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पाँचवाँ भाग
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लखनऊ का सेंट्रल जेल शहर के बाहर खुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के जनाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गयी है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार होता है; पर छींटे पड़कर रह जाते हैं। दानी के दिल में अब भी दया है; पर हाथ खाली है। जो कुछ था लुटा चुका।

जब कोई अन्दर आता है और सदर दरवाजा खुलता है, तो सुखदा द्वार के सामने आकर खड़ी हो जाती है। द्वार एक क्षण में बन्द हो जाता है; पर बाहर के संसार की उसी झलक के लिए वह कई-कई घण्टे वृक्ष के नीचे खड़ी रहती है, जो द्वार के सामने हैं। उस मोल-भर की चहारदीवारी के अन्दर जैसे उसका दम घुटता है। उसे यहाँ आये अभी पूरे दो महीने भी न हुए, ऐसा जान पड़ता है, दुनिया में न-जाने क्या-क्या परिवर्तन हो गये। पथिकों को राह चलते देखने में भी अब एक विचित्र आनन्द था। बाहर का संसार कभी इतना मोहक न था।

वह कभी-कभी सोचती है--उसने सफ़ाई दी होती, तो शायद बरी हो जाती; पर क्या मालूम था, चित्त की यह दशा होगी। वे भावनाएँ, जो कभी भूलकर मन में न आती थीं, अब किसी रोगी की कुपथ्य-चेष्टाओं की भाँति मन को उद्विग्न करती रहती थीं। झूला झूलने की उसे इच्छा न होती थी; पर आज बार-बार जी चाहता था---रस्सी हो, तो इसी वृक्ष में झूला डालकर झूले। अहाते में ग्वालों की लड़कियाँ भैसें चराती हुई आम की उबाली हुई गुठलियाँ तोड़-तोड़ कर खा रही हैं। सुखदा ने एक बार बचपन में एक गुठली चखी थी उस वक्त वह कसैली लगी थी। फिर उस अनुभव को उसने नहीं दुहराया; पर इस समय उन गुरुलियों पर उसका मन ललचा रहा [ ३३० ]है। उनकी कठोरता, उनका सोंधापन, उनकी सुगन्ध उसे कभी इतनी प्रिय न लगी थीं। उसका चित्त कुछ अधिक कोमल हो गया है, जैसे पाल में पड़कर कोई फल अधिक रसीला, स्वादिष्ट, मधुर, मुलायम हो गया। लल्लू को वह एक क्षण के लिए भी आँखों से ओझल न होने देती। वही उसके जीवन का आधार था। दिन में कई बार उसके लिए दूध, हलवा आदि पकाती, उसके साथ दौड़ती, खेलती, यहाँ तक कि जब वह बुआ या दादा के लिये रोता, तो खुद रोने लगती थी। अब उसे बार-बार अमर की याद आती है। उसकी गिरफ्तारी और सजा का समाचार पाकर उन्होंने जो खत लिखा होगा, उसे पढ़ने के लिए उसका मन तड़प-तड़पकर रह जाता है।

लेडी मेट्रन ने आकर कहा---सुखदा देवी, तुम्हारे ससुर तुमसे मिलने आये हैं। तैयार हो जाओ। साहब ने २० मिनट का समय दिया है।

सुखदा ने चट-पट लल्लू का मुंँह धोया, नये कपड़े पहनाये, जो कई दिन पहले जेल में सिये थे, और उसे गोद में लिये मेट्रन के साथ बाहर निकली, मानो पहले से ही तैयार बैठी हो।

मुलाकात का कमरा जेल के मध्य में था और रास्ता बाहर ही से था। एक महीने के बाद जेल से बाहर निकलकर सुखदा को ऐसा उल्लास हो रहा था, मानो कोई रोगी शय्या से उठा हो। जी चाहता था, सामने के मैदान में खूब उछले। और लल्लू तो चिड़ियों के पीछे दौड़ रहा था।

