कटोरा भर खून
देवकीनन्दन खत्री

नई दिल्ली: शारदा प्रकाशन, पृष्ठ ७५ से – ८० तक

 

१३

खड़गसिंह जब राजा करनसिंह के दीवानखाने में गये और राजा से बातचीत करके बीरसिंह को छोड़ा लाये तो उसी समय अर्थात जब खड़गसिंह दीवानखाने से रवाने हुए तभी राजा के मुसाहबों में सरूपसिंह चुपचाप खड़गसिंह के पीछे-पीछे रवाना हुआ वहाँ तक आया जहाँ सड़क पर खड़गसिंह और नाहरसिंह से मुलाकात हुई थी और खड़गसिंह ने पुकार कर पूछा था, "कौन है, नाहरसिंह।"

सरूपसिंह उसी समय चौंका और जी में सोचने लगा कि खड़गसिंह दिल में राजा का दुश्मन है क्योंकि राजा के सामने उसने कहा था कि नाहरसिंह को हमने गिरफ्तार कर लिया और कैद करके अपने लश्कर में भेज दिया है मगर यहाँ मामला दूसरा ही नजर आता है, नाहरसिंह तो खुले मैदान घूम रहा है! मालूम होता है, खड़गसिंह ने उससे दोस्ती कर ली।

लेकिन नाहरसिंह का नाम सुनते ही सरूपसिंह इतना डरा कि वहाँ एक पल भी खड़ा न रह सका, भागता और हाँफता हुआ राजा के पास पहुँचा।

राजा: क्यों क्या खबर है? तुम इस तरह बदहवास क्यों चले आ रहे हो? कहाँ गये थे?

सरूप॰: खड़गसिंह के पीछे-पीछे गया था।

राजा: किस लिये?

सरूप॰: जिसमें मालूम करूं कि वह कहाँ जाता है और सच्चा है या झूठा।

राजा: तो फिर क्या देखा?

सरूप॰: वह बड़ा ही भारी बेईमान और झूठा है, उसने आपको पूरा धोखा दिया और नाहरसिंह के गिरफ्तार करने की बात भी बिल्कुल झूठ कही। नाहरसिंह खुले मैदान घूम रहा है बल्कि खड़गसिंह और उसमें दोस्ती मालूम पड़ती है। जिस मकान में दुश्मनों की कुमेटी होती है उसके पास ही खड़गसिंह नाहरसिंह से मिला जो कई आदमियों को साथ लिए वहाँ खड़ा था और बातचीत करता हुआ उसके साथ ही कुमेटी वाले मकान में चला गया।

राजा: तुमने कैसे जाना कि यह नाहरसिंह है?

सरूप॰: खड़गसिंह ने नाम लेकर पुकारा और दोनों में बातचीत हुई।

राजा: क्या बीरसिंह को लिये हुए खड़गसिंह वहाँ गया था?

सरूप॰: नहीं, उसने बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ करके अपने डेरे पर भेज दिया और आप उस तरफ चला गया था।

राजा: तो बेईमान ने मुझे पूरा धोखा दिया!!

सरूप॰: बेशक।

राजा: अफसोस! यहाँ अच्छे मौके पर आया था, अगर मैं चाहता तो उसी वक्त काम तमाम कर देता और किसी को खबर भी न होती।

सरूप॰: इस समय खड़गसिंह नाहरसिंह को साथ लेकर उस मकान में गया है जिसमें कुमेटी हो रही है, अगर आप सौ आदमी मेरे साथ दें तो मैं अभी वहाँ जाकर दुश्मनों को गिरफ्तार कर लूँ।

राजा: पागल भया है! रिआया के दिल में जो कुछ थोड़ा-बहुत खौफ बना है, वह भी जाता रहेगा। इसी समय शहर में बलवा हो जायगा और फिर कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। पहिले अपना पैर मजबूत कर लेना चाहिए। तुम तो चुपचाप बिना मुझसे कुछ कहे खड़गसिंह के पीछे-पीछे चले गए थे मगर मैंने खुद शम्भूदत्त को उसके पीछे भेजा है, देखें वह क्या खबर लाता है। वह आ ले तो कोई बात पक्की की जाय। अफसोस! मैं धोखे में आ गया!!

थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही, सरूपसिंह के आधे घण्टे बाद शम्भूदत्त भी आ पहुँचा, वह भी बदहवास और परेशान था।

राजा: क्या खबर है?

शम्भू॰: खबर क्या पूरी चालबाजी खेली गई, खड़गसिंह ने धोखा दिया। बीरसिंह को तो अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भेज दिया और आप सीधे उस मकान में पहुँचा जिसमें दुश्मनों की कुमेटी हुई थी, नाहरसिंह रास्ते में मिला उसे अपने साथ लेता गया।

राजा: खैर, इतना हाल तो हमें सरूपसिंह की जुबानी मालूम हो गया, इससे ज्यादे तुम क्या खबर लाए?

शम्भू॰: यह सरूपसिंह को कैसे मालूम हुआ?

राजा: सरूपसिंह खुद खड़गसिंह के पीछे गया था जिसकी मुझे खबर न थी।

शम्भू॰: अच्छा तो मैं एक खबर और भी लाया हूँ।

राजा: वह क्या?

शम्भू॰: बच्चनसिंह गिरफ्तार हो गया और हरिहरसिंह के हाथ में भी हथकड़ी पड़ गई।

राजा: (चौंक कर) क्या ऐसी बात है?

शम्भू॰: जी हाँ।

राजा: इतनी बड़ी ढिठाई किसने की?

शम्भू॰: सिवाय खड़गसिंह के इतनी बड़ी मजाल किस की थी?

राजा: अब वे दोनों कहाँ हैं?

शम्भू॰: खड़गसिंह के लश्कर में गए, उनके आदमी भी साथ थे, लश्कर के पास तक मै पीछे-पीछे गया, फिर लौट आया।

राजा: अब तो बात हद्द से ज्यादा हो गई! (जोश में आकर) खैर, क्या हर्ज है, समझ लूँगा। उन कम्बख्तों को मैं कब छोड़ने वाला हूँ, अब तो खड़गसिंह पर भी खुल्लमखुल्ला इलजाम लगाने का मौका मिला। अच्छा, सेनापति को बुलाओ, बहुत जल्द हाजिर करो।

शम्भू॰: बहुत खूब।

राजा: नहीं नहीं, ठहरो, आने-जाने में देर होगी, मैं खुद चलता हूँ, तुम दोनों भी मेरे साथ चलो।

शम्भू॰: जो हुक्म।

राजा ने अपने कपड़े दुरुस्त किए, हर्ब लगाए, और चल खड़ा हुआ। दोनों मुस हब उसके साथ हुए।

वह सदर ड्योढ़ी पर पहुँचा, तीन सवारों के घोड़े ले लिये और उन्हीं पर सवार होकर तीनों आदमी उस तरफ रवाना हुए जिधर राजा की फौज रहती थी। घोड़ा फेंकते हुए ये तीनों आदमी बहुत जल्द वहाँ पहुँचे और सेनापति के बैंगले के पास आकर खड़े हो गए।

सेनापति को राजा के आने की खबर की गई, वह बेमौके राजा के आने पर जो एक नई बात थी, ताज्जुब करके घबड़ाया हुआ बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर राजा के पास खड़ा हो गया। राजा और उसके मुसाहब घोड़े से नीचे उतरे और सेनापति के साथ बंगले के अन्दर चले गये; वहाँ के पहरे वालों ने घोड़ा थाम लिया।

घण्टे-भर तक ये लोग बंगले के अन्दर रहे, न-मालूम क्या-क्या बातें होती रहीं और किस-किस तरह का बन्दोबस्त इन लोगों ने विचारा। खैर, जो कुछ होगा मौके पर ही देखा जाएगा। घण्टे-भर बाद राजा बंगले के बाहर निकला और मुसाहबों के साथ अपने घर पहुँचा। सुबह की सुफेदी आसमान पर फैल चुकी थी। वह रात-भर का जागा हुआ था, आँखें भारी हो रही थीं, पलंग पर जाते ही नींद आ गई और पहर दिन चढ़े तक सोया रहा।

