अयोध्या का इतिहास/१५—अयोध्या के शाकद्वीपी राजा

[ १६१ ] 

पन्द्रहवाँ अध्याय।
अयोध्या के शाकद्वीपी राजा।[१]

अयोध्या का इतिहास बिना शाकद्वीपी राजाओं के वर्णन के अपूर्ण रहेगा। तीस वर्ष हुये श्रीमान् महाराजा प्रतापनारायण सिंह बहादुर के॰ से॰ आई॰ ई॰ अयोध्यानरेश ने हम से अपने वंश का इतिहास लिखने के लिये कहा था और उसके लिये कुछ सामग्री भी दी थी। फै़जाबाद के भूतपूर्व कमिश्नर कोर्नगी साहेब ने अंगरेज़ी में एक हिस्ट्री अव अयोध्या ऐण्ड फै़जाबाद (History of Ajodhya and Fyzabad) लिखी थी जिसके एक अंश की नक़ल हमारे पास है। उन्हीं के आधार पर यह संक्षिप्त इतिहास लिखा जाता है।

शाकद्वीपियों की उत्पत्ति

शाम्ब-पुराण अध्याय ३८ में लिखा है:—

शाकद्वीपाधिपः पूर्वमासीद्राजा प्रतर्द्दनः।
स सदेहो रविं गन्तुञ्चकमे भूरिदक्षिणः॥
विप्रास्तम् प्राहुरीशानन्न सदेहो गमिष्यसि।
सौरयज्ञं वयं कर्त्तुन्नक्षमाः सर्वकामिकम्॥
तपस्तेपे नृपस्तीव्रं वर्षाणाञ्च शतत्रयम्।
ततः प्रसन्नो भगवानाह भूपं वरार्थिनम्॥
वरं वरय भूपाल, किंतेऽभीष्टं ददामि तत्।
सौरयज्ञं करिष्यामि याजकाः सन्ति नैव मे॥

[ १६२ ]

यस्मिन् कृते मखे यामि सदेहस्त्वां दिवस्पते।
ततः स भगवान् दभ्यो क्षणम्मीलितलोचनः॥
सूर्यप्रमा मण्डलतो ब्राह्मणाः सप्त तत्क्षणात्।
आविरासन् ब्रह्मविदो वेदवेदाङ्गपारगाः॥
ततस्तानाह भगवान् विप्रान्यज्ञान्तकर्मणि।
युष्माकं सन्ततिभूमौ यथा स्यादनपायिनी॥
पावनार्थञ्चलोकानान्तथा नीतिर्विधीयताम्।
ततस्ते जनयामासु र्मनसा तनयाञ्छुभान्॥
द्वे द्वे कन्ये सुतौ द्वौ द्वौ तेषां वृद्धिः क्रमादभूत्।

"पूर्वकाल में प्रतर्द्दन शाकद्वीप का राजा था, उसकी यह कामना हुई कि हम सदेह सूर्य-लोक को चले जायँ। ब्राह्मणों ने उससे कहा कि हम लोग सारी कामनाओं का पूरा करनेवाला सौरयज्ञ नहीं करा सकते। इससे तुम सूर्य-लोक में सदेह न जाओगे। ब्राह्मणों के वचन सुन कर राजा ने ३०० वर्ष तक कड़ी तपस्या की। तब सूर्य भगवान् प्रसन्न हो कर प्रकट हुये और उनसे बोले हे राजा! जो चाहते हो, माँग लो, हम वही वर देंगे। राजा ने उत्तर दिया कि हम सौरयज्ञ करना चाहते हैं परन्तु हमको कोई यज्ञ करानेवाले नहीं मिलते। सौरयज्ञ कराने का हमारा प्रयोजन यह है कि हम सदेह आप के पास पहुँच जायँ। इस पर सूर्य भगवान् ने आँखें बन्द कर, एक क्षण ध्यान किया और उनके प्रभा-मण्डल से उसी क्षण सात ब्राह्मण प्रकट हुये। सातो ब्रह्म-ज्ञानी और वेद वेदाङ्ग के पारंगत थे। उनको सूर्य भगवान् ने यज्ञ का सम्पूर्ण कर्म बताया और कहने लगे कि तुम लोगों को ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोकों को पवित्र करने के लिये पृथ्वी तल पर तुम्हारी सन्तान सदा बनी रहे। इस पर उन ब्राह्मणों ने मानस-सन्तान उत्पन्न की। प्रत्येक के दो-दो पुत्र और दो-दो पुत्रियाँ हुई और क्रम से उनकी संसार में वृद्धि होती रही।" [ १६३ ]