लाला समरकान्त वहाँ पहले ही से बैठे हुए थे। लल्लू को देखते ही गदगद हो गये और गोद में उठाकर बार-बार मुँह चूमने लगे। उसके लिए मिठाई, खिलौने, फल, कपड़े, पूरा एक गट्ठर लाये थे; सुखदा भी श्रद्धा और भक्ति से पुलकित हो उठी। उनके चरणों पर गिर पड़ी और रोने लगी; इसलिए नहीं, कि उस पर कोई विपत्ति पड़ी है, बल्कि रोने में आनन्द आ रहा है।

समरकान्त ने आशीर्वाद देते हुए पूछा--यहाँ तुम्हें जिस बात का कष्ट हो, मेट्रन साहब से कहना! मुझ पर इनकी बड़ी कृपा है। लल्लू अब शाम को रोज बाहर खेला करेगा। और किसी बात की तकलीफ तो नहीं है?

सुखदा ने देखा, समरकान्त दुबले हो गये हैं। स्नेह से उसका हृदय‌ [ ३३१ ]जैसे छलक उठा। बोली---मैं तो यहाँ बड़ आराम से हूँ: पर आप क्यों इतने दुबले हो गये हैं?

'यह न पूछो, यह पूछो कि आप जीते कैसे हैं। नैना भी चली गयी, अब घर भूतों का डेरा हो गया है। सुनता हूँ, लाला मनीराम अपने पिता से अलग होकर दूसरा विवाह करने जा रहे हैं। तुम्हारी माताजी तीर्थयात्रा करने चली गयीं। शहर में आन्दोलन चला जा रहा है। उस ज़मीन पर दिन-भर जनता की भीड़ लगी रहती है। कुछ लोग रात को वहाँ सोते हैं। एक दिन तो रातो-रात वहाँ सैकड़ों झोंपड़े खड़े हो गये; लेकिन दूसरे दिन पुलिस ने उन्हें जला दिया और कई चौधरियों को पकड़ लिया।'

सुखदा ने मन-ही-मन हर्षित होकर पूछा---यह लोगों ने क्या नादानी की। वहाँ अब कोठियाँ बनने लगी होंगी?

समरकान्त बोले---हाँ, ईंटें, चूना, सुर्खी जमा की गयी थी; लेकिन एक दिन रातो-रात सारा सामान उड़ गया। ईटें बिखेर दी गयीं, चूना मिट्टी में मिला दिया गया। तबसे वहाँ किसी को मजूर ही नहीं मिलते। न कोई बेलदार जाता है, न कारीगर। रात को पुलिस का पहरा रहता है। वही बुढ़िया पठानिन आजकल वहाँ सब कुछ कर-धर रही है। ऐसा संगठन कर लिया है कि आश्चर्य होता है।

जिस काम में वह असफल हुई, उसे वह खप्पट बुढ़िया सुचारु रूप से चला रही है, इस विचार से उसके आत्माभिमान को चोट लगी। बोली--वह बुढ़िया तो चल-फिर भी न पाती थी!

'हाँ, वही बुढ़िया अच्छे-अच्छों के दाँत खट्टे कर रही है। जनता को तो उसने ऐसा मुट्ठी में कर लिया है कि क्या कहूँ। भीतर बैठे हुए कल घुमानेवाले शांति बाबू है।'

सुखदा ने आजतक उनसे या किसी से, अमरकान्त के विषय में कुछ न पूछा था; पर इस वक्त वह मन को न रोक सकी--हरिद्वार से कोई पत्र आया था?

