कर्मभूमि/चौथा भाग ७
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आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाये उनका आशीर्वाद बटोर रही थी। इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोनों दो दिशाओं से मदरसे में आये।
अमरकान्त ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा--हम लोगों ने कितना अच्छा प्रोग्राम बनाया था कि एक साथ लौटे। एक क्षण का भी विलंब न हुआ। कुछ खा-पीकर फिर निकलें और आठ बजते-बजते लौट आयें।
आत्मानन्द ने भूमि पर लेटकर कहा--भैया, अभी तो मुझसे एक पग न चला जायगा, हाँ प्राण लेना चाहो, तो ले लो। दौड़ते-दौड़ले कचूमर निकल गया। पहले शर्बत बनवाओ, पीकर ठण्डे हों, तो आँखें खुलें।
'तो फिर आज काम समाप्त हो चुका।'
'हो या भाड़ में जाय, क्या प्राण दे दें। तुमसे हो सकता है करो, मुझसे तो नहीं हो सकता।'
अमर ने मुसकराकर कहा---यार! मुझसे दूने तो हो, फिर भी चें बोल गये। मुझे अपना बल और अपना पाचन दे दो, फिर देखो, मैं क्या करता हूँ।
आत्मानन्द ने सोचा था, उनकी पीठ ठोंकी जायगी, यहाँ उनके पौरुष पर आक्षेप हुआ। बोले---तुम मरना चाहते हो, मैं जीना चाहता हूँ।
'जीने का उद्देश्य तो कर्म है।'
'हाँ, मेरे जीवन का उद्देश्य कर्म ही है। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तो अकाल मृत्यु है।'
'अच्छा शर्बत पिलवाता हूँ, उसमें दही भी डलवा दूँ?'
'हाँ, दही की मात्रा अधिक हो और दो लोटे से कम न हो। इसके दो घण्टे के बाद भोजन चाहिए।'
'मार डाला! तब तक तो दिन ही ग़ायब हो जायगा।'
अमर ने मुन्नी को बुलाकर शर्बत बनाने को कहा---और स्वामीजी के बराबर ही ज़मीन पर लेटकर पूछा---इलाके की क्या हालत है?
'मुझे तो भय हो रहा है कि लोग धोखा देंगे। बेदखली शुरू हुई, तो बहुतों के आसन डोल जायेंगे।'
'तुम तो दार्शनिक न थे, यह घी पत्ते पर या पत्ता घी पर की शंका कहाँ से लाये?' 'ऐसा काम ही क्यों किया जाय, जिसका अन्त लज्जा और अपमान हो। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे बड़ी निराशा हुई।'
'इसका अर्थ यह है, कि आप इस आन्दोलन के नायक बनने के योग्य नहीं हैं। नेता में आत्मविश्वास, साहस और धैर्य, ये मुख्य लक्षण हैं।
मुन्नी शर्बत बनाकर लाई। आत्मानन्द ने कमण्डल भर लिया और एक साँस में चढ़ा गये। अमरकान्त एक कटोरे से ज्यादा न पी सका।
आत्मानन्द ने मुँह चिढ़ाकर कहा---बस! फिर भी आप अपने को मनुष्य कहते हैं।
अमर ने जवाब दिया--बहुत खाना पशुओं का काम है।
'जो खा नहीं सकता वह काम क्या करेगा।'
'नहीं, जो कम खाता है, वही काम करता है, पेटू के लिए सबसे बड़ा काम भोजन पचाना है।'
सलोनी कल से बीमार थी। अमर उसे देखने चला था, कि मदरसे के सामने ही मोटर आते देखकर रुक गया। शायद इस गाँव में मोटर पहली बार आई है। वह सोच रहा था, किसका मोटर है, कि सलीम उसमें से उतर पड़ा। अमर ने लपककर हाथ मिलाया--कोई ज़रूरी काम था, मुझे क्यों न बुला लिया?
दोनों आदमी मदरसे में आये। अमर ने एक खाट लाकर डाल दी और बोला--तुम्हारी क्या खातिर करूँ। यहाँ तो फकीरों की हालत है। शर्बत बनाऊँ?