शाकद्वीपियों के इस देश में आकर बसने का कारण

श्रीकृष्ण और जाम्बवती के पुत्र शाम्ब अपने पिता के शाप से कोढ़ी हो गये थे। इस रोग से मुक्त होने का उपाय उनको यही सूझा कि सूर्य नारायण की उपासना करें। इस विचार से उन्होंने देवर्षि नारद से सूर्य नारायण की उपासना की विधि पूछी और उत्तर को चले गये। वहाँ उन्होंने कड़ी तपस्या की और रोग से मुक्त हुये। इधर अयोध्या के राजा बृहद्वल [२] ने देवताओं की आराधना की विधि कुल-गुरु वसिष्ठ से पूछी। वसिष्ठ जी ने उनको सारी विधि बतलाई और नारद के उपदेश से रोग से मुक्त होने का वृतान्त कहा। इन घटनाओं को लेकर वेदव्यास ने शाम्ब पुराण रचा और यह पुराण सौनकादि की प्रार्थना से सूत ने नैमिषारण्य में सुनाया। शाम्ब पुराण में लिखा है कि कुष्ठ रोग से मुक्त होने पर शाम्ब चन्द्र-भागा नदी में स्नान करने के लिये गये। यहाँ उनको सूर्य नारायण की एक प्रतिमा देख पड़ी। शाम्ब सूर्य-देव के भक्त थे ही उन्होंने यह संकल्प किया कि एक मन्दिर बनवा कर मूर्ति की उसमें स्थापना करा दें और एक योग्य ब्राह्मण को पूजा अर्चा के लिये नियत कर दें। ऐसे ब्राह्मण के लिये उन्होंने देवर्षि नारद से पूछा तो नारद ने उत्तर दिया कि इस विषय में तुम्हें सूर्यनारायण की आज्ञा लेनी चाहिये। इस पर शाम्ब फिर सूर्यदेव की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्यनारायण ने उनको दर्शन दिया और बोले कि इस देश में काल पड़ा हुआ है। शाकद्वीप में ऐसा ब्राह्मण मिल जायगा। तुम शाकद्वीप चले जाओ और वहाँ से द्वारका में उस ब्राह्मण को ले आओ। शाम्ब ने द्वारका जाकर श्रीकृष्ण जी से सारा वृत्तान्त कहा और उनकी आज्ञा से गरुड़ पर सवार होकर शाकद्वीप को गये और वहाँ से अट्ठारह ब्राह्मण लाये, जिनके नाम ये हैं:—१ मिहिरांशु, [ १६४ ]२ शुभाशु, ३ सुधर्म्मा, ४ सुमति, ५ बसु ; ६ श्रुतिकीर्ति, ७ श्रुतायु, ८ भरद्वाज, ९ पराशर, १० कौण्डिन्य, ११ कश्यप, १२ गर्ग, १३ भृगु, १४ भव्यमति, १५ नल, १६ सूर्यदत्त, १७ अर्कदत्त, १८ कौशिक।

फिर मन्दिर बनवा कर उस मूत्ति की प्रतिष्ठा की। जब ब्राह्मण लोग प्रतिष्ठा से निवृत्त हुये तो अपने देश को चले। श्रीकृष्ण जी ने उनसे कहा कि कुछ दिन यहाँ और ठहरो। इसके पीछे गरुड़ को आज्ञा दी गई इन ब्राह्मणों को शाकद्वीप पहुँचा दो । गरुड़ ने उन लोगों से यह प्रतिज्ञा करा ली कि जब शाकद्वीप को प्रस्थान करें तो बीच में कहीं न ठहरें। ब्राह्मण लोग ३० वर्ष तक द्वारका में रहे।

मगध में शाकद्वीपियों का निवास

इसी बीच में श्रीकृष्ण जी ने लीला सँवरण किया। तब उन ब्राह्मणों को द्वारका में रहना अच्छा न लगा और गरुड़ पर सवार हो कर शाकद्वीप की ओर चले। जब मगध-देश के ऊपर पहुंचे तो वहाँ रोना-पीटना सुन पड़ा। ब्राह्मण लोग बड़े व्यग्र थे। उनके पूछने पर गरुड़ ने कहा कि मगध-देश के राजा धृष्टकेतु को कोढ़ हो गया है इसी कारण उसने मरने की ठान ली है और चिता के लिये लकड़ियों का ढेर लगा है। राजा बड़ा धर्मात्मा है और उसके राज में सब सुखी हैं। इसी से उसकी सब प्रजा उसके लिये रो रही है। ब्राह्मणों को दया आई और उन्होंने गरुड़ से कहा कि 'क्या इस देश में ऐसा तपस्वी नहीं है जो राजा को इस रोग से मुक्त करे? गरुड़ ने उत्तर दिया यहाँ ऐसा कोई होता तो शाम्ब आप लोगों को क्यों बुलाते। ब्राह्मणों ने गरुड़ से कहा कि पृथ्वी पर उतरो। राजा उनके दर्शनों से कृतकृत्य हो गया। मिहरांशु ने उसे अपना चरणोदक पिलाया और राजा का कोढ़ अच्छा हो गया। तब ब्राह्मणों ने गरुड़ से कहा कि हमें शाकद्वीप पहुँचा दो। गरुड़ ने कहा कि आप से प्रतिज्ञा करा चुका हूँ अब आप यहीं रहिये। कृतज्ञ राजा ने ब्राह्मणों को अपने देश में आदर से रक्खा और गङ्गा-तट पर कई गाँव दिये। ब्राह्मणों [ १६५ ]से चार अर्थात् श्रुतिकीर्ति, श्रुतायु, सुधर्म्मा, और सुमति ने सन्यास ले लिया और तपस्या करने को बदरिकाश्रम चले गये। शेष १४ मगध में रहे और वसु ने अपनी बेटियाँ उनको विवाह दी। उन्हीं की सन्तान आज-कल मगध देश में बसी है।

