आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
प्रतिध्वनि

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ७१ से – ७८ तक

 





प्रतिध्वनि

मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती हैं, परंतु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, संभव है, उसके बाद भी घक्-धक् करती हुई जला करे।

तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रो-पीट रहे थे, उसकी नन्द ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ व्यंग के स्वर में कहा---"अरे मैया रे किसका पाप किसे खा गया रे!"---तभी आसन्न वैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग्य रोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था।

तारा सम्पन्न थी, इसलिये वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चला जाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ,

नन्द रामा अपनी दरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी। दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिये प्रस्तुत न होता। श्यामा १४ बरस की हो चली! बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याह न कर सकी। वह चल बसी।

श्यामा निस्सहाव अकेली हो गई। पर जीवन के जितने दिन हैं, वे तो कारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगातट पर अपनी बारी से सटे हुए कच्चे झोपड़े में रहने लगी।

मन्नी नाम की एक बुढ़िया, जिसे 'दादी' कहती थी, रात को उसके पास सो रहती, और न-जाने कहाँ से कैसे उसके खाने-पीने का कुछ प्रबन्ध कर ही देती। धीरे-धीरे दरिद्रता के सब अवशिष्ट चिह्न बिककर श्यामा के पेट में चले गये।

पर, उसकी आम की बारी अभी नीलाम होने के लिये हरी-भरी थी!


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कोमल आतप गंगा के शीतल शरीर में अभी ऊष्मा उत्पन्न करने में असमर्थ था। नवीन किसलय उससे चमक उठे थे। वसंत की किरणों की चोट से कोयल कुहुक उठी। आम की कैरियों के गुच्छे हिलने लगे। उस आम की बारी में माधव-ऋतु का डेरा था और श्यामा के कमनीय कलेवर में यौवन का।

श्यामा अपने कच्चे घर के द्वार पर खड़ी हुई मेष संक्रान्ति

का पर्व स्नान करनेवालों को कगारे के नीचे देख रही थी। समीप होने पर भी वह मनुष्यों की भीड़ उसे चीटियाँ रेंगती हुई जैसी दिखाई पड़ती थीं। मन्नी ने आते ही उसका हाथ पकड़कर कहा---"चल बेटी हम लोग भी स्नान कर आवें।"

उसने कहा---"नहीं दादी, आज अंग-अंग टूट रहा है जैसे ज्वर आने को है।"

मन्नी चली गई।

तारा स्नान करके दासी के साथ कगारे के ऊपर चढ़ने लगी। श्यामा की बारी के पास से ही पथ था। किसी को वहाँ न देखकर तारा ने संतुष्ट होकर साँस ली। कैरियों से गदराई हुई डाली से उसका सिर लग गया। डाली राह में झुकी पड़ती थी। तारा ने देखा, कोई नहीं है; हाथ बढ़ाकर कुछ कैरियाँ तोड़ लीं।

सहसा किसी ने कहा---"और तोड़ लो मामी, कल तो यह नीलाम ही होगा!"

तारा की अग्नि-बाण-सी आँखें किसी को जला देने के लिये खोजने लगीं। फिर उसके हृदय में वही बहुत दिन की बात प्रतिध्वनित होने लगी---"किसका पाप किसको खा गयी रे!"---तारा चौंक उठी। उसने सोचा रामा की कन्या व्यंग्य कर रही है---भीख लेने के लिये कह रही है। तारा होंठ चबाती हुई चली गई।

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एक सौ पाँच---एक,

एक सौ पाँच---दो,

एक सौ पाँच रुपये---तीन!

बोली हो गई। अमीन ने पूछा---"नीलाम को चौथाई रुपया कौन जमा करता है?"

एक गठीले युवक ने कहा---"चौथाई नहीं, कुल रुपये लीजिये और तारा के नाम की रसीद बनाइये।" रुपया सामने रख दिया गया; रसीद बना दी गई।

श्यामा एक आम के वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठी थी। उसे और कुछ नहीं सुनाई पड़ता था, केवल डुग्गियों के साथ एक-दो तीन की प्रतिध्वनि कानों में गूँज रही थी। एक समझदार मनुष्य ने कहा---"चलो अच्छा ही हुआ, तारा ने अनाथ लड़की के बैठने का ठिकाना तो बना रहने दिया; नहीं तो गंगा-किनारे का घर और तीन बीघे की बारी, एक सौ पाँच रुपये में! तारा ने बहुत अच्छा किया।"

बुढ़िया मन्नी ने कहा---"भगवान् जाने, ठिकाना कहाँ होगा!" श्यामा चुपचाप सुनती रही। संध्या हो गई। जिसका उसी अमराई में नीड़ था, उन पक्षियों का झुण्ड कलरव करता हुआ घर लौटने लगा। पर श्यामा न हिली; उसे भूल गया कि उसके भी घर है।

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बुढ़िया के साथ अमीन साहब आकर खड़े हो गये। अमीन

एक सुंदर कहे जाने योग्य युवक थे, और उनका यह सहज विश्वास था कि कोई भी स्त्री हो, वह मुझे एक बार अवश्य देखेगी। श्यामा के सौंदर्य को तो दारिद्रय ने ढँक लिया था; पर उसका यौवन छिपने के योग्य न था। कुमार यौवन अपनी क्रीड़ा में विह्वल था। अमीन ने कहा---"मन्नी! पूछो, मैं रूपया दे दूँ---अभी एक महीने की अवधि है, रुपया दे देने से नीलाम रुक जायगा।"