सलीम ने सिगार जलाते हुए कहा--नहीं, कोई तकल्लुफ नहीं। मि० गजनवी तुमसे किसी मुआमले में सलाह करना चाहते हैं। मैं आज ही जा रहा हूँ। सोचा तुम्हें भी लेता चलूं। तुमने तो कल आग लगा ही दी। अब तहक़ीक़ात से क्या फायदा होगा। वह तो बेकार हो गयीं।
अमर ने कुछ झिझकते हुए कहा---महन्तजी ने मजबूर कर दिया। क्या करता।
सलीम ने दोस्ती की आड़ ली---मगर इतना तो सोचते कि यह मेरा इलाका है और यहाँ की सारी जिम्मेदारी मुझ पर है। मैंने सड़क के किनारे अक्सर गाँवों में लोगों के जमाव देखे। कहीं-कहीं तो मेरी मोटर पर पत्थर भी कर्मभूमि
फेंके गये। यह अच्छे आसार नहीं हैं। मुझे खौफ़ है, कोई हंगामा न हो जाय। अपने हक के लिए या बेजा जुल्म के खिलाफ़ रिआया में जोश हो, तो मैं इसे बुरा नहीं समझता, लेकिन यह लोग कायदे-कानून के अन्दर रहेंगे, मुझे इसमें शक है। तुमने गूगों को आवाज़ दी, सोतों को जगाया; लेकिन ऐसी तहरीक के लिए जितने जब्त और सब्र की जरूरत है, उसका दसवाँ हिस्सा भी मुझे नजर नहीं आता।
अमर को इस कथन में शासन-पक्ष की गन्ध आयी। बोला---तुम्हें यकीन है कि तुम भी वही गलती नहीं कर रहे जो हुक्काम किया करते हैं? जिनकी जिन्दगी आराम और फ़रागत से गुजर रही है, उनके लिए सब्र और जब्त की हाँक लगाना आसान है, लेकिन जिनकी जिन्दगी का हरेक दिन एक नयी मुसीबत है, वह नजात के अपनी जनवासी चाल से आने का इन्तजार नहीं कर सकते। वह उसे खींच लाना चाहते हैं, और जल्द-से-जल्द।
'मगर नजात के पहले कयामत आयेगी, यह भी याद रहे।'
'हमारे लिए यह अंधेर ही कयामत है। जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहाँ। उस पर भी हम आठ आने पर राजी थे; मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आखिर सरकार किफायत क्यों नहीं करती? पुलिस और फौज और इन्तजाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाये जाते हैं? किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमजोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?'
सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा--इसका नतीजा क्या होगा, जानते हो? गांव-के-गाँव बरबाद हो जायेंगे, फौजी कानून जारी हो जायगा, जायद पुलिस बैठा दी जायगी, फ़स्लें नीलाम कर दी जायगी, जमीनें जब्त हो जायँगी। कयामत का सामना होगा।
अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा--जो कुछ भी हो, मर-मिटना जुल्म के सामने सिर झुकाने से अच्छा है।
मदरसे के सामने हुजूम बढ़ता जाता था। सलीम ने विवाद का अन्त करने के लिए कहा---चलो इस मुआमले पर रास्ते में बहस करेंगे। देर हो रही है।
अमर ने चटपट कुरता गले में डाला और आत्मानन्द से दो-चार जरूरी बाते करके आ गया। दोनों आदमी आकर मोटर पर बैठे। मोटर चली तो सलीम की आँखों में आँसू डबडबाये हुए थे।
अमर ने सशंक होकर पूछा--मेरे साथ दगा तो नहीं कर रहे हो?
सलीम ने अमर के गले लिपट कर कहा--इसके सिवा और दूसरा रास्ता न था। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें पुलिस के हाथों ज़लील किया जाय।
'तो ज़रा ठहरो, मैं अपनी कुछ ज़रूरी चीज़ें तो ले लूँ।'
'हाँ हाँ, ले लो, लेकिन राज़ खुल गया, तो यहाँ मेरी लाश नज़र आयेगी।'
'तो चलो कोई मुज़ायका नहीं।'
गाँव के बाहर निकले ही थे कि मुन्नी आती हई दिखाई दी। अमर ने मोटर रुकवाकर पूछा--तुम कहाँ गयी थीं मुन्नी? धोबी से मेरे कपड़े लेकर रख लेना, सलोनी काकी के लिए मेरी कोठरी में ताक पर दवा रखी है। पिला देना।
मुन्नी ने सहमी हुई आँखों से देखकर पूछा--तुम कहाँ जाते हो?
