कटोरा भर खून
देवकीनन्दन खत्री

नई दिल्ली: शारदा प्रकाशन, पृष्ठ ८० से – ८३ तक

 

१४
 

रात पहर-भर जा चुकी है। खड़गसिंह अपने मकान में बैठे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कल दर्बार में क्या-क्या किया जाएगा। यहाँ के दस-बीस सरदारों के अतिरिक्त खड़गसिंह के पास ही नाहरसिंह, बीरसिंह और बाबू साहब भी बैठे हैं।

खड़ग॰: बस यही राय ठीक है। दर्बार में अगर राजा के आदमियों से हमारे खैरखाह सरदार लोग गिनती में कम भी रहेंगे तो कोई हर्ज नहीं।

नाहर॰: जिस समय गरज कर मैं अपना नाम कहूँगा, राजा की आधी जान तो उसी समय निकल जायगी, फिर कसूरवार आदमी का हौसला ही कितना बड़ा? उसकी आधी हिम्मत तो उसी समय जाती रहती है जब उसके दोष उसे याद दिलाये जाते हैं।

एक सरदार: हम लोगों ने भी यही सोच रक्खा है कि या तो अपने को हमेशा के लिए उस दुष्ट राजा की ताबेदारी से छुड़ायेंगे या फिर लड़कर जान ही दे देंगे।

नाहरन: ईश्वर चाहे तो ऐसी नौबत नहीं आवेगी और सहज ही में सब काम हो जाएगा। राजा की जान लेना, यह तो कोई बड़ी बात नहीं, अगर मैं चाहता तो आज तक कभी का उसे यमलोक पहुँचा दिया होता, मगर मैं आज का-सा समय ढूँढ़ रहा था और चाहता था कि वह तभी मारा जाय जब उसकी हरमजदगी लोगों पर साबित हो जाय और लोग भी समझ जाएँ कि बुरे कामों का फल ऐसा ही होता है। खड़ग॰: (नाहरसिंह से) हाँ, आपने कहा था कि बाबाजी ने तुमसे मिलना मंजूर कर लिया, घण्टे-दो घण्टे में यहाँ जरूर आवेंगे, मगर अभी तक आए नहीं।

नाहर॰: वे जरूर आवेंगे।

इतने ही में दरबान ने आकर अर्ज किया कि 'एक साधु बाहर खड़े हैं जो हाजिर हुआ चाहते हैं।' इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और सभों की तरफ देख कर बोले, "ऐसे परोपकारी महात्मा की इज्जत सभों को करनी चाहिए।"

सब-के-सब उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर बड़ी इज्जत से बाबा जी को ले आये और सबसे ऊँचे दर्जे पर बिठाया।

बाबा: आप लोग व्यर्थ इतना कष्ट कर रहे हैं! मैं एक अदना फकीर, इतनी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हूँ।

खड़ग॰: यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, आपकी तारीफ नाहरसिंह की जुबानी जो कुछ सुनी है मेरे दिल में है।

बाबा: अच्छा, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि दर्बार के लिए जो कुछ बन्दोबस्त आप लोग किया चाहते थे वह हो गया या नहीं?

खड़ग॰: सब दुरुस्त हो गया, कल रात को राजा के बड़े बाग में दर्बार होग।

बाबा: मेरी भी इच्छा होती है कि दर्बार में चलूँ।

खड़ग॰: आप खुशी से चल सकते हैं, रोकने वाला कौन है?

बाबा: मगर इस जटा, दाढ़ी-मूँछ और मिट्टी लगाए हुए बदन से वहाँ जाना बेमौके होगा।

खड़ग॰: कोई बेमौके न होगा।

बाबा: क्या हर्ज होगा अगर एक दिन के लिए मैं साधु का भेष छोड़ दूँ और सरदारी ठाठ बना लूँ।

खड़ग॰: (हँस कर) इसमें भी कोई हर्ज नहीं! साधु और राजा समान ही समझे जाते हैं!!

बाबा: और तो कोई कुछ न कहेगा मगर नाहरसिंह से चुप न रहा जायगा।

नाहर॰: (हाथ जोड़ कर) मुझे इसमें क्यों उज्र होगा?