लाला समरकान्त की मुद्रा कठोर हो गयी। बोले---हाँ, आया था। उसी शोहदे सलीम का ख़त था। वही उस इलाके का मालिक है। उसने भी पकड़-धकड़ शुरू कर दी है। उसने खुद लालाजी को गिरफ्तार किया। [ ३३२ ]यह आपके मित्रों का हाल है। अब आँखें खुली होंगी। मेरा क्या बिगड़ा आप ठोकरें खा रहे हैं। अब जेल में चक्की पीस रहे होंगे। गये थे गरीबों की सेवा करने। यह उसी का उपहार है। मैं तो ऐसे मित्र को गोली मार देता। गिरफ्तार तक हुए; पर मुझे पत्र न लिखा। उसके हिसाब से तो मैं मर गया; मगर बुड्ढा अभी मरने का नाम नहीं लेता, चैन से खाता है और सोता है। किसी के मनाने से नहीं मरा जाता। ज़रा यह मुटमरदी देखो कि घर में किसी को खबर तक न दी। मैं दुश्मन था, नैना तो दुश्मन न थी, शांतिकुमार तो दुश्मन न थे। यहाँ से कोई जाकर मुकदमे की पैरवी करता, तो ए०,बी० कोई दर्जा तो मिल जाता। नहीं मामूली कैदियों की तरह पड़े हुए हैं। आप रोयेंगे, मेरा क्या बिगड़ता है।

सुखदा कातर कंठ से बोली---आप अबसे क्यों नहीं चले जाते।

समरकान्त ने नाक सिकोड़कर कहा---मैं क्यों जाऊँ? अपने कर्मों का फल भोगे। वह लड़की जो थी, सकीना, उसकी शादी की बात-चीत उसी दुष्ट सलीम से हो रही है, जिसने लालाजी को गिरफ्तार किया है। अब आँखें खुली होंगी।

सुखदा ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में कहा---आप तो उन्हें कोस रहे हैं दादा! वास्तव में दोष उनका न था। सरासर मेरा अपराध था। उनका सा तपस्वी परुष मुझ जैसी विलासिनी के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता था; बल्कि यों कहें कि दोष न मेरा था, न आपका, न उनका, सारा विष लक्ष्मी ने बोया। आपके घर में उनके लिए स्थान न था। आप उनसे बराबर खिंचे रहते थे। मैं भी उसी जलवायु में पली थी। उन्हें न पहचान सकी। वह अच्छा या बुरा जो कुछ करते थे, घर में उनका विरोध होता था। बात-बात पर उनका अपमान किया जाता था। ऐसी दशा में कोई भी सन्तुष्ट न रह सकता था। मैंने यहाँ एकान्त में इस प्रश्न पर ख़ूब विचार किया है और मुझे अपना दोष स्वीकार करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है। आप एक क्षण भी यहाँ न ठहरें। वहाँ जाकर अधिकारियों से मिलें, सलीम से मिलें और उनके लिए जो कुछ हो सके, करें। हमने उनको विशाल तपस्वी आत्मा को भोग के बन्धनों से बाँधकर रखना चाहा था। आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिंजरे में बन्द करना चाहते थे। जब पक्षी पिंजरे को तोड़कर उड़ गया, तो मैने [ ३३३ ]समझा, मैं अभागिनी हूँ। आज मुझे मालूम हो रहा है, वह मेरा परम सौभाग्य था।

समरकान्त एक क्षण तक चकित नेत्रों से सुखदा की ओर ताकते रहे, मानों अपने कानों पर विश्वास न आ रहा हो। इस शीतल क्षमा ने जैसे उनके मुरझाये हुए पुत्र-स्नेह को हरा कर दिया। बोले---इसकी तो मैंने खूब जाँच की, बात कुछ नहीं थी। उसे क्रोध था, उसी क्रोध में जो कुछ मुंह में आया, बक गया। यह ऐब उसमें कभी न था; लेकिन उस वक्त मैं भी अन्धा हो रहा था। फिर मैं कहता हूँ, मिथ्या नहीं, सत्य ही सही, सोलहो आने सत्य सही, तो क्या संसार में जितने ऐसे मनुष्य है, उनकी गरदन मार दी जाती है? मैं बड़े-बड़े व्यभिचारियों के सामने मस्तक नवाता हूँ। तो फिर अपने ही घर में और उन्हीं के ऊपर जिनसे किसी प्रतिकार की शंका नहीं, धर्म और सदाचार का सारा भार लाद दिया जाय? मनुष्य पर जब प्रेम का बन्धन नहीं होता, तभी वह व्यभिचार करने लगता है। भिक्षुक द्वार-द्वार इसीलिए जाता है कि एक द्वार से उसकी क्षुधा-तृप्ति नहीं होती! अगर इसे दोष भी मान लूँ, तो ईश्वर ने क्यों निर्दोष संसार नहीं बनाया? जो कहो ईश्वर की इच्छा ऐसी नहीं है, तो मैं पूछूँगा, जब सब ईश्वर के अधीन है, तो वह मन को ऐसा क्यों बना देता है कि उसे किसी टूटी झोपड़ी की भाँति बहुत-सी थूनियों से संभालना पड़े? यह तो ऐसा ही है, जैसे किसी रोगी से कहा जाय कि तू अच्छा हो जा। अगर रोगी में इतनी सामर्थ्य होती, तो वह बीमार ही क्यों पड़ता।

