[ ६५ ]अप्सरा गाड़ी के पास आ गए । अर्दली ने दरवाजा खोल दिया। दोनो बैठ गए । मोटर चल दी। ___घर आ कनक ने राजकुमार को अपने पढ़नेवाले कमर में छोड़ दिया, श्राप माता के पास चली गई। नौकर ने बालमारियों की चाभी खोल दी। राजकुमार किताबें निकालकर देखने लगा। अँगरेजी साहित्य के बड़े-बड़े सब कवि. नाटककार और औपन्यासिक मिले। दूसरे देशों के बड़े-बड़े साहित्यिकों के अँगरेजी अनुवाद भी रक्खे थे। राजकुमार श्राग्रह-पूर्वक किताबों के नाम देखता रहा। ___ कनक माता के पास गई। सर्वेश्वरी ने सस्नेह कन्या को बैठा लिया। "कोई तकरार तो नहीं की ?" माता ने पूछा। "तकरार क्या, अम्मा, पर उड़ता हुआ स्वभाव है, यह पीजड़ेवाले नहीं हो सकते।" कनक ने लज्जा से रुकते हुए स्वर से कहा। कन्या के भविष्य-सुख की कल्याण-कल्पना से माता की आँखो में चिता की रेखा अंकित हो गई।" तुम्हें प्यार तो करते हैं न?" कनक का सौंदर्य-दीप्त मस्तक आप-ही-श्राप मुक गया। ___हाँ बड़े सहृदय हैं, पर दिल में एक भाग है, जिसे मैं बुझा नहीं सकती, और मेरे विचार से उस आग के बुझाने की कोशिश में मुझे अपनी मर्यादा से गिर जाना होगा. मैं ऐसा नहीं कर सकती, चाहती भी नहीं बल्कि देखती हूँ, मैं स्वभाव के कारण कभी-कभी उसमें हवा का काम कर जाती हूँ।" ___ इसीलिये तो मैंने तुम्हें पहले समझाया था, पर तुम्हें अब अपनी तरफ से कोई शिक्षा में दे नहीं सकती। ___आज अपना पकाया भोजन खिलाने का वादा किया है, अम्मा !" कनक उठकर खड़ी हो गई । कपड़े बदलकर नहाने के कमरे में चली गई। नौकर को तिमंजिलेवाले खाली कमरे में भोजन का कुल सामान तैयार रखने की आज्ञा दे दी। राजकुमार एक कुर्सी पर बैठा संवाद-पत्र पढ रहा था। हिंदी और [ ६६ ]५६ अप्सरा अंगरेजी के कई पत्र कायदे से टेबिल पर रक्खे थे। एक पत्र में बड़े- बड़े अक्षरों में लिखा था-"चंदनसिंह गिरफ्तार ." ___ आग्रह-स्फारित आँखों से एक साँस में राजकुमार कुल इबारत पढ़ गया। लखनऊ-षड्यंत्र के मामले में चंदन गिरफ्तार किया गया था।दनो एक ही साथ कॉलेज में पढ़ते थे। दोनो एक ही दिन अपने- अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिये मैदान में आए थे। चंदन राजनीति की तरफ गया था। राजकुमार साहित्य की तरफ । चंदन का स्वभाव कोमल था, हृदय उन । व्यवहार में उसने कभी किसी को नीचा नही दिखाया। राजकुमार को स्मरण आया, वह जब उससे मिलता, झरने की तरह शुभ्र स्वच्छ बहती हुई अपने स्वभाव की जल-राशि में नहला वह उसे शीतल कर देता था। वह सदा ही उसके साहित्यिक कार्यों की प्रशंसा करता रहा है। उसे वसंत की शीतल हवा में सुगंधित पुष्पों के प्रसन्न कौतुक-हास्य के भीतर कोयलों, पपीहों तथा अन्यान्य वन्य विहंगों के स्वागतगीत से मुखर डालों की छाया से होकर गुजरने- वाला