आनन्द मठ/बारहवाँ परिच्छेद
अनेक कष्ट सहनेके बाद महेन्द्र और कल्याणीकी मुलाकात हुई। कल्याणी फूट फूटकर रोने लगी। महेन्द्र तो और भी फटफटकर लगे रोने धोनेके बाद आंखें पोंछने लगे। जितना अधिक आंखें पोंछते उतने ही अधिक आंसू उमड़ आते। आंसू रोकनेके लिये ही कल्याणीने खाने पीने की बात छेड़ दी। ब्रह्मचारीके अनुवर जो कुछ भोजन रख गये थे; उसको खानेके लिये उसने महेन्द्रसे अनुरोध किया। दुर्भिक्षके दिनोंमें अन्न व्यञ्जन कहां मिलते हैं। पर देशमें जो कुछ है, वह 'सन्तानों' के लिये सुलभ ही है। उस जंगलमें साधारण मनुष्यकी पहुंच नहीं थी, इसलिये इस दुर्गम वनके फलोंको कोई नहीं लेने आता था, नहीं तो जहां कहीं फल दिखाई पड़ते थे, भूखसे तड़पते हुए लोग उसे तोड़कर खा जाते थे। इसीसे ब्रह्मचारीके अनुचर अनेक तरहके जङ्गली फल और थोड़ा सा दूध रख गये थे। इन संन्यासियोंके बहुत सी गायें भी थीं। कल्याणीका कहा मान, महेन्द्रने पहले तो स्वयं कुछ फलाहार किया। इसके बाद दूधमेंसे थोडासा लड़कीको पिलाया और थोडासा बचाकर रख दिया कि फिर पिलायेंगे। इसके बाद ही दोनोंको नींद आने लगी और उन्होंने निश्चिन्त होकर कुछ देर विश्राम किया। नींद टूटनेपर दोनोंमें इस बातकी सलाह होने लगी कि अब कहां चलना चाहिये। कल्याणीने कहा,-"विपद की बात सोचकर ही घर छोड़कर बाहर निकले थे। पर अब देखती हूं कि घरसे तो बाहर ही विपद बहुत है। तब चलो, घर ही लौट चलें।” महेन्द्रका भी यही अभिप्राय था। वे चाहते थे कि कल्याणीको घरपर रख किसी को उसकी देख रेखके लिये ठीक कर चला आऊ और इस परम रमणीय अलौकिक, पुनीत मातृ सेवा-वरमें लग जाऊ। इसलिये वे झट राजी हो गये। इस तरह दोनों व्यक्ति पूरी तरह विश्राम कर कन्याको गोदमें ले पदचिन्ह ग्रामको ओर चले।
पर उस अगम वनसे पदचिन्ह जानेका रास्ता उन्हें नहीं मिला। उन्होंने सोचा था कि जङ्गलसे बाहर निकलते ही रास्ता मिल जायगा पर यहां तो बाहर निकलनेका ही रास्ता न मिला। वे बड़ी देरतक जङ्गलके भीतर भटकते रहे; फिर फिर कर उसी मठ में लौट आते थे। कहींसे रास्ता नहीं दिखाई देता था। सामने ही एक वैष्णवोंका बाना पहने हुए ब्रह्मचारी खड़े हंस रहे थे। उन्हें देख, महेन्द्रने झुझलाकर कहा-"बाबाजी! हंसते क्यों हो?"
बाबाजी--"तुम लोग इस वनमें कैसे आये?"
महेन्द्र-"चाहे जैसे आये, पर आ गये हैं।"
बाबाजी-फिर बाहर क्यों नहीं निकल पाते?" इतना कह वे फिर हंसने लगे। महेन्द्र झल्ला उठे, बोले,-"बड़े हंसने वाले बने हो; पर क्या तुम स्वयं बाहर निकल सकते हो?"
