आदर्श महिला
नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ९५ से – १११ तक

 

वसन्त है। वसन्त की ऐसी सुन्दर चटकीली रात में एक दिन सत्यवान अचानक नींद से उठ बैठा। उसने देखा कि घर के एक छेद से चाँदनी भीतर घुसकर सावित्री के मुँह पर खेल रही है। सत्यवान चाँदनी से चमकते हुए सावित्री के मुख की शोभा को एकटक देखने लगा। उसके हृदय में आनन्द का तूफ़ान उठने लगा। सत्यवान की एक प्रेम-घटना से सावित्री की नींद टूट गई। उसने देखा कि स्वामी एकटक मेरे मुँह की ओर देख रहे हैं। तुरन्त की जागी हुई प्रियतमा की अलसाई हुई आँखों में सत्यवान किसी नये लोक के रूप को देखकर मगन हो गया। वसन्ती रात की चाँदनी में निर्जन तपोवन की मलय वायु से शीतल कोठरी में नये दम्पती आज एक-दूसरे के प्रेम में डूबे हुए हैं।

सत्यवान ने, बड़े प्यार से सावित्री की ठुड्डी को हाथ से छूकर, कहा---देखो सावित्री! चाँदनी से वन कैसा सुहावना लगता है। उससे भी बढ़कर सुहावनी हो गई है इस दीन की कुटी, जिसमें हे आनन्दमयी! तुम आनन्द की बाढ़ ले आई हो।

सावित्री ने, अपनी अलसाई हुई देह को सत्यवान की देह से सटाकर, कहा---शायद, इसी से आज, आप आनन्द की धारा में बहते-बहते अचानक किनारा पा गये हैं।

सत्यवान इस दिल्लगी से बहुत प्रसन्न होकर बोला--"प्राणप्यारी! तुमको पाकर मैं धन्य हो गया हूँ--तृप्त हो गया हूँ। देवी! तुम ममता की साक्षात् मूर्ति हो। तुम्हारे हृदय की सुन्दरता ने मेरी सब कमी दूर कर दी है। तुम्हें पाने से, मेरे हृदय में, एक नया बल आ गया है।" सावित्री ने बीच ही में रोककर कहा--नाथ! तपस्वीजी की, रात की, क्या यही उपासना है? क्या आप पत्नी का गुण गाकर हृदय के देवता को जगा रहे हैं? सत्यवान ने लजाकर कहा---देवी! इस रात में प्यारी की अलसाई हुई आँखों से निकले हुए प्रेम के आँसुओं में नहाने से ही प्रेम-देवता की पूजा होती है। देवी! इसी पूजा से हृदय अघा जाता है, इसलिए देवता की भी तृप्ति होती है। तुम क्या मुझको झूठा पुजारी समझती हो?

सावित्री ने कहा---अजी मेरे हृदय-मन्दिर के पुजारी! अब यह श्लोक पढ़ना बन्द करो। रूप की व्याख्या से स्त्री का आदर नहीं बढ़ता। नारी का रूप शरीर में नहीं है, वह तो हृदय में है। मुझे हृदय के उसी रूप को पहचानना सिखलाइए। हृदय की सुन्दरता तो सिंगार पटार से मैली हो जाती है। फिर इस रूप का उतना मोह क्यों?

सत्यवान ने खुश होकर कहा---"देवी! मैं तुमको क्या सिखाऊँगा? तुम्हीं से मुझको बहुत कुछ सीखना है।" इस पर सावित्री लजा गई।

इतने सुख से रहने पर भी सावित्री का हृदय होनहार के डर से काँप उठता था; उसके सब कामों में वह, वर्षभर के बाद होनेवाली, घटना मानो भयानक दैत्य की तरह आकर हँसी करने लगती। उस फ़िक्र के मारे सावित्री दिन पर दिन दुबली होने लगी। सत्यवान ने और उसकी माता शैव्या ने भली भाँति देखा कि सावित्री की आँखों के कोनों में स्याही छा गई है और उसका सारा शरीर पीला पड़ चला है। बूढ़े राजर्षि द्युमत्सेन ने पत्नी के मुँह से पुत्र-वधू का यह हाल सुनकर एक दिन सावित्री से कहा----"बेटी! मैंने सुना है कि दिन-दिन तुम्हारा शरीर दुबला होता जाता है। तुम न तो उमंग से वैसी हँसती-खेलती ही हो और न मुनियों की कन्याओं के साथ अब वन में घूमती-फिरती हो। बताओ, तुम्हारा चित्त ऐसा क्यों बदल गया है? मैं समझता हूँ कि तुम अपने पिता और माता के बिछोह से दुखी हो। तुम सदा से सुख-विलास में रही हो, अब शायद घोर दीनता में पड़ने से इतना कष्ट पा रही हो। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम कुछ दिन मायके में जाकर रहो।

