उपयोगितावाद/जान स्टुअर्ट मिल

उपयोगितावाद
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक उमराव सिंह कारुणिक

मेरठ: ज्ञानप्रकाश मंदिर, पृष्ठ लेखक-परिचय से – २६ तक

 
जान स्टुअर्ट मिल

इंग्लैण्ड के सरस्वती-मन्दिर में स्टुअर्ट मिल का आसन बहुत ऊंचा है। इसका जन्म २० मई सन् १८०६ ईस्वी को लन्दन में हुआ था। इसके पिता का नाम जेम्स मिल था। वह भी अपने समय का प्रसिद्ध तत्ववेत्ता था।

स्टुअर्ट मिल को उसके पिता ने शिक्षा पाने के लिये किसी स्कूल नहीं भेजा वरन् घर पर स्वयं ही पढ़ाना आरम्भ किया। तीन वर्ष की अवस्था ही में उसने उसको ग्रीक भाषा पढ़ाना आरम्भ कर दिया। आठवें वर्ष लैटिन भाषा का प्रारम्भ भी करा दिया। मिल का पिता प्रति दिन प्रातःकाल तथा सायंकाल टहलने के लिये जाया करता था। साथ में अपने पुत्र को भी ले जाया करता था और मार्ग में तात्विक तथा गहन विषयों को समझाया करता था जैसे, सुधार किसे कहते हैं? गवर्नमैन्ट का क्या अर्थ है? इत्यादि इत्यादि।

मिल का पिता बिल्कुल पक्षपातहीन था। वह सदैव इस बात का प्रयत्न करता रहता था कि उसका पुत्र भी उसके समान ही निष्पक्ष बने। जिन दिनों अमरीका का स्वतंत्रता-युद्ध (American War of Independence) हो रहा था, तो मिल के पुत्र ने अपने पिता से कहा कि हमारा देश सत्य के लिये लड़ रहा है। उसके पिता ने तत्काल ही उसको समझा दिया कि तुम अपने हृदय की दुर्वलता के कारण ऐसा समझते हो। इंग्लैण्ड अमरीका के साथ अन्याय कर रहा है। पिता की इस सुशिक्षा ही का परिणाम था कि स्टुअर्ट मिल ने जाति तथा देश के झूंठे अभिमान को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। अस्तु। न्यूनाधिक भाव-जितने मनुष्य-प्रकृति में होने संभव हों-ऐसे मनुष्यों को भी सार्वजनिक सुख के सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे।

उपयोगितावाद के चौथे अध्याय में मिल ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में प्रमाण दिये हैं। यह बात तो सब को माननी होगी कि विज्ञान तथा शास्त्र के मूल पूर्वावयव (First Premises) हेतु देकर प्रमाणित नहीं किये जा सकते। किंतु मूल सिद्धान्तों का वास्तविकता को परखने वाली शक्तियों अर्थात् ज्ञानेद्रियों तथा आंतरिक चेतना के द्वारा ही निर्णय किया जा सकता है।

उपयोगितावाद का सिद्धांत है कि सुख इष्ट है तथा उद्देश्य की दृष्टि से एक मात्र सुख ही इष्ट है। अन्य सारी वस्तुएं इस उद्देश्य-प्राप्ति में सहायक होने के कारण ही इष्ट हैं। जिस प्रकार किसी ध्वनि के श्रोतव्य होने का एक मात्र यही प्रमाण दिया जा सकता है कि आदमी वास्तव में उसे सुनते हैं, इस ही प्रकार उपयोगितावाद की पुष्टि में यही प्रमाण दिया जा सकता है कि मनुष्य वास्तव में सुख चाहते हैं तथा सुख आचारयुक्तता का एकमात्र निर्णायक है।