देवलोक का यात्री ही कहता रहा है, और अपने को प्रीष्म के तपे हुए मार्गो का पथिक, संपत्तिवालों की ऋर हास्य-कुंचित दृष्टि में फटा निस्सम्मान भिक्षुक, गली-गली की ठोकरें खाता हुआ; मारा- माय फिरनेवाला रस-लेश रहित कंकाल बतलाया करता था। वहीं मित्र, दुख के दिनों का वही साथी, सुख के समय का वही संयमी आज निस्सहाय की तरह पकड़ लिया गया। राजकुमार क्षब्ध हो उठा। अपनी स्थिति से उसे घृणा हो गई। एक तरफ उसका वह मित्र था, और दूसरी तरफ माया के परिमल वसंत में कनक के साथ वह ! छिः छिः, वह और चंदन ? . राजकुमार की सुप्त वृत्तियाँ एक ही अंकुश से सतर्क हो गई। उसकी प्रतिज्ञा घृणा की दृष्टि से उसे देख रही थी-“साहित्यिक ! तुम कहाँ हो ? तुम्हें केवल रस-प्रदान करने का अधिकार है, रस-ग्रहण करने का नहीं।"

उसी की प्रकृति उसका तिरस्कार करने लगी- आज आँसु [ ६७ ]
६०
अप्सरा

मे अपनी श्रृंगार की छवि देखने के लिये आए हो?-कल्पना के प्रासाद-शिखर पर एक दिन एक की देवी के रूप से, तुमने पूजा की, आज दूसरी को प्रेयसी के रूप से हृदय से लगाना चाहते हो ?-- छि:-छिः, संसार के सहस्रों प्राणों के पावन संगीत तुम्हारो कल्पना से निकलने चाहिए । कारण, वहाँ साहित्य की देवी सरस्वती ने अपना अधिष्ठान किया, जिनका सभी के हृदयों में सूक्ष्म रूप से वास है। आज तुम इतने संकुचित हो गए कि उस तमाम प्रसार को सीमित कर रहे हो ? श्रेष्ठ को इस प्रकार बंदी करना असंभव है, शीघ्र ही तुम्हें उस स्वर्गीय शक्ति से रहित होना होगा। जिस मेघ ने वर्षा की जलद-राशि वाष्प के आकार से संचित कर रक्खी थी, आज यह एक ही हवा चिरकाल के लिये उसे तृष्णात भूमि के ऊपर से उड़ा देगी।" ___ राजकुमार त्रस्त हो उठा । हृदय ने कहा, सल्ती की। निश्चय ने सलाह दी, प्रायश्चित्त करो। बंदी की हँसती हुई आँखों ने कहा, साहित्य की सेवा करते हो न मित्र ?-मेरी मा थी जन्मभूमि और तुम्हारी मा भाषा-देखो, आज माता ने एकांत में मुझे अपनी गोद मे, अंधकार गोद में छिपा रक्खा है, तुम अपनी माता के स्नेह की गाद में प्रसन्न होन? ____ व्यंग्य के सहनों शूल एक साथ चुभ गए । जिस माता को वह राज-राजेश्वरी के रूप में ज्ञान की सर्वोच्च भूमि पर अलंकृत बैठी हुई देख रही थी, आज उसी के नयनों में पत्र की दशा पर करुणाश्रु वह रहे थे। एक ओर चंदन की समाहत मूर्ति देखी, दूसरी ओर अपनी तिरस्कृत। राजकुमार अधीर हो गया। देखा. सहस्रों दृष्टियाँ उसकी ओर इंगित कर रही हैं. यही है यही है-इसी ने प्रतिज्ञा की थी। देखा, उसके कुल अंग गल गए हैं। लोग, उसे देखकर, घृणा से मुँह फेर लेते हैं। मस्तिष्क में जोर देकर, आँखें फाड़कर देखा, साक्षात् देवी एक हाथ में पूजाय की तरह थाली लिए हुए, दूसरे में वासित जल, कुल रहस्यों की एक ही