कलम, तलवार और त्याग/१५-रेनाल्ड्स

कलम, तलवार और त्याग  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद
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रेनाल्ड्स

जोशुआ रेनाल्ड्स सैमुएल रेनाल्ड्स का लड़का था। १६ जुलाई सन् १७२३ ई॰ को पैदा हुआ और अपने जीवन-काल में ब्रिटिश चित्रकला को धरती से उठाकर आकाश तक पहुँचा गया। होगार्थ उस समय देश में प्रसिद्ध हो रहा था, पर उसकी तस्वीरों की क़द्र करने वाले बहुत थोड़े थे। उसने पुराने आचार्यों से शिक्षा नहीं प्राप्त की थी, इसके विपरीत रेनाल्ड्स ने पुरानी पद्धति का अभ्यास किया था और माइकेल एंजेलो, राफाएल और क्रेजियो का अनुयायी था। अतः जनसाधारण ने उसके चित्रों का आदर दिया।

सैमुएल रेनाल्ड्स एक गाँव के पादरी थे, पर बहुसन्तति थे। होनहार रेनाल्ड्स उनकी दसवाँ लड़का था। उसकी पढ़ाई-लिखाई क्या हो सकती थी। गाँव की पाठशाला में थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी और हिसाब सीखने का मौक़ा मिला और मानो सारी पढ़ाई पूरी ही गई। इस अल्पकाल में भी रेनाल्ड्स जैसा मेधावी बालक चाहता तो बहुत कुछ सीख लेता, पर उसका मन गणित और, व्याकरण के अभ्यास की अपेक्षा चित्रकारी में अधिक लगता था। घर पर बैठा तस्वीरें बनाया करता। पादरी साहब कभी इसकी तस्वीरें देख लेते तो नाराज़ होते और इस प्रकार समय नष्ट करने पर लड़के को मारते। जो हो रेनोल्ड्स को बहुत थोड़े दिन शिक्षा-प्राप्ति का अवसर मिला। पर जब उसने होश सँभाला, कुछ नाम हुआ। डाक्टर जॉनसन गोल्डस्मिथ के जैसे विश्वविख्यात पुरुषों से मिलने-जुलने का मौका मिला तो उसने यह कमी अति अल्पकाल में पूरी कर ली। इस विद्वगोष्ठी में अर्धशिक्षित जन भकुआ बनाकर निकाल दिया जाता [ १८७ ]
था, पर रेनाल्डस का बड़ा आदर होती थ। चित्रकला पर उसने जो व्याख्यान दिये हैं, अपनी सुन्दर शैली और बहुज्ञता के लिए अंग्रेजी साहित्य में उनका बड़ा ऊँचा स्थान है।

उस जमाने में चिकित्सक का व्यवसाय बहुत सहज था, जिसने अंग्रेजी और लैटिन की दो-चार पुस्तके पढ़ लीं और किसी डाक्टर की दुकान में रहकर रोगों और औषधियों के नाम याद कर लिये, वह चिकित्साकार्य करने का अधिकारी हो जाता था। पादरी साहब ने रेनाल्ड्स के लिए यही पेशा तजवीज़ किया और अगर वह वैद्य व्यवसाय की ओर झुकता तो निश्चय ही बैद्यराज बन जाता है। उसका सिद्धान्त था कि श्रम, अध्यवसाय और लगन प्रतिभा के पर्याय हैं ।

चित्रकला का पहला पाठ रेनाल्ड्स ने अपनी दो बहनों से पढ़ा, जिनकी इस कार्य में कुछ रुचि थी। जो कुछ वह अंकित करतीं, रेनाल्ड्स तुरंत उसकी नकल उतार लेता। इसके सिवा सवित्र पुस्तक की भी नक्ल किया करता। इस प्रकार बचपन से ही उसकी दृष्टि में ग्रहण शक्ति और हाथ में सफाई आने लगी। अभी आठ ही बरस का था कि कहीं से चित्रकला की एक पुस्तक उसके हाथ लग गई। फिर क्या था, बड़े प्रेम से उसका पारायण कर डाला। इस अध्ययन का फल यह हुआ कि उसने अपनी पाठशाला का एक नक़श खींचा। पादरी साहब ने यह नक़शा देखा तो बेटे की पीठ ठोंकी और जब रेनाल्ड्स को मालूम हो गया कि पिताजी भी मेरे शौक को पसन्द करते हैं तो वह चित्रकारी में जी-जान से लग गया। धीरे-धीरे घर के सब लोगों के सबीह बना डाले। दोस्तों ने यह तस्वीरे देखीं तो बढ़ावे देने लगे। बीसवें साल ने उसे पक्का चित्रकार बना दिया है।

