आँधी/१-आंधी
चदा के तट पर बहुत से छतनारे वृक्षों की छाया है किंतु मैं प्राय मुचकुदु के नीचे ही जाकर टहलता बैठता और कभी कभी चाँदनी में ऊधने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी किन्तु वह कुछ बोलती न थी। व रहट्ठों की बनी हुई मूसदानी सी एक झोपड़ी थी जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा सा काला लड़का पेट के बल पड़ा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुए भगवान की अनंत करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों के सामने आ जाता। मैं सथिया को कभी कभी कुछ दे देता था पर वह नहीं के बराबर । उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था । अन्य मुसहरों की तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्ती से दूर रहने में सुविधा थी । व मुचकुद के फल इकट्ठ करके बेचती। सेमर की रूई बीन लेती लकड़ी के गट्टे बटोर कर बेचती और उसके इन सब व्यापारों में कोई और सहायक न था । एक दिन वह मर ही तो गई । तब भी कलाई पर से सिर उठा कर करवट बदल कर अँगडाई लेते हुए कलुआ ने केवल एक जँभाई ली थी। मैंने सोचा-स्नेह माया ममता इन सबों की भी एक घरेलू पाठशाला है जिसमें उत्पन्न हो कर शिशु धीरे धीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभियक्ति के प्रकार और विशेषता से वह आकर्षक होता है सही किन्तु माया ममता किस प्राणी के हृदय म न होगी । मुसहरों को पता लगा- वे कल्लू को ले गये । तब से इस स्थान की निजनता पर गरिमा का एक और रंग चढ़ गया।
{{gap}}मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूम फिर कर भी जैसे मुचकुन्द की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ। अधिक सरसता थी । मेरा ह्रदय हलका हलका सा हो रहा था । पवन में मादक सुगंध और शीतलता थी। ताल पर नाचती हुई लाल लाल किरण वृक्षों के अतराल से बड़ी सुहावनी लगती थीं । मैं परजाते के सौरभ में अपने सिर को धीरे-धीरे हिलाता हुआ कुछ गुनगुनाता चला जा रहा था। सहसा मुचकुद के नीचे मुझे धुआँ और कुछ मनुष्यों की चहल पहल का अनुमान हुआ । मैं कुतूहल से उसी ओर बढ़ने लगा।
वहा कभी एक सराय भी थी अब उसका रस बच रहा था । दो एक कोठरिया थी किंतु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं पर पथिक ठहरते।
मैंने देखा कि मुचकुन्द के आस पास दूर तक एक विचित्र जमावाड़ा। अदभुत शिविरों की पाति में वहा पर कानन चरों बिना घरवालों की बस्ती बसी हुई है।
सष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया किन्तु इन अभागों
को कोई पहाड़ की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत न
हुई और न इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भी
अपने चलते फिरते घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते हैं ! मैं सोचने लगा - ये सभ्य मानव समाज के विद्रोही हैं तो भी इनका एक
समाज है । सभ्य संसार के नियमों को कभी न मान कर भी इन लोगों ने अपने लिए नियम बनाये हैं । किसी भी तरह जिनके पास कुछ है उनसे ले लेना और स्वतंत्र होकर रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार के लिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय रहता है । ये अच्छे घुड़सवार
और भयानक व्यापारी हैं। अच्छा ये लोग कठोर परिश्रमी और संसार
यात्रा के उपयुक्त प्राणी हैं। फिर इन लोगों ने कही बसना घर बनाना
क्यों नहीं पसंद किया ? - मैं मन-ही-मन सोचता हुआ धीरे-धीरे उनके
पास होने लगा। कुतूहल ही तो था ।आज तक इन लोगों के सम्बध
में कितनी ही बातें सुनता आया था । जब निर्जन चन्दा का ताल मेरे
मनोविनोद की सामग्री हो सकती है तब आज उसका बसा हुआ तट
मुझे क्यों न आकर्षित करता । मैं धीरे-धीरे मुचकुद के पास पहुँच गया । उसकी एक डाल से बंधा हुआ एक सुंदर बछेड़ा हरी-हरी दूब खा रहा था और लहंगा कुरता पहने रूमाल सिर से बाँधे हुए एक लड़की उस की पीठ सूखे घास के मुट्ठ से मल रही थी । मैं रुक कर देखने लगा । उसने पूछा-घोड़ा लोगे बाबू ?
नहीं - कहते हुए मैं आगे बढ़ा था कि एक तरुणी ने झोपड़े से सिर निकाल कर देखा । वह बाहर निकल आई । उसने कहा आप पढ़ना जानते हैं ?
हाँ जानता तो हूँ।
हिंदुओं की चिट्ठी आप पढ़ लेंगे ?
मैं उसके सुंदर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था । कला की
दृष्टि ठीक तो बौद्ध कला गांधार कला विड़ा की कला इत्यादि नाम
से भारतीय मूर्ति सौंदर्य के अनेक विभाग जो हैं । जिस से गढन का
अनुमान होता है मेरे एकांत जीवन को बिताने की सामग्री मे इस
तरह का जड़ सौंदर्य बोध भी एक स्थान रखता है । मेरा हृदय सजीव
प्रेम से कमी आप्लुत नहीं हुआ था । मैं इस मूक सौंदर्य से ही कभी कभी अपना मनोविनोद कर लिया करता । चिट्ठी पढ़ने की बात पूछने पर भी मैं अपने मन में निश्चय कर रहा था कि यह वास्तविक गांधार प्रतिमा है या ग्रीस और भारत का इस सौदर्य में समंवय है ।
वह झुझला कर बोली - क्या नहीं पढ़ सकोगें ?
चश्मा नहीं है - मैंने सहसा कह दिया । यद्यपि मैं चश्मा नहीं
लगाता तो भी स्त्रियों से बोलने में न जाने क्यों मेरे मन में हिचक
होती है । मैं उनसे डरता भी था क्योंकि सुना था कि वे किसी वस्तु
को बेचने के लिए प्राय इस तरह तंग करती है कि उनसे दाम पूछने
वाले को लेकर ही छूटना पड़ता है । इसमें उनके पुरुष लोग भी सहायक हो जाते हैं तब व बेचारा ग्राहक और भी कम में फँस जाता । मेरी
सौदर्य की अनुभूति विलीन हो गई । मैं अपने दैनिक जीवन के अनुसार टलने का उपक्रम करने लगा किंतु वह सामने अंचल प्रतिमा की तरह खड़ी हो गई । मैंने कहा - क्या है ?
चश्मा चाहिए ? मैं ले आती हूँ । ठहरो ठहरो मुझे चश्मा न चाहिए ।
कहकर मैं सोच रहा था कि कहीं मुझे खरीदना न पड़े । उसने पूछा तब तुम पढ़ सकोगे कैसे ?
