कबीर ग्रंथावली/(१२) चितावणी कौ अंग

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १४६ से – १६५ तक

 

१२. चितावणी कौ अंग

कबीर नौबति अपणीं, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखौ आइ॥१॥

संदर्भ―शरीर क्षण भंगुर है। वैभव थोडे दिन का ही है अंत मे शरीर के साथ वह भी नष्ट हो जायगा।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि इस क्षण भंगुर संसार में अपने वैभव का प्रदर्शन थोड़े ही दिन किया जा सकता है। फिर काल जब मृत्यु के मुख्य मे शरीर को सुला देता है तो नगर, बाजार गली कही भी इसके दर्शन नही हो सकेंगे।

शब्दार्थ―चितावरणी=चेतावनी। नौबत=नगाडा।

जिनके नौवति वाजती, मैंगल बॅधते बारि।
एकै हरि के नावै विन, गए जन्म सब हारि॥२॥

संदर्भ―सासारिक वैभव थोडे दिनों का हो होता है मरणोपरात उसका चिह्न भी नहीं रह जाता है। अतः ईश्वर का नाम स्मरण कर जीवन को सार्थक करना चाहिए।

भावार्थ―जिन लोगो के दरवाजो पर सदैव वैभव सूचक नगाडे बजा करते थे और मदमस्त हाथी घूमा करते थे। वे वैभवशाली लोग भो ईश्वर के एक नाम के विना अपने जीवन को ससार मे व्यर्थं हो खो बैठे। शब्दार्थ―मैगल=मदमस्त हाथी।

ढोल दमामा दुड़ बड़ी, सहनाई संग मेरि।
औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥३॥

संदर्भ―कोई भी सासारिक आकर्षण मृत्यु को रोकने मे समर्थ नहीं है।

भावार्थ―प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ढोल नगाड़ा डुगड्डगी, शहनाई तथा मेटी को बजाते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उनका वैभव और ऐश्वर्य मृत्यु को रोकने मे समर्थ नहीं हो पाता है।

शब्दार्थ―दुडवडी = ढुगढगी।

सातों शब्द जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मन्दिर खाली पड़े, बैसण लागे लाग॥४॥

संदर्भ―मृत्यु संपूर्णं वैभवो को नष्ट कर देती है।

भावार्थ―जिनके दरवाजे पर सप्तस्वरो का राग बजता या अर्थात् जहाँ वैभव का प्रत्येक उपकरण उपस्थित था माज वे वैभवपूर्ण महल भी खालो पढे है उन पर आज पौए बैठे हुए हैं। उनका समस्त वैभव नष्ट हो गया है।

शब्दार्थ―सातों सवद=सप्त स्वर। वैसरण=बैठने लगे।

कबीर थोड़ा जीवडाँ, माड़े बहुत मॅगण।
सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान॥५॥

संदर्भ―मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए नानावि प्रयास करता है और वे सुख के सघन पूर्ण भी नही हो पाते कि विनाश हो जाता है।

भावार्थ―कबीर दास भी कहते है कि यह उनसे हुए भी कि जीवन क्षणिक है मनुष्य मानन्वोत्मास के वनेकानेक उपकरण डटाना रहता है और कठोर पर माल के द्वारा यह क्षण भर मे ही नष्ट कर दिया जाता हैं। राजा सब इस समार मे विदा हो जाता है। शब्दार्थ―माँड़े बहुत मँडाण=बडे ठाट-बाट बाँध दिए। उभा=खड़ा। मेल्हि गया=नष्ट हो गया।

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूँ पड़ै विछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ॥६॥

सन्दर्भ―संसार से वियोग अवश्यंभावी है इसलिए पहले ही व्यक्ति को सावधान हो जाना चाहिए।

भावार्थ―एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब कि मनुष्य का सभी से वियोग हो जायेगा। अतएव हे राजाओ। हे छत्र को धारण करने वालो। आप लोग आज ही सावधान क्यो नही हो जाते। ताकि बाद मे पश्चाताप न करना पडे।

शब्दार्थ―किन=क्यो नही।

कबीर पटण कारिवाँ, पांच चोर दस द्वार।
जय राँणों गढ़ भेलिसी, सुमिरि लै करतार॥७॥

संदर्भ―साग रूपक के द्वारा शरीर पर यमराज के आक्रमरण को स्पष्ट किया गया है।

भावार्थ―कबीरदास जी का कहना है कि यह शरीर रजी सार्थवाह है जो आत्मा रूपी धन को लेकर चल रहा है। इसके साथ पाच चोर (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह) उस धन को चुराने के लिए चल रहे हैं। दस छिद्रो ( ५ कर्मेन्द्रियाँ और ५ ज्ञानेन्द्रियाँ) के होने के कारण इस शरीर रूपी कारवाँ की दशा और भी शोचनीय हो रही है यमराज इस दुर्गं को नष्ट करने के लिए इस पर आक्रमरण अवश्य करेगा अतः ईश्वर का स्मरण करना चाहिए तभी रक्षा हो सकती है।

शब्दार्थ―पाटण-नगर, शरीर। कारिवाँ=कारवाँ, सार्थवाह। पच चोर=काम क्रोध, मद, लोभ, मोह। दसद्वार=दस छिद्र (दस इन्द्रिया=५ कर्मेन्द्रियाँ,५ ज्ञानेन्द्रियाँ। जमरा=यमराज। भेलिसी= नष्ट करेगा।

