[ ९१ ]

चौथा खण्ड

:१:

शयनागार में

“अधिकार बेड़ी भाँगी, एकमम मिनति”
—ब्रजाङ्गना काव्य

[१]

लुत्फुन्निसाके आगरा जाने और फिर सप्तग्राम लौटकर आनेमें कोई एक साल हुआ है। कपालकुण्डला एक वर्षसे नवकुमारकी गृहिणी है। जिस दिन प्रदोषकालमें लुत्फुन्निसा जंगल आई उस समय कपालकुंडला कुछ अनमनी-सी अपने शयनागारमें बैठी है। पाठकोंने समुद्रतटवासिनी, आलुलायित केशा और भूषणविहीना जिस कपालकुण्डलाको देखा था, अब वह कपालकुंडला नहीं है। श्यामासुन्दरीकी भविष्यवाणी सत्य हुई है। पारसमणिके स्पर्शसे योगिनी गृहिणी हुई है, इस समय वह सारे रेशम जैसे रूखे लम्बे बाल, जो पीठपर अनियन्त्रित फहराया करते थे अब आपसमें गुँथकर वेणी-रूपमें शोभा पा रहे हैं। वेणीरचनामें भी बहुत कुछ शिल्प-परिपाटी है, केशविन्यासमें सूक्ष्म केशीकार्य श्यामासुन्दरीके विन्यास-कौशलका परिचय दे रहा है। फूलोंको भी छोड़ा नहीं गया है, वे भी वेणीमें चारों तरफ खूबसूरतीके साथ गूँथे हुए हैं। सरपरके बाल भी समान ऊँचाईमें नहीं, बल्कि मालूम होता है, कि आकुंचनयुक्त कृष्ण तरंग मालाकी तरह शोभित हैं। मुखमंडल [ ९२ ]अब केशसमूहसे ढँका नहीं रहता; ज्योतिर्मय होकर शोभा पाता है। केवल कहीं-कहीं पुष्प-गुच्छ लटक रहे हैं और स्वेदविन्दु झलक रहे हैं। वर्ण वही, अर्द्ध-पूर्णशशाङ्क-रश्मिरुचिर। अब दोनों कानोंमें स्वर्ण कुण्डल लहरा रहे हैं; गलेमें नेकलेस हार है। रंगके आगे वह म्लान नहीं है। वल्कि वह इस प्रकार शोभा पा रहे हैं जैसे अर्धचन्द्र-कौमुदी-वसना धारिणीके अङ्गपर वह नैश कुसुमवत शोभित हैं। वह दुग्धश्वेत जैसे शुभ्र वस्त्र पहने हुए है; वह वस्त्र आकाशमण्डलमें खेलनेवाले सफेद बादलोंकी तरह शोभा पा रहे हैं।

यद्यपि वर्ण वही है लेकिन पूर्वापेक्षा कुछ म्लान, जैसे आकाश में कहीं काले मेघ झलक रहे हों। कपालकुण्डला अकेली बैठी न थी। उसकी सखी श्यामासुन्दरी पासमें बैठी हुई है। उन दोनोंमें आपसमें बातें हो रही थीं। उनकी वार्ताका कुछ अंश पाठकोंको सुनना होगा।

कपालकुण्डलाने पूछा—“नन्दोईजी, अभी यहाँ कितने दिन रहेंगे?”

श्यामाने उत्तर दिया—“कल शामको चले जायेंगे। आहा आज रातको भी यही औषधि लाकर रख लेती तो भी उन्हें वश कर मनुष्य जन्म सार्थक कर सकती। कल रातको निकली तो लात-जूता खाया, फिर भला आज रात कैसे निकलूँ?”

क०—दिनको ले आनेसे काम न चलेगा?

श्या०—नहीं, दिनमें तोड़नेसे फल न होगा। ठीक आधी रातको खुले बालोंसे तोड़ना होता है, अरे बहन! क्या कहें, मनकी साध मनमें ही रह गयी।

क०—अच्छा, आज दिनमें तो मैं उस पेड़को पहचान ही आई हैं; और जिस वनमें है, वह भी जान चुकी हूँ। अब आज तुम्हें जाना न होगा, मैं अकेली ही रातमें जाकर औषधि ला दूँगी।

[ ९३ ]श्या०—नहीं-नहीं। एक दिन जो हो गया सो हो गया। तुम रातको अकेली न निकलना।

क०—इसके लिए तुम चिन्ता क्यों करती हो? सुन तो चुकी हो, रातको जंगलमें अकेली घूमना मेरा बचपनका अभ्यास है। मनमें विचार करो, यदि मेरा ऐसा अभ्यास न होता, तो आज कभी तुमसे मुलाकात भी न हुई होती।

श्याम०—इस ख्यालसे नहीं कहती हूँ। किन्तु यह ख्याल है कि रातको जंगलमें अकेली घूमना क्या भले घरकी बहू-बेटियोंका काम है? दो आदमियोंके रहने पर तो इतना तिरस्कार उठाना पड़ा, तुम यदि अकेली गयीं, तो भला कैसे रक्षा होगी?