गोत्र और शाखा

मिहरांशु, भारद्वाज, कौण्डिन्य, कश्यप, गर्ग की सन्तान बढ़ी और प्रसिद्ध हुई। इसी कारण शाकद्वीपियों के छः घर बन गये और प्रत्येक घर के मूल-पुरुष का नाम गोत्र कहलाया। आज-कल शाकद्वीपियों के ७२ घर गिने जाते हैं, अर्थात् उर २४, आदित्य १२, मण्डल १२, अर्क ७। शेष इन्हीं की शाखायें हैं।

मिहरांशु की सन्तान ने बड़े बड़े काम किये थे इसलिये उनकी शाखा अधिक प्रतिष्ठित मानी जाती है। जो शाखा जिस गाँव में बसी उसी गाँव के नाम से प्रसिद्ध हुई। जैसे उर से उर्वार।

हमारा अभिप्राय केवल महाराजा मानसिंह के कुल का वर्णन करना है। इसलिये और कुलों के विस्तार लिखने की आवश्यकता नहीं।

अयोध्या का शाकद्वीपी राजवंश

इस वंश के पहिले प्रसिद्ध राजा महाराजा मानसिंह हुये। महाराजा साहेब गर्ग गात्र के थे और इनके पूर्व पुरुष बिलासू गाँव में रहते थे। यह गाँव गङ्गा तट पर अब तक बसा हुआ है और राजा धृष्टकेतु से मिला था। यहाँ गर्ग गोत्र के बिलसिया ब्राह्मण रहते हैं और उनसे बिरादरी का आना जाना अब तक चला जाता है। इसी कारण महाराजा साहेब का गर्ग गोत्र विलासियाँ पुर और द्वादश आदित्य शाखा है। बिलासी गाँव के एक बड़े प्रसिद्ध पण्डित दिल्ली पहुंचे और गुणज्ञ अकबर बादशाह ने उनको मझवारी गाँव की जिमींदारी दी। यह गाँव अकबर बादशाह के समय तक उनके पास रहा। अकबर के मरने पर मझवारी के पुराने जिमीदारों ने डाका डाल कर सारे पाठकों [ १६६ ]को मार डाला। केवल एक स्त्री भाग कर एक चमार के घर में छिपी। वह स्त्री गर्भवती थी। चमार उसे दूलापूर ले गया। दूलापूर के जमींदार की स्त्री का मैका उसी गाँव में था जहाँ की वह ब्राह्मणी थी। इस कारण जमींदार ने उसको मैके पहुँचा दिया। मैके में ब्राह्मणी के जोड़िया लड़के पैदा हुये। एक का नाम मधुसूदन और दूसरे का टिकमन पाठक था। जब दोनों भाई सयाने हुये तो अपनी पुरानी जमींदारी लेने की उनको चिन्ता हुई और दूलापूर आये। दूलापूर के जमींदार ने उनसे सारा ब्यौरा कहा और रात को उन्हें मझवारी ले जाकर सारा गाँव दिखाया। यहाँ उनको वह चमार भी मिला जिसके घर में उनकी माता ने शरण ली थी। तब दोनों भाई दिल्ली पहुंचे और बादशाह औरंगजे़ब से फरयाद की। बादशाह ने उन्हें मझवारी गाँव के अतिरिक्त ९९ गाँव और दिये और उनको चौधरी की उपाधि देकर अपने देश को लौटा दिया।

महाराजा मानसिंह के पूर्वपुरषों का फ़ैज़ाबाद के ज़िले में
पलिया गाँव में आना

जब मुर्शिदाबाद के हाकिम नवाब क़ासिम अलीखाँ ने शाहाबाद ज़िले को अपने शासन में कर लिया उस समय उनके अत्याचार से मझवारी की ज़िमीदारी नष्ट होगई और महाराज मानसिंह के प्रपितामह अपना देश छोड़ कर गोरखपुर के जिले में बिडहल के पास नरहर गाँव में जाकर बसे। उनके बेटे गोपाल पाठक ने अपने बेटे पुरन्दर राम पाठक का विवाह पलिया गाँव के गङ्गाराम मिश्र की बेटी के साथ कर दिया और पलिया में आकर बस गये।

पुरन्दर राम जी के ५ बेटे थे, ओरी, शिवदीन, दर्शन, इन्छा और देवीप्रसाद। ओरी ने १४ वर्ष की अवस्था में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रिसाले में नौकरी और लार्ड कार्नवलिस के साथ कई लड़ाइयों [ चित्र ]King Bakhtawar Singh

