आदर्श हिंदू १/२१ त्रिवेणी संगम

आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २०७ से – २२१ तक

 
 

प्रकरण―२१

त्रिवेणी संगम।

त्रिवेणी संगम पर आकर सुस्ता लेने के बाद इस यात्रा पार्टी के लिये सब से पहला काम मुंडन करवाने का था। जंगी महाराज की आज्ञा होते ही पंडित के साथ सब लोग नाइयों के अड्डे पर जाने के लिये खड़े हुए। अड्डा नहीं― खाली बातों की खेती थी। गंगाजी की रेणुका में जब मुरई खीरे, ककड़ी, खरबूजे, तरबूज, बोते हैं―उनके इस काम से जैसे वहाँ भी भूमि हरी भरी हो जाया करती है वैसे ही इस जगह की धरती में काली माटी ओढ़ कर अपना गोरा गोरा मुँह इसलिये छिपा लिया कि जिससे किसी की नजर न लग जाय। वहाँ की अलौकिक शोभा सुंदरी के लिये यह काजल की रेखा थी अथवा प्रयाग बालक के लिये ढ़िठौना था। कोई सौ डेढ़ सौ नाई वहाँ बैठे बैठे अपने अपने उस्तरे पैनाते जाते थे और "यहाँ आओ सरकार! इधर!" की चिल्लाहट से कानों की चैलियाँ उड़ाए जाते थे। कोई किसी यात्री से अच्छी रकम पाने की आशा में उसके बाल अच्छी तरह मिगोता था तो कोई कुछ भीगे और कुछ भीगे यों ही अपना भोंथरा उस्तरा फेर कर उसे अलग करता था। कोई एक को अधमुड़ा छोड़ कर दूसरे को जा चिपटता था तो सब ही आधे बाल मुँड़ लेने के बाद यात्री से पैसों के लिये झगड़ रहे थे। यदि किसी ने इस गड़बड़ से बचने के लिये पहले ठहरा लेने का सवाल करने की चतुरता दिखाई तो उसके चेहरे की ओर देख देख कर नाऊ ठाकुर हँसते गुर्राते और मुँह मोड़ लेते थे। यदि किसी ने आने दो आने दिखाए तो गालियाँ देते और इस तरह जब तक चार आने, छः आने और रुपथा घेली नहीं पा लेते यात्री का पिंड नहीं छोड़ते थे। कभी सरकार, अन्नदाता और महाराज की पदवी देकर उसकी खुशामद करते, खुशामद ही खुशा- माद में उसे चौथे आस्मान पर पहुँचा देते और कभी नाराज होकर उसे, उसके पुरखाओं को गालियों के प्रसाद से नरक मैं जा ढकेलते थे। बस इस तरह गाँठ का पैसा गँवा कर प्रयागी नाइयों से अपने सिर पर हाथ फिराने बाद, भोंथे उस्तरे से मुँडवा कर सिर पर, दाढ़ी पर, मोछ पर चोट खाते, लहू पोंछते, गालियाँ खाते और बिलखते बिलखते यात्री वापिस आते थे। भोला की ऐसी ही दुर्दशा देख कर पंडित जी घबड़ा उठे।