मूर्ति में निस्संशय उत्तर की तरह, धीरे-धीरे, [ ६८ ]अप्सरा प्रशांत हेरती हुई, अपने अपार सौंदय की आप ही उपमा, कनक श्रा रही थी। जितनी दूर-जितनी दूर भी निगाह गई, कनक साथ-ही- साथ, अपने परमाणुओं में फैलती हुई, दृष्टि की शांति की तरह, चलती गई। चंदन, भाषा, भूमि, कहीं भी उसकी प्रगति प्रतिहत नहीं । सबने उसे बड़े श्रादर तथा स्नेह की स्निग्ध घष्टि से देखा। पर राज- कुमार के लिये सर्वत्र एक ही सा व्यंग्य, कौतुक और हास्य ! कनक ने टेबिल पर तश्तरी रख दी। एक और लोटा रख दिया । नौकर ने ग्लास दिया, भरकर ग्लास भी रख दिया। “भोजन कीजिए" शांत दृष्टि से राजकुमार को देख रही थी। राजकुमार परेशान था। उसी के हाथ, उसी की आँखें, उसकी इंद्रिय-तंत्रियाँ उसके वश में नहीं थीं। विद्रोह के कारण सब विखल हो गई थीं। उनका सम्राट ही उस समय दुर्बल हो रहा था । मर्राई आवाज से कहा-"नहीं खाऊँगा।" कनक को सख्त चोट आई। "क्यों " "इच्छा नहीं।" "क्यों ?" "कोई वजह नहीं। कनक सहम गई । क्या ? जिसे होटल में खाते हुए कोई संकोच नहीं, वह बिना किसी कारण के हो उसका पकाया हुआ नहीं खा ___"कोई वजह नहीं.” कनक कुछ कर्कश स्वर से बोली। राजकुमार के सिर पर जैसे किसी ने लाठी मार दी। उसने कनक की तरफ देखा, आँखों से दुपहर की लपटें निकल रही थीं। कनक डर गई । खोजकर भी उसने कोई कुसूर नहीं पाया। आप ही-आप साहस ने उमड़कर कहा, खाएँगे कैसे नहीं। "मेरा पकाया हुआ है।" "किसी का हो।" [ ६९ ]"किसी का हो!" कैसा उत्तर ! कनक कुछ संकुषित हो गई। अपने जीवन पर सोचने लगी। खिन्न हो गई। माता की बात याद आई। वह महाराज-कुमारी है। आँखों में साहस चमक उठा। राजकुमार तमककर खड़ा हो गया। दरवाजे की तरफ चला। कनक वहीं पुतली की तरह, निकि, अनिमेष नेत्रों से राजकुमार के आकस्मिक परिवर्तन को पढ़ रही थी। चलते देख स्वभावतः बढ़कर उसे पकड़ लिया। "कहाँ जाते हो?" "छोड़ दो। "क्यों ? "छोड़ दो।" राजकुमार ने झटका दिया । कनक का हाथ छूट गया । कलाई दरवाजे से लगी। चूड़ी फूट गई। हवा में पीपल के पत्ते की तरह शंका से हृदय काँप उठा । चूड़ी कलाई में गड़ गई थी, खून आ गया। राजकुमार का किसी भी तरफ ध्यान नहीं था, वह बराबर बढ़ता गया। कलाई का खून झटकती हुई बढ़कर कनक ने बाहों में बाँध निया-कहाँ जाते हो? कनक फूट पड़ी, आँसुओं का तार बँध गया । निरशब्द कपोलों से बहते हुए कई बूँद आँसू राजकुमार की दाहनी भुजा पर गिरे। राजकुमार की जलती आग पर आकाश के शिशिर-कणों का कुछ भी असर न पड़ा। "नहीं खाओगे?" "आज रही, बहुत-सी बातें हैं, सुन लो, फिर कभी न आना, मैं हमेशा तुम्हारी राह छोड़ दिया करूंगी।" [ ७० ]अप्सरा "क्यों ?" "तबियत ।" "तबियत ?" "जाओ कनक ने छोड़ दिया। उसी जगह, तस्वीर की तरह खड़ी, आँसुओ की दृष्टि से, एकटक