कबीर कहा गरबियों, इस जीवन की आस।
टेसू फूले दिवस चारि, खंखर अये पलास॥८॥

संदर्भ―क्षरण भंगुर जीवन में अभिमान नहीं करना चाहिए।

भावार्थ―कवीरदास जी कहते हैं कि इस नश्वर शरीर और जीवन की आशा मे मनुष्य को घमण्ड करना चाहिए। जिस प्रकार पलाश के वृक्ष मे चार दिन के लिए अर्थात् थोड़े समय के लिए टेसू (पलाश के फूल) आ जाते हैं वह हराभरा हो जाता है और फिर वह ठूंठ का ठूंठ ही रह जाता है। ठीक उसी प्रकार यह जीवन भी थोड़े दिनों तक आभा बिखेर कर नष्ट हो जाता है।

शब्दार्थ—खंखर = नष्ट हो जाते हैं।

कबीर कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ कांचली भुवंग॥९॥

संदर्भ—शरीर को छोड़ने के बाद आत्मा उसमें प्रविष्ट नहीं होती इसलिए जीव को गर्व नहीं करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि सुन्दर शरीर को पाकर-देखकर उस पर गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार सर्प केचुली को छोड़ने के बाद पुनः उसे नहीं धारण करता है उसी प्रकार आत्मा भी इस शरीर को छोड़ देने के बाद फिर उसमें नहीं प्रविष्ट होती है।

शब्दार्थ—सुरंग = सुन्दर। वीछड़िया = वियुक्त होने पर।

कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि परयू म्वै लेटणां, ऊपर जामें घास॥१०॥

संदर्भ—सांसारिक ऐश्वर्य पर गर्व नहीं करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर उस पर गर्व नही करना चाहिए। जीव यह नहीं जानता कि शीघ्र ही उसे कब्र में लेटना पड़ेगा और कब्र के ऊपर घास उग आएगी तेरा सारा वैभव नष्ट हो जायेगा।

शब्दार्थ—प्रवास = घर। म्बै = भू = पृथ्वी पर।

कबीर कहा गरबियों, चाँम पलेटे हड्ड।
हैं वर ऊपर छत्र सिरि, ते भी देवा खड्ड॥११॥

संदर्भ—जीवन की नश्वरता का संकेत है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि चर्म से ढंकी हुई हड्डियों के सौन्दर्य पर गर्व करना ठीक नहीं है। जो लोग श्रेष्ठ पीढ़ी पर बैठकर और सिर पर छत्र धारण कर चलते हैं वे भी एक दिन कब्र में चले जाते हैं।

शब्दार्थ— है वर (हव + यर) श्रेष्ठ घड़ा देवा = दिए जायेंगे।

कबीर कहा गरवियौं, काल गहै पर फेस।
ना जाणौं कहाँ मारिसी कै घारै कै परदेस॥१२॥

संदर्भ―मृत्यु एक न एक दिन सभी को नष्ट कर देती है अतः मनुष्य की गर्व नही करना चाहिए।

भावार्थ―कबीर कहते हैं कि हे जीव तेरे बालो को मृत्यु अपने हाथो मे पकड़े हुए है फिर भी तू व्यर्थं मे गवँ क्यो करता है। यह भी पता नहीं कि वह मृत्यु तुझे घर मे या परदेश मे कहाँ मारेगी।

यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहारको झूठै रंगि न भूलि॥१३॥

सन्दर्भ – सेमर की फूल की भाँति इस नश्वर संसार पर गर्व करना उचित नही है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार उसी प्रकार है जिस प्रकार सेमर के फूल। सेमर का फूल ऊपर से ही आकर्षक होता है भीतर उसमे कोई तत्व नही होता है। इस थोड़े दिन के जीवन मे इसके झूठे दिखावे मे मनुष्य को अपनी वास्तविकता को नहीं भूल जाना चाहिए।

शब्दार्थ—सैंवल=सेमर का पुष्प। झूठै रगि=झूठे आकर्षण। विशेष= उपमा अलंकार।

जांमण मरण विचारि करि, कूड़े कांम निबारि।
जिनि पँथूँ तुझ चालणं, सोई पंथ सॅवारि॥१४॥

संदर्भ―वासना प्रेरित कुमार्ग को छोड़कर मनुष्य को सुमार्ग को अपनाना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तू जीवन मरण (आवागमन) को गम्भीरतापूर्वक विचार कर वासना जन्य कुकर्मों का परित्याग कर दे। जिस प्रभु-भक्ति के मार्ग पर तुझे अंततः चलना है तू उसे अभी से अपना ले।

शब्दार्थ―जामण=जन्म। कूडे-बुरे। चाल=चलना है। सँवारि=संभाल ले।

विन रखवाले वाहिरा, चिड़ियै खाया खेत।
आधा प्रधा ऊवरै, चेति सकै तो चेति॥१५॥

सन्दर्भ―जीव को सावधानी से मोक्ष-प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए।

भावार्थ―हे मनुष्य! सतगुरु रूपी रक्षक के अभाव मे तेरे मोक्ष रूपी खेत को कुछ तो काम क्रोधादि रूपी पाँच चोरो ने उडा लिया और कुछ वासना रूपी चिड़ियों ने खा लिया। अब भी यदि मंगल चाहता है तो सावधान होकर प्रभु -भक्ति में प्रवृत्त होकर उसको थोड़ा बहुत बचा ले।

शब्दार्थ—रखवाले = रक्षक, गुरु। चिड़ियै = वासना या माया के पक्षी। आधा प्रधा = थोड़ा बहुत।

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी; केस जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥१६॥

सन्दर्भ—शरीर की क्षण भंगुरता देखकर कबीर को विरक्ति हो गयी है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि मरणोपरान्त इस शरीर की हड्डियाँ लकड़ी की भाँति और केश घास की तरह चिंता के ऊपर जलते हैं। इस प्रकार समस्त शरीर को जलता हुआ देखकर कबीर दास यह समझकर कि इस जीवन में कुछ नहीं है इससे विरक्त हो गये।