जब करनसिंह राठू की आँख खुली तो वह बहुत उदास था। उसके जी की बेचैनी बढ़ती ही जाती थी, रात की बातें एक पल के लिए उसके दिल से दूर न होती थीं। थोड़ी देर तक वह किसी सोच-विचार में बैठा रहा, आखिर उठा और जरूरी कामों से छुट्टी पा, स्नान-भोजन कर, दीवानखाने में जा बैठा। अपने मुसाहबों को, जो पूरे बेईमान और हरामजादे थे, तलब किया और जब वे लोग आ गये तो खड़गसिंह के नाम की एक चिट्ठी लिखी जिसमें यह पूछा कि 'आपने आज दर्बार करने के लिए कहा था, सो किस समय होगा?'

इस चिट्ठी का जवाब लाने के लिए सरूपसिंह को कहा और वह राजा से विदा हो खड़गसिंह की तरफ रवाना हुआ!

इस समय खड़गसिंह अपने डेरे में बैठे यहाँ के बड़े-बड़े रईसों और सरदारों में बातचीत कर रहे थे, जब दर्बान ने हाजिर होकर अर्ज किया कि राजा का एक मुसाहब सरूपसिंह मिलने के लिए आया है। खड़गसिंह ने उसके हाजिर होने का हुक्म दिया। सरूपसिंह हाजिर हुआ तो रईसों और सरदारों को बैठे हुए देख कर कुढ़ गया। मगर लाचार था क्योंकि कुछ कर नहीं सकता था। राजा की चिठ्ठी खड़गसिंह के हाथ में दी और उन्होंने पढ़ कर यह जवाब लिखा:

"जहाँ तक मैं समझता हूँ, आज दर्बार करना मुनासिब न होगा क्योंकि अभी तक इस बात की खबर शहर में नहीं की गई, इससे मैं चाहता हूँ कि दर्बार का दिन कल मुकर्रर किया जाय और आज इस बात की पूरी मुनादी करा दी जाय। दर्बार का समय रात को और स्थान आपका बड़ा बाग उचित होगा, दर्बार में केवल यहाँ के रईस और सरदार लोग ही बुलाए जाएँ। -खड़गसिंह

चिट्ठी का जवाब लेकर सरूपसिंह राजा के पास हाजिर हुआ और जो कुछ वहाँ देखा था अर्ज करने के बाद खड़गसिंह की चिट्ठी राजा के हाथ में दी। चिट्ठी पढ़ने के बाद थोड़ी देर तक राजा चुपचाप रहा और फिर बोला:

राजा: अब तो खड़गसिंह के हर एक काम में भेद मालूम होता है, दर्बार का दिन कल मुकर्रर किया गया, यह तो मेरे लिए भी अच्छा है मगर समय रात का और स्थान बाग, इसका क्या सबब?

सरूप॰: किसी के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो? मगर यह तो साफ जानता हूं कि उसकी नीयत खराब है, जरूर वह भी अपने लिए कोई बन्दोबस्त करना चाहता है।

राजा: खैर, जो कुछ होगा, देखा जायगा, मुनादी के लिए हुक्म दे दो, हम भी अपने को बहादुर लगाते हैं! यकायकी डरने वाले नहीं, हाँ, इतना होगा कि बाग में हमारी फौज न जा सकेगी-खैर, बाहर ही रहेगी। सरूप॰: उसने वहाँ एक सिंहासन भेजने के वास्ते भी कहा है। शायद पदवी देने के बाद आप उस पर बैठाये जायेंगे।

राजा: हाँ, उन सब चीजों का जाना तो बहुत ही जरूरी है क्योंकि इस बात का निश्चय कोई भी नहीं कर सकता कि कल क्या होगा और उसकी तरफ से क्या-क्या रंग रचे जायेंगे, मगर इतना खूब समझे रखना कि करनसिंह उन शैतानों से नावाकिफ नहीं है और ऐसा कमजोर भोला या बुजदिल भी नहीं है कि जिसका जी चाहे यकायकी धोखा दे जाय या खम ठोक कर मुकाबला करके अपना काम निकाल ले!!