राजा बख़तावर सिंह

[ १६९ ]में वीरता दिखाई। एक बार छुट्टी लेकर लखनऊ की सैर को आये और बेलीगारद के सामने अपने एक मित्र से बात-चीत कर रहे थे कि उधर से अवध के नव्वाब सआदत अली खाँ की सवारी निकली। ओरी बहुत अच्छे डील डौल के वीर पुरुष थे। नव्वाब साहब ने उनको बहुत पसन्द किया और चोबदार से बोले कि इस जवान से कहो कि हमारी सरकार में नौकरी करे। ओरी ने उत्तर दिया कि हम आपकी सेवा करने में अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं परन्तु हम अंग्रेजी सरकार के नौकर हैं। नव्वाब साहब ने तुरन्त लखनऊ के रेजिडेण्ट डेली साहब को लिखा और ओरी को ८ सवारों का दफादार बना कर अपनी अर्दली में रक्खा। एक दिन नव्वाब साहब हवादार पर बाहर निकले थे। रास्ते में उन पर किसी ने तलवार चलाई। वह हवादार को तान में लगी। दूसरा वार फिर करना चाहता था कि वीर ओरी ने झपट कर उसको एक ऐसा हाथ मारा कि वह वहीं मर गया। इस पर नव्वाब साहब बहुत प्रसन्न हुये और ख़िलअत देकर पलिया उनकी जागीर कर दी और जमादारी का ओहदा देकर उनका सौ सवारों का अफसर बनाया। इसके कुछ ही दिन पीछे रिसालदार बना दिये गये और उनका नाम ओरी से बदल कर बख्तावर सिंह कर दिया गया। नव्वाब सआदत अली खाँ के मरने पर जब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर बादशाह हुये तो उन्हें राजा की उपाधि मिली। उनकी खैरख्वाही के कारण दरबार में उनकी प्रतिष्ठा और उनका अधिकार बढ़ता गया जो किसी दूसरे को प्राप्त न था। कुछ दिन बाद उन्होंने अपने भाई दर्शनसिंह को चकलेदारी दिलवायी। उन्होंने भी अपने इलाके का बहुत अच्छा प्रबन्ध किया और राजा की पदवी पायी । उन्हीं दिनों शिवदीन एक बड़ा डाकू था। वादशाह की आज्ञा से उसका दमन किया गया और राजा को बहादुर का पद मिला। इसी तरह दोनों की बादशाह नसीरुद्दीन के समय में उन्नति होती रही। राजा दर्शनसिंह ने शाहगंज में सुदृढ़ कोट, बाजार और महल बनवाये। श्री अयोध्या में [ १७० ]दर्शनेश्वरनाथ का पत्थर का शिवाला बनवाया जो अवध प्रान्त में अद्वितीय है। सूर्यकुण्ड का पक्का तलाव और उसी के पास दर्शन नगर बाजार उनके कीर्ति के स्तम्भ अब तक विद्यमान हैं। उनकी वीरता, उनका दान, उनका न्याय और राज-विद्रोहियों (सर्कशों) का दमन संसार में प्रसिद्ध है। इस अन्तिम काम के लिये उनको बादशाही से सरकोबे सरकशां सलतनत बहादुर (سرکوب سرکشان سلطنت بهادر) की उपाधि मिली थी।

राजा दर्शनसिंह की वीरता बखान में इतिहास का यह अंश बहुत बढ़ जायगा। राजा दर्शनसिंह ५ वर्ष तक वैसवाड़े के नाज़िम रहे । वैसवाड़े के तालुकदार क्या बड़े क्या छोटे सरकारी जमा देना जानते ही न थे। उनका बल बहुत बढ़ा हुआ था और उनकी गढ़ियों पर तोपें चढ़ी रहती थीं। दर्शनसिंह ने कुछ बड़े-बड़े ताल्लुकेदारों के नाम परवाने जारी किये जिनमें यह लिखा था कि अपनी भलाई चाहते हो तो तुरन्त उपस्थित हो कर सरकारी जमा दाखिल करो ताल्लुकदारों ने परवाने पाकर युद्ध करना निश्चय कर दिया। राजा दर्शनसिंह ने पहिले धावा मार कर मुरारमऊ की गढ़ी तोड़ी और गढ़ी के रक्षक एक पगडण्डी के रास्ते निकल भागे। इस गढ़ी के टूटने से और ताल्लुकदारों के छक्के छूट गये।

बलरामपूर के ताल्लुकेदार राजा दिग्विजयसिंह जी सरकारी जमा नहीं देते थे। राजा दर्शनसिंह ने सेना समेत बलरामपूर की गढ़ी पर चढ़ाई कर दी। राजा गोरखपूर को भाग गये और दूसरे साल नेपाल की तराई होकर अपने देश को लौटना चाहते थे कि राजा दर्शनसिंह ने समाचार पाकर एक लम्बी दौड़ लगाई और राजा के डेरे पर धावा मार दिया।[३] राजा अपना प्राण बचा कर भागे। उस दिन आने जाने में ४५ कोस की दौड़ हुई। नैपाल के हाकिम गोसाई जयकृष्ण पुरी ने सीमा पार करके नेपाल राज में प्रवेश करने के लिये दर्शनसिंह की शिकायत [ चित्र ]

सूर्यकुण्ड

[ चित्र ]

राजा दर्शन सिंह सरकोबे सरकशन सल्तनत बहादुर

[ १७१ ]नैपाल-दर्बार मे की। नैपाल के रेज़िडेण्ट ने लखनऊ के रेजीडेण्ट को लिख भेजा। बादशाही दर्बार से जवाब लिया गया और यह निर्णय हुआ कि लूट पाट में नेपाल की प्रजा की जो हानि हुई है वह राजा दर्शन सिंह से दिलवा दी जाय। राजा साहब ने हानि का (१४५३) तुरन्त दे दिया और फिर अपने काम पर बहाल हुये। बादशाह अमजद अली शाह के