कबीर मन्दिर ढहि पड़या, सैंट भई सैंबार।
कोइ चेजारा चिणि गया, मिल्या न दूजी बार॥१७॥

संदर्भ—शरीर के नष्ट होने पर इसका बनाने वाला कारीगर इसकी मरम्मत नहीं करता वह बेकार ही हो जाता है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि सैकड़ों बार काम क्रोधादि रूपी चोरों ने इस शरीर रूपी मकान में सेंध लगाई है। जिसके कारण यह पूर्ण रूप से दह कर गिर गया है। इसको चुनकर बनाने वाला कारीगर एक बार तो बना गया किन्तु दुबारा बनाने के लिए वह नही मिला।

शब्दार्थ—चेजारा = चुनने वाला, राज।

कबीर देखत ढहि पड़या, ईंट भईं सैंवार।
करि चिजारा सौ प्रीतिड़ी, ज्यूं ढहै न दूजी बार॥१८॥

सन्दर्भ—ईश्वर से प्रेम करने पर मानव शरीर आयागमन से मुक्त होकर कमरता को प्राप्त होता है।

भावार्थ—कबीर दास जी रहते हैं कि शरीर रूपी भवन को प्रत्येक ईंट में लेप लगा दी गई है जिससे शिघिन होकर कर यह भवन उड़ गया है। इसलिए चिरन्तन प्रभु रूपी कारीगर से प्रेम कर जिसमें दूसरी बार वह शरीर रूपी भवन फिर न उड़ जाय। फिर न जाय। शब्दार्थ—प्रोतिड़ो=प्रेम। कबीर मन्दिर लाष का, जड़िया हीरै लालि॥ दिवस चारि का पेषणां, विनस जाइगा काल्हि॥१६॥

सन्दर्भ―शरीर की साज सज्जा चन्द दिनो की है उसके बाद यह नष्ट हो जायेगा।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर रूपी मंदिर लाख का बना हुआ है इसमे हीरे और लाल जड़े हुए हैं यह देखने मे बहुत आकर्षक है किन्तु इसका यह आकर्षण शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा और यह (पाण्डवो के) लाक्षा गृह के के समान जलकर नष्ट हो जाएगा।

शव्दार्थ―लाष=लाक्षा, लांख।

कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बाँधी एह।
दिवस चारि का पेषणां अन्ति षहे की षहे॥२०॥

सन्दर्भ―रूपक के द्वारा शरीर की क्षण भंगुरता के प्रति सकेत है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि यह मानव शरीर धूल को इकट्ठा करके पुडिया के समान बाँध दिया गया है। इसकी साज-सज्जा कुछ ही दिनो की है और अन्त मे यह जिस मिट्टी से बना है उसी मिट्टी के रूप में परिवर्तित हो जाएगा।

शब्दार्थ―सकेलि=एकत्रित कर। पुडी=पुडिया षहे=धूल।

कबीर जे घन्घै तौ घूलि, बिन घघै घूलै नहीं।
तैं नर बिनहे मूलि, जिनि, घंघै मै ध्याया नहीं॥२१॥

सन्दर्भ–प्रभु प्राप्ति संसार मे रहकर ही सम्भव है।

भावार्थ―कबीर का कहना है कि जो मनुष्य इस संसार मे सत्कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं उनकी आत्मा स्वच्छ हो जाती है क्योकि बिना कर्मों के आत्मा स्वच्छ नहीं हो सकती। वे मनुष्य तो जाते ही नष्ट हो गये जो इस संसार मे कर्मों मे वृत्त होते हुए ईश्वर का स्मरण नहीं करते।

शव्दार्थ―घघै=कर्म। घूलि=घुलना। विन=नष्ट हो गये।

कबीर सुपनै रैनि कै, उघड़ि आए नैन।
जीव पड्या बहु लूटि मैं, जागै तो लैंण नदैण॥२२॥

सन्दर्भ—अज्ञान के कारण ही जीव माया के भ्रम में पड़ा रहता है किन्तु ज्ञान रूपी जागृति होने पर वह माया के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि जीवात्मा के अज्ञान रूपी रात्रि में सोते-सोते सहसा नेत्र खुल गये। सुप्तावस्था में वह नाना प्रकार के लेन देन में पड़ा हुआ था और जागने हो (ज्ञान प्राप्त होते ही) यह संसार के लेन देन से मुक्त हो गया।

कबीर सुपनै रैनिकै, पारस जीय में छेक।
जे सोऊँ तौ दोइ जणां, जे जागू तौ एक॥२३॥

सन्दर्भ—ब्रह्म और जीव का भेद माया के कारण ही होता है। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर यह भेद समाप्त जो जाता है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि अज्ञान रूपी रात्रि में माया के स्वप्न देखने के कारण पारस्त्ररूप ब्रह्म और जीव में अन्तर स्थापित हो गया। यही कारण है कि अज्ञान की सुप्तावस्थायें मुझमें और परमात्मा में भेद हो जाता है और ज्ञान की जागृता वस्था में कोई भेद नहीं रहता एकरूपता स्थापित हो जाती है।

शब्दार्थ—छेक = भेद।

कबीर इस संसार में, घणें मनिष मत हीण।
राम नांम जांणैं नहीं आया टापा दीन॥२४॥

सन्दर्भ—ढोगियों और तिलकधारियों के प्रति व्यंग्य है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में अनेकों मनुष्य बुद्धिहीन है वह राम नाम के वास्तविक तत्व को न जान कर तिलक आदि लगाकर ही ईश्वर भक्त बनना चाहते हैं। संसार को धोखा देना चाहते है।"

शब्दार्थ—घणे = अत्यधिक। टापा = झासा देना, धोखा देना।

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहेंगे जाइ।
इत के भये न उतके, चाले मूल गँवार॥२॥५