सावित्री ने कहा---पिता जी! मुझे ऐसी आज्ञा मत दीजिए। मुझे कुछ कष्ट नहीं मालूम होता। आप लोगों की सेवा करना ही मेरा कर्त्तव्य है; और इसी में मुझे सुख है। जितने दिन जीती हूँ उतने दिन चरणों से अलग मत कीजिए।

राजा धुमत्सेन ने प्रेम से कहा--हे मङ्गलरूपिणी सावित्री! तुम्हारे अशान्त हृदय को जगत् की माता शान्त करें। प्रेम-स्वरूप भगवान् का प्रेमरूपी अमृत तुम्हारे थके-माँदे जीवन को चैतन्य कर दे---तुम कल्याण और पवित्रता में विजय पाओ।

सावित्री प्रणाम करके अपने काम पर चली गई। शैव्या देवी के आने पर धुमत्सेन ने कहा--"देखो, सावित्री पर घर का सब काम-काज मत छोड़ दो। मालूम होता है कि सावित्री आश्रम में हर घड़ी मेहनत करते-करते दुबली होती जाती है।" शैव्या देवी ने कहा---स्वामी! सुशीला सावित्री मुझे कोई भी काम नहीं करने देती। मैं कोई काम करने जाती हूँ तो वह मेरे हाथ से उस काम को लेकर खुद करने लगती और कहती है---'मैया! मैं आपको कोई काम नहीं करने दूँगी।' जो मैं उसकी बात नहीं सुनती तो वह आँखों में आँसू भरकर मेरी ओर ताकने लगती है। उसका उदास चेहरा देखकर मेरा जी न जाने कैसा हो जाता है। जब मैं काम छोड़ देती हूँ तब वह आनन्द से हँसती-हँसती उस काम को कर डालती है मानो सिद्धि सब कामों में उसकी बाट देखा करती है। नाथ! हम लोगों के बिछौने से उठने के बहुत पहले ही सावित्री उठकर घर का सब काम-काज कर रखती है। जब मैं बिछौने से उठती हूँ तब देखती हूँ कि आश्रम में झाड़ू-बुहारू लग चुकी है---रास्ते के कंकड़-पत्थर हटा दिये गये हैं और धूल-धक्कड़ की सफ़ाई हो गई है। मेरी बहू साक्षात् लक्ष्मी है।

पत्नी के मुँह से यह बात सुनकर राजर्षि ने पूछा---तो क्या सत्यवान सावित्री को नहीं चाहता? क्या उस पर उसकी ममता नहीं है? साध्वी स्त्री के लिए पति का प्रेम न पाने से बढ़कर और कुछ कष्ट नहीं है।

शैव्या देवी ने कहा---मेरी समझ में ऐसा नहीं है। सत्यवान का सावित्री पर अत्यन्त प्रेम है और वह उसे हृदय से चाहता है, परन्तु मैं यह नहीं कह सकती कि विधाता सावित्री को अशान्ति की आग में क्यों इस तरह जला रहे हैं।

[ ८ ]

सावित्री बड़ी पण्डिता थी। उसने पिता के घर भरपूर शिक्षा पाई थी। इससे वह नित्य गिना करती और सोचा करती कि नारद का कहा हुआ वह दिन कब आवेगा जब कि एक वर्ष पूरा होगा। यह उसके रोज़ के कामों में से था। एक दिन उसने हिसाब लगाकर देखा कि उस दिन के आने में अब सिर्फ़ चार दिन बाक़ी हैं। देखते-देखते एक वर्ष बीत गया। सिर्फ़ चार दिन की कसर रह गई। इन चार दिनों के बाद अपने प्राणप्यारे स्वामी की होनेवाली अन्तिम दशा की याद कर सावित्री शोक से बिलकुल ही घबड़ा न गई। उसका हृदय कहने लगा कि सावित्री! डरो मत। तुम अपनी आत्मा के विश्वास पर मज़बूत बनी रहो; वही पक्के ज़िरहबख़्तर की तरह इस घोर संग्राम में तुम्हें सफलता देगा। सावित्री ने सोचा कि क्या निठुर यमराज मेरी सेज से मेरे स्वामी-देवता को छीन ले जायगा? पिता के मुँह से सुना है कि सती के सतीत्व से तो देवता भी डरते हैं। क्या मुझमें इतना भी बल नहीं कि मैं उस निठुर देवता की कठोर आज्ञा को तोड़ सकूँ? भाग्य के साथ मुझे लड़ना ही होगा। राजा द्युमत्सेन को यह सुनकर अचरज हुआ कि सावित्री तीन रात तक व्रत करेगी। उन्होंने सावित्री को बुलाकर कहा---"बहू! तीन रात का व्रत बड़ा कठिन है। तुम इस संकल्प को छोड़ दो।" सावित्री ने कहा---पिताजी! जो आप लोगों के चरणों में मेरी अचल भक्ति होगी तो मैं अवश्य ही इस व्रत को पूरा कर सकूँगी।

