आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ११ से – १९ तक

 
 

प्रकरण―२

पुत्रकामना।

"महात्मा कैसे थे? बूढ़े या जवान"?

उमर तो उनकी कोई पचीस वर्ष की मालूम होती थी परंतु बतलाई उन्होंने एक सौ तेरासी वर्ष की। वह जब मौज आती है तब चोला बदल लिया करते हैं"?

"हाँ तो जवान? ( हँस कर ) जवान ही महात्मा अच्छा। उससे अवश्य……"

"यह हर बार की दिल्लगी श्रच्छी नहीं। (तिउरियां बदल कर) चूल्हे में जाय उसकी जवानी। अब मैं कभी नाम भी न लूँगी। भगवान मेरा सुहाग अमर रक्खे। मुझे नहीं चाहिए बेटा बेटी। उस बिरियां मैं अकेली भी तो नहीं थी"।

"अरे नाराज हो गई! नाराज न हो प्यारी! जरा सी दिल्लगी में इतना कोप? अच्छा कहो कहो! उन्होंने क्या चम- स्कार बतलाया"?

"बस बस! रहने दो उनके चमत्कार! जब तुम्हें इतनी सी बात से ऐसा बहम हो गया तो मुझे भी ग़रज ही क्या है? बेटा होने से नाम भी तो तुम्हारा चलेगा"।

"नहीं नहीं! बहम बिलकुल नहीं! संदेह का लेश मात्र नहीं! भला तुझ जैसी सुशीला और बहम? परंतु बेटा बटी होने की तेरी हाय हाय खोटी है। नाम मनुष्य के सुकार्यों से होता है। भगवान रामचंद्र का नाम उनके अलौकिक गुणों से है। राजा हरिश्चंद्र को उनके सत्यवादीपन से लोग जानते हैं। उनका लव कुश के और इनका रोहिताश्व के कारण से नहीं"।

"राजपुताने के आदमी कहते हैं कि "नाम या तो पूतडा अथवा भीतडां"।

"उनका कहना भी एक अंश में ठीक है। यह कहावत साधारण प्रादमियों के लिये नहीं, राजाओं के लिये है क्योंकि उन्हें राज्य करना है। हमारे पास न तो कोई राज्य है और न कोई खजाना"।

"और बुढ़ापे में सेवा कौन करेगा"।

"धन होगा तो हजार आदमी खुशामद करने वाले मिल जायेगे और कौड़ी न होगी तो कोई पूछेगा भी नहीं। आज कल दुनियाँ में बहुधा ऐसे कुपूत होने लगे हैं कि जिन से सुख के बदले दुःख होता है, जो नाना प्रकार के कुकर्म करके बड़ो का लाम डुबाते हैं"।

"उस दिन वह महात्मा―नहीं नहीं महात्मा का तो अब नाम भी लेना अच्छा नहीं। शायद वह ठग ही हो परंतु उस दिन चाचाजी तो कहते थे, आपसे ही कहते थे कि बेटे के हाथ से पिंडदान हुए विना आदमी की मोक्ष ही नहीं होती"। "केवल इस बात के कहने ही से हम महात्मा को ठग नहीं कह सकते क्योंकि दोनों ही का कहा सत्य है। शास्त्र में ऐसा ही लेख है और सो भी इसलिये है कि इस लोभ से परमेश्वर की सृष्टि बढ़े क्योंकि मोक्ष होने का एक ही साधन नहीं है। बड़े बड़े साधन हैं और मैं मानता हूँ कि सब से बढ़ कर साधन चार हैं। एक परोपकार, दूसरा किसी को कष्ट न पहुँचाना, तीसरा सच्चा व्यवहार और चौथा परमेश्वर की अनन्य भक्ति।"

"और महात्माओं का आशीर्वाद?"

"हाँ! यह भी है परंतु आज कल प्रथम तो महात्माओं का मिलना ही असंभव है क्योंकि उनमें दुराचारी, उग, व्यभिचारी, चोर और उचक्के बहुत होते हैं। भेड़ की खाल में भेड़िया होता है। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण के उत्तर कांड में इनका अच्छा खाका खोंचा है और जो कोई मिल भी जाय तो ऐसे ही उपदेश देगा।"

"ठीक है। उन महात्माजी ने भी यही बात कही थी। इस सिवाय इतना अधिक कहा था कि स्त्री की पति के सिवाय को जाति नहीं और पुरूष को अपनी पत्नी के सिवाय और स्त्रिओं को अपनी मां बहन समझना चाहिए। उन्होंने व्यभिचार की बहुत निंदा की थी।"