'एक दोस्त के यहाँ दावत खाने जा रहा हूँ।'
मोटर चली। मुन्नी ने पूछा--कब तक आओगे?
अमर ने सिर निकालकर उसे दोनों हाथ जोड़कर कहा--जब भाग्य लाये।
साथ पढ़े, साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल धप्पा, हँसी-मज़ाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक, दोनों ही देशभक्त, दोनों ही किसानों के शुभेच्छु; पर एक अफसर था, दूसरा क़ैदी। दोनों उठे हुए बैठे थे, पर जैसे बीच में कोई दीवार खड़ी हो। अमर प्रसन्न था, मानो शहादत के ज़ीने पर चढ़ रहा हो। सलीम दुःखी था, जैसे भरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो। विकास के सिद्धान्त खुली सभा में समर्थन करके उसकी आत्मा विजयी होती, निरंकुशता की शरण लेकर वह जैसे कोठरी में छिपा बैठा था।
सहसा सलीम ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा--क्यों अमर, मुझसे खफा हो! अमर ने प्रसन्न मुख से कहा--बिल्कुल नहीं। मैं तुम्हें अपना वही पुराना दोस्त समझ रहा हूँ। उसूलों की लड़ाई हमेशा होती रही है और होता रहेगी! दोस्ती में इससे फ़र्क नहीं आता।
सलीम ने अपनी सफ़ाई दी--भाई, इन्सान इन्सान है, दो मुखालिफ गिरोहों में आकर दिल में कीना या मलाल पैदा हो जाय, तो ताज्जुब नहीं। पहले डी० एस० पी० को भेजने की सलाह थी; पर मैंने इसे मुनासिव न समझा।
'इसके लिए मैं तुम्हारा बड़ा एहसानमन्द हूँ। मेरे ऊपर कोई मुकदमा चलाया जायगा?'
'हाँ तुम्हारी तकरीरों की रिपोर्ट मौजूद है, और शहादतें भी जमा हो गयी है। तुम्हारा क्या खयाल है, तुम्हारी गिरफ्तारी से यह शोरिश दब जायगी या नहीं?'
'कुछ कह नहीं सकता। अगर मेरी गिरफ्तारी या सज़ा से दब जाय, तो इसका दब जाना ही अच्छा।'
उसने एक क्षण के बाद फिर कहा--रिआया को मालूम है कि उनके क्या-क्या हक़ हैं। यह भी मालूम है कि हकों की हिफ़ाज़त के लिए कुरबानियाँ करनी पड़ती हैं। मेरा फ़र्ज़ यहीं तक ख़त्म हो गया। अब वह जानें और उनका काम जाने। मुमकिन है, सख्तियों से दब जायँ, मुमकिन है, न दबें; लेकिन दबें या उठे, उन्हें चोट ज़रूर लगी है। रिआया का दब जाना, किसी सरकार की कामयाबी की दलील नहीं है।
मोटर के जाते ही सत्य मुन्नी के सामने चमक उठा। वह आवेश में चिल्ला उठी--लाला पकड़ गये! और उसी आवेश में मोटर के पीछे दौड़ी। चिल्लाती जाती थी--लाला पकड़ गये।
वर्षाकाल में किसानों की हार में बहुत काम नहीं होता। अधिकतर लोग घरों पर होते हैं। मुन्नी की आवाज मानो खतरे का बिगुल थी। दम-के-दम में सारे गाँव में यह आवाज़ गूँज उठी--भैया पकड़ गये!
स्त्रियाँ घरों में से निकल पड़ी--पकड़ गये!
क्षण-भर में सारा गाँव जमा हो गया और सड़क की तरफ दौड़ा। मोटर घुमकर सड़क से जा रही थी। पगडंडियों का एक सीधा रास्ता था। लोगों ने अनुमान किया, अभी इस रास्ते मोटर पकड़ी जा सकती है। सब उसी रास्ते दौड़े।
काशी--मरना तो एक दिन है ही।
मुन्नी ने कहा--पकड़ना है, तो सबको पकड़ें। ले चलें सबको।
पयाग बोला---सरकार का काम है चोर बदमाशों को पकड़ना या ऐसो को जो दूसरों के लिए जान लड़ा रहे हैं? वह देखो मोटर आ रही है। बस, सब रास्ते में खड़े हो जाओ। कोई न हटना, चिल्लाने दो।
सलीम मोटर रोकता हुआ बोला--अब कहो भाई, निकालूँ पिस्तौल?
