हंस प्रकाशन, पृष्ठ ३५६ से – ३६४ तक

 

अमरकान्त को लखनऊ-जेल में आये तीसरा दिन है। यहाँ उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालम है, वह धनी का पुत्र है; इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रियायत की जाती है।

एक छप्पर के नीचे चक्कियों की कतारें लगी हुई हैं। शाम को आटे की तौल होगी। आटा कम निकला तो दण्ड मिलेगा। अमर ने अपने संगी से कहा--जरा ठहर जाओ भाई, दम ले लूँ, मेरे हाथ नहीं चलते। क्या नाम है तुम्हारा? मैंने तो शायद तुम्हें कहीं देखा है!

संगी, गठीला, काला, लाल आँखवाला, कठोर आकृति का मनुष्य था, जो परिश्रम से थकना न जानता था। मुसकरा कर बोला--मैं वही काले खाँ हूँ, जो एक बार तुम्हारे पास सोने के कड़े बेचने गया था। याद करो। लेकिन तुम यहाँ कैसे आ फँसे, मुझे यह ताज्जुब हो रहा है। परसों से ही पूछना चाहता था; पर सोचता था, कहीं धोखा न हो रहा हो।

अमर ने अपनी कथा संक्षेप में कह सुनाई और पूछा--तुम कैसे आये?

काले खाँ हँसकर बोला---मेरी क्या पूछते हो लाला, यहाँ तो छ: महीने बाहर रहते हैं, तो छ: साल भीतर। अब तो यही आरजू है कि अल्लाह यहीं से बुला ले। मेरे लिये बाहर रहना मसीबत है। सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा-अच्छा खाते देखता हूँ, तो हसद होती है; पर मिले कहाँ से। कोई हुनर आता नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करूँ, डाका न मारूँ, तो खाऊँ क्या? यहाँ किसी से हसद नहीं होती, न किसी को अच्छा पहनते देखता हूँ, न अच्छा खाते। सब अपने जैसे हैं, फिर डाह और जलन क्यों हो। इसलिये अल्लाहताला से दुआ करता हूँ कि यहीं से बुला ले। छूटने की आरजू नहीं है। तुम्हारे हाथ दुख गये हों, तो रहने दो। मैं अकेला ही पीस डालूँगा। तुम्हें इन लोगों ने यह काम दिया ही क्यों? तुम्हारे भाई-बन्द तो हम लोगों से अलग आराम से रखे जाते हैं। तुम्हें यहाँ क्यों डाल दिया? हट जाओ।

अमर ने चक्की की मुठिया जोर से पकड़कर कहा---नहीं-नहीं, मैं थका नहीं हूँ। दो-चार दिन में आदत पड़ जायगी, तो तुम्हारे बराबर काम करूँगा।

काले खाँ ने उसे पीछे हटाते हुए कहा---मगर यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम मेरे साथ चक्की पीसो। तुमने कोई जुर्म नहीं किया है। रिआया के पीछे सरकार से लड़े हो, तुम्हें मैं न पीसने दूँगा। मालूम होता है कि तुम्हारे लिए ही अल्लाह ने मुझे यहाँ भेजा है। वह तो बड़ा कारसाज़ है। उसकी कुदरत कुछ समझ में नहीं आती। आप ही आदमी से बुराई करवाता है, आप ही उसे सजा देता है, और आप ही उसे मुआफ़ कर देता है।

अमर ने आपत्ति की---बुराई खुदा नहीं कराता, हम खुद करते हैं।

काले खाँ ने ऐसी निगाहों से उसकी ओर देखा, जो कह रही थीं, तुम इस रहस्य को अभी नहीं समझ सकते---ना, ना मैं यह न मानूँगा। तुमने तो पढ़ा होगा, उसके हुक्म के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, बुराई कौन करेगा। सब कुछ वही करवाता है, और फिर माफ़ भी कर देता है। यह मैं मुँह से कह रहा हूँ। जिस दिन मेरे ईमान में यह बात जम जायगी उसी दिन बुराई बन्द हो जायगी। तुम्हीं ने उस दिन मुझे यह नसीहत सिखाई थी। मैं तुम्हें अपना पीर समझता हूँ। दो सौ की चीज़ तुमने तीस रुपये में न ली। उसी दिन मुझे मालूम हुआ, कि बदी क्या चीज़ है। अब सोचता हूँ अल्लाह को कौन मुँह दिखलाऊँगा। ज़िन्दगी में इतने गुनाह किये हैं कि जब उनकी याद आती है, तो रोएँ खड़े हो जाते हैं। अब तो उसी की रहीमी का भरोसा है। क्यों भैया, तुम्हारे मज़हब में क्या लिखा है। अल्लाह गुनाहगारों को मुआफ़ कर देता है?