सन्दर्भ—जीव दम संसार में आकर परलोक सुधारने के कर्म कम करता है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते है कि हमने इस संसार में आकर आत्मा की मुक्ति के लिए कौन-कौन से कर्म किए हैं जिनको कि मरने के बाद ईश्वर के अमृत्व   वतलायेंगे। हमने न तो ऐसे कर्म किये हैं जिनसे इम लोक का जीवन सुधरता और न ऐसे सत्कर्म किए हैं कि परलोक का मार्ग हो सुधरता। अतः हम तो कही के न हुए जो पवित्र आत्मा परमात्मा से प्राप्त हुई थी वह भी गँवा बैठे।

आया अण आया भया, जे बहुरता संसार।
पड़्या भुलांवां गाफिला, गये कुबधी हारि॥२६॥

सन्दर्भ—जो व्यक्ति संसार मे आकर माया के आकर्षण मे ही पड़े रहते हैं उनका जीवन व्यर्थं हो जाता है।

भावार्थ―इस संसार मे आकर जो व्यक्ति नाना प्रकार के सासारिक आकर्षणो मे आकर पड़ जाते हैं वह संसार मे आकर भी न आने के समान मृत तुल्य है। वह भ्रम मे पड़ा हुआ बेहोश है और दुष्ट बुद्धि पराजित हो चुके हैं।

शव्दार्थ―अण आया=न आने के समान। भुलांवा=भ्रम मे। कुवुषी =बुरी बुद्धि।

कबीर हरि की भगति बिन, धिग जीवरण संसार।
धुँवा केरा धौलहर, जात न लागै बार॥२७॥

सन्दर्भ―प्रभु भक्ति के बिना जीवन भारण व्यर्थ है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति के बिना इस संसार मे जीवित रहना घृणा स्पद है। मनुष्य को प्रभु भक्ति करनी ही चाहिए क्योंकि यह शरीर धुए के महल के समान हैं जिसके बिगड़ने मे तनिक भी देर नही लगती है।

विशेष― (१) उपमा अलंकार
(२) ‘धुआँ कैसे धौलहर देखि तू न भुलिरे।’
विनय पत्रिका मे तुलसी ने भी इसका प्रयोग किया है।

शव्दार्थ―घ्रिग=घिषकार। घौलहर= महल। जात=नष्ट होते |

जिहि हरि की चोरी करी, गये राम गुण भूलि।
ते बिधना बागुल रचे, रहे अरघ मुखि भूलि॥२८॥

सन्दर्भ―प्रभु भक्ति के बिना जीवन व्यर्थं होता है।

भावार्थ―जिन मनुष्यों ने इस संसार मे आकर ब्रह्म के प्रति भी विश्वासघात किया है उसके गुरगो को भूल जाते हैं। उन्हों को विधाता बगुले का जन्म दे देता है जो लज्जावध अपना मुख नीचा किये खडे रहते है।

माटी मलणि कुंभार की घणी सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अब की घात॥२९॥

सन्दर्भ—जो मनुष्य इस संसार में आकर आवागमन के चक्र से छूटने के लिए प्रयास नहीं करता वह फिर मुक्त नहीं हो पाता है।

भावार्थ—जिस प्रकार कुम्हार की मिट्टी को मलते समय अनेकों लातें खानी पड़ती है ठीक उसी प्रकार मनुष्य को भी नाना प्रकार को यातनायें भोगनी पढ़ती हैं इस लिए है जीव यदि तू इस जन्म में सावधान नहीं हुआ तो पुनः इस प्रकार का स्वर्णिम अवसर मिलना मुश्किल है।

इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूं पाली देह ।
राम नाम जांण्यां नहीं, अंति पड़ी मुख पेह॥३०॥

सन्दर्भ—मनुष्य योनि में जो अपने को मुक्त न कर सका उसका जीवन ही नष्ट हो जाता है।

भावार्थ—इस मनुष्य योनि में जिस व्यक्ति को चेत नहीं आया, परलोक को सुधारने की चेष्टा नहीं की और पशुओं के समान देह को ही पालता रहा अर्थात् पाशविक प्रवृत्तियो में ही लगा रहा। जीवन भर राम के महत्व को न पहिचान पाने के कारण अन्त समय में तुझे नष्ट होकर मिट्टी में मिल जाना पढ़ेगा।

शब्दार्थ—पेह = मिट्टी, धूल।

राम नांम जांण्यों नहीं, लागी मोटी पोड़ि।
काया हाँडी काठकी, ना ऊँ चढ़ै बहोड़ि॥३१॥

सन्दर्भ—मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता अतः प्रभु-भक्ति इसी जीवन में कर लेनी चाहिए।

भावार्थ—जीवन भर राम नाम के महत्व को नहीं जाना। सांसारिक प्रपंचो की मोटी तह जमा हो गई जिस प्रकार काठ की हाँडी एक ही बार चढ़ाई जा सकती है दुबारा वह चढ़ाने योग्य नहीं रह जाती है उसी प्रकार यह शरीर भी दुबारा प्राप्त नहीं हो सकता है।

शब्दार्थ—पोड़ि = दोष। बहोड़ि = बहिरंग = पुनः, दूसरी बार।

राम नाम जांण्यां नहीं, बात विनंठा मूल।
परत ढूंढ़ा ही हारिया परति पड़ी मुख धूलि॥३२॥

संदर्भ―मनुष्य को अपनी शक्ति संसार के व्यर्थं कार्यों मे नष्ट न कर प्रभु भक्ति मे ध्यान लगाना चाहिए।

भावार्थ―हे जीवात्मा! तूने राम नाम के तत्व को नहीं जाना और इस प्रकार जड़ से हो बात को बिगाड़ दिया। व्यर्थं के सासारिक धन्धो मे तू यहाँ पर ईश्वर को ही हार गया अब मरने के अवसर पर तेरे मुख मे धूलि के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?

