कबीर ग्रंथावली/(६) रस कौ अंग
६. रस कौ अंग
कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि॥१॥
संदर्भ—जीवात्मा प्रभु-भक्ति के रंग में रंगकर जीवन्मुक्त हो जाती है।
भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं मैं ईश्वर को भक्ति का रस इतना अधिक पिया है कि सांसारिक कठिनाइयों से उत्पन्न थकावट बिल्कुल समाप्त हो गई है किंचितमात्र भी बाकी नहीं रही। जिस प्रकार कुम्हार के द्वारा पकाया हुआ घड़ा पुनः चाक पर नहीं चढ़ाया जाता है उसी प्रकार हरि-भक्ति-रस का पान करने के बाद आत्मा को इस संसार में नहीं भटकना पड़ता।
शब्दार्थ—थाकि=थकान। पाका=पक्का। कलस=कलश=घड़ा।
राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवरण दुलभ है, माँगै सीस कलाल॥२॥
संदर्भ—ब्रह्मानन्द के प्रेम का रस पाने में जितना सुमधुर होता है उसकी प्राप्ति उतनी ही कठिन होती है। उसके लिए सर्वस्व त्याग करना पड़ता है।
भावार्थ—प्रभु भक्ति का प्रेम रस पीने में बड़ा मधुर होता है और पीते-पीते और अधिक मधुर होता जाता है किन्तु कबीर कहते हैं कि इसकी प्राप्ति की शर्त बड़ी कठिन है क्योंकि गुरु रूपी मदिरा विक्रेता कठिन से कठिन स्थिति का सामना करने के लिए साधक को उपदेश देता है।
शब्दार्थ— कलाल = मदिरा पिलाने वाला।
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौपै सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥३॥
संदर्भ—प्रभु प्राप्ति के लिए सर्वस्व त्याग करना पड़ता है प्रत्येक कष्ट लना पड़ता है।
भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु भक्ति रूपी मदिरा को बेचने वाले सतगुरु की दुकान पर मदिरा पीने वाले बहुत से साधक बैठे हैं। किन्तु उस मदिरा का पानी वही पी सकता है जो अपने को साधना की कठिन से कठिन परिस्थितियों में डाल दे अन्यथा उस मदिरा को नहीं पिया जा सकता है।
विशेष—साँग रूपक।
शब्दार्थ—भाठी = भट्ठी जिसमें मदिरा तैयार की जाती है। बहुतक = बहुत से।
हरि रसपीया जांणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूमत रहै, नांही तन की सार॥४॥
संदर्भ—हरि-रस का पान करने वाला अपने शरीर की सुधि-बुधि भूल जाता है।
भावार्थ—हरि-भक्ति रसामृत का पान किया उसी व्यक्ति को समझना चाहिए जिसके ऊपर उसका स्थायी नशा बना रहे। और वह उस नशे में मदमस्त हाथी के समान मतवाला होकर इधर-उधर घूमता रहे उसे अपने शरीर तक की भी सुधि-धिन रहे।
शब्दार्थ—मैमता = मस्त। रस का अंग]
मैमंता तिरा नांचरै, सालै चिता सनेह। बारि जु धांध्या प्रेम कै, डऻरि रह्या सिरि पेह॥ संदर्भ - परमऻत्मऻ प्रेमी को अपने शरीर क ध्यान नहीं रहता है।
भावार्थ -- जिस प्रकार मदमस्त हऻथी एक तिनका भी ग्रहन नहीं करतऻ है उसी प्रकार साधक भी खान पान की सुधि भुलऻकर पॽम की अग्नी मे अपने वरोर को तपाता है और जिस प्रकार मदमस्त हाथी दरवाजे पर बंधा हुआ अपने सिर पर मिट्टी डालता रहता है उसी प्रकार साधक भी अपने शरीर का ध्यान न रखकर अहं को भावना का त्याग कर सिर पर मिट्टी आदि धारण कर लेतऻ है।
शब्दार्थ - मैमंता = मगमस्त हाथी। तिण = तृण
मैमंता अविघत रता, अकल्प आसऻ जीति । राम आमलि माता रहै, जीवत मुकति अतीति॥
संदर्भ -- मद मस्त साधक अपने जीवन काल मे मुक्ति प्राप्त कर लेता है। भावार्थ -- मदमस्त साधक अपनी अकल्पनीय आशाओ पर विजय प्राप्त करके परमात्मा के प्रेम मे तल्लीन रहता है। वह राम के प्रेमामृत मे इस तरह सरोवार रहता है कि जीवित अवस्था मै ही उसे जीवन से मुक्ति मिल जाती है।
शब्दार्थ -- अकलप = अकल्पनीय
जिहि सिर घड़ न डूबता, अब मैगल मलिम्लिन्हाड। देवल बूड़ऻ क्लस सूॅ, पंपि तिसाई जाई॥
संदर्भ -- भचित वे बढने पर आत्मऻ की प्यरा भी सत्त बढती चलती हे। भावार्थ -- जिस भक्ति के तालाब मे मन रूपी घढ़े डूबने पर भी पानी नही था। उसी मे अब भक्ति के बढ जाने से मग मस्त साधक मलमल कर स्नान करता है। अब उसमे इतना अधिक जल हो गया है मम्पण संसार उन भक्ति सागर मे डूब गया है किन्तु आत्मारूपी पक़ पीते पीते नही वधाता।
शब्दार्थ -- मैगल = मदमस्त हाथी, मन । देवन = संसऻर ।
सबै रसऻंइण मे किया, हरिसा और न कोइ। तिल एक घट मे सघर, तो सब कन्चन होई॥
संदर्भ -- प्रख रम वी समता करने वाला संसार का अन्य कोई भी रस नही है
भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने संसार के सभी रसों का रसास्वादन करके देख लिया है किंतु हरि इसके समान और कोई रस नही है। यदि इस हरि रस का एक तिल मात्र अंश भी शरीर में व्याप्त हो जाय तो संपूर्ण शरीर पाप मुक्त होकर कंचन के समान शुद्ध हो जाय।
शब्दार्थ—रसाहण = रसास्वादन।