आदर्श हिंदू १/१७ स्टेशन का सीन

आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १६३ से – १७६ तक

 
 

प्रकरण―१७

स्टेशन का सीना।

जब मथुरा, वृंदावन आदि चौरासी कोश की ब्रजभूमि की यात्रा से निवृत्त होकर पंडित प्रियानाथ स्टेशन पर पहुँचे तब उनकी आँखों में पानी भर आया। उन्होंने कहा कि- "यहाँ की यात्रा से निवृत्त अवश्य हुए (निवृत्त क्या हुए अभी बड़ा लंबा सफर करना है इस लिये लाचारी से निवृत्त होना पड़ा) किंतु तृप्त नहीं हुए। भगवान यदि फिर भी कृपा करे तो एक बार जन्म सुफल करने का अवसर फिर मिल सकता है।" पंडित जी के कथन का सब ही संगी साथियों ने अनु- मोदन किया और सबही की आँखों में जल छा गया। अवकाश पाकर इन लोगों की इच्छा हुई कि बार बार ब्रजभूमि के गुणानुवाद की चर्चा हो तो अच्छा, अपने कर्ण कुहरों को श्री कृष्ण चरितामृत पिलाया जाय तो सौभाग्य और जहाँ तक गाड़ी की घंटी न बजे अपनी आँखें खोल खोल कर, फैला फैला कर इस पुण्य भूमि को निरखने के सिवाय और कुछ काम ही न करें। उस समय तक स्टेशन पर अधिक भीड़ भाड़ न देख कर ये लोग जानते थे, जानते क्या थे मन मोदक बनाते थे कि आज खूब टाँगें फैलाकर सोने का अवसर मिलेगा।" किंतु इनके मन मोदक नहीं बूर के लडुवा निकले। बात की बात में यात्रियों की भीड़ से, बारात वालों से और साधारण मुसाफिरों से वहाँ का मुसाफिरखाना भर गया, बाहर के मैदान भर गए और सड़क में कसामसी होकर एक्के गाड़ियों का आना जाना बंद हो गया। अब लोगों के हल्ले गुल्ले के आगे कान पड़ी बात सुनी जाना बंद, इधर से उधर और उधर से इधर फिरना डोलना बंद और जब स्टेशन पर भीड़ के मारे कोनियाँ से कोनियाँ छिली जाती हैं, जब पैरों का कुचल कुचल कर चूर चूर हुआ जाता है और जब धक्का मुक्की के आगे एक कदम भी आगे बढ़ाना कठिन है तब बहुत ही हाजत होने पर भी पेशाब पाखाना बंद और खाना पीना बंद।

सरकार की आज्ञा से, प्रजा की प्रार्थना से, अपना लाभ समझ कर रेलवे कंपनी ने अवश्य ही नगर में टिकटघर खोल दिया है परंतु शहर के थोड़े जानकारों के सिवाय उस जगह टिकट लेने जावे कौन? बिचारे अपढ़ परदेशियों को मालूम ही क्या कि दिन भर टिकटघर खुला रहता है। जब रेलवे गाइड केवल अंगरेजी के सिवाय किसी देश भाषा में नहीं छपती है और न स्टेशनों पर यात्रियों को जतला देने का कोई नियम है तब थोड़े बहुत पढ़े लिखे यात्री भी इस बात को नहीं जान सकते। और जो अंगरेजी पढ़नेवालों ने जाना भी तो उनकी संख्या समुद्र में बूँद के समान। तीस करोड़ भारतवासियों में केवल तीन लाख। बस इस लिये इतनी भीड़ में से सौ दो सौ के सिवाय सब ही जैसे भगवान के दर्शन के लिये मंदिर के किवाड़ खुलने की राह देखते भक्त जन एकटक से एकाग्रचित्त होकर खड़े रहते हैं उसी तरह सब ही मुसाफिर खड़े हैं और खड़े खड़े खिड़की की ओर निहार निहार कर हडबड़ाते जाते हैं, अकुलाते जाते हैं और घबड़ाते जाते हैं।

