अप्सरा  (1931) 
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

पृष्ठ १ से – ११ तक

 


११७






अप्सरा



संपादक

सर्वप्रथम देव-पुरस्कार-विजेता

श्रीदुलारेलाल

(सुधा-संपादक)

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उत्तमोचम उपन्यास और कहानियाँ रंगभूमि (दोनो भाग), निःसहाय हिंदू , my बहता हुआ पूज ), ID नादिरा २.२ हदय की परखy प्रत्यागत हृदय की मास २, ३) प्रतिमा ay, ग-कुंडार ) पतन 9, 10) विराटा की पत्रिकी ).my अब सूर्योदय होगा । " मदारी J. २१ विदा ससुराज 10, my भाई सुपरनोवानि २॥ प्रेम-परीक्षा मा y,any कर्म-मार्ग m विकास (बोनो भाग)), sy कुंडली-पक विजया . ) गिरिवाना विजप (दोनो भाग) कर्म-फल बीर-मणि विचित्र योगी अवका ", पविध पापी U Jimmy पाप की ओर "," प्रवास का ध्याह ) मान्य . जागरस ), प्रेमकी मेंट 10 ] कोतवाल की करामात , वारिका Y.ny संगम , सब प्रकार की हिंदी पुस्तकें मिलने का पता केव पोरी जूनिया

संचालक गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय, लखनऊ

गंगा-पुस्तकमाला का ११७ वां पुष्प

अप्सरा

[सामाजिक उपन्यास]

लेखक

श्रीसूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला

(परिमल, प्रबंध-पद्म, अलका, लिली आदि के प्रणेता)

——:○:——

मिलने का पता—

गंगा-ग्रंथागार

३६, लाश रोड

लखनऊ


द्विवीयावृत्ति

सजिल्द २।)j:
[बादी १।।)
सं० २००० वि०
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श्रीबुहारेबाब अध्यक्ष गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय लखनऊ श्रीबुवारेखा अध्यक्ष गंगा-भाइनमार्ट प्रेस लखनऊ




समर्पण
अप्सरा को साहित्य में सबसे पहले मंद गति से सुंदर-सुकुमार कवि-मित्र श्रीसुमित्रानंदन पंत की ओर बढ़ते हुए देख मैंने रोका नहीं। मैंने देखा, पंतजी की तरफ एक लेह-कटाक्ष कर, सहज फिरकर उसने मुझसे कहा, इन्हीं के पास बैठकर इन्हीं से मैं अपना जीवन-रहस्य कहूँगी, फिर चली गई।
वक्तव्य

अन्यान्य भाषाओं के मुकाबले हिंदी में उपन्यासों की संख्या थोड़ी है। साहित्य तथा समाज के गले पर मुक्ताओं की माला की तरह इने-गिने उपन्यास ही हैं। मैं श्रीप्रेमचंदजी के उपन्यासों के उद्देश्य पर कह रहा हूँ। इनके अलावा और भी कई ऐसी ही रचनाएँ है, जो स्नेह तथा आदर-सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। इन बड़ी-बड़ी तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफ़िल में मेरी दंशिताधरा अप्सरा उतरते हुए बिलकुल संकुचित नहीं हो रही, उसे विश्वास है कि वह एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी। किसी दूसरी रूपवती अनिंद्य सुंदरी से भी आँखें मिलाते हुए वह नहीं घबराती, क्योंकि वह स्पर्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिरसौंदर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है।

मैंने किसी विचार से अप्सरा नहीं लिखी, किसी उद्देश्य की पुष्टि इसमें नही। अप्सरा स्वयं मुझे जिस-जिस ओर ले गई, मैं दीपक पतंग की तरह उसके साथ रहा। अपनी ही इच्छा से अपने मुक्त जीवन-प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित, पर दृढ़ बाहों में सुरक्षित, वैव रहना उसने पसंद किया।

इच्छा न रहने पर भी प्रासंगिक काव्य, दर्शन, समाज, राजनीति आदि की कुछ बातें चरित्रों के साथ व्यावहारिक जीवन की समस्या की तरह आ पड़ी है। वे अप्सरा के ही रूप-सचि के अनुकूल हैं। उनसे पाठकों को शिक्षा के तौर पर कुछ मिलता हो, अच्छी बात है; न मिलता हो, रहने दें; मैं अपनी तरफ़ से केवल अप्सरा उनकी भेंट कर रहा हूँ।

लखनऊ

"निराला"

१।१।३१


अप्सरा

( १ )

इडन गार्डेन में, कृत्रिम सरोवर के तट पर, एक कुंज के बीच, शाम सात बजे के क़रीब, जलते हुए एक प्रकाश-स्तंभ के नीचे पड़ी हुई एक कुर्सी पर, सत्रह साल की चंपे की कली-सी एक किशोरी बैठी हुई, सरोवर की लहरों पर चमकती हुई चाँद की किरणें और जल पर खुले हुए, काँपते, बिजली की पत्तियों के कमल के फूल एकचित्त से देख रही थी। और दिनों से आज उसे कुछ देर हो गई थी। पर इसका उसे ख़याल न था।