"तब उन्होंने साधन क्या बतलाया? आदमी तो भले मालूम होते हैं।" "साधन कुछ विचित्र सा है। साधने योग्य नहीं। कहते थे कि योग साधन करने के लिये मैं प्रातःकाल ही प्राणायाम चढ़ाता हूँ और उसे छोड़ता हूँ रात के नौ बजे। उस समय मेरी कुटी पर तु आ जाये तो मैं आशीर्वाद दे सकता हूँ और एक मंत्र भी बतलाऊँगा। उसके जप करने से अवश्य संतान होगी। अथवा काशी जाकर हमारे गुरु के दर्शन करने से।"

"तब यह अवश्य भेड़ की खाल में भेड़िया है। उसने तुम्हें ठगने के लिये अच्छे अच्छे उपदेशों का जाल बिछाया है।"

"नहीं! वह लालची तो वहीं दिखलाई देता। मैं उसे एक रुपया देती थी परंतु दो मुट्ठी चनों के सिवाय उसने कुछ नहीं लिया। लोभी होता तो रुपया क्यों छोड़ता?"

"तू भोली है। हिंदू स्त्रियाँ बहुत भोली होती हैं। ऐसे ठगों के फरेब में आ जाती हैं। इतने लिखने पढ़ने पर भी तेरा भोला- पन्न नहीं गया। प्रथम तो उसने तुमसे बहुत रुपया पाने की आशा में दुकानदारी फैलाई है और जो सचमुच उसे रुपए पैसे का लोभ न हो तो वह तेरी लाज लूटना चाहता है।"

"नहीं! कदापि नहीं! हम औरतें आदमी की आँख पह- चान लेती हैं। यदि इनकी इच्छा ऐसी होती तो मुझे मालूम हो जाता।"

"भला तो आप इस विद्या में उस्ताद हैं! हम आप को आज से ही उस्ताद जी कहेंगे। अच्छा फरमाइए तो आपने यह किस से सीखी थी?" "बस बस रहने दो! तुम्हारा मज़ाक! सीखने किस भडुवे से गई थी? तुम ही मेरे गुरु! काम शास्त्र तुम से ही तो सीखा है। बुद्धिमान स्त्रियों में पातिवत का बल यदि बढ़ा हुआ हो सो कम से कम इस विषय में वे दूसरे का मन अवश्य टटोल लेती हैं।"

"कदाचित हो! परंतु मेरा मन तो ऐसी बातों को नहीं मानता। शायद धोखा हो जाय।"

"धोखा नहीं हो सकता। मैं किसी दिन साबित कर दूँगी। और यदि वह बुरा भी निकले तो मेरा क्या कर सकता है। उस मुए की मजाल क्या? उसकी क्या किसी की मजाल नहीं जो स्त्री की इच्छा बिना उसकी लाज लूट सके। आपने "आदर्श दंपति" में मेरी दादी का और "सुशीला विधवा" में मेरी भुआ का हाल पढ़ा होगा। और फिर आप भी तो साथ रहेंगे। मैं आप के बिना अकेली थोड़े ही जा सकती हूँ। जब भगवान ने मुझे आप का अर्धांग दिया है तब वह जन्म जन्मांतर तक इसको बनाए रक्खे।"

"अच्छा देखा जायगा। कभी इन बातों की परीक्षा लेंगे।"

"परीक्षा लेकर सनद भी दोगे? कौन सनद?"

"प्रिया, प्रेयसी, प्रेमिका अथवा तू कहे तो बी॰ ए॰, एम्॰ ए॰ की?

'पहली तीनों तो मेरी हैं लेकिन एम्॰ ए॰ की भी। क्योंकि पहले मैं ब्राइड और भाप ब्राइड ( दुलहिन ) के ग्रूम ( साईस ) थे अब मैं मास्टर (मालिक) भी बन गई! अहा! मैं मालिक किस की?"

"हमारी?"

"नहीं! आप की तो दासी। आप मालिक और मैं मालिकिन!"

अच्छा"!

"अच्छा नहीं! अकेले घर में पड़े पड़े मेरा जी नहीं लगता है। आप इधर उधर घूम कर सैर कर आते हैं और मैं घर में पड़ी पड़ी सड़ा करती हूँ। तीर्थयात्रा के लिये आपने जो प्रण किया था उसे याद करो, जिसमें धर्म का धर्म और सैर की खैर हो। आप को गया श्राद्ध भी करना है। परमेश्वर करे पूर्व पुरुषों के पुण्य से ही हमारी मनोकामना पूर्ण हो। आप का कर्तव्य भी है और आप कहा करते हैं कि-"मैं कर्तव्य- दास हूँ।"

"हाँ ठीक है! परंतु जो मन चंगा तो कठौती में गंगा। आज कल पहले की सी तीर्थयात्रा नहीं रही। जगह जगह कष्ट, जगह जगह ठग उचक्के उठाईगीरे और अत्याचार, अना- चार है।"

यदि ऐसा भी हो तो क्या इन्हें सुधारने का आप को प्रयत्न न करना चाहिए?