श्यामा ने एक बार तीखी आँखों से अमीन की ओर देखा। वह पुष्ट कलेवर अमीन, उस अनाथ बालिका की दृष्टि न सह सका, धीरे से चला गया। मन्नी ने देखा, बरसात की सी गीली चिता श्यामा की आँखों में जल रही थी। मन्नी का साहस न हुआ कि उससे घर चलने के लिये कहे! उसने सोचा, ठहरकर आऊँगी तो इसे घर लिवा जाऊँगी। परन्तु जब वह लौटकर आई, तो रजनी के अन्धकार में बहुत खोजने पर भी श्यामा को न पा सकी।

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तारा का उत्तराधिकारी हुआ---उसके भाई का पुत्र प्रकाश। अकस्मात् सम्पत्ति मिल जाने से जैसा प्रायः हुआ करता है, वही हुआ---प्रकाश अपने-आपे में न रह सका। वह उस देहात में प्रथम श्रेणी का विलासी बन बैठा। उसने तारा के पहले घर से

कोस-भर दूर, श्यामा की बारी को भली-भाँति सजाया; उसका कच्चा घर तोड़ कर बँगला बन गया। अमराई में सड़कें और क्यारियाँ दौड़ने लगीं। यहीं प्रकाश बाबू की बैठक जमी। अब इसे उसके नौकर 'छावनी' कहते थे।

असाढ़ का महीना था। सबेरे ही बड़ी उमस थी। पुरवाई से घनमंडल स्थिर हो रहा था। वर्षा होने की पूरी संभावना थी। पक्षियों के झुण्ड आकाश में अस्तव्यस्त घूम रहे थे। एक पगली गंगा के तट के ऊपर की ओर चढ़ रही थी। वह अपने प्रत्येक पादविक्षेप पर एक-दो-तीन अस्फुट स्वर से कह देती, फिर आकाश की ओर देखने लगती थी। अमराई के खुले फाटक से वह घुस आई, और पास के वृक्षों के नीचे घूमती हुई "एक-दो-तीन" करके गिनने लगी।

लहरीले पवन का एक झोंका आया; तिरछी बूँदों की एक बाढ़ पड़ गई। दो-चार शाम भी चू पड़े। पगली घबरा गई। तीन से अधिक वह गिनना ही न जानती थी। इधर बूँदों को गिने कि आमों को! बड़ी गड़बड़ी हुई। पर वह मेघ का टुकड़ा बरसता हुआ निकल गया। पगली एक बार स्वस्थ हो गई।

महोखा एक डाल से बोलने लगा। डुग्गी के समान उसका "डूप-डूप-डूप" शब्द पगली को पहचाना हुआ-सा मालूम पड़ा। वह फिर गिनने लगी---एक-दो-तीन! उसके चुप हो जाने पर पगली ने डालों की ओर देखा, और प्रसन्न होकर बोली---एक-दो
तीन! इस बार उसकी गिनती में बड़ा उल्लास था, विस्मय था और हर्ष भी। उसने एक ही डाल में पके हुए तीन आमो को वृन्तों-सहित तोड़ लिया, और उन्हें झुलाते हुए गिनने लगी। पगली इस बार सचमुच बालिका बन गई, जैसे खिलौने के साथ खेलने लगी।

माली आ गया उसने गाली दी, मारने के लिये हाथ उठाया। पगली अपना खेल छोड़कर चुपचाप उसकी ओर एकटक देखने लगी। वह उसका हाथ पकड़कर प्रकाश बाबू के पास ले चला।

प्रकाश यक्ष्मा से पीड़ित होकर इन दिनों यहाँ निरन्तर रहने लगा था। वह खाँसता जाता था, और तकिये के सहारे बैठा हुआ पीकदान में रक्त और कफ थूकता जाता था। कंकालसार शरीर पीला पड़ गया था। भुख में केवल नाक और बड़ी-बड़ी आँखें अपना अस्तित्व चिल्लाकर कह रही थीं। पगली को पकड़कर माली उसके सामने ले आया।

विलासी प्रकाश ने देखा, पागल यौवन अभी उस पगली के पीछे लगा था। कामुक प्रकाश को आज अपने रोग पर क्रोध हुआ, और पूर्ण मात्रा में हुआ। पर क्रोध धक्का खाकर पगली की ओर चला आया। प्रकाश ने आम देखकर ही समझ लिया और फूहड़ गालियों की बौछार से उसकी अभ्यर्थना की।

पगली ने कहा---"यह किस पाप का फल है? तू जानता है इसे कौन खायगा? बोल! कौन मरेगा? बोल! एक-दो-तीन---" "चोरी को पागलपन में छिपाया चाहती है! अभी तो तुझे बीसो चाहनेवाले मिलेंगे! चोरी क्यों करती है?"---प्रकाश ने कहा।

एक बार पगली का पागलपन, लाल वस्त्र पहनकर, उसकी आँखों में नाच उठा। उसने आम तोड़-तोड़ कर प्रकाश के क्षय-जर्जर हृदय पर खींचकर मारते हुए गिना---एक-दो-तीन! प्रकाश तकिये पर चित लेटकर हिचकियाँ लेने लगा, और पगली हँसते हुए गिनने लगी---एक-दो-तीन! उसकी प्रतिध्वनि अमराई में गूँज उठी।


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