आदर्श हिंदू ३/६९ प्यारा सिंगारदान

आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ २२५ से – २३३ तक

 
प्यारा सिंगारदान

“पंडित जी ! पंडित जी होत ! अरे पंडित जी ! यहाँ कोई है भी ? किवाड़ा खोलो! किंवाड़ा! वाह खुब आदमी हैं! भीतर सुरबुर सुरबुर बातें करते हैं मगर किंवाड़ा नहीं खोलते । (किवाड़े में लात मारकर ) ये साले टूटते भी तो नहीं हैं । एक, दो, तीन, चार लाते मारी और खूब जोर जोर से मारी परंतु किवाड़े खुले नहीं। आनेवाले ने दो चार गालियाँ भी सुनाई' परंतु जवाब नहीं मिला । “खोलूं कैसे ? अनजान आदमी है । उसके सामने जाने में लाज आती है। सरकार का प्रणायाम चढ़ रहा है। अभी उतरने में दस मिनट चाहिएँ । निपुते भोला का कहीं पता नहीं। मुआ पड़ा होगा कहीं चंडूखाने में। रामप्यारी और राधा दोनों ही गायब हैं। अब खुलवाऊँ भी तो किससे ? अरे नन्हा जाकर तूही कुंडी खोल आ !" कहकर प्रियंवदा ने बच्चों को समझाया परंतु उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया। यदि जोर से कहकर समझाती है तो ध्यान छूटता है और धमकाती है तो दोनों लड़के रो रोकर घर भर डालेंगे । बस सुरबुराइट इसी बात की थी। अंत में हारकर खिड़की में से देवरानी की ओर उसने इशारा किया और वहाँ से कांतानाथ ने आकर

आ० हिं०-१५ तिवारी खोलें ।"क्यामेंह बरसता था अथवा डाका पड़ गया जो चिल्ला चिल्लकर कान की चैलियां खड़ा डाली । खोंपड़ी खा डाली' ।” कहते हुए छोटे भैया ने आगंतुक के कुछ डांटा और "लीजिए साहब ! सँभालिए साहब ! लाइए रसीद और इनाम ?" कहकर उसने एक ट्रंक उनके आगे रख दिया। "हैं ट्रंक ? यह ट्रैक कैसा ? हमारा नहीं है। देखूं नाम ? हैं ! नाम तो भाई साहब का है !" यों कहकर कांतानाथ ने उसे सँभालने में कुछ अनाकानी की, तब पहें की ओट में भौजाई से इशारा पाकर उसे रख लिया और चपरासी को इनाम देकर विदा किया ।

उसके चले जाने के बाद ऊपर ले जाकर ट्रक खोला गया। देवर भाजाई ने मिलकर उसका एक एक करके सामान सँभाला तो सूची के अनुसार पुरा निकला। बस उधर जरूरी काम के लिये कांतानाथ चल दिए और इधर प्रियानाथ का आब्लिक समाप्त हुआ । आसन पर से उठकर पतिराम यहाँ आए और तब कुछ मुसकुराकर कहने लगे--

"आपका सामान सब आ गया ? राई रत्ती पुरा ? काजल टिकुली दुरुस्त ?"

“जी हाँ दुरुस्त । आज मानों लाख रुपए पा लिए ।"

"अच्छा पा लिए वे मुबारिक हो !"

“हाँ मुबारिक हो ! आपको मुबारिक हो। क्योंकि इसमें सामान भी तो आपका है ।" "क्या काजल, टिकुली, सिंदूर और मेरी मैं लगाऊँगा ?"

"नहीं आप नहीं ! मैं ! मेरे लिये सौभाग्य-द्रव्य है और आपकी बदौलत है ।"

"अच्छी बात है ।"

“हाँ बात तो अच्छी ही है परंतु कई वर्षों में क्यों छाया ?"

"इसलिये नहीं आया कि तुझे गंगातट पर जब लठैतों ने पकड़ा तब तू चिल्लाई नहीं ! तू चिल्लाती तो शायद कोई मदद को भी आ पहुँचता ।"

“हैं ! तो आपकी अदालत ने मुझसे सफाई के जवाब लिए बिना ही सजा दे दी ।"

"नहीं ! हमारी अदालत ने नहीं दी । संयोग की अछालत ने दी ।"

“ठीक । तो इस मुए संयोग ने ही मेरी जवान बंद कर दी । न वे क्लोरोफार्म सुंघाते और न मैं बेहोश होती ।"

“ठीक है ! मुनासिब है।"