मनुष्य सुख क्यों चाहते हैं? इस का एक मात्र प्रमाण यही दिया जा सकता है कि सुख अच्छा है। प्रत्येक मनुष्य का सुख उस के लिये अच्छा है। इस कारण सर्व साधारण का सुख सब मनुष्यों के समाज के लिये अच्छा है। सुख आचार का एक उद्देश्य है। इस कारण आचार-युक्तता का एक निर्णायक है। यहां तक तो साफ़ बात है किन्तु केवल इतने ही से काम नहीं चलता। उपयोगितावाद को प्रमाणित करने के लिये यह प्रमाणित करना होगा कि सुख आचार-युक्तता का एक निर्णायक ही नहीं वरन् एक मात्र निर्णायक है या दूसरे शब्दों में यह समझ लीजिये कि यह बात प्रमाणित करना चाहिये कि मनुष्य केवल सुख ही को नहीं चाहते हैं वरन् सुख के अतिरिक्त वे किसी और वस्तु की कामना ही नहीं करते हैं।

विपक्षियों का कहना है कि मनुष्य सुख के अतिरिक्त और चीजें भी चाहते हैं जैसे नेकी या पुण्य (Virtue), शोहरत, शक्ति तथा धन। किन्तु विचार करने से मालूम होगा कि उपरोक्त सब चीजें सुख का साधन होने ही के कारण इष्ट हैं। जो मनुष्य पुण्य या नेकी की कामना करते हैं, वे इस प्रकार की कामना इन दो कारणों में से किसी एक कारण की वजह से करते हैं। या तो उन्हें अपने नेक होने का ध्यान आने से सुख मिलता है या अपने नेक न होने का ख्याल आने से दुःख होता है। शोहरत या शक्ति मिलने के साथ ही साथ हम को तत्क्षण कुछ आनन्द सा प्रतीत होने लगता है किन्तु फिर भी मनुष्य स्वाभवतया शक्ति तथा ख्याति इस कारण चाहते हैं कि शक्तिशाली या प्रसिद्ध होने पर उन्हें अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बड़ी सहायता मिलती है। धन का यही मूल्य है कि उस के द्वारा और चीज़ें ख़रीदी जा सकती हैं। इस कारण आरम्भ में धन की इच्छा उन वस्तुओं के कारण होती है जो उस धन द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। और उन वस्तुओं की इच्छा इस कारण होती है कि उन वस्तुओं के मिलने से सुख मिलता है तथा न मिलने से दुःख। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि सुख के अतिरिक्त और कोई चीज़ इष्ट नहीं है। अन्य बारह वर्ष की आयु में मिल ने ग्रीक और लैटिन भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। तेरह वर्ष तीन मास की आयु में मिल ने अपने पिता के मित्र सर सैमुअल बैन्थम (Sir Samual Banthem) को एक पत्र लिखा था जिसमें उसने गत चार वर्ष के अपने अध्ययन का ब्यौरा दिया था। इस पत्र को देखने से पता चलता है कि इन चार वर्षों में उसने यूनानी भाषा में थ्यूसीडीडीज़ (Thusidides), अनाक्रियन (Anacreon) तथा थियोक्रीटस के ग्रन्थ पढ़ डाले थे। होमर की औडेसी (Odyessey) भी देख डाली थी। एसकीज़ (Aeschis), डिमासेथिनीज़ (Demosthenes), एसकाईलस (Aeschylus), सोफ़ोक्लीज़ (Sophocles), यूप्रीडीज़ (Euprides) तथा एरिस्टोफेन्स (Aristophanes) के बहुत से ग्रन्थों का अध्ययन भी किया था। अरस्तू की रिटारिक (Rhetoric) तथा आरगैनन (Organon) का कुछ भाग भी देखा था। प्लेटो के डायलाग (Plato's Dialogues) तथा पिन्डार (Pindar), पौलीबियस (Polybius) और ज़ैनोफन (Xenophon) के कुछ ग्रन्थ भी पढ़े थे। लैटिन में सिसैरों की बहुतसी वक्तृतायें, ओविड (Ovid), होरैस (Horace), वरजिल (Virgil) के ग्रन्थ तथा 'लिवी' (Livy) की पांच पुस्तकों का अध्ययन किया था। टैसीटस (Tacitus), जुवैनल (Juvenal) तथा क्विनटिलियन की तो करीब २ सब ही पुस्तकें पढ़ डाली थीं। गणित शास्त्र में बीज-गणित, रेखागणित तथा त्रिकोणमिति का आरम्भ कर दिया था। अन्तिम वर्ष में यूनानी, लैटिन तथा अगरेज़ी भाषा के लेखकों के तर्क शास्त्र विषयक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। अर्थ शास्त्र तथा रसायन शास्त्र (Chemistry) भी देखा था। द्वितीय फ़िलिप के विरुद्ध विद्रोह करने के समय से इङ्गलैण्ड के सिंहासन पर विलियम तृतीय के सिंहासनारूढ़ होने के समय तक का युनाइटेड प्राविन्सेज़ का इतिहास भी लिखा था। यह सब काम चार वर्ष में १४ वर्ष से कम की आयु ही में किया था। हमारे यहां के छात्रों को यह सुनकर अवश्य आश्चर्य होगा।

