कर्मभूमि/तीसरा भाग ५
५
नैना बार बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गये और लालाजी अभी तक गंगा स्नान करने नहीं
गये। नैना रात भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी? उसने शांतिकुमार को चोट खाकर गिरते देखा था और निर्जीव-सी खड़ी थी। अमर ने उसे प्रारम्भिक चिकित्सा की मोटी-मोटी बातें सिखा दी थीं; पर वह उस अवसर पर कुछ भी तो न कर सकी। वह देख रही थी कि आदमियों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया है। फिर उसने देखा कि डाक्टर आया और शांतिकुमार को एक डोली पर लेटा कर ले गया; पर वह अपनी जगह से नहीं हिली। उसका मन किसी बँधुए पशु की भाँति बार-बार भागना चाहता था; पर वह रस्सी को दोनों हाथ से पकड़े हुए पूरे बल के साथ उसे रोक रही थी। कारण क्या था? संकोच।
आखिर उसने कलजा मजबूत किया और द्वार से निकलकर बरामदे में आ गयी।
समरकान्त ने पुछा--कहाँ जाती है?
'जरा मन्दिर तक जाती हूँ।'
'वहाँ का तो रास्ता ही बन्द है। जाने कहाँ के चमार-सियार आकर द्वार पर बैठे हैं। किसी को जाने ही नहीं देते। पुलिस खड़ी उन्हें हटाने का यत्न कर रही है, पर अभागे कुछ सुनते ही नहीं। यह सब इसी शांतिकुमार का पाजीपन है। आज वही इन लोगों का नेता बना हुआ है। विलायत जाकर धर्म तो खो ही आया था, अब यहाँ हिन्दू-धर्म की जड़ खोद रहा है। न कोई आचार न कोई विचार, उसी शोहदे सलीम के साथ खाता-पीता है। ऐसे धर्म-द्रोहियों को और क्या सूझेगी। इन्हीं सभों की सोहबत ने अमर को चौपट किया; इसे न जाने किसने अध्यापक बना दिया।
नैना ने दूर से ही यह दृश्य देखकर लौट आने का बहाना किया और मन्दिर की ओर चली। फिर कुछ दूर के बाद एक गली में होकर अस्पताल की ओर चल पड़ी। दाहिने-बायें चौकन्नी आँखों से ताकती हुई वह तेजी से चली जा रही थी, मानो चोरी करने जा रही हो।
अस्पताल में पहुँची तो देखा, हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई है, और युनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं। सलीम भी नजर आया। वह उसे देखकर पीछे लौटना चाहती थी कि ब्रजनाथ मिल गया--अरे नैना देवी! तुम यहाँ कहाँ? डाक्टर साहब को रात भर होश
नहीं रहा। सलीम और हम उनके पास बैठे रहे। इस वक्त जाकर आँखें खोली हैं।
इतने परिचित आदमियों के सामने नैना कैसे ठहरती। वह तुरंत लौट पड़ी, पर यहाँ आना निष्फल न हुआ। डाक्टर साहब को होश आ गया है।
वह मार्ग में ही थी कि उसने सैकड़ों आदमियों को दौड़े हुए आते देखा। वह एक गली में छिप गयी। शायद फ़ोजदारी हो गयी। अब वह घर कैसे पहुँचेगी? संयोग से आत्मानन्दजी मिल गये। नैना को पहचानकर बोले--यहाँ तो गोलियां चल रही हैं। पुलिस कप्तान ने आकर फैर करा दिया।
नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। जैसे नसों में रक्त का प्रवाह बन्द हो गया हो। बोली--क्या आप उधर ही से आ रहे हैं ?
'हाँ, मरते-मरते बचा। गली से निकल आया। हम लोग केवल खड़े थे। बस, कप्तान ने फैर करने का हुक्म दे दिया। तुम कहाँ गयी थीं ?'
'मैं गंगा-स्नान करके लौटी जा रही थी। लोगों को भागते देखकर इधर चली आयी। कैसे घर पहुँचूँगी?'