बस थोड़ी देर में टिकट बटने की घंटी के साथ ही खिड़की खुली। जो लोग हट्टे कट्टे मुस्टंडे थे, जो धक्का नुक्की से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ कर घंटा भर पहले ही से जा खड़े रहे थे वे अवश्य ही जीत में रहे। यदि अधिक भीड़ देख कर एक ही जगह दो चार खिड़कियाँ एक साथ खोल दी जातीं तो सब लोगों को टिकट मिल सकते थे किंतु आज टिकट ले लेना जान की बाजी लगाना था। बलवान दुर्बलों को, अब- लाओं को और बालकों को दबा कर, उनके हाथ पैर कुचल और उन्हें अपने शरीर के बल से पीस पीस कर आगे बढ़ते थे और जहाँ तक बन सकता था टिकट पाते भी थे। किंतु आज अंधे अपाहिजों की, लूले लँगड़ोँ की, स्त्री बालकों की बड़ी मुश्किल थी, यद्यपि भीड़ को हटाने में, गुलगपाड़ा बंद करने में और डाँटने डपटने में पुलिस ने कभी नहीं की। जहाँ ललकारने, फटकारने से काम चल सका वहाँ ललकार फटकार कर और जहाँ डंडा मारने की आवश्यता हुई वहाँ डंडा मारकर उसने रोका भी, किंतु आज टिकट घर की ओर नरमुंडों का समुद्र उलट रहा है। भीड़ में से एक दूसरे की लात से, घूँसे से पूजा कर के आगे बढ़ता है तो दूसरे ने गालियों के गोले चलाने ही में बहादुरी लूटनी चाही है। बस इस तरह कहीं हल्ला, कहीं गाली और कहीं―"हाय मरा! अरे मरी! हाय जान निकली जाती है! अरे मेरा लाला! हाय लाला को बचा- इयों!" की आवाज, चिल्लाहट, आर्तनाद कलेजे को फाड़े डालता है।

यात्रियों के कष्ट की आज इतने ही में इसिश्री नहीं है। गहरी गर्मी और कड़ी धूप के बाद बादलों ने दिशा विदिशाओं को चारों ओर से घेर कर दुपहरी में आकाश को काला करके, संसार में उजियाला करने वाले जटायु और संपाती के पर जलाकर उनके अभिमान का चकनाचूर करनेवाले और अपनी प्रखर किरणों से दुनियाँ को तपा देनेवाले; जला डालने का घमंड रखनेवाले भगवान भुवनभास्कर का घमंड दूर करने ही के लिये अपनी गोद के बालक की तरह उन्हें छिपा लिया है और इसलिये जो नामी कवि हैं उन्हें एक अद्भुत उपमा दिखा देने का अवसर हाथ आया है। भला "बेटे की गोदी में बाप" ऐसा सीन यदि किसी ने उमर भर न देखा हो तो आज देख ले। क्योंकि बादल जब सूर्य नारायण से पैदा होते हैं तब उनके बेटे हैं ही। अस्तु भर दुपहरी में बादलों ने एक ओर सूर्य को छिपा कर जब दिन में चिराग जलाने की नौबत आने का अवसर उपस्थित कर दिया है तब थोड़ी बहुत बूँदे डाल कर कंजूस दानी की तरह उमस लोगों को जुदी ही मारे डालती है। ऐसी दशा में यदि बिचारे यात्री व्याकुल हो जाँय तो उनका दोष ही क्या?

किंतु क्या उन्हें केवल इतना ही दुःख है? भारतवासी अनेक शताब्दियों से कष्ट भोगने के आदी हैं, अभ्यस्त हैं और यह कष्ट भी अधिक देर का नहीं, इसलिये थोड़ी देर यदि जी कड़ा कर लें तो इसे भुगत भी सकते हैं परंतु एक दुःख सब से भारी आ पड़ा। इस जगह की ऐसी दुर्दशा देख कर चोरों की, उठाईगीरों की और जेबतराशों की भी जीभ लपलपाने लगी। उनकी नाज खूब ही बन आई। "बस आज गहरे हैं! जितना बन सके खूब लूटो! इस कसामसी के समय किसी की कोई सुननेवाला नहीं है।" बस इसी विचार में उन लोगों ने खूब हाथ मारने का लग्गा लगाया। "वह गठड़ी ले भागा! अरे, मेरी जेब? हाय मैं क्या करूँगा? अब टिकट के लिये पैसा तक नहीं। अजी किसी ने मेरी नथुनी खैंच कर नथुना तक फाड़ डाला। हाय कान की बालियाँ खैंच ले गया। देखो जी खून टपक रहा है। हाय मेरे सोने के बटन! यह देखो! यह देखो! मेरा चंद्रहार तोड़ ले गया। पकड़ो पकड़ो? खड़े खड़े क्या ताकते हो? मर्दो में नाम धराते हो? पकड़ो। तुम्हारे सामने से ले भागा और तुम से कुछ भी करते धरते नहीं बना तब तुम काहे के मद!" इस तरह की बात चीत से, रोने चिल्लाने से और हाय हाय करने से इस भीड़ में एक नई हल चल पैदा हो गई है। परंतु किसी की ताब नहीं जो इन बदमाशों को पकड़ सके।

