अहिल्याबाई होलकर/ग्यारहवाँ अध्याय

पृष्ठ ११२ से – १३२ तक

 

ग्यारहवाँ अध्याय ।

अहिल्याबाई का धार्मिक जीवन ।

अनित्याणि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।

नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥१॥ (चाणक्य)

भावार्थ— यह पंचभूत शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहता, मृत्यु सदा निकट विराजमान है। इस कारण धर्मसंग्रह अवश्य करना चाहिए।

भगवान सूर्य नारायण जब अस्ताचल पर्वत के उस पार हो जाते हैं, तब उनकी आरक्त प्रभा अनुरागकारक दिखाई देती है; और वह थोड़े ही काल रहती है। परंतु प्रकाश सदा ही बना रहता है। उसमें किसी प्रकार के त्रुटी नहीं होने पाती। इसी प्रकार अहिल्याबाई का स्वर्गवास तो हो गया, परंतु उनकी तेजोमयी प्रभा सूर्य के समान अल्पावकाश रहकर धर्मरूपी जीवन का प्रकाश सदा के लिये स्थायी हो गया। उनका शरीर चला गया परंतु उनकी कीर्ति अजर और अमर हो गई। उनका संपूर्ण जीवन धर्ममय होने से उनकी कीर्ति आम्र वृक्ष के सदृश विस्तीर्ण रूप से चहुँ ओर फैल गई। उस विशाल वृक्ष की विस्तृत शीतल छाया के नीचे उनकी पुत्रवत् प्रजा आनंद में बैठ मग्न हो सुख भोग रही थी। वे लोग धन्य हैं जिन्होंने उस वृक्ष के मधुर फल यथेच्छ रुप से चखे थे। उस सघन वृक्ष की छाया

और उसके धर्म तथा दान रूपी अमृत फलों का स्वाद केवल उनकी प्रजा ही ने नहीं चखा था वरन् इस भारत के चहुँ ओर रहनेवाले मनुष्यों को भी प्राप्त हुआ था। आज दिन भी उस विशाल वृक्ष की मुरझाई हुई कलमें सारे भारत में दृष्टिगत होती हैं और उनमें धर्म रूपी जल का नित्य सिंचन होता चला जा रहा है।

अहिल्याबाई ने कौन कौन से धार्मिक कार्य कब कब किये थे, इसका सपूर्ण ब्योरा उनके राज्य के दफ्तर में भी नहीं पाया जाता। और इसका लेखा रखना उस चतुर और बुद्धिमान बाई ने उचित भी नहीं समझा होगा। इसके दो कारण समझ में आते हैं। पहला कारण तो यह जान पड़ता है कि बाई ने जिस जिस स्थान पर देव मंदिर, अन्नसत्र अथवा सदावर्त स्थापित किये हैं वहाँ के ब्राह्मण अथवा व्यवस्थापकों को प्रति वर्ष राजधानी में आकर व्यय के हितार्थ द्रव्य माँगना अथवा दूर दूर से नाना प्रकार के कष्ट सहन करके आना उचित न समझ कर उन्हीं स्थानों पर उनके खर्च के निमित्त गाँव, जमीन, मकान आदि बंधवा कर व्यवस्था कर दी हैं जो आज दिन तक विद्यमान है और उनका खर्च नियमित रूप से चलता आया है और चलता रहेगा। दूसरा कारण यह भी प्रतीत होता है जो कि अहिल्याबाई सरीखी दूरदर्शिता और बुद्धिमती के लिये अनुचित भी न था— कि मेरे जीवन के पश्चात् इन सुकृत कार्यों में कोई हस्तक्षेप न कर सके, और ये ही उपर्युक्त कारण सत्य भी जाने पड़ते हैं। बाई का स्वर्गवास हुए आज लगभग १२५ वर्ष होते हैं।

परंतु ये सब कार्य आज तक उत्तमता से निर्विघ्न और सांगोपांग चल रहे हैं।

अहिल्याबाई के बनवाए हुए देवस्थानों, अन्नसत्रों तथा सदावर्तो की हमने अपनी शक्ति के अनुसार परिश्रम करके खोज की है। यद्यपि सब स्थानों का पता नहीं लगा है तथापि जिन जिन स्थानों का पता है, उनके नाम हम अपने पाठकों के हितार्थ यहाँ पर देते हैं।

सोमनाथ— इसके कई नाम हैं। कोई इसे देवपट्टन, कोई प्रभासपट्टन और कोई पट्टन सोमनाथ अथवा सोमनाथ पट्टन भी कहते हैं। महाभारत में इसका नाम प्रभास पाया जाता है। यह स्थान काठियावाड़ में जूनागढ़ राज्य के अंतगर्त है। सोमनाथ की बस्ती के चारों ओर पत्थर की दीवार (शहरपनाह) बनी हुई है और उसमें कई फाटक हैं। पूर्ववाले फाटक का नाम नाना फाटक हैं। इस फाटक से लगभग २०० गज पश्चिम-उत्तर की ओर बस्ती के मध्य में सोमनाथ महादेव का नया मंदिर है। मंदिर मध्य श्रेणी का बना हुआ है, अर्थात् न बहुत उँचा है और न बहुत नीचा। परंतु शिखरदार है। मूल मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। उसके नीचे १३ फुट लंबे और उतने ही चौड़े तहखाने में सोमनाथ महादेव का लिंग है। उसमें जाने के समय २२ साढियाँ उतरनी पड़ती हैं। इस तहखाने में १६ खंभे हैं। खंभों के बीच में एक बड़े अर्धे पर बड़े आकार के शिव-लिंग है। पश्चिम ओर पार्वती जी, उत्तर में, लक्ष्मी जी, गंगा जी ओर सरस्वती जी और पूर्व की ओर नदी है। यहाँ दिन रात दीपक जला करते हैं।

