आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १० से – ११ तक

 

थोड़ी देर और भूख प्यास सह लेती।" फिर विचारा कि चारों ओर के किवाड़ बन्द कर दें पर किसी दरवाजे में किवाड़ नदारद थे, तो किसी के किवाड़में सांकल ही नहीं थी। इसी तरह वह चारों ओर देख रही थी कि सामनेके दरवाजेपर एक छाया-सी दीख पड़ी। आकार प्रकार तो मनुष्यका-पड़ा, पर शायद वह मनुष्य नहीं था। अत्यन्त दुबला पतला, सूखी ठठरीवाला, काला नङ्ग-धड़ग, विकटाकार मनुष्यका-सा न जाने कौन आकर दरवाजेपर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद उस छायाने मानों अपना हाथ ऊपर उठाया और हड्डी चाप भर बचे हुए अपने लम्बे हाथकी लम्बी और सूखी उंगलियोंको घुमाकर किसीको संकेत से अपने पास बुलाया। कल्याणी की जान सूख गयी। इतने में एक और छाया उस छायाके पास आकर खड़ी हो गयी। यह छाया भी पहली हीकी तरह थी। इस तरह एक एक करके न जाने कितनी ही छायायें आ पहुंचीं। सबकी सब चुपचाप आकर घरमें घुस गयीं। वह अन्धकारमय गृह, स्मशान-सा भयंकर मालूम पड़ने लगा! इसके बाद उन प्रेत-मूर्तियोंने कल्याणी और उसकी कन्याको चारों ओरसे घेर लिया। कल्याणी मर्छित हो गई। तब उन कृष्णवर्ण शीर्ण आकारोंने कल्याणी और उसकी कन्याको उठाया और उन्हें लिये हुए घरसे बाहर हो मैदान पारकर एक जङ्गल में घुस गये।

कुछ ही देर बाद महेन्द्र घड़ेमें दूध लिये हुए वहां आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि कहीं कोई नहीं है। उन्होंने चारों ओर बहुत ढूंढा, स्त्री और कन्याका नाम ले लेकर बार बार पुकारा, पर न तो किसीने उत्तर दिया, न किसीका पता चला।