वैष्णव बाबाने कहा,-"हां, मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें अभी रास्ता दिखाये देता हूं। तुम दोनों अवश्यही किसी संन्यासी या ब्रह्मचारीके साथ यहां आये हो, नहीं तो इस मठमें आने जानेका रास्ता और किसीको नहीं मालूम है।"
यह सुन महेन्द्रने पूछा-“तो क्या आप भी सन्तान हैं?"
वैष्णवने कहा-"हां, मैं भी सन्तान ही हूं। आओ, मेरे साथ साथ चले आओ। मैं तुम लोगों को रास्ता दिखलानेके लिये ही यहां खड़ा हूं।"
महेन्द्र-“आपका नाम क्या है?"
वैष्णव--"धीरानन्द गोस्वामी।"
यह कह, धीरानन्द आगे आगे चले और महेन्द्र तथा कल्याणी उनके पीछे। बड़े टेढ़े रास्तेसे उन्हें जङ्गलके बाहर निकालकर धीरानन्द फिर उसी वनमें चले आये। आनन्द वनसे बाहर हो कुछ दूर जाते ही उन्हें हरे भरे वृक्षोंसे भरा हुआ मैदान दिखाई दिया। एक ओर तो मैदान था और दूसरी ओर जङ्गलके बगलसे सड़क चली जाती थी। एक स्थानपर वनके बीचमेसे बहती हुई एक छोटीसी नदी कल-कल कर रही थी। उसका जल निल और अति नीले रंगका था। नदीके दोनों ओरके सुन्दर शोभामय नाना भांतिके वृक्षोंकी छाया जलपर पड़ रही थी। तरह तरहके पक्षो वृक्षोंपर बैठे हुए कलरव कर रहे थे। वह मीठी मीठी बोलियां नदीके मधुर कल कल शब्दमें मिल जाती थीं। उसी तरह वृक्षोंकी छाया और जलके रंग भी आपसमें मिल गये थे। कदाचित् कल्याणीका मन भी उस छायामें रम गया। कल्याणी एक वृक्षके नीचे बैठ गयी और स्वामीसे भी बैठने के लिये अनुरोधं करने लगी। कल्याणीने स्वामीकी गोदसे कन्याको लेकर अपनी गोदमें बिठा लिया। इसके बाद स्वामीका हाथ अपने हाथमें लिये हुए वह कुछ देरतक चुपचाप बैठी रही। फिर पूछा,--"आज मैं आपको बड़ा उदास देख रही हूं। सिरपर जो विपद् आयी थी, वह तो टलही गयी, फिर यह उदासी किस लिये?"
महेन्द्रने एक लम्बी सांस लेकर कहा,-"अब मैं अपने आपेमें नहीं हूं। क्या करू' कुछ समझ नहीं आता।"
कल्याणी---"क्यों?"
