आदर्श हिंदू १/१ दंपती की पहाड़ी सैर

आदर्श हिंदू-पहला भाग।  (1922) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा
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आदर्श हिंदू।

पहला भाग।

प्रकरण―१

दंपति की पहाड़ी सैर।

समुद्र की सतह से लगभग चार हजार फुट की ऊंचाई पर आबू का पहाड़ है। इस पर्वतमाला के दक्षिण पश्चिम की ओर यह गिरि शिखर है जिन पर जाने से सूर्यास्त के समय की छटा बहुत ही चित्ताकर्षक दिखाई देती है। इस स्थल को अंगरेज लोग "सनसेट पाइंट" अथवा पर्वत राशि की वह चोटी जहां से सूर्यास्त का दृश्य दिखाई दे, कहते हैं। इस स्थान पर बैठ कर देखने में यह पर्वतमाला दर्शक को तीनों ओर से घेर लेती है। केवल सामने के एक विशेष मैदान के सिवाय जिधर देखो उधर पर्वत ही पर्वत। इस शिखरसमूह में एक जगह चट्टानों पर चूने के दो बेंच सै बने हैं। पावस ऋतु न होने पर भी जिधर आँखें दौड़ाइए उधर गुलाब और चमेली के बने के वन। इनके सिवाय भगवान जाने कितने प्रकार के विचित्र वृक्षों से, नाना तरह के अद्भुत अद्भुत [  ]पौधों से यह स्थल इतना घना हो गया है कि यदि रास्ता भूल जाने से कोई भय न खाता हो अथवा व्याघ्र भालुओं का किसी को डर न हो अथवा सर्प वृश्चिकों की कुछ परवाह न हो तो वह यहाँ के विशालाकार शिलाखंड के नीचे महीनों तक रह सकता है। उसके लिये झरनों में जल की कमी नहीं और खाने के लिये कंद मूल फल भी मौजूद है। संसार के विरागी के लिये, घर छोड़ कर बनवासी होनेवाले के लिये, प्रकृति देवी ने, यदि उसको लोभ न हों, भय न हो और किसी प्रकार की आकांक्षा न हो, तो केवल अपना पेट पालने के लिये तृष्णा और क्षुधा तृप्त करके राम राम रटने के लिये, सब प्रकार की आवश्यकताएं पूर्ण कर दी हैं। जो साधु एकांत वास में भगवान का भजन करना चाहे उसे बस्ती में जाकर "भाई! मुट्ठी भर चने" और "बाबा, मैं भूखा हूँ" की आवाज लगानी न पड़ेगी। आबू पहाड़ पर यह एक नहीं ऐसे अनेक स्थल हैं, एक से एक बढ़ कर हैं। मैंने एक शिखर के दृश्य का एक छोटा सा नमूना दिखलाया है।

यों तो आबू के पहाड़ पर पहले ही अधिक बस्ती नहीं। थोड़ी बस्ती होने से सायंकाल का दृश्य देखने के लिये यदि इस जगह कोई जाय भी तो उनकी संख्या कितनी! किंतु आज पोलो के मैदान में किसी तरह का तमाशा है। प्रकृति का अप्रतिम, अलौकिक और सच्चा तमाशा देखने, देख कर परमेश्वर की परमेश्वरता का ज्वलंत उदाहरण पाकर उप[  ]देश ग्रहण करने के बदले झूठी दुनिया के झूठे और बनावटी तमाशे देखने के लिये इस नगर के स्त्री पुरुष और बालक दौड़े जा रहे हैं। जाने में उनका दोष नहीं। मनुष्य जाति बनावट पसंद है। यदि बनावट पसंद न होती, यदि प्रकृति के अलोकिक सौंदर्य देखने के लिये भगवान ने उसे आँखें दी होतीं, यदि सितार की "टुनुन टुनुन" और तबले की “धप धप" सुनने के बदले वह ईश्वर की इस अनंत सृष्टि में ऐसी जगह बैठ कर अपने अपने घोंसले में जाकर बसेरा लेनेवाली चिड़ियों का चक चक सुनने की इच्छा करती तो शायद संसार के अनंत आडंबर का शोड़- शांश भी न रहता। फिर उसे किसी की खुशामद न करनी पड़ती, किसी की झिड़कियां न खानी पड़ती और न काम क्रोध लोभ और मोह जैसे प्रवल शत्रु, दुर्दमानीय रिपु जसका बाल बांका करले पाते।

