आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ९१ से – ९३ तक

 

पांचवां परिच्छेद

बातचीत समाप्त कर, सत्यानन्दने महेन्द्रको लेकर मठके भीतरवाले मदिरमें, जहां वह शोभामयी प्रकाण्ड चतुर्भुज मूर्ति विराजती थी, प्रवेश किया। उस समय वहांकी शोभा बड़ी ही विचित्र थी। सोने, चांदी और रत्नोंसे जगमगाते हुए प्रदीप मन्दिरको आलोकित कर रहे थे। ढेरके ढेरे फूल शोभायमान होते हुए मन्दिरमें सुगन्ध फैला रहे थे। एक आदमी वहां बैठा हुआ धोरे धीरे “हरे मुरारे" कह रहा था। सत्यानन्दके भीतर घुसते ही उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मचारीने पूछा-“तुम दीक्षित होना चाहते हो?"

उसने कहा, "मेरे ऊपर दया कीजिये।"

यह सुन, उसे और महेन्द्रको सम्बोधन कर सत्यानन्दने कहा-"तुम लोगोंने यथाविधि स्नान कर लिया है न? अच्छी तरहसे संयम और उपवास किये हुए हो न?"

उत्तर-"हां"

सत्या०--"अच्छा, तुम लोग यहीं भगवान के सामने प्रतिज्ञा करो कि हम सन्तानधर्मके सब नियमोंका पालन करेंगे।'

दोनों-"करेंगे।"

सत्या०-"जबतक माताका उद्धार नहीं हो जाता, तबतक गृहस्थधर्मका परित्याग करोगे न?”

दोनों-"हां, करेंगे।"

सत्या०-"मां-बापको त्याग दोगे?"

दोनों-"हां।"

सत्या०-"भाई-बहनको?"

दोनों०-"हाँ, उन्हें भी छोड़ देंगे।" सत्या०-"स्त्री-पुत्रको?"

दोनों-"उन्हें भी त्याग देंगे।"

सत्या०-"सगे-सम्बन्धियों और दास-दासियोंको?"

दोनों-"उन्हें भी छोड़ देंगे।"

सत्या०—“धन, सम्पद्, भोग विलास?"

दोनों-"आजहीसे इन सबको छोड़ देंगे।"

सत्या०-“इन्द्रियोंको वशमें रखोगे न? कभी किसी स्त्रीके साथ एक आसनपर न बैठोगे?"

दोनों,-"नहीं बैठेंगे। इन्दियोंको वशमें रखेंगे।"

सत्या०-"भगवान्के सामने प्रतिज्ञा करो, कि अपने लिये या अपने सगे-सम्बन्धियोंके लिये अर्थोपार्जन न करोगे। जो कुछ पैदा करोगे, उसे वैष्णवोंके धनागारमें दोगे।"

दोनों-"हां, ऐसा ही करेंगे।"

सत्या०-"सन्तानधर्मके लिये स्वयं अस्त्र हाथमें लेकर युद्ध करोगे न?"

दोनों,-"हाँ"

सत्या०-"रणसे कमी पीछे तो न हटोगे?"

दोनों-"कभी नहीं।"

सत्या०-“यदि तुम्हारी यह प्रतिज्ञा भङ्ग हो जाय?"

दोनों-"तो जलती चितामें प्रवेश कर या विष खाकर प्राण त्याग कर देंगे।"

सत्या०-"एक बात और है। तुम किस जातिके हो, महेन्द्र तो कायस्थ है।"

दूसरेने कहा-“मैं तो ब्राह्मणका बालक हूं।"

सत्या--"अच्छी बात है। क्या तुम अपनी जाति त्याग कर सकोगे? सब सन्तानोंकी जाति एक है। इस सदाव्रतमें ब्राह्मण शूद्रका कोई विचार नहीं है। बोलो, कहते हो?" दोनों-"हम सब एकही मांकी सन्तान हैं। अतएव हम-लोग जाति-पांतिका विचार न करेंगे।"

सत्या०-"तब आओ, मैं तुम लोगोंको दीक्षा दूं। तुम लोगोंने जो प्रतिज्ञाए अभी की हैं, उन्हें कभी न तोड़ना। स्वयं मुरारी इसके साक्षी रहेंगे जिन्होंने रावण, कंस, हिरण्यकशिपु, जरासन्ध, शिशुपाल आदिको मार डाला था; जो सर्वान्तर्यामी, सर्वमय, सर्वशक्तिमान और सर्व नियन्ता हैं: जो इन्द्रके वज्र और बिल्लीके नखोंमें तुल्यरूपसे वास करते है, वे ही प्रतिज्ञा भंग करनेवालेको मारकर घोर नरकमें डाल देंगे।" दोनों-“बहुत अच्छा।

सत्या०-"अच्छा, तो अब गाओ-वन्देमातरम्।”

दोनों ही उस अकेले मातृमन्दिर में मातृ-स्तुतिका गान करने लगे। इसके बाद ब्रह्मचारीने उन लोगोंको यथाविधि दीक्षा दी।