आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ४ से – १० तक

 

 

पहला परिच्छेद

संवत् ११७६ की ग्रीष्म ऋतु का समय है। कड़ाके की धूप पड़ रही है। बंगाल के पदचिह्न नामक गाँव में घर तो बहुत हैं, पर आदमी कहीं नहीं दिखाई पड़ते। बाजार में कतार की कतार दूकानें हैं, छपरियों का तांतासा लगा हुआ है, हर टोले मुहल्ले में सैकड़ों मिट्टी के बने मकान नजर आते हैं, बीच-बीच में छोटी-बड़ी अटारियां भी दिखाई देती हैं, पर आज सब जगह सन्नाटा छाया हुआ है। बाज़ार की दूकानें बन्द हैं—दूकानदार किधर भाग गये हैं, पता नहीं। आज हाटका दिन है, तो भी हाट नहीं लगी। आज 'सदावर्ग' का दिन है; पर भिखमंगे मिक्षा लेने के लिये घर से बाहर निकले ही नहीं। जुलाहों ने आज कपड़ा बुनना छोड़ दिया है और घर के एक कोने में बैठे हुए रो रहे हैं। व्यापारी अपना रोजगार छोड़ बच्चे को गोद में लिये आँसू बहा रहे हैं। दाताओं ने दान देना बन्द कर रखा है, पण्डितों ने पाठशाला बन्द कर दी है शायद दूध पीते बच्चे भी खुलकर रोने का साहस नहीं करते। राजपथपर आदमी चलते फिरते नहीं नजर आते, सरोवरों पर कोई स्नान करने वाला नहीं दिखलाई देता, घर के दरवाजों पर कोई आदमी बैठा नहीं दीखता, पेड़ों पर पंछी न रहे, चरागाहों में गौए चरती नहीं दीखती—हाँ, श्मशान में स्यारों और कुत्तों की पलटन तैयार है। एक बड़ी सी अट्टालिका के बड़े बड़े छड़दार खम्भे दूर से उस गृहारण्य में शैलशिखर की तरह शोभा दे रहे हैं। पर यह शोभा भी कोई शोभा है? दरवाजे बन्द है, घर में कोई आदमी नहीं मालूम पड़ता, किसी तरह की आहट नहीं सुनाई देती। शायद हवा भी विघ्नों के भय से उस घर में प्रवेश करती हुई डरती है। मकान के भीतर इस दोपहर के समय भी अन्धेरा छाया है! उसी अन्धेरे घर के एक कमरे में एक अति सुन्दर स्त्री और पुरुष बैठे हुए सोच-सागर में डूब उतरा रहे हैं। उनके सामने प्रलयका दृश्य उपस्थित है।

संवत् ११७४ में फसल अच्छी नहीं हुई; इसलिये ११७५ में चावल की बड़ी महंगी रही, प्रजा घोर विपद में रही; लेकिन राजा ने अपनी मालगुजारी पाई-पाई वसूल कर ली। गुजारी बेबाक कर बेचारी दरिद्र प्रजा ने एक ही वक्त खाकर दिन बिताये। ११७५ में अच्छी बरसात हुई, लोगों ने सोचा, कि चलो, इस साल तो दैव की कृपा हो गयी। आनन्द से फूल के ग्वाले खेतों में गीत गाते हुए दिखाई देने लगे; गृहस्थी की स्त्रियाँ अपने स्वामी से चाँदी के गहने गढ़ा देने के लिये मचलने और हठ करने लगीं। यकायक आश्विन के महीने में विधाता बाम हो गये। आश्विन और कार्तिक में एक बूंद भी जल न पड़ने से खेतों के धान सूखकर खाक हो गये। किसी किसी के एक दो बीघों में धान नहीं सूखने पाये थे; पर वे सब राजा के नौकरों ने सैनिकों के खर्च के लिये ख़रीद लिये। अब तो लोगों को अन्न मुहाल हो गया। पहले तो लोगों ने कुछ दिनों तक एक ही बेला भोजन किया, फिर एक ही बेला आधा पेट खाकर बिताया, इसके बाद दोनों बेला उपवास करने लगे। चैत में थोड़ी बहुत रबी पैदा हुई सही पर वह भी सबके खाने भरको न हुई। इतने पर भी सरकारी तहसीलदार मुहम्मद रजा खाँ ने इसी मौके को अपनी खैरख्वाही दिखलाने के लिये अच्छा समझा और एकबारगी दस रुपया सैकड़ा लगान बढ़ा दिया। सारे बंगाल में घोर हाहाकार मच गया।