क०—इसमें हर्ज ही क्या है? तुम क्या यह ख्याल करती हो कि मैं रातमें घरके बाहर होते ही कुचरित्रा हो जाऊँगी?

श्या०—नहीं-नहीं। यह ख्याल नहीं। लेकिन बुरे लोग तो बुराई करते ही हैं।

क०—कहने दो; मैं उनके कहनेसे बुरी तो हो न जाऊँगी।

श्या०—यह तो है ही; लेकिन तुम्हें कोई बुरा-भला कहे तो हम लोगोंके मनको चोट पहुँचेगी।

क०—इस तरहकी व्यर्थकी चोट न पहुँचने दो।

श्या०—खैर, मैं यह भी कर सकूँगी, लेकिन भैयाको क्यों नाराज-दुखी करती हो?

कपालकुण्डलाने श्यामासुन्दरीके प्रति एक विमल कटाक्षपात किया। बोली—“इसमें यदि वह नाराज हों, तो मैं क्या करूँ, मेरा क्या दोष? अगर जानती कि स्त्रियोंका विवाह दासी बनना है, तो कभी शादी न करती।

इसके बाद और जवाब-सवाल करना श्यामासुन्दरीने उचित न समझा; अतः वह अपने कामसे हट गयी।

[ ९४ ]कपालकुण्डला आवश्यकीय कार्यादिसे निवृत्त हुई। घरके कामसे खाली हो, वह औषधि लानेके लिये घरसे निकल पड़ी। उस समय एक पहर रात बीत चुकी थी। चाँदनी रात थी। नवकुमार बाहरी कमरमें बैठे हुए थे। उन्होंने खिड़कीमें से देखा कि कपालकुएडला बाहर जा रही है। उन्होंने भी घरके बाहर हो मृण्मयी का हाथ पकड़ लिया। कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या?”

नवकुमारने पूछा—“कहाँ जाती हो?” नवकुमारके स्वरमें तिरस्कारका लेशमात्र भी न था।

कपालकुण्डला बोली—“श्यामासुन्दरी अपने पतिको वशमें करनेके लिए एक जड़ी चाहती है, वही लेने जाती हूँ।”

नवकुमारने पूर्ववत् कोमल स्वरमें पूछा—“कल तो एक बार हो आई थी; फिर आज क्यों?”

क०—कल खोजकर पा न सकी। आज फिर खोजूँगी।

नवकुमारने कोमल स्वरमें ही कहा—“अच्छा, दिनमें जानेसे क्या काम न होगा?” नवकुमारका स्वर स्नेहपूर्ण था।

कपालकुएडलाने कहा—“लेकिन दिनकी ली गयी जड़ी फलती नहीं।”

नव०—तो तुम्हें खोजनेकी क्या जरूरत है? मुझे जड़ीका नाम बता दो, मैं खोजकर ला दूँगा।

क०—मैं पेड़ देखकर पहचान सकती हूँ, उसका नाम नहीं जानती और तुम्हारे तोड़नेसे भी उसका फल न होगा। औरतोंको बाल खोलकर तोड़ना पड़ता है। तुम परोपकारमें विघ्न न डालो।

कपालकुण्डलाने यह बात अप्रन्नतापूर्वक कही। नवकुमारने भी फिर आपत्ति न की। बोले—“चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।”

[ ९५ ]कपालकुण्डलाने अभिमान भरे स्वरमें कहा—“आओ, मैं अविश्वासिनी हूँ या क्या हूँ, अपनी आँखसे देख लो।”

नवकुमारने फिर कुछ न कहा। उन्होंने कपालकुण्डलाका हाथ त्याग दिया और घरके अन्दर चले गये। कपालकुण्डला अकेली जङ्गलमें घुसी।

 


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    राधिकार बेड़ी भाङ, ए मम मिनति।
    ब्रजाङ्गना काव्य