मैंने देखा कि बिना पढ़े मुझे छुट्टी न मिलेगी । मैंने कहा - ले आओ देख सम्भव है कि पढ़ सकूँ । - उसने अपनी जेब से एक बुरी तरह मुड़ा हुआ पत्र निकाला । मैं उसे लेकर मन-ही-मन पढ़ने लगा । लैला ।
तुमने जो मुझे पत्र लिखा था उसे पढ़ कर मैं हँसा भी और दुख तो हुआ ही । हँसा इसलिये कि तुमने दूसरे से अपने मन का ऐसा खुला हुआ हाल क्यों कह दिया । तुम कितनी भोली हो । क्या तुमको ऐसा पत्र दूसरे से लिखवाते हुए हिचक न हुई । तुम्हारा घूमनेवाला परिवार ऐसी बातों को सहन करेगा ? क्या इन प्रेम की बातों में तुम गम्भीरता का तनिक भी अनुभव नहीं करती हो ? और दुखी इसलिए हुआ कि तुम मुझ से प्रेम करती हो । यह कितनी भयानक बात है । मेरे लिए भी और तुम्हार लिए भी । तुम ने मुझे निमंत्रित किया है प्रेम के स्वतंत्र साम्राज्य में घूमने के लिए किन्तु तुम नहीं जानती हो कि मुझे जीवन की ठोस झंझटों से छुट्टी नहीं । घर में मेरी स्त्री है तीन तीन बच्चे हैं उन सबों के लिए मुझे खटना पड़ता है काम करना पड़ता है । यदि वैसा न भी होता तो भी क्या मैं तुम्हारे जीवन को अपने साथ घसीटने में समर्थ होता । तुम स्वतंत्र वन विहगिनी और मैं एक हिन्दू गृहस्थ अनेकों रुकावटें बीसों बंधन । यह सब असम्भव है । तुम भूल जाओ जो स्वप्न तुम देख रही हो उसमें केवल हम और तुम हैं । संसार का आभास भी नहीं । मैं संसार में एक दिन और जीना सुख लेते हुए जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का समन्वय करने का प्रयत्न कर रहा हूँ । न मालूम कब से मनुष्य इस भयानक सुख का अनुभव कर रहा है । मैं उन मनुष्यों में अपवाद नहीं हूँ । क्योंकि यह सुख भी तुम्हारे स्वतंत्र मुख की संतति है । वह आरम्भ है यह परिणाम है । फिर भी घर बसाना पड़ेगा । फिर वही समस्याएँ सामने आवेंगी । तब तुम्हारा यह स्वप्न भंग हो जायेगा । पृथ्वी ठोस और कंकरीली रह जायगी । फूल हवा में बिखर जाएगे । आकाश का विराट् मुख समस्त आलोक को पी जायेगा । अंधकार केवल अधंकार में झुँझलाहट भरा पश्चात्ताप जीवन को अपने डंकों से क्षत विक्षत कर देगा । इसलिए लैला ! भूल जाओ । तुम चारयारी बेचती हो । उस से सुना है चोर पकड़े जाते हैं । किंतु अपने मन का चोर पकड़ना कहीं अच्छा है । तुम्हारे भीतर जो तुमको चुरा रहा है उसे निकाल बाहर करो । मैंने तुमसे कहा था कि बहुत से ऐसे पुराने सिक्के खरीदूँगा तुम अब की बार पश्चिम जाओ तो खोजकर ले आना । मैं उन्हें अच्छे दामों पर ले लूँगा । किंतु तुमको खरीदना अपने को बेचना है । इसलिए मुझ से प्रेम करने की भूल तुम न करो । हाँ अब कभी इस तरह पत्र न भेजना क्योंकि वह सब व्यर्थ है । रामेश्वर मैं एक सास में पत्र पढ़ गया तब तक लैला मेरा मुँह देख रही थी । मेरा पढना कुछ ऐसा ही हुआ जैसे लोग सपने में बर्राते हैं । मैंने उसकी ओर देखते हुए वह कागज उस लौटा दिया । उसने पूछा - इसका मतलब ? मतलब ! वह फिर किसी समय बताऊँगा । अब मुझे जलपान करना है । मैं जाता हूँ । - कहकर मैं मुड़ा ही था कि उसने पूछा - आपका घर बाबू! मैंने चदा के किनारे अपने सफेद बंगले को दिखा दिया। लला पत्र हाथ में लिए वहीं खड़ी रही । मैं अपने बँगले की ओर चला। मन में सोचता जा रहा था । रामेश्वर | वही तो रामेश्वर नाथ वर्मा ! क्यूरियो मर्चेट ! उसी की लिखावट है । वह तो मेरा परिचित है। मित्र मान लेने में मेरे मन को एक तरह की अड़चन है । इसलिए मैं प्राय अपने कहे जानेवाले मित्रों को भी जब अपने मन में सम्बोधन करता हूँ परिचित ही कहकर ! सो भी जब इतना माने बिना काम नहीं चलता। मित्र मान लेने पर मनुष्य उससे शिव के समान आत्मत्याग बोधिसत्व के दृश्य सवस्व समर्पण की जो आशा करता है और उसकी शक्ति की सीमा को तो प्राय अतिरंजित देखता है। वैसी स्थिति में अपने को डालना मुझे पसंद नहीं । क्योंकि जीवन का हिसाब किताब उस काल्पनिक गणित के आधार पर रखने का मेरा अभ्यास नहीं जिसके द्वारा मनुष्य सब के ऊपर अपना पावना ही निकाल लिया करता है।
अकेले जीवन के नियमित यय के लिए साधारण पूँजी का व्याज मेरे लिए पर्याप्त है। मैं सुखी विचरता हूँ! हां मैं जलपान करके कुर्सी पर बैठा हुआ अपनी डाक देख रहा था। उसमें एक लिफाफा ठीक उसी अक्षरों में लिखा हुआ जिसमें लैला का पत्र निकला था | मैं उत्सुकता से खोल कर पढ़ने लगा- भाई श्रीनाथ ।
तुम्हारा समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला। तुम्हें यह जानकर
प्रसन्नता होगी कि हम लोग दो सप्ताह के भीतर तुम्हारे अतिथि होंगे। चन्दा की वायु हम लोगों को खींच रही है। मिना तो तंग कर ही रहा है उसकी मां को और भी उत्सुकता है । उन सबों को यही सूझी है कि दिन भर याद में डोंगी पर भोजन न करके हवा खायेंगे और पानी पियेंगे । तुम्हें कष्ट तो न होगा?
तुम्हारा-रामेश्वर
पन प लेने पर जैसे एक कुतूहल मेरे सामने नाचने लगा । रामेश्वर
के परिवार का स्नेह उनके मधुर झगड़े मान मनौवल-समझौता और अभाव में भी सन्तोष कितना सु र! मैं कल्पना करने लगा। रामेश्वर एक सफल कदम्ब है जिसके ऊपर मालती की लता अपनी सैकड़ों उलझनों से अानन्द की छाया और आलिंगन का स्नेह सुरभि ढाल रही है।
रामेश्वर का ब्याह मैंने देखा था । रामेश्वर के हाथ के ऊपर मालती की पीली हथेली जिसके जर जलधारा पड़ रही थी । सचमुच यह सम्बध कितना शीतल हुा । उस समय मैं हस रहा था बालिका मालती ओर किशोर रामेश्वर ! हिदू समाज का यह परिहास-यह भीपण मनोविनोद ! तो भो मैंने देखा कहीं भूचाल नहीं हुआ-कहीं बालामुखी नहीं फूटी। बहिया ने कोई गाँव बहाया नहीं रामेश्वर और मालती अपने सुख की फसल हर साल कारते हैं। मैंने जो सोचा-अभी अभी जो विचार मेरे मन में आया वह न लिखूगा।मेरी क्षुद्रता जलन के रूप में प्रकट होगी । कि तु मैं सच कहता हूँ मुझे रामेश्वर से जलन नहीं तो भी मेरे उस विचार का मिथ्या अर्थ लोग लगाही लगे । आज कल मनोविज्ञान का युग है न । प्रत्येक मनो वृत्तियों के लिए हृदय को कबूतर का दरबा बना डाला है। इनके लिए सफे। नीला सुर्खा का श्रणी विभाग कर लिया गया है। उतनी प्रकार की मनोवृत्तियों को गिनकर वर्गीकरण कर लेने का साहस भी होने लगा है।
तो भी मैंने उस बात को सोच ही लिया। मेरे साधारण जीवन म एक लहर उठी । प्रसनता की स्निग्ध लहर ! पारिवारिक सुखों से लिपटा हुआ प्रणय कचह देखगा मेरे दायित्व विहीन जीवन का वह मनो विनोद होगा । मैं रामेश्वर को पत्र लिखने लगा- भाई रामेश्वर।
तुम्हारे पत्र ने मुझ पर प्रसन्नता की वर्षा की है । मेरे शन्य जीवन
आँँधी
को आनन्द कोलाहल से कुछ ही दिनों के लिए सही भर देने का तुम्हारा प्रयन मेरे लिए विशेष सुख का कारण होगा। तुम अवश्य आओ और सब को साथ लेकर आओ ।
तुम्हारा-श्रीनाथ
पुनश्च -
बंबई से आते हुए सूरन अवश्य लेते आना! यहाँ वैसा नहीं मिलता । सूरन की तरकारी की गरमी म ही तुम लोग चदा की ठंदी हवा झेल सकोगे और साथ साथ अपनी चलती फिरती दूकान का एक बक्स ! जिस पर हम लोगों की बातचीत की परम्परा लगी रहे। श्रीनाथ
दोपहर का भोजन कर लेने के बाद मैं थोड़ी देर अवश्य लेटता हूँ। कोई पूछता है तो कह देता हूँ कि यह निद्रा नहीं भाई तद्रा है। स्वास्थ्य को मैं उसे अपने आराम से चलने देता हूँ। चिकिसकों से सलाह पूछ कर उसमें छेड़-छाड़ करना मुझे ठीक नहीं जँचता । सच बात तो यह है कि मुझे वर्तमान युग की चिकित्सा मे वैसा ही विश्वास है जैसे पाश्चात्य पुरातत्त्वज्ञों की खोज पर। जैसे वे साची और अमरावती के स्तम्भ तथा शिल्प के चिह्नों में वस्त्र पहनी हुई मूर्तियों को देख कर ग्रीक शिल्प-कला का आभास पा जाते हैं और कल्पना कर बैठते हैं कि भारतीय बौद्ध-कला ऐसी हो ही नहीं सकती क्योंकि वे कपड़ा पहनना जानते ही न थे। फिर चाहे आप त्रिपिटक से ही प्रमाण क्यों न दें कि बिना अतर्वासक चीवर इत्यादि के भारत का कोई मितु भी नहीं रहता था पर वे कब माननेवाले। वैसे ही चिकित्सक के पास सिर में दर्द होने की दवा खोजने गये कि वह पेट से उसका सम्बध जोड़ कर कोई रेचक औषधि दे ही देगा। बेचारा कभी न सोचेगा कि कोई गंभीर
विचार करते हुए जीवन की किसी कठिनाई से टकराते रहने से भी सिर म पीड़ा हो सकती है।तो भी मैं हकी सी तन्द्रा केवल तबियत बनाने के लिए ले ही लेता।
शरद काल की उजली धूप ताल के नीले जल पर फैल रही थी।आखों म चकाचौंधी लग रही थी।मैं कमरे म पड़ा अँगड़ाई ले रहाथा।दुलारे ने आकर कहा-ईरानी नहीं नहीं बलूची आये हैं।-मैंने पूछा-कैसे ईरानी और बलूची?
वही जो मगा फीरोजा चारयारी वेचते हैं सिर म रूमाल बधि हुए।
मैं उठ खड़ा हुया दालान म आकर देखता हूँ तो एक बीस बरसके युवक के साथ लैला?गले म चमड़े का बेग पीठ पर चोटी छींटका रूमाल।एक निराला आकर्षक चित्र! लैला ने हसकर पूछा-बाबूचारयारी लोगे?
चारयारी?