पहले तो लोगों ने भीख मांगनी शुरू की, पर भीख मिलनी भी मुश्किल हो गयी। कौन किसे भीख देता? सब लगे उपवास करने। धीरे-धीरे लोग बीमार पड़ने लगे। लोगों ने गाय गोरू बेंच दिये, हल-बैल बेंच दिये, बीज के अन्न खा डाले घर द्वार बेंच डाला, जगह-जमीन भी बेंच दी। इसके बाद लड़की बेचना शुरू किया। फिर लड़के बिकने लगे। अन्त में स्त्री बेचने की भी नौबत आ पहुँची। पर लड़का-लड़की और स्त्री भी कोई कहाँ तक खरीदे! खरीदारों का ही टोटा हो गया। सब बेचने को ही तैयार नज़र आने लगे। अन्न न मिलने पर लोग पेड़ के पत्ते नोच नोचकर खाने लगे। उससे हटे, तो घास खाने लगे। जङ्गली पेड़-पौधों पर दिन काटने लगे। नीच और जङ्गली लोग तो कुत्तों, बिल्लियों और चूहों को मार-मारकर खाने लगे। बहुत से आदमी देश छोड़कर भाग गये, पर वे विदेश में ही अन्न के अभाव-से मर गये। जो नहीं भागे, उनमें से कितने अखाद्य भोजन से भूखे रहने के कारण रोगी होकर प्राण-त्याग करने लगे।

मौका पाकर रोगों ने जोर पकड़ा। ज्वर, हैजा, क्षयी और चेचक का प्रकोप बढ़ गया। खासकर चेचक का तो बहुत ही जोर हुआ। घर घर में चेचक से मौत होने लगी। कौन किसे जल देता है? कौन किसे छूने जाता है? न कोई किसी की चिकित्सा करता है, न किसी को देखने जाता है, मरने पर कोई लाश उठाने वाला भी नहीं मिलता। लाशें घर में पड़ी पड़ी सड़ने लगीं। जिस घर में चेचक प्रवेश करती, उस घरके लोग डरके मारे रोगी को छोड़कर भाग जाते। इस ग्राम में महेन्द्र सिंह बड़े धनी थे। पर आज धनी-निर्धन सब एक ही भाव हो रहे हैं। इसी दु:ख की घड़ी में व्याधि-ग्रस्त हो, उनके सभी आत्मीय-स्वजन और दास-दासी उन्हें छोड़कर चल दिये। कोई मर गया, कोई भाग गया। आज उनके बहुत बड़े परिवार में केवल उनकी स्त्री, एक छोटी कन्या और स्वयं वे रह गये हैं। इस समय हम उन्हीं का हाल लिखते हैं।

उनकी पत्नी कल्याणी ने, लजा छोड़, गोशाला में जाकर स्वयं अपने हाथों दूध दूहा। उसे गरमकर कन्या को पिलाया और गौओंको घास और जल देने चली गई। उसके लौट आनेपर महेन्द्र ने कहा,—"इस तरह से कितने दिन चलेगा?"

कल्याणी ने कहा,—"बहुत दिन तो नहीं चलने का, पर जबतक चलता है चलाये जाती हूं। इसके बाद तुम लड़की को लेकर शहर में चले जाना।"

महेन्द्र—"जब शहर में गये बिना काम नहीं चलने का, तब फिर तुम्हें इतना दुःख क्यों दूं। चलो अभी चलें।"

इसपर दोनों में खूब तर्क-वितर्क होते रहे। अन्त में कल्याणी ने कहा—"क्या शहर में जाने से कोई विशेष उपकार होगा?"

महेन्द्र—"सम्भव है, वह स्थान भी ऐसा हो जनशून्य हो गया हो और वहां भी प्राणरक्षाका कोई उपाय न हो।"

कल्याणी—"मुर्शिदाबाद, कासिम बाजार या कलकत्ते जाने से प्राणरक्षा हो सकती है। अब तो यह स्थान अवस्य ही छोड़ देना चाहिये।"

महेन्द्र—"यह घर बाप-दादों के समय से सञ्चित धनों से परिपूर्ण है, इसे छोड़कर चले जानेसे तो सब लुट जायगा।"

कल्याणी—"यदि घर में लुटेरे आ ही पड़ेंगे, तो हमीं दोनों से रक्षा थोड़े हो सकेगी? जब प्राण ही न रहेंगे, तब धन कौन भोगेगा? चलो अभी घर में ताला बन्दकर चल दें। यदि प्राण बच गये,तो फिर लौट आनेपर इन सब चीजों की फिकर करेंगे।"

महेन्द्र—"क्या तुम पैदल रास्ता चल सकोगी? पालकी वाले कहार तो सब मर चुके। यदि बैल हैं, तो गाड़ीवान नहीं और गाड़ीवान हैं; तो बैल नहीं।

कल्याणी—"मैं पदल चल सकूंगी, तुम इसके लिये चिन्ता मत करो।"