काले खाँ की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आँखों में कोमल छटा उदय हो गयी। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी इतनी आद्र थी कि अमर का हृदय पुलकित हो उठा---सुनता तो हूँ खाँ साहब कि वह बड़ा दयालु है।

काले खाँ दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला--बड़ा दयालु है भैया! मां के पेट में बच्चे को भोजन पहुँचाता है। यह दुनिया ही उसकी रहीमी का आईना है। जिधर आँखें उठाओ, उसकी रहीमी के जलवे! इतने ख़ूनी डाकू यहाँ पड़े हुए हैं, उनके लिए भी आराम का सामान कर दिया। मौका देता है, बार-बार मौक़ा देता है कि अब भी सँभल जायें। उसका कौन गुस्सा सहेगा भैया। जिस दिन उसे गुस्सा आवेगा, यह दुनिया जहन्नुम को चली जायगी। हमारे-तुम्हारे ऊपर वह क्या गुस्सा करेगा। हम चींटी को पैरों तले पड़ते देखकर किनारे से निकल जाते हैं। उसे कुचलते रहम आता है। जिस अल्लाह ने हमको बनाया, जो हमको पालता है, वह हमारे ऊपर कभी ग़ुस्सा कर सकता है? कभी नहीं। अमर को अपने अन्दर आस्था की एक लहर-सी उठती हई जान पड़ी। इतने अटल विश्वास और सरल श्रद्धा के साथ इस विषय पर उसने किसी को बातें करते न सुना था। बात वही थी, जो वह नित्य छोटे-बड़े के मुँह से सुना करता; पर निष्ठा ने उन शब्दों में जान-सी डाल दी थी।

जरा देर के बाद वह बोला---भैया, तुमसे चक्की चलवाना तो ऐसा ही है, जैसे कोई तलवार से चिड़िये को हलाल करे। तुम्हें अस्पताल में रखना चाहिए था। बीमारी में दवा से उतना फ़ायदा नहीं होता, जितना एक मीठी बात से हो जाता है। मेरे सामने वहाँ कई क़ैदी बीमार हुए पर एक भी अच्छा न हुआ। बात क्या है? दवा क़ैदी के सिर पर पटक दी जाती है, वह चाहे पिये चाहे फेंक दें।

अमर को उस काली-कलटी काया में स्वर्ण-जैसा हदय चमकता दीख पड़ा। मुसकराकर बोला---लेकिन दोनों काम साथ-साथ कैसे करूँगा?

'मैं अकेला चक्की चला लूँगा और पूरा आटा तुलवा दूँगा।'

'तब तो सारा सवाब मुझी को मिलेगा।'

काले खां ने साधु-भाव से कहा---भैया, कोई काम सवाव समझकर नहीं करना चाहिए। दिल को ऐसा बना लो कि सवाब में उसे वही मज़ा आये, जो गाने या खेलने में आता है। कोई काम इसलिए करना कि उससे नजात मिलेगी, रोज़गार है। फिर मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम खुद इन बातों को मुझसे ज्यादा समझते हो। मैं तो मरीज की तीमारदारी करने के लायक ही नहीं हूँ। मुझे बड़ी जल्द गुस्सा आ जाता है। कितना चाहता हूँ कि गुस्सा न आये पर जहाँ किसी ने दो-एक बार मेरी बात न मानी और मैं बिगड़ा।

वही डाकू, जिसे अमर ने एक दिन अधमता के पैरों के नीचे लोटते देखा था, आज दैवत्व के पद पर पहुँच गया था। उसकी आत्मा से मानो एक प्रकाश-सा निकलकर अमर के अन्तःकरण को आलोकित करने लगा।

उसने कहा---लेकिन यह तो बुरा मालूम होता है कि मेह्नत का काम तुम करो और मैं.....