राजर्षि ने कहा---"बेटी! तीन रातवाला व्रत बड़ा कठिन है। तीन रात तक अन्न और जल को छोड़कर यह व्रत करना पड़ता है। व्रत से और उपवास से तुम्हारा शरीर योंही दुबला हो गया है, अब इस कृच्छ्-साधना की कोई ज़रूरत नहीं। देवता तो सिर्फ़ भक्ति चाहते हैं। उपवास से दुबले होने पर भक्ति नहीं बन पड़ती। इसलिए उमसे देवता भी प्रसन्न नहीं होते।" सावित्री ने कहा--- पिताजी! इस व्रत में मुझे कोई कष्ट नहीं होगा। यह व्रत तो मुझे करना ही होगा। पिता! दुःखिनी दासी के हठ को क्षमा कीजिए। मुझे व्रत करने की आज्ञा दीजिए।

शैव्या देवी ने सावित्री की ठुड्डी पकड़कर प्रेम से कहा---"बहू! तुम्हारी कामना पूरी हो।" सावित्री ससुर और सास के पैर लगकर स्वामी की आज्ञा लेने के लिए पूजा में लगे हुए स्वामी के पैर छूने लगी। सत्यवान ने कहा---क्या यह मेरी विजयिनी है? मरते हुए की ज़िन्दगी में अमृत ढालनेवाली देवी! कैसे आई?

सावित्री ने कहा---नाथ! मैं कोई पक्का संकल्प करके तीन रात का व्रत करना चाहती हूँ। सास-ससुरजी ने तो कह दिया, अब मैं आपकी सम्मति लेने आई हूँ। आप मुझे आज्ञा दें।

सत्यवान ने सावित्री के माथे में होम का तिलक लगाकर और गले में देवता की उतरी हुई माला पहनाकर कहा---मङ्गलमयी! तुम क्या व्रत करोगी? तुम तो साक्षात् शुभ हो। तुम्हारे आने से हम लोगों की सारी अशान्ति दूर हो गई है। तुम्हारे पैर रखने से तपोवन उस अमरावती के समान हो गया है जिसमें न बुढ़ापा है, न मौत। देवी! इस संकल्प को छोड़ दो। इस नये राज्य में तुम अमङ्गल का धोखा मत करो। तुम्हारे प्रभाव से अमङ्गल तो यहाँ से भाग ही गया है।

सावित्री ने कहा---नाथ! देहधारी जीव जन्म, बुढ़ापे और मृत्यु के अधीन हैं। जब हम लोग देहधारी हैं तब आधि-व्याधि तो हमें सदैव घेरे हुए ही हैं। इसलिए व्रत, उपवास और दान हम लोगों का सबसे मुख्य काम है। देव! आप इस दासी को शास्त्र की आज्ञा पालने से क्यों रोकते हैं?

अब सत्यवान ने हारकर कहा---"नहीं सावित्री! नहीं, मैं तुमको कभी रोकूँगा नहीं। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो।" सावित्री मन ही मन "तथास्तु" कहती हुई आश्रम-वासी और मुनियों के चरण छूकर उनसे आशीर्वाद ले आई।

[ ९ ]

व्रत करनेवाली सावित्री ने कठोर साधना में मन लगाया। एक दिन बीत गया, दूसरा दिन बीत गया और तीसरा दिन भी बीता। अब रात हुई। सावित्री को ख़बर नहीं है। व्रत में मग्न योगिनी के सामने बीस पहर बीत गये, तो भी उसको होश नहीं है। उसकी कठिन साधना से देवता का आसन डोल गया। वेद-माता सावित्री ने बेटी की इस अपूर्व भक्ति से बहुत प्रसन्न हो ब्रह्मा से जाकर कहा---भक्तों पर दया करनेवाले प्रजापति! यह देखो, वरदान से उपजी हुई मेरी बेटी ने स्वामी को बड़ी उम्र दिलाने की आशा से आँखें मूँदकर तीन रातवाला व्रत शुरू किया है। मैं उस पर प्रसन्न हूँ। आज वह व्रत के अन्त में जो निराश होकर अग्नि में आहुति देगी तो तुम्हारा यह जगत् भस्म हो जायगा। सती का तेज बड़ा भयंकर है। उस पति का मङ्गल चाहनेवाली की अभिलाषा किस तरह पूरी होगी?