शब्दार्थ—विनेटी=नष्ट कर दी।

राम नाम जाण्याँ नहीं, पाल्यो कटक कुटुम्ब।
धन्धा ही में मरि गया, बाहर हुई न बम्ब॥३३॥

सन्दर्भ―सासारिक झझटो मे जीवन का अन्त हो जाता है किन्तु अहंकार के कारण राम नाम का स्मरण नहीं हो पाता है।

भावार्थ—हे जीवात्मा! तुमने राम नाम का स्मरण नहीं किया। सेना के समान छपने कुटुम्ब के पालन मे ही ‘जूझता रहा। इस प्रकार सांसारिक झझटो मे उलझते हुए जीवन का अंत हो गया किन्तु अहंकार से मुक्ति फिर भी न मिली।

शब्दार्थ―कटक=सेना। बंब=नगाड़ा, यहाँ अहं से तात्पर्य है।

मनिषा जनम दुर्लभ है, देह न बांरम्बार।
तरवर थै फल झड़ि पड़्या, बहुरि न लागै डार॥३४॥

सन्दर्भ―मनुष्य का जन्म बार-बार नही प्राप्त होता है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि यह मानव जन्म बडी कठिनाई से प्राप्त होता है और यह शरीर बारम्बार नही प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक बार वृक्ष से फल गिर जाने के बाद उसी शाखा में फिर से नहीं लग सकता उसी प्रकार मनुष्य देह भी दुबारा नहीं मिल पाती है।

शब्दार्थ―मनिषा=मानव का।

कबीर हरि की भगति करि, तजि विषिया रस चोज।
बार-बार नहीं पाइये, मनिषा जन्म की मौज॥३५॥

सन्दर्भ―मानव जन्म के बार-बार न मिल पाने के कारण जीव को ईश्वर स्मरण मे समय व्यतीत करना चाहिए।

भावार्थ―कबीर का कहना है कि मानव जन्म-प्राप्ति का सौभाग्य वारम्बार प्राप्त नहीं होता अतः हे जोवात्मा। विषय वासना युक्त माया पूर्ण क्षणिक आनन्द और सुखों का परित्याग कर प्रभु भक्ति मैं प्रवृत्त होगा बड़ी वास्तविक आनन्द है।

शब्दार्थ—रस चोज = आनन्दोल्लास।

कबीर यहु तन जात है, सकै तौ ठाहर लाई।
कै सेवा करि साधकी, कै गुण गोबिन्द के गाइ॥३६॥

सन्दर्भ—जीव को प्रभु भक्ति और सत्संगति करनी चाहिए।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर नश्वर हैं शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है अतः यदि तु इसे उचित कार्य में लगा सके तो लगा ले। या तो तू साधुओं की सेवा में अपने मन और शरीर को लगा दे या फिर परमात्मा के गुणानुवाद कर ताकि तेरा परलोक सुधर जाय।

विशेष—तुलसी ने भी लिखा है कि—

"बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिन सुलभ न सोई॥"

—मानस

शब्दार्थ—ठाहर लाइ = उचित कार्य में लगाना।

कबीर यह तन जात है, सकै तौ लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गये, जिनकै लाख करोड़ि॥३७॥

सन्दर्भ—परलोक का ध्यान रखना जीवात्मा का परम लक्ष्य है।

भावार्थ—फबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर व्यर्थ में ही नष्ट होता जा रहा है अब भी यदि इसका उद्धार करना चाहो तो अच्छे कर्मों में प्रवृत्त करो संसार में माया के पीछे बावला बना क्यों फिरता है जिनके पास लाखों और करोड़ों की सम्पदा थी वह भी मृत्यु के समय खाली हाथ ही यहाँ से ले गये।

विशेष—(१) दृष्टान्त अलंकार।

(२) तुलना कीजिए।

इकट्ठे गर जहाँ जर सभी मुल्कों के माली थे।
सिकन्दर जय चलां दुनिया से दोनों हाथ गाली थे।

शब्दार्थ—बहोहि = बहोरि = पुनः। नामे = ना ही।

यह तनु कांचा कुंभ है, चोट चेहूँ दिसि खाइ।
एक राम के नांव बिन, जदि तदि प्रसै जाई॥३८॥

संदर्भ―ईश्वर के नाम स्मरण के बिना इस शरीर को नानाविधि यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।

भावार्थ―जिस प्रकार कुम्भकार का कच्चा घडा कुम्भकार की थपकी की चोट खाता रहता है उसी प्रकार यह शरीर भी सासारिक यातनाओ को सह रहा है। केवल राम नाम के अवलम्ब के बिना यह जव तब संसार में जन्म लेकर नाना प्रकार के कष्ट पाता है।

विशेष:―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ—जदि तदि=जब तत्र।

यह तन काचा कुंभ है, लियां फिरै था साथि।
ढ़बका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि॥३६॥

संदर्भ―शरीर का भविष्य अनिश्चित है।

भावार्थ–कुम्भकार का कच्चा घड़ा जिसे वह हाथ में लिए रहता है कोमल होने के कारण तनिक सी चोट लगने के कारण फूट जाता है और अस्तित्वहीन होने के कारण फिर हाथ मे कुछ नहीं रहता उसी प्रकार इस शरीर का भविष्य भी अनिश्चित होता है यह भी किसी समय नष्ट हो सकता है और नष्ट होने पर कुछ भी हाथ में नहीं आता है।