"प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। चलेंगे और शीघ्रही चलेंगे। सैर भी होगी और पितृऋण से भी मुक्ति। संसार में यदि श्राद्धादि न होते तो माता पिता के चिर वियोग के बाद उनके असंख्या उपकारों का बदला ही क्या था? श्राद्धों से पर- लोक के पुण्य के सिवाय उनकी याद आती है, उनका अनुकरण करने का, उनके उपदेश पर चलने का स्मरण होता है और सब "पितृस्वरूपी जनार्दनं प्रीयताम्"।

"हाँ! यही बात है और फिर तलाश करने पर यदि मिल जाँय तो महात्माओं के दर्शन, तीर्थों का स्नान और भगवान की भक्ति।"

श्रीमती प्रियंवदा और पंडित प्रियानाथ को परस्पर प्रेम संभाषण के साथ इस तरह तीर्थयात्रा का मंतव्य स्थिर हुआ। किस किस तीर्थ में और कब जाना तथा किसे साथ ले जाना और किसे घर की रखवाली पर छोड़ जाना इन सब बातों का ठहराव हो गया। पंडित जी अंगरेजी, हिंदी और संस्कृत साहित्य के साथ गुजराती, मराठी और उर्दू के सिवाय ज्योतिष और कर्मकांड से भी अच्छी जानकारी रखते थे। इस कारण उन्हें यात्रा के लिये मुहूर्त निकलवाने में और यात्रारंभ के लिये घृतश्राद्ध करने में किसी पंडित की सहायता की आवश्यकता न थी किंतु जब श्रीमती की यह रोय थी कि जो कुछ करना चाहिए वो सब ब्राह्मण की आज्ञा लेकर, तब इन्हें नगर के विद्यापति पंडित को बुलवाना पड़ा। पंडित जी आए और अपना पोथी पत्रा लेकर आए परंतु ज्योतिष पढ़ने के नाम पर इनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर था। गँवारो में बैठकर यह अवश्य बड़ी बड़ी डींगें हाँका करते थे किंतु आते ही प्रियानाथ महाशय को देख कर इन्हें लकवा मार गया। यदि इन्हें घर पर ही मालूम हो जाता कि एक विद्वान का सामना करना है तो शायद बुखार का बहाना कर के पड़े रहते परंतु जो आदमी इन्हें बुलाने गया था उसने इन्हें खूब मोदक और भरपूर दक्षिणा मिलने का झांसा दे दिया था और इस लिये अपनी घरवाली से वे कह आये थे कि-"आज हमारे लिये कुछ न बनाना? चूल्हा जलाने ही की क्या आवश्यकता है? हो सकेगा तो तेरे लिये लेते आवेंगे, नहीं तो सखी सूखी खाकर गुजर कर लेना।" केवल इतना ही क्यों? इन्हें आशा थी कि अच्छे बूरे के बढ़िया और गहरे घी के मोदक मिलेंगे। इसलिये चलती बार अपनी घरवाली को ताकीद कर आए थे कि "भंग बढ़िया बनाकर तैयार रखना।" क्योंकि वह मानते थे कि-"आज मोदकों से संग्राम है।"

आकर यह बैठे, और इन्होंने अँगुलियों पर अँगूठा डालकर कभी मीज, मेष, वृष, और कमी अश्विनी, भरणी, कृत्तिका पचासों बार गिन डाले। इन्होंने "शीघ्रबोध" के अटरम शटरम दो चार श्लोक भी बोले परंतु मुहूर्त बनाने का हियाव न हुआ। अंत में इन्होंने साहस बटोर कर कहा―

"नवमी शनिवार!"

उस दिन पूर्व में दिशाशूल और इन्हें उधर ही जाना। मृत्यु योग्य और चंद्रमा चौथा था। सुन कर पंडित प्रियानाथ मुस-

कराए। "अच्छा खासा मुत्यु योग है। दोनों में से एक भी जीता नहीं लौटेगा।" इतना कहकर अपनी गृहिणी की ओर देखते हुए हँस कर इन्होंने पूछा―"पंडित जी कुछ पढ़े भी हो?"―उत्तर में घबड़ाई हुई जबान से "यों ही पेट भर लेता हूँ" कहते हुए उन्होंने अपनी पोथी बगल में दवाई और पेट में दर्द का बहाना करके वे चट नौ दो ग्यारह हुए। उनके चले जाने बाद प्रिया- नाथ जी ने अपना सिर ठोंका और "इन्हीं मूर्खों की बदौलत हिंदू धर्म नष्ट भ्रष्ट हुआ जा रहा है" कहते हुए पत्रा देखकर अपनी यात्रा का दिन स्थिर किया और घृतश्राद्धा भी स्वदेश आकर करना निश्चय किया। और किया सो हाल में निश्चय करके कोई साल भर बाद क्योंकि उनकी छुट्टी झमेले में पड़ जाने से उन्हें इस समय विचार त्यागना पड़ा था।


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