अस्तु मेले तमाशे ने इस जनशून्य पर्वतखंड को आज और भी जनशून्य कर दिया है। आज यहां दो जनों के सिवाय कहीं कोई यादमी दिखलाई नहीं देता। चाहे कोई दीख पड़े परंतु इन दोनों के अंत-करण में न मालूम कुछ भय है अथवा शंका है क्योंकि ये दोनों इन कुर्सियों को छोड़कर इस एकांत स्थान में अधिका एकांतता पाने के लिये अलग ही एक सूनी चट्टान पर जा बैठे हैं। और शंका कोई हो तो हो क्यों कि ये दोनों चोर नहीं डकैत नहीं और खूनी नहीं जो किसी से डर कर एकांत ग्रहण करें क्योंकि जब "मुख ही अंत:[  ]करण हा दर्पण है" तब इनके चेहरे मोहरे से सज्जनता के सिवाय दुर्जनना का लेश भी नहीं पाया जाता। यदि और कुछ भी न हो तो इन दोनों में एक को लज्जा ने अवश्य घेर रक्खा है। क्योंकि वह बहुत ही चोकन्नी है, पशु पक्षियों की आने जाने से कहीं पर कुछ पत्ता खटकने की आहत आते ही अपने प्राण प्यारे की मधुर ध्वनि सुनकर अपने अंतःकरण को तृप्त करने के बदले वह अपने कान के हरकारों को वहीं भेजकर तुरंत ही लज्जा के मारे सिकुड़ती हुई लोचती है कि कहीं हमारी बात को कोई सुनता तो नहीं है। इस से शायद कोई यह समझ बैठे कि यह रमणी जारिणी है और पराये प्यारे को अपना प्यारा बनाने के कारण ही शर्माती है। ऐसा समझाने में समझनेवाले का कोई दोष भी नहीं है क्योंकि आज कल व्यभिचार का जमाना है, किंतु नहीं। यह जारिणी नहीं और उसका प्रियतम ही उसका सच्चा हृदयेश्वर है, उस का स्वामी है और वही स्वामी है जिसने पांच पंचों में बैठ कर सूर्य चंद्रमा की साक्षी से, ध्रुव तारे के दर्शन करके, अपने अटल संयोग की प्रतिज्ञा के साथ एक के दुःख में दूसरे के दुखी होने और एक के खुख से दूसरे के सुजी होने का वादा करके, जन्म जन्मांतर तक मरने के बाद भी साथ न छोड़ने के प्रण के साथ पाणिग्रहण किया था। अब ऐसा ही है तब इतनी शंका क्यों? दंपति के एकांतस्थल मैं प्रेमसंभाषण के समय इतनी लज्जा का क्या काम? किंतु हां! काम है और जब पर पुरुष [  ]से बातचीत करने के समय एक व्यभिचारिणी को जो लज्जा होती है वह लोक लाज के भय से, पकड़ी जाने के संदेह से और इस लिये कृत्रिम-झूठी, और अपना पाप छिपाने के लिये, तब यह लज्जा स्वाभाविक लज्जा है, यह वही लज्जा है जो स्त्रियों का सच्चा आभूषण है। संसार में आदर्श दंपति के सच्चे प्रेम का सच्चे सुख का जिनको अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे अवश्य स्वीकार करेंगे कि ऐसी लज्जा नित्य नया आनंद देने वाली है। इसमें अलौकिक सुख है।

उस जगह इन दंपति के सिवाय कोई तीसरा व्यक्ति नहीं है, और इस कारण इन दोनों का प्रेम-संभाषण जी खोलकर हो रहा है। शायद ऐसे अवसर पर किसी भले आदमी को जाकर उनके सुख को लातों से रौंदना, आनंद को किरकिरा कर देना उचित भी नहीं है, और इसी कारण इन दोनों के प्रेमसंभाषण का उतना अंश छोड़ कर यहां उन्हीं बातों को दिखला देना मैं उचित सम- झता हूँ जिनका इस उपन्यास से संबंध है। मुझे आशा है कि ऐसा करने पर यह जोड़ी मुझपर नाराज न होगी और पाठक पाठिकाओं का भी थोड़ा बहुत मनोरंजन अवश्य होगा। खैर! कुछ भी हो पत्नी ने कहा―

"क्यों जी तुम मुझे इस जगह क्यों ले आए? मैं तो शर्म के मारे मरी जाती हूँ। चलो, घर चलो। जल्दी चलो। कहीं हमको कोई देख न ले।" इतना कहकर पति के पास से हटती हुई, घूंघट से अपना मुंह छिपाकर हाथ के इशारे से [  ]दूर की कोई चीज दिखाती हुई-"है हैं! वह आगया! अब क्या होगा?"

