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:२:

जंगलमें

—“Tender is the night.
and happy the queen moon is on her throne
Clustered around by all her starry fays.
But see there is on light.”
—Keats.

[१]

सप्तग्रामका यह भाग जङ्गलमय है, यह बहुत कुछ पहले लिखा जा चुका है। गाँवसे थोड़ी ही दूर पर घना जङ्गल है। कपालकुण्डला एक संकीर्ण जङ्गली राहसे अकेली औषधिकी खोजमें चली। निस्तब्ध रात्रि थी, शब्दहीन, किन्तु मधुर। मधुर रात्रिमें स्निग्ध और उज्ज्वल किरण फैलाते हुए चन्द्रदेव आकाशमें रुपहले बादलोंको अतिक्रम करते अपनी यात्रा कर रहे थे। नीरव हो वृक्षके पत्ते उन किरणोंसे अठखेलियाँ कर रहे थे। शान्त लतागुल्मोंके बीच फूल खिलकर सफेद चाँदनीमें अपने अस्तित्वसे होड़ लगा रहे थे। पशु-पक्षी सब नीरव थे, प्रकृति नीरव थी, लेकिन [ ९६ ]कभी-कभी घोसलोंमें बैठे पक्षियोंके डैनोंकी फड़फड़ाहट, सूखे पत्तोंके गिरनेका शब्द, सर्पादि जीवोंके रेंगने और दूर कुत्तोंके भौंकनेका शब्द सुनाई पड़ जाता था। वायु भी निस्तब्ध थी, यह बात नहीं, वह चल रही थी, लेकिन इतनी मृदुगतिसे कि केवल ऊपरी वृक्षपत्रमात्र हिलते थे, लताएँ रस लेती थीं; आकाशमें निरभ्र मेघखण्ड धीरे-धीरे उड़ रहे थे। उस प्रकृतिकी नीरवताका सुख लेनेवाला अनुभव कर सकता था कि मन्द वायु-प्रवाह जारी है। पूर्व-सुखकी स्मृति जाग रही थी।

कपालकुण्डलाकी पूर्व स्मृति इस समय जागी। उसे याद आया कि सागर तटवर्ती बालियाड़ी ढूहेपर मन्द वायु किस प्रकार उसके केशोंके साथ खिलवाड़ करती थी। आकाशकी तरफ देखा, अनन्त नील मण्डल याद आया, समुद्रका रूप। कपालकुएडला इसी तरहकी पूर्व स्मृतिसे अनमनी चली जा रही है।

अनमनी होनेके कारण, कपालकुण्डलाको याद न रहा कि वह किस कामके लिए कहाँ जा रही है। जिस राहसे वह जा रही है, वह क्रमशः अगम्य होने लगा। जगल घना हो गया। मस्तकपर लता-वृक्षका वितान घना हो गया। चाँदनी न आनेके कारण अँधेरा हो गया। क्रमशः राह भी गुम हो गयी। राह न मिलनेके कारण कपालकुण्डलाका स्वप्न भंग हुआ। उसने उधर ताक कर देखा, दूर एक रोशनी जल रही थी। लुत्फुन्निसाने भी पहले इसी रोशनीको देखा था। पूर्व अभ्यासके कारण कपालकुण्डला इन सब बातोंसे भयरहित थी; लेकिन कौतूहल तो अवश्य हुआ। वह धीरे-धीरे उस ज्योतिके समीप पहुँची। उसने जाकर देखा कि जहाँ रोशनी जल रही है, वहाँ तो कोई भी नहीं; किन्तु उससे थोड़ी ही दूर पर घना जंगल होनेके कारण एक टूटी मड़ैया-सी अस्पष्ट दिखाई दी। उसकी दीवारें यद्यपि ईटों की थीं, किन्तु [ ९७ ]टूटी-फूटी-छोटीसी केवल एक कोठरीमात्र थी। उस घरमें से बातचीतकी आवाज आ रही थी। कपालकुण्डला निःशब्द पैर रखती हुई उस मड़ैयाके पास जा पहुँची। पास पहुँचते ही मालूम हो गया कि दो मनुष्य सावधानीके साथ बातें कर रहे हैं। पहले तो वह बात कुछ समझ न सकी; लेकिन बादमें पूरी चेष्टा करने पर निम्नलिखित प्रकार की बातें सुनाई पड़ीं—