चारों कोनों की ओर खुला आँगन है । आँगन के पूर्व उत्तर के कोने के पास गणेश जी का छोटा मंदिर है । उत्तर द्वार के बाहर अघोरेश्वर का शिवलिंग है । स्वयं सोमनाथ के मंदिर के पूर्व की ओर एक बड़ा आँगन है। उसके चारों बगलों पर दोखण्ड के घर और दालान हैं । पूर्व की ओर सिंहद्वार और दक्षिण की ओर खिड़की है। यहाँ यात्रियों का नित्य आना जाना बना ही रहता है ।

त्र्यंबक---यह स्थान बंबई अहाते में नासिक से पश्चिम-दक्षिण के कोने में १८ मील की दूरी पर है । यहाँ पर पत्थर का एक सुंदर तालाब और दो छोटे छोटे मंदिर हैं ।

गया ( विष्णुपद का मंदिर -- यह स्थान बिहार अहाते के जिले में है । गया शहर के दक्षिण पूर्व फलगू नदी के समीप गया के सब मंदिरों में प्रधान और सबमें उत्तम विष्णु पद का विशाल मंदिर पूर्व मुख खड़ा है । मंदिर काले पत्थर का बना हुआ है । भीतर से अठपहलू कलशदार और ध्वजा के स्तंभ पर सोने का मुलम्मा किया हुआ है । किवाड़ों में चाँदी के पत्तर लगे हुए हैं । मदिर के मध्य में विष्णुका एक चरण-चिह्न शिला पर बना है । उसके हौदे के चारों ओर चाँदी फा पत्तर लगा है । दीवारों के ताकों में कई देव-मूर्तियाँ भी स्थापित हैं । मंदिर के सामने १८ गज़ लंबा और १७ गज़ चौड़ा ४२ सुंदर खंभे लगे हुए काले पत्थर का बना हुआ गुंबजदार उत्तम जगमोहन है । बीच का हिस्सा छोड़कर इसके चारों बगल दोमंजिला है । गुंबज के ऊपर सुनहला कलश लगा है और नीचे बड़ा घंटा

लटकता है । जगमोहन में मंदिरों के दोनों बगलों पर छोटी छोटी कोठियाँ हैं । दक्षिणवाली कोठी में मंदिर का खजाना और उत्तरवाली में कनकेश्वर का शिवलिङ्ग है और शिव के आगे पाषाण ( मारबल ) का नंदी है । जगमोहन के पूर्व-दक्षिण ३७ चौकोर स्तंभों से काले पत्थर का मंडप बना हुआ है । मंदिर से उत्तर एक छोटे से मंदिर में नारायण के बाएँ - लक्ष्मी और दाहिने अहिल्याबाई की मूर्तियाँ हैं । ये तीनों मूर्तियाँ मारबल की बनी हुई हैं ।

बुद्ध मंदिर के अहाते में उत्तर की ओर जगन्नाथजी का दोमंजिला पुराना मंदिर है और उसी के निकट अहिल्याबाई के बनवाए हुए दोमंजिले मंदिर में राम, लक्ष्मण, जानकी, हनुमान की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं ।

पुष्कर---राजपूताना में पुष्कर स्थान पर अहिल्याबाई ने एक मंदिर और धर्मशाला बनवाई है ।

मथुरा---इस स्थान का कोई विशेष हाल नहीं मिला । परंतु मथुरा निवासी एक सज्जन ने अनुग्रह करके अपनी सनद की नकल करा दी है जो इस प्रकार है ---

श्री मोरया ।

वेदमूर्ती राजेश्री राधाकृष्ण भट त्रिपाठी वास्तव्य मथुरा क्षेत्रस्वामीचे सेवेसी अज्ञाधारक मल्हारजी होलकर कृतानेक दण्डवत । विनंती उपरी तुम्हीं भछे गृहस्थ क्षेत्रवासी जाणून श्री क्षेत्रीचे पुरोहितपण तुम्हांस दिले असे आमचे वशीचे पुत्र

पौत्रादिक करून तुम्हांस पूजतिल मिती जेष्ठ वद्य संवत् १७९८ सूरसन इहिदे अरबेन मया व अलफ हे विनंती ।

मोहर ।

श्रीम्हालसाकांत चरणीतत्पर

खंडोजी सुत मल्हारजी होलकर

रावराजे श्रीमालराय होलकर कैलासवासी वड़ील लेखोनदिले आहे ते मान्य असो मिती श्रावण शुद्ध १ संवत् १८२२ शके १६८८ व्ययं नाम संवत्सरे ।

