आदर्श महिला
नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ दूसरा-आख्यान से – ७५ तक

 

दूसरा आख्यान
सावित्री

दूसरा आख्यान


सावित्री
[१]

उत्तर भारत के पंजाब प्रदेश में चन्द्रभागा और वितस्ता नामक नदियों के बीच का स्थान पहले समय में मद्र राज्य कहलाता था। उस राज्य में अश्वपति नाम के एक बड़े भक्त राजा थे। उनके सुशासन से सारी प्रजा बहुत सुखी थी। राजा अश्वपति जितेन्द्रियता, प्रजानुराग और दयालुता आदि अनेक गुणों से एक आदर्श राजा समझे जाते थे।

तब से बहुत दिन बीत गये हैं, सदा बहनेवाले कालस्रोत ने मद्रदेश की उस गौरव-कीर्ति को सदा के लिए धो बहाया है। मद्र-देश की वह गौरव-गाथा तो लुप्त हो गई, किन्तु मद्रराज अश्वपति की बेटी सावित्री देवी की पुण्य-कथा ने हिन्दू नर-नारियों के धर्ममय हृदय को सतीत्व के एक अपूर्व विजय-गर्व से सदा के लिए ऊँचा कर रक्खा है। हम, इस अध्याय में, उसी सती-शिरोमणि सावित्री देवी की जीवनी की आलोचना करेंगे।

मद्रराज के अपूर्व प्रजानुराग से राज्य में कहीं विद्रोह नहीं था, प्रजा निःशंक थी, धरती धन-धान्य से परिपूर्ण रहती थी और सर्वत्र सुख और शान्ति विराजती थी। मद्रराज्य उत्पात और उपद्रव से बचा हुआ प्रेम का एक अपूर्व राज्य था, किन्तु वह सब विषयों में बढ़ा-चढ़ा होने पर भी एक बात में हीन था। इससे राजा-रानी दोनों सदा उदास रहते थे। यद्यपि वे प्रजा को पाकर सन्तान न होने के अभाव को भूल से गये थे, तथापि समय-समय पर एक गहरा दुःख उनके हृदय को बहुत दुखाया करता था।

इस प्रकार, राजा अश्वपति मन में एक गहरा दुःख दबाकर प्रजा-पालन करते थे। वे और उनकी साध्वी पत्नी, मालवी देवी, दोनों बीच-बीच में किसी हँसते-खेलते बालक का चमकता हुआ सुन्दर चेहरा देखकर मुग्ध हो जाते और रात को एक साथ बैठकर सन्तान न होने के दुःख का अनुभव किया करते।

प्रजा, उपस्थित राजागण, सभासद और ऋषि-मुनि, सभी देखते कि राजा के जी में एक घोर चिन्ता छाई हुई है। राजा अश्वपति होम की छाया से मद्रराज्य को तो सुशीतल बनाये हुए हैं किन्तु वे स्वयं मन की भयंकर अग्नि में सदा जलते रहते हैं।

एक दिन सबेरे राजा अश्वपति नगर में घूमने निकले। अचानक एक फूल-से सुकुमार बालक को देखकर उनका चित्त विकल हो उठा। भोले-भाले बालक की मधुर मुसकान, अपूर्व सरलता और सबसे बढ़कर सदा सुन्दर अभेद ज्ञान की मधुरता ने उनको मोह लिया।

राजमहल में लौटकर उन्होंने रानी से इस विषय में बहुत कुछ बातचीत की। राजा ने कहा—"रानी! हमें किसी चीज़ की कमी नहीं; हमारी प्रजा में वैर-विरोध नहीं है, धरती धन-धान्य से भरपूर है, राज्य पर किसी शत्रु की लोभ-दृष्टि नहीं है, सर्वत्र सुख और शान्ति विराजती है; किन्तु हमारे राजमहल में निरानन्द-सा छाया हुआ है। जो स्थान सरल हृदय और अस्फुट वाक्य बोलनेवाले बालक की खिलखिलाहट से नहीं गूँजता, वह भयानक भूत के स्थान के समान है। रानी! जीवन का प्रधान सुख बेटा-बेटी हैं। उनके न होने से कैसे गहरे दुःख में दिन कट रहे हैं, सो कह नहीं सकता। हृदय सदा अशान्ति की आग में जलता रहता है, राज-भोग में तृप्ति नहीं है, राज-काज में सुख नहीं है और शास्त्र के पाठ में चित्त नहीं लगता—चारों ओर अतृप्ति है। घोर अतृप्ति ने मेरे हृदय में घर-सा कर लिया है!" स्वामी के हृदय में गहरा दुःख देखकर सुशीला पत्नी खेद के महासागर में डूब गई।

उस दिन राजा बड़े ही दुःखित हृदय से राज-दरबार में गये। सभा में उपस्थित सभासद राजा के मुख पर चिन्ता की झलक देखकर उत्कण्ठा से देखने लगे कि वे क्या कहते हैं।

राजा ने सिंहासन पर बैठते ही कहा—सभासदा! मैं धीरे-धीरे बूढ़ा होता जाता हूँ; समय रहते कोई इन्तज़ाम न कर देने से यह सोने का राज्य शत्रु के हाथ में पड़कर चौपट हो जायगा। मैं निःसन्तान हूँ, इसलिए राज्य का अधिकारी किसको बनाऊँ—यह सोचकर व्याकुल हो रहा हूँ। हे त्रिकाल को जाननेवाले मुनियों! इस विषय में आप लोगों की क्या सलाह है?