"होगा क्या? कोई भूत है जो हमें खा जायगा? वह भी एक चट्टान है जो सायंकाल की झुरमुट में वृक्षों की आड़ से आदमी सी दिखलाई देती है। और यदि आदमी भी हो तो डर क्या है? क्या तू किसी और की गोदी में है जो इतनी शर्माती है?"

"आग लगे और को! भाड़ में जाय और? परंतु क्या ऐसी खुली जगह में तुम्हारे पास बैठ कर बातें करने में शोभा है? भले घर की भामिनी का अपने मालिक से भी समय पर आपने कमरे ही में बातचीत करना अच्छा है। ऐसे बीबी को बगल में दबाकर सैर करने में लाज ही है। मैं तुम्हारे झाँसे में आ गाई। बड़ी चूक हुई। अब कभी तुम्हारे साथ ऐसे हवा खाने नहीं आऊंगी।"

"न आवेगी तो यों ही घर में गलगल कर मर जायगी। शह आबू है। यहाँ परिश्रम करने और बाहर की हवा खाने ही से जीवन है, मेम साहबों को देख वे कैसे सुख से विचरती हैं।कुलवधू की लज्जा जैसी तुझमें है वैसी उनमें भी है किंतु देख बाहर की हवा खाने और परिश्रम करने से उनकी संतान कैसी दृष्ट पुष्ट और बलिष्ट होती है।"

"उनका सुख उन्हें ही मुवारिक रहे। हम पर्दे में रहने वालियों को ऐसा सुख नहीं चाहिए। हम अपने घर के वंदे ही [  ]में मग्न हैं। ऐसे खुले मुंह बाहर फिरना, अपना गोरा गोरा मुख औरों को दिखलाते फिरना और पर पुरुषों से हँस हँस कर बात चीत करना किस काम का। ऐसे सुख से तो घर में झुर झुर कर भर जाना अच्छा, परंतु हाय! संतान। संतान का नाम लेकर तुमने मेरा हृदय राख कर डाला। हाय! संतान के बिना हृदय सूना है, गोद सूनी है, घर सूना है और संसार सूना है।"

"अरी बावली, कहां का चर्खा ले बैठी। यहां दो घड़ी सुख से बिताने आए थे तिसमें भी तेरी हाय हाय न मिटी। देख सामने से सूर्यनारायण के अस्त होने की शोभा! अरी पगली तू नो रो उठी। रोती क्यों है! ओहो! बड़े बड़े आँसू! आँसू बहा कर अंगिया तक भिगो डाली। ऐंहैं! अपने गोरे गुलाबी गालों पर आंसुओं का ज्वारभाठा। ओहो! समुद्र उलटा चला आ रहा है। बस बस बहुत हो गई।" अपनी जेब से रूमाल निकाल कर प्यारी के आँसू पोंछते हुए कुछ गुदगुदा कर "बस बस! बहुत हुई! अब जरा अस्ताचलचूड़ावलंबी भगवान भुवनभा- स्कर के भी दर्शन कर लीजिए।"

"बस बस, रहने दो अपनी दिल्लगी! यह रोने के समय हँसना किस काम का? मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा सूर्यास्त! मुझे तो अपने घर में सूर्य का उदय दिखलाओ। उदय!"

