पृष्ठ १०७ से – १११ तक

 

दसवाँ अध्याय ।

स्वरूप-वर्णन तथा दिनचर्या ।

अहिल्याबाई उँचाई में मध्यम श्रेणी की और देह में साधारण अर्थात् न बहुत दुबली और न अधिक स्थूल शरीर की ही थी । उनका रंग साँवला और केश अधिक श्याम वर्ण के थे और उनके मुख पर एक प्रकार की ऐसी तेजस्विनी प्रभा चिरा जती थी कि जिसके कारण वाई की ओर एक दृष्टि से देखना कठिन था । देखने में तो वे अधिक सुन्दरी न धी, परंतु अधिक तेजस्विनी होने के कारण उनका प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर पड़ता था और यह तेजस्वीपन वाई के अंत समय तक एकसा बना रहा ।

इनका पहनावा उत्तम, सादा और सफेद कपड़ा होता था, विधवा होने के समय से इन्होंने रंगीन वस्त्रों का पहनना सदा के लिये छोड़ दिया था और आभूषणों में केवल एक माला के अतिरिक्त और कुछ नहीं पहनती थी । यद्यपि मरहठों के यहाँ मद्य मांस का उपभोग करना निषिद्ध नहीं है, तथापि बाई ने इस प्रकार का भोजन सदा के लिये वर्जित कर दिया । इनके भोजन में अधिकतर सात्विक पदार्थ के व्यंजन विशेष रूप में हुआ करते थे । राजसी या तामसी विचार उत्पन्न करनवाले पदार्थों की ओर बाई की रुचि कम रहा करती थी । वे झूठ बोलने से शीघ्र ही असंतुष्ट हो जाती थीं । यदि कोई

झूठ बोलता अथवा किसी के मिथ्या बरताव का बाई को पता लग जाता था तो ये उस व्यक्ति से अधिक अप्रसन्न रहती थीं। इनके मन की वृत्ति सदा शांत और प्रफुल्लित रहा करती थी। बाई अपने शरीर के वस्त्राभूषणों के शृंंगार की अपेक्षा अपने अंतःकरण को विवेक, विचार तथा राजनीति से भूषित रखती थीं ।

अहिल्याबाई के क्षमाशील और धरमात्मा होने की बात सारे भारतवर्ष में गूँँज रही है और विशेष कर तीर्थस्थानों में आज दिन भी इस बात को स्पष्ट रूप से सत्यता की कसौटी पर कसने के लिये, देव-मन्दिर, धर्मशालाएँ आदि विद्यमान हैं । वे सदा शांत, सौम्य और प्रसन्न रहती थीं । तुकोजी सदा इनको मातेश्वर कह कर सवाघन किया करते थे और सर्व काल उनकी आज्ञा के पालन करने में तत्पर रहा करते थे । बाई भी इनपर पुत्रवत् लाड़ चाव रखती थीं । एक समय तुकोजी ने बाई से सस्नेह आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि आप अपनी तस्वीर ( प्रतिमा ) तैय्यार कराने की मुझे आज्ञा दें । इसपर बाई ने बड़े प्रेमयुक्त वचनों से कहा कि देवताओं की प्रतिमा बनवाने से सब लाभ होता है । मनुष्यों की मूर्ति से क्या लाभ होगा ? तथापि तुकोजी के अधिक अनुराध से बाई ने जयपुर से एक चतुर और कुशल कारीगर को बुलवा अपनी मूर्तियाँ बनवाई और उनको इंंदौर, प्रयाग, नासिक, गया, अयोध्या और महेश्वर आदि स्थानों के मंदिरों में रखवाया था । बाई इन मूर्तियों को देख अत्यत प्रन्नस हुई थीं। इस संबंध में मालकम साहब लिखते हैं कि--"प्राचीन काल

की ऐतिहासिक स्त्रियों के समान अहिल्याबाई में भी अद्वितीय और उत्तम गुण विद्यमान थे । वे अपना अमिट नाम इंदौर, हिमालय, सेतुबंध, रामेश्वर, गया, बनारस आदि स्थानों में अद्भुत विशाल और अद्वितीय देवस्थान बनवा कर छोड़ गई हैं । नाथ मंदिर और गयाजी के देवालय (जो कि विष्णुपद के नाम से प्रख्यात है,) का काम इतना सुंदर और रमणीय है कि देखने मात्र से पलक मारने को जी नहीं चाहता । यहाँ पर श्री रामचंद्र और जानकी जी की सुंदर मूर्तियाँ विराजमान हैं । सामने सच्ची भक्त अहिल्याबाई की मूर्ति खडी़ है । इनकी मूर्ति के अवलोकन मात्र से यह प्रतीत होता है कि साक्षात् बाई भगवान का पूजन ही कर रही हैं । यह आज दिन भी गयाजी में विद्यमान है । इस छवि के देखने से हिंदू तीर्थयात्रियों के अंतःकरण में भक्ति और पूज्य भाव एकाएक उत्पन्न हो जाते हैं ।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपति काल परखिये चारी ।