राजा के इन खेद-भरे वचनों को सुनकर राज-दरबार पर निरानन्द के कारण उदासीनता छा गई। सभी लोग राजा के दुःख से दुखी हुए। मुनियों ने कहा—राजन्! आपके गौरव के सिंहासन पर जिस-तिस को बैठने की शक्ति नहीं है। अगर कोई इस सिंहासन को लोभ की दृष्टि से देखे तो निश्चय जानिएगा कि उसको, दीपक पर गिरते हुए पतंग की तरह, जल कर भस्म हो जाना पड़ेगा! महाराज हताश न हों; आपका बेटा ही इस महान् सिंहासन पर बैठकर आपकी प्रीति उपजावेगा और शङ्का मिटावेगा। हम लोगों की इच्छा है कि आप सन्तान की कामना से तपस्या प्रारम्भ करें। विधाता की कृपा से आपके सन्तान होगी। मुनियों की बात सुनकर राजा के हताश हृदय में आशा की स्वर्ण-किरण झलक गई। उन्होंने हर्ष से कहा—मुनिगण! बताइए, सन्तान की कामना से मैं किस देवता की उपासना करूँ? राज्य का मङ्गल, और वंश का गौरव बढ़ाने के लिए मैं कृच्छ साधना से भी मुँह न माड़ूँगा।

मुनियों ने एक-स्वर से सावित्री देवी की उपासना करने को कहा।

राजा को मुनियों की बात पर बड़ा विश्वास था। इसलिए उन्होंने उस आदेश-वाक्य पर विश्वास प्रकट करके सभासदों को लक्ष्य करते हुए कहा-"तपस्या बड़ी कठिन चीज़ है, भीषण भविष्यत् के साथ युद्ध है। इसलिए वह संसार के शोर-गुल में, ठीक-ठीक, नहीं हो सकती। मैं चाहता हूँ कि तपस्या करने के लिए वन को जाऊँ। आशा है, इस विषय में आप लोग सम्मति देंगे!" सभासदों ने कहा—हम लोग आपका आदेश मानकर चलेंगे। आप खुशी से वन जाइए। हम लोग जी-जान से आपका आदेश पालने की प्रतिज्ञा करते हैं?

राजा तपस्या करने वन में जायँगे, यह सुनकर मद्र-देश की प्रजा राजा के वियोग का स्मरण करती हुई बहुत दुखी हुई। किन्तु उन लोगों का जी राजा के निःसन्तान होने से बहुत उदास था। इससे, यह सुनकर कि राजा की तपस्या का मुख्य कारण सन्तान पाना ही है और इसी लिए वे वन जाते हैं, प्रजा को ढाढ़स हुआ और सबने सान्त्वना के अञ्चल से आँसू पोंछकर राजा को बिदा किया।

[२]

वन में जाकर राजा अश्वपति ने गहरी तपस्या में मन लगाया। अश्वपति की तपस्या देखकर देवताओं को शङ्का हुई। अश्वपति की तपस्या से ब्रह्मा का सन्तुष्ट जान, सावित्री देवी ने वहाँ आकर उनसे कहा—ब्रह्मन्! राजा अश्वपति सन्तान के लिए घोर तपस्या कर रहा है। वह मेरी कृपा चाहता है। मैं उस पर प्रसन्न हूँ, किन्तु देखती हूँ कि उसकी तपस्या का फल देना मेरी शक्ति से बाहर है। देव! आप चराचर के भाग्य-विधाता हैं। अश्वपति को तपस्या का फल देने के लिए मुझे भाग्य-विधाता से लड़ना पड़ेगा। मुझमें शक्ति कहाँ कि ऐसा साहस करूँ।

सावित्री देवी की इस बात को सुनकर ब्रह्मा मुसकुराते हुए बोले—देवी! मैं तुम्हारे मन का भाव समझ गया हूँ। तुम अश्वपति की कामना पूरी कर सकती हो।

यह सुनकर सावित्री देवी ने विस्मय से कहा—ब्रह्मन्! ज़रा मर्त्यलोक में, तप से दुर्बल, राजर्षि के ललाट को तो देखिए। क्या आप नहीं देखते कि उनके भाग्य में निःसन्तान होना लिखा है? तब आप ऐसा क्यों कहते हैं?

ब्रह्मा ने सावित्री देवी की बात सुनकर कहा—देवी! इतनी साधारण सी बात भी नहीं समझती हो! इस दृश्यमान जगत् में सब कुछ कर्म-सूत्र पर अवलम्बित है। कर्म से ही बन्धन छूटता है, और कर्म से ही मनुष्य की गति बदलती है। असल में कर्म ही जगत् की प्रतिष्ठा है, मैं तो केवल निमित्त हूँ। अश्वपति की साधना ने उसके कर्म-फल का खण्डन कर दिया। उसकी यह साधना, उसके निःसन्तानपन को दूर करने में, समर्थ हुई है। वह तुम्हारे प्रसाद से सन्तान पा सकेगा। अश्वपति ने तुम्हारी उपासना की है और तुम उसकी उपासना से प्रसन्न भी हुई हो, इसलिए तुम उसको रूप-गुणवाली एक कन्या दे सकती हो।