मोहर ।

वृंदावन में बाई ने एक अन्नसत्र और एक लाल पत्थर की बावड़ी बनवाई है जिसमें ५७ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं ।

आलमपूर---यह स्थान मध्यभारत में ग्वालियर राज्य की सीमा के अंतर्गत उत्तर और पश्चिम के कोण में सोनभद्र नदी के तट पर बसा हुआ है । अपने देवतुल्य श्वसुर मल्हारराव होलकर के स्मरणार्थ अहिल्याबाई ने इस स्थान पर एक उत्तम और मनोहर पूर्व मुख की छत्री और छत्री के समक्ष खंडेराव मारतंड का एक देवालय स्थापित किया था । और जिस स्थान पर मल्हारराव का देहांत हुआ था वहाँ पर हरिहरेश्वर का एक मंदिर निर्माण कराया था । छत्री और मन्दिरों की उत्तम व्यवस्था और सांगोपांग पूजन अर्चन आज दिन पर्यन्त व्यवस्थित रूप से होता चला आ रहा है । यहाँ पर हाथी, घोड़े, सवार, कुछ हथियारबंद सैनिकों और ११ तोप के तोपखाने की व्यवस्था है; और

प्रति सप्ताह रविवार, गुरुवार और संपूर्ण उत्सवों पर वारांगनाओं के गायन करने की व्यवस्था है । इस छत्री के निमित्त ११ गाँव सेंधिया सरकार की ओर से और १४ गाँव दतिया नरेश की ओर से दिये हुए हैं जिनकी संपूर्ण वार्षिक आय ६००००) रुपया होती है । इन सब के अतिरिक्त अहिल्याबाई ने एक सदावर्त भी इस स्थान पर नियत किया था जो आज दिन तक व्यवस्थित रीति से चला आ रहा है और जिसमें प्रति वर्ष लगभग १५००) रुपये तक का सदावर्त बाँटा जाता है ।

हरिद्वार--पश्चिमोत्तर प्रदेश में हरिद्वार स्थान पर कुशावर्त हरकी पैड़ी से दक्षिण की ओर गंगा का घाट बना हुआ है । यहाँ घाट के ऊपर पत्थर या लंबा मकान बनवा दिया है जिस में यात्री लोग पिंडदान करते हैं ।

काशी--यहाँ पर अति पवित्र पाँच घाट में से मणि-कर्णिका घाट और दूसरे चार घाटों से विख्यात है । इसके ऊपर मणिकर्णिका कुण्ड है, इससे इस घाट का यह नाम पड़ा है । १७ वें शतक के अंत में बाई ने इसे बनवाया था । राजघाटतथा अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहला मंदिर है जो कि संपूर्ण शिवलिङ्गों में प्रधान है । यह मंदिर ५१ फुट ऊँचा और पत्थर का बना हुआ सुंदर शिखरदार है। मंदिर के चारों ओर पीतल के किवाड़ लगे हुए द्वार हैं । मंदिर के के पश्चिम में गुंबजदार जगमोहन और इसके पश्चिम से मिला हुआ दण्डपाणीश्वर का पूर्व मुख का शिखरदार मंदिर है। इन मदिरों का निर्माण बाई ने ही कराया था। बदरीनाथ— गढ़वाल जिले में बदरीनाथ अलकनन्दा नदी के तीर पर यह स्थान है। भारत के चार प्रसिद्ध धामों में से उत्तरीय सीमा के निकट बदरिकाश्रम एक धाम है। यहाँ पर चहुँ ओर पर्वत के ऊपर सर्वत्र बर्फ जमा रहता है और शीत काल में भूमि और मकानों पर सर्वत्र बर्फ का ढेर लग जाता है। नदी की ढालू भूमि पर उत्तर से दक्षिण तक तीन चार पंक्तियों में नीचे ऊपर एक तथा दो मंजिले मकान बने हैं। उनमें बहुतेरी धर्मशालाएँ हैं। इन मकानों के ढालू छप्परों पर काठ के तख्ते जड़े हुए हैं। और किसी किसी मकान पर भोजपत्र बिछाकर ऊपर से मिट्टी चढ़ाई हुई है। यहाँ सैकड़ों यात्री प्रति दिन पहुँचते हैं और एक दो रात निवास कर के चले जाते हैं। इस स्थान पर बाई का एक सदावर्त भी हैं।