महेन्द्र-"तुम्हारे खोजानेपर मेरे ऊपर जो बीती, उसका हाल कहता हूं, सुनो।"
यह कह महेन्द्रने सारी कथा व्यौरेवार कह सुनायी।
कल्याणीने कहा,-"मेरे ऊपर भी बड़े सङ्कट आये। मैं भी बड़ी मुसीबतमें पड़ गयी थो। पर वह सब सुनकर क्यो लाभ, इतना दुःख होनेपर भी मुझे कैसे नींद आ गयी थी, समझमें नहीं आता; कल रात पिछले पहर मुझे नींद आ गयी थी। नींदमें मैंने स्वप्न देखा, किस पुण्यबलसे मैंने वैसा स्वप्न देखा, नहीं कह सकती। मैंने देखा कि मैं एक अपूर्व स्थानमें पहुंच गयी हूँ। वहां मिट्टीका नामोनिशान नहीं है है केवल ज्योति अत्यन्त शीतल, तड़ित प्रवाहकी तरह अत्यन्त मधुर ज्योति। वहां मनुष्य नहीं है केवल ज्योतिर्मयी मूर्तियांहो दिखाई पड़ती हैं। वहां किसी तरह का शब्द नहीं होता केवल कहीं दूरपर मधुर गोत वाद्यकी तरह कोई शब्द सुनाई पड़ता है। नवविकसित लक्ष लक्ष मल्लिका मालती तथा गन्धराजकी गन्ध चारों ओर फैली है। वहां सबसे ऊपर, सबके दर्शनीय स्थानमें न जाने कौन बैठा है, मानों नील पर्वत अग्निके समान भीतर ही भीतर मन्द मन्द जल रहो हो। उनके सिरपर बड़ा भारी दीप्तमान किरीट शोभा पा रहा है। उनके चार हाथ हैं और उनके दोनों तरफ कौन थीं, मैं नहीं पहचान सकी कदाचित् वे स्त्री-मूर्तियां थीं, किन्तु उनमें इतना रूप, इतनी ज्योति, इतना सौरभ था कि मैं तो उनकी ओर देखते ही विह्वलसी हो गयी। और अच्छी तरह आंखें लगाकर न देख सकी और न पहवान सकी, कि ये कौन हैं। उन्हीं चतुर्भुज देवताके पास एक और स्त्री-मूर्ति थी। वह जी ज्योतिसे जगमगा रही थी; पर चारों ओर मेघ छा रहे थे, इसलिये ज्योति अच्छी तरह फूटकर बाहर नहीं निकल रही थी-धुधली दिखाई दे रही थी। इससे मालूम होता था, कि वह कुछ खिन्न सी हो रही है। मुझे ऐसा मालम पड़ा मानों कोई अत्यन्त रूपवती स्त्री मार्मिक वेदनाके कारण रो रही है। मन्द सुगन्धि युक्त वायुके तरङ्गोंमें प्रवाहित मैं भी उसो चतुर्भुजी मूर्ति के सिंहासनके सामने आ गयी। तब मानों उसी दुःखिता और मेघमण्डिता स्त्रीने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा-"बस यही है वह, जिसके कारण महेन्द्र मेरी गोदमें नहीं आता।" इसी समय मुझे सुरीली मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। उस चतुर्भुजने मानों कहा-"तुम स्वामीको छोड़कर मेरे पास चली आओ। यही तुम लोगोंकी मां हैं, तुम्हारा स्वामी इनको सेवामें लगने वाला है। यदि तुम अपने स्वामीके पास रहोगी, तो वह इनकी सेवा न कर सकेगा। तुम चली आओ।" मैं रो पड़ी और बोली, कि स्वामीको छोड़कर कैसे आऊँ? एक बार फिर वही मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी कि मैं ही स्वामी, मैं हो माता, मैं हो पिता, मैं ही पुत्र और मैं ही कन्या हूँ तुम मेरे निकट आ जाओ। इसपर मैंने क्या उतर दिया, याद नहीं है, क्योंकि इसके बाद ही मेरी नींद टूट गयी।" यह कहकर कल्याणी चुप हो गयी।
महेन्द्र भी विस्मय और भयसे चुप हो रहे। पेड़के ऊपर दहियल नामक पक्षा बोल उठा, पपीहा 'पी कहां के शोरसे आसमान गुजाने लगा, कोयलकी कूक दशों दिशाओं में गूज गयी, श्रृंगराज अपने सुरीले कण्ठसे काननको प्रतिध्वनित करने लगे। सामने नदी कलकल शब्द कर रही थी। हवा जङ्गली फूलोंकी भीनी भीनी सुगन्धमें सराबोर थी, बीच बीच में कहीं कहीं नदीके जलमें सूर्य की किरणें झलमला रही थीं। कहीं ताड़के पत्तोंका मृदु-मधुर मर्मर शब्द हो रहा था। दूरपर नीले रङ्गकी पर्वत श्रेणी दिखाई दे रही थी। इन सब सौन्दर्यका आनन्द लेते हुए दोनों बड़ी देरतक चुपचाप बेठे रहे। इसके बाद कल्याणीने पूछा-"क्या सोच रहे हो?"