'इस समय तो उधर जाने में जोखिम है।'
फिर एक क्षण के बाद कदाचित् अपनी कायरता पर लज्जित होकर कहा--किन्तु गलियों में कोई डर नहीं है। चलो मैं तुम्हें पहुँचा दूं। कोई पूछे, तो कह देना, मैं लाला समरकान्त की कन्या हूँ।
नैना ने मन में कहा--यह महाशय संन्यासी बनते हैं, फिर भी इतने डरपोक ! पहले तो ग़रीबों को भड़काया और जब मार पड़ी, तो सबसे आगे भाग खड़े हुए। मौका न था, नहीं उन्हें ऐसा फटकारती कि याद करते। उनके साथ कई गलियों का चक्कर लगाते कोई दस बजे घर पहुँची। आत्मानन्द फिर उसी रास्ते से लौट गये। नैना ने उन्हें धन्यवाद भी न दिया। उनके प्रति अब उसे लेश-मात्र भी श्रद्धा न थी।
वह अन्दर गयी, तो देखा--सुखदा सदर द्वार पर खड़ी है और सामने सड़क से लोग भागते चले जा रहे हैं।
सुखदा ने पूछा--तुम कहाँ चली गयी थीं बीबी ? पुलिस ने फैर कर दिया। बेचारे आदमी भागे जा रहे हैं। 'मुझे तो रास्ते ही में पता लगा। गलियों में छिपती हुई आई।'
'लोग कितने कायर हैं। घरों के किवाड़ तक बन्द कर लिये।'
'लालाजी जाकर पुलिसवालों को मना क्यों नहीं करते?'
'इन्हीं के आदेश से तो गोली चली है। मना कैसे करेंगे।'
'अच्छा! दादा ही ने गोली चलवायी है ?'
'हाँ, इन्हीं ने जाकर कप्तान से कहा है। और अब घर में छिपे बैठे हैं। मैं अछूतों का मन्दिर में जाना उचित नहीं समझती; लेकिन गोलियां चलते देखकर मेरा खून खौल रहा है। जिस धर्म की रक्षा गोलियों से हो, उस धर्म में सत्य का लोप समझो। देखो-देखो, उस आदमी बेचारे को गोली लग गयी! छाती से खून बह रहा है।'
यह कहती हुई वह समरकान्त के सामने जाकर बोली--क्यों लालाजी, रक्त की नदी बह जाय, पर मन्दिर का द्वार न खुलेगा?
समरकान्त ने अविचलित भाव से उत्तर दिया--क्या बकती है बहू, इन डोम-चमारों को मन्दिर में घुसने दूं? तू तो अमर से भी दो हाथ आगे बढ़ी जाती है। जिसके हाथ का पानी नहीं पी सकते, उसे मन्दिर में कैसे जाने दें ?
सुखदा ने और वाद-विवाद न किया। वह मनस्वी महिला थी। वही तेजस्विता, जो अभिमान बनकर उसे विलासिनी बनाये हुए थी, जो उसे छोटों से मिलने न देती थी, जो उसे किसी से दबने न देती थी, उत्सर्ग के रूप में उबल पड़ी। वह उन्माद की दशा में घर से निकली और पुलिसवालों के सामने खड़ी होकर, भागनेवालों को ललकारती हुई बोली--भाइयो ! क्यों भाग रहे हो? यह भागने का समय नहीं, छाती खोलकर सामने खड़े होने का समय है। दिखा दो कि तुम धर्म के नाम पर किस तरह प्राणों को होम करते हो। धर्मवीर ही ईश्वर को पाते हैं। भागनेवालों की कभी विजय नहीं होती।
भागनेवालों के पाँव सँभल गये। एक महिला को गोलियों के सामने खड़ी देखकर कायरता भी लज्जित हो गयी। एक बुढ़िया ने पास आकर कहा--बेटी, ऐसा न हो, तुम्हें गोली लग जाय !