ब्रह्मा ने कहा---"देवी! मद्रराज के दामाद की उम्र अब केवल एक दिन की और रह गई है। सत्यवान अपने ही कर्म के फल से इतनी थोड़ी उम्र लेकर उपजा है। देवी! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि कर्म के फल से ही भाग्य छिप जाता है। सावित्री के कर्म के फल से सत्यवान के भाग्य की गति पलट गई है। अब सत्यवान की उम्र खूब बड़ी होगी। तुम राजकुमारी की कामना पूरी करो।" यह सुनकर ब्रह्माणी ने प्रसन्न हो पृथिवी पर आने के लिए ब्रह्मा से आज्ञा माँगी। ब्रह्मा ने कहा---"देवी! यह देखो, रात का पिछला पहर है। पृथिवी में, पूर्व दिशा में पौ फटने लगी है, सुनहली उषा की किरणें झलमला रही हैं, ब्राह्मण लोग तुम्हारा ध्यान कर रहे हैं। यह सुनो देवी! हज़ारों कण्ठों से आवाज़ निकल रही है---

"रक्तवर्णा द्विभुजां अक्षसूत्रकमण्डलुकराम्।
हंसासनसमारूढां ब्रह्माणी ब्रह्मदैवतां ऋग्वेदादाहृताम्---"

वेदमाता सावित्री हंस पर चढ़कर सूर्य-मण्डल को गईं।

व्रत का अन्त होने में अब सिर्फ़ आधे पहर की देर है। अभी तक कामना पूरी नहीं हुई। सावित्री निराश-सी हो गई। आँसुओं की धारा से उसका कमल-सा मुँह भीगने लगा। उसने गिड़गिड़ाकर कहा---"देवी ब्रह्माणी! माता के मुँह से सुना है कि मैं तुम्हारे ही आशीर्वाद से जनमी हूँ। मैं इस मृत्युलोक में क्या ऐसी अधम हूँ कि इतनी कृच्छ-साधना करने पर भी तुम्हारा दर्शन नहीं पाया? मा! इस अभागिनी बेटी को इतनी यातना क्यों? जो मैं तुम्हारी दया पाऊँगी तभी यह जीवन रक्खूँगी---नहीं तो, मा के नाम पर, इस पापी शरीर को होम की इसी आग में पूर्णाहुति कर दूँगी, इसी में झोंक दूँगी।" यह सोचकर सावित्री ने आँखें मूँद लीं। उसने देखा कि लाल रङ्ग की, दो हाथोंवाली, अक्ष-सूत्र और कमण्डलु को हाथों में लिये हुए हंस पर सवार, ब्रह्माणी माना सूर्यमण्डल से पृथिवी पर आकर उससे कहती हैं---"बेटी सावित्री! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हुई हूँ, तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। एकनिष्ठता के बल से तुम्हारा मरा हुआ पति जी जायगा। धर्मराज के वर से तुम्हारे ससुर के और पिता के वंश में कुछ कमी नहीं रहेगी। बेटी सावित्री! कर्म के भयानक युद्ध में तुमने विजय पाई है, तुम्हारा व्रत पूरा हो गया। बेटी! होम की अग्नि में पूर्णाहुति दो। पृथिवी पर उषा का उजेला कर्मक्षेत्र में लग जाने की सूचना दे रहा है।" सावित्री ने एकारक होश में आकर सुना कि वनदेवी पक्षियों के सुर में पूर्णाहुति का मधुर गीत गा रही है।

सावित्री तीन रात के व्रत को समाप्त करके उठी। उसका असा-धारण संयम और पक्की निष्ठा देखकर सब लोग धन्य-धन्य करने

