कबीर ग्रंथावली/(११) निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ १४१ से – १४६ तक

 
 

११. निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग

कबीर प्रीतड़ी तौ तुझसौं, बहु गुण याले कन्त।
जे हॅसि बोलौ और सौं, तौ नील रॅगाऊॅ दन्त॥१॥

सन्दर्भ―साधक केवल परमात्मा से प्रेम करता है।

भावार्थ―हे अनन्त गुणो वाले प्रियतम(ब्रह्मा)। कबीर का एकमात्र तुझ से ही प्रेम है। यदि मैं तुझे छोडकर अन्य किसी से हँस बोलकर प्रेम करुँ तो वह मुँह पर स्याही लगाकर मुँह को कलकित करने के समान है।

शब्दार्थ-प्रीतड़ी=प्रेम। गुणिया ले=गुणवान्।

नैनां अन्तर आवतूॅ, ज्यूॅहौ नैन भैपेउ।
नाँ हौं देखौं और कूॅ, नांतुझ देखन देउॅ॥२॥

सन्दर्भ―प्रेम की अनन्यावस्था को दिखाया गाया है। भक्त प्रेम मे विभोर होकर अपने प्रियतम को ही देखना चाहता है।

भावार्थ―हे प्रियतम! तुम नेत्रो के अन्दर आजाओ और मैं तुरन्त नेत्रो को मूँदलूँ। जिससे न तो मैं ही तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य को देख सकूं और न तुम को ही अपने अतिरिक्त किसी अन्य को देखने दूँ। तुम् मुजे देखो और मैं तुमे देखूँ।

सब्दार्थ―अंतरि=अन्दर। झंपेड=मूँदलूँगा।

मेरा तुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै मेरा॥३॥

सन्दर्भ―संसार की सभी वस्तुँ परमात्मा की है। मापक जो भी परन्तु परमात्मा को समर्पित करता है वह उसी की ही वस्तु उसकी समर्पित करता है।

भावार्थ―मेरे पास जो कुछ भी है हे परमात्मा! यह तेरा ही है उसमें मेरा कुछ भी नही है। फिर आपकी ही वस्तु आप को सौंपने मे मेरा क्या लगता है।

कबीर रैख रचंदूर की, काजल दिया न जाई।
नैन रमइया रमि सदा, दुजा कहाँ समाइ॥

 

सन्दर्भ―भक्त के लिये भगवान को छोडकर अन्य कोई नही होता है।

भावार्थ―कबीदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार एक पतिब्रता स्त्री सौभाग्य सूचक सिन्दूर की रेखा ही लगाती है पति को आकर्षित करने के लिए आँखो मे काजल भी लगाती उसी प्रकार मेरे नेत्रो मे तो केवल राम को हि तस्वीर वसी हुई है किसी अन्य को उसमे स्थान नही मिल सकता है।

शब्दर्थ―स्यंदूर=सिंदूर।नैमू-नेत्रो मे।

कबीरा सीप समद की,रटै पियास पियास।
समदहि तिणका बरि गिणै,स्वाँति बूँद की आस॥

सन्दर्भ―जिसका जिसमे प्रेम होता है उसके लिए उससे बढकर और कोई पदार्थ नही होता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि समुद्र मे पड़ी हुई सीपी उसके जल से तृप्त न होकर प्यास रठती रहती है। वह तो स्वाति नक्षत्र के बूँद को आशाएँ विशाल समुद्र को तिनके के समान नगण्य समझती है।

विशेष―अन्योक्ति अलंकार।

शब्दार्थ―समदहिं=समुद्रहि=समुद्र को।

कबीर सुख कौं जाइ था,आगे आया दुख।
जाइ सुख घरि आपणै,हम जाणै अरु दुख॥६॥

सन्दर्भ―साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए सासारिक सुखो को तिलाजलि दे देता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते है कि इस विषय विकार से भरे हुए संसार के सुखो मे लिप्त होने जा ही रहा था कि अचानक मेरा साक्षात्कार परमात्मा के विरहरुपी दुख से हो गया। तब मैंने सांसारिक दुखों को तिमाजलि देकर ईश्वर की प्राप्ति के लिए विरह(दुख) को ही सहने का लक्ष्य बनाया है।