कल्याणी ने मन ही मन सोचा, कि यदि मैं रास्ता न चल सकी, तो बहुत होगा मैं मर जाऊगी, पर ये दोनों बाप बेटी तो बच जायंगे। दूसरे ही दिन सवेरे दोनों स्त्री-पुरुष, थोड़ा-सा द्रव्य अपने साथ ले घर में ताला लगा, गाय गोरू को खुला ही छोड़, कन्या को गोद में ले राजधानी की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर चलकर महेन्द्र ने कहा—"रास्ता बड़ा ही विकट है, पग पगपर लुटेरे मिलते हैं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं। यह कह, वे लौट पड़े और घर—में से बन्दूक, और थोड़ी सी गोली बारूद ले ली।

यह देख, कल्याणी ने कहा—"हथियार को भी अच्छी याद दिलायी। तुम जरा सुकुमारी को गोद में लिये रहो—मैं भी कुछ हथियार सङ्ग ले लूं।" यह कह, कन्या को महेन्द्र की गोद में दे, कल्याणी भी घर के अन्दर जाने लगी।

महेन्द्र ने पूछा—"तुम कौन सा हथियार सङ्ग ले चलोगी?"

घर में आकर कल्याणी ने एक छोटी सी डिबिया निकाली और उसे अपने कपड़े के अन्दर छिपा लिया। उस डिबिया में जहर रखा हुआ था। विपत्ति के दिन हैं, न जाने कब क्या हो, यही सोचकर कल्याणी ने पहले से ही अपने पास विष रख लिया था।

जेठ का महीना था। कड़ाके की धूप से पृथ्वी आग से भरी भट्टी की तरह दहक रही थी। दोपहर की लूह आग की लपटों को मात करती थी। आसमान तपे हुए ताम्बेके चद्दर की तरह तप रहा था। रास्ते की धूल आग की चिनगारी बन रही थी। कल्याणी को राह चलते चलते पसीना आने लगा। वह कभी बबूल के पेड़ के नीचे, कभी खजूर की छाया में बैठकर, सूखे हुए सरोवर का गदला पानी पीकर बड़े कष्ट से रास्ता तय करने लगी। लड़की महेन्द्र की गोद में थी। वे रह रहकर उसके मुंह पर हवा करते जाते थे। इस तरह चलते चलते उन्हें हरे हरे पत्तों से सुशोभित, सुगन्धित कुसुमों से लदी हुई लताओंसे वेष्टित वृक्षों की सघन छाया मिली, दोनों ने बैठकर विश्राम किया।

महेन्द्र कल्याणी की श्रमसहिष्णुता देखकर विस्मित थे। पास में एक छोटासा जलाशय था, उसमें से अपना वस्त्र भिंगो लाये और उसी जलसे अपने मुंह, हाथ, पैर धोये।

कल्याणी का जी कुछ ठंढा हुआ। पर क्षुधा की ज्वाला से वे बड़े व्याकुल हो उठे। पर अपने पेट की उन्हें उतनी परवाह नहीं थी, जितनी कन्या के लिये थी। उसे वे भूखी-प्यासी नहीं देख सकते थे। इसलिये वे लोग फिर रास्ता चलने लगे। उसी भीषण आग की लूह में चलते हुए वे सांझ होते होते एक चट्टी में आ पहुंचे। महेन्द्र मन ही मन बड़ी आशा किये हुए थे कि चट्टी में पहुँचने पर स्त्री कन्या के मुंह में ठंढा पानी और प्राणरक्षा के लिये चार दाने अन्नके पहुंचा सकेंगे। पर चट्टी में तो आदमी जनका कहीं पता ही नहीं है। बड़े बड़े घर हैं, पर सब खाली पड़े हैं। आदमी सब भाग गये हैं। इधर उधर देख भालकर महेन्द्र ने स्त्री कन्या को एक घर में सुला दिया और आप बाहर आकर जोर जोर से आवाजें देने लगे, पर किसी ने उत्तर नहीं दिया।

महेन्द्र ने कल्याणी कहा,—"तुम जरा साहस करके थोड़ी देर अकेली बैठी रहो, मैं जरा देख; कहीं भगवान की दया से गाय मिल जाय, तो थोड़ा दूध दूह लाऊ।” यह कह महेन्द्र वहीं पर पड़ा एक छोटासा मिट्टी का घड़ा लिये बाहर निकले।

 

 
दूसरा परिच्छेद।

महेन्द्र के चले जाने के बाद कल्याणी अकेली बैठी, कन्या को गोद में लिये हुए, उस जनशून्य, अंधेरी कोठरी में चारों तरफ दृष्टि दौड़ा रही थी। उसके जी में बड़ा भय पैदा हो रहा था। कहीं कोई आदमी नहीं; किसी मनुष्य को आहटतक नहीं मिलती, केवल स्यार कुत्तों का भूकना सुनाई पड़ता था! वह मन ही मन सोच रही थी,—"मैंने क्यों उन्हें जाने दिया?