पर जिस क़सबे में वह रहता था, वह बिल्कुल गुमनाम था। कल्पना और विचारों को विस्तृत करने, कला के आचार्यों से मिलने, उनकी शिक्षा से लाभ उठाने और नाम रयश कमाने के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिए आवश्यक हुआ कि वह लंदन आकर [ १८८ ]
कला का अभ्यास करे। हडसन उस समय मुखाकृति के चित्रण में प्रसिद्ध था, उसका शिष्य हो गया। पर हडसन में इसके अतिरिक्त और कोई योग्यता न थी। रेनाल्ड्स जैसी प्रतिभावान् बालक जिसके हृदय मैं उधाकांक्षा और उमंगों का स्रोत उफन रहा था, उसकी शिक्षा से क्या लाभ उठा सकता था। हडसन ने उसकी प्रवृत्ति का अन्दाज़ा न पाया। मध्यम श्रेणी के एक इटालियन चित्रकार के चित्रों की उसले नक्कल कराने लगा। रेनाल्ड्स ने इस काम को ऐसी खूनी से किया कि असल और नकल में बागबर भी अन्तर न रहा। फिर भी उसने ज्यों-त्यों करके यहाँ दो बरस काटे। इस अरसे में उसने बहुत से चित्र बनाये। कहते हैं कि उनमें उसके भाव यश, झलक मौजूद है। शिष्य की कुशलता देखकर गुरु के हृदय में ईष्या की आग जलने लगी। अन्त में एक चित्र, जिसके निर्माण में रेनाल्ड्स ने अपनी सारी कला लगा दी थी, दोनों के बिलगाव का कारण हुआ।' उसने समझ लिया कि गुरु जी को जो कुछ सिखाना-पढ़ाना था, सिखा-पढ़ा चुके। अपने क़सबे को लौट आया। इस विच्छेद को वह अपने लिए बड़ा शुभ माना करता था, क्योकि कुछ दिन वह और हडसन की शागिर्दी में रहता तो उसको भी उसी नक्क़ाली की आदत लग जाती, जो सच्ची चित्रकला की जानलेवा है। इस बेकारी में उसने तीन साल काटे, पर सच यह है कि इसी अभ्यास ने उसे रेनाल्ड्स बना दिया। इस समय चित्र बनाने के सिवा उसे और कोई काम न था। इसी काल में उसने प्रकृति की पुस्तक का भी अध्ययन किया जो अगे चलकर उसके यश और सफलता में बड़ा सहायक हुआ।

जब वह हडसन शिष्यता में था, एक दिन बाजार में नीलाम देखने गया। बहुत से आदमी मण्डलाकार खड़े थे। अचानक ‘पोप, पोप, का शोर हुआ और सुप्रसिद्ध कवि पोप आता दिखाई दिया। लोग सम्मान-प्रकाश के लिए ,इधर-उधर हटने और झुकझुककर अभिवादन करने लगे। जिसके पास से होकर वह गुजरता, वह [ १८९ ]
वह उसका हाथ छू लेता, जब रेनाल्ड्स की बारी आई तो पोप ने स्वयं उसके दोनों हाथ पकड़कर हिला दिये। रेनाल्ड्स सदा गर्व के साथ इस घटना का वर्णन किया करता था। इससे प्रकट होता है कि विद्वानों के लिए उसके हृदय में कितना आदर था और उस काल के जनसाधारण पण्डितों और कवियों के साथ कैसे प्रेम और आदर का बर्ताव किया करते थे।

