कर्मभूमि/तीसरा भाग ४
४
सब लोग हाँ-हाँ करते ही रहे पर शांतिकुमार, आत्मानन्द और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिये। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।
उस दिन फिर कथा न हई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी। और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार पीट से क्या फ़ायदा ?
दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई; पर श्रोताओं की संख्या बहुत
कम हो गयी थी। मधुसूदनजी ने बहुत चाहा, कि रंग जमा दें; पर लोग जम्हाइयाँ ले रहे थे और पिछली सफ़ों में तो लोग बड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मन्दिर का आंगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाजे कुछ नीचे हो गये हैं। भजनमंडली के न होने से और भी सन्नाटा है। उधर नौजवान सभा के सामने खुले मैदान में शांतिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानन्द आदि आनेवालों का स्वागत करते थे। थोडी देर में दरियां छोटी पड़ गयीं और थोड़ी देर और गुजरने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथड़े पहने हुए। उनकी देह से तम्बाकू और मैलेपन की दुर्गन्ध आ रही थी। स्त्रियाँ आभूषणहीन, मैली-कूचेैली धोतियां या लहँगे पहने हए थीं। रेशम और सुगन्ध और चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था; पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नये आनेवालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पाँव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो; बल्कि और सिमट जाते थे और खुशी से जगह दे देते थे।
नौ बजे कथा आरम्भ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी, ब्रह्म-ऋषियों के तप और तेज का वृत्तान्त न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहाँ मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्त्व है। वही ऊँचा है, जिसका मन शुद्ध है। वही नीचा है, जिसका मन अशुद्ध है; जिसने वर्ण का स्वाँग रचकर समाज के एक अंग को मदान्ध और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया; किसी के लिए उन्नति या उद्धार का द्वार नहीं बन्द किया; एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोन्नति का एक सजीव सन्देश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी आत्मा के बन्धन खुल गये हैं, संसार पवित्र और सुन्दर हो गया है।
नैना को भी धर्म के पाखण्ड से चिढ़ थी। अमरकान्त उससे इस विषय पर अकसर बातें किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकान्त का भय न होता, तो उसने ब्रह्माचारीजी को फटकार बतायी होती; इसलिए जब शान्तिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े
हाथों लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणो पर लोटने लगी। अमरकान्त से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रद्धा उठी कि जाकर उनसे कहे--तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूँ। अपने आसपास के आदमियों को क्रोधित देख-देख कर उसे भय हो रहा था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डाक्टर के पास खड़ी हो जाय और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गये, तो उसका चित्त शान्त हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आयी।
सुखदा ने रास्ते में कहा--ये दुष्ट आज न-जाने कहाँ से फट पड़े। उस पर डाक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लड़ने को तैयार हो गये।
नैना ने कहा--भगवान ने तो किसी को ऊँचा और किसी को नीचा नहीं बनाया।
'भगवान ने नहीं बनाया तो किसने बनाया?'
'अन्याय ने।'
'छोटे बड़े संसार में सदा रहे हैं और सदा रहेंगे।'
नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।
दूसरे दिन संध्या समय उसे खबर मिली कि आज नौजवान सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मन्दिर में सुखदा के साथ तो गयी; पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियाँ लेने लगी--आज यह कृत्य शीघ्र ही होने लगा--तो वह चुपके से बाहर आई और तांगे पर बैठकर नौजवान-सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की खबर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जरा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर-लहरियां कानों में आई। ताँगा उस स्थान पर पहुँचा, तो शांतिकुमार मंच पर आ गये थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डाक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भाँति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो ताँगे पर मन्त्र-मुग्ध-सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली कतार में सबके पीछे खड़ी हो गई। एक बढ़िया बोली--कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।
नैना ने कहा--मैं बड़े आराम से हूँ। सुनाई तो दे रहा है।
बुढ़िया आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शांतिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में हैं, मानों यहां की वायु सुधामयी हो गयी है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानो वे किसी नवीन सम्पत्ति के स्वामी हो गये हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शांतिकुमार कह रहे थे--क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आये हो? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो! पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मन्दिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है? क्या तुम सदैव इसी भाँति पतित और दलित बने रहना चाहते हो?
एक आवाज आई--हमारा क्या बस है?
शांतिकुमार ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा--तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है, जब तक तुम समझते हो कि तुम्हारा बस नहीं है। मन्दिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिन्दू-मात्र की चीज़ है। यदि तुम्हें कोई रोकता है तो उसकी जबरदस्ती है। मत टलो उस मन्दिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा ही क्या न हो। तुम ज़रा-ज़रा-सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गँवा देते हो, जान देते हो, यह तो धर्म की बात है; और धर्म हमें जान से प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी।
कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तेजित कर दिया था। दिन भर उसी विषय की चरचा होती रही। बारूद तैयार होती रही। उसमें चिनगारी की कसर थी। ये शब्द चिनगारी का काम कर गये। सब्र-शक्ति ने हिम्मत भी बढ़ा दी। लोगों ने पगड़ियां सँभाली, आसन बदलें और एक दूसरे की
ओर देखा, मानो पूछ रहे हों--चलते हो, या अभी सोचना बाक़ी हैं ? और फिर शान्त हो गये। साहस ने चूहे की भाँति बिल से सिर निकालकर फिर अन्दर खींच लिया।
नैना के पास वाली बुढ़िया ने कहा--अपना मन्दिर लिये रहें, हमें क्या करना है।
नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को सँभाला--मन्दिर किसी एक आदमी का नहीं है।
शांतिकुमार ने गूंजती हुई आवाज़ में कहा--कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने?