सावित्री देवी ने विस्मित होकर कहा—"यह क्या? अश्वपति सन्तान-कामना से मेरी तपस्या करता है, मैं उसे कन्या पाने का वर कैसे दूँ? कन्या तो वह नहीं चाहता?" ब्रह्मा ने कहा—देवी! पुत्र और कन्या दोनों ही तो सन्तान हैं; दोनों से वंश बढ़ता है, दोनों का नाम सन्तान है। इसलिए अश्वपति को कन्या देने से तुम्हारा अन्याय नहीं समझा जायगा। तुम उसे कन्या का ही वर दो।

राजा अश्वपति को कन्या का वरदान देने से सावित्री का मन नहीं भरता था। ब्रह्मा यह समझ गये। उन्होंने कहा—"देवी! नीच और ओछे विचार के मनुष्य ही बेटा और बेटी में भेद समझते हैं। ममता-रूपी लड़की बूढ़े पिता का प्रधान अवलम्ब है। भक्ति, स्नेह, ममता और सेवा-शुश्रूषा से कन्या देवीरूप में माता-पिता की व्यथा हर लेती है। ऐसी कन्या को तुम पुत्र से खराब समझती हो? देवी! संकोच मत करो। अश्वपति को कन्या देने का एक और मतलब है। शक्ति-स्वरूपिणी नारी सतीत्व के प्रभाव से क्या अनहोनी कर सकती है, यह दिखाना भी इसका मुख्य उद्देश है।" यह कहकर ब्रह्मा ने—सावित्री को अश्वपति की भावी कन्या की कथा कह सुनाई।

सावित्री देवी ने, ब्रह्मा के मुँह से सब हाल सुनकर, प्रसन्नतापूर्वक अश्वपति को सन्तान होने का वर दिया।

महाराज अश्वपति अपने राज्य को लौट आये। राजा का दर्शन पाकर प्रजा पुलकित हुई। इससे अधिक प्रसन्नता उसको यह सुनकर हुई कि राजा की मनोकामना पूरी होगी। सब लोग इसकी बाट देखने लगे कि राजमहल राजकुमार की मृदु मुसकान से कब गूँजेगा, और राजा-रानी का दुःखित हृदय सन्तान का मुख देखकर कब पुलकित होगा।

यथासमय रानी के एक कन्या हुई।

राज्य में आनन्द की सरिता, सैकड़ों धाराओं में, बह चली। सावित्री देवी ने देखा कि रानी के लड़की होते देखकर राजा अश्वपति को देवता के वर पर उतनी श्रद्धा नहीं रही। उन्होंने कुछ दुखित होकर राजा से सपने में कहा—राजन्! देवता के वाक्य पर अविश्वास मत करो। तुम्हारी इस भुवन-मोहिनी कन्या से नारी-चरित्र की एक उज्ज्वल दिशा प्रकाशित होगी। इस कन्या के प्रभाव से तुम भविष्यत् में सौ पुत्र पाओगे।

एकाएक अश्वपति की नींद टूट गई। वे शयनागार में एक दिव्य सुगन्धि का अनुभव करके उसे सदा आराध्य सावित्री देवी की ही शुभ आज्ञा समझ पुलकित हुए और उन्होंने तुरन्त रानी से सब बात कह दी।

[३]

राजकुमारी, शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति, दिन-दिन बढ़ने लगी। सावित्री देवी के वर से कन्या होने के कारण राजा अश्वपति ने उसका नाम रक्खा सावित्री। उमर के साथ-साथ सावित्री के रूप की चमक भी बढ़ने लगी। रानी और राजा बेटी की शारीरिक शोभा के साथ भीतर की सुन्दरता, विनय, देवता के प्रति भक्ति, सब जीवों पर भ्रातृभाव और माता-पिता के प्रति अनोखा अनुराग देखकर बहुत प्रसन्न हुए और देवता के वर से पाये हुए उस कन्यारूपी रत्न को बड़े यत्न से पालने लगे।

धीरे-धीरे सावित्री सयानी हुई। उसकी सुघराई जवानी के शीतल स्पर्श से और भी चमक उठी। स्वाभाविक सरल मुख पर लज्जा का चिह्न दिखाई देने लगा। आँखों में लज्जा का भाव देखकर अश्वपति समझ गये कि कन्या ब्याहने योग्य हो गई।

एक दिन तीसरे पहर अश्वपति ने देखा कि राजमहल के अन्दर केलि-कानन में कितने ही फूल खिले हुए हैं; पत्थर के घाटवाले सरोवर के नीले जल में कमल विकसे हुए हैं। वृक्षों की फूली हुई शाखाओं पर बैठकर कोयलें प्रेम से 'कुहू-कुहू' कर रही हैं। भौंरे फूलों पर बैठे रस लेते हुए गूँज रहे हैं। फूलों से लदी मालती-लता से घिरे आम के वृक्ष लाल रंग के नये पल्लवों से ज़रा झुक गये हैं। वसन्त की शोभा से प्रसन्न होकर राजा अन्तःपुर में गये।

धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। अगणित दीपों की माला से राजमहल जगमगा उठा। दूर के देवमन्दिर से आरती का शब्द आने लगा। राजा सन्ध्या आदि से निपटकर विश्राम करने के कमरे में गये। रानी मालवी देवी स्वामी की सेवा के लिए वहाँ आकर बैठीं। राजा ने कहा—"रानी! तुमसे आज एक सलाह करनी है।" सलाह की बात सुनकर रानी कौतूहल से राजा के मुँह की ओर ताकने लगी। राजा ने कहा—देखो रानी! सावित्री सोलह वर्ष की हो गई। उसके अङ्ग अङ्ग में जवानी के लक्षण दिखाई देते हैं। शीघ्र ही उसका विवाह कर देना चाहिए। इसी सलाह के लिए तुमसे मैं कहता था।