रोम नगर सदा से चित्रकारों का तीर्थ स्थान रहा है। यही नगर है जहाँ यूरोपीय चित्रकला की नींव डाली गई थी। पोपलियो के समय से यह नगर नामी चित्रकारों का वास रहा है। राफाएल, माइकेल एंजेलो क्रेजियो जिनको चित्रविद्या का विश्वकर्मा कह सकते हैं, इसी पुनीत भूमि से उत्पन्न हुए थे। ल्यूनार्डो और टेशीन इसी बस्ती के बसने वाले थे। उन्होंने जो तस्वीरें ढालकर वहाँ की चित्रशालाओं में रख दीं, वह आज तक बेजोड़ और चित्रकला की इयत्ता समझी जाती हैं। जैसे कालिदास, होमर और फिर्दैसी का काव्य अनुकरण से परे है, उसी तरह ये चित्र भी नकल की नोच-खसोट से सुरक्षित हैं। सारे यूरोप के चित्रकला-प्रेमी इन चित्रो को देखने जाते हैं। कोई चित्रकार उस समय तक चित्रकार नहीं बन सकता, जब तक इन चित्रों का भली-भाँति अध्ययन न कर ले। यद्यपि उन पर चार- चार सदियों की धूल पड़ी हुई है। पर उनकी रंगत की ताजगी में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ा है, मालूम नहीं कहाँ से ऐसे रंग लाये हैं। जो मद्धिम होना जानते ही नहीं। रेनाल्ड्स से रोम की बड़ी बड़ाई सुनी थी और उसके दिल से लगी थी कि किसी तरह वहाँ की सैर करे, पर पास में पैसा न होने से लाचार था। आखिर उसके एक नाविक मित्र ने उसे रोम की सैर का निमन्त्रण दिया और दोनों दोस्त चल खड़े हुए। पहले पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन की सैर की, फिर जबलुल तारिक़ (?) गये और यहाँ से रोम पहुँचे। इस नगर ने पहले पहल,उसके चित्त पर जो प्रभाव डाले, उनको उसने विस्तार से वर्णन किया है। कहता है[ १९० ]
अकसर ऐसा होता है कि लोग पोप की चित्रशाला % की सैर के बाद जब बिदा होने लगते हैं तो प्रथदर्शक से पूछते हैं, यहाँ राफाएल के चित्र कहाँ है ? वह इन तसवीरों को सरसरी तौर पर देख जाते हैं और इनमें उन्हें कोई खास ख़ूबी नहीं दिखाई देती। मैंने जब पहले-पहल चित्रशाला की सैर की तो मुझको भारी निराशा हुई। यही स्थिति मेरे एक चित्रकार मित्र की थी। पर यद्यपि मुझको इन चित्रों को देखने से वह आनन्द न आया, जिसकी आशा थी, फिर भी एक क्षण के लिए भी मेरे मन में यह बात न आई कि राफाएल की प्रसिद्धि दर के ढोल है। मैंने इस विषय में अपने ही को दोषी ठहराया। ऐसी अद्भुत अनुपम वस्तुओं से प्रभावित न होना बड़ी लज्जा की बात थी। पर इसका कारण यह था कि न तो मैं उन सिद्धान्तों से परिचित था, जिन पर वह चित्र बनाये गये थे और न इसके पहले कभी मचे चित्रकला के आचार्यों की कृतियाँ देखने का अवसर मिला था। मुझे अब मालूम हुआ कि चित्रकला के विषय में हो विचार मैं इंगलैण्ड से लाया हूँ, यह बिल्कुल रालत और बहकानेवाले हैं। आवश्यक जान पड़ा कि उन सब भ्रान्त विचारों को मैं अपने मन से निकाल डालुँ और अन्त में ऐसा ही किया। इस निराशा के बाद भी एक तसवीर की नक़ल उतारने लगा। मैंने उसे बार- बार देखा, उसकी खूबियों और बारीकियों पर देर तक गौर किया। थोड़े ही अरसे में मेरे हृदय में नई रुचि और नई अनुभूति उत्पन्न हो गई।"

किसी कल के सौंदर्य को पहचानने, समझने और उससे आनन्द प्राप्त करने की योग्यता एक अर्जित गुण है जो बिना कठोर श्रम, मनो- निवेश और अभ्यास के प्राप्त नहीं हो सकती। काव्य या संगीत की सच्ची और मार्मिक रसानुभूति प्राप्त करने के लिए इन्हीं बातों की

| * यह चित्रशाला पोपलियौ नै स्थापित की थी और इसमें इटली के यशस्वी चित्रकारों की कृतियाँ रखी हुई हैं। [ १९१ ]
आवश्यकता है। कौन नहीं जानता कि अनभ्यस्त दृष्टि सच्चे और झूठे मोती, काँच के टुकड़े और हीरे में कठिनाई से विभेद कर सकती है। यह साधारण बात है कि एक गँवार अरसिक व्यक्ति ऊँचे से ऊंचे पहाड़, सुन्दर से सुन्दर झील और अद्भुत से अद्भुत उद्यान से वैसे ही उदासीन रहता है, जैसे सूखी रोटी और झोंपड़े से प्रभात की सुनहरी छटा, चाँदनी रात की मनोहारिता, नदीकूल का प्राणपोषक समीर, दूर्वादल की मखमली हरियाली, उसके लिए साधारण अर्थरहित बातें हैं। उसको इनके सौंदर्य की अनुभूति ही नहीं, यद्यपि यही वस्तुएँ हैं जो एक संस्कृत रुचिवाले को आनन्द-विभोर कर सकती है।