महेन्द्र-“यही, कि क्या करूं। स्वप्न केवल निर्भाषिका मात्र है, यह आप ही मनमें उत्पन्न होता और आप ही लय हो जाता है। वह और कुछ नहीं जीवनका जलविम्ब मात्र है। चलो, घर चलें।"
कल्याणी-“देवता तुम्हें जहां जानेको कहें वहीं जाओ।" यह कहकर कल्याणीने कन्याको स्वामीकी गोदमें दे दिया।
महेन्द्रने कन्याको गोदमें लेकर पूछा-"और तुम तुम कहां जाओगी?"
कल्याणीने दोनों हाथोंसे आंखें मूद, सिरथामकर कहा, "मुझे भी देवता जहां जानेको कहेंगे, वहीं चली जाऊंगी।"
महेन्द्र चौंककर बोले-“वह जगह कहां है? वहां किस तरह?"
कल्याणीने स्वामीको जहरकी डिबिया दिखला दी।
महेन्द्रने विस्मित होकर पूछा--"क्या तुम विष खाओगी?"
"खानेका विचार कर चुकी थी, परन्तु" इतना कहकर कल्याणी कुछ सोचने लगी। महेंद्र उसके मुंहकी ओर ताकते रह गये। उन्हें एक एक पल एक एक वर्ष मालूम पड़ने लगा। कल्याणीने पूरी बात नहीं कही यह देख महेंद्रने पूछा--"तुम क्या कह रही थी कहो न?"
कल्याणी--"जानेका इरादा कर चुकी थी पर तुम्हें और सुकुमारीको छोड़कर बैकुण्ठमें भी जानेकी मेरी इच्छा नहीं होती। मुझसे मरा न जायगा।" यह कह कल्याणीने विषकी डिबिया जमीनमें रख दी। फिर दोनों व्यक्ति भूत और भविष्यके सम्बन्ध में बातें करने लगे। ध्यान बट गया। लड़कीने खेलते खेलते विषकी डिबिया उठा ली, दोनोंमेंसे किसीने न देखा।
सुकुमारीने उस डिबियाको कोई उमदा खिलौना समझा। उसने एक बार उसे बायें हाथले पकड़कर दाहिने हाथसे जोरसे दबाया। फिर दाहिने हाथ पकड़ कर बायें हाथ से दबाया। इसके बाद दोनों हाथोंसे उसे खोलनेकी चेष्टा करने लगी। अन्तमें डिबिया खुल गयी और विषको गोली नीचे गिर पड़ी।
गोली उसके पिताके कपड़ेपर गिरी थी। उसे देखकर सुकुमारीने सोचा कि यह कोई और भी अच्छा खिलौना है। डिबिया छोड़कर उसने गोलीको और हाथ बढ़ाया और उसे झटपट उठा लिया।
गोली उठाकर उसने मुंहमें डाल ली।
"क्या खाया? क्या खाया? हाय, सर्वनाश हुआ!” यह कह, कल्याणीने झट उसके मुहमें उंगली डाल दी। दोनोंने देखा कि विषकी डिबिया खाली पड़ी है। इसे भी एक तरहका खेल समझकर सुकुमारी अपनी नन्हीं नन्हीं दंतुलियां निकाल अपनी मांकी ओर देखकर हँसने लगी। इतने में विषकी गोली जो कसैली मालूम पड़ी तो सुकुमारीने झट मुंह बा दिया और कल्याणीने गोली उसके मुंहसे बाहर निकालकर फेंक दी। बालिका रोने लगी।
गोली ज्योंकी त्यों जमीनमें पड़ी रही। कल्याणी दौड़ी नदी से आंचल भिगो लायी और कन्याके मुंहमें जल निचोड़ने लगी। उसने अधीर होकर महेन्द्रसे पूछा,-"क्या कुछ जहर पेटमें भी चला गया है?