रानी ने कहा—महाराज! सावित्री के विवाह की बात मैं आप से कहने को ही थी। सावित्री मनुष्यरूप में देवी है। आप शीघ्र ही किसी सुन्दर सच्चरित्र गुणवान् राजकुमार को ढुँढ़वाइए।

बेटी के विवाह के विषय में राजा-रानी में इस प्रकार की बातचीत हो ही रही थी कि इतने में, कौशेय वस्त्र पहने हुए, व्रत करनेवाली सावित्री ने आकर माता-पिता को प्रणाम किया। राजा अश्वपति ने बेटी को पास बिठाकर बड़े प्यार से कहा—बेटी! व्रत करने से तुम्हारा सुकुमार शरीर सुख गया है, रूखे स्नान से तुम्हारे बालों की स्वाभाविक शोभा जाती रही है। बेटी! ऐसा व्रत क्यों करती हो?

सावित्री ने पिता की बात सुनकर कहा—बाबूजी! व्रत और

 उपवास से मुझे कुछ कष्ट नहीं होता। मैं भली रहती हूँ। इससे 
मेराशरीर चंगा रहता है।
 रानी ने मन्दिर से आई हुई बेटी के, होम-तिलक लगे हुए, 
ललाट का पसीना पोंछकर मीठे स्वर में कहा-"बेटी! व्रत करने 
के कारण दिन भर उपवास करती हो, चलो कुछ खा लो।" बेटी 
को रानी अपने कमरे में ले गई।
 राजा अश्वपति बेटी की बात सोचने लगे। ऐसी रूप-गुणवाली
लड़की के योग्य वर कहाँ मिलेगा, इसकी उन्हें बड़ी चिन्ता हुई।
क्षण-क्षण में वे इसी फ़िक्र में रहने लगे।
 दूसरे दिन सबेरे दरबार में जाकर राजा ने मुसाहबों से कहा-
सावित्री का शीघ्र ही विवाह करना है। आप लोग उसके लायक
वर ढूंढ़िए।
 मुसाहबों का मुख प्रसन्न हो गया। उन्होंने विनय-पूर्वक निवे-
दन किया-महाराज! आज्ञा हो तो भाट भेजने की व्यवस्था
की जाय।
 बहुतसे भाट सावित्री के विवाह का प्रस्ताव लेकर अनेक देशों
में-अनेक राज्यों में-गये । अनुपम सुन्दरी सावित्री के विवाह की
बात सुनकर कितने ही राजकुमार भी मद्र देश में आये। किन्तु वे
सब सावित्री के चेहरे पर एक दिव्य ज्योति देखकर आदर से 
सिर नीचा करके लौट गये।
 राजा अश्वपति सावित्री के योग्य वर का मिलना कठिन देखकर
भारी चिन्ता में पड़े। उन्होंने एक दिन रानी को बुलाकर कहा-
रानी ! मैंने बहुत उपाय किये परन्तु सावित्री के लायक वर नहीं
मिला। अब क्या करना चाहिए ?
 रानी ने कहा-महाराज ! यह तो बड़ी चिन्ता की बात है।
 ५ इधर सावित्री दिन-दिन बढ़ती जाती है। शीघ्र उसका विवाह न करने से ठीक नहीं होगा।

अन्त में राजा ने कहा—अच्छा रानी! मैं एक बात कहता हूँ; बताओ, तुम्हारी क्या राय है। मैं तो बहुत उपाय करके भी सावित्री के योग्य वर न पा सका। अब मेरी इच्छा है कि सावित्री ही को पति खोजने की आज्ञा दूँ। वह अपना पति आप ढूँढ़ ले।

रानी—महाराज! यह असम्भव बात है। जब आप अपनी चेष्टा करके भी सावित्री के योग्य वर नहीं खोज सके तब वह भोली-भाली लड़की इस काम को कैसे कर सकेगी?

राजा—रानी! इसकी चिन्ता मत करो। मैं सावित्री को तीर्थयात्रा के बहाने अपने विश्वस्त मंत्री आदि के साथ भेजूँगा। मेरा विश्वास है कि सावित्री अपने पति को ढूँढ़ लेने में समर्थ होगी।

रानी—महाराज! मैं नारी हूँ। मुझमें इतनी बुद्धि कहाँ कि सब बातों को समझ सकूँ। आपकी जो इच्छा हो, वह कीजिए।

राजा—रानी! तुम इसके लिए कुछ फ़िक्र मत करो। सूर्य को देखकर ही कमलिनी खिलती है। गंगा की धारा महासागर में ही गिरती है। सावित्री जैसी बुद्धिमती और समझदार है उससे उसके ऊपर पति के खोजने का भार देने से बुरा नहीं होगा। रानी! एक बात जान रखना-देवता के वर से मिली हुई मेरी सावित्री कभी अयोग्य वर को पसन्द नहीं करेगी। भविष्यत् उसके लिए उज्ज्वल वेष में बाट देख रहा है। अकल्याण सावित्री के पास नहीं फटकेगा। मेरी बेटी मानवी रूप में देवी है।