केदारनाथ— गढ़वाल जिले में हरिद्वार से १४७ मील के अंतर पर मंदाकिनी और सरस्वती दोनों नदियों के मध्य में अर्धाकार भूमि पर समुद्र की सतह से ११००० फुट की ऊँचाई पर केदारपुरी है। यहाँ पर बड़े बड़े साठ मकान बने हैं। इनमें १८ धर्मशालाएँ हैं। बहुतेरे मकानों में सर्दी से बचने के हेतु भूमि पर तख्ते लगा दिये गये हैं। यहाँ पर बैसाख जेठ तक बर्फ जमा रहता है। यहाँ पर बाई की एक धर्मशाला बनी हुई है।
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• इस तीर्थ के विषय में मालकम साहब लिखते है कि जब मेरा पोलिटिकल असिस्टैंट कैप्टन टी० टी० स्टुअर्ट सन् १८१८ में केदारनाथ को गया था तब वहाँ पर उसने देखा कि लोग अहिल्याबाई के नाम का कितना आदर करते हैं। उसका हाल
देवप्रयाग--यह स्थान गंगोत्री जाते हुए मार्ग में मिलता है । इसके पास से गंगा उत्तर की ओर से गई है और अलकनंदा पूर्व-उत्तर की ओर से आकर उस में मिल गईहै । अलकनंदा के दाहिने टिहरी का राज्य और बाए अंग्रजी राज्य है । देवप्रयाग के समीप अलकनंदा पर लोहे का २०० फुट लंबा और २४.२५ फुट चौड़ा झूलना फुल है । यह स्थान (देवप्रयाग) समुद्र के जल से २२३६ फुट ऊपर टिहरी के राज्य में पहाड़ के बगल में बसा हुआ है । इसी स्थान पर बाई का सदावर्त लगा है और राय बहादुर सेठ सूर्यमल का भी सदावर्त लगा है ।

गंगोत्री--ह्रषीकेश से उत्तर और पहाड़ी मार्ग से लगभग १५६ मील पर गंगोत्री स्थान है । भटवाड़ी से ३७ मील और समुद्र के जल की सतह से लगभग १४००० फुट ऊपर गंगोत्री है ।

यहाँ पर विश्वनाथ, केदारनाथ, भैरव और अन्नपूर्णा के चार मंदिर और पांच छः धर्मशालाएँ बाई की और राय बहादुर सेठ सूर्यमल का सदावर्त है ।

इनके अतिरिक पहाड़ों के ऊपर जगह जगह १०-१५ घर की बस्तियाँ देख पड़ती हैं । यहाँ पर पहले कई चट्टियों पर बाई


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यह मुझ से बार बार कहता था । वर्तमान समय में भी वहाँ पर पत्थर की एक धर्मशाला और पानी का कुंड पृथ्वी के धरातल से पर्वत के ऊपर लगमग ३०० फुट के है, जहाँ पर मनुष्यों का पहुंचना दुर्गम जान पड़ता है । बाई ने ये स्थान केवल यात्रियों को दिए थे
की धर्मशालाएँ थी । अब प्राय: सभी बड़ी बड़ी चट्टियों पर अंग्रेजी सरकार ने एक एक धर्मशाला बनवा दी है ।

विठूर या ब्रह्मावर्त—इस स्थान पर ब्रह्माघाट के अतिरिक्त गंगा के कई घाट बाई और बाजीराव पेशवा के भी बनवाए हुए हैं ।

काशी—यहाँ पर बाई का बनवाया हुआ एक घाट है, जो कि “नया घाट” के नाम से प्रख्यात है ।

लोलार्ककुंड—स्कंदपुराण में लिखा है कि शिवजी की प्रेरणा से राजा दिवोदास को काशी से विरक्त करने के लिए सूर्य गए थे; में दिवोदास को विरक्त तो न कर सके पर स्वयं अनुरक्त हो गए । और वहाँ पहुँच कर उनका मन चलायमान हो गया, इसलिये उनका नाम लोलार्क पड़ा । कार्य पूरा न होने के कारण उन्होंने दक्षिण दिशा में अस्सीसंगम के निकट धूनी रमाई । इस घटना के स्मरणार्थ भदैनी में, तुलसीदास के घाट के समीप एक प्रसिद्ध कूप बना है । इसको बाई ने और कूचबिहार नरेश ने बनवाया था । कुएँ की गोलाई ५ फुट है और एक ओर से पत्थर की ४० सीढ़ियों द्वारा कूप में जाने का मार्ग है और एक ऊँची महराव है । यहाँ आकर यात्रीगण कूप में स्नान करते हैं । लोलार्ककुंड की सीढ़ियों पर लोलार्क हैं और कुंड के ऊपरी भाग में दक्षिण की ओर लोकेश्वर हैं ।

नर्मदा— इस भव्य और विशाल नदी की गणना हिंदुस्थान की अत्यंत पवित्र नदियों में है । मध्य भारत के लोग पवित्र नदियों में से इस नदी को सबसे अधिक मान देते हैं । अधिक तो क्या परंतु प्रत्यक्ष गंगा नदी ही श्याम वर्ण गो का रूप धारण

करके इस पवित्र नदी में स्नान करने के लिये आती है और स्नान करते ही संपूर्ण पातक नष्ट होने पर वह शुभ्र वर्ण धारण करती जाती है। ऐसी एक दंत-कथा कही जाती है कि नर्मदा के दर्शन मात्र से ही गंगा में स्नान करने के पुण्य के समान पुण्य प्राप्त होता है। इस नदी की महिमा इतनी विस्तृत है कि इसके आस पास ३० मील की दूरी तक जहाँ जहाँ नदियाँ और कुंड हैं, उनमें प्रत्यक्ष इसी नदी का महत्व आ गया है । इस नदी का वर्णन वायु पुराण के रेवाखंड में दिया हुआ है । इस नदी को रेवा नाम से भी पुकारते हैं इसके जल का प्रवाह पथरीले प्रदेशों में से उछलता हुआ बहता है । इस कारण इसको रेवा ( रेवा अर्थात् कूदना ) नाम दिया गया है ।