हाँ बाबू!चारयारी!इसके रहने से इसके पास सोना अशर्फी रहेगा। थैली कभी खाली न होगी और बाबू! इससे चोरी का माल बहुत जल्द पकड़ा जाता है।
साथ ही युवक ने कहा-ले लो बाबू।असली चारयारी सोना का चारयारी!एक बाबू के लिए लाया था।वह मिला नहीं।
मैं अब तक उन दोनों की सुरमीली आखों को देख रहा था।सुरमेका घेरा गोरे गोरे मह पर आख की विस्तृत सत्ता का स्वतत्रसाक्षी था।पतली लंबी गर्दन पर खिलौने सा मह टपाटप बोल रहा था।मैंने कहा-मुझे तो चारयारी नहीं चाहिए।
किन्तु वहा सुनता कौन है दोनों सीढी पर बैठ गये थे और लेला अपना वेग खोल रही थी।कई पो लियां निकली सहसा लैला के मुह
का रंग उड़ गया । व घबराकर कुछ श्री भाषा अपनी क नी लगी। युवक उठ खड़ा हुआ।मैं कुछ न समझ सका।वह चला गया।अब लैला ने मुस्कराते हुए बेग मे से वही पत्र निकाला।मैंने कहा-इसे तो मैं पढ चुका हूँ!
इसका मतलब!
वह तुम्हारी चारयारी खरीनने फिर आवेगा।यही इसमे लिखा है- मैंने कहा।
बस।इतना ही?
और भी कुछ है।
क्या बाबू?
और जो उसने लिखा है वह मैं नहीं कह सकता-
क्यों बाबू?क्यों न कह सकोगे?बोलो।
लैला को वाणी मे पुचकार दुलार झिड़की और आज्ञा थी।
वह सब बात मैं नहीं
बीच मे ही बात काट कर उसने कहा- नहीं क्यों?तुम जानते हो नहीं बोलोगे?
उसने लिखा है मैं तुमको यार करता हूँ।
लिखा है बाबू!-लैला की आखों में स्वर्ग हसने लगा!वह फुरती से पन मोड़कर रखती हुई हसने लगी।मैंने अपने मन में कहा-अब यह पूछेगी वह कब आवेगा?कहा मिलेगा-किंतु लैला ने ये सब कुछ नहीं पूछा।वह सीढियों पर श्रद्धशयनावस्था में जैसे कोई सुंंदर सपना देखती हुई मुस्करा रही थी।युवक दौड़ता हुआ आया उसने अपनी भाषा में कुछ घबरा कर कहा-पर लैला लेटे ही लेटे कुछ बोली।युवक भी बैठ गया।लैला ने मेरी ओर देखकर कहा- तो बाबू!वह आयेगा!मेरी चारयारी खरीदेगा।गुल से भी कह दो। -मैंने समझ लिया कि युवक का नाम गुल है। मैंने कहा-हाँ वह तुम्हारी चारयारी खरीदने आयेगा।गुल ने लैला की ओर प्रसन दृष्टि से देखा।
पर तु मैं जैसे भयभीत हो गया।अपने अपर सन्देह होने लगा।लैला सुन्दरी थी पर उसके भीतर भयानक राक्षस की आकृति थी या देवमूर्ति!यह बिना जाने मैंने क्या कह दिया। इसका परिणाम भीषणभी हो सकता है।मैं सोचने लगा। रामश्वर को मित्र तो मानता नहीं कितु मुझे उस से शत्रुता करने का क्या अधिकार है।
× × ×
चदा क दक्षिणी तट पर ठीक मेरे बगले के सामने एक पाठशाला थी।उसम एक सिंहाली सज्जन रहते थे।न जाने कहा-कहा से उनको चदा मिलता था।वे पास पड़ोस के लड़कों को बुलाकर पढाने के लिए बिठाते थे।दो मास्टरों का वेतन देते थे।उनका विश्वास था कि चदा का तट किसी दिन तथागत के पवित्र चरण चिह्नों से अंकित हुआ था। वे आज भी उन्हे खोजते थे।बड़े शान्त प्रकृति के जीव थे।उनका श्यामल शरीर कुंचित केश तीक्ष्ण हरि सिंहली विशेषता से पूर्ण विनय मधुर वाणी और कुछ कुछ मोटे अबरों में चौबीसों घंटे बसनेवाली हँसीआकर्षण से भरी थी।मैं भी कभी-कभी जब जीम में खुजलाहट होती वहा पहुच जाता।आज की वह घना मरे गम्भीर विचार का विषयबन कर मुझे यस्त कर रही थी। मैं अपनी डोंगी पर बैठ गया।दिन अभी घंटे ठेढ घंटे बाकी था।उस पार खेकर डोंगी ले जाते बहुत देर नहीं हुई।मैं पाठशाला और ताल क बीच के उद्यान को देख रहा था।खजूर और नारियल के ऊचे ऊचे वृक्षों की जिसमे निराली छटा थी।एक नया पीपल अपने चिकने पत्तों की हरियाली मे झूम रहा था। उसके नीचे शिला पर प्रशासारथि बैठे थे।नाव को अटका कर मैं उनके समीप पहुँचा।अस्त होनेवाले सूयबिम्ब की रँगीली किरण उनके प्रशांत मुख मण्डल पर पड़ रही थीं।दो ढाई वर्ष पहले का चिन दिखाई पड़ा जब भारत की पविनता हजारो कोस से लोगों को वासना दमन करनासीखने के लिए प्रामनित करती थी।आज भी आध्यामिक रहस्योंके उस देश मे उस महती साधना का आशीर्वाद बचा है।अभी भीबोध वृक्ष पनपते हैं!जीवन की जटिल आवश्यकता को त्याग कर जब काषाय पहने सध्या के सूर्य के रण में रंग मिलाते हुए ध्यान स्तिमितलोचन मूर्तिया अभी देखने मे आती हैं तब जिसे मुझे अपनी सत्ता का विश्वास होता है और भारत की अपूर्वता का अनुभव होता है।अपनी सत्ता का इसलिए कि मैं भी त्याग का अभिनय करता हूँ न !और भारत के लिए तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि इसकी विजय धर्म मे है।
अधरों मे कुंचित हँसी आँखों मे प्रकाश भरे प्रशासारथि ने मुझे देखते हुए कहा-आज मेरी इछा थी कि आप से भेंट हो।
मैंने हसते हुए कहा-अच्छा हुआ कि मैं प्रत्यक्ष ही आ गया। नहीं तो ध्यान म बाधा पड़ती।
श्रीनाथजी। मेरे ध्यान मे आपके आने की सम्भावना न थी।तो भी आज एक विषय पर आपकी सम्मति की आवश्यकता है।
मैं भी कुछ कहने के लिए ही यहां आया हूँ । पहले मैं कहूँ कि आप ही प्रारम्भ करेंगे?
स़थिया के लड़के कसू के सम्बन्ध मे तो आपको कुछ नहीं कहना है?मेरे बहुत कहने पर मुसहरों ने उसे पढने के लिए मेरी पाठशाला में रख दिया है और उसके पालन के भार से अपने को मुक्त कर लिया।अब वह सात बरस का हो गया है।अच्छी तरह खाता पीता है।साफ सुथरा रहता है। कुछ कुछ पढता भी है!-प्रज्ञासारथि ने कहा।
चलिए अच्छा हुआ!एक रास्ते पर लग गया।फिर जैसा उसके भाग्य में हो।मेरा मन इन घरेलू बधनों मे पड़ने के लिए विरक्त सा-है फिर भी न जाने क्यों कुल्लू का ध्यान आ ही जाता है।-मैंने कहा। तब तो अच्छी बात है आप इस कृत्रिम विरक्ति से ऊब चले हैंतो कुछ काम करने लगिए।मैं भी घर जाना चाहता हूँ।न हो तो पाठशाला ही चलाइए।कहते हुए प्रशासारथि ने मेरी ओर गंभीरता से देखा।
मेरे मन में हलचल हुई।मैं एक बकवादी मनुष्य|किसी विषय पर गम्भीरता का अभिनय करके थोड़ी देर तक सफल वाद विवाद चलादेना और फिर विश्वास करना इतना ही तो मेरा ही अभ्यास था।काम करना किसी दायित्व को सिर पर लेना असम्भव।मैं चुप रहा।वह मेरा मुँह देख रहे थे।मैं चतुरता से निकल जाना चाहता था।यदि मैं थोड़ी देर और भी उसी तरह सन्नाटा रखता तो मुझे हां या नहीं कहना ही पड़ता।मैंने विवाद वाला चुटकुला छेड़ ही तो दिया।
आप तो विरक्त भिक्षु हैं।अब घर जाने की आवश्यकता कैसे आ पड़ी।
भिक्षु!-आश्चर्य से प्रज्ञासारथि ने कहा- मैं तो ब्रह्मचर्य में हूँ। विद्याभ्यास और धर्म का अनुशीलन कर रहा हूँ।यदि मैं चाहूँ तो प्रनया ले सकता हूँ,नहीं तो गृही बनने में कोई धार्मिक आपत्ति नहीं।सिंहल में तो यही प्रथा प्रचलित है। मेरे विचार से यही प्राचीनआर्य प्रथा भी थी!मैं गार्हस्थ्य जीवन से परिचित होना चाहता हूँ।
तो आप ब्याह करेंगे?