राजा और रानी में इस प्रकार की बात हो ही रही थी कि इतने में सावित्री भी वहाँ आ गई। राजा ने आदर से उसे पास बिठाकर कहा—

राजा ने कहा—मेरी इच्छा है कि तुम स्वयं पति ढूँढ़ने की चेष्टा करो—पृ॰ ६७

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। बेटी! आज मैंने तुमको एक बात कहने के लिए बुलाया है; सुनो। प्रकृति के नियमानुसार यौवन-काल में पुरुष और स्त्री विवाह के पवित्र बन्धन में बँधते हैं। यौवन-काल नर-नारी के भविष्यत् जीवन को साधना का श्रेष्ठ समय है। पुरुष और स्त्री विवाह के बन्धन में बँधकर इस झंझट-भरी पृथ्वी पर साधना के योग्य बल पाते हैं। बेटी! अब तुम सयानी हो गई हो। बिना विलम्ब, तुमको विवाह के पवित्र सूत्र में बँध जाना चाहिए। मैंने योग्य वर ढूँढ़ने के लिए बहुतेरे उपाय किये किन्तु कोई भी राजकुमार तुम्हारे रूप की इस अनुपम ज्योति को नहीं सह सका। पाणिग्रहण के अभिलाषी राजकुमारों ने तुम्हारे मुख की ओर प्रेम-पूर्ण दृष्टि डाली है किन्तु तुम्हारे अनुपम अलौकिक मातृ-भाव ने उनके अभिलषित भाव को बदल दिया है; उससे वे डरते-डरते तुम्हारे स्वर्गीय मातृत्व को प्रणाम करके लौट गये। बेटी! तुम्हारे मुख पर जगत्-माता का स्नेह-पूर्ण माधुर्य झलकता है। मैं इस बुढ़ापे में तुमको 'बेटी बेटी' कहकर अपने को धन्य समझता हूँ।

सावित्री ने कहा—बाबूजी, इस समय मुझे क्या आज्ञा है, मेरी समझ में कुछ नहीं आता।

राजा ने कहा—मेरी इच्छा है कि तुम स्वयं पति ढूँढ़ने की चेष्टा करो। बेटी! इसमें लजाना मत; कर्त्तव्य कार्य में लजाना अच्छा नहीं। पर्वत से गिरनेवाली नदी आप ही समुद्र से जाकर मिलती है। इस जगत् में प्रेम के समान नित्य वस्तु और कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारे स्वयं पति चुनने में संकोच करने का कोई कारण नहीं देखता।

राजा की बात सुनकर सावित्री बहुत लजा गई। उसके माथे पर पसीना आ गया। रानी ने लड़की के लजाने का भाव देख प्रेम से पास बिठाकर माथे का पसीना पोंछ दिया और कहा—छिः, इसमें शर्म क्या है बेटी! हम जब इतने उपाय करके भी तुम्हारे योग्य वर ठीक नहीं कर सकीं तब हमारा पूरा विश्वास है कि जिस सौभाग्यवान् पुरुष को विधाता ने तुम्हारा स्वामी चुन रक्खा है वह अवश्य ही तुम्हारी पवित्र पुकार की बाट देख रहा है। बेटी! भौंरा और किसी के बुलाने से नहीं आता। खिला हुआ फूल सुगन्धि से सने हुए स्वर से ज्योंही उसे पुकारता है त्योंही वह वहाँ पहुँच जाता है। तुम्हारा वह पुरुष-रत्न स्वामी तुम्हारी ही मधुर पुकार की बाट देख रहा है। मैं आशा करती हूँ कि अब तुम हमारी बात समझ गई हो। बेटी! यह कोई नई बात नहीं है। इस प्रकार, पति को चुन लेना सदा की चाल है। पतिव्रताओं में श्रेष्ठ सती ने हिमालय-गृह में तप के प्रभाव से कैलासनाथ महादेव को बुला लिया था।

सावित्री चुप हो रही।

राजा ने प्रेम-पूर्ण स्वर से कहा—बेटी! इसमें कुछ डर की बात नहीं है। हमारी प्रजा सुशासित है और सामन्त राजाओं से मित्रता है। तुम्हारे साथ हमारे मंत्री, तुम्हारी प्यारी सहेलियाँ और दास-दासियाँ तथा सैकड़ों सिपाही जायँगे। बेटी! घबड़ाना मत। मैं बिना विलम्ब तुम्हारे जाने के लिए सवारी आदि का प्रबन्ध किये देता हूँ।

यह कहकर राजा दूसरे कमरे में चले गये।

तब सावित्री ने माता से कहा—मा! मैं आप लोगों की सब बातें समझ गईं। किन्तु संसार क्या इतना भयानक है कि यहाँ स्त्री पुरुष से और पुरुष स्त्री से मिले बिना नहीं रह सकता? मैं जितने दिन जीऊँगी उतने दिन तुम लोगों के पवित्र चरणों की सेवा करके ही धन्य हूँगी। मा! मुझे परित्याग करके तुम लोग कैसे रहोगी और मैं भी कैसे रहूँगी?