लगे। सास ने आकर कहा-"बहू! व्रत तो पूरा हो गया, अब देवता का कुछ प्रसाद ले लो।" सावित्री ने कहा--"अाज नहीं मा! आज आठ पहर स्वामी के साथ रहकर, कल दिन निकलने पर जब स्वामी का चरणामृत पी लूँगी, तब कुछ प्रसाद पाऊँगी; यही व्रत का नियम है। माजी! आप देखती हैं न कि तीन दिन के उपवास से मुझे कुछ भी क्लेश नहीं जान पड़ता। आप लोगों के पवित्र चरणों में भक्ति होने से आज का दिन भी बेखटके बीत जायगा।" शैव्या देवी ने व्रत में सावित्री का प्रेम देखकर सोचा कि जब त्रिरात्र व्रत में सम्मति दे दी है तब पारण के दिन ज़िद करके बहू का व्रत नहीं तोड़ूँगी।

[ १० ]

जेठ का महीना है---कृष्ण पक्ष की चौदस तिथि है। पृथिवी सन्ध्या की लाली के लाल वस्त्र को और डूबत हुए सूर्य के लाल-लाल चन्दन का टीका धारण कर शोभा पा रही है। सावित्री ने देखा कि पतिदेव कन्धे पर कुल्हाड़ी रखकर वन को जाना चाहते हैं। सावित्री ने तुरन्त सत्यवान के पास आकर कहा--नाथ! सन्ध्या की आरती का समय हो चला है, आप इस समय कहाँ जाते हैं?

सत्यवान---आज चौदस है, अग्निहोत्री ब्राह्मण को सायंकाल की सन्ध्या करना ज़रूरी नहीं। पिता के होम की लकड़ी चुक गई है। सबेरे होम के लिए उसकी ज़रूरत होगी। इससे जी में आया है कि इस समय कुछ जंगली फल-मूल और लकड़ियाँ बटोर लाऊँ।

सावित्री ने कहा--सन्ध्या हो गई है। अब असमय वन में जाने की कोई ज़रूरत नहीं। कुटी में जो फल-मूल रक्खे हैं उनसे कल का काम हो जायगा। हाँ, होम के लिए लकड़ी तो नहीं है।

सत्यवान---सावित्री! रोको मत। माता-पिता का काम करने में सन्तान पर विपद नहीं पड़ती।

सावित्री---नाथ! मैं खूब जानती हूँ कि माता-पिता के लिए काम करने में सन्तान पर विपद नहीं आती। पर आज एक बाधा है। मेरे त्रिरात्र व्रत का नियम है कि आज आठ पहर मुझे स्वामी के साथ रहना होगा। जो तुम इस समय वन जाओ तो मुझे भी साथ लेते चलो।

सत्यवान ने यह बात मान ली। सास-ससुर की आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ सावित्री लकड़ी बटोरने के लिए वन में गई।

सावित्री मन लगाकर यही सोच रही है कि यह काल-रात्रि कैसे बीतेगी और मृत्यु के किनारे खड़ा होकर सत्यवान व्रत से कुम्हलाई हुई पत्नी के मुख की शोभा देख रहा है। वह उसके बदन से निकलते हुए सतीत्व-तेज को देख रहा है।

धीरे-धीरे अँधेरा हो गया। सत्यवान ने लकड़ी काटने के लिए एक सूखे पेड़ पर चढ़कर एक डाल पर कुल्हाड़ी चलाई। अब उसका सारा शरीर एकाएक काँप उठा। उसके सिर में हज़ारों सुइयाँ गड़ने का सा दर्द होने लगा। सत्यवान के हाथ से कुल्हाड़ी नीचे गिर पड़ी। दाहिनी आँख फड़कने से सावित्री समझ गई कि महर्षि का कहा हुआ वह अन्त समय आ गया। तब उसने घबराकर कहा-- "नाथ! झटपट नीचे उतर आइए। अब तनिक भी देर न कीजिए।" सत्यवान को वृक्ष से धीरे-धीर नीचे उतरकर बैठते देर न हुई कि वह तुरन्त बेहोश हो गया। उसका मुँह कुम्हला गया। सावित्री ने अँधेरी दुनिया में दूना अँधेरा देखा। झींगुरों की झङ्कार से झनझन करती हुई उस अँधेरे पाख के घने अँधेरे से ढकी हुई रात को, खूँखार जानवरों से भरे हुए वन में, पति की देह को गोद में लिये सावित्री अकेली बैठी है। इस पर भी सावित्री रोई नहीं। उसने सोचा, शास्त्र की आज्ञा है कि विपद् में धीरज धरना चाहिए। विपद् में अधीर होने से वह विपद् और भी बढ़ जाती है। यही विचार कर, सावित्री आँचल से मुँह पोंछकर अधमरे पति को गोद में लिये बैठी रही। सारे जगत् ने सती की ओर टकटकी बाँध दी। वन के जानवर देखने लगे कि यह स्थिर बिजली-सी रमणी कौन है। नीले आकाश के तारे एकटक दृष्टि से सती के अलौकिक सतीत्व-तेज को देखने लगे।