समय में जब तक नव्वाब मुनव्वरउद्दौला वज़ीर रहे सारी सलतनत का प्रबन्ध राजा दर्शनसिंह को सौंपा गया। राजा साहब ने यहाँ तक इकरार नामा लिख दिया कि सरकारी जमा में जो कुछ बाक़ी रहेगा उसे हम देंगे। इसी समय में उनको कचहरी करने के लिये लालबारा दिया गया जहाँ अयोध्या-राज का प्रासाद अब तक विद्यमान है। इसी समय बीमार हो कर अयोध्या चले आये और श्रावण सुदी ७मी को अयोध्यावास लिया। राजा दर्शनसिंह के भाई इच्छासिंह भी सुल्तानपूर, गोंडा और बहराइच के नाजिम रहे। उनके सबसे छोटे बेटे का नाम रघुबर दयाल था। वह भी १२५३ फ़सली में गोंडा और बहराइच के नाज़िम हुये और उनको राजा रघुबर सिंह बहादुर की उपाधि मिली।

राजा बख्तावर सिंह और राजा दर्शनसिंह का मिल कर
इलाक़ा मोल लेना।

जब राजा बख्तावर सिंह ने अपने भाइयों को ऊँचे-ऊँचे पद दिलवा दिये तो उनकी यह इच्छा हुई कि अब जिमींदारी लेनी चाहिये और उन्होंने अनुमान १५०० गाँव मोल ले लिये और अपने सुप्रबन्ध से प्रजा को प्रसन्न रक्खा। जब मेजर स्लीमन ने सूबे अवध का दौरा किया तो मेहदौना राज की प्रजा की स्मृद्धि देख कर बहुत प्रसन्न हुथे जिसका वर्णन उनकी पुस्तक में किया गया है।

जब बादशाह नसीरउद्दीन हैदर का देहान्त हुआ और मेजर लो (Low) रेजिडेण्ट मुहम्मद अली शाह को तख्त पर बैठाने के लिये अपने [ १७२ ]साथ दरे-दौलत पर लाये, उस समय बादशाह बेगम और मुन्नाजान एक हज़ार हथियारबन्द सिपाहियों को लेकर महल में घुस आये। मुन्नाजान ने कहा कि सलतनत हमारी है और तख्त पर बैठ कर यह हुक्म दिया कि मुहम्मद अली शाह उसका बेटा अजमदअली शाह और उसके पोते वाजिदअली का बध कर दिया जाय। राजा बख़तावरसिंह ने बड़ी बुद्धिमानी से मुहम्मदअली शाह के परिवार को छिपाया। इतने में मड़िआवँ की छावनी से सेना आ गई। मुन्नाजान और बादशाह बेगम पकड़ लिये गये और मुहम्मदअली शाह तख्त पर बैठाये गये। मुहम्मदअली शाह ने बड़ी कृतज्ञता प्रकाश की और नानकार और गाँव और माफ़ी और जागीर देकर उन्हें मेहदौना के राजा की पदवी दी। इसी समय बख़तावर सिंह को वह तलवार दी गई जिसे कि ईरान के बादशाह नादिरशाह ने दिल्ली के बादशाह मुहम्मदअली शाह को उपहार में दिया था और मुहम्मदशाह से नव्वाब सफ़दरजंग ने पाया था।

सर महाराजा मानसिंह बहादुर, के॰ सी॰ एस॰ आई॰,
क़ायमजंग

राजा दर्शनसिंह के मरने पर सारे राज में गड़बड़ मच गया। जिन ताल्लुकेदारों का राज राजा बख़तावर सिंह ने ले लिया था, सब बिगड़ गये और अपनी-अपनी ज़िमींदारी दबा बैठे। राजा दर्शनसिंह के दो बेटे राजा रामअधीन सिंह, राजा रघुबर सिंह और कुछ और प्रतिष्ठित अधिकारियों ने यह निश्चय किया कि अपना देश छोड़ कर अंग्रेजी राज में चले जायें। जो धन अपने पास है उससे दिन कट जायँगे। उस समय महाराजा मानसिंह जिनका पूरा नाम हनुमानसिंह था, केवल १८ वर्ष के थे। उनकी छोटी अवस्था के कारण उनकी कोई सुनता न था। महाराजा मानसिंह में उत्साह भरा हुआ था। उन्होंने यह सोचा कि बादशाही को छोड़ कर अंग्रेजी राज में जाकर रहना, खाना और पाँव फैला कर सोना बनियों का काम है। हमारे पूर्व-पुरुषों [ चित्र ] 

महाराजा सर मानसिंह बहादुर, के॰ सी॰ एस॰ आई॰

[ १७३ ]ने बड़ी वीरता दिखाई जिससे उनको इतनी प्रतिष्ठा मिली। हमको भी चाहिये कि ऐसे राज को न छोड़ें जो लाखों रुपये के व्यय से प्राप्त हुआ है। लोग यही कहेंगे कि राजा दर्शनसिंह के मरने पर उनकी सन्तान में कोई ऐसा न निकला जो राज को सँभालता और अपने घर को देखता भालता। हम लोग ऐसे उत्साहहीन हुये कि बिना लड़े भिड़े अपने बाप दादों की कमाई खो बैठे।"