शब्दार्थ―ढवका=हल्की सी चोट।

काँची कारी जिनि करै, दिन दिन बधै बियाधि।
राम कबीरे रुचि गई, याही ओषदि साधि॥४०॥

संदर्भ―सासारिक तापो को औषधि एक मात्र प्रभु भक्ति ही है।

भावार्थ―हे जीवात्मा! तू अपनी शरीर रूपी केंचुली को वासना से मत कलकित कर। काल रूपी शिकारी दिन प्रति दिन तुझे मार रहा है। कबीर दास जी ने तो अपनी रुचि ईश्वर भक्ति की ओर मोड दी है। हे प्राणी! तू भी उसी औषधि का सेवन कर।

शब्दार्थ―काँची=केचुली। वियाधि=बहेलिया, शिकारी।

कबीर अपने जीव तैं, ऐ दोइ वार्तें धोइ।
लोभ बढ़ाई कारणैं, अछता मूल न खोइ॥४१॥

संदर्भ―लोभ और दर्पं से ही प्रभु भक्ति मे बाधा पड़ती है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि हे जीव! तू अपने मन से दो बातों को बिल्कुल निकाल दे एक तो लोभ और दूसरे आत्म-प्रशसा से उत्पन्न अहंकार। इन्हीं दो वस्तुओं के कारण अपने अमूल्य धन परमात्मा को मत खो।

शब्दार्थ—जीवतैं = मन से। अछता = पास का।

खंभा एक गइंद दोइ, क्यूं करि वंधिसि बारि।
मानि करै तौ पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥४२॥

सन्दर्भ—प्रभु-भक्ति और अहं की भावना दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते हैं।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि हे जीव! तेरे पास हृदय रूपी खम्भा तो एक है और उस खम्भे में बाँधने के लिए दो हाथी प्रभु-भक्ति और अहं हैं। वे दोनों एक ही खम्भे से कैसे बांधे जा सकते हैं। यदि तू अहं की सम्मान की रक्षा करना चाहेगा तो प्रभु प्राप्ति नही पावेगी और यदि प्रियतम - परमात्मा को प्राप्त करना चाहेगा तो अहं का परित्याग करना पड़ेगा।

शब्दार्थ—गइद = गयंद = हाथी।

दीन गंवाया दुनीं सौ, दुनी न चाली साथि।
पाँइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि॥४३॥

सन्दर्भ—संसार के आकर्षण भरते समय नहीं काम देते हैं उस समय तो प्रभु-भक्ति ही काम देती है।

भावार्थ—जीवात्मा ने सांसारिक माया आकर्षणों में लिप्त रह कर प्रभु को भुला दिया किन्तु मरने पर वह सांसारिक प्रलोभन एक भी जीव के साथ नहीं जाते हैं। इस प्रकार जीवात्मा ने गाफ़िल होकर स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है अपनी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध कर लिया है।

शब्दार्थ—दीन = धर्म। दुनी = दुनियाँ।

यहु तन तौं सब वन भया, करंम भए कुहाड़ि।
आप आप कूँ काटि हूँ, कहै कबीर विचारि॥४४॥

सन्दर्भ—कर्मों का फल जीव को भोगना नहीं पड़ता है।

भावार्थ—यह सम्पूर्ण शरीर वन के समान है और उसको काटने के लिए जीव के कर्मों की कुल्हाड़ी प्रस्तुत है। कबीर दास जी विचार कर कहते है कि जीव अपने कर्मों की कुल्हाड़ी से अपने ही शरीर को काट रहा है। जीवन को नष्ट कर रहा है।

विशेष―(१) तुलना कीजिए―

“कोउ न कहु सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता॥"

(२) रूपक अलंकार।

शव्दार्थ―कुहाडि=कुल्हाडा।

कुल खोयां कुल ऊबरै, कुल राख्याँ कुल जाइ।
राम निकुल कुल मेंटि लै, सब कुल रह्या समाइ॥४५॥

सन्दर्भ–माया जन्य आकर्षणो को भुलाकर ही ब्रह्म प्राप्ति संभव है।

भावार्थ―सासारिक वैभवो का त्याग करके ही सार तत्व ब्रह्म की प्राप्ति संभव है और यदि सासारिक वैभवो की ही रक्षा का प्रयास किया गया तो ईश्वर-प्राप्ति असम्भव है इसलिए हे जीव।तू सांसारिक आकर्षणो से विरक्त होकर ब्रह्म से मिल ले क्योकि सारा संसार उसी मे समाया हुआ है।

विशेष―कुल के दो अर्थ होने से यमक अलंकार।

शब्दार्थ―कुन=सासारिक वैभव। कुल=सारतत्व प्रभु। निकुल=कुल रहित होकर, सासारिक प्रलोभनो से विरक्त होकर। कुल=समस्त आनंद के साधन।

दुनिया के धोखै मुवा, चलै जु कुल की काणि।
तब कुल किसका लाजसी, जब ले धर्या मसांणि॥४६॥

सन्दर्भ―जीव ने यदि प्रभु-भक्ति, साधु सेवा आदि सुकृत्य किये होते तो उसका नाश न होता।

भावार्थ—जो व्यक्ति कुल की मर्यादा आदि के प्रपंचो को लेकर चला वह सांसारिक भ्रमो का शिकार होकर मर गया। मृत्यु हो जाने पर जब शव को ले जाकर श्मशान की अपवित्र भूमि मे रख दिया जाता है तब किसका कुल लज्जित होता है? अर्थात् किमी का नहीं।

शब्दार्थ―काणि मर्यादा, गौरव। लाजसी=लज्जा करता है। मसाणि=इमशान।

दुनियाँ भाँडा दुख का, भरी मुहांमुह भूप।
अदया अलह राम की, कुरहै ऊँणीं कृप॥४७॥

सन्दर्भ—सब कुछ राम की कृपा से ही प्राप्त होता है।

भावार्थ—यह संसार और कुछ नहीं केवल दुःखों का पात्र (स्थान) है जो नीचे से ऊपर तक अभावों से पूर्ण रूपेण भरा हुआ है। श्रेष्ठ राम और अल्लाह की कृपा के बिना बड़े-बड़े कोषागारों के रहते हुए भी जीवात्मा को अभावों का शिकार होना पड़ता है।