क्यों नहीं वही करने तो जा रहा हूँ।
देखता हूँ स्त्रियों पर आपको पूर्ण विश्वास है ।
अविश्वास करने का कारण ही क्या है?इतिहास में आख्यायिकाओं में कुछ स्त्रियों और पुरुषों का दुष्ट चरित्र पढ़कर मुझे अपने और अपनी भावी सहधर्मिमणी पर अविश्वास कर लेने का कोई अधिकार नहीं?प्रत्येक व्यक्ति को अपनी परीक्षा देनी चाहिए।
विवाहित जीवन!सुखदायक होगा-मैंने पूछा। किसी कर्म को करने के पहले उसमे सुख की ही खोज करना क्या अत्यत आवश्यक है।सुख तो धर्माचरण से मिलता है।यथासंसार तो दुखमय है ही! ससार के कर्मों को धार्मिकता के साथ करने में सुख की ही सभावना है।
कितु ब्याह जैसे कर्म से तो सीधा सीधा स्त्री से सम्बध है । स्त्री!कितनी विचित्र पहेली है। इसे जानना सहज नहीं। बिना जाने ही उस से अपना सम्बन्ध जोड़ लेना कितनी बड़ी भूल है ब्रह्मचारीजी।-मैंने हँस कर कहा।
भाई तुम बड़े चतुर हो। खूब सोच-समझ कर परख कर तब सम्बध जोड़ना चाहते हो न कि तु मेरी समझ मे सम्बध हुए बिनापरखने का दूसरा उपाय नहीं।प्रज्ञासारथि ने गभीरता से कहा।मैं चुप हो कर सोचने लगा।अभी अभी जो मैंने एक काण्ड का बीजारोपण किया है। वह क्या लैला के स्वभाव से परिचित होकर|मैं अपनी मूर्खता पर मन-ही मन तिलमिला उठा।मैंने कल्पना से देखा लैला प्रतिहिंसा भरी एक भयानक राक्षसी है यदि वह अपने जातिस्वभाव के अनुसार रामेश्वर के साथ बदला लेने की प्रतिज्ञा कर बैठे तब क्या होगा?
प्रज्ञासारथि ने फिर कहा-मेरा जाना तो निश्चित ताम्रपर्णा की तरंग मालाएँ मुझे बुला रही है।मेरी एक प्रार्थना है। आप कभी कभी आकर इसका निरीक्षण कर लिया कीजिए।
मुझे एक बहाना मिला मैंने कहा-मैंने बैठे बिठाये एक झझट बुला ली है।मैं देखता हूँ कि कुछ दिनों तक तो मुझे उसमें फँसना ही पड़ेगा।
प्रज्ञासारथि ने पूछा-वह क्या!
मैंने लैला का पत्र पढने और उसके बाद का सब वत्तात कह सुनाया।प्रज्ञासारथि चुप रहे फिर उहोंने कहा-आपने इस काम को
खूब सोच समझ कर करने की आवश्यकता पर तो ध्यान न दिया होगा क्योंकि इसका फल दूसरे को भोगने की सम्भावना है न।
मुझे प्रकासारथि का यह व्यग अच्छा न लगा।मैंने कहा-सम्भव है कि मुझे भी कुछ भोगना पड़े।
भाई मैं तो देखता हूँ ससार में बहुत से ऐसे काम मनुष्य को करने पड़ते हैं जिन्हें वे स्वप्न मे भी नहीं सोचता। अकस्मात् वे प्रसंगसामने आकर गुर्राने लगते हैं जिनसे भाग कर जान बचाना ही उसका अभीष्ट होता है।मैं भी इसी तरह याह करने के लिए सिहल जा रहा हूँ।
अधकार को भेद कर शरद का चंद्रमा नारियल और खजूर के वृक्षों पर दिखाई देने लगा था।चदा का ताल लहरियों में प्रसन्न था।मैं क्षण भर के लिए प्रकृति की उस सुंंदर चित्रपटी को तमय होकर देखने लगा।
कमुआ ने जब प्रज्ञासारथि को भोजन करने की सूचना दी मुझे स्मरण हुआ कि मुझे उस पार जाना है।मैंने दूसरे दिन आने को कह कर प्रज्ञासारथि से छुट्टी मागी।
डोंगी पर बैठकर मैं धीरे धीरे डाड़ चलाने लगा।
मैं अनमना-सा डाड़ चलाता हुआ कभी चद्रमा को और कभी चदा ताल को देखता।नाव सरल आन्दोलनों मे तिर रही थी।बार बार सिंहाली प्रज्ञासारथि की बात सोचता जाता था।मैंने घूमकर देखा तो कुंज से घिरा हुआ पाठशाला का भवन चदा के शुभ्रजल में प्रति विम्बित हो रहा था!चदा का वह तट समुद्र उपकूल का एक खंड चित्र था।मन-ही-मन सोचने लगा-मैं करता ही क्या हूँ, यदि मैं पाठशाला का ही निरीक्षण करूँ तो हानि क्या? मन भी लगेगा और समय भी कटेगा।अब मैं बहुत दूर चला आया था।सामने मुचकुद वृक्ष की नील प्राकृति दिखलाई पड़ी।मुझे लैला का फिर स्मरण आ गया।कितनी सरल स्वतत्र और साहसिकता से भरी हुई रमणी है। शसुरमीली आंखों में कितना नशा है और अपने मादक उपकरणों से भी रामेश्वर को अपनी ओर आकर्षित करने में वह असमर्थ है।रामेश्वर पर मुझे क्रोध श्राया और लैला को फिर अपने विचारों सेउलझते देख कर मैं झुमला उठा।अब किनारा समीप हो चला था।मैं मुचकुन्द की ओर से नाव घुमाने को था कि मुझे उस प्रशात जल म दो शिर तैरते हुए दिखाई पड़े।शरद काल की शीतल रजनी में उनतैरनेवालों पर मुझ श्राश्चर्य हुआ।मैंने डाड़ा चलाना बद कर दिया।दोनों तैरनेवाले डोंगी के पास आ चले थे।मैंने चद्रिका के आलोक म पहचान लिया वह लैला का सुदर मुख था।कुमुदिनी की तरह प्रफुल्ल चादनी में हँसता हुआ लैला का मुख!मैंने पुकारा–लैला!वह बोलने ही को थी कि उसके साथवाला मुख गुर्रा उठा।मैंने समझा कि उसका साथी गुल होगा किन्तु लैला ने कहा-चुप बाबूजी हैं।अब मैंने पहचाना कि वह एक भयानक ताजी कुत्ता है जो लैला के साथ तैर रहा था।लैला ने कहा-बाबूजी आप कहा –मेरी डोंगी के एक ओर'लैला का हाथ था और दूसरी ओर कुो के दोनों अगले पंजे।मैंने कहा–यों ही घूमने आया था और तुम रात को तैरती हो?लैला!
दिनभर काम करने के बाद अब तो छुट्टी मिली है बदन ठंढा कररही हूँ।-लेखा ने कहा।
वह एक अद्भुत दृश्य था। इतने दिनों तक मैं जीवन के अकेलेदिनों को काट चुका हूँ।अनेक अवसर विचित्र घटनाओं से पूर्ण और मनोरंजक मिले हैं कि ऐसा दृश्य तो मैंने कभी न देखा।मैंने पूछा-आज की रात तो बहुत ठंढी है लैला।
उसने कहा-नहीं बड़ी गर्म।
दोनों ने अपनी रुकावट हटा ली।डोंगी चलने को स्वतंत्र थी।लैला और उसका साथी दोनों तैरने लगे। मैं फिर अपने बँगले की ओर डोंगी खेने लगा। किनारे पर पहुँच कर देखता हूँ,कि दुलारे खड़ा है।मैंने पूछा-क्या रे।तू कब से यहा है?
उसने कहा आपको आने में देर हुई इसलिए मैं आया हूँ। रसोई ठंढी हो रही हैं।
मैं डागी से उतर पड़ा और बँगले की ओर चला।मेरे मन मे न जाने क्या सदेह हो रहा था कि दुलारे जान बूझकर परखने आया था।लैला से बातचीत करते हुए उसने मुझे अवश्य देखा है।तो क्या वह मुझ पर कुछ सदेह करता है ?मेरा मन दुलारे को सदेह करने का वअवसर देकर जैसे कुछ प्रसन्न ही हुआ।बंगले पर पहुँच कर मैं भोजन करने बैठ गया।स्वभाव के अनुसार शरीर तो अपना नियमित सब काम करता ही रहा कि तु सो जाने पर भी मैं यही सपना देखता रहा। ×××{{gap}
आज बहुत विलम्ब से सोकर उठा।आलस से कहीं घूमने फिरने की इच्छा न थी। मैंने अपनी कोठरी में ही आसन जमाया।मेरी आँखो मे वह रात्रि का दृश्य अभी भी घूम रहा था। मैंने लाख चेष्टा की कितु लैला और वह सिंहाली मिक्ष दोनों ही ने मेरे हृदय को अखाड़ा बना लिया था। मैंने विरक हो कर विचार परम्परा को तोड़ने क लिए बासुरीबजाना प्रारम्भ किया।आसावरी के गम्भीर विलम्बित आलापा मे फिर भी लैला की प्रेम-पूर्ण आकृति जैसे बनने लगती।मैंने बासुरी बजाना बंद किया और ठीक विश्रामकाल में ही मैंने देखा कि प्रज्ञासारथि सामने खड़े हैं।मैंने उहें बैठाते हुए पूछा-आज आप इधर कैसे भूल पड़े।
यह प्रश्न मेरी विचार विशृखलता के कारण हुआ था क्योंकि वे तो प्राय मेरे यहाँ आया ही करते थे।उने हँस कर कहा-मेरा आना भूल कर नहीं किंतु कारण से हुआ है।कहिए आपने उस विषय मे कुछ स्थिर किया?