सबसे पहले सन्ततिकी दुष्कामना ही मां बापके ध्यान में आती हैं। जहां अधिक प्रेम होता है, वहां आशंका भी अधिक होती है। महेन्द्रने पहले नहीं देखा था, कि विषकी गोली कितनी बड़ी थी। यह प्रश्न सुन, उसे अच्छी तरह देख भालकर बोले,—"हां, मालूम होता है, कि बहुतसा खा गयी है।"
कल्याणीको भी सहज ही इस बातका विश्वास हो गया। वह भी बड़ी देरतक विषकी गोलीको देखती रही। थूकके साथ विषका कुछ अंश पेटमें चला गया था, अतएव विषके प्रभावसे वह बेहोश होने लगो। वह छटपटाने लगी और रोती रोती एक-दम बेसुध हो गयी। तब कल्याणीने स्वामीसे कहा,—"अब क्या देखते हो? सुकुमारोको देवताओंने बुला लिया। वह जिस राहपर गयी है, मुझे उस रोहपर जाना है।" यह कह, कल्याणी उस विषकी गोलीको मुंहमें डालकर तुरत ही निगल गयी।
महेन्द्र रो पड़े बोले,—"हाय! कल्याणी! तुमने यह क्या कर डाला?"
कल्याणीने कुछ उत्तर न दिया, स्वामीके पैरोंको धूल माथे चढ़ाकर बोलो,—"स्वामी,अब बातें करना व्यर्थ है, मैं तो चली।"
"हाय! कल्याणी! यह तुमने क्या कर डाला।" यह कहकर महेन्द्र जार जार रोने लगे। कल्याणीने बड़े ही धीमे स्वरमें कहा,—"मैंने जो कुछ किया है, अच्छा हो किया है। नारीके कारण तुम्हें देवताके कार्यसे विमुख होना पड़ता। मैंने देवताकी बात टाल देनी चाही थी, इससे मेरी लड़कीके प्राण गये। अधिक अवज्ञा करती,तो कदाचित् तुम्हींको खोना पड़ता।"
महेन्द्रने रोते हुए कहा,—"मैं तुम्हें कहीं रख आता। जब हमलोगोंका कार्य सिद्ध हो जाता, तब फिर तुम्हें लेकर सुखसे जीवन बिताता। कल्याणी! तुम्हारे ही दमतक तो मेरा इस दुनियांसे नाता था। तुमने आज यह क्या कर डाला? जिस हाथके बलपर मैं तलवार पकड़ता वही हाथ तुमने आज काट डाला। तुम्हारे बिना अब मैं व्यर्थ हूं।" कल्याणी,-"तुम मुझे कहां ले जाकर रख आते? ऐसा कौन स्थान रह गया है? माँ, बाप सभी तो इस अकाल चक्करमें पड़कर मर गये। फिर मेरे लिये किसके घरमें जगह थी, जहां ले जाते? मुझे कौन सी राह ले जाते, तुम्हीं कहो? मैं तुम्हारे गलेकी फांस थी, मर गयी, बला टली। अब मुझे आशीर्वाद दो, कि मैं मरकर उसी ज्योतिर्मय लोकमें जाऊ और वहीं तुमसे मिलूं।" यह कहकर कल्याणीने फिर स्वामीकी पदरज माथेपर चढ़ायी। महेन्द्र कुछ बोल न सके, फिर रोने लगे। कल्याणी अति मृदु, अति मनोहर, अति स्नेहमय कण्ठसे फिर कहने लगी,-"देवताकी इच्छाको कौन टाल सकता है?उन्होंने मुझे संसारसे विदा होनेकी आज्ञा दी है, अब मैं चाहूं भी तो ठहर नहीं सकती। यदि मैं अपने आप विष खाकर न मरती तो मुझे और ही कोई मारता। इसलिये प्राण देकर मैंने कुछ बुरा काम नहीं किया। तुमने जो व्रत ग्रहण किया है, उसे काय वचन मनसे सिद्ध करो, इससे तुम्हें पुण्य होगा। इसी पुण्यके प्रभावसे मुझ स्वर्ग मिलेगा। फिर हम तुम इकट्ठे हो अनन्त कालतक स्वर्गका सुख भोग करते रहेंगे।" इधर सुकुमारोने एक बार वमन किया, इससे वह कुछ सम्हल गयी। उसके पेट में इतना विष नहीं पहुंचा था, जिससे जान निकल जाती। उस समय महेन्द्रका ध्यान उसकी ओर नहीं था। वे कन्याको कल्याणीको गोदमें रख, दोनोंको गाढ़ आलिङ्गन कर रोने लगे। उसी समय जङ्गलके भीतरसे मृदु, पर मेघकी तरह गम्भीर शब्द सुनाई दिया,-
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!