शब्दार्थ—भाँडा = वर्तन। अदया = कृपा बिना। अलह = अल्लाह।

जिहि जेवणी जग वँधिया, तू जिनि वधैं कबीर।
ह्वैसी आटा लूँण ज्यू, सोना सेवा शरीर॥४८॥

सन्दर्भ—माया के बंधन में पढ़ने से जीव की मुक्ति नहीं होती है। उसे आवागमन, के चक्र में पड़कर सांसारिक यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

भावार्थ—कबीरदास जी अपने को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जिस माया की रस्सी से सारा संसार बंधा हुआ है उससे तू अपने को मत बाँध अर्थात् तू माया के प्रलोभन में न पड़ जिस प्रकार आटे की लोई को हाथों के मुक्के सहने पड़ते हैं उसी प्रकार तू भी कंचन के समान शुद्ध शरीर का होकर भी माया के वश में होकर सांसारिक यातना के प्रबल आघातों को बारम्बार सहेगा।

शब्दार्थ—जेवढी = रस्सी, माया बंधन। लूंण = आटे की लोई।

कहत सुनत जग जात है, विषै न सूजो काल।
कबीर प्यालै प्रेम कै, भरि भरि पिवै रसाल॥४९॥

संदर्भ—माया के परिणाम को जान सुनकर के भी जीव उसके आकर्षक से मुक्त नहीं हो पाता है।

भावार्थ—इस संसार के सभी प्राणी माया से मुक्त होने का उपदेश देते और सुनते हुए भी एक-एक कर उसी विषय वासना के मार्ग पर चलते जाते है उनमें उन्हें अपना विनाश दिखाई ही नहीं देता किन्तु कबीर ऐसे साधु व्यक्ति प्रभु-प्रेम सर के प्यालों को भर-भर कर पी रहे हैं और अमित आनन्द की प्राप्ति कर रहे हैं।

शब्दार्थ—विषै = विषय वासना।

कबीर हद के जीव सुँ हित करि भुखाँ न बोलि।
जे लागे बेहद सूँ तिन सूँ अंतर खोलि॥५०॥

 

संदर्भ―प्रभु भक्तो से ही अन्तःकरण की बात कहनी चाहिए।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं, कि संसार के माया में लिप्त प्राणियो से प्रेम पूर्वक वार्तालाप नही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो असीम परमात्मा की प्राप्ति में सन्नद्ध हैं ऐसे प्रभु-भक्तो से अपने अन्तःकरण की बात भी कह देनी चाहिए।

शब्दार्थ―हद के जीव सू=सांसारिक मनुष्य से बेहद=असीम, निस्सीम।

कबीर केवल राम की, तूँ जिति छाड़ ओट।
घण अहरणि विधि लोइ ज्यूँ, घणीं सहैं सिर चोट॥५१॥

सन्दर्भ―प्रभु=आश्रय से विमुक्त प्राणियो को नानाविध यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीवात्मा। तू राम का परमात्मा का आश्रय कभी मत छोड और यदि तू ब्रह्म को विस्मृत कर देगा तो जिस प्रकार घन और छेनी के बीच लोहे को अनेको चोटे सहनी पड़ती हैं उसी प्रकार तुझे भी जाना प्रकार की सासारिक यातनाए सहनी पड़ेगी। शब्दार्थ―अहरणि=छेनी।

कबीर केवल राम कहि, सुध गरीबी झालि।
कूड़ बड़ाई कूड़सी, भारी पड़सी काल्हि॥५२॥

सौंदर्भ―राम नाम को भुलाकर झूठे बडप्पन मे डूब जाने से जीव को बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू राम नाम का स्मरण करते हुए अपनी गरीबी मे हो प्रसन्न रह। भवसागर मे डुवाने वाले मिथ्या सासारिक वैभवो मे यदि तू पड गया तो भविष्य मे तेरे ऊपर भारी विपित्त आवेगी और निश्चित रूप से तेरा पतन होगा।

शब्दार्थ―झाल्हि=झेलने। कूड=व्यर्थं के, मिथ्या।

काया मंजन क्या करै, कपड़ धोइम धोइ।
उजल हुआ न छूटिये, सुख नींदड़ीं न सोइ॥५३॥

सन्दर्भ―शरीर और कपडो की शुद्धता से हो आत्मा पवित्र नहीं होती। मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है।  

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू कपडो को धो-धोकर शरीर को स्वच्छ कर रहा है किंतु ऐसी सफाई से क्या लाभ? वास्तविक पवित्रता आंतरिक पवित्रता हैं। इस बाह्य स्वच्छता से संसार से मुक्ति नहीं होगी इसलिए सुख को निद्रा मे मत पड़ा रह।

शब्दार्थ―मंजन=स्नान। छुटिए=मुक्त होना।

ऊजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाँहि।
एकै हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि॥५४॥

सन्दर्भ―ईश्वर के नाम स्मरण के बिना जीवको यमपुर की यातनाये भुगतनी पड़ती हैं।

भावार्थ―जो व्यक्ति श्वेत स्वच्छ वस्त्र धारण कर पान सुपारी खाकर अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं वे एक ईश्वर के नाम-स्मरण के बिना यमपुर के बंधनो मे जकड दिए जाते हैं।

