आनन्द मठ/तेरहवाँ परिच्छेद

आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ५० से – ५३ तक

 

तेरहवां परिच्छेद।

इधर राजधानीके हर गलीकूचेमें हलचलसी मच गयी। खबर फैल गयी कि जो सरकारी खजाना कलकत्ते को चालान किया गया था, उसे संन्यासियोंने लूट लिया। संन्यासियोंको पकड़नेके लिये बहुतसे सिपाही और भाला-बरदार छोड़े गये इन दिनों अकालके मारे उस दुर्भिक्षपीड़ित प्रदेशमें सच्चे संन्यासी बहुत ही कम रह गये थे, क्योंकि संन्यासी भीख मांग कर खानेवाले ठहरे, पर यहां जब गृहस्थोंको ही खाना नसीब नहीं होता था, तब संन्यासियोंको भीख कौन देता? इसलिये जो लोग सच्चे संन्यासी थे, वे पेटकी मारसे काशी, प्रयाग आदि स्थानोंमें चले गये। हां, जो लोग अपनेको 'सन्तान' कहते थे, वे ही कमी तो संन्यासीका वेश धार कर लेते थे और कभी इच्छा होनेपर उसे उतार फेंकते थे। अब जब संन्यासियोंकी धर पकड़ होने लगी, तब सबोंने संन्यासोका बाना उतार फेंका। लालचके पुतले सरकारी नौकर, कहीं संन्यासियोंकी सूरत न देख, केवल गृहस्थोंके ही बर्तन भांडे फोड़कर सन्तोष करने लगे। केवल सत्यानन्द गेरुआ वसन किसी समय नहीं त्यागते थे।

उसी कृष्ण कल्लोलिनी क्षुद्र नदीके तौरपर रास्तेके किनारे एक पेड़के नीचे कल्याणी पड़ी है, महेन्द्र और सत्यानन्द एक दूसरेको आलिङ्गन किये, डबडवायी आंखोंसे ईश्वरकी गुहार कर रहे हैं, ऐसे समय नजीरुद्दीन जमादार सिपाहियोंके साथ वहां आ पहुंचा और सत्यानन्दका गला पकड़कर बोला, “यही साला संन्यासी है।"

दूसरे सिपाहीने इसी तरह महेन्द्रको भी पकड़ लिया। क्योंकि उसने सोचा, कि जब यह संन्यासीके साथ है, तब जरूर यह भी संन्यासी ही होगा। तीसरा घासपर पड़ी हुई कल्याणी को भी पकड़ने चला, पर यह देखकर लौट आया कि यह तो औरतकी लाश है। इसी विचारसे उन्होंने लड़कीको भी छोड़ दिया। वे लोग बिना कुछ कह सुने चुपचाप सत्यानन्द और महेन्द्रको बांधकर ले चले। कल्याणीकी लाश और नन्हीं सी लड़की बिना किसी रक्षकके वहीं पेड़के तले पड़ी रह गयी।

पहले तो शोक और प्रेमसे उन्मत्त होनेके कारण महेन्द्रको कुछ सुधबुध न थी। इसीलिये कहाँ क्या हो रहा है और क्या हो गया है, यह उनकी समझ में नहीं आया। उन्होंने सिपाहियों को बांधनेमें बाधा नहीं डाली, पर दो ही चार पग चलनेपर उनकी समझमें आ गया, कि ये तो हमें बाँधेलिये जा रहे हैं। कल्याणीकी लाश अभीतक बिना जली पड़ी थी और नन्हीं सी लड़की भी वहीं पड़ी रह गयी थी। सम्भव है कि उसे कोई खूंखार जानवर खा डाले। यह बात मनमें आते ही उन्होंने बड़े जोरसे दोनों हाथोंका बंधन तोड़ डाला, और पलक मारते ही एक जमादारको इस जोरसे लात मारी कि, वह धड़ामसे भूमिपर गिर पड़ा। वे एक और सिपाहीपर हमला करने जा रहे थे, कि बाकी तीन सिपाहियों ने उन्हें घेरकर काबूमें कर लिया और उनके हाथ पैर बांध दिये। दुःखसे कातर हो, महेन्द्रने ब्रह्मचारी सत्यानन्दसे कहा,

"आप थोड़ीसी सहायता करते तो मैं इन पांचोंको यमपुरीका रास्ता दिखा देता।" इसपर सत्यान्दने कहा,-"मेरी इन पुरानी हड्डियोंमें जोर ही कितना है? मैं जिन्हें गुहरा रहा था, उनके सिवाय मुझे और किसीका भरोसा नहीं है। जो होनहार है, उसके विरुद्ध चेष्टा न करो। हम दो आदमी इन पांचोंको परास्त नहीं कर सकते। चलो देखें ये हमें कहाँ ले जाते हैं। भगवान सब तरहसे भला ही करेंगे।"

दोनोंने फिर अपने छुटकारेकी कोई चेष्टा नहीं की और सिपाहियोंके पोछे पीछे जाने लगे। कुछ दूर चलनेपर सत्यानन्दने सिपाहियों से कहा, "भाई, मैं सदा हरिनान जपा करता हूं, क्या यह कोई जुर्म है?” जमादारको सत्यानन्द भलेमानससे मालूम पड़े। उसने कहा, "नहीं; तुम हरिनामका सुमिरन करो। हमलोग तुम्हें नहीं रोकते। तुम बूढ़े ब्रह्मचारी हो। तो शायद रिहाई भी पा जाओगे; पर इस शैतानको तो फाँसीका हुक्म हुए बिना नहीं रहता।"

यह सुन, ब्रह्मचारी मीठे स्वरमें गाने लगे;-

"धीर समोरे तटिनी तीरे वसति वने वर नारी।
मा कुरु धनुर्द्धर गमन विलम्बन मति विधुरा सुकुमारी ॥"

शहरमें आनेपर दोनों व्यक्ति कोतवालके सामने हाजिर किये गये। कोतवालने राजदरबारमें इत्तिला भेजकर महेन्द्र और ब्रह्मचारीको हवालात में भेज दिया। वह कारागार बड़ाही भयानक तुम था। जो वहां जाता वह जीता लौटकर नहीं आता था, क्योंकि कोई न्याय करनेवाला नहीं था। उस समय न तो अंग्रेजोंकी जेल थी, न अंग्रेजोंका इन्साफ। आजकल तो आईन कानूनका जमाना है उन दिनों पूरा अन्धेर था। कानूनके जमानेसे गैर कानूनी जमानेका मुकाबिला पाठक ही कर लें, हम क्या कहें!