आदर्श हिंदू १/२२ व्यभिचार में प्रवृत्ति

आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २२२ से – २३० तक

 
 

प्रकरण―२२

व्यभिचार में प्रवृत्ति।

"आ बहन! अच्छी तरह तो है? आज बहुत दिनों में दिखलाई दी!"

"तेरी बला से! अच्छी हूँ तो तुझे क्या और बुरी हूँ तो तुझे क्या? तू अपनी करनी में कमी कसर न रखियो। जी तो यही चाहता है कि उमर भर तेरा मुँह न देखूँ? पर तेरी विपत्ति सुनकर मन ने नहीं माना। इस लिये झख मार कर आना पड़ा। ले अब सुखी रहना। मैं जाती हूँ।"

"हैं हैं! बहन! जाओ नहीं। तू ही तो मेरी विपत्ति की साथिन और तू ही मुझे ऐसे निराधार छोड़ कर जाती है। मैं तेरे पैरों पड़ती हूँ। न जा। मैं तेरे सिर की सौगंद खाती हूँ। मैंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा। जो मैंने बिगाड़ा हो तो अभी मुझ पर गाज पड़ै।"

"अरे निरी बच्ची है! अभी दूध पीती है! तैने नहीं बिगाड़ा तो क्या आस्मान से आकर राम जी बिगाड़ गया। कई जगह भटकते भटकाते अंत में वहाँ सिर मारा था पर तैने सत्यानाश कर दिया। मैं तीन वर्ष तक किस की होकर रहूँगी? क्या तेरे हाड़ खा कर जीऊंगी, तिस पर नन्हीं कहती है कि मैंने कुछ नहीं बिगाड़ा!" "हैं! तीन वर्ष! समझती नहीं! तीन वर्ष? पहेली न बूझ! साफ साफ कह। तीन वर्ष क्या?"

"तेरे बहनोई तीन वर्ष के लिये जेल खाने गए और तेरी ही बदौलत गए। तैने भूठमूठ कह दिया कि उन्होंने ही मुझे लूट लिया। और वह विचारे उस दिन इधर थे भी नहीं, दिल्ली गए थे। खूब दोस्ती निवाही! ले अब मैं जाती हूँ। तुझे उलहना देने ही आई थी।"

"मैं तेरे सिर की कसम खाकर―अपने प्यारे से प्यारे की सौगंद खाकर कहती हूँ, मैंने उनका नाम नहीं लिया। वह मुझे लूटने में मौजूद जरूर थे पर मैंने उनका नाम नहीं लिया।"

"जब तैने नाम नहीं लिया तब क्या कोई भूत कह गया?"

"भूत नहीं कह गया। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि मेरे मुँह से उस बेहोशी की हालत में निकल गया और मेरे बाप में उसी समय मेरा बयान लिख कर भेज दिया। शायद (अपने पति की ओर इशारा करके) उनके पास भेजा हो उन्होंने पेश कर दिया होगा। उन्होंने फिर मुझ मरी को मारा! तुझे मारा सो मुझे ही मारा। तेरे और मेरे बीच में रंज कराने के लिये। पर मैं अपने ही सिर की कसम खाकर कहती हूँ। मैंने जान बूझ कर नहीं कहा। बेहोशी से मुझ से निकल गया। होश में होती तो अपना माथा कट जाने पर भी नहीं कहती। मैं क्या ऐसी वैसी हूँ जो अपनी बहन का सुख धूल में मिला दूँ। तेरे लिये मेरा सिर हाजिर है। मेरी प्यारी सखी, मैं सौंगंद खाकर कहती हूँ, तेरे पैरों में माथा रख कर कहती हूँ। तू मुझे मार चाहे निवाज। मैंने जान बूझ कर नहीं किया।" इस तरह कहते हुए उसने आनेवाली के पैरों में सिर दे दिया। "हैं हैं! प्राणप्यारी बहन, मुझे तेरा भरोसा है। तू कभी मेरे सामने झूठ नहीं बोलेगी। मैं अपने सुहाग की सौगंद दिला कर कहती हूँ। तू घबड़ा मत। जो रामजी भी मुझ से आकर कहें तो न मानूँ कि तैंने किया हो" कहते हुए उसने उसे अपनी छाती से लगा कर अपनी आँचल से उसके आँसू पोंछे। पोंछते पोंछते उसके गोरे गोरे गालों पर हाथ फेर कर― "हाय! हाय! यह फूल सा मुलायम मुँह, यह चाँद सा गोरा चेहरा! मुरझा गया। आग लगे मेरी समझ पर। मैंने नाहक अपनी प्यारी बहन को सताया। माफ करियो बहन! क्षमा करियो।" कह कर उसने उसके दोनो गाल चूम लिए और बदले में उसने उसके चूमे। यों दोनों का झगड़ा मिट कर दोनों फिर एक की एक।