सुखदा ने निश्चल भाव से कहा--जहाँ इतने आदमी मर गये, वहाँ मेरे
मर जाने से कोई हानि न होगी। भाइयो, बहनो, भागो मत; तुम्हारे प्राणों का बलिदान पाकर ही ठाकुरजी तुमसे प्रसन्न होंगे।
कायरता की भाँति वीरता भी संक्रामक होती है। एक क्षण में उड़ते हए पत्तों की तरह भागनेवाले आदमियों की एक दीवार-सी खड़ी हो गयी। अब डण्डे पड़े या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।
बन्दूकों से धाँय ! धाँय ! की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के कानों के पास से सन से निकल गयी। तीन-चार आदमी गिर पड़े; पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।
फिर बन्दूकें छूटीं। चार-पाँच आदमी फिर गिरे; लेकिन दीवार न हिली।
सुखदा उसे थामे हुए थी। एक ज्योति सारे घर को प्रकाश से भर देती है। बलवान हृदय उसी दीपक की भाँति समूह में साहस भर देता है।
भीषण दृश्य था। लोग अपने प्यारों को आंखों के सामने तड़पते देखते थे; पर किसी की आंखों में आंसू की बूंद न थी। उनमें इतना साहस कहाँ से आ गया था ? फौजें क्या हमेशा मैदान में डटी ही रहती हैं ? वही सेना जो एक दिन प्राणों की बाजी खेलती है दूसरे दिन बन्दूक की पहली आवाज पर मैदान से भाग खड़ी होती है। पर यह किराये के सिपाहियों का हाल है, जिनमें सत्य और न्याय का बल नहीं होता, जो केवल पेट के लिए या लूट के लिए लड़ते हैं। इस समूह में सत्य और धर्म का बल आ गया था। हरेक स्त्री और पुरुष, चाहे वह कितना ही मूर्ख क्यों न हो, समझने लगा था कि हम अपने धर्म और हक के लिये लड़ रहे हैं और धर्म के लिये प्राण देना अछूत-नीति में भी उतने ही गौरव की बात है, जितनी द्विज-नीति में।
मगर यह क्या? पुलिस के जबान क्यों संगीनें उतार रहे हैं? बन्दूकें क्यों कन्धों पर रख लीं? अरे! सब-के-सब तो पीछे की तरफ़ घूम गये। उनकी चार-चार कतारें बन रही हैं। मार्च का हुक्म मिलता है। सब-के-सब मन्दिर की तरफ लौटे जा रहे हैं। एक कांस्टेबल भी नहीं रहा। केवल लाला समरकान्त पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से कुछ बातें कर रहे हैं, और जनसमूह उसी भाँति सुखदा के पीछे निश्चल खड़ा है। एक क्षण में सुपरिन्टेन्डेन्ट
भी चला जाता है। फिर लाला समरकान्त सुखदा के समीप आकर ऊंचे स्वर में बोलते हैं--
मन्दिर खुल गया है। जिसका जी चाहे दर्शन करने जा सकता है। किसी के लिये रोक-टोक नहीं है।
जन-समूह में हलचल पड़ जाती है। लोग उन्मत्त हो होकर सुखदा के पैरों पर गिरते हैं, और तब मन्दिर की तरफ दौड़ते हैं।
मगर दस मिनट के बाद ही समूह फिर उसी स्थान पर लौट आता है, और लोग अपने प्यारों की लाशों से गले मिलकर रोने लगते हैं। सेवाश्रम के छात्र डोलियां ले-लेकर आ जाते हैं, और आहतों को उठा ले जाते हैं। वीरगति पानेवालों के क्रिया-कर्म का आयोजन होने लगता है। बजाजों की दुकानों से कपड़े के थान आ जाते हैं, कहीं से बांस, कहीं से रस्सियां, कहीं से घी, कहीं से लकड़ी। विजेताओं ने धर्म ही पर विजय नहीं पायी है, हृदय पर भी विजय पायी है। सारा नगर उनका सम्मान करने के लिये उतावला हो उठा है।
सन्ध्या समय इन धर्म-विजेताओं की अर्थियां निकलीं। सारा शहर फट पड़ा। जनाजे पहले मन्दिर-द्वार पर गये। मन्दिर के दोनों द्वार खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मन्दिर से तुलसीदल लाकर अर्थियों पर रखा और मरनेवालों के मुख में चरणामृत डाला। इन्हीं द्वारों को खुलवाने के लिये यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ है, वीरों का स्वागत करने के लिये हाथ फैलाये हुए है; पर ये रूठनेवाले अब द्वार की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता है! जिस वस्तु के लिये प्राण दिये, उसी से इतना विराग!
ज़रा देर के बाद अर्थियां नदी की ओर चलीं। वही हिन्दू-समाज जो एक घंटा पहले इन अछूतों से घृणा करता था, इस समय उन अर्थियों पर फूलों की वर्षा कर रहा था। बलिदान में कितनी शक्ति है!
और सुखदा? वह तो विजय की देवी थी। पग-पग पर उसके नाम की जय जयकार होती थी। कहीं फूलों की वर्षा होती थी, कहीं मेवों की, कहीं रुपयों की। घड़ी भर पहले वह नगर में नगण्य थी इस समय वह नगर की रानी थी। इतना यश विरले ही पाते हैं। उसे इस समय वास्तव में दोनों
तरफ के ऊँचे मकान कुछ नीचे, और सड़कों के दोनों ओर खड़े होनेवाले मनुष्य कुछ छोटे मालूम होते थे, पर इतनी नम्रता, इतनी विनय उसमें कभी न थी। मानों इस यश और ऐश्वर्य के भार से उसका सिर झुका जाता हो।
इधर गंगा के तट पर चिताएँ जल रही थीं, उधर मन्दिर इस उत्सव के आनन्द में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था, मानों वीरों की आत्माएँ चमक रही हों!