काले खाँ ने बात काटी---भैया, इन बातों में क्या रखा है। तुम्हारा काम इस चक्की से कहीं कठिन होगा। तुम्हें किसी से बात करने तक की मुहलत न मिलेगी। मैं रात को मीठी नींद सोऊँगा। तुम्हें रातें जागकर काटनी पड़ेंगी। जान-जोखिम भी तो है। इस चक्की में क्या रक्खा है। यह काम तो गधा भी कर सकता है, कल भी कर सकती है; लेकिन जो काम तुम करोगे वह बिरले ही कर सकते हैं।

सूर्यास्त हो रहा था। काले खाँ ने अपने पूरे गेहूँ पीस डाले थे और दूसरे क़ैदियों के पास जा-जाकर देख रहा था, किसका कितना काम बाक़ी है। कई कैदियों के गेहूँ अभी समाप्त नहीं हुए थे। जेल कर्मचारी आटा तौलने आ रहा होगा। इन बेचारों पर आफ़त आ जायगी, मार पड़ने लगेगी। काले खाँ ने एक-एक चक्की के पास जाकर क़ैदियों की मदद करनी शरू की। उसकी फुरती और मेहनत पर लोगों को विस्मय होता था। आध घण्टे में उसने फिसड्डियों की कमी पूरी कर दी। अमर अपनी चक्की के पास खड़ा इस सेवा के पुतले को श्रद्धा-भरी आँखों से देख रहा था, मानों दिव्य दर्शन कर रहा हो।

काले खाँ इधर फुरसत पाकर नमाज़ पढ़ने लगा। वहीं बरामदे में उसने वजू किया, अपना कम्बल ज़मीन पर बिछा दिया और नमाज़ शुरू की। उसी वक्त जेलर साहब चार वार्डरों के साथ आटा तुलवाने आ पहुँचे। कै़दियों ने अपना-अपना आटा बोरियों में भरा ओर तराजू के पास आकर खड़े हो गये। आटा तुलने लगा।

जेलर ने अमर से पूछा---तुम्हारा साथी कहाँ गया?

अमर ने बतलाया, नमाज पढ़ रहा है।

'उसे बुलाओ। पहले आटा तुलवा ले, फिर नमाज पढ़े। बड़ा नमाज की दुम बना है। कहाँ गया है नमाज़ पढ़ने?'

अमर ने शेड के पीछे की तरफ इशारा करके कहा---उन्हें नमाज़ पढ़ने दें, आप आटा तौल लें।

जेलर यह कब देख सकता था, कोई क़ैदी उस वक्त नमाज़ पढ़ने जाय जब जेल के साक्षात् प्रभु पधारे हैं। शेड के पीछे जाकर बोले---अबे ओ नमाजी के बच्चे, आटा क्यों नहीं तुलवाता? बचा, गेहूँ चबा गये हो तो नमाज़ का बहाना करने लगे। चल चटपट, वरना मारे हंटरों के चमडी उधेड़ लूँगा।

काले खाँ दूसरी ही दुनिया में था। जेलर ने समीप जाकर अपनी छड़ी उसके पीठ में चुभाते हुए कहा--बहरा हो गया है बे? शामत तो नहीं आई है?

काले खाँ नमाज पढ़ने में मग्न था। पीछे फिरकर भी न देखा।

जेलर ने झल्लाकर लात जमाई। काले खाँ सिजदे के लिए झुका हुआ था। लात खाकर औंधे मुंह गिर पड़ा; पर तुरन्त सँभलकर फिर सिजदे में झुक गया। जेलर को अब ज़िद पड़ गयी कि उसकी नमाज़ बन्द कर दे। संभव है, काले खाँ को भी ज़िद पड़ गयी हो कि नमाज पूरी किये बगैर न उठूँगा। वह तो सिजदे में था। जेलर ने उसे बूटदार ठोकरें जमानी शुरू कीं। एक वार्डर ने लपककर दो गारद के सिपाही बुला लिये। दूसरा जेलर साहब की कुमुक पर दौड़ा। काले खाँ पर एक तरफ से ठोकरें पड़ रही थीं, दूसरी तरफ से लकड़ियाँ पर वह सिजदे से सिर न उठाता था। हाँ, प्रत्येक आघात पर उसके मुँह से 'अल्लाहो अकबर!' की दिल हिला देनेवाली सदा निकल जाती थी। इधर आघातकारियों को उत्तेजना भी बढ़ती जाती थी। जेल का कै़दी जेल के खुदा को सिजदा न करके अपने खुदा को सिजदा करे, इससे बड़ा जेलर साहब का क्या अपमान हो सकता था। यहाँ तक कि काले खाँ के सिर से रुधिर बहने लगा। अमरकान्त उसकी रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्डर ने उसे मजबूत पकड़ लिया। उधर बराबर आघात हो रहे थे और काले खाँ बराबर 'अल्लाहो अकबर!' की सदा लगाये जाता था। आख़िर आवाज़ क्षीण होते-होते एक बार बिलकुल बन्द हो गयी और काले खाँ रक्त बहने से शिथिल हो गया। मगर चाहे किसी के कानों में आवाज़ न जाती हो, उसके ओठ अब भी खुल रहे थे और अब भी 'अल्लाहो अकबर' की अव्यक्त ध्वनि निकल रही थी।