देखती रही। राजकुमार सीधे नीचे उतर आया। दरवाजे से कुछ ही दूर तीन-चार आदमी खड़े आपस में बतला रहे थे। "उस रोज गाना नहीं सुनाया।" दूसरे ने कहा-"उसके घर में कोई रहा होगा, इसलिये बहाना कर दिया कि तबियत अच्छी नहीं।" तीसरा बोला-"लो, यह एक जा रहे हैं।" "अजी यह वहाँ जायेंगे ? बेटा निकाल दिए गए ! देखो, सूरत क्या कहती है।" राजकुमार सुनता जा रहा था। एक बराल एक मोटर खड़ी थी। फुटपाथ पर ये चारो बतला रहे थे। घृणा से राजकुमार का अंग-अंग जल उठा। इन बातों से क्या उसके चरित्र पर कहीं संदेह करने की जगह रह गई ? इससे भी बड़ा प्रमाण और क्या होगा ? छिः । इतना पतन भी राजकुमार जैसा दृढ़-प्रतिज्ञ पुरुष कर सकता है ? उसे मालूम हुआ, किसी अंध कारागार से मुक्ति मिली, उसका उतनी देर के लिये रौरव-भोग था, समाप्त हो गया। वह सीधे कार्नवालिस स्ट्रीट की तरफ चला । चोर बागान, अपने डेरे पर पहुँच ससंकाच कपड़े उतार दिए, धोती बदल डाली। नए कपड़े लपेटकर नीचे एक बग़ल जमीन पर रख दिए। हाथ-पैर धो अपनी चारपाई पर लेट रहा । बिजली की बत्ती जल रही थी। __चंदन की याद आई । बिजली से खिंची हुईसी कनक वहाँ अपने प्रकाश में चमक उठी। राजकुमार जितनी ही नफरत, जितनी ही [ ७१ ]६१ अप्सरा उपेक्षा, जितनी ही घृणा कर रहा था, वह उतनी ही चमक रही थी। ऑखों से चंदन का चित्र उस प्रकाश में छाया की तरह विलीन हो जाता, केवल कनक रह जाती थी। कान बराबर वह मधुर स्वर सुनना चाहते थे। हृदय में लगातार प्रतिध्वनि होने लगी, आज रहा, बहुत-सी बातें है, सुन लो, फिर कभी न आना, मैं हमेशा तुम्हारी राह छोड़ दिया करूंगी। राजकुमार ने नीचे देखा, अखबार- वाला झराखे से उसका अखबार डाल गया था। उठाकर पढ़ने लगा। अक्षर लकीर से मालूम पड़ने लगे। जोर से पलकें दबा ली। हृदय मे उदास कनक खड़ी थी-"आज रहो ।" राजकुमार उठकर बैठ गया । एक कुर्ता निकालकर पहनते हुए घड़ी की तरफ़ देखा, ठीक दस का समय था। बाक्स खोलकर कुछ रुपए निकाले । स्लीपर पहनकर बत्ती बुझा दी। दरवाजा बंद कर दिया। बाहर सड़क पर आ खड़ा देखता रहा। "टैक्सी टैक्सी खड़ी हो गई। राजकुमार बैठ गया। “कहाँ चलें बाबू।" "भवानीपुर ।" टैक्सी एक दोमंजिले मकान के गेट के सामने, फुटपाथ पर, खड़ी हुई । राजकुमार ने भाड़ा चुका दिया। दरबान के पास जा खबर देने के लिये कहा। ___ "अरे मैया, यहाँ बड़ी आफत रही, अब आपको मालूम हो ही जायगा, माताजी को साथ लेकर बड़े भैया लखनऊ चले गए हैं, घर बहूरानी अकेली हैं।" एक साँस में दरबान सुना गया। फिर दौड़ता हुआ मकान के नीचे से "महरी-ओ महरी सो गई क्या ?" पुकारने लगा। महरी नीचे उतर आई। "क्या है ? इतनी रात को महरी-ओ महरी- "अरे भाई खफा न हो, जय बहूरानी को खबर कर दे कि रज्जू बाबू खड़े हैं।" [ ७२ ]अप्सरा ६५ ___ "यह बात नीचे से नहीं कह सकते थे क्या ?" तीन जगह से लोच खाती हुई, खास तौर से दरबान को अपनी नजाकत दिखाने के उद्देश्य से, महरी चली गई। इस दरबान से उसका कुछ प्रम था। पर ध्वनितस्व के जानकारों को इस दरबान के प्रति बढ़ते हुए अपने प्रेम का पता लगने का मौका अपने ही गले की आवाज से वह किसी तरह भी न देती थी। ___ ऊपर से उतरकर दासी राजकुमार को साथ ले गई। साफ अल्प- सजित एक बड़े-से कमरे में २१-२२ साल की एक सुंदरी युवती पलंग पर, संध्या की संकुचित सरोजिनी की तरह, उदास बैठी हुई थी। पलकों के पत्र आँसुओं के शिशिर से मारी हो रहे थे। एक ओर एक विखल अँगरेजी संवाद-पत्र पड़ा हुआ था। ____ "कई रोज बाद आए, रज्जू बाबू, अच्छे हो ?” युवती ने सहज धीमे स्वर से पूछा। "जी।" राजकुमार ने पलँग के पास जा, हाथ जोड़ सर मुका दिया। “बैठो।" कंधे पर हाथ रख युवती ने प्रति-नमस्कार किया। पास की एक कुर्सी पलंग के बिलकुल नजदीक खींचकर राजकुमार बैठ गया। "रज्जू बाबू, तुम बड़े मुरझाए हुए हो, चार ही रोज में आधे रह गए, क्या बात ?" ___"तबियत अच्छी नहीं थी।" इच्छा के रहते हुए भी राजकुमार को अपनी विपत्ति की बातें बतलाना अनुचित जान पड़ा। "कुछ खाया तो क्यों होगा ?" युवती ने सस्नेह पूछा। "नहीं, इस वक्त नहीं खाया।" राजकुमार ने चिंता से सर झुका लिया। "महरी-" महरी सुखासन में बैठी हुई, कुछ बीड़ों में चूना और कत्था छोड़, “चिट्ट-चिट्ट" सुपारी कतर रही थी। आवाज पा, सरीत. रखकर दौड़ी। "जी" महरी पलंग की बगल में खड़ी हो गई। [ ७३ ]अप्सरा ___ "मिठाई, नमकीन और कुछ फल तश्तरी में ले आना।” महरी चली गई। "हम लोग बड़ी विपत्ति में फंस गए हैं, रज्जू बाबू, अखबार में तुमने पढ़ा होगा।" "हाँ, अभी ही पढ़ा है। पर विशेष बातें कुछ समझ नहीं सका।" __"मुझे भी नहीं मालूम | छोटे बाबू ने तुम्हारे भैया को लिखा था कि वह वहाँ किसानों का संगठन कर रहे हैं। इसके बाद ही सुना, लखनऊ षड्यंत्र में गिरफ्तार हो गए।" युवती की आँखें भर आई। राजकुमार ने एक लंबी साँस ली। कुछ देर कमरा प्रार्थना मंदिर की तरह निस्तब्ध रहा। __"बात यह है कि राजकर्मचारी लोग बहुत जगह अकारण लांछन लगाकर दूसरे विभाग के कार्यकर्ताओं को भी पकड़ लिया करते हैं।" "अभी तो ऐसा ही जान पड़ता है।" ऐसी ही बात होगी बहूजी, और जो लोग छिपकर बागी हो जाते हैं, उन्हें चाग्री करने की जिम्मेदारी भी यहीं के अधिकारियों पर है। उनके साथ इनका कुछ ऐसा तीखा बर्ताव होत है, वे जैसी नीच निगाह से उन्हें देखते हैं, ये लोग बरदाश्त नहीं कर सकते, और उनकी मनुष्यता, जिस तरह भी संभव हुआ, इनके अधिकारों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर बैठती है। ___ "मुमकिन है, ऐसा ही कुछ छोटे बाबू के साथ भी हुआ हो।" ____बहूजी, चलवे