"हा हा! ( फिर कुछ चुटकी सी लेते हुए ) देखो स्त्रियों का साहित्य! लोग कहते हैं कि हिंदुओं की स्त्रियाँ अपढ़ होती हैं किंतु अपढ़ होने पर भी ऐसा साहित्य।" [  ]"बस बस! बहुत हो गई। क्षमा कीजिए। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा सूर्यास्त।"

"अरे जो उदय होता है वह अस्त भी होता है। संसार का यह नियम ही है। संसार के घटनाचक्र ने सूर्यनारायण तक को नहीं छोड़ा है।"

"नहीं नहीं। ऐसा न कहो। यह कहो कि जो अस्त होता है उसका सूर्य भगवान की तरह उदय भी होता है।"

"हाँ हाँ! सत्य है। अच्छी लाजिक है। अच्छा अभी अस्त तो देख ले फिर भगवान कल उदय भी दिखावेगा।"

"हाँ! अब आए कुछ ठिकाने। बोलो मैं तेरा चेरा। जो हारे हो तो कह दो।"

"सचमुच ही मैं जीता, नहीं नहीं तू जीती। स्त्री एक बार दूसरे की दासी बनकर जन्मभर के लिये उसे अपना दास बना खेती है और तब मैं तेरा दास ही……"

बस इतना कहते ही पत्नी ने पति का मुख पकड़ लिया। "बस बस आगे नहीं। प्राणनाथ आगे नहीं" कह कर ज्योंही उसने हाथ जोड़ कर मालिक से क्षमा माँगी तब अवसर साध कर पति ने―"ठहरा तब मैं सदा ही तुझ से हारा" कहकर अपना वावय पूरा किया और प्यारी ने दोनों कानों में अँगुलियाँ डालकर यह बात सुनी अनसुनी कर दी। थोड़ी देर तक दोनों की आँखों ही आँखों से न मालूम क्या क्या बात हुई―सो दोनों के मन जानें अथवा घट घट व्यापी परमात्मा, किंतु अब सुंदरी [  ]एकाएक हाथ जोड़कर, पति परमात्मा के चरण कमलो में अपना सिर रखते हुए गिड़गिड़ा कर बोली―

"नाथ, अपराध हुआ। क्षमा करो। इस दासी की चूक हुई।"

"नहीं नहीं चूक का ( दोनों हाथ पकड़ कर अपने हाथों ले दबाते हुए ) क्या काम?"

"बस! बस!! अब अधिक नहीं। जी यह क्या करते हो। कहाँ तक मसकोगे? मेरी कलाइयाँ टूटी जाती हैं"।

जिस समय इन दोनों में इस तरह आमोद प्रमोद की बातें हो रही थीं एकाएक इनकी दृष्टि सूर्यनारायण के लाल लाल थाली जैसे बिंब की ओर गई। उस समय का सूर्य प्रकाशहीन चंद्रमा का सा था। धीरे धीरे दिन भर की कठिन तपस्या के अनंतर भगवती वसुंधरा की गोद में छिपने के लिये जा रहा था। "बस वह छिपा। यह डूबा! अभी आधा! नहीं अब पूरा डूब गया! छिप गया।" की आवाज़ दोनों ही के मुख कमलों में से निकल कर दोनों ही के कर्णकुहरों में प्रवेश कर गई। तब पति ने पूछा―

"इससे तैने क्या मतलब निकाला?"

"सुख के अनंतर दुःख और दुःख के अनंतर सुख होता है। जब दिन भर में सूर्य भगवान की तीन अवस्थाएं हो जाती हैं तब बिचारा आदमी किस गिनती में? परंतु मैं इस नतीजे को तब ही सच्चा मानूँगी जब मुझे भी दुःख के बाद सुख हो"। [ १० ]"क्यों फिर वही बात"!

"हाँ जी वही। जैसे इस माह तीन ओर हरियाली और सामने का मैदान सूखा पड़ा है और जलशून्य नदी और जन- शून्य पृथ्वी पर सूर्यनारायण के चहे जाने से अँधेरी रात अपनी अँधेरी चादर बिछा रही है वैसे ही मेरा हाल है। भगवान एक भी दे दे तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ नहीं। यह सूर्य मेरे लिये जलता हुआ अंगारा, ये वृक्ष मेरे लिये करीर और यह मैदान मारवाड़ का रेगिस्तान!"

"सब परमेश्वर के हाथ है। वह चाहे तो राई से पर्वत कर दे"।

"परमेश्वर भी उद्योग से देता है"।

"उद्योग तो हम करते ही हैं"।

"नहीं नहीं! मजाक मत करो। आज मकान पर एक महात्मा आए थे"।

"अच्छा, इसका विचार घर चल कर करेंगे। रात्रि में बघेरे का डर है"।

बघेरे का नाम सुनते ही प्रियंवदा डर के मारे काँप कर प्रियानाथ से चिपट गई। पति उसे हाथ पकड़ कर घबराहट मिटाते हुए घर लाए।

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