सावित्री ने सत्यवान की छाती पर हाथ धरकर देखा कि अभी तो कलेजे की धड़कन मालूम होती है, किन्तु वह धीरे-धीरे मन्द होती जाती है। उसने सोचा कि अब महर्षि की बात सच होने पर है!

अँधेरे से ढकी हुई वह वन-भूमि दिव्य प्रकाश से अचानक जगमगा उठी। नये बादल जैसे शरीर में बिजली की भाँति भैंसे पर सँवार एक विचित्र रूपधारी पुरुष को आते देखकर सावित्री समझ गई कि यमराज आते हैं। इससे सावित्री का हृदय काँप उठा। उसने मन को पक्का कर सोचा कि देवता से क्या डर है। फिर यह तो धर्मराज हैं, इनके सामने मेरे डरने की कोई बात नहीं।

सावित्री ने हिम्मत से छाती को मज़बूत करके, सामने खड़े, दण्ड और फन्दा हाथ में लिये हुए, जगमगे पुरुष से पूछा--आप क्या धर्मराज यम हैं?

धर्मराज ने कहा---हाँ, तुम्हारे पति की उम्र पूरी हो गई है। मैं उसको ले जाने के लिए आया हूँ।

सावित्री ने, सत्यवान के मस्तक को धीरे-धीरे भूमि पर रखकर सामने खड़े धर्मराज को पृथिवी पर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया। इस बीच में यम, सती के शरीर से अलग पड़े, मरणासन्न सत्यवान के---अँगूठे के बराबर---प्राण-पुरुष को निकालकर दक्षिण दिशा को जाने लगे।

सावित्री ने देखा कि सत्यवान के कलेजे की धड़कन बिलकुल बन्द हो गई है; उनके हँसते हुए से मुखड़े पर मौत की कालिमा छा गई है। तब वह बे-उपाय हो गई। उसने समझा कि आज मैं अकेली---बिलकुल अकेली हूँ! संसार में स्त्री के जीवन के ये एकमात्र प्राणाधार आज मृत्यु देवता के पीछे जा रहे हैं---यह सोचकर वह एक साँस, पगली की तरह, धर्मराज के पीछे-पीछे जाने लगी।

धर्मराज ने जब देखा कि सावित्री, पगली की तरह, ताबरतोड़ पीछे-पीछे चली आ रही है तब उन्होंने कहा---सावित्री! अब क्यों वृथा दौड़ती हो? विधाता की मर्जी से सभी अपना-अपना कर्म भोगते हैं। सत्यवान की उम्र पूरी हो गई, अब उसके प्राण पर मेरा अधिकार है। अब इस प्राण पर तुम मोह क्यों करती हो? जाओ, घर लौट जाओ। अपने काम में लगो। इस जीवन के बाद तुम अपने पति से फिर मिलोगी।

सावित्री ने कहा---धर्मराज! आप मनुष्य के हृदय को नहीं समझ सकते। आप लोगों ने मनुष्य के जीवन के साथ माया को मिला दिया है। मैं पति की ममता को कैसे त्याग दूँ?

धर्मराज ने कहा---हे भली बात कहनेवाली! मैं तुम्हारी बात से सन्तुष्ट हुआ हूँ। तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर और कोई वर माँगों।

सावित्री ने पिछली रात को उस हंस-वाहिनी की ढाढ़स-युक्त बात का ध्यान किया। उसने सोचा कि देवी की आज्ञा सफल होने की शायद यह पूर्व-सूचना हो; नहीं तो देह-धारी जीव को मृत्यु देवता का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे हो सकता है? केवल इतना ही नहीं, किन्तु विनय पर कान न देनेवाले मृत्यु देवता आज वरदान देनेवाले की मूर्त्ति में मेरे सामने खड़े हैं! सावित्री ने रातवाली बात पर विश्वास करके कहा---देवता! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वरदान दीजिए जिससे मेरे ससुर के आँखें हो जायँ।