यद्यपि पंडित प्रियानाथ और उनके साथियों को भी मर्दूमी का दावा है परंतु आज उनकी भी सिट्टी गुम। शहर के टिकट घर से अवकाश के समय टिकट न खरीद लाने पर पंडित जी छोटे भैया से नाराज होते हैं, सामान की रक्षा करने के लिये भोला कहार को, स्त्रियों को और बूढ़े बाबा को बार बार सचेत करते हैं और आगे के लिये लोगों को ऐसा कष्ट न उठाना पड़े इस लिये मन ही मन कुछ उपाय भी सोचते हैं किंतु आज इन से एक कदम भी वहाँ से डिगना नहीं बन सकता। "टिकट इंटर का लेना, अथवा थर्ड का" इस सवाल को हल करने के लिये दोनों भाइयों में खूब उलझा उलझी हुई। भीड़ को देखकर कांतानाथ की यहाँ तक राय थी कि "भाई भौजाई के लिये यदि सेकंड का टिकट भी ले लिया जाय तो अच्छा।" किंतु "आज सेकंड में जगह मिलनी असंभव है क्योंकि कई लोगों ने पहले ही से रिजर्व करा लिया है और इस भीड़ को देखते हुए जैसा इंटर वैसा ही थर्ड! फिर वृथा पैसा क्यों फेकना? इंगलैंड के वजीर मिस्टर ग्लैडस्टन जब आनुभव प्रास करने के लिये की कभी थर्ड क्लास में सफर किया करते थे तब हम कौन से धनवान हैं?" इस तरह कह कर इन्होंने आँख के इशारे में प्रियंवदा से पूछा और आँख के संकेत से ही जब उसने उत्तर दे दिया कि―"जैसी आपकी इच्छा" तब थर्ड क्लास का टिकट ही लेना ठहरा आर कांतानाथ और गोपीबल्लभ दोनों किसी न किसी उपाय से टिकट भी ले आए। इस उपाय से ऐसा न समझना चाहिए कि किसी को कुछ दे दिला कर ले आए। बेशक इन्हें एक दो आदमी ऐसे भी मिले थे जो खर्च करने पर "बुकिंग आफिस' के भीतर जाकर टिकट ला देने को तैयार थे किंतु ऐसे टिकट मँगा लेने के लालच से शायद धोखे में आकर अपनी पूँजी भी गँवा बैठें तो क्या आश्चर्य। किसी किसी ने इनसे यहाँ तक सलाह दी थी कि पुलिस को कुछ दे दिला कर खिड़की के पास पहुँच जाना किंतु रिशवत देना और रिशवत लेना दोनों ही बुरे। ये दोनों भाई भी कहीं के किसी उहदे पर थे और हजारों के बारे न्यारे का अनेक बार अवसर आने पर भी इन्हें इन दोनों बातों से जब सौगंद थी तब कांतानाथ और गोपीबल्लभ ने पंडित पंडितायिन और बुढ़िया के हज़ार मना करने पर भी भीड़ में प्रवेश कर दिया। इन्होंने बहुतेरा कहा कि "आज भीड़ अधिक है तो कल सही।" परंतु दोनों ने इस बात पर बिल- कुल कान न दिया।