प्रज्ञासारथि ने कहा-वही पाठशाला की देख रेख करने के लिए जैसा मैंने उस दिन आप से कहा था।
मैंने बात उड़ाने के ढंग से कहा-आप तो सोच विचार कर काम करने में विश्वास ही नहीं रखते।आपका तो यही कहना है न कि मनुष्य प्राय अनिच्छा वश बहुत-से काम करने के लिए बाध्य होता है तो फिर मुझे उसपर सोचने विचारने की क्या आवश्यकता थी?जब वैसा अवसर आवेगा तब देखा जायगा।
कृपया मेरी बातों का अपने मनोनुकूल अर्थ न लगाइए । यह तोमैं मानता हूँ,कि आप अपने ढंग से विचार करने के लिए स्वतंत्र है किंतु उहे क्रियामक रूप देने के समय आपकी स्वतंत्रता में मेरा विश्वास संदिग्ध हो जाता है।प्राय देखा जाता है हम लोग क्या करने लाकर क्या कर बैठते हैं तो भी हम उसकी जिम्मेदारी से छूटते नहीं।मान लीजिए कि लेला के ह य म एक दुराशा उपन करके आपनेरामेश्वर के जीवन म अड़चन डाल दी है।संभव है यह घटना साधारण न रह कर कोई भीषण काण्ड उपस्थित कर सकती है औरआपका मित्र अपने अनिष्ट करनेवाले को न भी पहचान सके तो क्या आप अपने ही मन के सामने इसके अपराधी न ठहरेंगे।
प्रशासारथि की ये बातें मुझे बेढंगी सी जान पड़ीं। क्योंकि उससमय मुझे उनका आना और मुझे उपदेश देने का ढोंग रचना असह्य होने लगा।मेरी इच्छा होती थी कि वे किसी तरह भी यहाँ से चले जाते तो भी मुझे उहें उत्तर देने के लिए इतना तो कहना ही पड़ा कि-श्राप कच्चे अदृष्टवादी हैं।आपके जैसा विचार रखने पर मैं तो इसे इस तरह सुलझाऊगा कि अपराध करने में और दंड देने म मनुष्य एक दूसरे का सहायक होता है।हम आज जो किसी को हानि पहुँचाते हैं या कष्ट देते हैं वह इतने ही के लिए नहीं कि उसने मेरी कोई बुराई की हो।हो सकता है कि मैं उसके किसी अपराध का यह दड समाज यरस्था के किसी मौलिक नियम के अनुसार दे रहा हूँ।फिर चाहे मेरा यह दण्ड देना भी अपराध बन जाय और उसका फल भी मुझेभोगना पड़े। मेरे इस कहने पर प्रज्ञासारथि ने हस दिया और कहा-श्रीनाथजी मैं आपकी दड व्यवस्था ही तो करने आया हूँ। आप अपने बेकार जीवन को मेरी बेगार म लगा दीजिए। मैंने पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा-श्रछा तीन दिन सोचने का अवसर दीजिए।
प्रज्ञासारथि चले गए और मैं चुपचाप सोचने लगा। मेरे स्वतंत्र जीवन में माँँ के मर जाने के बाद यह दूसरी उलझन थी।निश्चित जीवन की कल्पना का अनुभव मैंने इतने दिनों तक कर लिया था।मैंने देखा कि मेरे निराश जीवन म उल्लास का छींटा भी नहीं।यह ज्ञान मेरे हृदय को और भी स्पर्श करने लगा।मैं जितना ही विचारता था उतना ही मुझ निश्चितता और निराशा का अभेद दिखलाई पड़ता था।मेरे आलसी जीवन म सक्रियता की प्रतिध्वनि होने लगी।तो भी काम न करने का स्वभाव मेरे विचारों के बीच में जैसे व्यग्य से मुस्करा देता था।
तीन दिनों तक मैंने सोचा और विचार किया।श्रत म प्रजासारथिकी विजय हुई।क्योंकि मेरी दृष्टि म प्रज्ञासारथि का काम नाम के लिए तों अवश्य था कित करने में कुछ भी नहीं के बराबर।
मैंने अपना हृदय हड किया और प्रशासारथि से जाकर कह दियाकि-मैं पाठशाला का निरीक्षण करूगा कितु मेर मित्रानेवाले हैं और वे जब तक यहा रहेंगे तब तक तो मैं अपना बँगला न छोड़गा।क्योंकि यहाँ उन लोगों के आने से आपको असुविधा होगी।फिर जब वे लोग चले जायेंगे तब मैं यहीं आकर रहने लगेगा।
मेर सिंहाली मित्र ने हँस कर कहा-अभी तो एक महीने यहाँ मैंअवश्य रहूँगा।यदि आप अभी से यहा चले आवे तो बड़ा अच्छा हो क्योंकि मेरे रहते यहाँ आपका प्रवध आपकी समझ में आ जायगा।रह गई मेरी असुविधा की बात सो तो केवल आपकी कल्पना है।मैं आपके मित्रों को यहां देख कर प्रसन्न ही होगा। जगह की कमी भी नहीं।
मैं अच्छा कह कर उनसे छुट्टी लेने के लिए उठ खड़ा हुआ किंतु प्रज्ञासारथि ने मुझे फिर से बैठाते हुए कहां देखिए श्रीनाथजी यह पाठशाला का भवन पूर्णतः आपके अधिकार में रहेगा।मितुओं के रहने के लिए तो संघाराम का भाग अलग है ही और उसमें जो कमर अभी अधूर हैं उन्हें शीघ्र ही पूरा कराकर तब मैं जाऊँगा और अपने संघ से मैं इसकी पक्की लिखा पढ़ी कर रहा हूँ कि आप पाठशाला के आजीवन अवैतनिक प्रधानाध्यक्ष रहेंगे और उसमें किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार न होगा।
मैं उस युवक बौद्ध मिशनरी की युक्तिपूण व्यवहारिकता देख करमन ही मन चकित हो रहा था।एक क्षण भर के लिए सिंहाली कीव्यवहार कुशल बुद्धि से मैं भीतर ही भीतर अब उठा।मेरी इच्छा हुई कि मैं स्पष्ट अस्वीकार कर दूं किन्तु न जाने क्या मैं वैसा न कर सका।मैंने कहा-तो आपको मुझमें इतना विश्वास है कि मैं आजीवन आपकी पाठशाला चलाता रहूँगा।
प्रज्ञासारथि ने कहा-शक्ति की परीक्षा सरों ही पर होती है यदि मुझे आपकी शक्ति का अनुभव हो तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं।और आप तो जानते ही हैं कि धार्मिक मनुष्य विश्वासी होता है।सूक्ष्म रूप से जो कल्याण-ज्योति मानवता में अंतर्निहित है मैं तो उसमें अधिक से अधिक श्रद्धा करता हूँ।विपथगामी होने पर वही संकेत कर के मनुष्य का अनुशासन करती है यदि उसकी पशुता ही प्रबलन हो गई हो तो।
मैंने प्रशासारथि की आखों से आँख मिलाते हुए देखा उसमें तीन सयम की ज्योति चमक रही थी मैं प्रतिवा न कर सका और यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ कि-अच्छा जैसे आप कहते हैं जैसा ही होगा!
मैं धीरे धीरे यगले की ओर लौट रहा था। रारते म अचानक देखता हूँ कि दुलारे दौड़ा हुया चला आ रहा है। मैंने पूछा-क्या है रे?