"तथास्तु"---ऐसा ही हो, कहकर धर्मराज अपनी पुरी की ओर बढ़े।

कुछ दूर आगे बढ़ने के बाद यमराज ने पीछे फिरकर देखा कि

सावित्री पीछे-पीछे चली आ रही है।

सावित्री और यम—पृ॰ १०६।

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। यम ने कहा---सावित्री! लौट जाओ; घर जाकर मरे हुए स्वामी का (अन्त्येष्टि, श्राद्ध आदि) क्रिया-कर्म करो।

सावित्री ने कहा---देव! मैं तो बिना घर-द्वार की हो गई हूँ। अब मेरा घर कहाँ? मेरे जीवन के सर्वस्व आज आपके साथ हैं। मैं पति को छोड़कर कैसे जा सकती हूँ? आप धर्मराज होकर मुझे बिना आधारवाली को यह क्या आज्ञा दे रहे हैं?

यम ने कहा---सती! मैं तुम्हारी बात से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर और कोई वरदान माँगो।

सावित्री ने विनती कर कहा---हे धर्मराज! जो आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य मिल जाय।

यमराज ने कहा---ऐसा ही होगा।

यमराज फिर अपनी पुरी की ओर चले। उन्होंने कुछ दूर जाने पर पीछे फिरकर देखा कि सावित्री ने अभी तक साथ नहीं छोड़ा है।

यमराज को अचरज हुआ। उन्होंने सोचा कि यह साधारण स्त्री नहीं है। उन्होंने कहा---सावित्री तुम जाओ। यह प्रेतों की पुरी का डरावना मार्ग है। सामने भयानक वैतरणी नदी है। इसी के उस पार मेरा राज्य है। विधाता के काम में बाधा देना धर्म के विरुद्ध है। अब आगे मत बढ़ो। मैं तुम्हारा धर्म-ज्ञान देखकर चकित हुआ हूँ; सत्यवान के जीवन को छोड़कर तुम और कोई वर माँगो।

सावित्री ने सोचा कि मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। अँधेरी रात में एकमात्र तारे की तरह वे मेरे ही भरोसे हैं। यह सोचकर उसने पिता के सौ पुत्र होने का वर माँगा।

यमराज ने कहा---ऐसा ही होगा; बेटी! ऐसा ही होगा। अब आगे मत बढ़ो। जाओ, सास-ससुर की सेवा करके धन्य होओ। सावित्री ने सोचा कि सब तो हुआ। देवता के वर से पिता के वंश का और ससुर के वंश का सब अभाव तो दूर हो गया, किन्तु मेरे हृदय का अभाव तो ज्यों का त्यों बना है! हृदय का आसन तो सूना ही पड़ा है। यह सोचकर वह फिर यमराज के पीछे-पीछे जाने लगी। सावित्री को पीछे-पीछे आते देखकर यमराज ने उसकी एकनिष्टा पर बहुत प्रसन्न होकर कहा---सावित्री! तुम्हारी सब कामनाएँ तो पूरी हो गई। अब क्यों कष्ट उठाती हो? लौट जाओ।

सावित्री ने कहा---देवता! मेरे हृदय का आसन तो सूना ही पड़ा है। इस आसन पर जिस देवता को बिठाया था, मेरा वह देवता तो मर गया। हे कृपानिधान! अमृत बरसाकर मेरे उस जीवन-देवता को फिर से जिला दीजिए।

यमराज ने कहा---बेटी! जीवन का बुझा हुआ दीपक दुबारा नहीं जलता। सूखा हुआ फूल फिर नहीं खिलता। भाग्य से तुम्हारा स्वामी अब इस पृथिवी पर फिर नहीं जीएगा। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम सत्यवान के जीवन के सिवा और एक वर माँगो।

सावित्री ने कहा---देव! पतिव्रता बनी रहकर मैं सौ पुत्रों की माता होऊँ।

यमराज ने कहा--तथास्तु। अब तुम वशिष्ठाश्रम को लौट जाओ। बेटी! शोक मत करना। अब तुमको किसी बात की कमी नहीं रह गई।

सावित्री ने कहा--देव! कामना का विनाश हो जाने पर भी तो वह बनी ही रहती है। वर्षा की धारा से धरती के शीतल हो जाने पर भी, बिना समय आये, बीज में अंकुर नहीं निकलता। मैं भविष्य में सौ पुत्रों की माता हूँगी, किन्तु मेरे स्वामी तो आपके हाथ में हैं। देव! मेरे स्वामी का प्राण लौटा दीजिए, नहीं तो मेरा धर्म जायगा। धर्म खोये बिना मैं सौ पुत्रों की माता कैसे हो सकूँगी?