पंडितजी का और इसके साथ में इनके साथियों का अवश्य ही सौभाग्य समझो। सौभाग्य इस लिये कि इनकी सूखी सूखी बातें सुन कर जंगी महाराज कुछ कुछ डर गए थे। बस इसलिये उन्होंने कृपा कर इन लोगों को नाइयों के फंदे से बचा दिया। उनकी आज्ञा से तट ही तख्तों पर बैठ कर ही इन्होने सिर मुँडवाया। दाढ़ी मुड़वाई और मोछें मुड़वा कर बस नख और कांख छोड़कर बिलकुल सफाचट हो गए। पति और देवर का औरतों का सा सफाचट मुँह देख कर प्रियंवदा मुसकराई, और रोकते रोकते अपने प्राणनाथ की ओर एक कटाक्ष डालते हुए बस "काजल और टिकुली की कसर है" कहे बिना उससे न रहा गया। मा बाप मौजूद बतला कर गोपी बल्लभ ने भी अपनी बांकड़ी मोछें और "मान मनोहर" दाढ़ी मुँड़वाने में बहुत ही आना काना की, किंतु बूढ़े की एक ही घुड़की को उसे सीधा कर दिया। भगवानदास का पोपला मुँह अब तक उसकी लंबी और भारी दाढ़ी के घूँघट में छिपा हुआ था। आज दाढ़ी और मोछें उतरते ही पोपलेपन की पोल निकल गई। औरों को मुँड़वाते देख कर बुढ़िया चमेली का भी शौक चर्राया। नाई ने लेख बतला कर उसे केवल पैसे के लोभ से राजी कर लिया और इसलिये बूढ़े बुढ़िया की एक सी सूरत देखते ही सब के सब खिलखिला उठे। नाई राम ने तो प्रियंवदा को भी फुसलाने में कसर नहीं की थी किंतु "चल निगोड़े, कहीं सुहागिन लुगाइयाँ भी ऐसा करती होंगी!" कह कर उसने उसे टरका दिया। जब प्रयागी नाइयों की हुज्जत करने की आदत ही ठहरी फिर इनसे झगड़ने में वे क्यों चूकने लगे परंतु सब की मुँड़ाई के दो रूपए दिलाकर जंगी महाराज ने फैसला कर दिया। अब पंडित, पंडितायिन, गौड़बोले, भगवानदास, चमेली और गोपीबल्लभ सबही इकट्ठे होकर स्नान करने के लिये भगवती में घुसे। घुसने से पहले इन सबने माता का जल लेकर माथे पर चढ़ाया और तब इस तरह उसकी स्तुति करने लगे―

पंडित जी बोले―

"हरि पद कमल को मकरंद,
भलिन मत्ति मन मधुर परिहरि विषय नीरस फंद,
परम शीतल जानि शंकर सिर धरयो तजि चंद,
नाक सर बस लेन चाहो सुरसरी को विंद,
अमृत हू ते अमल अति गुण अवति निधि आनंद,
सूर तीनों लोक परस्यो सुर असुर जस छंद,
"वैद्य की औवध खाऊँ कछु न करूँ व्रत संयम री सुन मो से।
तेरो ही पान पिए रसखान सजीवन लाभ लहै सुख तो से॥
एरी सुधामय भागीरथी सब पथ्य कुपथ्य करे तव पोसे।
आक धतूरो चबात फिरै विष खात फिरे शिव तोरे भरोसे॥"

प्रियंवदा ने गाया―

"जयति जय सुरसरी, जगदखिल पावनी।
विष्णु पद कँज मकरँद इव अँबु बर बहसि दुख दहसि,

अघवृंद विद्रावनी।


मिलत जल पात्र अज युक्त हरि धरण रज विरज वर वारि

त्रिपुरारि सिर धामिनी।

जन्हुकन्या धन्य पुण्यकृत सगर सुत भूधर द्रोणी

विद्दरणि बहु नामिनी।


यक्ष गंधर्व मुनि किन्नरोरग दनुज मनुज मज्जहि सुकृत

पुंजयुत कामिनी।


स्वर्ग सोपान विज्ञान ज्ञान प्रदे मोह मद मदन

पाथोज हिम यामिनी।


हरित गंभीर बानीर दुहुँ तीर बर मध्य धारा

विशद विश्वं अभिरासिनी।


नील पर्यंक कृत शयन सर्पेश जनु सहसशीशावली

स्त्रोत सुर स्वामिनी।


अमित महिमा अमित रूप भूपावली मुकुटमणि बंध

बैलोक्य पथगामिनी।


देहु रघुबीर पद प्रीति निर्भर मातु तुलसीदास आस

हरणि भव भामिनी।"

कांतानाथ ने ललकारा―

"हौं तो पंचभूत तजिबे को तक्यो सोहि पर तैंतो करयो मोहि

भलो भूतन को पति है।


कहै पद्माकर सुएक लन तारिबे में कीन्हें तन ग्यारह

कहो तो कौन गति है॥


मेरे भाग गंग यही लिखी भागीरथी कहिये कछुक सो

कितेक मेरी मति है।

एक भव शूल आयो मेटिवे को तेरे कूल तोहि तो

त्रिशूल देत बारि ना लगत है॥"