"हाँ मुनासिब तो है परंतु इस ट्रंक के आने में इतनी देरी क्यों हुई ? मथुरा स्टेशन पर पुलिस पर आपका प्रभाव पड़ता देखकर तो मैंने समझा था कि पाँच सात दिन में आ जायगा । उस समय अन्य आपने पुलिस को इतना दबदबा दिखलाया था तो फिर भीड़ में से निकलने के लिये उससे मदद क्यों न ती १ यह तो मैं तब पूछना ही भूल गई थी ।" "यदि हुजूर तब पूछना भूल गई थीं तो अब सही। अब पृछ लीजिए | दबदबा उसी पर चला करता है जो दवता दबाता है। दबदबा चले तो घर की जोरू पर चले, जिसका भी अब जमाना नहीं रहा। अब जेरू खसम और ( विनोद से ) खसम जेरू । तैने ही एक बार जोरू बनकर उमर भर के लिये मुझे जोरू बना लिया ।"

“जन्म भर के लिये ही नहीं ! जन्मजन्मांतरों तक, भगवान् सदा ही मुझे आपकी दासी बनाए रखें । मैं जोरू और आप खसम ! अथवा कभी पलटा खा जाय तो आप जोरू और मैं खसम ! अथवा पारी पारी से ।"

"जैसी सरकार की मर्जी ! राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज्ञा है, याँ यों भी वाह वा है तो यों भी वाह वा है ।"

"और क्या यों नहीं-“है इत लाल कपेत व्रत, कठिन नेह की चाल, मुख सो आह न भाखियों निज सुख करे हलाल ।" और वह नेह भी बनावटी नहीं। बनावटी देह में तुरंत ही “चीनी में बाल" आ जाया करता है। दंपती का नेह अलौकिक होता है। यदि उसमें ईश्वर की सत्ता न हो तो प्राणनाथ की चिता में अपने प्यारे प्राण कौन होम दे । संसार में सबसे बढ़कर प्यारा प्राण होता है किंतु हिंदू नारी के लिये प्राओं से भी प्यारा प्राणप्यादा है ।" "हाँ बेशक !"

“हाँ बेशक नहीं मेरे प्रश्नों का उत्तर दीजिए ।" “हाँ सरकार लीजिए। उत्तर लीजिए और जो चाहे सो लीजिए। सब कुछ हाजिर है। अच्छा सुनिए। दबदबा जमाया नहीं था स्वभाव से उस पर पड़ गया हो तो जुदी बात है । और यदि पड़ा भी तो मेरे नाम का कार्ड पढ़कर एक के सुपरिटेंडेंट का ओहदा जानने से । बस ओदहा गया और दबदबा भी साथ ही चला गया। और पुलिस से मदद न लेने का कारण तू जानती है । बस रेल की यात्रा का अनुभव ।”

"खैर ! यह तो हुआ परंतु ट्रक देरी से क्यों आया ?"

“अरे इतनी चटपटी ! इतनी घबड़ाहट !! इस ट्रैक पर इतना प्रेम !!!"

"प्रेम न हो ? इसमें प्राणप्यारे की यादगार है। पहले दिन की बखशिश है !"

“अब तो ( हँसकर ) बड़ी बड़ी बखशिशें मिल गई’ !"

“हाँ ! मिल तो गई परंतु इस सिंगारदान का आनंद इसी में है। यह दांपत्य प्रेम के साहित्य-शास्त्र का प्रथम पाठ है। इसमें ऐसी सामर्थ्य है कि यह उस दिन का फोटो खड़ा कर देता है ।"

"अच्छा तो देरी से आने का कारण यह हुआ कि अखालत में पहुँचने पर इसका एक और दाबहार खड़ा हो गया था। इसके लिये वकील करने पड़े, गवाह और सुबूत पेश करने पड़े यहाँ तक कि जो जो चीजे' इसमें थी उनके खरीदने तक का सुबूत देना पड़ा।" " ओहो ! तब इसके लिये आपको बहुत परिश्रम करना पड़ा , बछुत खर्च करना । तब इससे, विशेषकर इस' (खोलकर दिखाती हुई) सिंगरदान से और भी प्रेम बढ़ गया ।"

"प्रेम बढ़ते पढ़ते कहीं यहाँ तक न बढ़ जावे कि मेरा प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो जाय, हिस्सेदार खड़ा हो जाय ।"

"जाओ जी ( लजाकर ) ऐसी बाते न करे ! हिस्सेदार बन जाय तो मुए को अभी तोड़ मड़ोकर फेंक दूं ।"

"नहीं नहीं ! सरकार नाराज़ न हूजिए। कुसूर इसका नहीं, मेरा है। जो सजा देनी हो मुझे दीजिए ! ताब्वेदार हाजिर है ।"