रेनाल्ड्स ने इन चित्रों के गुणों और विशेषताओं की बड़े विस्तार से विवेचना की है। कहीं उनके रंग-विधान के रहस्यों का उद्घाटन किया है। कहीं विभिन्न चित्रकला-विशारदों की विशेषताओं की तुलना है। इटली में चित्रकारों के कई रंग था शैलियाँ है। रोम, वेनिस, फ्लोरेंस, मिलान, प्रत्येक भिन्न-भिन्न रंग का केन्द्र है। रैनाल्ड्स ने हर एक रंग की छवियों और बारीकियों की विस्तार से विवेचना की हैं। पर स्वयं किसी रंग का अनुसरण नहीं किया। चित्रकार को अपनी तुलना और निरीक्षण की शक्तियों पर खूब जोर डालना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि अपने चित्रों के लिए वह दूसरों की पुस्तकों से नियम ढूंढ़े। चित्रों के अवलोकन और समीक्षा से उसे अपने नियम आप निकाल लेने चाहिए। नियम चित्रों से बनाये गये हैं, न कि चित्र नियमों से। रेनाल्ड्स कहता है--चूंकि नक़ल करने में दिमाग़ को कुछ मेहनत नहीं करनी पड़ती, इसलिए धीरे-धीरे उसका ह्रास हो जाता है और उपज तथा मौलिक कल्पना की शक्तियाँ, जिनको खास तौर से काम में लाना चाहिए, इस अभ्यास के कारण नष्ट हो जाती हैं। इटली में वह तीन साल रहा, और हर रंग और हर ढंग के चित्रों और चित्र-संग्रहों का अध्ययन की दृष्टि से देखा। परन्तु इंगलैण्ड लौटकर उसने चित्रकला के जिस अङ्ग से अपनाया, वह था शबीहनिगारी अथवी आकृति-चित्रण। इसका एक [ १९२ ]
कारण तो सभवतः यह होगा कि उस समय इंगलैंड में कुछ क़द्र थी तो इसी की, जैसा कि होगार्थ के एक चित्र से प्रकट होता है। दूसरा कारण यह था कि जैसा कि उसने स्वभावतः वह ऊँची कल्पना और उपज न पाई थी, जिसके बिना धार्मिक और ऐतिहासिक चित्र बनाना संभव नहीं है।

रोम से वापस आने पर वह कुछ दिनों देश में विचरण करता रहा। फिर लंदन में बस गया। जब उसने दो-एक चित्र बनाये तो चित्रकारों ने हल्ला मचाना शुरू किया, क्योंकि उन चित्रों में प्रचलित रुचि और गति का अनुसरण नहीं किया गया था। पर यह हो, हल्ला अधिक दिन न टिक सका। ग्राहक जब सौदा अच्छा देखता है, तब खुद मोल लेता है। उसे फिर इसकी परवाह नही होती कि दूसरे कलाकार उसके विषय में क्या कहते हैं। संभ्रान्त पुरुष और स्त्रियाँ दल के दल पहुँचने लगीं। हर रईस की यह इच्छा होती थी कि चित्र कार मुझे वीर पुरुष या दार्शनिक बनाकर दिखाये। प्रत्येक भद्र महिला चाहती थी कि मैं स्वर्ग की अप्सरा बना दी जाऊँ, मेरे चेहरे की झुर्रियाँ तनिक भी दिखाई न दें। रेनाल्ड्स की निगाह गजब की पैनी थी, सबकी इच्छा पूरी कर देता था। वह कहा करता था कि शबीह बनाने वालों के लिए ऐसे स्वभाव की आवश्यकता होती है। जैसा डाक्टरों को होता है। उन्हें हर बात में अपने ग्राहको का मन रखना पड़ता है।

