आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
हिमालय का पथिक

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ५७ से – ६३ तक

 





हिमालय का पथिक

"गिरि-पथ में हिम-वर्षा हो रही है, इस समय तुम कैसे यहाँ पहुँचे? किस प्रबल आकर्षण से तुम खिंच आये?"---खिड़की खोलकर एक व्यक्ति ने पूछा। अमल धवल चन्द्रिका तुषार से घनीभूत हो रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती है, गगन-चुम्बी शैल शिखर, जिन पर बर्फ का मोटा लिहाफ पड़ा था, ठिठुरकर सो रहे थे। ऐसे ही समय पथिक उस कुटीर के द्वार पर खड़ा था। वह बोला---"पहले भीतर आने दो, प्राण बचें!"

बर्फ जम गई थी, द्वार परिश्रम से खुला। पथिक ने भीतर जा कर उसे बन्द कर लिया। आग के पास पहुँचा, और उष्णता का

अनुभव करने लगा। ऊपर से और दो कम्बल डाल दिये गये। कुछ काल बीतने पर पथिक होश में आया। देखा, शैन-भर में एक छोटा-सा गृह धुँधली प्रभा से आलोकित है। एक वृद्ध है और उसकी कन्या। बालिका युवती हो चली है।

वृद्ध बोला---"कुछ भोजन करोगे?"

पथिक---"हाँ भूख तो लगी है।"

बृद्ध ने बालिका की ओर देखकर कहा---"किन्नरी, कुछ ले आओ।"

किन्नरी उठी और कुछ खाने को ले आई। पथिक दत्तचित्त होकर उसे खाने लगा।

किन्नरी चुपचाप आग के पास बैठी देख रही थी। युवक-पथिक को देखने में उसे कुछ संकोच न था। पथिक भोजन कर लेने के बाद घूमा, और देखा। किन्नरी सचमुच हिमालय की किन्नरी है। ऊनी लम्बा कुरता पहने है, खुले हुए बाल एक कपड़े से कसे हैं जो सिर के चारों ओर टोप के समान बँधा है। कानों में दो बड़े-बड़े फीरोजे लटकते हैं। सौंदर्य है, जैसे हिमानी-मडित उपत्यका में वसन्त की फूली हुई वल्लरी पर मध्याह्न का आतप अपनी सुखद कान्ति बरसा रहा हो। हृदय को चिकना कर देने वाला रूखा यौवन प्रत्येक अंग में लालिमा की लहरी उत्पन्न कर रहा है। पथिक देखकर भी अनिच्छा से सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। वृद्ध ने पूछा---"कहो तुम्हारा आगमन कैसे हुआ?"

पथिक---निरुद्देश्य घूम रहा हूँ; कभी राजमार्ग, कभी खड्ढ, कभी सिन्धुतट और कभी गिरि-पथ देखता-फिरता हूँ। आँखों की तृष्णा मुझे बुझती नहीं दिखाई देती। यह सब क्यों देखना चाहता हूँ, कह नहीं सकता।"

"तब भी भ्रमण कर रहे हो!"

पथिक---"हाँ, अब की इच्छा है कि हिमालय में ही विचरण करूँ। इसी के समान दूर तक चला जाऊँ!"

वृद्ध---"तुम्हारे पिता-माता हैं?"

पथिक---"नहीं।"

किन्नरी---"तभी तुम घूमते हो! मुझे तो पिताजी थोड़ी दूर भी नहीं जाने देते।"---वह हँसने लगी।

वृद्ध ने उसकी पीठपर हाथ रखकर कहा---"बड़ी पगली है!"

किन्नरी खिलखिला उठी।

पथिक---"अपरिचित देशो में एक रात रमना और फिर चल देना। मन के समान चंचल हो रहा हूँ, जैसे पैरों के नीचे चिनगारी हो!"

किन्नरी---"हम लोग तो कहीं जाते नहीं; सबसे अपरिचित हैं, कोई नहीं जानता। न कोई यहाँ आता है। हिमालय की निर्जन शिखर-श्रेणी और बर्फ की झड़ी, कस्तूरी मृग और बर्फ के चूहे, ये ही मेरे स्वजन हैं।" वृद्ध---"क्यों री किन्नरी! मैं कौन हूँ?"

किन्नरी–--"तुम्हारा तो कोई नया परिचय नहीं है; वही मेरे पुराने बाबा बने हो!