गौड़वोले बोले―

"जय से जन्म भयो पृथ्वी पर कभी न हरि को नाम लियो।
सेवा की नहिं मात पिता की साधुन को नहिं काम कियो।
हरो बहुत धन ठग ठग के नहीं हाथ से एकहु दाम दियो।
कियो बहुत विष पान अमृत को एकहु बेर न जाम पियो।
कैसे बचिहौं काल से मैं अब कौन छुटहिहै मोहिं यम से।
मैं पापी तुम तारन वारी बनिगे पाप बहुत हम से।
वेद पुराण बखानत निशि दिन अधम पापियों को तारा।
किया बहुत संग्राम काल से और यमदूतों को मारा।
सुनी बात यह श्रवण में मैंने किये पाप अपर पारा।
बनिहैं और बहुत से अघ देखौं कैसे हो निस्तारा।
अब तो यही लड़ाई ठानी गंगा जी मैं तुम से।
मैं पापी तुम तारनवारी बनिगे पाप बहुत हम से।"

इस तरह जिस समय ये चारों गंगा जी की स्तुति कर रहे थे, गंगास्तवन गा गा कर प्रसन्न होते जाते थे बूढ़े भगवानदास और उसकी गृहिणी चौधार आँसू रो रहे थे। इनकी प्रेमविह्वलता देख कर ये चारों भक्ति में, प्रेम में मग्न हो गए। इनकी आँखों में से आँसू बहने लगे और जब तक तख्ते पर बैठे हुए जंगी महाराज ने एक ललकार मार कर न चिताया ये अपना आपा भूल गए। उसके मुख से 'हाँ महाराज संकलप' सुन कर इन लोगों की आँखें खुलीं और तब गौड़बोले ने शास्त्रविधि से इनको स्नान करा, संकल्प कराया और इतने ही में फूलों की डालियाँ लिए हुए माली, दूध का बरतन लिए अहीर और भिखारियों ने आ आ कर भगवती में भीगे वस्त्रों से, खड़े खड़े ही इनको चारों ओर से घेर लिया। शरीर में राख रमाए, नौकाओं में भगवान् की मूर्तियों को चढ़ाए, भगवान् के नाम पर पुजापा माँगनेवाले दुनिया छोड़ने पर भी लोभ न छोड़ने वाले तीन चार साधु अपनी अपनी नावें लिए इनके चारों ओर आगए, और उनको ठहरा कर झालर घंटे और शंख घड़ियाल बजाने और चिल्ला चिल्ला कर माँगने लगे। "यहाँ की सब जाति मँगती! देश का दुर्भाग्य! हट्टे कट्टों को भी भीख माँगते हुए लज्जा नहीं आती!" कहते हुए ज्यों ही पंडितजी को मथुरा के विश्रांत घाट का अनुभव स्मरण हो आया उन्होंने तुरंत ही ललकार कर अपने साथवालों से कहा―"खबर- दार! एक पाई भी किसी को दी तो अभी ये लोग हम सब को यहीं डुबो कर मार डालेंगे।" यह सुनते ही इनके हाथ का हाथ में और टेंट का टेंट में रह गया। इस प्रकार की आवाज सुन कर पंडितजी के साथी देने से अवश्य रुक गए किंतु ऐसी बँदर घुड़की में आकर लेनदार यदि रुक जायँ तो कल ही उनके चूल्हे में पानी पड़ जाय। जो इन लोगों के पास खड़े थे वे और भी पास आ गए और दूरवालों ने उन पासवालों की जगह ले ली। जल में अधिक देरी तक खड़े रहने से जब प्रियंवदा का गोरा रंग और भी सफेद पड़ गया तब पंडितजी के होठ थरथराने और कांतानाथ के दाँत बजने लगे हैं। बूढ़ा भगवानदास अवश्य ही अब तब कड़ा बनकर पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा हुआ था किंतु एकाएक उसका हाथ कमर पर पड़ा। पड़ते ही रुपयों की बसनी के बदले उसके हाथ में डोरी आई। डोरी आते ही वह एक दम चीख मार कर पानी में गिर पड़ा और बेहोश होकर जब डुबकियाँ लेने लगा तब किसी ने समझा घड़ियाल खैंच रहा है और कोई बोला मिरगी आ गई! किंतु उसकी चीख का असली भेद तब तक किसी ने न जाना जब तक उसने ही सचेत होकर अपनी जबान से न कहा कि―