गोपाल! गोविन्द! मुकुन्द! शौरे!”
उस समय कल्याणीको नस नसमें विष प्रवेश कर रहा था, उसकी चेतना कुछ कुछ लुप्त हो रही थी। उसने बेहोशोकी ही हालतमें सुना मानों उसी बैकुण्ठमें उसी बंसीकी सुरीली तानमें कोई गा रहा है:-
{{Block center|“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!
गोपाल! गोविन्द! मुकुन्द! शौरे!"
कल्याणी भी उसी बेहोशोकी हालतमें अपने सुमधुर कण्ठले पुकार उठी,"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!” उसने महेन्द्रसे कहा,-"बोलो--हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
जङ्गलसे आते हुए उस मधुर स्वर तथा कल्याणीके मुंहसे निकले हुए मधुर स्वरसे विमुग्ध हो, ईश्वरकी सहायतामें विश्वास कर, कातरचित्त महेन्द्र भी कह उठे,
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
फिर तो चारों ओरसे यही ध्वनि उठने लगी-"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!" मानों पेड़ों पर बैठे पक्षो भी कहने लगे:-
“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”
नदीके कल कल नादसे भी मानों यही ध्वनि निकलने लगी,
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
उस समय महेन्द्र अपना सारा शोक सन्ताप भूल गये। पागलोंकी तरह कल्याणीके सुरमें सुर मिलाकर कहने लगे,-
“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
जङ्गलके भीतरसे भी मानों उन्हींकी तानमें तान मिलाकर कोई कह रहा था:-
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
क्रमशः कल्याणीका कण्ठ-स्वर धीमा पड़ने लगा। तोभी वह कह रही थी,
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
धीरे धोरे कण्ठ बन्द हो गया। कल्याणीके मुंहसे आवाज नहीं निकलती। उसको आंखें बन्द हो गयीं, देह ठंढी पड़ गयी। महेन्द्र समझ गये, कि कल्याणी “हरे! मुरारे!” रटती
४ रटती बैकुण्ठ धामको चली गयी। तब पागलोंकी तरह ऊंचे स्वरसे काननको कम्पित करते और पशु पक्षियोंको डराते हुए महेन्द्र पुकारने लगे,-
“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
उसी समय न जाने किसने वहां जाकर उन्हें अपनी छातीसे लगा लिया और उनके गले में गला मिलाकर पुकारने लगा,
"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"
फिर तो दोनों व्यक्ति उसी अनन्तकी महिमासे, उस अनन्त अरण्यमें, उस अनन्त पथगामिनीके शरीरके सामने बैठे हुएअनन्त भगवानका नाम ले लेकर पुकारने लगे। पशु पक्षी चुप हैं, पृथ्वी शोभामयी हो रही है। वह स्थान और समय इस परम सङ्गीत के लिये पूर्ण रूपसे उपयुक्त था, सत्यानन्द महेन्द्रको गोदमें लेकर बैठ गये।