जेलर ने खिसिया कर कहा---पड़ा रहने दो बदमाश को यहीं! कल से इसे खड़ी बेड़ी दूँगा और तनहाई भी। अगर तब भी न सीधा हुआ, तो उलटी होगी। इसका नमाज़ीपन निकाल न दूँ, तो नाम नहीं!

एक मिनट में वार्डर, जेलर, सिपाही सब चले गये। कैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले खाँ अब भी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से खून बह रहा था। अमरकान्त बैठा उसके घावों को पानी से धो रहा था। और खून बन्द करने का प्रयास कर रहा था। आत्मशक्ति के इस कल्पनातीत उदाहरण ने उसकी भौतिक बुद्धि को जैसे आकान्त कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता? शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता। विज्ञान और नीति और देशानुराग की वेदी पर बलिदानों की कमी नहीं। पर यह निश्चल धैर्य ईश्वर निष्ठा ही का प्रसाद है।


कैदी भोजन करके लौटे। काले खाँ अब भी वहीं पड़ा हुआ था। सबों ने उसे उठाकर बैरक में पहुँचाया और डाक्टर को सूचना दी; पर उन्होंने रात को कष्ट उठाने की ज़रूरत न समझी । वहाँ और कोई दवा भी न थी। गर्म पानी तक न मयस्सर हो सका।

उस बैरक के कैदियों ने सारी रात बैठकर काटी। कई आदमी आमादा थे कि सुबह होते ही जेलर साहब की मरम्मत की जाय। यही न होगा, माल-साल भर की मीयाद और बढ़ जायगी। क्या परवाह! अमरकान्त शान्त प्रकृति का आदमी था; पर इस समय वह भी उन्हीं लोगों में मिला हुआ था। रात भर उसके अन्दर पशु और मनुष्य में द्वन्द्व होता रहा। वह जानता था, आग आग से नहीं, पानी से शान्त होती है। इंसान कितना ही हैवान हो जाय, उसमें कुछ-न-कुछ आदमीयत रहती ही है। आदमीयत अगर जाग सकती है, तो ग्लानि से या पश्चात्ताप से। अमर अकेला होता, तो वह अब भी विचलित न होता; लेकिन सामूहिक आवेश ने उसे भी अस्थिर कर दिया। समूह के साथ हम कितने ही ऐसे अच्छे या बुरे काम कर जाते हैं, जो हम अकेले न कर सकते। और काले खाँ की दशा जितनी ही खराब होती जाती थी, उतनी ही प्रतिशोध की ज्वाला भी प्रचण्ड होती जाती थी।

एक डाके के क़ैदी ने कहा---खून पी जाऊँगा, खून! उसने समझा क्या है। यहीं न होगा, फाँसी हो जायगी।

अमरकान्त बोला---उस वक्त क्या समझे थे कि मारे ही डालता है!

चुपके-चुपके षड्यन्त्र रचा गया, आघातकारियों का चुनाव हुआ, उनका कार्यविधान निश्चय किया गया। सफ़ाई की दलील सोच निकाली गयी। सहसा एक ठिगने क़ैदी ने कहा---तुम लोग समझते हो, सबेरे तक उसे खबर न हो जायगी?

अमर ने पूछा---ख़बर कैसे होगी? यहाँ ऐसा कौन है, जो उसे खबर दे दे?

ठिगने क़ैदी ने दायें-बायें आँखें घुमाकर कहा---खबर देनेवाले न जाने कहाँ से निकल आते हैं भैया। किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं, कौन जाने हमीं में से कोई जाकर इत्तला कर दे। रोज ही तो लोगों को मुखबिर बनते देखते हो। वही लोग जो अगुआ होते हैं, अवसर पड़ने पर सरकारी गवाह बन जाते हैं। अगर कुछ करना है, तो अभी कर डालो। दिन को वारदात करोगे सब-के-सब पकड़ लिये जाओगे। पाँच-पाँच साल की सज़ा ठुक जायगी।

अमर ने सन्देह के स्वर में पूछा---लेकिन इस वक्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा?