तेरा सांगी को नहीं, सब स्वारथ बॅधी लोइ।
मन परतीति न ऊपजै, जीव विसास न होइ॥५५॥

सौंदर्भ―बिना ईश्वर को प्रतीति के जीवात्मा को मुक्ति नहीं मिलती।

भावार्थ—हे जीव! जिनको तू अपना संगी साथी मानता है वे कोई तुम्हारे साथी नहीं है। वे सब तो स्वार्थ मे बंधे हुए हैं। जब तक मन मे ईश्वर की प्रतीति नही होती है तब तक जीवात्मा को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।

शब्दार्थ-बंधो=बंधे हुए। लोई=लोग।

माँइ बिड़ाणी वाप बिड़, हम भी मॅझि बिड़ोह।
दरिया केरी नाव ज्यूॅ, सजोगे मिलियाँह॥५६॥

संदर्भ―इस संसार में सभी प्राणी अचानक मिल जाते है और फिर विमुक्त हो जाते हैं।

शब्दार्थ―इस संसार के सभी संबन्ध मिथ्या हैं। माता-पिता, सब नष्ट होने वाले हैं हम भी इस संसार में एक दिन नष्ट हो जायेंगे। यह संसार नदी को नाव के समान है जिसमे सब संबन्थी और मित्र अचानक संयोग मिल भी जाते हैं और विमुक्त भी हो जाते है।

शब्दार्थ-बिड़ाणी=नष्ट होने वाली है।  

इत प्रधर, उत घर, बण जण आये हाट।
करम किरांणां बेचि करि, उठि ज लागे बाट॥५७॥

सन्दर्भ―इस ससार मे आकर लोग कर्मों का फल भोग कर फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

भावार्थ—जीवात्मा का घर तो ब्रह्म के पास ही है यह संसार तो उसके लिए परदेश है। लोग इस संसार मे कर्मों का व्यापार करने के लिए आते हैं और कर्मों का किराना―कर्म फल प्राप्त करके बेचकर सब उसी मार्ग का अवलम्बन करते हैं।

शब्दार्थ―प्रघर=पर घर, संसार। बर=ब्रह्म।

नाँन्हाँ काती चित दे महँगे मोलि बिकाइ।
गाहक राजा राम है और न नेड़ा आइ॥५८॥

सन्दर्भ―कर्मों के अनुसार फल देना परमात्मा का ही काम है।

भावार्थ―हे जीवात्मा! तू खूब मन लगाकर सतकर्मों का पतला सूत कात जिससे तुझे अच्छी कीमत प्राप्त होगी। उस कर्म रूपी सूत को लेने वाले केवल राम ही हैं अन्य लोग तो पास आने का साहस भी करते हैं।

शव्दार्थ―नान्हां=पतला। सूत=धागा कामं से तात्पर्य है। नेड़ा=समीप।

डागल ऊपरि दौड़णाँ, सुख निदणीं न सोइ।
पूनै पाये द्यौंहड़े ओछी ठौर न कोइ॥५६॥

सन्दर्भ–जीवन को प्रभु-भक्ति मे ही लगाना चाहिए, व्यर्थं मे नही खोना चाहिए।

भावार्थ―हे मनुष्य! तुझको ऊबड़ खावड भूमि पर दौडना है कठिन साधना करनी है। सुख निद्रा मे अचेत हो कर मत सो। यह मानव शरीर अनेकानेक सुकर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुआ है प्रभु-भक्ति के बिना इसे व्यर्थं मत खो।

शव्दार्थ―डागल=ऊबड खाबड़ भूमि। द्यौंहडे=देवालय (यहाँ मानव शरीर से तात्पर्य है।)

मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकै जो निकसी भाजि।
कब लग राखौं हे सखी, रुई पलेटी आगि॥६०॥

सन्दर्भ―अहंकार किमी न किसी दिन प्रकट होकर जीव को नष्ट कर देता है।  

भावार्थ―अहंकार बहुत ही भयानक वस्तु है|इसका शीघ्र ही विनाश कर देना चाहिए अन्यथा यह व्यक्ति को ही नष्ट कर देगा। जिस प्रकार रूईमे लिपटी हुई अग्नि कब तक सुरक्षित रह सकती है वह थोडे ही समय मे रूई को भस्मकर बाहर प्रकट हो जाती है उसी प्रकार अहंकार भी कब तक छिपा हुआ रहेगा एक न एक दिन वह प्रकट होवेगा ही।

शब्दार्थ―मै मै=अह। वलाई=वला।

मैं मैं मेरी जिनि करै,मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का षैषडा़,मेरी गल की पास॥६१॥

सन्दर्भ―अहंकार मनुष्य का विनाश का मूल कारण है।

भावार्थ―हे जीव तू अहंकार का परित्याग कर दे क्योकि अहंकार आत्मा के विनाश का कारण है। अहं भाव ही जीव के पैरो का बन्धन है और गले मे पढें हुए फाँसी के फन्दे के समान है।

शब्दार्थ-षैषड़ा=बधन। पास=पाश,फासी का फन्दा।

कबीर नाव जरजरी,कूडे खेवणहार।
हलके हलके तिरि गए,बूडे तिनि सिर भार॥६२॥

सन्दर्भ―जो पापो के वोझ से लदे नही होते है है वे ही संसार सागर को पार कर पाते है।

भावार्थ―कबीर दास जो कहते है कि जीवन रूपी नाव अत्यन्त जजंर है जोर उसका खेने वाला नाविक अत्यन्त कूडा है,बेकार है। ऐमी अवस्था मे जो व्यक्ति हल्के है जिनके ऊपर पापो का वोझा कम है वे तो संसार सागर से पार उतर गए और जिनके सर पर पापो का वोझा लदा हुआ था ये उसी भव सागर मे ढ़ूब गए।

शब्दार्थ―कूडे=रदी,बेकार। हलके हलके=शुद्धात्मा वाले।