इस नदी का निकास श्री शंकर महाराज के पास से हुआ है, इस कारण यह उनको प्रिय होगी और यह ठीक भी है । इसी लिये इस नदी को शांकरी भी कहते हैं । इतना ही नहीं वरन् नर्मदा जी की रेत में जितने कंकड़ पाये जाते है वे सब शंकर के बाण होते हैं। “नर्मदा के जितने कंकड़ उतने ही शंकर" इस प्रकार की एक लोक-प्रसिद्ध कहावत है । इन बाणों की आवश्यकता आज दिन भी अधिक है । इस कारण इनका मूल्य भी अधिक होता है ।

नर्मदा परम पवित्र नदी होने के कारण अहिल्याबाई ने अपना लक्ष महेश्वर की तरफ लगाया था । महेश्वर का स्थान रामायण, महाभारत तथा पौराणिक समय से प्रसिद्ध है । इस नगरी का नाम पुराणों और बौद्ध ग्रंथों में भी दृष्टिगत होता
है। कार्तवीर्यार्जुन इसी स्थान पर निवास करने थे। इस बस्ती को आज भी “सहस्त्रबाहु की बस्ती" कहा जाता है।

रावण ने इस नदी के प्रवाह को रोकने के लिये इस स्थान के पास अपनी शक्ति भर प्रयत्न किये, परंतु इसके जल के प्रवाह का बंद होना तो एक ओर रहा, वह इस स्थान पर हजार धारा हो कर बही है। इस विशेष कारण से इस स्थान पर इसका नाम सहस्त्रधारा प्रसिद्ध है। यहाँ का दृश्य अहयंत प्रेक्षणीय है। इन सब कारणों से यह शहर पौराणिक समयों से प्रसिद्ध था ही, परंतु ऐतिहासिक समय में भी इसकी प्रसिद्धि में कमी नहीं होने पाई।

मल्हारराव की मृत्यु के पश्चात् अहिल्याबाई ने महेश्वर स्थान को अपना मुख्य स्थान बनाया था। यह स्थान नर्मदा के किनारे पर ही बसा हुआ है। यहाँ ऐसे बड़े-बड़े प्रचंड घाट है कि उनके समान समस्त हिंदुस्थान में अन्य स्थानों पर कचित ही दृष्टिगत होता है। बाई का निवास-स्थान घाट से लगा हुआ ही था। उन्होंने अपने तुलसी वृंदावन की ऐसे उत्तम स्थान पर स्थापना की थी कि वहाँ से नर्मदा का दृश्य उत्तम रीति से दृष्टिगत होता है। अहिल्याबाई ने महेश्वर स्थान की उन्नति तन, मन तथा धन दे कर की थी जिससे इस स्थान को पुन: पौराणिक काल का महत्व प्राप्त हो गया था। किसी स्थान का महत्व नष्ट हो जाना तथा पुन: प्राप्त होना, यह समय के प्रभाव से होता है। घाट के समीप बाई की एक अति उत्तम और प्रेक्षणीय छत्री बनी हुई है और उसके भीतर एक शिवलिंग और

लिंग के समक्ष बाई की मूर्ति स्थापित है । यह गाट और छत्री बाई के स्मरणार्थ महराज यशवंतराव होलकर ने बनवाई थी । इस काम के समाप्त होने में ३४ वर्ष का समय लगा था और इसमें लगभग डेढ़ करोड़ रुपया व्यय हुआ था । इस छत्री को यदि मध्य हिंदुस्थान के ताजमहल की उपमा दी जाय तो युछ अतिशयोक्ति न होगी ।

इस घाट के समीप बहुधा लोग मछलियों को राम नाम की गोली अथवा चने खिलाया करते हैं । उस समय कुछ मछलियों की नाक में सोने की एक पतली नथ जिसमें दो मोती होते हैं, दृष्टि पड़ती है। ऐसा कहा जाता है कि एस प्रकार की नथें मछलेड़यों की नाक में अहिल्याबाई ने ही डलवाई थीं। नथ पहने हुए मछलियाँ कभी कभी आज दिन भी दृष्टिगत होती हैं ।

छत्री में शिवलिंग का पूजन और बाई की प्रतिमा का पूजन नित्य प्रति आज दिन भी होता है। इस स्थान के दर्शन मात्र से और व्यवस्था को देख कर दर्शकों को राजसी ठाठ दृष्टिगत होता है। यहाँ पर नित्य प्रति शिवलिंगार्चन के हेतु ब्राह्मण नियत हैं और एक उत्तम मंदिर राजराजेश्वरी का है और घी का दीपक दिन रात जला करता है। इस स्थान पर घड़ी, घनटा और चौघड़िया की भी व्यवस्था है और श्रावण मास में ब्राह्मणों को इस स्थान पर विशेष रूप से भोजन और दान-दक्षिणा दी जाती है ।