श्रीयुत गोस्वामी तुलसीदास जी के कथन के अनुसार अत्यंत दुःख और कष्ट के रहते भी अहिल्याबाई अपने धर्म कर्म पर सदा आरूढ़ रहा करती थीं । इसके संबंध में बहुत से लेख महेश्वर दरबार के पत्रों में उपलब्ध हुए हैं, जिनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किए जाते हैं ।
( १ ) " मातुश्री अहिल्याबाई को शीत उपद्रव होने के कारण वे पाँच सात दिन अधिक संतप्त रहीं, अब प्रकृति कुछ अच्छी है । यद्यपि वे बाहर नहीं निकलती हैं तथापि वर्ष नवमी व्यतिपात का स्नान कर उन्होंने दान धर्म किया और

आज ही के दिन खंडेराव होलकर की (पक्ष) तिथि थी उसको बड़े समारोह के साथ दान धर्म करके समाप्त किया ।"

(२) "आज प्रातःकाल से बाई को दस्त का उपद्रव हुआ है । दिन में तीस चालीस बार शौच को जाती हैं परंतु अमावास्या होने के कारण औषध नहीं लिया।"

(३) "मातेश्वरी आज प्रात:काल खड़ाऊँ पहन कर गौ के दर्शनों को जाती थीं कि अचानक उनका पैर खड़ाऊँ से फिसल गया, इस कारण पाँव में कुछ चोट आने से दुःखित रही ।

श्रावण के कई उत्सव महेश्वर दरबार के पत्रों में दिए हुए हैं, उनमें से केवल दो ही हम अपने पाठकों के हितार्थ इस स्थान पर उद्धत करते हैं । इनको पढ़ने से यह बात ध्यान में आ जायेगी के बाई को दान-धर्म करने का एक विलक्षण प्रेम था ।

(४) यहाँ आजकल श्रावण मास का उत्सव है । प्रति दिन अढ़ाई तीन सहस्र ब्राह्मणभोजन होता है । २००, ३०० ब्राह्मण लिंगार्चन के अनुष्ठान में, १००, २०० ब्राह्मण शिवकवचस्तोव के पढ़ने में, १५० ब्राह्मण शिवनाम स्मरण में प्रवृत्त हैं, और ५० ब्राह्मण सूर्य को नमस्कार करने में लगे हुए हैं । २५ ब्राह्मणों के अतिरिक्त सब को दक्षिणा दे दी गई । पहले जानेवाले ब्राह्मण लोग चले गए । अब तीन साढ़े तीन सहस्र ब्राह्मण ठहरे हुए हैं । अन्न सब में तीन सहस्र ब्राह्मण भोजन करते हैं और चार पाँच सौ ब्राह्मणों को नित्य भोजन का कच्चा सामान दिया जाता है । भोजन के पश्चात दक्षिणा में प्रति दिन दो तीन पैसे दिए जाते हैं । और जन्म अष्टमी को प्रत्येक ब्राह्मण को एक एक रुपया दिया
जायगा । इस समय केवल अनुष्ठान के ब्राह्मणों की दक्षिणा देना शेष है । जो ब्राह्मण लिंग पर अनुष्ठान करते थे, उनको आठ आठ रुपया, जप करनेवालों को पाच रुपया, शिव कवचवाले को आठ नौ रुपया, नमस्कार करने वालों को नौ दस रुपया दिए जाने की पद्धति है । प्रत्येक दिन पकात्र दिया जाता है और प्रतिदिन दो पैसे दक्षिणा दी जाती है । परंतु बीच में कभी कभी एक रुपया दक्षिणा भी दी जाती है । इसके अतिरिक्त सीधे के दो तीन सौ ब्राह्मण भी होते हैं । संपूर्ण श्रावण मास तक सीधा दिया जाता है । संतर्पण (कीर्तन) भी संपूर्ण मास भर रहता है । ब्राह्मणों के भोजन करने के पश्चात् जब चार घड़ी दिन शेष रहता है, तब बाई स्नान करने के पश्चात्, एक दो घड़ी दिन रहते रहते भोजन करती हैं । आपके साथ भी पच्चीस तीस ब्राह्मण भोजन करते हैं और श्री महाकालेश्वर उज्जैन में, श्री ओंकारेश्वर में प्रत्येक वर्ष पच्चीस पच्चीस ब्राह्मण अनुष्ठान करते हैं ।

चंद्र २९ मोहरमी से लगा कर चंद्र सफर तक बाई ने ब्राह्मणों को श्रावण मास के अनुष्ठान की दक्षिणा दी, केवल तीस सहस्र ब्राह्मण ही मिले थे । संपूर्ण मास भर ब्राह्मणों को भोजन में अच्छे अच्छे पदार्थ दिए गए थे । दक्षिणा पच्चीस हजार रुपया तक बाँटी गई ।

इस प्रकार बाई का नित्य तेम, व्रत, पाठ, पूजन, ६९ वर्ष की अवस्था होने पर भी नियमपूर्वक चलता था । बाई को शकुन देखने में भी अच्छा अधिकार था । प्रत्येक कार्य को शंकुन देख कर ही किया करती थी ।