ऐसा विचार कर के उन्हों ने अपने भाईयों से कहा कि आप लोग अंग्रेजी राज में जायँ, मैं यहीं रहूँगा। उनके पास उस समय न कोश था और न सेना थी। इसीसे बिना पूछे थोड़े से वीरों के साथ निकल पड़े और कुछ विरोधियों से भिड़ गये। इस में उनकी जीत हुई। इस से उनके सारे राज में उनकी धाक बंध गई। उस समय किसी कारण से राजा बखतावरसिंह बादशाही में नजरबन्द थे। महाजन से ३ लाख रुपये लेकर उन्हें भी छुड़ाया और राजा बख्तावरसिंह फिर दर्बार में पहुँच गये। महाराजा मानसिंह के सुप्रबन्ध का समाचार बादशाह के कानों तक पहुँचा। उस समय सूरजपूर का तालुक़द़ार बड़ा अत्याचारी था। बादशाह को यह समाचार मिला कि उसने अपनी गढ़ी में ४०० बन्दी बन्द रखे हैं जिनको वह लकड़ी इकट्ठा करके जीते जी भस्म करना चाहता है। बादशाह ने राजा बख्तावर सिंह से कहा कि अपने भतीजे को इस दुष्ट को दण्ड देने के लिये आज्ञा दो। राजा साहब बड़ी चिन्ता में पड़ गये क्यों कि मानसिंह की उस समय उमर कम थी परन्तु बादशाह की आज्ञा कैसे टल सकती थी। महाराजा मानसिंह ने गुप्तचर भेजे तो विदित हुआ कि सूरजपूर के राजा की गढ़ी में ३ हाते हैं। तीन हजार सिपाही हथियारबन्द उपस्थित हैं और ग्यारह तोपें गढ़ी के बुर्ज़ों पर चढ़ी हैं। यह भी निश्चित रूप से विदित हुआ कि परसों सब बन्दी भस्म कर दिये जायँगे। महाराजा साहब ने सोचा कि सेना लेकर चलें तो गढ़ी घिर जायगी परन्तु बन्दी [ १७४ ]न बचेंगे। इस कारण तीन सौ वीर योद्धा लेकर कुछ रात रहे गढ़ी के पास पहुंचे और चर भेज कर यह जान लिया कि गढ़ी के एक कोने के पहरेवाले किसी काम से गये हुये हैं। महाराजा मानसिंह ने तुरन्त सीढ़ियाँ लगा कर बिना लड़े-भिड़े तीन सौ वीरों के साथ गढ़ी में प्रवेश किया और बन्दियों को और तोपों को अपने अधिकार में कर लिया। गढ़ी वाले चौंके तो चारों ओर से गोलियां चलाने लगे। महाराज मानसिंह ने उन्हीं की तोपें उन पर दागी और दो घण्टे में गढ़ी टूट गई, और अत्याचारी जीता पकड़ लिया गया। गढ़ी के अन्दर एक जगह लकड़ी का ढेर लगा हुआ था। उस दिन जय की दुन्दुभी न बजती तो सारे बन्दी भस्म कर दिये जाते। बन्दी छोड़ दिये गये । उस राजा की एक गढ़ी और थी जिसमें दो हजार सिपाही थे और बहुत सा गोला बारूद और खाने-पीने की सामग्री रक्खी हुई थी। वहाँ ईश्वर की लीला यह हुई कि गढ़ी के रक्षक डर के मारे गढ़ी छोड़ कर भाग गये। बादशाह ने मानसिंह की वीरता से प्रसन्न हो कर उनको राजा मानसिंह बहादुर की उपाधि दी। दूसरा वीरता का काम जो बादशाह की आज्ञा से किया गया सीहीपूर के राजा का दमन था। इसपर महाराजा मानसिंह को क़ायमजंग का पद मिला और एक विलायती तलवार जो ईरान के बादशाह ने बादशाह नसीरउद्दीन हैदर को उपहार में भेजी थी उनको दी गई। उनके पीछे कर्नल स्लीमन साहब के कहने से उन्होंने भूरे खाँ डाकू को पकड़ा जो काले पानी भेजा गया। इसके उपहार में बादशाह ने महाराजा मानसिंह को ग्यारह फैर तोप की सलामी दी। यह पद किसी को प्राप्त न था।

नाज़िमों की सलामी हुआ करती थी परन्तु महाराजा मानसिंह को इस अधिकार के बिना विचारे सलामी मिली। इसके बाद जब वाजिदअली शाह बादशाह हुये तो अजब सिंह डाकू के मारने पर महाराजा मानसिंह को झालरदार शमला और ताज के आकार की टोपी मिली। जगन्नाथ चपरासी भी बड़ा प्रबल डाकू था। उसके साथ छः सात सौ [ १७५ ]डाकू रहा करते थे। गाँवों को लूट लेता था और इस पर भी सन्तोष न करके सैकड़ों स्त्री पुरुषों को पकड़ ले जाता और बन्दूक के गज़ लाल करा के उनको दगवाता और उनके इष्ट बन्धुओं से बहुत सा धन लेकर उन्हें छोड़ता था। इसी अवसर पर महाराजा साहेब को एक हवादार भी मिला। तब से हवादार पर सवार हो कर बादशाही ड्योढ़ी तक जाते थे। इस डाकू के पकड़ने में महाराज मानसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई थी। अकेले उसको पकड़ने के लिये पहुँचे। उसने कड़ाबीन सर की। वीर महाराज ने लपक कर उसका हाथ उठा दिया। गोलियाँ उनके ऊपर से निकल गई और डाकू पकड़ लिया गया।

