अप्सरा/अगला भाग
और वस्तुएँ उसकी दृष्टि में मरीचिका के ज्योति-चित्रों की तरह आतीं,अपने यथार्थ स्वरूप में नहीं।
कनक की दिनचर्या बहुत साधारण थी। दो दासियाँ उसकी देख-रेख के लिये थीं। पर उन्हें प्रतिदिन दो बार उसे नहला देने और तीन-चार बार वस्र बदलवा देने के इंतजाम में ही जो कुछ थोड़ा-सा काम था. बाकी समय यों ही कटता था। कुछ समय साड़ियाँ चुनने में लग जाता था। कनक प्रतिदिन शाम को मोटर पर क़िले के मैदान की तरफ निकलती थी। ड्राइवर की बग़ल में एक अर्दली बैठता था। पीछे की सीट पर अकेली कनक । कनक प्रायः आभरण नहीं पहनती थी।कभी-कभी हाथों में सोने की चूड़ियाँ डाल लेती थी, गले में एक हीरे की कनी का जढा़ऊ हार ;कानों में हीरे के दो चंपे पड़े रहते थे। संध्या समय, सात बजे के बाद से दस तक, और दिन में भी इसी तरह सात से दस तक पढ़ती थी । भोजन-पान में बिलकुल सादगी, पर पुष्टिकारक भोजन उसे दिया जाता था।
(३)
धीरे-धीरे, ऋतुओं के सोने के पंख फड़का, एक साल और उड़ गया। मन के खिलते हुए प्रकाश के अनेक झरने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए। पर अब उसके मुख से आश्चर्य की जगह ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती, वह स्वयं अब अपने भविष्य के पट पर तूलिका चला लेती है। साल-भर से माता के पास उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा मिल रही है। इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिक्षा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी, और गंधर्व-जाति के छूटे हुए पूर्व-गौरव को स्पर्धा से प्राप्त करने के लिये उसे उत्साह भी दिया करती। कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को सप्रमाण सिद्ध करने की मन-ही-मन निश्चय करती, प्रतिज्ञाएँ करती। माता ने उसे सिखलाया--- "किसी को प्यार मत करना। हमारे लिये प्यार करना आत्मा की कमज़ोरी है। यह हमारा धर्म नहीं।" कनक ने अस्फुट वाणी में मन-ही-मन प्रतिज्ञा की---'किसी को प्यार नहीं करूंँगी। यह हमारे लिये आत्मा की कमजोरी है, धर्म नहीं।"
माता ने कहा---"संसार के और लोग भीतर से प्यार करते हैं, हम लोग बाहर से।"
कनक ने निश्चय किया---"और लोग भीतर से प्यार करते हैं, मै बाहर से करूंँगी।"
माता ने कहा---"हमारी जैसी स्थिति है, इस पर ठहरकर भी हम लोक में वैसी ही विभूति, वैसा ही ऐश्वय, वैसा ही सम्मान अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त कर सकती हैं; साथ ही, जिस आत्मा को और लोग अपने सर्वस्व का त्याग कर प्राप्त करते हैं, उसे भी हम लोग अपनी कला के उत्कर्ष के द्वारा, उसी में,प्राप्त करती हैं ; उसी में लीन होना हमारी मुक्ति है। जो आत्मा सभी सृष्टियों की सूक्ष्मतम तंतु की तरह उनके प्राणों के प्रियतम संगीत को झंकृत करती, जिसे लोग बाहर के कुल संबंधों को छोड़, ध्यान के द्वारा तन्मय हो प्राप्त करते,उसे हम अपने बाह्य यंत्र के तारों से झंकृत कर, मूर्ति में जगा लेती,फिर अपने जलते हुए प्राणों का गरल, उसी शिव को,मिलकर पिला देती हैं। हमारी मुक्ति इस साधना के द्वारा होती है। इसीलिये ऐश्वय पर हमारा सदा ही अधिकार रहता है। हम बाहर से जितनी सुंदर,भीतर से उतनी ही कठोर इसीलिये हैं। और-और लोग बाहर से कठोर पर भीतर से कोमल हुआ करते हैं, इसीलिये वे हमें पहचान नहीं पाते, और, अपने सर्वस्व तक का दान कर, हमें पराजित करना चाहते हैं, हमारे प्रेम को प्राप्त कर, जिस पर केवल हमारे कौशल के शिव का ही एकाधिकार है। जब हम लोग अपने इस धर्म के गर्त से, मौखरिए की रागिनी सुन मुग्ध हुई नागिन की तरह, निकल पड़ती हैं, तब हमारे महत्व के पति भी हमें कलंकित अहल्या की तरह शाप से बॉध,पतित कर चले जाते हैं; हम अपनी स्वतंत्रता के सुखमय बिहार को छोड़ मौखरिए की संकीर्ण टोकरी में बंद हो जाती हैं, फिर वही हमें इच्छानुसार नचाता, अपनी स्वतंत्र इच्छा के वश में हमें गुलाम बना
लेता है। अपनी बुनियाद पर इमारत की तरह तुम्हें अटल रहना होगा,नही तो फिर अपनी स्थिति से ढह जाओगी, बह जाओगी।"
कनक के मन के होंठ काँपकर रह गए--"अपनी बुनियाद पर मैं इमारत की तरह अटल रहूँगी।"
( ४ )
अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में सूचना निकली---
"कोहनूर थिएटर में"
शकुंतला! शकुंतला!! शकुंतला!!!