रानी ने बेटी की बालकों की जैसी सरल बात सुनकर कहा— अपनी ख़बर न रखनेवाली बेटी! सुनो। जवानी में स्त्री-पुरुष का परस्पर सम्मिलन विधाता का विधान है। इस पवित्र मिलन के लिए पृथ्वी पर जीवस्रोत एक तार से जारी है। पहले के बुद्धिमान् लोग नर-नारी के कर्त्तव्य में विवाह (अर्थात् स्त्री-पुरुष के सम्मिलन) को श्रेष्ठ बता गये हैं। बेटी! तुम क्या विधाता की उस पवित्र आज्ञा को तोड़कर हम लोगों को दुःख के समुद्र में डुबोना चाहती हो?

माता की बात सुनकर सावित्री और कुछ न कह सकी। मा-बाप के आग्रह से, और विशेष कर उन्हें दुखी देखकर, सावित्री ने संकल्प को स्थिर किया।

रानी ने लड़की के मन का भाव समझकर कहा—बेटी! रात बहुत गई, चलो सोवें।

[४]

दूसरे दिन सबेरे राजा अश्वपति ने लड़की को कोमती पोशाक से सजाकर सखी, दाई और बूढ़े मंत्री सहित बिदा किया। माता-पिता के चरण छूकर सावित्री रथ पर सवार हो चल पड़ी। उसके मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। किन्तु वह राजधानी से निकलकर प्रकृति के सौन्दर्य में भूल गई और दासी तथा सखियों से कितनी ही बातें पूछने लगी। दासी और सखियाँ, जहाँ तक बन पड़ा, उसका कौतूहल पूरा करने लगीं।

सावित्री अनेक देशों और अनेक राज्यों में घूम-फिरकर अन्त को एक तपोवन में आई। तब बूढ़े मंत्री ने कहा—राजकुमारी! यह तपोवन है; यहाँ अग्नि के तुल्य मुनि लोग रहते हैं। इसलिए यहाँ रथ की सवारी पर जाना उचित नहीं। इसलिए अब जो तपोवन घूमने की इच्छा हो तो रथ से उतर आइए।

तपोवन देखने के लिए ललचाई हुई सावित्री तुरन्त दाई और सखियों-सहित रथ से उतर पड़ी। सबेरे के समय तपोवन की बड़ी सुहावनी शोभा थी! शीतल मन्द बयार, वन-वृक्षों के नये-नये पत्तों से छेड़-छाड़ करती, फूलों की सुगन्ध लिये, अठखेलियाँ कर रही थी। पेड़ों की डालियों पर बैठे मोर बोलते थे। हरिणों के जोड़े जंगली रास्ते के किनारे खड़े होकर उन लोगों को चकित दृष्टि से निहारने लगे। सावित्री ने देखा कि सरोवर में नयन-मनोहर कमल खिलकर उपवन की शोभा बढ़ा रहे हैं। सबेरे की हवा उनकी सुगन्धि छीनकर चारों ओर फैला रही है। हंस और चक्रवाक आदि जलचर पक्षी तैर रहे हैं। फल-फूल और समिधा चुनने के लिए मुनियों के बालक, समान उमरवालों के साथ बातचीत करते हुए, फूले हुए वनवृक्षों की ओर जा रहे हैं। थोड़ी दूर पर मुनियों की कन्याएँ यज्ञ के लिए वेदी बना रही हैं। तपोवन की यह शोभा देखकर सावित्री मुग्ध हो गई। आज प्रातःकालीन सूर्य ने सावित्री की देह-लता को नई शोभा से सजा दिया। फूली हुई बनैली-लताएँ हर्ष से तपोवन देखने को आई हुई राजकुमारी के बदन पर मानों फूल बरसाने लगीं। फूलों का मधु पीकर मतवाले दो-एक भौंरे सावित्री के सुगन्धित चमकीले बालों के चारों ओर मँडराने लगे।

बूढ़े मंत्री ने सावित्री के अतिशय आनन्द को देखकर कहा—"राजकुमारी! यह तपोवन है। यहाँ किसी प्रकार का डर नहीं। आप दाई और सखियों सहित निडर होकर तपोवन की शोभा देखिए। अगर आज्ञा हो तो मैं पास के तपस्वियों से इस आश्रम के विषय में कुछ पूछ-ताछ करूँ।" राजकुमारी ने कहा—अच्छा, आप जाईए। मैं दाई और सखियों के साथ इस कुञ्ज की ओर जाती हूँ।

मंत्री के प्रणाम करके चले जाने पर सावित्री कुञ्ज की ओर बढ़ी। कुञ्ज से थोड़ी दूर पर एक निर्मल जलवाली नदी वन को हरा भरा करके मन्द गति से बह रही है। उसकी मधुर कलकल ध्वनि मुनियों के वेद-गान से गम्भीर हो रही है। मुनियों के कई बेटे फूल चुनकर नदी में स्नान करने जा रहे थे। मुनियों के कुमार व्रत-संयम में भी यौवन के मदस्पर्श से परिहास को पसन्द कर आपस में हँसी-दिल्लगी करते हैं। वे अनेक प्रकार की बातें करते जाते थे। अचानक एक पतिंगा उड़कर एक ऋषिकुमार के बदन पर बैठ गया। यह देखकर ऋषिकुमार ने कहा—"भाई सत्यवान! यह देखो तुम्हारी देह पर पतिंगा बैठा है—तुम्हें दुलहन मिलने में अब देर नहीं।" सत्यवान ने कहा—"जाओ जी, इस घड़ी दिल्लगी रहने दो। नहा-धोकर शीघ्र आश्रम को लौटना है।" हमजोली के ऋषिकुमारों ने सत्यवान को दिल्लगियों के मारे तङ्ग कर डाला। बेचारा सत्यवान आज सहपाठियों के सामने भारी अपराधी बन बैठा है।