चिकलदाः--इस स्थान पर नर्मदा की परिक्रमा करनेवाले के लिये बाई का स्थापित किया हुआ एक अन्नसत्र है । सुलपेश्वर:--इस स्थान पर बाई का बनवाया हुआ महादेव का एक विशाल मंदिर है और प्रवासियों के हेतु एक अन्नसत्र भी बाई ने स्थापित किया है । इस स्थान पर एक विशेषता यह है कि प्रत्येक प्रवासी को एक कंबल, एफ लोटा आज दिन भी मिलता चला आता है ।

मंडलेश्वर:--इस स्थान पर बाइ का बनवाया हुआ एक घाट और एक शिवालय विद्यमान है ।

नीलकंठ महादेव गोमुखी:--यहाँ पर अहिल्याबाई ने एक शिवालय जो कि नीलकंठ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है और एक गोमुखी बनवायें हैं ।

ओंकारेश्वर मान्धाता:--यहाँ पर बाई ने एक थावडी बनवाई है और ओंकारेश्वर महादेव के मंदिर में नित्य प्रति सागोपांग पूजन के अतिरित्त लिगार्चन की भी व्यवस्था की थी जो आज दिन तक उसी प्रकार से चल रही है । और इस स्थान पर श्रावण मास में शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने की, ब्राह्मणों के द्वारा अनुष्ठान कराने की, और उनके भोजन और दक्षिणा की भी व्यवस्था उत्तम रीति से की थी जो आज तक चल रही है ।

हडिया:--यह स्थान मध्यप्रदेश में हर्दा से लगभग १२ मील के अंतर पर नर्मदाजी के तट पर है । यहाँ पर प्रति वर्ष शिवरात्रि पर और पर्व पर्वणी पर असंख्य लोग दूर दूर से आते हैं । नर्मदा जी के उस पार सिद्धनाथ का एक विशाल मंदिर है जिसको मालकम साइब ने सब मंदिरों से श्रेष्ठ और उतम बतलाया है । यहीं पर नित्य प्रति लिड़्ग का सांगोपांग
पूजन होता है । इस स्थान पर बाई का एक अन्नसत्र और एक धर्मशाला बनवाई हुई है जिसमें लगभग नित्य २०० मनुष्य भोजन पाते और रहते हैं । यह मंदिर लगभग ६०-७० फुट ऊँचा और भीतर से ३०-४० फुट है । यहाँ पर घी का दीपक दिन रात जलता रहता है । यह मंदिर भूरे रंग के पत्थर का बना हुआ है। इसमें बाहर की तरफ ऊपर से नीचे तक असंख्य देवी देवता की सुंदर मूर्ति खुदी हुई हैं जो अत्यंत प्रेक्षणीय हैं। नर्मदाजी के तट पर लगभग आधे फरलांग का एक घाट बना हुआ है जो कि जल के भीतर तक गया है । यहाँ पर यह विशेषता है कि यहाँ का जल सर्वदा गंभीर और अथाह रहता है । इस मंदिर में घड़ी, घंटा और चौघड़िया भी हैं । इसके अतिरिक्त बाई ने कई स्थलों पर धर्मशालाएँ और अन्नसत्र बनवाये थे। जो देवस्थान अपूर्ण रह गये थे उनको बाई ने अपने निज द्रव्य से पूर्ण कराया था और उनमें मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा पुनः कराई थी ।

हरप्रसाद शास्त्री अपने इतिहास में लिखते हैं कि बाई ने काशी में विश्वेश्वर और गया में विष्णुपद के मंदिरों को फिर से बनवाया था । और कलकत्ते से लेकर काशी तक एक उत्तम सड़क बनवाई थी । इन सब के अतिरिक्त गीष्म ऋतु में स्थान स्थान पर पौसले थे और शरद काल में अनाथों को कंबल प्रति वर्ष दिये जाते थे ।

अहिल्याबाई ने अपनी जन्मभूमि के स्थान पर एक शिवालय और एक घाट बँधवाया था । वह शिवालय आज दिन भी अहिल्येश्वर नाम से प्रसिद्ध है । इस मंदिर के खर्च
के लिये आज दिन भी सरकार होलकर की तरफ से ८००) सालाना दिया जाता है।

इन धर्मसंबंधी कार्यों के लिय जगतप्रख्यात शेक्सपियर का कथन है कि धर्म उस स्थान पर पाया जाता है जहाँ पर प्रत्येक मनुष्य सें प्रीति हो, झील, ताल, कूएं आदि खुदवाए गए हों, पुल और मकान बंधवाए गए हों, छायादार वृक्ष लगवाए गए हों, जहाँ पर दु:खित मनुष्यों को कगालों और निराश्रितों के ऊपर दया आती हो, प्रवासियों के हितार्थ धर्मशालाएँ बनवाई गई हों, अन्न जल की व्यवस्था की गई हो, वस्त्र दिये जाते हों, अनाथों को औषध दिये जाते हों, और जहाँ पर पात्र अपात्र का विचार न होता हो ।

एक विद्वान् का कथन है कि दान देना, धार्मिक जीवन रखना और अपने आप्तजनों को सहायता करना ये ऐसे सत्कार्य हैं जिनकी कभी कोई निंदा नहीं कर सकता । कहा भी है-