उसने कहा-पाबूजी घोड़ा गाड़ी पर बहुत से आदमी आये हैं।वे लोग आपको पूछ रहे हैं।
_मैंने समझ लिया कि रामेश्वर आ गया।दुलारे से कहा कि-तू दौड़ जा मैं यहीं खड़ा हूँ!उन लोगों को सामान सहित यहीं लिया आ।दुलारे तो बँगले की ओर भागा कितु मैं उसी जगह अविचल भाव से खड़ा रहा मन मे विचारों की आँधी उठने लगी।रामेश्वर तो आ गया और वे ईरानी भी यहीं हैं।ओह मैंने कैसी मूर्खता की।तो भी मेरे मन को जैसे ढान्स हा कि रामेश्वर मरे बगले मनी ठहरता है।इस बौद्ध पाठशाला तक लैला क्या आने लगी?जैसे लैला को वहा श्राने म कोई दैवी बाधा हो।फिर मेरा सिर चकराने लगा।मैंने कल्पना की आखों से देखा कि लेला अबाधगति से चलने वाली एक निझरिणी है।पश्चिम की सर्राटे से भरी हुई वायुतरंग माला है।उसको रोकने किसम सामर्थ्य है और फिर अकेले रामश्वर ही तो नहीं उसकी स्त्री भी उसके साथ है।अपनी मूर्खतापूर्ण करनी से मेराही दम घुटने लगा|मैं खड़ा-खड़ा झील की ओर देख रहा था।उस म छोटी छोटी लहरिया उठ रही थीं जिनम सूर्य की किरणें प्रतिबिम्बित होकर आँखों को चौंधिया देती थीं। मैंने आखें ब द कर ली।अब मैं कुछ नहीं सोचता था गाड़ी की घरघराहट ने मुझे सजग किया।मैंने देखा कि रामेश्वर गाड़ी का पला खोलकर वहीं सड़क में उतर रहा है।
मैं उससे गले मिल शीघ्रता से कहने लगा-गाड़ी पर बैठ जाओ ।मैं भी चलता हूँ।यहीं पास ही तो चलना है।उसने गाड़ी २२
आँँधी
वाहन से चलने के लिए कहा। हम दोनों साथ साथ पैदल ही चले । पाठशाला के समीप प्रज्ञासारथि अपनी रहस्य पूर्ण मुस्कराहट के साथ अगवानी करने के लिए खड़े थे। xxx दो दिनों में हम लोग अच्छी तरह वहा रहने लगे। घर का कोना-कोना आवश्यक चीजों से भर गया । प्रहासारथि इसमें बराबर हम लोगों के साथी हो रहे थे और सब से अधिक आश्चर्य मुझे मालती को देख कर हुआ। वह मानो इस जीवन की सम्पूर्ण गृहस्थी यहा सजा कर रहेगी । मालती एक स्वस्थ युवती थी कि तु दूर से देखने में अपनी छोटी सी आकृति के कारण व बालिका सी लगती थी। उसकी तीनों संतानें पड़ी सुंदर थी । मिना छ बरस का रखन चार का और कमलो दो की थी। कमलो सचमुच एक गुड़िया थी कल्लू का उस से इतना धना परिचय हो गया कि दोनों को एक दूसरे बिना चैन नहीं । मैं सोचता था कि प्राणी क्या स्नेहमय ही उत्पन्न होता है। अज्ञात प्रदेशों से आकर वह संसार में जम लेता है। फिर अपने लिए कितने स्नेहमय सम्बध बना लेता है कि तु मैं सदैव इन बुरी बातों से भागता ही रहा । इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य ? इन्हीं कई दिनों में रामेश्वर के प्रति मेर हृदय म इतना स्नेह उमड़ा कि मैं उसे एक क्षण छोड़ने के लिए प्रस्तुत न था । अब हम लोग साथ बैठ कर भोजन करते। साथ ही टहलने निकलते । बाता का तो श्रत ही न था । कल्लू तीनों लड़कों को बहलाये रहता। दुलार खाने-पीने का प्रबन्ध कर लेता । रामेश्वर से मेरी बात होती और मालती चुपचाप सुना करती। कभी कभी बीच में कोई अच्छी सी मीठी बात बोल भी देती।
और प्रज्ञासारथि को तो मानो एक पाठशाला ही मिल गई थी। वे गार्हस्थ्य जीवन का चुपचाप अच्छा सा अध्ययन कर रहे थे। x एक दिन मैं बाजार से अकेला लौट रहा था। बँगले के पास मैं पहुचा ही था कि लैला मुझे दिखाई पड़ी। वह अपने घोड़े पर सवार थी। मैं क्षण भर तक विचारता रहा कि क्या करूँ।तब तक घोड़े से उतर कर वह मेरे पास चली आई।मैं खड़ा हो गया था। उसनेपूछा-बाबूजी आप कहीं चले गये थे?
हाँ।
अब इस बँगल में आप नहीं रहते?
मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूँ लैला। —मैंने घबरा कर उस से कहा-
क्या बाबूजी?
वह चिट्ठी।
है तो मेरे ही पास क्यों ?
मैंने उसमें कुछ झूठ कहा था।
झूठ!-लैला की आँखों से बिजली निकलने लगी थी।
हाँ लैला!उसमें रामेश्व ने लिखा था कि मैं तुमको नहीं चाहता मुझे बाल बचे हैं।
ए!तुम झूठे। दगाबाज!-कहती हुई लैला अपनी कुरी कीओर देखती हुई दात पीसने लगी।
मैंने कहा-लैला तुम मेरा कसूर ।
तुम मेर दिल से दिलगी करते थे।कितने रज की बात है।-वहकुछ न कह सकी। वहीं बैठ कर रोने लगी। मैंने देखा कि यह बड़ी आफत है।कोई मुझे इस तरह यहाँ देखेगा तो क्या कहेगा।मैं तुरन्त वहा से चल देना चाहता था किन्तु लैला ने आंसू भरी आंखों से मेरी ओर देखते हुए कहा-तुमने मेर लिए दुनिया में एक बड़ी अच्छी बात सुनाई थी।यह मेरी हसी थी।इसे जान कर आज मुझे इतना गुस्साआता है कि मैं तुमको मार डाल या श्राप ही मर जाऊँ।-लैला दात पीस रही थी। मैं काप उठा-अपने प्राणों के भय से नहीं किन्तु लैला के साथ अदृष्ट के खिलवाड़ पर और अपनी मूखता पर!मैंने प्रार्थना के ढंग से कहा-लैला मैंने तुम्हारे मन को ठेस लगा दी है इसका मुझे बड़ा दुख है।अब तुम उसको भूल जाओ।
तुम भूल सकते हो,मैं नहीं!मैं खून करूँगी!उसकी आँखों से ज्वाला निकल रही थी।
किसका लैला!मेरा?
ओह-नहीं तुम्हारा नहीं तुमने एक दिन मुझे सबसे बड़ा आराम दिया है।हो वह झठा।तुमने अच्छा नहीं किया था तो भी मैं तुमको अपना दोस्त समझती हूँ।
तब किसका खून करोगी?
उसने गहरी सांस ले कर कहा-अपना या किसी फिर चुप हो गई।मैंने कहा-तुम ऐसा न करोगी लैला!मेरा और कुछ कहनेका साहस नहीं होता था।उसी ने फिर पूछा-वह जो तेज हवा चलती है जिसमें बिजली चमकती है बरफ गिरती है जो बड़े बड़े पेड़ों कोतोड़ डालती है।हम लोगों के घरों को उड़ा ले जाती है।
आधी।मैंने बीच ही मे कहा।
हा वही मेर यहा चल रही है।-कह कर लैला ने अपनी छाती पर हाथ रख दिया।
लैला!-मैंने अधीर हो कर कहा।
मैं उसको एक बार देखना चाहती हूँ।उसने भी व्याकुलता से मेरी ओर देखते हुए कहा। आँँधी मैं उसे दिखा दूंगा पर तुम उसकी कोई बुराई तो न करोगी- मैंने कहा। हुश! कह कर लैला ने अपनी काली आँखें उठा कर मेरी ओर देखा। मैंने कहा- अच्छा लैला ! मैं दिखा दूंगा। कल मुझसे यहीं मिलना ।- कहती हुई वह अपने घोड़े पर सवार हो गई । उदास लैला के बोझ से वह घोड़ा भी धीरे धीर चलने लगा और लैला झुकी हुई सी उसपर मानो किसी तरह बैठी थी ।
मैं वहीं थोड़ी देर तक खड़ा रहा । और फिर धीर वीरे अनिच्छा पूर्वक पाठशाला की ओर लौटा । प्रज्ञासारथि पीपल के नीचे शिलाखड पर बैठे थे । मिना उनके पास खड़ा उनका मह देख रहा था । प्रशासारथि की रहस्य पूर्ण हँसी श्राज अधिक उदार थी। मैंने देखा कि वह उदासीन विदेशी अपनी समस्या हल कर चुका है। बच्चों की चहल पहल ने उसके जीवन मे वांछित परिवर्तन ला दिया है । और मैं ?
मैं कह चुका था इसलिए दूसरे दिन लैला से भेंट करने पहुँचा । देखता हूँ कि वह पहले ही से वहा बैठी है। निराशा से उदास उसका मुह अाज पीला हो रहा था। उसने हँसने की चष्टा नहीं की और न मैंने ही । उसने पूछा-तो कब कहा चलना होगा ? मैं तो सूरत मे उससे मिली थी। वहीं उसने मेरी चिट्ठी का जवाब दिया था। अब कहा चलना होगा?
मैं भौंचक सा हो गया। लैला को विश्वास था कि सुरत बम्बई काश्मीर वह चाहे कहीं हो मैं उसे लिवा कर चलँगा ही। और रामेश्वर से भेट करा दूंगा । सम्भवत उसने मेरे परिहास का यह दंड निर्धारित कर लिया था। मैं सोचने लगा-क्या कहूँ। लैला ने फिर कहा-मैं उसकी बुराई न करूगी तुम डरो मत । मैंने कहा-वह यहीं पा गया है।उसके बाल बचे सब साथ !हैं लैला तुम चलोगी?