युवती एकाएक चौंककर काँप उठी। उसी बैंच पर एक गोरा बिलकुल उससे सटकर बैठ गया। युवती एक बग़ल हट गई। फिर कुछ सोचकर, इधर-उधर देख, घबराई हुई, उठकर खड़ी हो गई। गोरे ने हाथ पकड़कर ज़बरन बेंच पर बैठा लिया। युवती चीख उठी।

बाग़ में उस समय इक्के-दुक्के आदमी रह गए थे। युवती ने इधर उधर देखा, पर कोई नजर न आया। भय से उसका कंठ भी रुक गया। अपने आदमियों को पुकारना चाहा, पर आवाज न निकली। गोरे ने उसे कसकर पकड़ लिया।

गोरा कुछ निश्छल प्रेम की बातें कह रहा था कि पीछे से किसी ने उसके कालर में उँगलियाँ घुसेड़ दीं, और गर्दन के पास कोट के साथ पकड़कर साहब को एक बित्ता बेंच से ऊपर उठा लिया, जैसे चूहे को बिल्ली। साहब के कब्जे से युवती छूट गई। साहब ने सर घुमाया। आगंतुक ने दूसरे हाथ से युवती की तरफ़ सर फेर दिया---"अब कैसी लगती है?

साहब झपटकर खड़ा हो गया। युवक ने कालर छोड़ते हुए ज़ोर से सामने रेल दिया। एक पेड़ के सहारे साहब सँभल गया, फिरकर उसने देखा, एक युवक अकेला खड़ा है। साहब को अपनी वीरता का ख़याल आया। "टुम पीछे से हमको पकड़ा" कहते-कहते साहब युवक की ओर लपका। "तो अभी दिल की मुराद पूरी नहीं हुई?" युवक तैयार हो गया। साहब को बाक्सिंग (घूँसेबाजी) का अभिमान था, युवक को कुश्ती का। साहब के वार करते ही युवक ने कलाई पकड़ ली, और यहीं से बाँधकर बहल्ले में दे मारा, छाती पर चढ़ बैठा, कई रद्दे कस दिए। साहब बेहोश हो गया। युवती खड़ी सविस्मय ताकती रही। युवक ने रुमाल भिगोकर साहब का मुँह पोछ दिया। फिर उसी को सर पर रख दिया। जेब से काग़ज निकाल बेंच के सहारे एक चिट्ठी लिखी, और साहब की जेब में रख दी। फिर युवती से पूछा---"आपको कहाँ जाना है?"

"मेरी मोटर रास्ते पर खड़ी है। उस पर मेरा ड्राइवर और बूढ़ा अर्दली बैठा होगा। मैं हवाखोरी के लिये आई थी। आपने मेरी रक्षा की। मैं सदैव-सदैव आपकी कृतज्ञ रहूँगी।"

युवक ने सर झुका लिया। "आपका शुभ नाम? युवती ने पूछा। नाम बतलाना अनावश्यक समझता हूँ। आप जल्द यहाँ से चली जायँ।"

युवक को कृतज्ञता की सजल दृष्टि से देखती हुई युवती चल दी। रुककर कुछ कहना चाहा, पर कह न सकी। युवती फ़ील्ड के फाटक की ओर चली, युवक हाईकोर्ट की तरफ़ चला गया। कुछ दूर जाने के बाद युवती फिर लौटी। युवक नजर से बाहर हो गया था। वहीं गई, और साहब की जेब से चिट्ठी निकालकर चुपचाप चली आई।

( २ )

कनक धीरे-धीरे सोलहवें वर्ष के पहले चरण में आ पड़ी। अपार, अलौकिक सौंदर्य, एकांत में, कभी कभी अपनी मनोहर रागिनी सुना जाता; वह कान लगा उसके अमृत-स्वर को सुनती, पान किया करती। अज्ञात एक अपूर्व आनंद का प्रवाह अंगों को आपाद-मस्तक नहला स्नेह की विद्युत्-लता काँप उठती। उस अपरिचित कारण की तलाश में विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती। कभी-कभी खिले हुए अंगों के स्नेह-भार में एक स्पर्श मिलता, जैसे अशरीर कोई उसकी आत्मा में प्रवेश कर रहा हो। उस गुदगुदी में उसके तमाम अंग काँपकर खिल उठते। अपनी देह के वृंत पर अपलक खिली हुई, ज्योत्स्ना के चंद्र-पुष्प की तरह, सौंदर्योज्ज्वल पारिजात की तरह एक अज्ञात प्रणय की वायु से डोल उठती। आँखों में प्रश्न फूट पड़ता, संसार के रहस्यों के प्रति विस्मय।