मिल के पिता ने उसको धर्मविषयक कोई ग्रन्थ नहीं पढ़ाया था क्योंकि उसका ईसाई धर्म के किसी भी ग्रन्थ पर विश्वास नहीं था। वह बहुधा कहा करता था-यह समझ में नहीं आता कि जिस सृष्टि में अपार दुःख भरे हुवे हैं उसे किसी सर्व शक्तिमान् तथा दयालु ईश्वर ने बनाया हो। लोग एक ईश्वर की कल्पना करके उसका पूजन केवल परम्परा के अनुसार चलने की आदत के कारण ही करते हैं, "हमको किसने बनाया?" इस प्रश्न का यथार्थ तथा युक्ति-सिद्ध उत्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कहा जाय कि "ईश्वर ने" तो तत्काल ही दूसरा प्रश्न खड़ा हो जाता है कि "उस ईश्वर को किसने बनाया होगा?"

यद्यपि मिल के पिता ने मिल को धार्मिक शिक्षा देकर किसी मत का अनुयायी बनाने का प्रयत्न नहीं किया था किन्तु नैतिक शिक्षा देने में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ी थी। न्याय पर चलना, सत्य बोलना, निष्कपट व्यवहार रखना आदि बातें मिल के हृत्पटल पर अच्छी तरह जमा दी थीं।

मिल पर अपने पिता की उत्कृष्ट शिक्षा का ऐसा अच्छा असर हुवा था कि कभी कभी मिल अपने पिता के विचारों तक में भूल निकाल देता था। किन्तु इस बात से उसका पिता रुष्ट नहीं होता था वरन् प्रसन्नतापूर्वक निस्संकोच अपनी भूलों को स्वीकार कर लेता था। लगभग १४ वर्ष की आयु में अपनी गृह-शिक्षा को समाप्त कर मिल देशपर्यटन के लिये निकला और एक वर्ष तक सारे योरुप में घूमा।

सन् १८२३ ईस्वी में सत्रह वर्ष की अवस्था में मिल ने ईस्ट इन्डिया आफ़िस में नौकरी कर ली। किन्तु अध्ययन करने तथा लेख लिखने का काम बराबर जारी रक्खा और वैस्ट मिनिस्टर रिव्यू में नियमित रूप से लेख देने लगा। धीरे २ उसते वक्तृता देने का अभ्यास भी कर लिया।

सन् १८२८ ई॰ में मिल ने कतिपय कारणों से वैस्ट मिनिस्टर रिव्यू से अपना संबन्ध तोड़ लिया।

सन् १८२९ के जुलाई मास में फ्रांस की प्रसिद्ध राज्य-क्रान्ति हुई। क्रान्ति का समाचार सुनते ही मिल फ्रांस गया और प्रजा के प्रसिद्ध नेता लाफ़ायटी से मिला। राज्य-क्रान्ति के विषय में मुख्य २ बातों का ज्ञान प्राप्त करके इंगलैंड लौट आया और समाचार पत्रों तथा मासिक पत्रों में क्रान्ति के संबन्ध में जोर शोर से आन्दोलन आरम्भ कर दिया।