स्नान के बाद सन्ध्या-वन्दन आदि करके मुनियों के कुमार आश्रम की ओर चले। सबके मुख पर वही एक बात है। जगत् की जितनी बातें हैं—शास्त्र की जितनी मीमांसा है सब आज सत्यवान की बात से प्रारम्भ हुई। सत्यवान ने ज़रा कुढ़कर कहा—तुम लोग दिल्लगी में ही पड़े रहो। देखते नहीं कि कितना दिन चढ़ गया है। महर्षि यज्ञ पूरा करके कहीं पुकारें न? मैं जाता हूँ—तुम लोग आना।

यह कहकर सत्यवान साथियों को छोड़ आगे बढ़ गया।

यह बड़ी कठिन पुकार है। जिस पुकार से जगत् चलता है, विधाता की इतनी बड़ी सृष्टि जिस पुकार को मानती है उसी पुकार ने आज सत्यवान को बाल सखाओं से अलग कर दिया। सत्यवान क्या सचमुच आज अकेला है? नहीं, वह अकेला नहीं है; जीवन के मार्ग में जो शक्ति है, कर्म की लड़ाई में जो सफलता है और हताशों में जो ढाढ़स है वही देवी आज उससे लिपटने के लिए वनभूमि के रास्ते में खड़ी है।

दो सीधी सड़कें दो ओर से आकर मिल गई हैं। पास ही कुञ्ज है। सावित्री के वहाँ पहुँचने पर एक सखी बोली—"राजकुमारी! देखो यह स्थान अत्यन्त सुन्दर है मानो वसन्त की शोभा मूर्ति धरकर वन को शान्त और शीतल बनाये हुए है। अलग-अलग दिशाओं से आकर दो सीधी सड़कें कैसी मिल गई हैं। सखी! ऐसा जान पड़ता है कि यह प्रेम और पवित्रता की पुनीत मिलन-भूमि है।" यह सुनकर सावित्री देवी ने बड़ा हर्ष प्रकट किया। इतने में साथियों से बिछुड़ा हुआ सत्यवान उन रास्तों के मोड़ पर आ पहुँचा। आँखें चार हुईं। दोनों के चञ्चल नेत्रों की पलकें खड़ी हो गईं। दोनों ने सोचा—अहा! क्या ही सुन्दर है! दोनों के हृदय में धकधकी शुरू हो गई। राजकुमारी की आँखें नीचे को हो गईं। नवीन ऋषि-कुमार के रूप-समुद्र में सावित्री डूब गई। अचानक शरीर में रोमाञ्च को और माथे पर पसीने को देखकर बुढ़िया दाई ने सावित्री के मन के भाव को ताड़ लिया और सत्यवान! अकेला सत्यवान वहीं खड़ा होकर न जाने क्या-क्या सोचने लगा। वह यह बात भूल गया कि महर्षि के पास मुझे जल्द जाना है। वह सोचने लगा—यह क्या हुआ? हृदय-मन्दिर में यह किस देवी के नूपुर की मृदु ध्वनि है, वासना के द्वार पर यह किसका पुलकस्पर्श है।

सत्यवान बेसुध होकर सोच रहा है, इतने में पीछे से उसके सखा ने आकर मुसकुराते हुए कहा—"सखा सत्यवान! तुम्हारे अभिप्राय को हम लोगों ने समझ लिया। महर्षि के पास शीघ्र जाने के बहाने जो हम लोगों को छोड़कर चले आये तो यहाँ, रास्ते में, इस तरह बेसुध क्यों हो गये?" सत्यवान ने अपने को सँभालते हुए सखा के कन्धे पर हाथ रखकर कहा—नहीं भाई! कुछ नहीं है। चलो, महर्षि के पास शीघ्र चलें।

सावित्री के मन के भाव को ताड़कर दाई बोली—"राजकुमारी! हम लोग बातें करते-करते बहुत दूर निकल आईं; मंत्रीजी हम लोगों को ढूँढ़ते होंगे।" सावित्री ने कहा—मैं तो बहुत थक गई। मैं ज़रा आराम करना चाहती हूँ।

सखियों से घिरकर आती हुई राजकुमारी रास्ते में न जाने कितनी बातें सोचने लगी। उसकी मृदु मुसकान और बेरोक बातचीत कुछ सँभल गई। सखियों की बात का उत्तर देना इस समय उसकी शक्ति से बाहर था।

आते-आते एक सखी ने कहा—"राजकुमारी! यह देखो काले मेघों की क़तार के समान पहाड़ से सटे हुए पत्थर कितने रुखड़े हैं। उनमें कोमलता तो नाम लेने के लिए भी नहीं है।" सावित्री बोल उठी—अहा! क्या ही सुन्दर है।

सावित्री के मुँह से ऐसे असम्भव उत्तर को सुनकर सखी बोली—"सखी! यह कैसा उल्टा-पल्टा उत्तर देती हो? रुखड़े पत्थर में तुमने सुन्दरता कहाँ पाई?" सावित्री ने कहा—"तुमने क्या कहा? मैंने ठीक-ठीक सुना नहीं।" सखी ने सावित्री की इस चिन्ता का कारण समझकर हँसते-हँसते कहा—"यह देखो मंत्रीजी आते हैं।" दाई के इशारे से दिल्लगी की बातें बन्द हुईं।