बाबा: क्यों का सबब तुम नहीं जानते और न मैं कह सकता हूँ मगर इसमें कोई शक नहीं कि जब मैं अपना सरदारी ठाठ बनाऊँगा तो तुमसे चुप न रहा जायगा। नाहर॰: न-मालूम आप क्यों ऐसा कह रहे हैं!

बाबा: (खड़गसिंह से) आप गवाह रहिये, नाहर कहता है कि मैं कुछ न बोलूँगा।

खड़ग॰: मैं खुद हैरान हूँ कि नाहर क्यों बोलेगा!!

बाबा: अच्छा, फिर हजाम को बुलवाइये, अभी मालूम हो जाता है। लेकिन आप और नाहर थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकान्त में चलिए और हजाम को भी उसी जगह आने का हुक्म दीजिये।

आखिर ऐसा ही किया गया। बाबाजी, खड़गसिंह और नाहरसिंह एकान्त में गए, हजाम भी उसी जगह हाजिर हुआ। बाबाजी ने जटा कटवा डाली, दाढ़ी मुड़वा डाली और मूँछों के बाल छोटे-छोटे कटवा डाले। नाहरसिंह और खड़गसिंह सामने बैठे तमाशा देख रहे थे।

बाबाजी के चेहरे की सफाई होते ही नाहरसिंह की सूरत बदल गई, चुप रहना उसके लिए मुश्किल हो गया, वह घबड़ाकर बाबाजी की तरफ झुका।

बाबा: हाँ हाँ, देखो! मैंने पहिले ही कहा था कि तुमसे चुप न रहा जाएगा!!

नाहर॰: बेशक, मुझसे चुप न रहा जाएगा! चाहे जो हो मैं बिना बोले कभी न रह सकता!!

खड़ग॰: नाहरसिंह! यह क्या मामला है?

नाहर॰: नहीं नहीं, मैं बिना बोले नहीं रह सकता!!

बाबा: यह तो मैं पहिले ही से समझे हुए था, खैर, हजाम को बिदा हो लेने दो, केवल हम तीन आदमी रह जायं तो जो चाहे बोलना।

हजाम बिदा हुआ, दो खिदमतगार बुलाये गए, बाबाजी ने उसी समय सिर मल के स्नान किया और उनके लिए जो कपड़े खड़गसिंह ने मँगवाए थे उन्हें पहन कर निश्चिन्त हुए, मगर इस बीच में नाहरसिंह के दिल की क्या हालत थी सो वही जानता होगा। मुश्किल से उसने अपने को रोका और मौके का इन्तजार करता रहा। जब इन कामों से बाबाजी ने छुट्टी पाई, तीनों आदमी एकान्त में बैठे और बातें करने लगे।

न मालूम घण्टे-भर तक कोठरी के अन्दर बैठे उन तीनों में क्या-क्या बातें हुईं, हाँ बाबाजी, नाहरसिंह और खड़गसिंह तीनों के सिसक-सिसक कर रोने की आवाज कोठरी के बाहर कई दफे आई जिसे हमने भी सुना और स्वप्न की तरह आज तक याद है।

कोठरी से बाहर निकल कर साधु महाशय मुँह पर नकाब डाल बिदा हुए और नाहरसिंह तथा खड़गसिंह उस अदालत में आ बैठे जिसमें बाकी के सरदार लोग बैठे हुए थे। सरदार ने पूछा कि बाबाजी कहाँ गए और उनकी ताज्जुब-भरी बातों का क्या नतीजा निकला? इसके जवाब में खड़गसिंह ने कहा कि बाबाजी इस समय तो चले गए मगर कह गए हैं कि 'मेरे पेट में जो-जो बातें भेद के तौर पर जमा हैं वे कल दर्बार में ज़ाहिर हो जायेंगी, इसलिए मेरे साथ आप लोगों को भी उनका हाल कल ही मालूम होगा'।

आधी रात तक ये लोग बैठे बातचीत करते रहे, इसके बाद अपने-अपने घर की तरफ रवाना हुए।