अमर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--नहीं-नहीं, मैं इन्हें समझाये देता हूँ।
'मझे पुलिस के दो-चार आदमियों को साथ ले लेना था।'
"घबड़ाओ मत, पहले मैं मरूँगा, फिर तुम्हारे ऊपर कोई हाथ उठायेगा।'
अमर ने तुरन्त मोटर से सिर निकालकर कहा--बहनो और भाइयो, अब मझे विदा कीजिए। आप लोगों के सत्संग में मुझे जितना स्नेह और सुख मिला, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। मैं परदेशी मुसाफिर था। आपने मुझे स्थान दिया, आदर दिया, प्रेम दिया। मुझसे भी जो कुछ सेवा हो सकी, वह मैंने की। अगर मुझसे कुछ भूल-चूक हुई हो, तो क्षमा करना। जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे छोड़ना मत, यही मेरी याचना है। सब काम ज्यों-का-त्यों होता रहे, यही सबसे बड़ा उपहार है, जो आप मुझे दे सकते हैं। प्यारे बालको, मैं जा रहा हूँ, लेकिन मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।
काशी ने कहा--भैया, हम सब तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।
अमर ने मुस्कुराकर उत्तर दिया---नेवता तो मझे मिला है, तुम लोग कैसे जाओगे?
किसी के पास इसका जवाब न था। भैया बात ही ऐसी कहते हैं कि किसी से उसका जवाब नहीं बन पड़ता।
मुन्नी सबसे पीछे खड़ी थी, उसकी आँखें सजल थीं। इस दशा में अमर के सामने कैसे जाय। हृदय में जिस दीपक को जलाये, वह अपने अँधेरे जीवन में प्रकाश का स्वप्न देख रही थी, वह दीपक कोई उसके हदय से निकाले लिये जाता है। वह सूना अन्धकार क्या फिर वह सह सकेगी!
सहसा उसने उत्तेजित होकर कहा--इतने जने खड़े ताकते क्या हो! उतार लो मोटर से! जन-समूह में एक हलचल मची। एक ने दूसरे की ओर कैदियों की तरह देखा; कोई बोला नहीं।
मुन्नी ने फिर ललकारा--खड़े ताकते क्या हो, तुम लोगों में कुछ हया है या नहीं! जब पुलिस और फौज इलाके को खून से रंग देती, तभी...
अमर ने मोटर से निकलकर कहा---मुन्नी, तुम बुद्धिमती होकर ऐसी बातें कर रही हो! मेरे मुँह में कालिख मत लगाओ।
मुन्नी उन्मत्तों की भाँति बोली---में बुद्धिमान् नहीं, मैं तो मूरख हूँ, गॅवारिन हूँ। आदमी एक-एक पत्ती के लिए सिर कटा देता है, एक-एक बात पर जान दे देता है। क्या हम लोग खड़े ताकते रहें और तुम्हें कोई पकड़ ले जाय? तुमने कोई चोरी की है, डाका मारा है?
कई आदमी उत्तेजित होकर मोटर की ओर बढ़े; पर अमरकान्त की डाँट सुनकर ठिठक गये--क्या करते हो! पीछे हट जाओ। अगर मेरे इतने दिनों की सेवा और शिक्षा का यही फल है, तो मैं कहूँगा कि मेरा सारा परिश्रम धूल में मिल गया। यह हमारा धर्म-युद्ध है और हमारी जीत हमारे त्याग, हमारे बलिदान और हमारे सत्य पर है।
जादू का-सा असर हुआ। लोग रास्ते से हट गये। अमर मोटर में बैठ गया और मोटर चली।
मुन्नी ने आँखों में क्षोभ और क्रोध के आँसू भर अमरकान्त को प्रणाम किया। मोटर के साथ जैसे उसका हृदय भी उड़ा जाता हो।