आदर्श हिंदू ३/६८ कुलटा का पछतावा
“बेशक कुसूर मेरा हो हैं। मैंने जैसा किया वैसा पाया । मैं अगर अपने ब्रत पर दृढ़ रहती, सुखदा को बिगाड़ने की केशिश न करती तो कोढ़ चूने का ही समय क्यों आता ? मैं बड़ी पापिनी हूँ । तब ही कोढ़ से गल गलकर भेरी अँगुलियाँ गिर गई हैं, नाक बैठ गई है, पीप बह रहा है, चिउँटियां काटती हैं, मक्खियाँ दम तक नहीं लेने देतीं । हाय ! मैं क्या करूँ ? इस जीने से तो मर जाना बेहतर हैं। अगर कहीं से एक पैसा मिल जाय तो अफीम खाकर सो रहूँ ! पर पैसा आवे कहाँ से ? जब पेट की ज्वाला ही पंडित जी के टुकड़े से ठंढी होती है और जब शरीर ही उनके कपड़े से ढ़ंकता हैं। तब जहर खाने को पैर कहाँ ? खैर ! दुःख पाकर मरूंगी । अपनी करनी का दंड पाकर महँगी । पर हाय ! उस महात्मा के उपदेश पर कान न देने हों का यह नतीजा है। अगर मैं उस समय भी सँभल जाती, फिर कोई कुकर्म न करती तो अवश्य मेरी ऐसी दुर्दशा में होती। खैर ! अब पछताने से क्या ? जल्दी मर जाने ही से क्या होगा ? पापों का दंड यहाँ भी भोगना है और यमराज के यहाँ जाकर भी । बस जीना मरना बराबर है। पर हाय ! अब भी ते मेरे फूटे मुंह से भगवान् का नाम नहीं निकलता । अब भी, इतने कष्ट पाकर भी बुरी बुरी बातों की ओर चित्त दौड़ता है। अब अगर वे महात्मा जी एक बार फिर दर्शन दें तो कुछ उपदेश मिल सकता है। हाय ! मैं बहुत दुःखी हूँ । रामजी मुझे मौत दें । अब सहा नहीं जाता । हाय मरी ! कोई बचाओ !" कहतीं हुई मथुरा ज्यों ही मूच्छित होकर जमीन पर गिरने लगी एक व्यक्ति ने उसे सँभाला, गिरने से बचाकर धरती पर बिठलाय ,आखों पर जल छिड़ककर उसे सचेत किया और तब उनसे पूछा---
"महात्मा कौन ?”
“हाँ ! आपने सुन लिया ? ( देखकर, अच्छी तरह निहार लेने के अंनतर पहचानकर ) आप बिना मेरे प्राण बचानेवाला कौन ? सचमुच आपने बड़ा उपकार किया है। मेरे उपकार के बदले उपकार ? आप बड़े महात्मा हैं । मैंने आप जैसे सज्जन को सताया है। महाराज मुआफ करो ।"
"हैं! मुझे सताया है ? कब्द ? मुझे याद भी नहीं ?"
“बेशक आपको याद न होगी ! सज्जन दूसरों का उपकार करके याद नहीं रखा करते हैं परंतु मेरे लिये तो कल की सी बात है। मेरे हिए में होली सी जल रही है ।"
"कहना चाहती है तो कह क्यों नहीं देती ? और न कहना चाहे मत कह । मुझे सुनने की परवाह नहीं, आवश्यकता नहीं । मुझे केवल इतना ही पूछना था कि महात्मा कौन थे ? जरा पता लगाकर तो देखूं कि कौन थे ? शायद वही हो ?"
"हाँ वही थे वहीं, जिनके लिये आपको संदेह है । "
"मेरा संदेह तुझे क्योकर मालूम हुआ ?"
“मैं सुन चुकी हूँ कि काशी में आपको पंडित वृंदावनविहारी और उनके गुरु के दर्शन हुए थे। उन्हीं महात्मा से वृंदावन महाराज ने शूकरक्षेत्र ( सारा ) में जाकर उपदेश लिया था | पहले पहले वह गृहस्थाश्रम में रहकर कुछ साधना करते रहे फिर घरवालों से दुःख पाकर उन्होंने दुनिया छोड़ दी । पंडित वृंदावनबिहारी जब सोरे गए तो रास्ते में मैं भी उनके साथ हो गई थी। वहीं उन महात्मा जी ने मुझे उपदेश दिया था लेकिन ऊसर धरती की तरह उनका चीज यो ही चला गया ।"
"भला, परंतु वह महात्मा थे कौन ?"
"आपके पिता के, नहीं आपके गुरु महाराज ! मैंने आपको बहुत कष्ट पहुँचाया है । मैं अब अपने किए पर बहुत पछताती हूं । आप मेरे अपराधों को क्षमा कर दे तो मेरा छुटकारा हो जाय ।"
"अच्छा क्षमा किया" कहकर पंडित प्रियानाथ वहाँ से चल दिए। इसके अनंतर उसकी क्या दशा हुई सो बाचन प्रकरण में लिखी हुई है। पंडित जी ने सार किस्सT "अथ" से "इति" तक पंडितायिर को सुनाया । इस घटना को सुनकर मथुरा के विषय में जो भाव उसके अंतःकरण में पैदा हुए उसके लिये कागज रंगने की आवश्यकता नहीं । हां ! वरूणा गुफा के महात्मा को अपने पिता जानकर वह उदास' भी हुई और प्रसन्न भी हुई। उदास इसलिये कि वहाँ उन्हें न पहचाना और राजी इसलिये कि उसके पिता इतने पहुँचे हुए महात्मा निकले ।