बुढ़िया ने सशंक होकर कहा--क्या अन्दर कोई जाने देगा?
शांतिकुमार ने मुट्ठी बांधकर कहा--मैं देखूंगा कौन नहीं जाने देता। हमारा ईश्वर किसी की संपत्ति नहीं है, जो सन्दूक में बन्द करके रखा जाय। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।
कई सौ स्त्री पुरुष शांतिकुमार के साथ मन्दिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा; पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहाँ हाते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भाँति-भाँति की शंकाएँ भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।
ज्यो-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था, और लोग आ-आकर मिलते जाते थे; पर ज्यों-ज्यों मन्दिर समीप आता था लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से वे सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दुःख था, मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहाँ न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देनेवाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमा कर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।
जत्था मन्दिर के सामने पहुँचा, तो दस बज गये थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियाँ लिये द्वार पर खड़े थे। लाला समरकांत भी पैंतरे बदल रहे थे।
नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम
बड़े धर्मात्मा बने हो? आधी रात तक इसी मन्दिर में जुआ खेलते हो, पैसे-पैसे पर ईमान बेचते हो, झूठी गवाहियाँ देते हो, द्वार-द्वार भीख माँगते हो, फिर भी तुम धर्म के ठीकेदार हो? तुम्हारे तो स्पर्श से ही देवताओं को कलंक लगता है।
वह मन के इस आग्रह को रोक न सकी? पीछे से भीड़ को चीरती हई मंदिर के द्वार को चली आ रही थी कि शांतिकुमार की निगाह उस पर पड़ गयी। चौंककर बोले--तुम यहाँ कहाँ नैना? मैंने तो समझा था, तुम अन्दर कथा सुन रही होगी।
नैना ने बनावटी रोष से कहा--आपने तो रास्ता रोक रखा है। कैसे जाऊँ?
शांतिकुमार ने भीड़ को सामने से हटाते हुए कहा--मुझे मालूम न था कि तुम रुकी खड़ी हो।
नैना ने ज़रा ठिठक कर कहा--आप हमारे ठाकुरजी को भ्रष्ट करना चाहते हैं ?
शांतिकुमार उसका विनोद न समझ सके। उदास होकर बोले--क्या तुम्हारा भी यही विचार है नैना?
नैना ने और रद्दा जमाया--आप अछूतों को मन्दिर में भर देंगे तो देवता भ्रष्ट न होंगे?
शांतिकुमार ने गंभीर भाव से कहा--मैंने तो समझा था, देवता भ्रष्टों को पवित्र करते हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।
सहसा ब्रह्मचारी ने गरजकर कहा--तुम लोग क्या यहाँ बलवा करने आये हो, ठाकुरजी के मंदिर के द्वार पर?
एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा--हम फ़ौजदारी करने नहीं आये हैं, ठाकुरजी के दर्शन करने आये हैं।
समरकान्त ने उस आदमी को धक्का देकर कहा--तुम्हारे बाप-दादा भी कभी दर्शन करने आये थे कि तुम्हीं सब से वीर हो!
शांतिकुमार ने उस आदमी को सँभालकर कहा--बाप-दादों ने जो काम नहीं किया, क्या वह पोतों-परपोतों के लिये भी वर्जित है लालाजी ? बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन
चीज़ों का क्यों व्यवहार होता है ? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।
समरकान्त ने व्यंग से कहा--इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुरजी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे ?
शांतिकुमार ने प्रतिवाद किया--ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूँ, द्रोही वह हैं, जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिन्दू संस्कारों को नहीं मानते ! फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बन्द कर रखा है ?
ब्रह्मचारी ने आँखें निकालकर कहा--जो लोग मांस-मदिरा खाते हैं, निषिद्ध कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।
शांतिकुमार ने शांत भाव से जवाब दिया--मांस-मदिरा तो बहुत से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य भी खाते हैं, आप उन्हें क्यों नहीं रोकते ? भंग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं ?
समरकान्त ने डंडा सँभालकर कहा--यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जरा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फ़ौजदारी करने आये हैं।
इस वक्त तक बहुत से पंडे-पुजारी जमा हो गये थे। सब के सब लाठियों के कुन्दों से भीड़ हटाने लगे। लोगों में भगदड़ पड़ गयी। कोई पूरब भागा कोई पच्छिम। शांतिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर वह अपनी जगह पर खड़े आदमियों को समझाते रहे--भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहां बैठ जाओ, ठाकुरजी के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए...
पर दूसरी लाठी सिर पर इतने जोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकल पायी और वह गिर पड़े। सँभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़तोड़ कई लाठियाँ पड़ गयीं। यहाँ तक कि वह बेहोश हो गये।