जब राजा बख़तावरसिंह बूढ़े हो गये तो उन्होंने महाराजा मानसिंह को लखनऊ बुलाया और अपना पद, अपना राजा, उनके नाम लिख कर बादशाही सरकार में अर्ज़ी दे दी। अर्ज़ी मंजूर हो गई। तब से राजप्रबन्ध महाराज मानसिंह करने लगे। १२५३ फसली में राजा रामाधीन सिंह के ऊपर ५१९२१-१॥ की बाक़ी थी उसे भी महाराज मानसिंह ने खजाने में जमा करके रामाधीन सिंह का हिस्सा अपने नाम करा लिया। राजा बख्त़ावर सिंह का इस्वी सन् १८४६ में स्वर्गवास हो गया।

इसके कई वर्ष पीछे जब हनुमान गढ़ी का झगड़ा उठा तो वादशाह ने महाराजा मानसिंह से कहा कि यहाँ तुम हिन्दुओं के सरदार हो। जैसे तुमसे बने इस झगड़े को निपटा दो। इस झगड़े का विवरण अध्याय १४ में दिया हुआ है। इस मामले की जाँच में मुसलमानों ने एक फ़रमान पेश किया था जिसमें लिखा था कि हनुमान गढ़ी के भीतर एक मसजिद है। महाराजा साहब को एक चर से यह समाचार मिला कि यह फ़रमान अवध के काजी का बनाया हुआ है और उसके पास दिल्ली के बादशाह नव्वाब शुजाउद्दौला आदि की मुहरें हैं। महराजा साहब ने काजी के, घर की तलाशी ली तो दिल्ली के बादशाहों, नव्वाब शुजाउद्दौला, नव्वाब आसफउद्दौला, नव्वाब सआदतअली खाँ और कई नाज़िमों, की मुहरें [ १७६ ]निकलीं । उन मुहरों को महाराज मानसिंह ने आर् साहब को सौंप दिया। प्रार् साहब ने उन मुहरों को देखा तो बनावटी फरमान पर उन्हीं में की कुछ मुहरें लगी थीं। पार् साहब ने उन मुहरों को बादशाही दर्बार में भेज दिया। इस कारगुजारी के बदले बादशाह ने राजा मानसिंह को राजे-राजगान का पद दिया। इसके कुछ दिन पीछे लखनऊ की बादशाही का अन्त हो गया और अंगरेजी राज स्थापित हुआ।

गदर हो जाने पर फैजाबाद में दो पल्टनें, एक रिसाला और दो तोप- खाने बागियों के हाथ में रहे और सुल्तानपूर की पल्टन भी उनसे मिलने पा रही थी। महाराजा मानसिंह के पास कोई सामान न था तो भी उन्होंने अपना धन और अपना प्राण अंग्रेजों को निछावर करके फैजाबाद के तीस अंग्रेजों मेमों और बच्चों समेत अपने शाहगंज के किले में सुरक्षित रक्खा और आप विद्रोहियों का सामना करने के के लिये डटे रहे । फिर उनको अपने सिपाहियों की रक्षा में गोला गोपालपूर पहुंचा दिया। इसी अवसर में चार मेमें और आठ अंग्रेजी बच्चे घाघरे के मांझा में बिना अन्न-जल मारे-मारे फिरते थे। महाराजा साहब ने सवा- रियाँ भेज कर उन्हें बुला लिया और पन्द्रह दिन तक अपने घर में रक्खा और फिर उनके कहने पर सौ कहार और ३६ पालकी कर के उनको प्रासबर्न साहब के पास बस्ती भेज दिया। इस पर लारेन्स साहब बहादुर ने उनको दो लाख रुपया और जागीर देकर महाराजा का पद दिया और यह भी कहा कि महाराज के वकील को अवध में जमीदारी दी जायगी।

इसी समय बागियों ने शाहगंज की गढ़ी घेर ली और महाराजा साहब के लाखों रुपये के मकान खोद डाले और जला दिये और बहुत सा धन लूट ले गये। परन्तु डेढ़ महीने के घेरे पर बड़ी वीरता से महाराजा साहब ने विद्रोहियों को मार भगाया । इसी अवसर पर राजा रघुवीर सिंह के घर का बहुत सा सामान जो अयोध्या में लाला ठाकुर प्रसाद[४] के घर [ १७७ ]पर धनवावाँ से भेज दिया गया था विद्रोहो लूट ले गये। इसके कुछ दिन पीछे नानपारे के मैदान में पन्दरह हज़ार बागी इकट्ठा हुये। महाराजा साहब बरगदिया के मैदान में बड़ी वीरता से उनसे भिड़ गये। उस समय गोरों की पल्टन भी आ गई थी परन्तु वह हट गई। केवल तीन तोपखाने महाराजा मानसिंह के साथ रहे। एक ही घण्टे के युद्ध में बागी भाग गये।

महाराजा मानसिंह को अंग्रेज़ी सरकार की खैरख्वाही करने पर भी अपने देश की भलाई का विचार रहा जिसका प्रमाण एक परवाना हमारे पास है जो उन्होंने लाला ठाकुरप्रसाद को लिखा था। उसका सारांश यह है:—

"मित्रवर लाला ठाकुरप्रसाद जी। प्रकट है कि आज-कल लखनऊ खास में सरकारी अमलदारी हो गई है और विद्रोह के कारण हज़ारों आदमी मारे जा रहे हैं। लखनऊ का झगड़ा हमको विदित है इस लिये तुमको लिखा जाता है कि पत्र के पाते हज़ार काम छोड़ कर इस काम को प्रधान मान कर हाकिमों के पास जाकर विनती करके हमको सूचना दो ... सफलता होने पर तुम्हारी सन्तान का पालन पीढ़ी दर पीढ़ी होगा।"