वह एक बार सिर से पैर तक काप उठी!और मैं भी घबरा गया। मेरे मन में नई आशंका हुई ।आज मैं क्या दूसरी भूल करने जा रहा हूँ?उसने सम्हल कर कहा-हा चलूँगी बाबू!-मैंने गहरी दृष्टि से उसके मह की ओर देखा तो अधड़ नहीं कि तु एक शीतल मलय का याकुल झोका उसकी धुंधराली लटों के साथ खेल रहा था । मैंने कहा-अच्छा मेरे पीछे-पीछे चली आयो।
मैं चला और वह मेरे पीछे थी।जब पाठशाला के पास पहुँचा तो मुझे हारमोनियम का स्वर और मधुर बालाप सुनाई पड़ा।मैं ठिठक कर सुनने लगा-रमणी करठ की मधुर ध्वनि!मैंने देखा कि लैला की भी अखि उस सगीत के नशे म मतवाली हो चली ह । उधर देखता हूँ तो कमलो को गोद में लिये प्रज्ञासारथि भी झूम रहे हैं। अपने कमरे म मालती छोटे से सफरी बाजे पर पीलू गा रही है और अच्छी तरह गा रही है। रामेश्वर लेटा हुआ उसके मुह की ओर देख रहा है। पूर्णतुसि !प्रसन्नता की माधुरी दोनों के मह पर खेल रही है ! पास ही रजन और मिना बैठे हुए अपने माता और पिता को देख रहे हैं ! हम लोगों के आने की बात कौन जानता है। मैंने एक क्षण के लिए अपने को कोसा इतने सुन्दर संसार में कलह की ज्वाला जला कर मैं तमाशा देखने चला था!हाय रे-मेरा कुतूहल ! और लक्षा स्तध अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से एक टक न जाने क्या देख रही थी। मैं देखता था कि कमलो प्रज्ञासारथि की गोद से धीर से खिसक पड़ी और बिल्ली की तरह पैर दयाती हुई अपनी माँ की पीठ पर हँसती हुई गिर पड़ी और बोली-मा और गाना रुक गया। कमलो के साथ मिला और रजन भी इस पड़े। रामेश्वर ने कहा--कमलो तू बली पाजी है ले । बापाजी-लाल-कह कर कमलो ने अपनी नन्ही सी उँगली उठा कर हम लोगों की ओर संकेत किया । रामेश्वर तो उठकर बैठ गये । मालती आँँधी २७ मे मुझे देखते ही सिर का कपड़ा तनिक आगे की ओर खींचा लिया और लैला ने रामेश्वर को देख कर सलाम किया। दोनों की आखें मिलीं ! रामेश्वर के मह पर पल भर के लिए एक घबराहट दिखाई पड़ी। फिर उसने सम्हल कर पूछा-अरे लैला ] तुम यहाँ कहाँ ? चारयारी न लोगे बाबू । कहती हुई लेला निर्भीक भाव से मालती के पास जाकर बैठ गई।
माखती लैला पर एक सक्षज मुस्कान छोड़ती हुई उठ खड़ी हुई। लला उसका मुंह देख रही थी कि उस ओर ध्यान न देकर मालती ने मुझसे कहा-भाई जी आपने जलपान नहीं किया आज तो आप ही के लिए मैंने सूरन के लड्डू बनाये हैं।
तो देती क्यों नही पगली मैं सबेर से ही भूखा भटक रहा हूँ।- मैंने कहा । मालती जलपान ले आने गई । रामेश्वर ने कहा-चारयारी ले आई हो ? लैला ने हा कहते हुए अपना बेग खोला। फिर रुक कर उसने अपने गले से एक ताबीज निकाला । रेशम से लिपटा हुआ चौकोर ताबीज का सीवन खोल कर उसने वही चिट्ठी निकाली । मैं स्थिर भाव से देख रहा था। लैला ने कहा-पहले पाबूजी इस चिट्ठी को पढ दीजिए। -रामेश्वर ने कम्पित हाथों से उसको खोला यह उसी का लिखा हुना पत्र था। उसने घबरा कर लैला की ओर देखा । लेखा ने शात स्वरों में कहा--पढिए बाबू ! मैं आप ही के मुँह से सुनना चाहती हूँ।
रामेश्वर ने दृढता से पढना आरम्भ किया। जैसे उसने अपने हृदय
का समस्त बल आनेवाली घटनाओं का सामना करने के लिए एकत्र कर लिया हो क्योंकि मालती जलपान लिए आ ही रही थी। रामेश्वर ने पूरा पत्र पढ लिया । फेवल नीचे अपना नाम नहीं पढा। मालती खड़ी सुनती रही और मैं सूरन के लडडू खाता रहा। बीच बीच मे मालती का मुंह देख लिया करता था। उसने बड़ी गम्भीरता से
पूछा-भाईजी लडडू कैसे हैं यह तो आपने बताया नहीं धीरे से खा गये।
जो वस्तु अच्छी होती है वही तो गले मे धीर से उतार ली जाती है।नहीं तो कड़वी वस्तु के लिए थू थू न करना पड़ता।मैं कही रहा था कि लैला ने रामेश्वर से कहा-ठीक तो!मैंने सुन लिया ।अब आप उसको फाड़ डालिए।तब आपको चारयारी दिखाऊ।
रामेश्वर सचमुच पत्र फाड़ने लगा।चिंंदी चिंंदी उस कागज के टुकड़े की उड़ गई और लेला ने एक छिपी हुई गहरी साँस ली कि किंतु मेरे कानों ने उसे सुन ही लिया।वह तो एक भयानक आधी से कम न थी। लैला ने सचमुच एक सोने की चारयारी निकाली। उसके साथ एक सुन्दर मगे की माला। रामेश्वर ने चारयारी लेकर देखा।उसने मालती से पचास के नोट देने के लिए कहा।मालती अपने पति के व्यवसाय को जानती थी उसने तुरत नोट दे दिये ।रामेश्वर ने जब नोट लैला की ओर बढाये तभी कमलो सामने आकर खड़ी हो गई-बा लाल । रामेश्वर ने पूछा क्या है रे कमलो?
पुतली सी सुदर पालिका ने रामेश्वर के गाला को अपने छोटे से हाथों से पकड़ कर कहा-लाला लाल
लैला ने नोट ले लिये थे। उसने पूछा-बाबूजी! मूँगे की माला न लीजिएगा? नहीं।
लेला ने माला उठाकर कमलो को पहना दी। रामेश्वर नहीं नहीं कर ही रहा था किन्तु उसने सुना नहीं! कमलो ने अपनी माँँ को देख कर कहा-मां लाल वह हँस पड़ी और कुछ नोट रामेश्वर को देते हुए बोली-तो ले न लो इसका भी दाम दे दो।
लैला ने तीव्र दृष्टि से मालती को देखा मैं तो सहम गया था। मालती हँस पड़ी। उसने कहा-क्या दाम न लोगी? २६
आँँधी
लेखा कमलों का मुँह चूमती हुई उठ खड़ी हुई । मालती अवाक् रामेश्वेर स्तब्ध कि तु मैं प्रकृतिसत्ता था । लैला चली गई।
मैं विचारता रहा सोचता रहा । कोई अंत न था ओर-छोर का पता नहीं ! लैला ! प्रशासारथि -रामेश्वर और मालती सभी मेरे सामने ने बिजली के पुतलों से चक्कर काट रहे थे। संध्या हो चली थी किन्तु मैं पीपल के नीचे से उठ न सका । प्रशासारथि अपना ध्यान समाप्त करके उठे। उन्होंने मुझे पुकारा श्रीनाथजी । मैंने हँसने की चेष्टा करते हुए कहा कहिए!
आज तो आप भी समाधिस्थ रहे। तब भी इसी पृथ्वी पर था। जहां लालसा क्रदन करती है । दुखा नुभूति हँसती है और नियति अपने मिरी के पुतलों के साथ अपना कर मनोविनोद करती हूं किन्तु आप तो बहुत ऊँचे किसी स्वर्गीय भावना में ठहरिए श्रीनाथजी ! सुख और दुख आकाश और पृथ्वी स्वर्ग और नरक के बीच में ही वह सत्य है जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है।
मुझे क्षमा कीजिए ! अतरिक्ष में उड़ने की मुझमें शक्ति नहीं है।मैंने परिहासपूर्वक कहा ।
साधारण मन की स्थिति को छोड़ कर जब मनुष्य कुछ दूसरी बात सोचने के लिये प्रयास करता है तब क्या वह उड़ने का प्रयास नहीं ! हम लोग कहने के लिए विपदा हैं किन्तु देखिए तो जीवन में हम लोग कितनी बार उड़ते हैं उड़ान भरते हैं। वही तो उन्नति की चेष्टा जीवन के लिए संग्राम और भी क्या क्या नाम से प्रशंसित नहीं होती। तो मैं भी इसकी निन्दा नहीं करता उठने की चेष्टा करनी चाहिये किंतु आप यही न कहेंगे कि समझ बूझ कर एक बार उचकना चाहिए किन्तु उस एक बार को-उस अचूक अवसर को जानना सहज नहीं। इसीलिए तो मनुष्य को जो सब से बुद्धिमान प्राणी है बार-बार धोखा खाना पड़ता है । उन्नति को उसने विमिन रूपों में अपनी आवश्यकताओं के साथ इतना मिलाया है कि उसे सिद्धात बना लेना पड़ा है कि उनति का बद पतन ही है।
संयम का वन गम्भीर नाद प्रकृति से नहीं सुनते हो। शारीरिक कर्म तो गौण है मुख्य संयम तो मानसिक है। श्रीनाथजी श्राज लैला का यह मन का सयम क्या किसी महानदी की प्रखर धारा के अचल बाध से कम था। मैं तो देखकर अवाक् था। आपको उस समय विचित्र परिस्थिति रही। फिर भी कैसे सब निर्विघ्न समाप्त हो गया। उसे सोचकर तो मैं अब भी चकित हो जाता हूँ क्या वह इस भयानक प्रतिरोध के धक्के को सम्हाल लेगी?