समय भैयाजी और कुछ भी तुमसे नहीं कह गए ?" तेज निगाह से राजकुमार ने युवती को देखकर कहा। "ना।" युवती सरल नेत्रों से इसका आशय पूछ रही थी। “यहाँ चंदन की किसी दूसरी तरह की चिट्टियाँ वो नहीं हैं ?" युवती घबराई हुई-"मुझे नहीं मालूम !" "उनकी विप्लवात्मक किताबें तो होंगी, अगर ले नहीं गए ?" "मैंने उनकी आलमारी नहीं देखी। युवती का कलेजा धक-धक करने लगा। [ ७४ ]अप्सरा "तअज्जुब क्या अगर कल पुलिस यहाँ सर्च करे ?" युवती त्रस्त चितवन से सहायता की प्रार्थना कर रही थी। "अच्छा हुआ तुम आ गए रज्जू बाबू, मुझे इन बातों से बड़ा डर लग ___“बहूजी !' राजकुमार ने चिंता की नजर से, कल्पना द्वारा दूर परि- णाम तक पहुँचकर, पुकारा। . ____ "क्या ? स्वर के तार में शंका थी। ___"ताली तो आलमारियों की होगी तुम्हारे पास ? चंदन की पुस्तकें और चिट्ठियाँ जितनी हों, सब एक बार देखना चाहता हूँ । युवती घबराई हुई उठकर द्वार की ओर चली । खोलकर तालियों का एक गुच्छा निकाला । राजकुमार के आगे-आगे जीने से नीचे उतरने लगी, पीछे राजकुमार अवश्यंभावी विपत्ति पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करता हुआ नीचे एक बड़े से हाल के एक ओर एक कमरा था। यह चंदन का कमरा था। वह जब यहाँ रहता था, प्राय: इसी कमरे में बंद रहा करता था। ऐसा ही उसे पढ़ने का व्यसन था। कमरे में कई आलमारियाँ थीं । आलमारियों की अद्भुत किताबें राजकुमार की स्मृति में अपनी करुणा की कथाएँ कहती हुई सहानु- भूति की प्रतीक्षा में मौन वाक रही थीं । कायगार उन्हें असह्य हो रहा था। वे शीघ्र अपने प्रिय के पाणिग्रहण की आशा कर रही थीं। "बहूजी, गुच्छा मुझे दे दो। राजकुमार ने एक आलमारी खोली । एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, किताबें निकालता हुआ, फटाफट फर्श पर फेंक रहा था। युवती यंत्र की तरह एक टेबिल के सहारे खड़ी अपलक दृष्टि से उन किताबों को देख रही थी। दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी, कुल पालमारियों की राज- कुमार ने अच्छी तरह तलाशी ली। जमीन पर करीब-करीब डेढ़-दो सौ किताबों का ढेर लग गया। फ्रांस रूस, चीन अमेरिका भारत, इजिप्ट, गिलैंड सब देशों की, [ ७५ ]६८ अप्सरा सजीव स्वर में बोलती हुई, स्वतंत्रता के अभिषेक से दस-मुख, मनुष्य का मनुष्यता की शिक्षा देनेवाली किताबें थीं। राजकुमार दो मिनट तक दोनो हाथ कमर से लगाए उन किताबों को देखता रहा। युवती राजकुमार को देख रही थी। टप-टप कई बूंद आँसू राजकुमार की ऑखों से गिर गए। उसने एक ठंडी साँस ली। मुकुलित आँखों से युवती भविष्य की शंका की ओर देख रही थी। ___ "ये कुल किताबें अब चंदन के राजनीतिक चरित्र के लिये आपत्ति- कर हो सकती हैं।" ___ "जैसा जान पड़े, करो।" • "भैयाजी