मंत्री ने आकर प्रेम से कहा—"यह आश्रम बड़ा सुन्दर है। मैं आश्रम में मुनियों का वास स्थान देख आया। अहा! कैसा शान्त स्थान है!" सावित्री ने कहा—मंत्रिवर! मेरी इच्छा है कि मैं एक बार मुनियों के और उनकी पत्नियों के चरणों के दर्शन कर लूँ।

मंत्री ने कहा—"राजकुमारी! चलिए, आज इस तपोवन में हम लोग मेहमान हों।" सखियों सहित सावित्री तपोवन और मुनियों को देखने के लिए बहुत अधीर थी। इससे जल्दी-जल्दी चलने लगी। दाई और मंत्री ज़रा पिछड़ गये।

"मंत्रीजी! हम लोगों की यात्रा सफल हो गई। हम लोग जिस काम के लिए राजधानी से चले थे, वह पूरा हो गया। सावित्री को योग्य वर मिल गया।" कहकर, मंत्री को दाई रास्ते की सब बातें संक्षेप में सुना गई।

मंत्री ने कहा—"अगर राजकुमारी का किसी ऋषिकुमार पर प्रेम हुआ हो तो मुझे उसका परिचय ले लेना होगा।" दाई ने आगे जाते हुए दोनों ऋषिकुमारों को उँगली से दिखाकर कहा—"वह जो उन्नत शरीर का सुकुमार ऋषिपुत्र दाईं ओर दिखाई देता है, वही भाग्यवान् सावित्री के हृदय-राज्य का देवता है।" मंत्री ने कहा—हम लोगों को भी उधर ही चलना होगा।

बिना विलम्ब उन्होंने तपोवन में जाकर योगासन पर बैठे हुए अन्ध-मुनि और मुनि की पत्नी के चरण छुए। मंत्री ने मुनि से कहा—मद्रराज अश्वपति की बेटी सावित्री का प्रणाम स्वीकार कीजिए।

अपने आश्रम में राज-कन्या सावित्री का आना सुनकर उन्होंने अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए राजकुमारी को आशीर्वाद दिया।

अन्ध-मुनि ने यथाविधि क्षेम-कुशल आदि पूछा, फिर सत्यवान से कहा—बेटा! आज हम लोगों के आश्रम में राजकुमारी, राजमंत्री और राजकुमारी की दाई तथा सखियाँ अतिथि हैं। बेटा! सावधान रहना, इन लोगों के सत्कार में कुछ त्रुटि न हो।

रास्ते में जिस राजकुमारी को देखा था उसी को अपने आश्रम में देखकर सत्यवान बड़े उत्साह से उन लोगों की सेवा करने लगा।

मद्र-नरेश की कन्या का तपोवन में आना सुनकर आश्रम-वासी मुनि बहुत प्रसन्न हुए और राजकुमारी को देखने के लिए एक-एक करके राजर्षिद्युमत्सेन के आश्रम में आने लगे।

मुनियों की कन्याओं से धोरे-धीरे सावित्री का मेल-मिलाप हो गया। मुनि-कन्याओं की निर्मल मूर्त्ति देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। सरल-स्वभाववाली ऋषि-बालिकाएँ सावित्री को साथ ले जाकर तपोवन की सैर कराने लगीं। वह हरा-भरा खुला मैदान, दूर तक फैला हुआ वन, बड़ी भारी गम्भीर पर्वत-माला और अनेक प्रकार के पक्षियों से गूंजती हुई पवित्र वन-भूमि देखकर सावित्री पुलकित हो गई। वह सोचने लगी कि यह सपने का खेल है या कोई अदृश्य अमरावती है या यह पवित्रता का छिपा हुआ वासस्थान है। अहा! ये सरल-हृदय की बालिकाएँ मानो पवित्रता की सजीव मूर्त्तियाँ हैं और आश्रम-वासिनी मुनि-पत्नियाँ मानो उन्मुक्त स्वाधीनता की जीती-जागती मूर्त्तियाँ हैं। यह सोचत-सोचते सावित्री के रोमाञ्च हो आया। वह सुध-बुध भूल गई।

सावित्री ऋषियों की बालिकाओं के साथ आश्रम में आकर मंत्री से तपोवन देख आने की बात कह रही थी, इतने में सत्यवान ने वहाँ आकर विनय-पूर्वक कहा—"हम लोग गृहत्यागी संन्यासी हैं; राजपरिवार के स्वागत करने योग्य कोई वस्तु हम लोगों के पास नहीं, यहाँ तक कि अन्न-जल भी राजोचित नहीं है। तो भी कृपा करके हम लोगों के यत्न से जुटाया हुआ और देवता का चढ़ाया हुआ जंगली फल-मूल ग्रहण कीजिए।" मंत्री आदि ने ऋषिकुमार की सरलता और दीनता पर प्रसन्न होकर उस प्रसाद को ग्रहण किया और अपने को धन्य माना।

तरह-तरह की बातचीत में दिन ढल गया। धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। ऋषिकुमारगण आरती की तैयारी में लगे। होम की आग सुलगाई गई। ऋषिकुमार एक साथ सन्ध्या-वन्दन और एक स्वर से पाठ करने लगे। तपोवन की वह सन्ध्या-समय की शोभा, वनवासी पक्षियों