वृद्ध सोचने लगा।

पथिक हँसने लगा। किन्नरी अप्रतिभ हो गई। वृद्ध गंभीर होकर कम्बल ओढ़ने लगा।

XXX

पथिक को उस कुटीर में रहते कई दिन हो गये। न जाने किस बंधन ने उसे यात्रा से वंचित कर दिया है। पर्यटक युवक आलसी बनकर चुपचाप, खुली धूप में, बहुधा देवदारु की लम्बी छाया में बैंठा हिमालयखंड की निर्जन कमनीयता की ओर एकटक देखा करता है। जब कभी अचानक आकर किन्नरी उसका कंधा पकड़कर हिला देती है तो उसके तुषारतुल्य हृदय में बिजली-सी दौड़ जाती है। किन्नरी हँसने लगती है---जैसे बर्फ गल जाने पर लता के फूल निखर आते हैं।

एक दिन पथिक ने कहा---"कल मैं जाऊँगा।"

किन्नरी ने पूछा---"किधर?"

पथिक ने हिम-गिरि की ऊँची चोटी दिखलाते हुए कहा---"उधर, जहाँ कोई न गया हो!"

किन्नरी ने पूछा---"वहाँ जाकर क्या करोगे?"

"देखकर लौट आऊँगा।" "अभी से क्यों नहीं जाना रोकते, जब लौट ही आना है?"

"देखकर आऊँगा; तुम लोगों से मिलते हुए देश को लौट जाऊँगा। वहाँ जाकर यहाँ का सब समाचार सुनाऊँगा।"

"वहाँ क्या तुम्हारा कोई परिचित है?"

"यहाँ पर कौन था?"

"चले जाने में तुमको कुछ कष्ट नहीं होगा?"

"कुछ नहीं; हाँ एक बार जिनका स्मरण होगा, उसके लिये जी कचोटेगा। परन्तु ऐसे कितने ही हैं!"

"कितने होंगे?"

"बहुत से; जिनके यहाँ दो घड़ी से लेकर दो-चार दिन तक आश्रय ले चुका हूँ। उन दयालुओं की कृतज्ञता से विमुख नहीं होता।"

"मेरी इच्छा होती है कि उस शिखर तक मैं भी तुम्हारे साथ चल कर देखूँ। बाबा से पूछ लूँ।"

"ना-ना, ऐसा न करना।" पथिक ने देखा, बर्फ की चट्टान पर श्यामल दूर्वा उगने लगी है। मतवाले हाथी के पैर में फूली हुई लता लिपटकर साँकल बनना चाहती है। वह उठकर फूल बिनने लगा। एक माला बनाई। फिर किन्नरी के सिर का बन्धन खोलकर वहीं माला अटका दी। किन्नरी के मुख पर कोई भाव न था। वह चुपचाप थी। किसी ने पुकारा---"क्रिन्नरी!"

दोनो ने घूमकर देखा, वृद्ध का मुँह लाल था। उसने

पूछा---"पथिक! तुमने देवता का निर्माल्य दूषित करना चाहा---तुम्हारा दण्ड क्या है?"

पथिक ने गम्भीर स्वर से कहा---"निर्वासन।"

"और भी कुछ?"

"इससे विशेष तुम्हें अधिकार नहीं; क्योंकि तुम देवता नहीं, जो पाप की वास्तविकता समझ लो!"

"और, मैंने देवता के निर्माल्य को और भी पवित्र बनाया है। उसे प्रेम के गंधजल से सुरभित कर दिया है। उसे तुम देवता को अर्पण कर सकते हो।"---इतना कहकर पथिक उठा, और गिरिपथ से जाने लगे।

वृद्ध ने पुकारकर कहा---"तुम कहाँ जाओगे? वह सामने भयानक शिखर है।"

पथिक ने लौटकर खड्ढ में उतरना चाहा। किन्नरी पुकारती हुई दौड़ी---"हाँ-हाँ, मत उतरना, नहीं तो प्राण न बचेंगे!"

पथिक एक क्षण के लिये रुक गया। किन्नरी ने वृद्ध से घूम-कर पूछा-–-"बाबा, क्या यह देवता नहीं है?"

वृद्ध कुछ न कह सका। किन्नरी और आगे बढ़ी। उसी क्षण एक लाल धुँधली आँधी के सदृश्य बादल दिखलाई पड़ा। किन्नरी और पथिक गिरि-पथ से चढ़ रहे थे। वे अब दो श्याम-विन्दु की तरह वृद्ध की आँखों में दिखाई देते थे। वह रत्तमलिन मेध समीप

आ रहा था। वृद्ध कुटीर की ओर पुकारता हुआ चला---"दोनो लोट आओ; खून बर्फ आ रही है!"---परन्तु जब पुकारना था, तब वह चुप रहा। अब वे सुन नहीं सकते थे।

दूसरे ही क्षण खूनी बर्फ, वृद्ध और उन दोनों के बीच में थी।



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