इङ्गलैण्ड की पार्लियामैन्ट के सुधार के सम्बन्ध में भी प्रतिभाशाली लेख लिखने आरम्भ कर दिये। सन् १८३१ ई॰ में 'वर्तमान काल की महिमा' नामक एक लेख माला लिखनी आरम्भ की। इस लेखमाला के लेखों की नूतनता तथा विद्वत्ता ने प्रसिद्ध तत्वज्ञानी कार्लायल तक को चकित कर दिया। कार्लायल स्वयं आकर मिल से मिला। सन् १८३०-३१ ई॰ में मिल ने 'अर्थशास्त्र के अनिश्चित प्रश्नों पर विचार' (Essays on Unsetteled Questions in Political Economy) शीर्षक पांच विद्वत्तापूर्ण निबन्ध लिखे। सन् १८३० ई॰ में मिल के जीवन ने नया पलटा खाया। इस वर्ष उसका मिसेस टेलर से पहिले पहिल परिचय हुवा। यह बड़ी विदुषी स्त्री थी। मिल के विचारों पर इस स्त्री के विचारों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा।

सन् १८३२ ई॰ में मिल ने तर्कशास्त्र (System of Logic) नामक ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया। अवकाशाभाव के कारण यह ग्रन्थ १८४१ ई॰ में पूर्ण हुवा। मिल ने यह ग्रन्थ बहुत से ग्रन्थों का मनन करके बड़े परिश्रम से लिखा था। मिल ने यह ग्रन्थ बिल्कुल ही नई पद्धति पर लिखा था। इसके प्रकाशित होने का प्रबन्ध करने में कोई दो वर्ष व्यतीत हो गये। १८४३ ई॰ की वसन्त ऋतु में यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। यद्यपि उस समय इंगलैण्ड में गूढ़ विषय की पुस्तकों की क़द्र नहीं थी, किन्तु फिर भी छः वर्ष ही में इस ग्रन्थ के तीन संस्करण निकल गये।

सन् १८४५ ई॰ में मिल ने अर्थशास्त्र (Political Economy) नामक ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया। १८४७ ई॰ में यह ग्रन्थ पूर्ण हो गया। इस ग्रन्थ में मिल ने केवल अर्थशास्त्र के तत्वों ही का विचार नहीं किया है, वरन् इंगलैण्ड, स्काटलैण्ड आदि देशों के तत्कालिक इतिहास के प्रत्यक्ष उदाहरण देकर यह भी दिखाया है कि उक्त तत्व किस प्रकार व्यवहार में आ सकते हैं। मिल के इस ग्रन्थ की भी अच्छी बिक्री हुई।

इसके बाद कुछ दिनों तक मिल ने कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं लिखा। केवल फुटकर लेख लिखता रहा।

१८४९ ई॰ में मिसेस टेलर के पति का देहावसान हो गया। मिल अभी तक कुंवारा था। इस कारण उसने १८५१ ई॰ में मिसेस टेलर के साथ विवाह कर लिया। दोनों में मित्रता का संबन्ध तो पहिले ही से था। अब यह संबन्ध और भी घनिष्ट हो गया और दोनों का समय बड़े आनन्द से कटने लगा। 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम्।'

विवाह होने पर मिल ने छः मास इटली, सिसली तथा यूनान में भ्रमण किया। सन् १८५६-५८ ई॰ में मिल ने स्वाधीनता (Liberty) नामक ग्रन्थ की रचना की। मिल का यह ग्रन्थ बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ के लिखने में मिल ने जितना परिश्रम किया था, उतना और किसी ग्रन्थ के लिखने में नहीं किया। मिल की पत्नी ने भी इस ग्रन्थ के लिखने में बहुत सहायता दी थी। इस ग्रन्थ को मिल तथा उसकी पत्नी की संयुक्त-रचना कहना अधिक उपयुक्त होगा।

सन् १८५६ ई॰ में फ्रांस में प्रवास करते समय मिल की प्यारी स्त्री का कफ़ रोग के कारण, स्वाधीनता के प्रकाशित होने से पहिले ही, स्वर्गवास हो गया। पत्नी-वियोग के असीम दुःख के कारण मिल स्वाधीनता का अन्तिम संशोधन नहीं कर सका। मिल ने यह ग्रन्थ अपनी पत्नी ही को समर्पित किया है। यह समर्पण पढ़ने योग्य है।

इस के बाद मिल ने पार्लियामेन्ट के सुधार-संबन्धी विचार (Thoughts on Parliamentary Reform) नामक ग्रंथ लिखा। इस ग्रन्थ में मिल ने इस विषय पर विचार किया है कि गुप्त वोट (राय) देने की प्रथा अच्छी नहीं है तथा थोड़े वोट मिलने वाले कुछ प्रतिनिधियों को भी पार्लियामैन्ट में रखना चाहिये।