एक कह रहा है—“मेरा अभीष्ट मृत्यु है; इसमें यदि ब्राह्मण सहमत न हों, तो मैं तुम्हारी सहायता न करूँगा; तुम भी मेरी सहायता न करना।”

दूसरा बोला—“मैं भी मंगलाकांक्षी नहीं हूँ, लेकिन जीवन भरके लिए, उसका निर्वासन हो; इसमें मैं राजी हूँ। लेकिन हत्याकी कोई चेष्टा मेरे द्वारा नहीं हो सकती, वरन् उसके प्रतिकूलाचरण ही करूँगी।

फिर पहलेने कहा—“बहुत अबोध हो तुम। तुम्हें कुछ ज्ञान सिखाता हूँ। मन लगाकर सुनो। बहुत ही गूढ़ बातें कहूँगा। एक बार चारों तरफ देख तो जाओ, मुझे श्वासकी आवाज लग रही है।”

वस्तुतः बातें मजेमें सुनने के लिए कपालकुण्डला मड़ैयाके दरवाजेके समीप ही आ गयी थी। अतीव आग्रह होनेके कारण उसकी साँसें जोर-जोरसे चल रही थीं।

साथीकी बातोंपर एक व्यक्ति घर के दरवाजे पर आया और आते ही उसने कपालकुण्डलाको देख लिया। कपालकुण्डलाने भी चमकीली चाँदनीमें उस आगन्तुकको देखा। वह स्थिर न कर सकी कि उस आगन्तुकको देखकर वह खुश हो, या डरे। उसने देखा कि आगन्तुक ब्रह्मवेशी है। सामान्य धोती पहने हुए है, शरीर एक उत्तरीय द्वारा अच्छी तरह ढँका हुआ है। ब्राह्मणकुमार बहुत ही कोमल और नवयुवक जान पड़ा; कारण, उसके चेहरेसे [ ९८ ]बहुत ही कमनीयता दिखाई पड़ी थी, चेहरा अतीव सुन्दर है, स्त्रियों के चेहरेके अनुरूप, लेकिन रमणी दुर्लभ तेजविशिष्ट है। उसके बाल मर्दोंकी तरह कटे हुए नहीं, बल्कि स्त्रियोंकी तरह घुँघराले कुछ पीठ और छाती पर लटक रहे थे। ललाट पर चमक, उभरा हुआ और एक शिरा साफ दिखाई पड़ती थी। दोनों आँखोंमें गजबका तेज था। हाथमें एक नङ्गी तलवार थी। किन्तु इस रूपराशिमें एक तरहका भीषण भाव दिखाई पड़ रहा था। हेमन्त वर्णपर मानो कोई कराल छाया पड़ गयी हो उसकी अन्तस्तल तक धँस जानेवाली आँखोंकी चमक देखकर कपालकुण्डला भयभीत हुई।

दोनों एक दूसरेको एक क्षण तक देखते रहे। पहले कपालकुण्डलाने आँखें झपकायीं। उसकी आँखें झपकते ही आगन्तुकने पूछा—“तुम कौन?”

यदि एक वर्ष पहले उस जङ्गलमें ऐसा प्रश्न किसीने किया होता तो कपालकुण्डला समुचित उत्तर तुरंत प्रदान करती, लेकिन इस समय इस बदली हुई परिस्थितिमें वह गृहलक्ष्मी-स्वभाव हो गयी थी, अतः सहसा उत्तर दे न सकी। ब्राह्मणवेशी कपालकुण्डलाको निरुत्तर देखकर गम्भीर होकर कहा—“कपालकुण्डलाǃ इस रातमें भयानक जंगलमें तुम किस लिए आई हो?”

एक अज्ञात रात्रिचर पुरुषके मुखसे अपना नाम सुनकर कपालकुण्डला अवाक् हो रही। फिर उसके मुँहसे कोई जवाब न निकला।

ब्राह्मणवेशीने फिर पूछा—“तुमने हम लोगोंकी बातें सुनी हैं?”

सहसा कपालकुएडलाकी वाक्‌शक्ति फिर जागी। उसने उत्तर देनेके बाद पूछा—“मैं भी वही पूछती हूँ। इस जंगलमें रातके समय तुम दोनों कौन-सी कुमन्त्रणा कर रहे थे?”