महाराजा मानसिंह को इन खैरख्वाहियों के बदले गोंडा ज़िले का तालुक़ा विशम्भरपूर उपहार में दिया गया और सात हजार रुपये की खिलत मिली और महाराजा की पदवी दी गई। उस सनद की प्रतिलिपि हमारे पास अब तक रक्खी है।

महाराजा मानसिंह का ११ अक्टूबर सन् १८७० ई० को स्वर्गवास हो गया। महाराजा साहब वीर होने के अतिरिक्त बड़े राजनीतिज्ञ और बड़े विद्वान और गुणग्राहक थे। उनके दरबार में पंडित प्रवीन आदि अनेक अच्छे कवि थे और आप द्विजदेव उपनाम से कविता करते थे। उनकी रची शृङ्गारलतिका नायिकाभेद का उत्तम ग्रन्थ है। स्वर्गवासी [ १७८ ]महाराज ने एक वसियतनामा लिखकर एक सन्दूक़चे में बन्द कर दिया था। वह सन्दूक़चा फैज़ाबाद के हाकिमों ने खोला तो उसमें लिखा था कि हमारे मरने पर हमारी विधवा महारानी सुभाव कुँवरि उत्तराधिकारिणी होगी। महारानी सहिबा ने उसी वसियतनामे के अधिकार से राजा रघुवीरसिंह के कनिष्ठ पुत्र लाल त्रिलोकीनाथ सिंह को गोद ले लिया। महाराजा मानसिंह के केवल एक बेटी श्रीमती ब्रजविलास कुँवरि उपनाम बच्ची साहिबा थीं जिनका विवाह आरे के रईस बाबू नरसिंह नारायण जी के साथ हुआ था। उन्हीं के पुत्र लाल प्रताप नारायण सिंह हुये जो ददुआ साहब के नाम से प्रसिद्ध थे।

लाल प्रतापनारायण सिंह ने अदालत में दावा कर दिया कि महाराजा मानसिंह के उत्तराधिकारी हम हैं। इस पर कई वर्ष तक मुकदमा चला। अन्त के सन् १८८७ में प्रिवी कौंसिल से उनको डिग्री हो गई और वे मेहदौना राज के मालिक हो गये।

महाराजा प्रतापनारायण सिंह ने बीस वर्ष राज किया। इनका समय विद्याव्यसन में बीतता था। इमारत बनवाने का बड़ा शौक़ था। अयोध्या का राजसदन और उसके भीतर कोठी मुक्ताभास उनकी सुरुचि और कारीगरी के अच्छे नमूने हैं। उनके सुप्रबन्ध से प्रसन्न होकर अंग्रेज़ी सरकार ने उनको महाराज अयोध्या (अयोध्यानरेश) की पदवी दी। विद्वत्ता के कारण उनको महामहोपाध्याय का पद मिला। महाराजा अनेक बार बड़े लाद की कौंसिल के सदस्य हुये और अपना काम बड़ी योग्यता से किया। उनके दरबार में विद्वानों की बड़ी प्रतिष्ठा होती थी। इस इतिहास के लेखक पर उनकी विशेष कृपा थी। उनके नायब राय राघवप्रसाद की भगिनी जिसका परसाल त्रिवेणी-पास हो गया इतिहास लेखक को ब्याही थी। इस कारण भी दरबार में विशेष मान था। महाराज प्रतापनारायण सिंह ने राय साहब के देहान्त होने पर मुझसे अनेक बार कहा कि अपने घर का काम देखो। [ चित्र ] 

महाराजा त्रिलोकीनाथ सिंह

[ चित्र ] 

महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रतापनारायण सिंह बाहदुर
के॰ सी॰ आई॰ ई॰, अयोध्या नरेश

[ १७९ ]परन्तु मेरे भाग्य में न था कि उनकी सेवा करता। पेंशन की प्रतीक्षा करता रहा। इतने में गुणग्राही महाराजा साहेब ने अयोध्यावास लिया। महाराजा साहेब का रचा हुआ रसकुसुमाकर ग्रन्थ उनके साहित्याज्ञान का नमूना है।

महामहोपाध्याय सर महाराजा प्रतापनारायण बहादुर के॰ सी॰ आई॰ ई॰ के देहावसान पर उनकी दूसरी पत्नी श्रीमती महारानी जगदम्बा देवी उनकी उत्तराधिकारिणी हुई। उन्होंने महाराज के वसियतनामे के "रू" से राजा इंचासिंह के कुल से लाल जगदम्बिका प्रतापसिंह को गोद लिया परन्तु महारानी साहेब के जीते जी वे केवल नाममात्र के राजा हैं।

 

  1. यह प्रसंग महाराजा त्रिलोकीनाथसिंह जी के लिखाये इतिहास के आधार पर लिखा गया है जो हमें महाराजा प्रतापनारायणसिंह जी से मिला था।
  2. सूर्यवंशी राजाओं की सूची का ६४वाँ राजा जो महाभारत में अभिमन्यु के हाथ से मारा गया था।
  3. Oudh Gazetteer, p. 218.
  4. राज के वकील और मेरी सी के चाचा ।