दो जग तौ हम ॲगिया,यहु डर नाहीं मुझ।
भिस्त न मेरे चाहिए, बांँझ पियारे तुझ॥७॥

संदर्भ―ईश्वर के अभाव मे भक्त स्वगं भी नही चाहता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि यदि मुझे नरक मे भी जाना पढे और वहाँ पर मुझे परमात्मा के दर्शन न होता रहे तो मुझे कोई भय नही है। किन्तु ऐप्रितम! तेरे बिना यदि मुझे स्वर्ग मे भी जाना पडे, तो वह भी मेरे लिए त्याज्य है,व्यर्थ है। शब्दार्थ―दो जग=दो जख-वर्क। मिस्न=बहिश्त-स्वर्गं। वाँझ=रहित है।

जे ओ एकै न जाँणियाँ, तो जाँण्याँ सव जाँण।
जे ओ एक न जाँणियाँ, वो सब ही जाँण अजाँण॥८॥

सन्दर्भ―परमात्मा के ज्ञान के अतिरिक्त और सव ज्ञान व्यर्थं है।

भावार्थ―जिसने एक परमात्मा को जान लिया उसने संसार के सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लिया। और जिसने उस एक परमात्मा को नहीं जाना उसका संसार की अन्य वस्तुओं का ज्ञान अज्ञान के ही समान है।

शब्दार्थ―जांण=ज्ञान।

कबीर एक न जाँणियाँ, तौ बहुजाँण्याँ क्या होइ।
एकै तैं सव होत है, सवतैं एक न होइ॥६॥

सन्दर्भ―सच्चा ज्ञान ब्रह्मज्ञान है। उससे अन्य ज्ञान प्राप्त होते हैं।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं जिसने एक परमात्मा को नहीं जाना उसका और सव ज्ञान क्या होगा। वह व्यर्थ है। उस एक परमात्मा के ज्ञान से तो और सभी ज्ञान प्राप्त हो जाते हैं कि और सब ज्ञानो से उस परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है।

शब्दार्थ―एक=परमात्मा। बहु=अन्य समस्त ज्ञान।

जब लगि भगति सकांमता, तब लगि निर्फल सेव।
कहै कबीर वै क्यूॅ मिलै, निहकांमी निज देव॥१०॥

सन्दर्भ―भक्ति कामनारहित होनी चाहिए।

भावार्थ―जब तक भक्ति मे कामना मिली होती है किसी स्वार्थ के लिए ईश्वर का स्मरण किया जाता है तब तक ईश्वर की सम्पूर्ण सेवा व्यर्थ होती है। कबीरदास जी कहते हैं कि जो ईश्वर निष्काम है उसे तो निष्काम भक्ति से हो प्राप्त किया जा सकता है साम भक्ति से यह कैसे मिल सकता है?

शब्दार्थ―सकीमता=कामनामय। निर्फल=निष्कल निहकामी= निष्कामी।

आसा एक जु राम की, दूजी आस निराम।
पाँणी माँहै घर करैं, ते भी मरैं पियास॥११॥

 

सन्दर्भ―जीव को सासारिक आशाओं के प्राप्त होने पर भी शांति प्राप्ति नही होती है।

भावार्थ―जिसको एक परमात्मा की आशा है उसके लिए अन्य आशाएँ व्यर्थ हैं निराशामात्र है क्योकि उसी एक से सबकी प्राप्ति होती है। सांसारिक कामनाओ का अन्त तो निराशाएँ होता है। जो व्यक्ति ईश्वर की आशा को छोड़ कर अन्य की आशा करते हैं वह तो उन लोगो के समान है। जो पानी में रहकर भी प्यासे मरते हैं।

शब्दार्थ―पाणी=जल।

जें मन लागै एक सूँ, तौ निरबाल्या जाइ।
तूरा दुइ मुखि बाजरणँ, न्याइ तमाचे खाइ॥१२॥

सन्दर्भ―जीव को अकेले परमात्मा के प्रेम मे मन को लगा देना चाहिए।

भावार्थ―यदि जीव का मन परमात्मा पर ही आसक्त हो जाय तो उसका निर्वाह हो जायगा और यदिवह ईश्वर के अतिरिक्त अन्य का ध्यान करता है तो उसे सांसारिक दुख उसी प्रकार सहन करने पड़ेगे जिस प्रकार तुरही को दोमुखों से बजने के कारण अकारण ही हाथ के प्रहार सहन करने पड़ते हैं।