"मेरी कमर से डेढ़ सौ रुपए की दस गिन्नियाँ कोई काट ले गया। हे भगवान अब मैं यात्रा कहाँ से करूँगा।"

उसे होश भी कोई दो चार मिनट में आया हो सो नहीं। सख्ते पर डाल कर खासे आधे घंटे तक कंबल उढ़ाए रखने के बाद। इतने अर्से में ले जानेवाला न मालूम कितनी दूर पहुँच गया होगा। खैर पंडित जी जब खर्च देने का वादा करके उसको ढाढ़स बँधा चुके तब विजया देवी की निद्रा में से जाग कर जंगी महाराज ने कहा― "हाँ जजमान! मैं कहने ही को था। यहाँ चोर उचक्कों से खबरदार रहना!"

इस तरह बूढ़े के डेढ़ सौ रुपए गए और उस समय उन भिखारियों को एक पाई तक देने से रोक कर इन लोगों ने बदले में कम से कम डेढ़ सौ ही गालियाँ खाई। त्रिवेणी के पूजन के लिये पुष्प दूध और फलादि का प्रबधं पहले ही से जंगी महाराज ने कर रक्खा था। उन्हीं से इन लोगों ने पूजन किया और कराया गोड़बोले ने। अब सूखे वस्त्र पहन कर श्राद्ध करने की पारी आई। पंडितजी ब्राह्मण और भग- वानदास तथा भोला शूद्र। पंडितजी को श्राद्ध कराना वेद मंत्रो से और औरों को "शूद्र कमलाकर" से। दोनों काम एक साथ हो भी नहीं सकते और गौड़बोले था दाक्षिणात्य। उसने शूद्रों को कर्म कराना स्वीकार भी नहीं किया। बस इस लिये दोनों भाइयों को श्राद्ध कराने का काम गौड़बोले ने लिया और भगवानदास आदि को कराया जंगी महाराज के बतलाए हुए घुरहू पंडित ने।

घुरहू पंडित विद्यावारिधि था अथवा निरक्षर भट्टाचार्य सो कहने का कुछ कुछ प्रयोजन नहीं किंतु पंडितजी के साथ होने से पूर्व गौड़बोले को जब भर की हाय हाय से चार चौक सोलह पैसे भी नसीब नहीं होते थे तब घुरहु पंडित नित्य ही सायंकाल की पूरी मिठाई खा कर पेट पर हाथ फेरता हुआ, दुपट्टे में दो तीन और कभी कभी अधिक भी सीधे दबाए और टेंट में तीन चार रुपए खोसे घर पहुँचता था। इस पर पाठकों को अधिकार है कि वे दोनों में से किसी को पंडित समझ लें किंतु लोगों का खयाल यही था कि जिस से टका ही न कमाया जाय वह विद्या क्या और इसलिये समस्त प्रयागवासी नहीं तौ भी दारागंज में तो घुरहू अवश्य विद्या- वारिधि समझा जाता था और अपने पति की ऐसी प्रशंसा सुन सुन कर उसकी पंडितायिन नित्य उठकर बलैयाँ लिया करती थी, नजर लग जाने के डर से कभी तिनके तोड़ा करती और कभी उन पर लाल मिरचैं सात बार बार कर चूल्हे में जला दिया करती थी।

