आदर्श हिंदू १/१६ घबड़ाहट का अंत

आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १५८ से – १६२ तक

 
 

प्रकरण―१६

घबड़ाहट का अंत।

बाबा भगवानदास की घबड़ाहट देख कर उसकी स्त्री, लड़के, लड़कियाँ और बहुएँ, सबही पहले ही घबड़ा रहे थे, उन सब के बीच में से जिस समय एकाएक तहसील का दूत उसे लिवा ले गया तब उन्हें और भी व्याकुलता बढ़ी और एक दो, तीन और चार-इस तरह घंटे गिनते गिनते जब उसे लौटने में देरी हुई तो उन लोगों के कष्ट का ठिकाना न रहा। गाँव के भोले आदमी, यह उन्हें बिलकुल मालूम नहीं कि बुलाया क्यों है? उन सब का दारमदार केवल उस बूढ़े पर और सब से बढ़ कर यह कि उस जैसा महानुभाव, फिर यदि उन लोगों ने इस दुबिधा में पड़ कर खाना पीना, काम काज और बात चीत छोड़ दी तो उन विचारों का दोष नहीं। बूढ़े के जाने और लौट कर आने के बीच में आठ घंटे से अधिक नहीं बीते किंतु ये आठ घंटे उनके लिये आठ युग के बराबर निकले। ज्यों ज्यों समय निकलता गया त्यों ही त्यों उनकी व्याकुलता बढ़ती ही गई। उन लोगों ने मान लिया कि "जुरूर किसी न किसी बहाने से बाबा को काठ में दे दिया और अब हमारा घर वार लूटे बिना न छोड़ेंगे।" बस इस तरह के अनेक संकल्प विकल्प के फंदे में फँस कर उनके घर में कुहराम मच गया। रोना पीटना मच गया और ऐसा शोर गुल सुन कर अड़ोस पड़ोस के, जाति बिरादरी के और जान पहचान के आदमी, लुगाइयाँ इकट्ठी होने लगीं। इस कष्ट के समय आने वालों में से किसी का हियाब न पड़ सका कि भला यह तो पूछें कि तुम्हारे घर का कौन मर गया है?"

खैर जिस समय उसके घर में इस तरह रोना पीटना मच रहा था, इस तरह घरवालों के सिवाय पाँच पचास आदमी औरतें जमा हो रहे थे और जिस समय यहाँ का ढंग देखकर मालूम होता था कि घर का कोई न कोई आदमी मर गया है फिर यदि बूढ़े ने यह मान लिया कि उसका परपोता छत पर से गिर कर मर गया तो कुछ आश्र्चर्य नहीं। परपोता पैदा होना परम प्रारब्ध की बात है। उसी के कारण इस बुढ़ापे में बूढ़ा बुढ़िया हिंदुओं की रीति के अनुसार सोने की सीढ़ी पर चढ़े थे। भगवानदास को अवश्य ही घर के सब आदमी प्यारे थे। वह सब को समान समझता था, एक ही नजर से देखता था और सब के साथ वर्ताव भी एक ही तरह का किया करता था किंतु यह मनुष्य जाति का स्वभाव है कि जो पदार्थ जितना ही दुर्लभ हो उस पर उतनी ही प्रीति अधिक होती है। मारवाड़ी लोग बस इस लिये महँगी को प्यारी कहा करते हैं। दुनियाँ में प्रथम तो पुत्रमुख को दर्शन दुर्लभ, फिर बेटे का बेटा किस के नसीब में है? भला पोता भी एक दो के नहीं सैकड़ों के होता है और वे सब ही भाग्यवान समझे जाते हैं किंतु परपोता? अहा परपोता! परपोता जिस घर में पैदा हो जाय उसके आगे तो स्वर्ग सुख भी तुच्छ है! यही हिंदुओं का ख्याल है। पूर्वजन्म के परम पुण्यों से भगवान ने प्रसन्न होकर भगवान (के सचमुच) दास को परपोता दिया है। बस इसलिये सब से पहले इसका ख्याल उसी पर गया। किंतु ज्यों ही वह भीड़ को चीर कर भीतर पहुँचा उसे दूर से बालक खेलता हुआ नजर आया। उनके बीच में कोई लाश नहीं। तब उसने समझा कि "कहीं बाहर से किसी के मरने की खबर आई है।" मन में ऐसा संकल्प उत्पन्न होते ही उसका संदेह एक दामाद के पास दौड़ गया। वह दामाद बहुत दिनों से बीमार था। बस उसने मान लिया कि बही मर गया। ऐसा ख्याल पक्का होते ही वह अपने सिर पर हाथ मार कर "हाय! अब क्या होगा?" कहता हुआ गिरा। गिरते गिरते यदि उसके लँगोटिया यार पन्ना ने न सँभाल लिया होता तो इसी दम उसकी "राम राम सत्य" हो जाती किंतु उसने केवल सँभाला ही नहीं बरन कड़क कर कहा भी कि―

"कहो तो सही! मरा कौन है?"

बस इस तरह की आवाज सुनते ही सब का रोना बंद। एक दम सन्नाटा छा गया। सब ही एक दूसरे का मुँह ताकने लगे और थोड़ी देर में इसका जवाब कहीं से न पाकर जो आने वाले थे वे सब अपना अपना मुँह लेकर चल दिए। ऐसे जब मैदान खाली हुआ तब वह बोला― "तुम भी आदमी हो या घनचक्कर। कोई मरा न मराया और यों ही रोना पीटना मचा दिया।" इसके बाद जब सब लोगों का संतोष हो गया तब इस खुशी में मिठाइयाँ बाँटी गईं। सब लोगों ने अपने अपने मन का संदेह कह कर उत्तर से संतोष किया। घरवाली ने पति के जाने बाद अपनी बेकली, लड़के लड़कियाँ और बाहुओं की घबड़ाहट का हाल कहा, बूढ़े ने तहसील की घटना अथ से लेकर इति तक कह सुनाई। और यों थोड़ी देर में सब काम काज जहाँ का तहाँ जम गया। परंतु पन्ना का संदेह न मिटा। उसने पूछा―

"क्यों रे भगवनिया भाई? और तो जो कुछ होना था सो हो गया और जो करेगा सो राम जी अच्छा ही करेगा पर तू इस जरा सी बात पर इतना घबड़ाया क्यों?"

"वाह घबड़ाता नहीं? तेरे लेखे जरा सी बात होगी? आदमी की इज्जत भी तो जरा सी है! उस बच्चे के इलजाम में मुझे शामिल बतला कर कोई जरा देर के लिये भी मुझे कैद में देदे तो सब इज्जत धूल में मिल जाय। मेरा बुढ़ापा बिगड़ जाय। मैं मुँह दिखाने लायक न रहूँ!"

"हाँ है तो यह ठीक! पर मामला ऐसा नहीं। इसमें तेरा कसूर नहीं! तैने ऐसा किया ही क्या है जिसके लिये तेरी इज्जत बिगाड़ी जाय?"

"बेशक! पर इज्जतदार की सब तरह पर मुशकिल है। कोई झूठ मूठ भी कह दे तो फिर मैं गया दीन दुनियाँ से।" "हाँ! हाँ!! ठीक है! पर तू घबड़ाना मत। जहाँ पूछे और जब पूछे तब डट के जवाब देना। और सो भी सच सच। साँच को आँच ही क्या?"

"और साँच कहते भी मारा जाऊँ तो खुशी से!"

"बेशक!" कह कर पन्ना वहाँ से सिर पर हाथ रख कर "राम राम!" करता हुआ चल दिया और बूढ़ा भगवान दास ब्यालू करने में लगा।




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