इन्हें जला देते।" "और तुम ?" "मैं जला नहीं सकूँगा।" "तब ?" "भाई चंदन, तुम जीते। मेरी सौंदर्य की कल्पना एक दूसरी जगह छिन गई, मेरी दृढ़ता पर तुम्हारी विजय हुई।" राजकुमार सोच रहा था, युवती राजकुमार को देख रही थी। "इन्हें मैं अपने यहाँ ले जाऊँगा।" "अगर तुम भी पकड़ लिए गए ? न, रज्जू बाबू इनको फूक दो।" राजकुमार की आँखों से युवती डर गई। राजकुमार ने किताबों को एकत्र कर बाँधा।"और जहाँ-जहाँ आप जानती हों, जल्द देख लीजिए । अब दो तो बजे होंगे ?" युवती कर्तव्य-रहित की तरह निर्याक खड़ी राजकुमार की कार्यवाही देख रही थी। सचेत हो उपर की कोठरियों के काराज-पत्र देखने चली। कमरे के बाहर महरी खड़ी हुई मिली। एकाएक इस परिवर्तन को देखकर भोतर आने की उसकी हिम्मत नहीं हुई । वहशत खाई हुई बोली, जल-पान बड़ी देर से रक्खा है। युवती लौट आई। राजकुमार से कहा, रब्जू बाबू पहले कुछ जल पान कर लो। [ ७६ ]अप्सरा "आप जल्द जाइए, मैं खा लूगा, वहीं टेबिल पर रखवा दीजिए।" यवती चली गई। महरी ने वहाँ चंदन की टेबिल पर तश्तरी रख दी। ढक दिया । लोटा ढक्कनदार जल-मरा और ग्लास रख दिया। - शीघ्र ही दुबारा कुल आलमारियों की जाँच कर ऊपर चला गया। दो-एक घरेलू पत्र ही मिले। "तुमसे एक बात कहता हूँ।" "भैयाजी कब तक लखनऊ रहेंगे ?" "कुछ कह नहीं गए। "शायद जब तक चंदन का एक फ़ैसला न हो जाय, तब तक "संभव है।" "आप एक काम करें।" "क्या "चलिए, आपको आपके मायके छोड़ दूं।" . युवती सोचती रही। "सोचने का समय नहीं जल्द हाँ-ना कीजिए।" "चलो।" “यहाँ सिपाही लोग रहेंगे। आवश्यक चीजें और अपने गहने और नकद रुपए जो कुछ हों, ले लीजिए। शीघ्र सब ठीक कर लीजिए, जिससे चार बजे से पहले हम लोग यहाँ से निकल जायें।" "मुझे बड़ा डर लग रहा है, रज्जू बाबू !" "मैं हूँ अभी, अभी कोई इंसान आपका क्या बिगाड़ लेगा? मैं लौटकर आपको लैस देख। राजकुमार गैरेज से मोटर ले आया । किताबों का लंबा-सा बधा हुआ बंडल उठाकर सीट के बीच में रख बैठ गया। फिर बलवत्ते की तरफ उड़ चला। अपनी कोठी पहुँचा। जिस तरह फाटक का छोटा दरवाजा वह [ ७७ ]७. अप्सरा खोलकर चिपका गया था, वैसा ही था, धक्के से खुल गया। सिपाही को फाटक बंद करने के समय छोटे दरवाज़ का खयाल नहीं पाया। राजकुमार किताबों का बंडल लेकर अपने कमरे में गया । बाक्स का सामान निकाल किताबें भर दी। ताला लगा दिया। जल्दी में जो कुछ सूझा, बाँधकर बत्ती बुझा दी। दरवाजा बंद कर दिया । फिर वह मोटर पर अपना सामान रख भवानीपुर चल दिया । जब भवानीपुर लौटा, तो तीन बजकर पंद्रह मिनट हुए थे। ____ "क्या-क्या लिया, देखू ?" युवती अपना सामान दिखलाने लगी। एक बाक्स में कुछ कपड़े, ८-१० हजार के गहने और २० हजार के नंबरी नोट थे। यह सब उसका अपना सामान था। महरी को मकान की