“आपको ! ( शर्माकर } आपको सजा ! आपको सजा यही है कि कृष्णचरित्र का कुछ रहस्य सम्झाइए। आपने ( चैदहवें प्रकरण में ) पहले एक बार, शायद मथुरा में, वादा भी किया था ।"

"हाँ ! उस समय बहुत हिस्सा समझाया था और अध्यात्म सुनाने का वादा भी किया था। जो जो बातें उस समय कही थीं वे तुझे भली प्रकार याद होंगी। उन्हें दुहराहे की आवश्यकता नहीं। अध्यात्म का नमूना श्रीमद्भागवत के "पुरंजनेपाख्यान में है। उसमें जैसे सारा किस्सा शरीर पर घटाया गया है वैसे ही विद्वान् सारे ही कृष्णुचरित्र को, रामचरित्र के मनुष्य के शरीर पर घटाते हैं । एक महात्मा ने "तुलसीकृत रामायण" की सारी कथा आदमी के शरीर पर घटा दी है। “प्रबोधचंद्रोद्य" भी इसका नमूना है और “महामोहविद्रावा" भी ।"

“अच्छा तो थोड़ा सा और स्पष्ट कर दीजिए ताकि इन पुस्तक से टटोलने में सुगमता रहे ।" । “आनंद तो उन ग्रंथों के पढ़ने ही से आएगा, और उनके बताए रास्ते पर चलने से समझ में भी ठीक आ सकता है। हाँ थोंड़े में यह है कि उनमें अहंकार रावण और काम क्रोधादिक उसके राक्षस हैं और जीवात्मा हैं भगवान् रामचंद्र । बस उन्होंने सदगुणों की सेना की सहायता से अहंकारादि को विजय किया है ।"

"तब क्यों जी ! क्या भारत और रामायण की कथा मिथ्या है ? जब ऐसा ऐसा अध्यात्म ही भरा है तब उसे व्यास जी और वाल्मीकि जी की कल्पना समझना चाहिए ।"

"नहीं ! ऐसा कदापि नहीं ! अध्यात्म भी सत्य है। और कथा भी सत्य हैं। जैसा अधिकारी उसके लिये वैसा ही मसाला है । “पुरंजनेयाख्यान' लिखकर व्यास जी ने पंडित्तों को केवल नमूना दिखला दिया है, इसलिये कि पंडित यदि थोंड़ी सी मेहनत करें ते सारे भागवत का रहस्य समझ सकते हैं।"

“अच्छा तो अब मैं समझ गई । पर तु मुझे तो आपका अध्यात्म कुछ नीरस सा जान पड़ा ।" “बेशक नीरस सा ही हैं। छहों रसों को गड़बड़ करके खा जाने वाला जो महात्मा वेदांती और संस्कारल्यागी विद्वान् है उसके लिये भले ही सरस हो किंतु हम भक्त जनों के लिये नीरस !"

“हाँ सत्य है । सचमुच सरस तो हरिकथा है ।"

"बेशक !"

जिस समय दंपती की इस तरह बातें हो रही थीं कमला और इंदिरा, दोनों ही पास बैठे बैठे खेल रहे थे । कभी अपना खेल बंद करके दंपती की विनोद भरी बाते खुब ध्यान से सुनते, कभी इन्हें मुसकुराते हुए देखकर खूब खिलखिलाकर हँसते और कभी उस सिंगारदान पर अपना अपना दावा कायम करके "य मेरा !" " यह मेरा !" कहकर आपस में झगड़ते, नोचते और गुश्तसगुश्ता हो जाते थे। इस खैंचतान में काजल की डिविया खुल जाने से दोनों के हाथ काले हो गए, दोनों ने अपने मुँह पर सिंदूर पोत झाला और टिकुलियां की डिबिया खुलकर वे सब बिखर गई । बस अब आपस में आईने पर झगड़ा हुआ। एक ने दूसरे के हाथ से छीन लिया और दूसरा पहले के हाथ से छीनकर ले भागा। इस पर एक रो रोकर खूब चिल्लपों मचाने लगा। दंपती अपने ध्यान में ऐसे मस्त थे कि बालक की हरकत पर न तो उनकी नजर गई और न कान । अंत में पंडित जी ने कमलानाथ का आईना उठाकर भागते और इंदिरानाथ के रोते देखा । तब वह हँसकर कहने लगे

“लो आपकी बखशिश की क्या गत बन गई ।"

“क्या चिंता हैं ? भगवान् बखशिशें देनेवाले की सलाअत रखे। ऐसी ऐसी कई बखशिशें आ जायेंगी ।"

इस तरह विनाह की बातें करते करते प्रियंवदा ने अपनी चीजें सम्हालीं और लड़के को फुसलाया ।