शव्दार्थ―निरवाल्या=निर्वाह हो जाएगा। तूरा=तुरही। न्याइ=उचित।बाजणाँ=बजाने से।

कबीर कलिजुग आइकर, कीये बहुतज मीत।
जिन दिल बॅधी एक सूँ, ते सुखु सोवै नचींत॥१३॥

सन्दर्भ―जीव यदि परमात्मा को मित्र बना ले तो वह निश्चित हो सकता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस कलियुग मे आकर मनुष्य अनेको मित्रो को बनाता है किन्तु वे सभी दुख देने वाले होते हैं परन्तु यदि एक परमात्मा को मित्र बना लिया जाय तो जीव जीवन पर्यंत निश्चिन्त होकर सो सकता है।

शब्दार्थ―बहुतज=बहुत से। नचीत=निश्चिन्त।

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाँउॅ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे वित जाँउॅ॥१४॥

सन्दर्भ―भवत को भगवान जिधर खीचता है वह उधर ही चला जाता है।  

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मैं राम का कुत्ता हूँ और मेरा नाम मुतिया (मुक्त) है मेरे गले में राम नाम की रस्सी पड़ी हुई है उस रस्सी को पड़ कर मेरे स्वामी राम जिधर मुझे घुमाते हैं मैं उधर हो घूम जाता हूँ।

विशेष―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ―कूता=कुत्ता। जेवडी=जेवरी=रस्सी।

तो तो करै त बाहुड़ों, दुरि दुरि करै तो जाउॅ।
ज्यूॅ हरि राखै त्यूॅ रहौं, जो देवै सो खाउँ॥१५॥

सन्दर्भ―भक्त अपने सारे क्रिया कलाप ईश्वर की इच्छा पर ही करता है।

भावार्थ―यदि ईश्वर मुझ कुते को तू-तू करके बुलाते हैं तो मैं तुरन्त हो उनके समीप पहुँच जाता हूँ और यदि दुरदुरा देते हैं तो मैं दूर चला जाता हूँ। इस प्रकार में राम की इच्छा पर ही रहता हूँ। वह जो कुछ खाने को दे देते हैं वही खा लेता हूँ,

शब्दार्थ―वाहुडो=नजदीक।

मन प्रतीत का प्रेम रस, नाँ इस तन मैं ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सू, कैसे रहसी रंग॥१६॥

संदर्भ―जीवात्मा को चिन्ता है कि वह प्रभु-मिलन के आचार-व्यवहार तक से भी परिचत नहीं है फिर मिलन कैसे होगी।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि मेरा मन न तो ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखता है और न प्रेम रस से हो परिपूर्ण है और शरीर भी उसके मिलन के लिए उपयुक्त नहीं है फिर समझ में नहीं आता कि राम्र-रंग के खेलो मे उत्त ईश्वर के साथ कैने प्रवृति होगो।

उस संम्रथ का दाश हौं, कदे न होइ अकाज।
पतिव्रता नॉगी रहे, तो उस ही पुरिम कौ लाज॥१७॥

संदर्भ―भक्ति पर यदि आपत्ति आयेगी तो ईश्वर के लिए लज्जा का विषय है।

भावार्थ—मैं उस समय पुरुष परमात्मा का सेवक हैं जो सर्वपक्तिमान है। इस कारण मेरा किसी भी प्रकार अनर्थ नहीं हो सकता है जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री के नयन रहने पर उसके पति को ही लज्जा आती है उसी प्रकार मेरे होने में भी परमात्मा के लिए ही लज्जा का विषय है।

प० मा० फा०――१० शब्दार्थ—सम्रय=सामथ्यँवान ब्रह्म। कदे=कभी भी।

धरि परमेसुर पाहुणां, सुणौं सनेही दास।
षटरस भोजन भगति करि ज्यूॅ कदेन छाँड़ै पास॥१८॥

संदर्भ―ईश्वर का निवास हृदय में है उसकी सेवा भक्ति पूर्वक करनी चाहिए।

भावार्थ―कबीर दास जो कहते हैं कि है प्रेमो भक्तो। ध्यान पूर्वक सुनो इस हृदय रूपी घर मे प्रभुरूपी अतिथि पधारे हैं। उसकी सेवा मे भक्ति रूपी षट् रस व्यंजन प्रस्तुत करो ता कि वे प्रसन्न हो कर कभी भी तुम्हारा साथ न छोड़े। सदैव तुम्हारे साथ रहे।

विशेष―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ―घरि=घर। पाहुणाँ=अतिथि।