ऐसी गहरी भीड़ में घुस पड़ने से इनके रुपए पैसे के लिये खूब छीना झपटी हुई, वहाँ की रेल पेल से इनका शरीर पिस कर कुचल कर और लात घूँसे से चकना चूर भी हुआ और दोनों अपने अपने साफे भी खो आए किंतु वापिस आए और जान पर खेल कर टिकट लेकर आए। इस तरह दोनों जने जब टिकिट लिए हुए हाँपते हाँपते घबड़ाते घबड़ाते पंडित जी के पास पहुँचे तो उन्होंने छाती से लगा कर दोनों को शाबसी दी, इनकी प्रशंसा करके इनका मन बढ़ाया और पंडितायिन ने पंखा झल कर इनको शांत किया।

ऐसे टिकट हाथ इनके अवश्य आएगा किंतु टिकट मिलते ही ट्रंक गायब। ट्रंक किसका था? प्रियंवदा का। उसी के कपड़े लत्ते उसमें रक्खे थे। कपड़े लत्ते होंगे कोई पाँच छ: जोड़ी। चार पाँच किताबें और शीशा, काजल, कंघी, रोरी, डोरी, सिंदूर आदि श्रृंगार और सौभाग्य की सामग्री। ले भागनेवाले पर सब से पहले नजर भोला कहार की ही पड़ी क्योंकि यह उसी के चार्ज में था और इसमें प्रियंवदा की प्यारी चीजें रक्खी हुई थीं इसलिये वह भी बार बार इसे सँभालती जाती और भोला से ताकीद करती जाती थी। उठाईगीर को इसे उठाकर ले भागते देखकर भोला चिल्लाया बहुत परंतु अपने आसन से उठकर एक इंच भी न टला। 'यह गया! वह गया!! ले गया।' की आवाज कान पर पड़ते ही कांतानाथ और गोपीवल्लभ खड़े हुए किंतु अभी तक इनकी पहली घबड़ाहट मिटी नहीं थी इस लिये इनके पैर लड़खड़ाने लगे। बूढ़े भगवानदास की नसों में जोश आते ही बासी कढ़ी में अवश्य उबाल आया किंतु "कहीं मर रहोगे! जाने दो ले गया तो!" कहकर बुढ़िया ने उसकी टाँग पकड़ ली। अब पंडित जी की पारी आई। प्रियंवदा ने उन्हें बहुतेरा मना किया, अपने गले की सौगंद दिलाई, झुँझलाई, रिसाई और हाथ पकड़ कर उन्हें बिठला देने का भी उसने प्रयत्न किया। "ले गया तो क्या नसीब ले गया? भगवान तुम्हें प्रसन्न रक्खें। जो कुछ है तुम्हारी ही बदौलत है। मैं नहीं जाने दूँगी। ऐसी भीड़ में नहीं! अजी हाथ जोड़ती हूँ! नहीं! पैरों पड़ती हूँ नहीं!!" इत्यादि वाक्यों से पति को रोका किंतु उन्होंने इस समय इसकी एक भी बात पर कान न दी।