सन् १७३४ ई० में रेनाल्ड्स की डाक्टर जानसन से मित्रता हो गई। वह डेबन शायर गया हुआ था। वहाँ उसे एक मित्र के यहाँ डाक्टर महोदय का लिखा हुआ कवि वाल्टर सैवेज की जीवनचरित दिखाई दिया। इसमें ऐसा मन लगा कि उसने उसे खड़े-खड़े समाप्त करके दम लिया। उस समय से उसके मन में उस रोचक पुस्तक के रचयिता के दर्शन करने की आकांक्षा उत्पन्न हो गई। संयोगवश एक रईस का आकस्मिक मृत्यु के अवसर पर दोनों का मिलन हो गया। उस व्यक्ति से बहुतों का उपकार होता था। लोग उसके हृदय और [ १९३ ]
मस्तिष्क के सुन्दर गुणों की बड़ाई कर रहे थे। रेनाल्ड्स के मुंह से निकला---निस्सन्देह यह घटना बड़ी दुःखद है; पर अब बहुत से लोग उपकार के मार से छुटकारा पा गये। उपस्थित जनो को उस की यह उक्ति बुरी लगी, पर डॉक्टर जानसन बहुत प्रसन्न हुए और लोगों से कहा कि यह व्यक्ति विचारवान् जान पड़ता है। जब रेनाल्ड्स घर लौटा तो डाक्टर साहब उसके साथ-साथ आये। इस प्रकार उस मित्रता का आरंभ हुआ, जो दोनों के जीते जी बड़े प्रेम से निभ गई। डाक्टर महोदय का स्वभाव रूखा, अभिमानी और कुछ-कुछ अक्खड़ था। उनके जीवन को बड़ा भाग अनादर, अर्थ-कष्ट और एकान्तवास में कटा था। उँची श्रेणीवाले से साथ न होने के कारण उठने- बैठने और बात-चीत को तौर-तरीक़ा भी न जानते थे। इस कारण बड़े आदमियों की मण्डली में उनका अधिक आदर-मान न होता था। इसमें सन्देह नहीं कि उनके पाण्डित्य की धाक सब पर बैठी हुई थी। पर उसके साथ ही उनका भौंडा तौर-तरीका, कुरूप चेहरा, मुंहतोड़ उत्तर देने की आदत और बेलाग स्पष्टवादिता उन्हें धनी और प्रभावशाली पुरुषों के हृदय में स्थान न पाने देती थी। लक्ष्मी के कुरापात्र विद्या-बुद्धि में छोटे क्यों ही न हों, यह नहीं भूलते कि हम रईस हैं। वह चाहते है कि विद्वान हो या गुणी, अब प्रार्थी बनकर आये तो खुशामद और नाज़-बरदारी का सामान साथ लेता आये। डाक्टर जानसन के स्वभाव में यह बात न थीं। वह जब उनकी मण्डली में आते तो मुस्कराकर और सिर झुकाकर आदर की प्रार्थना न करते थे, किन्तु सम्मान को अपनी योग्यता का पुरस्कार' समझते थे। और ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये और उनकी विद्वत्ता और विचारशीलता का परिचय लोगों को मिलता गयो, त्यों-त्यों उनमें झल्लापन और कटुभाषिता के दोष होते हुए भी छोटे-बड़े सभी उनके सामने श्रद्धा से सिर झुकाने को बाध्य हुए।

इसके विपरीत रेनाल्ड्स स्वभावतः हँसमुख और मिलनसार था आवश्यकता-वस ऊँची श्रेणी की रहन सहन का अनुसरण करता [ १९४ ]
था। चित्रकला के पुराने आचार्यों में उसे सच्ची श्रद्धा थी। राफाएल और माइकेल एंजेलो को वह किसी सिद्ध महात्मा या पैगम्बर से कम न मसझता था। कहता है-"चित्र में स्वाभाविकता का होना कलानिपुणता है और इसकी कमी, चाहे रंग भरने में हो या प्रकृत चित्र में, दोष है। रंग-विधान दो प्रकार का होता है। एक परिष्कृत, सुन्दर और सौम्य, दूसरा चटक, भड़कीला और आँखों में समा जानेवाला। कलाकार पहले प्रकार के रंग का व्यवहार करते हैं, व्यवसायी चित्रकार दूसरे प्रकार के रंग की। कुछ चित्रकारो का खयाल है कि ऐसी सादगी चित्र को उदास और अंबा दीपक बना देती है। पर यह कला का दोष है। इससे चित्र की शान्तिदायिनी शक्ति घट जाती है।"

रेनाल्ड्स को विद्वानों की संगति बड़ी प्रिय थी। शाम को चार बजते ही उसकी मेज सजा दी जाती थी और गुणोजन उसके इर्द-गिर्द जमा होने लगते थे। कवि अपनी कविता वहाँ सुनाते और काव्य-रसिकों से दाद पाते थे। जानसन इस मण्डली के नेता थे। गोल्डस्मिथ भी कभी-कभी आ निकलते और अपनी सरलता भरी बातों तथा बालोचित चेष्टाओं से मण्डली का मनोरंजन करते थे। धुरन्धर राजनीतिज्ञ और वक्ता एडमण्ड बर्क भी अकसर दिखाई देते थे, पर वह स्वभाव के अधिक विनोदप्रिय और चुलबुले न थे। रेनाल्ड्स विद्वानो का आदर ही न करता था, अकसर उनकी आर्थिक सहायता भी करता था। जिस व्यक्ति की बड़ाई जानसन और बर्क की लेखनी से निकली हो, उसके अमरत्व-लाभ मैं काल कब बाधक हो सकता है।