सन् १८६० और १८६१ ई॰ में मिल ने प्रतिनिधि सत्तात्मक राज्य व्यवस्था (Representative Government) तथा स्त्रियों की पराधीनता (Subjection of Women) नामक दो और विद्वत्ता पूर्ण तथा सारगर्भित ग्रन्थों की रचना की। पहिले ग्रन्थ में मिल ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि क़ानून बनाने के लिये राजनीति विशारद् विद्वानों का एक कमीशन रहना चाहिये क्योंकि प्रतिनिधियों की विराट् सभा में कानून बनाने की योग्यता का सर्वथा अभाव होता है। प्रतिनिधि-सभा को कमीशन द्वारा बनाये गये कानूनों के स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार होना चाहिये।

स्त्रियों की स्वाधीनता नामक ग्रन्थ में मिल ने स्त्री जाति की परतन्त्रता का बहुत ही हृदय-विदारक चित्र खींचा है तथा सिद्ध किया है कि स्त्रियां मनुष्यों से शारीरिक, मानसिक आदि किसी भी शक्ति में कम नहीं हैं। मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के कारण स्त्रियों को केवल अपने भोग विलास की सामग्री बना रक्खा है। संसार का कल्याण इसी में है कि मनुष्य अपनी स्वार्थपरता छोड़ कर स्त्रियों को समानाधिकार दें। इस पुस्तक से स्त्रियों के स्वाधीनता विषयक आन्दोलन को बड़ी सहायता मिली है।

इस के बाद मिल ने अपने कतिपय पुराने लेखों में कुछ संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्द्धन करके उपयोगिता वाद (Utilitarianism) नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराया। मिल के ग्रन्थों में यह ग्रन्थ भी बहुत महत्वपूर्ण है।

इसी बीच में उत्तर अमरीका तथा दक्षिण अमरीका में गुलामों के सम्बन्ध में युद्ध छिड़ गया। मिल तत्काल ही समझ गया कि यह युद्ध राज्यों के बीच में नहीं है वरन् स्वाधीनता तथा गुलामी के बीच में है। इस कारण उस ने उत्तर अमरीका के पक्ष में पत्रों में बहुत से लेख लिखकर प्रकाशित कराये।

कुछ समय के बाद मिल ने हैमिल्टन के तत्व-शास्त्र की परीक्षा (Examination of Hamilton's Philosphy) नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराया। उस समय सर विलियम हैमिलटन एक प्रसिद्ध तत्वज्ञानी समझा जाता था। वह दैववादी था। सन् १८६० तथा १८६१ ई॰ में उसके तत्वशास्त्र विषयक कुछ व्याख्यान छपकर प्रकाशित हुवे थे। इस पुस्तक में मिल ने विशेषतया इन्हीं व्याख्यानों पर समालोचनात्क दृष्टि डाली है।

सन् १८६५ ई॰ में वैस्टमिनिस्टर के आदमियों ने मिल से प्रार्थना की कि आप हमारी ओर से पार्लियामैन्ट की सभासदी के लिये खड़े हों। सन् १८५५ ई॰ में आयर्लैण्ड वालों ने भी उससे सभासदी के लिये उम्मैदवार होने की प्रार्थना की थी किन्तु मिल ने उन की प्रार्थना को कतिपय कारणों से अस्वीकार कर दिया था। एक तो ईस्टइन्डिया में नौकरी करने के कारण उस के पास समय नहीं था और दूसरे वह किसी पक्ष का आज्ञाकारी नहीं होना चाहता था और न सभासद् होने के लिये रुपया खर्च करना उचित समझता था। उस का कहना था कि जो मनुष्य अपने पास से रुपया ख़र्च करके सभासद् होता है वह मानो सभासदी मोल लेता है और प्रगट करता है कि मैं सार्वजनिक सेवा के विचार से नहीं वरन् अपने किसी स्वार्थ के कारण सभासद् होना चाहता हूं।