लैला के वक्षस्थल म कितना भीषण अधड़ चल रहा होगा । इसका अनुभव हम लोग नहीं कर सकते ! मैं अब भी इससे भयभीत हो रहा हूँ। प्रज्ञासारथि चुप रह कर धीरे धीरे कहने लगे—मैं तो कल जाऊँगा। यदि तुम्हारी सम्मति हो तो रामेश्वर को भी साथ चलने के लिए कहूँ। बम्बई तक हम लोगों का साथ रहेगा और मालती इस भयावनी छाया से शीघ्र ही दूर हट जायगी | फिर तो सब कुशल ही है।
मेर त्रस्त मन को शरण मिली । मैंने कहा-अच्छी बात है। प्रशासारथि उठ गये । मैं वहीं बैठा रहा और भी बैठा रहता यदि मिन्ना और रंजन की किलकारी और रामेश्वर की हॉट-डपट-मालती की कलछी की खट खट का कोलाहल जोर न पकड़ लेता और कल्लू सामने आकर न खड़ा हो जाता। आँँधी प्रज्ञासारथि रामेश्वर और मालती को गये एक सप्ताह से ऊपर हो गया। अभी तक उस वास्तविक संसार का कोलाहल सुदूर से पाती हुई मधुर संगीत की प्रति वनि क समान मरे कानों म गूज रहा था । मैं अभी तक उस मादकता को उतार न सका था। जीवन म पहले की सी निश्चिता का विराग नहीं न तो यह वे-परवाही रही । मैं सोचने लगा कि अब मैं क्या करू ?
कुछ करने की इच्छा क्यों ? मन के कोने से चुटकी लेते कौन पूछ बैठा। किये बिना तो रहा नहीं जाता। करा भी पाठशाला से क्या मन ऊब चला ? उतने से संतोष नहीं होता। और क्या चाहिए?
यही तो नहीं समझ सका नहीं तो यह प्रश्न ही क्यों करता कि- अब मैं क्या करूँ। मैंने झझला कर कहा। मेरी बातों का उत्तर लेने देनेवाला मुस्करा कर हट गया। मैं चिंता के अधिकार में खूब गया । वह मेरी ही गहराई थी जिसका मुझे आह न लगा | मैं प्रकृतिस्थ हुआ कब जब एक उदास और चालामयी तीव्र दृष्टि मेरी आंखों में घुसने लगी। अपने उस अधिकार में मैंने एक मोति देखी ।
मैं स्वीकार करू गा कि वह लैला थी इस पर इसने की इच्छा हो तो हँस लीजिए किन्तु मैं लैला को पाकर जाने के लिए विकल्प नहीं था क्योंकि लैला जिसको पाने की अभिलाषा करती थी वही उसे न मिला। और परिणाम ठीक मेरी आँखों के सामने था । तब ? मेरी सहानुभूत क्यों जगी । हाँ वह सहानुभूति थी । ला जैसे दीर्घ पथ पर चलनेवाले मुझ पथिक की चिरसगिनी थी।
उस दिन इतना ही विश्वास करके मुझे संतोष हुआ। आँँधी रात को कलुबा ने पूछा-बाबूजी ! आप घर न चलिएगा। मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। उसने हठ भरी आंखों से फिर वही प्रश्न किया । मैंने हंस कर कहा मेरा घर तो यही है रे कलुना।
नहीं बाबूजी ! जहां मिना गये हैं । जहाँ रंजन और कमलो गई हैं वहीं तो घर है।
जहां बहूजी गई है जहां बाबाजी -हठात् प्रज्ञासारथि का मुझे स्मरण हो आया । मुझे क्रोध में कहना पड़ा कलुबा मुझे और कहीं घर वर नहीं है!-फिर मन ही मन कहा इस बात को वह बौद्ध समझता था-
हूँ सब को घर है बाबाजी को बहूजी को -मिन्ना को सब को है आपको नहीं है ? उसने ठुनकते हुए कहा ।
किंतु मैं अपने ऊपर कमला रहा था। मैंने कहा बकवाद न कर जा सो रह आज-कल तू पढ़ता नहीं।
कलुबा सिर झुकाये व्यथा भरे वक्षस्थल को दबाये अपने बिछौने पर जा पड़ा । और मैं उस निस्त ध रात्रि में जागता रहा! खिड़की में से झील का आंदोलित जल दिखाई पड़ रहा था । और मैं आश्चर्य से अपना ही बनाया हुआ चित्र उसमें देख रहा था । चन्दा के प्रशांत जल में एक छोटी-सी नाव है जिस पर मालती रामेश्वर बैठे थे और मैं डांडा चला रहा था । प्रज्ञासारथि तीर पर खड़े बच्चों को सहला रहे थे। हम लोग उजली चांदनी में नाव खेलते हुए चले जा रहे थे । सहसा उस चित्र में एक और मूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ। वह थी लैला ! मेरी आंखें तिलमिला गई।
मैं जागता था सोता था।
सवेरा हो गया था। नींद से भरी आँखें नहीं खुलती थीं तो भी बाहर के कोलाहल ने मुझे जगा ही दिया । देखता हूँ तो ईरानियों का एक झुंड बाहर खड़ा है। मैंने पूछा-क्या है ? गुल ने कहा-यहाँ का पीर कहा है ? पीर- मैंने आश्चर्य से पूछा। हा वही जो पीला पीला कपड़ा पहनता था।
मैं समझ गया वे लोग प्रज्ञासारथि को खोजते थे। मैंने कहा- वह तो यहा नहीं हैं अपने घर गये । काम क्या है ?
एक लड़की को हवा लगी है यहीं का कोई आसेब है । पीर को दिखलाना चाहती हूँ।-एक अधेड़ ली ने बड़ी याकुलता से कहा।
मैंने पूछा-भाई ! मैं तो यह सब कुछ नहीं जानता । वह लड़की कहाँ है ?
पड़ाव पर बाबूजी ! आप चलकर देख लीजिए। आगे वह कुछ न बोल सकी । कि तु गुल ने कहा-बाबू ! तुम जानते हो वही लैला ।
आगे मैं न सुन सका । अपनी ही अतध्वनि से मैं व्याकुल हो गया । यी तो होता है किसी के उजड़ने से ही दूसरा बसता है । यदि यही विधि विधान है तो बसने का नाम उजड़ना ही है । यदि रामेश्वर मालती और अपने बाल बचों की चिता छोड़ कर लैला को ही देखता तभी कितु वैसा हो कैसे सकता है ! मैंने कल्पना की आखों से देखा लैला का विवर्ण सुदर मुख-निराशा की झुलस से दयनीय मुख !
उन ईरानियों से फिर बात न करके मैं भीतर चला गया और तकिये में अपना मुँह छिपा लिया। पीछे सुना कलुना डाट बताता हुआ कह रहा है-जाओ जाओ यहा बाबाजी नहीं रहते ! x आँँधी
मैं लड़कों को पढाने लगा। कितना आश्चर्यजनक भयानक परिवर्तन मुझ म हो गया। उसे देखकर मैं ही विस्मित होता था | कलुआ इन्हीं कई महीनों म मेरा एकात साथी बन गया | मैंने उसे बार बार समझाया कि तु वह बीच बीच में मुझसे घर चलने के लिए कह बैठता ही था। मै हताश हो गया। अब वह जब पर चलने की बात कहता तो मैं सिर हिला कर कह देता-अच्छा अभी चलगा।
दिन इसी तरह बीतने लगा | वसत के प्रागमन से प्रकृति सिहर उठी । वनस्पतियां की रोमावली पुलकित थी ! मैं पीपल के नीचे उदास बैठा हुआ ईषत् शीतल पवन से अपने शरीर म फुरहरी का अनुभव कर रहा था। श्राकाश की आलोक माला च दा की वीचियों में डुबकियाँ लगा रही थीं। निस्त ध रात्रि का श्रागमन बड़ा गम्भीर था।
दूर से एक संगीत की-नन्हीं नहीं करण वदना की तान सुनाई पड़ रही थी । उस भापा को मैं नहीं समझता था। मैंने समझा यह भी कोई छलना होगी। फिर सहसा मैं विचारने लगा कि नियति भया नक वेग से चल रही है | आँधी की तरह उसम असंख्य प्राणी तुणं तालिका के समान इधर उधर बिखर रहे हैं। कहीं से लाकर किसी को वह मिला ही देता है और ऊपर से कोई बोझे की वस्तु भी लाद देती है कि वे चिरकाल तक एक दूसरे से सम्बद्ध रहें । सचमुच ! कल्पना प्रत्यक्ष हो चली । दक्षिण का श्राकाश धूसर हो चला-एक दानव तारात्रों को निगलने लगा। पक्षियों का कोलाहल पढा। अतरिक्ष व्याकुल हो उठा ! कड़कड़ाहट में सभी श्राश्रय खोजने लगे कि तु मैं कैसे उठता ! वह सगीत की ध्वनि समीप पा रही थी। वप्रनिघोष को भेद कर कोई कलेजे से गा रहा था। अधकार के साम्राज्य मे तृण लता वृक्ष सचराचर कम्पित हो रहे थे।
कलुआ की चीत्कार सुन कर भीतर चला गया । उस भीषण कोलाहल मे भी वही संगीत ध्वनि पवन के हिंडोले पर झूल रही थी आंधी ३५ मानो पाठशाला के चारो ओर लिपट रही थी। सहसा एक भीषण अमिट हुई। अब मैं टार्च लिये बाहर गया था।
आंधी रुक गई थी। मैंने देखा कि पीपल की बड़ी सी डाल पलटी पड़ी है और लला उसके नीचे दी हुई अपनी भावनाओं की सीमा पार कर चुकी है।
मैं अब भी चन्दा तट के बौद्ध पाठशाला का अवैतनिक अध्यक्ष हूँ। प्रज्ञासारथि के नाम को कोसता हुआ दिन बिताता हूँ। कोई उपाय नहीं । वहीं जैसे मेरे जीवन का केंद्र हैं।
आज भी मरे हुए म आधी चला करती है और उसमें लैला का मुख बिजली की तरह कांधा करता है।