१७६० ई० में रायल एकेडमी की नींव पड़ी। इङ्गलैण्ड में यह चित्रकला की नियमित शिक्षा का पहला यत्न था। जिसकी आबोताब में कई सदियाँ गुजर जाने पर भी कोई अन्तर नहीं आया। रेनाल्ड्स इस विद्यालय को अन्तकाल तक अध्यक्ष रहा।

ऊपर कहा जा चुका है कि रेनाल्ड्स के हृदय में पोप कवि के लिए [ १९५ ]
बड़ा आदर था। पोप को जब काव्य-रचना से अवकाश मिलती तो चित्रकारी किया करते। हाथ के एक पंखे पर उन्होंने एक यूनानी कहानी को ज़री के तारों से चित्रित किया था। यह पर बाजार में नीलाम होने के लिए आया। रेनाल्ड्स को इसकी खबर मिली ताँ इसने एक आदमी भेज दिया कि वह ० पौंड तक बोली बोलकर इस दुष्प्राप्य वस्तु को खरीद ले। मगर यह हजरत ३० शिलिङ्ग से अब न बढे़। आखिर एक दूसरे खरीदार ने उसे दो पौड पर ले लिया। रेनाल्ड्स को इस पंखे का इतना शौक़ था कि उसने दुना दाम देकर इसे नये खरीदार से खरीद लिया।

एक दावत के मौके पर जानसन, अर्क, गैरिक, गोल्डस्मिथ सब जमा थे। आपस में खुशगप हो रही थी। अकस्मात किसी ने कहा-- आओ, एक दूसरे को मृत्यु का कुतबा कहे; पर शर्त यह है कि वह आशुरचना हो। इस पर लोगों ने अपना-अपनी कवित्व दिखाना आरंभ किया। गैरिक को शरारत जो सूझी तो व्यंग्यक्ति के कुछ पञ्च कहे, जिनमें गोल्डस्मिथ की खबर ली गई थी। गोल्डस्मिथ को यह शरारत बहुत बुरी लगी। इसके जवाब में उन्होंने 'बदला' नाम से एक जोरदार कविता लिखी। दुःख है कि इस जन्मसिद्ध कवि की यही अन्तिम रचना थी। ऐसा वेपरचाह, ऐसा मस्त स्वभाव का और देसी सुन्दर कल्पनावाला कवि अंग्रेजी भाषा में फिर से उत्पन्न हुआ। यह लोकोत्तर प्रतिभा जिस देह में छिपी थी, वह कुछ अधिक सुन्दर न थी। रेनोल्ड्स ने गोल्डस्मिथ को जो चित्र खींचा है, उसमें वह बहुत ही कमजोर दिखाई देता है। पर उसकी बहन का कहना है कि रेनाल्ड्स ने जितनी चापलूसी इस चित्र के बनाने में खर्च की, उतनी और किसी चित्र में नहीं की। रूप और गुण में अन्तर होना असाधारण बात नहीं हैं।