इसके अनंतर सुखदा ने आदि अंत तक जो अपना दुखड़ा रोया उसका बहुत हिस्सा गत प्रकरणों में आ चुका है। मथुरा ने सुन कर जो सहानुभूति दिखलाई उसको लिख कर विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। हाँ मथुरा सुखदा का बयान सुन कर मान गई। माने चाहे न माने। उसने प्रकाशित ऐसा ही कर दिखाया कि "इसमें कुसूर मेरे आदमी का ही है। उस दाढ़ीजार ने जैसा किया वैसा पा भी लिया। गया मुन्ना तीन वर्ष के लिये जेल काटने! छूट कर आवे तब निपूते का मुँह भी न देखूँ! तुझे और मुझे निगोड़े खसम भी अच्छे नहीं मिले! देखना तेरे बालम जी ने कैसा गजब किया है?"

"हैं हैं! क्या किया? सच सच कहिए। क्या किया? तुझे मेरे सिर की सौगंद है! क्या किया?"

"किया क्या, गजब किया। उधर तुझे घर से निकाल दिया और इधर मेरे उनको कैद कर तेरा सब माल मता पचा बैठे। तू इधर कौड़ी कौड़ी के लिये तरस तरस कर मरती है, दाने दाने के लिये बिलखती है और उधर वह मुआ यात्रा करता फिरता है। तेरे बिना यात्रा! ऐसी यात्रा करना झख मारना है। लुगाई इधर पड़ी पड़ी बिलबिलाती है और उधर वह पूत जी भाभी की गुलामी करते फिरत हैं। गुलामी न करें तो रोहियाँ कहाँ से मिलें।"

"हाँ बहन सच है! मेरा नसीब ही ऐसा है। वहाँ से निकाली जाने पर यहाँ, बाप के यहाँ, आई तो यहाँ भी मुझ पर बिजली पड़ी। मेरा बाप हम मा बेटी को रोती झकिती छोड़ कर न मालूम किधर चला गया। घर में जो कूछ धन दौलत थी उसे नौकर चाकर खा गए, अड़ोली पड़ोसी लूट ले गए। मेरी मा बिचारी भोली भाली है। दस से ज्यादह गिनना भी नहीं जानती। बस उसे धोखा दे कर जिसके हाथ पड़ता है वही ले जाता है। हमारा वह निपूता नौकर, बड़ा सच्चा बनता था, पीतल का गहना रख कर दो तीन हजार रुपए ले गया और अब कहते हैं तो आँखें दिखलाता है। रहा सहा चोरी में चला गया। बस बही ढाक के तीन पात। जो मेरा निज का था तो उन्होंने छीन लिया अब फूँक कर चबाने के लिये मुट्ठी भर चने तक नहीं। जहर खाने तक को एक पैसा नहीं रहा। हाय! अब मैं क्या करूँगी? जिंदगी कैसे तै होगी? मुझे बड़ा सोच है। इस फिक्र ही फिक्र में यह देख! मेरा आधा डील रह गया! (छाती में एक घूँसा मार कर रोती हुई) हाय मैं किस से कहूँ? क्या भले घर की बहू बेटी हो कर भीख माँगूंगी? लुगाई के लिये सब को बढ़ कर सहारा उसके लोग का होता है। सो उस निपूते ने भी मुझे निकाल दिया। हाय मैं क्या करुँ?"