इन्होंने भीड़ की चीरते, छलाँग भरते, धक्के खाते और धक्के देते हुए "यह लिया! वह लिया! पकड़ लिया!" करके कोई पचास कदम के फासले पर उसे जा ही तो पकड़ा। एक हाथ में ट्रंक लटकाए और दूसरे हाथ से गर्दन पकड़े उसे धकियाते धकियाते यह सीधे पुलिस की चौकी में पहुँचे। वहाँ जाकर इन्होंने पहले उस चोर को दारोगा के हवाले किया। उसने हथकड़ी भरी और तब उनके नाम का कार्ड उनके हाथ से थाँमा। कार्ड हाथ में लेकर पढ़ते ही उसने इनकी ओर खूब निहार कर देखा और पहचाना। तब मुजरिम और माल की रसीद ले अपने पते का संकेत दे अपने ही हाथ से अपना लिखा हुआ बयान देकर पंडितजी अपने संगी साथियों में आ शामिल हुए। सब देखते के देखते ही रह गए कि यह मामला क्या है? ऐसी इनमें कौन सी करामात थी जो पुलिस से इनका इतनी जल्दी छुटकारा हो गया। इतने अर्से में "गाड़ी छोड़ा" के गगनभेदी शब्द के साथ ही टिकट कलक्टर महाशय प्लेटफार्म पर जाने के फाटक पर आकर खड़े हुए। इन महाशय का रंग रूप दिखलाने से कुछ मतलब नहीं। जो साहब लोगों के से कपड़े पहन लें वे ही साहब, फिर यह ठहरे टिकट कलक्टर! कलक्टर, हाकिम जिला से इनके उहदे में एक शब्द अधिक है। वह अपने इलाके के राजा होने पर भी कानून के विरुद्ध एक पत्ता नहीं हिला सकते तब यह मुसाफिरों के मा बाप, कर्ता धर्ता विधाता। अस्तु। धक्कामुक्की से यात्रियों की जैसी खराबी मुसाफिर खाने में थी वैसी ही, उससे कहीं बढ़ कर यहाँ हुई। खैर! होनी थी सो हुई। उस दुर्दशा का वर्णन करने में कहीं पंडित जी यहीं पड़े रह जाँय और गाड़ी में उन्हें उगह न मिले अथवा उनके पहुँचते पहुँचते ही गाड़ी चल दे तो अच्छा नहीं, इसलिये जैसे तैसे उन्हें किसी न किसी तरह प्लेट फार्म पर पहुँचा ही देना चाहिए।

इसी संकल्प से एक महाशय ने भीड़ में से निकल कर पंडित जी से कहा―"इस गड़बड़ में आप लोगों का पार पाना कठिन है। आप चाहें तो मैं आपको सेकेंड क्लास के फाटक से होकर गाड़ी में जा चढ़ाऊँ।" वह बोले―"नहीं! जैसे बने वैसे हमको इसी फाटक से घुसना चाहिए। हमारे पास टिकट भी थर्ड क्लास के हैं।" उसने कहा― "थर्ड क्लास के हैं तो कुछ चिंता नहीं। उस फाटक में होकर भीतर जाने से आप का कुछ खर्च न होगा और जब मैं आपके साथ हूँ तों कोई आपको रोकेगा भी नहीं।" तब पंडित जी ने पूछा―"परंतु हम अनजान के साथ इतनी कृपा दिखाने से आप का मतलब?" वह बोला―"मतलब यही कि आप जैसे भले आदमी कष्ट से बचे (मन में―"प्रियंवदा की कोमल कलाइयाँ कहीं कुचल न जाँय")-इसके अंतिम शब्द यद्यपि किसी ने सुने नहीं, यद्यपि कोई उसके मुख के भाव से भी न जान सका कि इसकी नियत खराब है परंतु अब मन का साक्षी मन है, जब प्रियंवदा पहले पति से कह चुकी थी कि पराये के बुरे या भले हद्गत भाव को पहचान लेने की स्त्रियों में शक्ति होती है तब उसने अवश्य ही इसे पहचाना और पह- चानते हीं इसका माथा ठनका। उसने बहुतेरा चाहा कि "प्राणनाथ से हाथ पकड़ कर कह दूँ कि इस पारी के उप- कार के बोझ से लदना भी पाप है।" परंतु उसी के आगे उसकी नजर बचाकर न तो पति को सैन से समझाने का ही उसे अवसर मिला और न स्पष्ट कह देने की उसे हिम्मत हुई। बस इसलिये उसने लंबे घूँघट से मुँह छिपा कर उसकी ओर से मुँह फेर लेने के सिवाय जब कुछ भी न कहा तक पंडित जी के संगी साथी एक दम बोल उठे―"हाँ! हाँ! इसमें क्या चिंता है? इसमें क्या हानि है?" पंडित जी किली से ऐसी अनुचित सहायता पाने में प्रसन्न नहीं हुए परंतु उस समय सब की इच्छा को रोक भी न सके। इस तरह वह मनुष्य जब सब लोगों को लेकर सेकंड क्लास के फाटक की ओर रवाना हुआ तब हजार रोकने पर भी अनायास धीरे से प्रियंवदा के मुख से निकल गया―

"निपूता यहाँ भी आमरा! मुँडीकाटा उपकार करने आया है? भेड़ की चाल में भेड़िया!"