श्राद्ध की सामग्री पहले ही से जुदी जुदी मँगवाई गई थी। ब्राह्मणों के लिये खोवे के पिंड और श्रुद्रों के लिये जौ के आटे के। गोड़बोले महाशय ने शास्त्रविधि से दोनों भाइयों को एकतंत्र से पार्वण श्राद्ध करवाया। पंडित और पंडितायिन जिस समय इस कार्य में लगे तब प्रियंवदा ने आँखों में पानी लाकर देवर से कहा कि अभी देवरानी भी साथ होती तो पूरा आनंद आता और देवर जी ने "ॐ! होगा" कहकर यों ही इस बात को टाल दिया। श्राद्ध करते समय पिंडों का पूजन करने के अनंतर जब मध्यपिंड को सूँधने का समय आया तब पंडित जी ने उसे नाक से लगाकर आँखे बंद करलीं। कोई पाँच मिनट तक निश्चेष्ट होकर यों ही वे बैठे रहे। फिर उन्होंने गंगाजी की और आँख भर कर देखा। उनके मुख के भाव से ऐसा मालूम हुआ मानो वे किसी मूर्तिमती को निहार रहे हैं, थोड़े देर तक उन्होंने पलकें न डालीं और तब फिर आँखें बंद करके वे आँसू बहाने लगे। इसका मतलब न तो प्रियंवदा ही ने समझा और न कांतानाथ के कुछ ध्यान में आया। हाँ अंत में पंडित जी के "हे माता।" कहकर हाथ जोड़ने और गौड़बोले के―"आपका काम सिद्ध समझो।" कहने का मतलब प्रियंवदा ने तो यह लगाया कि "गंगा माता पुत्र प्रदान करेंगी" और कांतानाथ समझा कि "माता की प्रेत योनि छूट जायगी।" किंतु बहुत खोद खोद कर पूछने पर भी दोनों ने दोनों को नहीं बतलाया कि इस बात का असल मत- लब क्या था।

दरिद्री गौड़बोले के लिये केवल एक ही यजमान था इसलिये इस तरह लंबा चौड़ा श्राद्ध कराकर यह तीन घंटे लगादे तो लगा सकता है किंतु घुरहू पंडित यदि एक यजमान को एक ही श्राद्ध कराने में तीन का आधा डेढ़ घंटा भी लगावे तो न तो उसे कल से जंगी महाराज ही घाट पर बैठने दे और न आज से जोरू ही घर में घुसने दे। खाने के लिये मुट्ठी भर चने देना तो कहाँ? यदि घर ले जूते मार कर न निकाल दे तो उसकी कृपा समझो। खैर! जंगी गुरु के कम से कम तीस चालीस यजमान इकट्ठे हुए। कोई कहीं का ब्राह्मण और कोई कहीं का भाट। जाट गूजर, काछी, कुरमी, नाई, तेली "सब धान बाइस पसेरी। "कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा और भानमती ने कुनबा जोड़ा।" बस सब को एक तंत्र से श्राद्ध कराया गया। इसमें बूढ़ा बुढ़िया भी शामिल किए गए। हमारे पाठक महाशय जो बंदर चौबे का संकल्प सुन चुके हैं उनके सामने घुरहू पंडित का संकल्प कहना केवल दुहराना है क्योंकि दोनों एक ही गुरु के चेले और एक ही शास्त्र के ज्ञाता थे । अस्तु घुरहु पंडित ने अपने इर्द गिर्द सब लोगों को वर्तुलाकार बिठला कर कभी अमरकोश के टूटे फूटे श्लोकों से धरती पर कुश डलवाए और कमी कहीं का श्लोक याद न आया तो यों ही झूठ मूठ गुनगुना कर उन पर पानी डलवाया और जब पिंडों का नंबर आया तो "आपने बाप को, उसके बाप को, दादा को, परदादा को, लकड़ दादा को, उसके बाप को उसके बाप को कह कह कर प्रत्येक पिंड के साथ एक एक ताली पीट कर बात की बात में एक एक डेढ़ डेढ़ सौ पिंडों का ढेर लगवा दिया, और प्रत्येक पिंड के साथ एक पैसा भेंट, एक रुपया आचार्य दक्षिणा, चार चार पैसे के दस दस गोदान और ऐसे ही अटरम सटरम पैसे इकट्ठे करने के बाद हाथों में फूलों की माला डाल कर सुफल बुलाने के लिये गुरु जी के पास भेज दिया। गुरु जी वास्तव में पूरे गुरु थे। गुरुआई के हथकंडे अच्छे जानते थे। उन्होंने कभी नर्मी और कभी गर्मी, कभी खुशामद और कभी रुखाई, कभी यजमानों के पुरखाओं की प्रशंसा और कभी ताना देकर जहाँ तक बन सका उन लोगों से जोत जुताकर उनकी पीठ ठोंकते हुए सुफल बोल दी। बस इसके बाद भिखारियों ने इनकी क्या दशा की सो कहने की आवश्यकता नहीं। हाँ! पंडित जी की सिफारिश से भगवानदास और भोला का जल्दी छुटकारा हो गया और गुरु जी ने उनको बहुत तंग भी न किया।

