसलिए इख्तियार किया है कि अपनी चीख-पुकार और फरियाद ब्रिटिश जनता के कानों तक पहुँचायें और उनकी सहानुभूति प्राप्त करें। जो इस तरीके को बुरा समझना हो वह बतलाये कि हिन्दुस्तानियों के हाथों में और दूसरा कौन सा उपाय है ? क्या भारत-सचिव के दरवाजे पर जाकर दाता की जय' मनाने से काम चलेगा ? या पार्लमेंट में एक-दो प्रश्न कर लेने से उद्देश्य सिद्ध हो जायगा ? अब
अंग्रेजों की न्यायशीलता के लिए यही उचित है कि वह भारत सचिव से आग्रह अनुरोध करें। गरीब हिन्दुस्तान पर झल्लाना, जो स्वयं ही. दलित अपमानित हो रहा है, मर्दानगी की बात नहीं है।

प्रत्येक अवसर पर आपने ऐसे ही जोरदार भाषण किये। कटु, अप्रिय सत्य कहने में आपको कभी आगा-पीछा नहीं होता था। और इंगलैण्डवासियों की उदारता को भी धन्य है कि अपनी ही जाति के अन्याय-अत्याचार की कहानी सुनने के लिए हजारों की संख्या में जमा होते थे। यद्यपि इन नग्न सत्यो से उनके राष्ट्रीय अभिमान को चोट लगती थी, फिर भी विभिन्न सभा-समितियो से आपके पास भारत के विषय में कुछ कहने के लिए इतने निमन्त्रण आते थे कि कठोर परिश्रम के आदी होने पर भी सबको स्वीकार न कर सकते थे। भाषण के बीच में श्रोतसमूह ऐसे उत्साह से साधुवाद देता था और आदि से अन्त तक ऐसी सहानुभूति का परिचय देता था कि आपको स्वीकार करना पड़ता था कि अग्रेजों की न्यायवृत्ति अभी तक कुण्ठित नहीं हुई है। डेढ़ महीने के अल्प काल में आपने सारे इंगलैण्ड का दौरा किया और कितने ही भाषण किये, पर जिस जाति ने मुद्दतों से हिन्दुस्तान को अपनी मिलकियत समझ रखा हो, उस पर ऐसे भाषणों का क्या टिकाऊ असर पड़ सकता था। सम्मानित और सदाशय अंग्रेज सज्जनो ने सहानुभूति प्रकट की और बस। शासन यत्र उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहा।

मातृभूमि! वह लोग अन्याय करते हैं जो कहते हैं कि हिन्दू जाति मृत, निष्प्राण हो गई है। जब तक दादाभाई. रावडे और गोखले जैसे बच्चे तेरी गोद में खेलेंगे, हिन्दू जाति कभी मुर्दा नहीं कही जा सकती। कौन कह सकता है कि अगर इन महापुरुषों का जन्म किसी स्वाधीन देश में हुआ होता तो वह ग्लॅखस्टन, बिस्मार्क या रूजवेल्ट न होते! - -