नान्नोदक समंदानं न तिथि द्वादशी समा ।
न गायत्र्याः परोमंत्रो न मातुर्दैवत परम् ॥ चाणक्य ॥

अर्थात्—अन्न जल के समान कोई दान नहीं है । द्वादशी के समान तिथि और गायत्री से बढ़ कर कोई मंत्र नहीं है और न माता के समान कोई देवता ही है।

जिस समय बाई ने ये देवस्थान, अन्नसत्र और धर्मशालाएँ बनवाई थीं, उस समय वस्तु और दूसरी सामग्री का तो क्या कहना, मनुष्य मात्र को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचना बहुत दुर्लभ होता था । तो फिर इतनी बड़ी शिलाएँ और दूसरे सामान संपूर्ण भारत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक भेजवाने

में कितना परिश्रम और द्रव्य व्यय किया होगा, इसका अनुमान पाठक स्वयं कर लें और तब विचार करें कि एक अबला स्त्री में इतनी शक्ति और बुद्धि का होना क्या ईश्वरीय शक्ति नहीं कहा जा सकता ? क्या वह आदरणीय नहीं हो सकता ? बाई के दान-धर्म की कल्पना विश्वकुटुंब के समान है जिसका वर्णन हम पीछे के भागों में कर चुके हैं । अर्थात् इनकी भूतदया का भाग बन के पशुओं को, मकानों और वृक्षों पर आश्रय पानेवाले पक्षियों को, और जल में रहनेवाले मच्छ कच्छ इत्यादि जीवों को भी मिलता था । इस वर्णन को पढ़ कर हमें महाकवि कालिदास का वाक्य स्मरण हो आता है । आप ने लिखा है :-

मनुप्रभृतिभिर्मान्यैर्भुक्ता यद्यपि राजभि: ।

तथाप्यनन्यपूर्वेव तस्मिन्नासीद्वसुंधरा ।। १ ।।

अनुवाद—भोगी यद्यपि भूमि है, मन्वादिक की एह ।

तदपि मानती प्रथम पति, इनको करिके नेह ।

इस प्रकार की विलक्षण धर्म की कीर्ति सुन अन्य राज्यों की दानशीला स्त्रियों में भी आहिल्याबाई के धर्म मार्ग का अनुकरण करने का दृढ़ संकल्प किया था । बाई के सत्कार्यों का अनुकरण करनेवाली जगतप्रसिद्ध बायजा बाई सिंधिया थीं जिन्होंने धर्मशाला, मंदिर आदि स्थापित कर अपने कोमल और भक्तिमय हृदय का परिचय दिया था । उनमें से कुछ आज भी वर्तमान हैं । इनके सद्गुणों और कीर्ति की ध्वजा आदरणीय स्त्रियों के मध्य फहरा रही है । इन्होंने भी अभित धन धार्मिक कृत्यों और सत्कार्यों में व्यय किया था । अहिल्याबाई ने अपने धार्मिक आचरणों से इस प्रकार की विलझण भावना लोगों के मन पर अंकित करा दी थी, जिनका परिणाम हिंदू प्रज्ञा मात्र पर होना तो सहज और स्वाभाविक ही था परंतु जिनसे मुसलमानों के मन में भी धार्मिक भाव उत्पन्न होते थे । ये बाई को आदर की दृष्टि से देखते थे। हैदर, टीपू, निजाम, अयोध्या के नवाब ये सब बाई को सम्मान देते थे। इस विषय में एक हास्यजनक लेख इस प्रकार से है कि तुकोजी राव का पुत्र मल्हारी मूर्खता और उद्दंडता के कारण प्रजा को सताया करता था। जब यह समाचार बाई को विदित हुए तब उन्होंने उसे ताड़ना देकर समझाया और कह दिया कि यदि पुनः मैं तुम्हारी उद्दंडता सुन पाऊँगी तो तुमको यहाँ से गधे पर बैठा कर निकलवा दूँगी। इस प्रकार मल्हारी को भय दिखला कर छोड़ दिया। परंतु नटखट लड़के अपना स्वभाव सहज में नहीं छोड़ देते। उसने फिर लोगों को त्रास देना आरंभ कर दिया। जब बाई ने उसको पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने की आज्ञा दी तब वह पूने की तरफ चला गया, और कुछ दिन रह कर वहाँ भी उसने अपने हतकंडे लोगों पर चलाये। तब लोगों ने असंतुष्ट हो कर उसका तिरस्कार कर दिया और कहा कि "शेर के घर में बकरी! इसके इस प्रकार के कृत्यों से बाई और तुकोजी के नाम पर क्या धब्बा न लगेगा?"

