आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ९३ से – ९४ तक

 

छठा परिच्छेद

दीक्षा समाप्त कर सत्यानन्द महेन्द्रको एकान्त स्थानमें ले गये। दोनोंके बैठ जानेपर सत्यानन्दने कहा,-“देखो, बेटा! तुमने जो यह महाव्रत ग्रहण किया है, उससे मैं समझता हूं कि भगवान् हम लोगोंके प्रति अनुकूल हो रहे हैं। तुम्हारे हाथों माँका बहुत काम निकलेगा। तुम खूब मन लगाकर मेरी बातें सुनो। मैं तुमको जीवानन्द और भवानन्दके साथ-साथ वन-वन भटकते हुए युद्ध करनेको नहीं कहता। तुम पदचिह्न ग्राममें लौट जाओ। तुम्हें घरपर रहकर ही सन्तानधर्मका पालन करना होगा।"

यह सुन, महेन्द्र बड़े हो विस्मित और दुःखित हुए, पर कुछ बोले नहीं। ब्रह्मचारी कहने लगे,-"यहां हमारा कोई आश्रय नहीं है-ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ यदि कोई प्रबल सेना आकर हमें घेर ले, तो हम रसद पानी ले, दरवाजा बन्द कर दस दिन निर्विघ्न रह सकें। हमारे पास कोई किला तो है नहीं तुम्हारे महल अटारी है, गांवपर तुम्हारा रोबदाब है। मेरी इच्छा है कि वहां एक गढ़ बनाऊँ। खाई और शहरपनाहोंके द्वारा पदचिह्न ग्रामको अच्छी तरह घेरकर, बीच बीचमें पहरेका इन्तजाम कर देने और बांधके ऊपर तोपें बैठा देनेसे बड़ा बढ़िया किला तैयार हो जायगा। तुम अपने घर चले जाओ, धीरे-धीरे सन्तान-सम्प्रदायके दो हजार आदमी भी वहां पहुंच जायेंगे। वेही लोग यह खाई और बांध वगैरह तैयार कर देंगे। तुम वहां एक बड़ासा लोहेका मकान बनवा लेना, जिसमें सन्तानोंका खजाना रहेगा। मैं अशर्फियोंसे भरे हुए सन्दूक एक एक कर तुम्हारे पास भेजता रहूंगा। तुम उसी धनसे धीरे-धीरे यह सब काम पूरा करा लेना। मैं जगह जगहसे होशियार कारीगर ढूढ़ कर वहां भेजूंगा। उनके पहुंच जानेपर तुम वहां कारखाना खोल देना, जिसमें तोप, गोला, गोली, बारूद, और बन्दूकें तैयार हुआ करेंगी। मैं इसीलिये तुम्हें घर जानेको कह रहा हूं।" महेन्द्रने सब स्वीकार कर लिया।