"हैं हैं! बहन रोती क्यों है? (उसका हाथ पकड़ कर दूसरा घूँसा रोकती हुई) तुझे रोती देखकर मुझे भी रोना आता है। यह निपूता मेरा स्वभाव ही ऐसा है। दूसरे की दई देखकर मेरा कलेजा फटने लगता है। बहन! रोवै मत! जब तक मैं जीऊँगी तुझे दुःख नहीं पावे दूँगी। मैं मजूरी कर के लाऊँगी, हजार बहाने से लाऊँगी पर तेरा पेट भरूँगी। तू घबड़ा नहीं।"

"मेरी प्यारी बहन (गले लगाकर) तेरा ऐसा ही भरोसा है पर जिसने पाँच पंचों में हाथ पकड़ा था उसकी तो बानगी देख ली ना!"

"अरे बानगी? एक बार नहीं बीस बार देख ली। जिसने अपनी लुगाई को ही निकाल दिया उस नुए का अब नाम भी क्यों लेना। मैं तो कभी की तुझे समझाती हूँ। तू अब तक ही मान जाती तो इतना दुःख काहे को भोगती। तेरी उमर क्या तकलीफ पाने के लिये है। तेरा कुल मा मुखड़ा! हाय तेरी उठती हुई जवानी! देख देख कर मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हो जाता है! प्यारी बहन! खा पी और मौज कर (उसकी ठोढ़ी पकड़ कर उसका मुँह उठाती हुई उससे आँख मिलाकर गालों को चूमती हुई "तेरे पर मुझे बहुत दया आती है। यों ही रंज ही रंज में कुत्ते की मौत न मर! प्यारी बहन अब भी मान जा! खा पी और मौज कर!"

"हाँ बहन जैसा उसने मेरे ऊपर जुल्म किया है उसे याद करके तो मेरे मन में यही आता है कि उसे दुनियाँ में मुँह दिखलाने लायक न्द रक्खूँ। पर करूँ क्या? दोनों कुल लाज जाँयगे। सब बाप दादों के ऊपर थूकेंगे। लोग कहेंगे कि फलाने की बहू, फलाने की बेटी, फलानी, फलाने………"

"हाँ हाँ! रुक क्यों गई? उसका भी नाम ले डाल। वह तेरे ऊपर मरा मिटता है। वह तुझे जी से चाहता है। जब तक तू जायेगी तुझे गले का हार बनाए रक्खेगा। जो तुझे जरा सा भी कभी दुःख हो तो मेरे मुँह पर थूँक देना! मैं जहाँ तेरा पसीना पड़े वहाँ अपना खून डालने को तैयार हूँ। मेरी लाडली! तू दुःख मत पावे। बस मेरा तो एक बार― नहीं हज़ार बार यही कहना है कि तू मान जा।"