ठिगने क़ैदी ने राह बताई यह हमारा काम है भैया, तुम क्या जानो।

सबों ने मुँह मोड़कर कनफुसकियों में बातें शुरू की। फिर पाँचो आदमी खड़े हो गए।

ठिगने क़ैदी ने कहा---हममें से जो फूटे, उसे गऊ-हत्या!

यह कहकर उसने बड़े ज़ोर से हाय, हाय करना शुरू किया। और भी कई आदमी चीखने चिल्लाने लगे। एक क्षण में बार्डर ने द्वार पर आकर पूछा---तुम लोग क्यों शोर कर रहे हो! क्या बात है?

ठिगने क़ैदी ने कहा---बात क्या है, काले खाँ की हालत खराब है। जाकर जेलर साहब को बुला लाओ, चटपट।

वार्डर बोला—वाह बे! चुपचाप पड़ा रह! बड़ा नवाब का बेटा बना है।

'हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज दो, नहीं ठीक न होगा।'

काले खाँ ने आँखें खोलीं और क्षीण स्वर में बोला---क्यों चिल्लाते हो यारो, मैं अभी मरा नहीं हूँ। जान पड़ता है, पीठ की हड्डी में चोट है।

ठिगने क़ैदी ने कहा---उसी का बदला चुकाने की तैयारी है पठान।

काले खाँ तिरस्कार के स्वर में बोला---किससे बदला चुकाओगे भाई, अल्लाह से? अल्लाह की यही मरज़ी है, तो उसमें दूसरा कौन दखल दे सकता है। अल्लाह की मरजी के बिना कहीं एक पत्ती भी हिल सकती है? ज़रा मुझे पानी पिला दो। और देखो जब मैं मर जाऊँ, तो यहाँ जितने भाई हैं, सब मेरे लिए खुदा से दुआ करना। और दुनिया में मेरा कौन है! शायद तुम लोगों की दुआ से मेरी नजात हो जाय।

अमर ने उसे गोद में सँभालकर पानी पिलाना चाहा। घूँट कण्ठ के नीचे न उतरा। वह जोर से कराहकर फिर लेट गया।

ठिगने क़ैदी ने दाँत पीसकर कहा---ऐसे बदमाश की गरदन तो उलटी छुरी से काटनी चाहिए।

काले खाँ दीन-भाव से रुक-रुककर बोला---क्यों मेरी नजात का द्वार बन्द करते हो भाई! दुनिया तो बिगड़ गयी, क्या आक़बत भी बिगाड़ना चाहते हो? अल्लाह से दुआ करो, सब पर रहम करो। ज़िन्दगी में क्या कम गुनाह किये हैं, कि मरने के पीछे पाँव में बेड़ियाँ पड़ी रहें! या अल्लाह! रहम करो।

इन शब्दों में मरनेवाले की निर्मल आत्मा मानो व्याप्त हो गयी थी। बातें वही थीं, जो रोज़ सुना करते थे। पर इस समय इनमें कुछ ऐसी द्रावक, कुछ ऐसी हिला देने वाली सिद्धि थी कि सभी जैसे उसमें नहा उठे। इस चुटकी-भर राख ने जैसे उनके तापमय विकारों को शान्त कर दिया।

प्रातःकाल जब काले खाँ ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी तो ऐसा कोई क़ैदी न था, जिसकी आँखों से आँसू न निकल रहे हों; पर औरों का रोना दुःख की बात थी, अमर का रोना सुख का था। औरों को किसी आत्मीय के खो देने का सदमा था, अमर को उसके समीप हो जाने का अनुभव हो रहा था। अपने जीवन में उसने यही एक नररत्न पाया था, जिसके सम्मुख वह श्रद्धा से सिर झुका सकता था और जिससे वियोग हो जाने पर उसे एक वरदान पा जाने का भान होता था।

इस प्रकाश-स्तंभ ने आज उसके जीवन को एक दूसरी ही धारा में डाल दिया जहाँ संशय की जगह विश्वास और शंका की जगह सत्य मूर्तिमान हो गया था।