यमराज ने सोचा---"बात तो ठीक है, मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चरने चली गई थी!" आज मानो सतियों में श्रेष्ठ सावित्री ने उनके ज्ञानरूपी नेत्र के मैल को दूर कर दिया। धर्मराज ने संसार को जीतने-वाली उस शक्तिरूपिणी से कहा---"बेटी! यह ले अपने पति का प्राण। मैं समझ गया कि सती के समान बलवान् और कोई नहीं है। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे सिर का सेंदुर सदा बना रहे।" यह कहकर यम अपने लोक को चले गये।

[ ११ ]

स प्रकार मनोरथ सफल हो जाने पर सावित्री क्षण भर में वहाँ पहुँच गई जहाँ सत्यवान् की लाश पड़ी थी। उसने प्राण को सत्यवान की छाती से छुआया। सत्यवान ने तुरन्त जागकर कहा---सावित्री! सिर के दर्द से मैं बेहोश हो गया था। मेरा सिर अभी तक घूम रहा है। चारों ओर सुना दिखाई देता है।

सावित्री ने कहा---"नाथ! आप अभी अच्छे हो जायँगे, ज़रा विश्राम तो कीजिए। इस अँधेरी रात में अब आश्रम पर जाने की ज़रूरत नहीं।" सत्यवान ने कहा---नहीं सावित्री! सिर के दर्द के मारे बेसुध हो जाने से बहुत रात चली गई है। पिताजी को यज्ञ के लिए सबेरे ही लकड़ी चाहिए। चलो, हमलोग आश्रम को जल्दी चलें।

इधर धर्मराज के वरदान से राजर्षि का अन्धापन दूर हो गया। उन्होंने इतने दिनों के बाद, एकाएक दृष्टि पाने के कारण, चौंककर रानी शैव्या देवी से कहा---"रानी! मेरा सत्यवान और बहू क्या अभी तक वन से नहीं लौटे?" वे पुत्र और बहू के लिए व्याकुल होकर भटक रहे हैं। इतने में देखा कि सत्यवान और सावित्री दोनों धीरे- धीरे आश्रम को आ रहे हैं।

बूढ़े राजा द्युमत्सेन को आँखें मिली देखकर सावित्री की आँखों में आनन्द के आँसू भर आये।

राजा द्युमत्सेन अन्धे होने के कारण पतोहू का मुँह देख नहीं सके थे। वे आज सावित्री को देखकर बोले---मेरी पतोहू तो साक्षात् देवी है।

इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि शाल्व राज्य से दूत ने आकर ख़बर दी कि आपके सेनापति ने शत्रु को हराकर राज्य पर फिर अधिकार जमा लिया है।

वशिष्ठाश्रम में इस मंगल-संवाद के आने से उत्सव मनाया जाने लगा।

यहाँ मद्र-नरेश ने देखा कि आज जेठ की अमावस है। पिछली रात को, महर्षि का बताया हुआ, एक वर्ष पूरा हो गया। यही सोचकर वे उदास मन से वशिष्ठाश्रम में आये कि न जाने सावित्री के भाग्य में क्या घटना हुई हो। उन्होंने देखा कि आश्रम में आनन्द से उत्सव मनाया जा रहा है। आज सावित्री साक्षात् अन्नपूर्णा की तरह रसोई-घर में भूखों के लिए भोजन बना रही है।

मद्रराज के आने की ख़बर पाते ही सावित्री दौड़कर पिता के पास पहुँची। अश्वपति ने कहा---बेटी! कल महर्षि का बताया हुआ एक वर्ष पूरा हो गया।" सावित्री ने उनसे सारी घटना कह सुनाई। आज सब पर सावित्री का वर्ष भर का छिपा हुआ, मंत्र प्रकट हुआ।

सबलोग सावित्री के इस अलौकिक काम को सुनकर धन्य-धन्य कहने लगे। हम भी कहते हैं कि आओ देवी! शोक और ताप से कलुषित इस मृत्युलोक में पवित्रता की निर्मल ज्योति फैलाओ। भारत के घर-घर में तुम्हारा पवित्र नाम लिया जाय। तुम निराशा के अँधेरे में अपनी सदा वन्दनीय श्रेष्ठ मूर्ति हम अभागों को दिखाकर तृप्त करो---धन्य करो। तुम्हारे पवित्र नाम के स्मरण से सब देशों---सब जातियों की स्त्रियों का हृदय पति के प्रेम से पूर्ण हो।