ब्राह्मणवेशी कुछ देरतक चिन्तामग्न निरुत्तर रहा। मानो उसके हृदयमें कोई नयी इष्टसिद्धिका प्रकार आ गया हो। उसने कपाल[ ९९ ]कुण्डलाका हाथ पकड़ लिया और उस मड़ैयासे थोड़ा किनारे हटा कर ले जाने लगा। कपालकुण्डलाने बड़े ही क्रोधसे झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। ब्राह्मणवेशीने बड़ी मिठाससे कानोंके पास धीरेसे कहा—“चिन्ता क्यों करती हो? मैं पुरुष नहीं हूँ।”

कपालकुण्डला और आश्चर्यमें आई। इस बातका उसे कुछ विश्वास भी हुआ और नहीं भी। वह ब्राह्मणवेशधारिणीके साथ गयी। उस टूटे घरसे थोड़ी दूर आड़में पहुँचकर उसने कहा—“हम लोग जो कुपरामर्श कर रहे थे, उसे सुनोगी? वह तुम्हारे ही सम्बन्ध में है।”

कपालकुण्डलाका भय और आग्रह बढ़ गया। बोली—“सुनूँगी।” छद्मवेशीने कहा—“तो जबतक न लौटूँ, यहीं प्रतीक्षा करो।”

यह कहकर वह छद्मवेशी उस भग्न घरमें लौट गया। कपालकुण्डला कुछ देर तक यहाँ खड़ी रही। लेकिन उसने जो कुछ सुना और देखा था, उससे उसे बहुत भय जान पड़ने लगा। यह कौन जानता है कि वह छद्मवेशी उसे यहाँ क्यों बैठा गया है? हो सकता है, अपना अवसर पाकर वह अपनी अभिसन्धि पूर्ण किया चाहता हो। यह सब सोचती हुई कपालकुण्डला भयसे विह्वल हो गयी। इधर ब्रह्मवेशीके लौटनेमें देर होने लगी। अब कपालकुण्डला बैठी रह न सकी, तेजीसे घरकी तरफ चली।

उधर आकाश भी घटासे काला पड़ने लगा। जंगलमें चाँदनी से जो प्रकाश फैल रहा था, वह भी दूर हो गया। कपालकुण्डला को प्रतिपल देर जान पड़ने लगी। अतः वह तेजीसे जंगलसे बाहर होने लगी। आनेके समय उसे साफ पीछेसे दूसरेकी पदध्वनि सुनाई पड़ने लगी। पीछे फिरकर देखनेसे अन्धकारमय कुछ [ १०० ]दिखाई न पड़ा। कपालकुण्डलाने सोचा कि ब्रह्मवेशी उसके पीछे आ रहा है। घना जंगल पीछे छोड़ वह उस क्षुद्र जंगली राह पर आ गयी थी। वहाँ उतना अँधेरा न था, देखनेसे कुछ दिखाई पड़ सकता था, लेकिन उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। अतः वह फिर तेजीसे कदम बढ़ाती हुई चली, फिर पदशब्द सुनाई पड़ा। आकाश काली-काली घटाओंसे भयानक हो उठा था। कपालकुण्डला और भी तेजी से आगे बढ़ी। घर बहुत ही करीब था; लेकिन इसी समय हवा के झटकेके साथ बूँदी पड़ने लगी। कपालकुण्डला दौड़ी। उसे ऐसा जान पड़ा कि पीछा करनेवाला भी दौड़ा। घर सामने दिखाई पड़ते-न-पड़ते भयानक वर्षा शुरू हो गयी। भयानक गर्जनके साथ बिजली चमकने लगी। आकाशमें बिजलीका जाल बिछ गया और रह-रहकर वज्र टूटने लगा। कपालकुण्डला किसी तरह आत्मरक्षा कर घर पहुँची। पास का बगीचा पारकर दरवाजेके अन्दर दाखिल हुई। दरवाजा उसके लिए खुला हुआ था। दरवाजा बन्द करनेके लिए वह पलटी। उसे ऐसा जान पड़ा कि सामने दरवाजेके बाहर कोई वृद्धाकार मनुष्यमूर्ति खड़ी थी। इसी समय एक बार बिजली चमक गयी। उस एक ही चमकमें कपालकुण्डला उसे पहचान गयी। वह सागरतीरवासी वही कापालिक है।

 


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    —“Tender is the night,
    And haply the Queen moon is on her throne
    Clustered around by all her starry fays;
    But here there is no light.”
    Keats.