१७७२ ई० में रेनाल्डस ने, उगोलीनो (ugolino) का चित्र बनाया। यह इटली के सुप्रसिद्ध कवि दान्ते की एक रचना का नायक है। पर रेनाल्ड्स जैसा चित्रकार, जो रमणियों के होठ और भी को [ १९६ ]
श्रृङ्गार करने में अपनी कला का उपयोग करता रहा हो, दुःख और विपत्ति की कहानी को किस प्रकार चित्रित कर सकता। दान्ते का दृढ़चित्त नायक रेनाल्ड्स के अलेखन में क्षुघा-क्षीण और पिपन्न दिखाई देता है। उसके बज्र-संकल्प और महानुभावता का तनिक भी परिचय नहीं मिलती। पर रेनाल्ड्स की पैसिल से जो कुछ निकलता था, इसका आदर होना निश्चित था। एक रईस ने इस चित्र को ४०० पौंड में खरीद लिया। इसी साल जुलाई महीने में रेनाल्ड्स ' अक्सफर्ड की सैर को गया जहाँ उसकी बड़ा आवभगत हुई और सम्मानरूप में 'डाक्टर अआब ला’ (कानून के आचार्य) की उपाधि प्राप्त हुई। यहाँ इसकी मुलाकात डाक्टर बीटी से हुई, जिसकी गणना उन दिनो विद्वानों और विचारकों में थी। सत्य की अपरिवर्तनशीलता' पर उसने एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उसने गिबन, बाल्टेयर और ह्यूम जैसे स्वाधोनचेत दिनों की भ निन्दा की थी। रेनाल्डस स्वयं दर्शन-शास्त्र से परिचित न था, इसलिए उसके हृदय में डाक्टर बीटी के लिए बड़ा आदर उत्पन्न हो गया। जब वह लंदन आया तो उसने बीटी का एक चित्र बनाया जो उसकी सर्वोत्तम कृतियों में है। बीटी आक्सफर्ड के पण्डितों के पहनावे में बैठा है। सत्य की अपरिवर्तनशीलता उसकी बराल में हैं। उसके पाश्र्व में सत्य का देवता खड़ा है जो नास्तिकता, धर्मविमुखता और अवज्ञा पर विजयी हो रहा है। इन पराजित आकृतियों में से, एक बहुत दुबली-पतली और विलासप्रिय दिखाई देती है। यह नास्तिकवा का चित्र है और बाल्टेयर से मिलती है। दूसरी, हृष्ट-पुष्ट, मोटी-ताज़ी है। यह धर्म-विमुखता की तसवीर है और ह्युम से मिलती है। तीसरी, अवज्ञा का चित्र है और गिबन का प्रतिबिम्ब जान पड़ती है। गोल्डस्मिथ ने इस वित्र को देखा तो उसके रोष की सीमा न रही। बोला, “आप ऐसे गुणी के लिए इस हद तक चापलूसी पर उतर आना बड़ी ही निन्दनीय बात है। आपको बाल्टेयर जैसे महापति पुरुष को बीटी जैसे मूर्ख बकवासी के मुकबले मैं जलील करने का क्योंकर साहस हुआ। बीटी [ १९७ ]
और उसकी पुस्तक दस बरस में विस्मृति के गर्त में विलीन हो जायगी, पर आपकी कृति और वाल्टेयर की कीर्ति अमर है।” गोल्डस्मिथ ने बहुत ठीक कहा था। बीटी का अब कोई नाम भी नहीं जानता, पर वाल्टेयर, ह्युम और गिबन के नाम दुनिया में सूर्य की तरह चमक रहे हैं।

रेनाल्ड्स के चित्रों का रंग टिकाऊ न होता था। शोख और भड़कीले रंगों का वह खुद नापसन्द करता था, पर उसके अधिकतर चित्र चट्कीले ही दिखाई देते हैं। इसका कारण सम्भवतः यह है कि इसे अपने ग्राहकों का मन रखना था और उस समय की लोकरुचि चटकीले चित्रों को अधिक पसन्द करती थी। वह अपने रङ्ग-विधान के नियम और विधि किसी को भी न बताता था। प्रिय से प्रिय शिष्यों को भी उसने अपने रंगो का मसाला ने बताया। उसकी यह कृपणता बिल्कुल भारतीय गुणियों की जैसी थी जो अपने गुण और करतब अपने साथ ले जाते हैं। हाँ, वह स्वयं पुराने उस्तादों के रंग- रोगन की विधियों की जाँच-पड़ताल किया करता था। उसने अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा चित्रकला के उत्कृष्ट नमूनों को खरीदने में खर्च किया! उसका संग्रह आज तक मौजूद होता, तो वह इस ललितकला की बहुमुल्य निधि समझा जाता। पर रेनाल्ड्स ने उन्हें शोभा शृङ्गार के लिए न खरीदा था, खोज और अनुसंधान के लिए खरीदा था। एक-एक चित्र को लेकर वह शल्य-चिकित्सक की तरह चीर-फाड़ करता था, जिसमें उसे मालूम हो जाय कि अस्तर किस रंग का है, उस पर कौन रंग दिया गया और कौन-कौन से रंग एक में मिलाये गये थे। इस परीक्षा के बाद तसवीर किसी काम की नहीं रह जाती थी।

रेनाल्ड्स के चित्रों से प्रकट होता है कि वह प्रकृति का बड़ी सुक्ष्म और धार्मिक दृष्टि से निरीक्षण किया करता था। अपनी कला के हीरे विभिन्न खानों से निकालता। कैसी ही तुच्छ सम्मति क्यों न हो, उस पर अवश्य ध्यान देता। बच्चे न मानो उसके शिक्षक ही थे। उसका कथन था कि बच्चों की चेष्टा और अंग-भंगी बनावट से रहित होने [ १९८ ]
के कारण मोहक होती है। बच्चे उसकी चित्रशाला मैं आते तो उनकी चेष्टाओं को वह बड़े ध्यान से देखा करता और जब वह मारे खुशी के फूल उठते और चित्रों की भाव-भंगी का अनुकरण करने लगते तो इस दृश्य से उसे बड़ा आनन्द मिलता। अपने एक संस्मरण में वह लिखता हैं, "मेरी समझ में नहीं आता कि अनभिज्ञ (अधिकारी ?) व्यक्ति का मन चित्रों के विषय में क्यों ने स्वीकार किया जाय। जैसे अगर कोई साधारण आदमी किसी चित्र को देखकर कहे कि इसका आधा चेहरा क्यों स्याह है या नाक के नीचे काला धब्बा क्यों है, तो मैं यह नतीजा निकाल लूंगा कि रंग गहरा हो गया है या अच्छी तरह साफ नहीं किया गया। अगर यह रंग प्रकृति के अनरूप होते तो किसी का ध्यान उनकी ओर न जाता।