इसके उत्तर में न मालूम "हाँ" कहती अथवा "न" सो अभी नहीं कहा जा सकता। इन दोनों की आज की बात चीत से, ग्यारहवें प्रकरण की छेड़ छाड़ से, हँसी दिल्लगी से अभी तक यह नहीं कहा जा सकता कि सुखदा का सतीत्व बिगड़ गया। उसकी अभी तक की चाल ढाल से इतना अवश्य मालूम होता है कि वह चिड़चिड़े स्वभाव की थी। माता के दुलार ही दुलार में पड़कर एकलौती बेटी माथे चढ़ गाई थी। मथुरा की कुसंगति से वह पहले ही कडवी करेली और फिर नीम चढ़ी। एक भले घर की बहू और दूसरे भले घर की बेटी के मन में यदि इतने भी विचार पैदा हुए तो मानो गजब हो गया। यह केवल मंथरा मथुरा, कुटनी मथुरा की कुसंगति का परिणाम है। इसमें दोष कांतानाथ का भी है। वह यदि मथुरा को अपने घर में न आने देता, उसका आवा- गमन प्रारंभ होने से पहले ही निश्चय कर लेता तो सुखदा हजार बुरी होने पर भी आज उसके मुँह से ऐसे शब्द न निकलते। परंतु इसके भोले मन को मथुरा की चिकनी चुपड़ी बातों ने भुला दिया। उस दुष्टा ने पहले पति पत्नी में कलह कराकर उसको वहाँ से उवाटा, उसने अपने खसम को सिखा कर सुखदा का सर्वस्व लूट लेना चाहा और वही अब इस बात का दोष अपने आदमी पर डालकर आप भली बन गई है। सुखदा को बहला फुँसला कर मथुरा ने अपनी मुट्ठी में कर लिया है और वही अब उसे किसी बदमाश के पास ले जाकर उसका काला मुँह करवाना चाहती है। इस दलाली में यदि मिल जाँय तो उस हरामजादी को सौ पचास रुपए मिल भी जाँय। यही "तिरियाचरित्र" है। कुछ भी हो, सुखदा का यदि भगवान ने सतीत्व बचा लिया तो अपने मुँह से आप कहेगी कि "भले घरों में पर पुरुषों का आना तो क्या, समझदार आदमी को चाहिए कि आनेवाली लुगाइयों पर भी खूब नजर रक्खे और ऐसी वैसी को घर की चौखट तक पर पैर न रखने दे, क्योंकि बुरे आदमियों से बुरी औरत हजार दर्जे बुरी हैं।" भगवान उसकी रक्षा करे।

अस्तु! इससे आगे इन दोनों सहेलियों की बात चीत एक दम बंद हो गई। बंद होने का कारण यही हुआ कि दोनों के संभाषण का खूब रंग जम रहा था। जब मथुरा अपनी सखी को ठिकाने लाने को ही थी, अब थोड़ी ही कसर बाकी रही थी उस समय अचानक सुखदा की मा ने इनके बीच में आकर "ऐं! क्या बात है?" पूछने से रंग में भंग कर दिया। उसकी सूरत देखते ही दोनों सकपका गईं। कहीं मा ने ये बातें सुन न ली हों इस डर से सुखदा के चेहरे का रंग उतर गया और मथुरा भी चुप चाप उठ कर तुरंत चंपत हुई। पति के चले जाने और घर का माल मता लुट जाने से अब उस पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा तब सुखदा की सा पहली सी नहीं रही थी। अब उसने समझ लिया था कि इन सब अनर्थौं की जड़ मैं ही हूँ। बस इस समझ में वह दिन रात शेती पछताती और बार बार अपने आपे को कोसा करती थी। किंतु सुखदा पर अभी जवानी का भूत चढ़ा हुआ था। पति के रूठ जाने, पिता के चले जाने और अपना तथा माता का सब धन लुट जाने पर भी अपने बनाव सिंगार के सिवाय उसे कुछ मतलब नहीं। उसके ख्याल से ससुराल में समस्त दोषों का भार पति पर और जेठानी पर था और पीहर में पिता ही दोषी थे। सारी दुनिया रूठ जाने पर भी एक रामजी न रूठने चाहिएँ और यह राम जी उसके लिये मथुरा के सिवाय कोई नहीं था।

उसकी माता चाहे दुःख के मारे सूख कर काँटा हो गई तो क्या? उसके बार बार सवाल करने पर सुखदा ने अपना मुँह फुला कर उससे कह ही न दिया―"तुझे मेरे दुःख से क्या मतलब? जब से चाचाजी गए हैं तू तो सुख के मारे फूल कर कुप्पा हुई जाती है।" दुलारी बेटी का ऐसा प्यार देख कर माता ने अपना करम ठोक कर रो दिया।