मिल ने वैस्टमिनिस्टर वालों की प्रार्थना को भी अस्वीकार करना चाहा, किन्तु उन लोगों ने किसी प्रकार पीछा छोड़ा ही नहीं। उनके इस प्रकार के आग्रह को देख कर मिल ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु साफ़ २ शब्दों में कह दिया कि न तो मैं वोट प्राप्त करने तथा रुपया व्यय करने के झंझट में पड़ूंगा और न इस बात का वचन दे सकता हूं कि सभासद् हो जाने पर स्थानीय बातों के विषय में अवश्य प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार की स्पष्ट बातें कह कर भी सभासद् निर्वाचित हो जाना मिल ही का काम था। इतना स्पष्टवादी तथा निस्पृह बन कर यदि सर्वशक्तिमान् ईश्वर भी इंग्लैण्ड की पार्लियामैन्ट का मैम्बर बनना चाहता तो न बन सकता था। लगातार तीन वर्ष तक मिल पार्लियामैन्ट का मैम्बर रहा। पार्लियामैन्ट में उस की वक्तृतायें बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली हुईं। इस का कारण यह था कि वह जो कुछ कहता था उस की पुष्टि में आकाट्य युक्तियाँ देता था। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध राजनीतज्ञ ग्लैड्स्टने उस की युक्तियों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। मिल विशेषतया उस पक्ष को लेता था जो ठीक होकर भी बलहीन होता था जिस समय आयर्लैण्ड के एक सभासद ने आयरर्लैंड के अनुकूल एक बिल पार्लियामैण्ट में उपस्थित किया था तो मिल ने ही सब से पहिले उस बिल का समर्थन किया था। यह बिल इंगलैण्ड तथा स्काटलैण्ड वालों को इतना अरुचिकर था कि उन में से मिल के अतिरिक्त केवल चार सभासदों ही ने इस बिल के पक्ष में सम्मति दी थी।

इस ही अरसे में जमैका द्वीप के हब्शी अग्रेजों के जुल्म से तङ्ग आकर सरकारी अफसरों के विरुद्ध उठे खड़े हुए थे। वहां के अंग्रेज़ी गवर्नर ने उन की शिकायतों के दूर करने के स्थान में पंजाब के ओडायर के समान सैंकड़ों निरपराधियों को गोली से उड़वा दिया था तथा विद्रोह शान्त हो जाने पर भी अबला स्त्रियों तक को चाबुक से पिटवाया था। जमैका के गवर्नर के इस नृशंस कार्य की जांच के लिये जमैका कमैटी नाम की एक सभा स्थापित हुई थी। मिल उस का सभापति था। मिल ने बहुत कुछ प्रयत्न किया कि उस दुष्ट गवर्नर को यथोचित दण्ड मिले किन्तु लोकमत विरुद्ध होने के कारण अपने प्रयत्न में कृतकार्य न हो सका। सन् १८६८ ई॰ में पार्लियामैण्ट का नया चुनाब हुवा। इस बार मिल के प्रतिपक्षियों ने बड़ा जोर बांधा। टोरी दल तो बिल्कुल विरुद्ध था ही भारत-हितैषी ब्राडला साहब के चुनाव में आर्थिक सहायता देने तथा जमैका के गवर्नर को दण्ड दिलाने का प्रयत्न करने के कारण बहुत से लिबरल दल वाले भी उसके विरुद्ध हो गये। परिणाम यह निकला कि इस बार मिल वैस्टमिनिस्टर की ओर से मैंबर निर्वाचित होने में असमर्थ रहा। वैस्टमिनिस्टर में मिल की असफलता का समाचार सुन कर तीन चार अन्य स्थानों के आदमियों ने मिल से इस बात का प्राग्रह किया कि वह उनके वहां से उम्मैदवारी के लिये खड़ा हो, किन्तु मिल ने फिर इस झगड़े में पड़ना उचित न सझता

पार्लियामैण्ट के झंझट से छुट्टी पाकर मिल ने फिर लेख लिखने का कार्य आरंभ कर दिया। Subjection of Women अर्थात् 'स्त्रियों की पराधीनता' नामक पुस्तक भी छपा कर प्रकाशित की।

सन् १८७३ ई॰ में ६७ वर्ष की आयु में मिल ने इस संसार को सदैव के लिये छोड़ दिया।

"हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था"

उमराव सिंह कारुणिक