झाड-पोंछ करने के लिये वहीं रहने दिया । रक्षा के लिये चार दरबान थे। युवती ने सबको ऊपर बुलाया। अच्छी तरह रहकर मकान की रक्षा करते हुए सुख- पूर्वक समय पार करने के कुछ उपदेश दिए । दरबानों को विपत्ति की सूचना हो चुकी थी। कुछ न बोले। महरी बाहर से दुखी थी, पर भीतर से एकांत की चिंता से खुश थी। बहू का बाक्स उठाकर एक दरबान ने गाड़ी पर रख दिया। वह राजकुमार के साथ-साथ नीचे उतरी। गेट की बराल में शिवमंदिर था, मंदिर में जा भगवान विश्वनाथ को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। राजकुमार ने ड्राइवर को बुलाया । गाड़ी गेट के सामने लगाए हुए चारो तरफ देख रहा था। अपनी रिस्टवाच में देखा, साढ़े चार हा गया था। ड्राइवर पाया, राजकुमार उतर पड़ा। "जल्दी कीजिए। बहू प्रणाम कर लौट आई। महरी ने पीछे की सीट का दरवाजा खोल दिया । बहू बैठकर कालीजी को प्रणाम करने लगी । बगल में राजकुमार बैठ गया। सामने सीट पर एक दरबान । “अगर कोई पुलिस की तरफ से यहाँ आए, वो कह देना कि मकान [ ७८ ]श्रप्सरा में कोई नहीं है। अगर इस पर भी वे मकान की तलाशी लें, तां घबराना मत, और हरएक की पहले अच्छी तरह तलाशी ले लेना, रोज अच्छी तरह मकान देख लिया करना । अपनी तरफ से कोई सख्ती न करना । डरने की कोई बात नहीं।" "अच्छा हुजूर ।" "चलो" राजकुमार ने ड्राइवर से कहा-'सियालदह ।" गाड़ी चल दी, सोधे चौरंगी होकर आ रही थी। अब तक अँधेरा दूर हो गया था। ऊषा उगते हुए सूर्य के दूरप्रकाश से अरुण हो चली थी, जैसे भविष्य की क्रांति का काई पूर्व लक्षण हो । राजकुमार की चिंताग्रस्त असुप्त आँखें इसी तरह लाल हो रही थीं। बगल में अनवगुंठित बैठी हुई सुंदरी की आँखें भी, विषाद तथा अनिद्रा के भार से छलछलाई हुई, लाल हो रही थीं। गाड़ी सेंट्रल ऐवेन्यू पार कर अब बहूबाजार-स्टीट से गुजर रही थी। गर्मियों के दिन थे। सूर्य का कुछ-कुछ प्रकाश निकल चुका था। मोटर ठीक पूर्व जा रही थी। दोनो के मुख पर सुबह की किरणें पड़ रही थीं। दोनो के मुखों की क्लांति प्रकाश में प्रत्यक्ष हो रही थी। एकाएक राजकुमार की दृष्टि स्वतःप्ररित की तरह एक तिमंजिले, विशाल भवन की तरफ उठ गई। युवती भी आकर्षक मकान देखकर ताकने लगी-बरामदे पर कनक रेलिंग पकड़े हुए एक दृष्टि से मोटर की तरफ देख रही थी, उसकी भी अनिय सुंदर आँखों में ऊषा की लालिमा थी। उसने राजकुमार को पहचान लिया। दोनो की आँखें एक ही लक्ष्य में चुभ गई। कनक स्थिर खड़ी ताकती रही। राजकुमार ने आँखें मुका ली। उसे कल के लोगों की बातें याद आई-घृणा से साग जर्जर हो गया। “बहूजी, देखा। "हाँ, इस खूबसूरत लड़की को ?" "हाँ, यही ऐक्ट्स कनक है।" मोटर मकान पार कर गई । राजकुमार बैठा रहा। युवती ने फिरकर फिर देखा । कनक वैसी ही खड़ी वाक रही थी।