कनक गंधर्व-कुमारिका थी। उसकी माता सर्वेश्वरी बनारस की रहने वाली थी। नृत्य-संगीत में वह भारत में प्रसिद्ध हो चुकी थी। बड़े-बड़े राजे-महाराजे जल्से में उसे बुलाते, उसकी बड़ी खातिर करते थे। इस तरह सर्वेश्वरी ने अपार संपत्ति एकत्र कर ली थी। उसने कलकत्ता बहूबाज़ार में आलीशान अपना एक खास मकान बनवा लिया था, और व्यवसाय की वृद्धि के लिये, उपार्जन की सुविधा के विचार से, प्रायः वहीं रहती भी थी। सिर्फ बुढ़वा-मंगल के दिनों, तवायफ़ों तथा रईसों पर अपने नाम की मुहर मार्जित कर लेने के विचार से, काशी आया करती थी। वहाँ भी उसकी एक कोठी थी।

सर्वेश्वरी की इस अथाह संपत्ति की नाव पर एक-मात्र उसकी कन्या कनक ही कर्णधार थी। इसलिये कनक में सब तरफ से ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश भर देना भविष्य के सुख-पूर्वक निर्वाह के लिये, अपनी नाव खेने की सुविधा के लिये, उसने आवश्यक समझ लिया था। वह जानती थी, कनक अब कली नहीं, उसके अंगों के कुल दल खुल गए हैं, उसके हृदय के चक्र में चारो ओर के सौंदर्य का मधु भर गया है। पर उसका लक्ष्य उसकी शिक्षा की तरफ़ था। अभी तक उसने उसकी जातीय शिक्षा का भार अपने हाथों नहीं लिया। अभी दृष्टि से ही वह कनक को प्यार कर लेती, उपदेश दे देती थी। कार्यतः उसकी तरफ़ से अलग थी। कभी-कभी, जब व्यवसाय और व्यवसायियों से फ़ुर्सत मिलती, वह कुछ देर के लिये कनक को बुला लिया करती थी। और, हर तरफ से उसने कन्या के लिये स्वतंत्र प्रबंध कर रक्खा था। उसके पढ़ने का घर ही में इंतज़ाम कर दिया था। एक अँगरेज़-महिला, श्रीमती कैथरिन, तीन घंटे उसे पढ़ा जाया करती थी। दो घंटे के लिये एक अध्यापक आया करते थे।

इस तरह वह शुभ्र-स्वच्छ निर्झरिणी विद्या के ज्योत्स्नालोक के भीतर से मुखर शब्द-कलरव करती हुई ज्ञान के समुद्र की ओर अबाध बह चली। हिंदी के अध्यापक उसे पढ़ाते हुए अपनी अर्थ-प्राप्ति की कलुषित कामना पर पश्चात्ताप करते, कुशाग्रबुद्धि शिष्या के भविष्य का पंकिल चित्र खींचते हुए मन-ही-मन सोचते, इसकी पढ़ाई ऊसर पर वर्षा है, तलवार में शान, नागिन का दूध पीना। इसका काटा हुआ एक क़दम भी नहीं चल सकता। पर नौकरी छोड़ने की चिंता-मात्र से व्याकुल हो उठते थे। उसकी अँगरेज़ी की आचार्या उसे बाइबिल पढ़ाती हुई, बड़ी एकाग्रता से उसे देखती और मन-ही-मन निश्चय करती थीं कि किसी दिन उसे प्रभु ईसा की शरण में लाकर कृतार्थ कर देंगी। कनक भी अँगरेजी में जैसी तेज़ थी, उन्हें अपनी सफलता पर ज़रा भी द्विघा न थी। उसकी माता सोचती, इसके हृदय को जिन तारो से बाँधकर मैं इसे सजाऊँगी, उनके स्वर-झकार से एक दिन संसार के लोग चकित हो जायेंगे; इसके द्वारा अप्सरा-लोक में एक नया ही परिवर्तन कर दूँगी, और वह केवल एक ही अंग में नहीं, चारो तरफ; मकान के सभी शून्य छिद्रों को जैसे प्रकाश और वायु भरते रहते हैं, आत्मा का एक ही समुद्र जैसे सभी प्रवाहों का चरम परिणाम है।

इस समय कनक अपनी सुगंध से आप ही आश्चर्य चकित हो रही थी। अपने बालपन की बालिका तन्वी कवयित्री को चारो ओर केवल कल्पना का आलोक देख पड़ता था, उसने अभी उसकी किरण-तंतुओं से जाल बुनना नहीं सीखा था। काव्य था पर शब्द-रचना नहीं, जैसे उस प्रकाश में उसकी तमाम प्रगतियाँ फँस गई हों, जैसे इस अवरोध से बाहर निकलने की वह राह न जानती हो। यही उसका सबसे बड़ा सौदर्य उसमें नैसर्गिक एक अतुल विभूति थी संसार के कुल मनुष्य

साँचा:PD-इंङिया