हंस प्रकाशन, पृष्ठ ३५३ से – ३५६ तक

 

अमरकान्त को जेल में रोज़-रोज़ का समाचार किसी-न-किसी तरह मिल जाता था। जिस दिन मार-पीट और अग्निकांड की ख़बर मिली, उसके क्रोध का वारा-पार न रहा और जैसे आग बुझकर राख हो जाती है, थोडी ही देर के बाद क्रोध की जगह केवल नैराश्य रह गया। लोगों के रोने-पीटने की दर्दभरी हाय-हाय जैसे मूर्तिमान होकर उसके सामने सिर पीट रही थी। जलते हुए घरों की लपटें जैसे उसे झुलसे डालती थीं। वह सारा भीषण दृश्य कल्पनातीत होकर सर्वनाश के समीप जा पहुँचा था और इसकी जिम्मेदारी किस पर थी? रुपये तो यों भी वसूल किये जाते; पर इतना अत्याचार तो न होता, कुछ रिआयत तो की जाती। सरकार इस विद्रोह के बाद किसी तरह भी नर्मी का बर्ताव न कर सकती थी; लेकिन रुपये न दे सकना तो किसी मनुष्य का दोष नहीं। यह मन्दी की बला कहाँ से आयी, कौन जाने। यह तो ऐसा ही है कि आँधी में किसी का छप्पर उड़ जाय और सरकार उसे दण्ड दे। यह शासन किसके हित के लिए है? इसका उद्देश्य क्या है? इन विचारों से तंग आकर उसने नैराश्य में मुंह छिपाया। अत्याचार हो रहा है। होने दो। मैं क्या करूँ? कर ही क्या सकता हूँ! मैं कौन हूँ! मुझसे मतलब? कमज़ोरों के भाग्य में जब तक मार खाना लिखा है, मार खायेंगे। मैं ही यहाँ क्या फूलों की सेज पर सोया हुआ हूँ। अगर संसार के सारे प्राणी पशु हो जायँ, तो मैं क्या करूँ। जो होगा, होगा। यह भी ईश्वर की लीला है! वाह रे तेरी लीला! अगर ऐसी ही लीलाओं में तुम्हें आनन्द आता है, तो तुम दयामय क्यों बनते हो? ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर, क्या यह ईश्वरी नियम है?

जब सामने कोई विकट समस्या आ जाती थी, तो उसका मन नास्तिकता की ओर झुक जाता था। सारा विश्व श्रृंखला-हीन, अव्यवस्थित, रहस्यमय जान पड़ता था।

उसने बान बटना शुरू किया, लेकिन आँखों के सामने एक दूसरा ही अभिनय हो रहा था---वहीं सलोनी है, सिर के बाल खुले हुए, अर्धनग्न। मार पड़ रही है। उसके रुदन की करुणाजनक ध्वनि कानों में आने लगी। फिर मुन्नी की मूर्ति सामने आ खड़ी हुई। उसे सिपाहियों ने गिरफ्तार कर लिया है और खींचे लिये जा रहे हैं। उसके मुंह से अनायास ही निकल गया--हाँय हाँय, यह क्या करते हो। फिर वह अचेत हो गया और बान बटने लगा।

रात को भी यही दृश्य आँखों में फिरा करते; वही कंदन कानों में गूंजा करता। इस सारी विपत्ति का भार अपने सिर पर लेकर वह दबा जा रहा था। इस भार को हलका करने के लिए उसके पास कोई साधना न थी। ईश्वर का बहिष्कार करके उसने मानो नौका का परित्याग कर दिया था और अथाह जल में डुबा जा रहा था। कर्मजिज्ञासा उसे किसी तिनके का सहारा न लेने देती थी। वह किधर जा रहा है और अपने साथ लाखों निस्सहाय प्राणियों को किधर लिये जा रहा है? इसका क्या अन्त होगा? इस काली घटा में कहीं चाँदी की झालर है? वह चाहता था, कहीं से आवाज़ आये, बढ़े आओ। बढ़े आओ। यही सीधा रास्ता है। पर चारों तरफ़ निविड़, सघन अन्धकार था। कहीं से कोई आवाज नहीं आती, कहीं प्रकाश नहीं मिलता। जब वह स्वयं अन्धकार में पड़ा हुआ है, स्वयं नहीं जानता--आगे स्वर्ग की शीतल छाया है, या विध्वंस की भीषण ज्वाला, तो उसे क्या अधिकार है कि इतने प्राणियों की जान आफ़त में डाले। इसी मानसिक पराभय की दशा में उसके अन्तःकरण से निकला--ईश्वर मुझे प्रकाश दो, मुझे उबारो और वह रोने लगा।