अवश्य ही पंडित जी किसी उधेड़ बुन में लगे हुए थे। बह सुनते तो अपनी प्यारी के हृदय के भाव को जान सकते थे क्योंकि दंपत्ति के मन में टेलीफोन लगा हुआ था। उन्होंने प्रियंवदा के कथन को कुछ नहीं सुना और औरों ने कुछ ध्यान नहीं दिया।

अस्तु! जिस समय ये लोग मुसाफिरखाने से रवाना हुए यात्रियों की वास्तव में बहुत दुर्दशा थी। वे लोग घोर असह्म संकट में थे। भीड़ के ऊपर लिखे हुए कष्ट के सिवाय जब सब ही सब से आगे निकल जाने के यत्न में थे तब मार कूट का क्या कहना? टिकट कलक्टर किसी का बोझ अधिक बतला कर रोकता था, किसी के बालक का कटा टिकट न होने पर उसे धमकाता था और किसी का टिकट देखकर यों ही ठहरा देता था। प्रयोजन यह कि उस जरा से फाटक में होकर निकलते कम थे और इकट्ठे अधिक होते जाते थे। ऐसे समय यदि कुलियों को देकर, कर्मचारियों की मुट्ठी गर्म करके, किसी की खुशामद और किसी को कुछ है दिलाकर मुसाफिर आराम से गाड़ी पर सवार हो जाँय तो उन्हें वह अखरता नहीं है और न वे कभी इस बात की किसी से शिकायत करते हैं। खैर! जैसे तैसे जो यात्री गाड़ियों तक पहुँचने पाए वे एक एक कंपार्टमेंट (दर्जा) घेर कर वहाँ के राजा बन बैठे। आराम से बैठने और पैर फैला कर सोने के लालच से उन्होंने अपने अपने दर्जे की खिड़कियाँ बंद करली हैं, उनमें से मोटे मुसंडे बाहर खड़े होकर आनेवाले से "आगे जाओ! यहाँ जगह नहीं है!" कहकर टालते हैं और जो जबर्दस्ती करता है उससे मरने मारने को तैयार होते हैं। आज कहीं इसलिये गाली गुफ्ता होता है और कहीं मार कूट की भी नौबत आ पहुँची है। मुसाफिर इधर से उधर और उधर से इधर अपना बोझा लेकर भागते हैं। बोझा भी बेहद। एक एक आदमी के पास चार चार आदमी का। इसके सिवाय कोई एक दो बालकों से लदी हुई है और कोई बुरका ओंढ़े या घूँघट ताने इधर उधर जूतियाँ चटकाती फिरती है। "गाड़ियाँ सब भर गईं। खचा- रखच भर गईं! तिल धरने को भी जगह नहीं।" की आवाज आते ही स्टेशनवालों ने किसी दर्जे में आठ की जगह दस, दस की जगह बारह पंद्रह तक भर एदि और फिर भी जो मुसाफिर बच रहे वे भेड़ बकरी की तरह माल गाड़ियों में ठूँस दिए गए।

उस आदमी की बदौलत पंडित जी और उनके साथी यद्यपि फाटक की वेदना से बच गए परंतु इन सब को एक जगह मिलकर बैठने की जगह नहीं मिल सकी। पंडित प्रिया- नाथ को थर्ड क्लास में जगह न होने से इंटर मिला। मर्द मर्द सब अपने अपने मन माने जहाँ जिसे जगह मिली घुस बैठे। बूढ़े भगवान दास को भी हाथ पकड़ कर उस आदमी ने बिठला दिया किंतु बुढ़िया और प्रियंवदा को स्टेशन पर इस छोर से उस छोर तक दो तीन बेर घुमाने के अनंतर एक जनानी गाड़ी में जगह दी और सो भी दोनों के बीच में तीन कंपार्टमेंट का अंतर! तब यह प्रियंवदा से बोला―"क्यों सरकार आपको तो अच्छी जगह मिल गई ना! दास को भूलना नहीं।" और उत्तर में प्रियंवदा ने―"तेरा सिर! निपूता यहाँ भी आ मरा!" कहते हुए अपना मुँह फेर लिया और उसी समय सीटी देकर "धक धक" करता हुआ गाड़ियों को इंजिन ले चला।



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