रेनाल्ड्स की ख्याति दिन दिन बढ़ती जाती थी। १७८५ ई० मैं रूस की सुप्रसिद्ध महारानी केथराईन ने उससे एक तसवीर की फरमाइश की। महीनों के सोच-विचार के बाद उसने एक ऐसा विषय चुना जो कल्पना और रोचकता की दृष्टि से साधारण है। महारानी केथराईन संकल्प और विचारों की दृढ़ता में अपना सानी न रखती थीं। इतिहास इसका गवाह है। इसलिए रेनाल्ड्स ने शिशु हरक्युलीज को दो साँपों का गला घोंटते हुए दिखाया। यद्यपि केथराईन को ऐसी जटिल कल्पना के समझने की बुद्धि न थी, फिर भी उसने दिल खोलकर क़द्रदानी की। ५०० पौंड पुरस्कार और एक सोने की सन्दूकची, जिसमें उसका चित्र था, उपहाररूप में भेजी।

उन्हीं दिनों इंगलैण्ड के एक मनचले प्रकाशक ने शेक्सपियर की रचनाओं के सचित्र संस्करण निकालने का विचार किया। रेनाल्ड्स ‘ने उसके लिए तीन चित्र बनाये। पहला चित्र उस हास्यावतार का हैं जिसका नाम अंग्रेजी साहित्य में दृष्टान्त बन गया है। पिक एक बहुत ही चपल चुलबुले स्वभाव का विदूषक है, जो रँगीले बादशाह आठवें हेनरी का सखा है। रेनल्ड्स ने इस चित्र में सचमुच करामात कर दी है। उसका हाथ कोई शरारत-भरी चेष्टा करने को उद्यत दिखाई [ १९९ ]
दे रहा है और आँखों से किसी को छेदने, किसी से कोसे जाने और गालियाँ सुनने की लालसा टपक रही है। दूसरा चित्र मैकबेथ' का है। जिसमें सरोवर और चुडै़लों की दृश्य दिखाया गया है। इस रंग में उसके और भी उत्तमोत्तम चित्र विद्यमान हैं।

सर जोशुआ रेनाल्ड्स अब ६६ बरस का हो गया थी और यद्यपि धन-मान में कोई कमी न हुई थी पर दोस्तों के उठ जाने को दुःख इनसे मिलनेवाले सुख से बहुत अधिक था। गोल्डस्मिथ, जानसन, बर्क, गैरिक सब एक-एक करके साथ छोड़ते गये। यहाँ तक कि १७८९ ई० में उसके नाम भी काल का बुलावा आ पहुँचा। आँखों की ज्योति जाती रही। १७९२ ई० में उसने इस नाशमान् जगत् को त्यागकर परलोक को पयान किया।

उच्च कोटि की बहुसंख्यक शबीहें ही रेनाल्ड्स की यादगार नहीं हैं, उसकी विद्वत्तापूर्ण वक्तृताएँ और कवित्वमय तथा ऐतिहासिक वित्र भी उसकी कलानिपुणता का सिक्का सदा लोगों के दिलों पर बिठाते रहेंगे। भाषण से इसका उद्देश्य उत्साही नवयुवक चित्रकारों के हृदयों पर इस कला की महत्ता स्थापित करना, उनमें प्रिय और नियमित अभ्यास की आदत डालना और चित्र के अच्छे सिद्धान्तो से परिचित कराना था। क्या-क्या उपाय किये जायँ, किन-किन नियमविधियों का अनुसरण किया जाय, धूप-छाँह की किस प्रकार व्यवहार किया जाय किं चित्रों में वही चमत्कार उत्पन्न हो जाय, जो पुराने उस्तादों की कृतियों में पाया जाता है। वह केवल प्रतिभा और प्रवृत्ति का ही क़ायल न था। उसका उपदेश था कि इस कला में निपुणता प्राप्त करने के लिए दिन-रात जुटे रहना, अनवरत चिन्तन और उस्तादों की कृतियों में सच्ची श्रद्धा रखना आवश्यक है।