सुबह का वक्त था। क़ैदियों की हाज़िरी हो गयी थी। अमर का मन कुछ शान्त था। यह प्रचण्ड आवेग शान्त हो गया था और आकाश में छायी हुई गर्द बैठ गयी थी। चीजें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी थीं। अमर मन में पिछली घटनाओं की आलोचना कर रहा था। कारण और कार्य के सूत्रों को मिलाने की चेष्टा करते हए सहसा उसे एक ठोकर-सी लगी--नैना का वह पत्र और सुखदा की गिरफ्तारी। इसी से तो वह आवेश में आ गया था। और समझौते का सुसाध्य मार्ग छोड़कर उस दुर्गम पथ की ओर झुक पड़ा था। इस ठोकर ने जैसे उसकी आँखें खोल दीं। मालूम हुआ, यह यश-लालसा का, व्यक्तिगत स्पर्धा का, सेवा के आवरण में छिपे हुए अहंकार का खेल था। इस अविचार और आवेश का परिणाम इसके सिवा और क्या होता।

अमर के समीप एक क़ैदी बैठा बान बट रहा था। अमर ने पूछा---तुम कैसे आये भाई?

उसने कुतूहल से देखकर कहा---पहले तुम बताओ।

'मुझे तो नाम की धुन थी।'

'मुझे धन की धुन थी।'

उसी वक्त जेलर में आकर अमर से कहा---तुम्हारा तबादला लखनऊ हो गया है। तुम्हारे बाप आये थे। तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हारी मुलाक़ात की तारीख न थी। साहब ने इन्कार कर दिया।

अमर ने आश्चर्य से पूछा---मेरे पिताजी यहाँ आये थे?

'हाँ-हाँ, इसमें ताज्जुब की क्या बात है। मि० सलीम भी उनके साथ थे।'

'इलाके की कुछ नई खबर?'

'तुम्हारे बाप ने शायद सलीम साहब को समझाकर गाँववालों से मेल करा दिया है। शरीफ़ आदमी हैं। गाँववालों के इलाज-मालजे के लिए एक हजार रुपये दे दिये।'

अमर मुसकराया।

'उन्हीं की कोशिश से तुम्हारा तबादला हो रहा है। लखनऊ में तुम्हारी बीबी भी आ गयी हैं। शायद उन्हें छ: महीने की सजा हुई है।'

अमर खड़ा हो गया--सुखदा भी लखनऊ में है?

'और तुम्हारा तबादला क्यों हो रहा है!'

अमर को अपने मन में विलक्षण शान्ति का अनुभव हुआ। वह निराशा कहाँ गयी? दुर्बलता कहाँ गयी?

वह फिर बैठकर बान बटने लगा। उसके हाथों में आज गज़ब की फुरती है। ऐसी कायापलट! ऐसा मंगलमय परिवर्तन! क्या अब भी ईश्वर की दया में कोई सन्देह हो सकता है। उसने काँटे बोये थे। वह सब फल हो गये!

सुखदा आज जेल में है। जो भोग-विलास पर आसक्त थी, वह आज दीनों की सेवा में अपना जीवन सार्थक कर रही है। पिताजी, जो पैसों को दाँत से पकड़ते थे, वह आज परोपकार में रत हैं। कोई दैवी शक्ति नहीं है तो यह सब कुछ किसकी प्रेरणा से हो रहा है!

उसने मन की संपूर्ण श्रद्धा से ईश्वर के चरणों में वन्दना की। वह भार, जिसके बोझ से वह दबा जा रहा था, उसके सिर से उतर गया था, उसकी देह हलकी थी, मन हलका था और आगे आनेवाली ऊपर की चढ़ाई मानो उसका स्वागत कर रही थी।