एक ही साँस में अपने हृदय का सारा मालिन्य उँड़ेल देने के बाद लालाजी दम लेने के लिए रुक गये। कुछ इधर-उधर लगा-लिपटा रह गया हो, शायद उसे भी खुरचकर निकाल देने का प्रयत्न कर रहे थे।

सुखदा ने कहा--तो आप वहाँ कब जा रहे हैं?

लालाजी ने तत्परता से कहा---आज ही इधर से चला जाऊँगा। सुना हैं, वहाँ बड़े जोरों से दमन हो रहा है। अब तो वहाँ का हाल समाचार-पत्रों में भी छपने लगा। कई दिन हुए, मुन्नी नाम की कोई स्त्री भी कई आदमियों के साथ गिरफ्तार हुई है। कुछ इसी तरह की हलचल सारे प्रान्त, बल्कि सारे देश में मची हुई है। सभी जगह पकड़-धकड़ हो रही है। [ ३३४ ]बालक कमरे के बाहर निकल गया था। लालाजी ने उसे पुकारा, तो वह सड़क की ओर भागा। समरकान्त भी उसके पीछे दौड़े। बालक ने समझा, खेल हो रहा है। और तेज दौड़ा। ढाई-तीन साल के बालक की तेजी ही क्या, किन्तु समरकान्त जैसे स्थूल आदमी के लिए पूरी करसत थी। बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ा।

एक मिनट के बाद कुछ इस भाव से बोले, जैसे कोई सारगर्भित कथन हो---मैं तो सोचता हूँ, जो लोग जाति-हित के लिए अपनी जान होम करने को हरदम तैयार रहते हैं, उनकी बुराइयों पर निगाह ही न डालनी चाहिए।

सुखदा ने विरोध किया---यह न कहिये दादा! ऐसे मनुष्यों का चरित्र आदर्श होना चाहिए; नहीं, उनके परोपकार में स्वार्थ और वासना की गन्ध आने लगेगी।

समरकान्त ने तत्वज्ञान की बात कही--स्वार्थ मैं उसी को कहता हूँ, जिसके मिलने से चित को हर्ष और न मिलने से क्षोभ हो? ऐसा प्राणी, जिसे हर्ष और क्षोभ हो ही नहीं, मनुष्य नहीं, देवता भी नहीं, जड़ है।

सुखदा मुसकराई---तो संसार में कोई निःस्वार्थ हो ही नहीं सकता?

'असंभव। स्वार्थ छोटा हो, तो स्वार्थ है; बड़ा हो, तो उपकार है। मेरा तो विचार है, ईश्वर-भक्ति भी स्वार्थ है।'

मुलाकात का समय गुजर चुका था। मेट्रन अब और रिआयत न कर सकती थी। समरकान्त ने बालक को प्यार किया, बहू को आशीर्वाद दिया और बाहर निकाले।

बहुत दिनों के बाद आज उन्हें अपने भीतर आनन्द और प्रकाश का अनुभव हुआ, मानो चन्द्रदेव के मुख से मेघों का आवरण हट गया हो।