मल्हारी के इस प्रकार के चरित्र देख नाना ने, जो वहाँ बाई की ओर से नियत था, संपूर्ण ब्योरा बाई को लिख भेजा। उसके उत्तर में बाई ने कहला भेजा कि उसको मेरे

पास पकड़ कर भेज दो । यह समाचार मल्हारी को विदित होते ही वह निजाम के राज्य में भाग गया और वहाँ पर भी उसने अपनी योग्यता का पूर्ण परिचय लोगों को दिया जो कि इसके लिये एक साधारण बात हो गई थी ।

यहाँ पर भी लोगों ने हाय हाय मचा कर निजाम तक सब हाल पहुँँचाया । सरकार निजाम ने जब होलकर के वकील से इस विषय में पूछा तब वकील न सब हाल कह कर निवेदन किया कि इसको अपना बच्चा समझ उचित दंड दें । और बाई तुकोजी का पूर्ण संबंध कह सुनाया जिसको सुनकर निजाम ने लोगों का नुकसान अपने निज कोष से धन दे कर उनको संतुष्ट किया । और उसको बुलवा कर बहुत धमकाया, समझाया और कुछ दिन अपने पास रख बाई के पास भेज कर लिख भेजा कि, अब आप इसके अपराध को क्षमा करें, यह कभी किसी को नहींसतावेगा । यथार्थ में फिर ऐसा ही हुआ । इससे अनुमान किया जा सकता है कि और लोगों के मन में भी बाई के प्रति कितना आदर भाव था ।

अहिल्याबाई के ऊपर एक की अपेक्षा एक अत्यंत कठिन, अतःकरण को द्रवीभूत करनेवाली आपत्ति और दुःख उपस्थित हुआ था । परंतु ऐसे ऐसे महा कठिन और दारुण दुःखों में फँसे रहते हुए भी बाई ने अपना मनोधैर्य किंचित् मात्र डिगने नहीं दिया था । यह उनमें एक अद्भुत और विलक्षण गुण और शांति थी।

प्रिय पाठको! विचार करो कि उस अबला स्त्री के श्वसुर,

पति और पुत्र अर्थात् जितने थे वे सब स्वर्ग को सिधार गए ये और इधर धन-लोलुप लालचियों ने राज्य का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाया था। इस प्रकार की सब आपदाओं से अपने अंतःकरण को खींच एक ओर निश्चित और अचल रूप से लगा देना क्या कोई सामान्य बात है? ऐसे आपत्ति के काल में पुरुषों का भी धैर्य नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। यहाँँ तक कि कोई कोई अपने प्राणों तक पर आघात कर लेते हैं अथवा दुःखी होकर अपना शेष जीवन व्यतीत करते हैं।

पुत्र-शोक के कारण अपने होम रूल में आपत्ति देखकर धैर्यवान् युद्ध परंतु तरुणों की अपेक्षा तरुण ऐसे राजऋषि ग्लैडस्टन जब दुःखसागर में डूब गये थे तो फिर उनमें उठने की सामर्थ्य नहीं रही थी। और भारत के सच्चे हितैषी, लोकप्रिय, सर्वगुणसंपन्न साधु वर्क भी अपने पुत्र-शोक के कारण अचेत हो रहे थे। महाराजाधिराज राजा दशरथ का भी पुत्र के बिछोह से स्वर्गवास हो गया था। तो फिर स्त्रियों का क्या कहना। वे स्वयं स्वभाव से कोमल अंतःकरणवाली, प्रेमपूर्ण, अधीर और शीघ्र भयभीत होनेवाली होती हैं। परंतु धन्य थीं अहिल्या बाई कि जिनके उपर तरुण अवस्था से लेकर वृद्धावस्था और मरण पर्यंत दुःख के सागर के सागर उमड़ पड़े थे । तो भी वह दृढ़चित्त हो अपने सत् मार्ग पर आरूढ़ रहीं। ऐसे समय पर भी बाई ने अपना धैर्य,साहस और नित्यकर्म नहीं छोड़ा था । क्या यह कोई साधारम बात थी?

जगतप्रसिद्ध शेक्सपियर का कथन है कि दृढ़ विश्वास रखनेवाले मनुष्य में स्वयं परमात्मा का ही अंश रहता है ।
दृढ़ विश्वास से वह अपने दुःख सुख को सामान्य रूप से देखने लगता है।

बाई के सुचरित्र और धार्मिक कार्यों से भारतवासियों के मन में प्रीति का संचार होना साहजिक है, अधिक गौरव की बात नहीं है । परंतु उनके इस कार्य ने पश्चिमी विद्वानों को भी मुग्ध कर लिया था, यह विशेष गौरव की बात है ।

मालकम साहब लिखते हैं कि—"यह चरित्र अत्यंत अलौकिक है । स्त्री होने पर भी बाई को अभिमान लेश मात्र नहीं था । उनको धर्म की विलक्षण धुन थी और इतना होने पर भी परधर्म-सहिष्णुता में वे निपुण थीं । उनका शरीर भोलापन लिये हुए वृद्ध हो गया था; परंतु अपने आश्रितों को, अपनी पुत्रवत् प्रजा को, किस प्रकार सुख हो, उनका वैभव बढ़े, इसके अतिरिक्त उनके मन में अन्य विचार नहीं होता था । बाई ने अनियंत्रित अधिकार का उपयोग पूर्ण दक्षता और विचारपूर्वक किया था । इस कार्य से उनके मन की वृत्ति स्थिर हो चुकी थी और उनके आश्रितजनों ने तथा संपूर्ण प्रजा वर्ग ने जहाँ तक उनसे बना, अपने तन मन से उनकी आज्ञा का पालन किया था ।"

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