इस जगह एक घटना अवश्य हो गई। घटना यह कि इन यात्रियों में से एक शौकीन ने मस्तक पर लगाने के लिये चंदन माँगा। यद्यपि चंदन वहाँ मौजूद था परंतु घिसने के परिश्रम से बचने के लिये गुरुजी ने उसे थोड़ी सी गंगा की माटी दे दी। यात्री इधर उधर से उसे देख कर बोला―"अरे महाराज! यह तो मृत्तिका है। चंदन देओ।" गुरुजी झट बोल उठे―"गंगाजी की मृत्तिका चंदन करके मान!" उसने "ठीक" कह कर उसी से तिलक लगा लिया। थोड़ी देर में जब गोदान के संकल्प का अवसर आया और गुरुजी ने प्रत्यक्ष गाय दिखा कर प्रत्यक्ष गोदान का आग्रह किया तब झटपट वह अपनी जगह से उठ कर एक मेंढक पकड़ लाया। लाकर वह उसे गुरुजी को थँमाते हुए बोला "लीजिए प्रत्यक्ष गोदान।" देखते ही गुरुजी झल्लाए। वह आँख दिखा कर कहने लगे―"क्या दिल्लगी करते हो?" बत इस पर उसने कहा―"नहीं महाराज! दिल्लगी नहीं! गंगाजी का मेंढ़की गैया करके मान।" इस पर एक बार एक दम सब हँस पड़े, फिर पंडितजी ने उसे बहुत फटकारा और बहुत समझा बुझा कर कायल किया तब वह गुरुजी के चरणों में पड़ कर क्षमा माँगने लगा।

"हाँ! एक बात याद आ गई! इस प्रत्यक्ष गोदान ने एक पुरानी बात स्मरण करा दी। मैंने सुना है कि यहाँ पहले उभय- मुखी गोदान के नाम से बड़ा अनर्थ होता था। गैया को बच्चा जनते समय रोक कर दुष्ट लोग घंटों तक बच्चों को वैसे ही अधलटका लिए हुए गोदान कराते फिरते थे। कहते हैं कि यह दुष्टता बूँदी के महाराज रामसिंह जी कोई पचास बर्ष पहले बंद करवा गए।"

गौड़बोले के मुख से ये वाक्य निकलते ही पंडित, पंडिता- यिन, कांतानाथ और बूढ़े बुढ़िया का हृदय काँप उठा और वहाँ जो बूढ़े बूढ़े बैठे थे वे हाँ! हाँ!! कह कर महाराज को आशीर्वाद देने लगे। इतने ही में एक यात्री ने कहा―"साहब, अब भी हिंदुस्तान में बड़ा अनर्थ होता है। गाय बछड़ों के पाँच सात पैर, आँख में जीभ आदि विशेष अंग बतला बतला कर कितने ही लोग खूब पैसा लूटते हैं किंतु वास्तव में ये अंग बनावटी होते हैं। बचपन में उनके शरीर में सीं दिए जाते हैं और इस तरह वे बिचारे गूँगे प्राणी आजीवन दुःख पाते हैं। यहाँ वेणी तीर पर भी मौजूद हैं। आज ही मैंने देखे हैं। जिन्हें देखना हो मैं अभी दिखला सकता हूँ।"

उस यात्री के ऐसे मर्मभेदक शब्द सुन कर इन लोगों का हृदय दहल उठा और सब काम छोड़ कर उसे देखने के लिये पंडित प्रियानाथ उसके साथ हो गए। ऐसा ही एक और भी अनर्थ गंगा जी में मछलियाँ मारने का देखा गया था।





―――――:*:―――――