शकुंतला---मिस कनक
दुष्यंत--राजकुमार वर्मा एम० ए०
प्रशंसा में और भी बड़े-बड़े आकर्षक शब्द लिखे हुए थे। थिएटर के शौक़ीनों को हाथ बढ़ाकर स्वर्ग मिला। वे लोग थिएटरों का तमाम इतिहास कंठाग्र रखते थे, जितने ऐक्टर (अभिनेता) और मशहूर बड़ी-छोटी जितनी भी ऐक्टेस (अभिनेत्रियाँ) थीं, उन्हें सबके नाम मालूम थे, सबकी सूरतें पहचानते थे। पर यह मिस कनक अपरिचित थी। विज्ञापन के नीचे कनक की तारीफ़ भी खूब की गई थी। लोग टिकट खरीदने के लिये उतावले हो गए। टिकट-घर के सामने अपार भीड़ लग गई, जैसे आदमियों का सागर तरंगित हो रहा हो। एक-एक झोंके से बाढ़ के पानी की तरह वह जन-समुद्र इधर से उधर डोल उठता था। बाक्स, आर्चेस्टा, फर्स्ट क्लास में भी और और दिनों से ज्यादा भीड़ थी।
विजयपुर के कुवँर साहब भी उन दिनों कलकते की सैर कर रहे थे। इन्हें स्टेट से छः हजार मासिक जेब-खर्च के लिये मिलता था। वह सब नई रोशनी, नए फ़ैशन में फूँककर ताप लेते थे। आपने भी एक बाक्स किराएं कर लिया। थिएटर की मिसों की प्रायः आपकी कोठी में दावत होती थी, और तरह-तरह के तोहफ़े आप उनके मकान पहुँचा दिया करते थे। संगीत का आपको अज़हद शौक़ था। खुद भी गाते थे। पर आवाज जैसे ब्रह्मभोज के पश्चात् कराह रगड़ने की। लोग इस पर भी कहते थे, क्या मँजी हुई आवाज है! आपको मिस कनक का पता मालूम न था। इससे और उतावले हो रहे थे। जैसे ससुराल जा रहे हों, और स्टेशन के पास गाड़ी पहुँच गई हो।
देखते-देखते संध्या के छः का समय हुआ। थिएटर-गेट के सामने पान खाते, सिगरेट पीते, हँसी-मजाक़ करते हुए बड़ी-बड़ी तोंदवाले सेठ, छड़ियाँ चमकाते, सुनहली डंडो का चश्मा लगाए हुए कॉलेज के छोकड़े, अँगरेज़ी अखबारों की एक-एक प्रति लिए हुए हिंदी के संपादक, सहकारियों पर अपने अपार ज्ञान का बुखार उतारते, पहले ही से कला की कसौटी पर अभिनय की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा करते हुए टहल रहे थे। इन सब बाहरी दिखलावों के अंदर सबके मन की आँखें मिसों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं; उनके चकित दर्शन, चंचल चलन को देखकर चरितार्थ होना चाहती थीं। जहाँ बड़े-बड़े आदमियों का यह हाल था, वहाँ थर्ड क्लास तिमंज़िले पर, फटी-हालत, नंगेबदन, रूखी-सूरत बैठे हुए बीड़ी-सिगरेट के धुएँ से छत भर देनेवाले, मौक़े-बेमौक़े तालियाँ पीटते हुए इनकोर-इनकोर के अप्रतिहत शब्द से कानों के पर्दे पार कर देनेवाले, अशिष्ट, मुँहफट, क़ुली-क्लास के लोगों का बयान ही क्या? वहीं इन धन-कुबेरों और संवाद-पत्रो के सर्वज्ञों, वकीलों, डॉक्टरों, प्रोफ़ेसरों और विद्यार्थियों के साथ ये लोग भी कला के प्रेम में साम्यवाद के अधिकारी हो रहे थे।
देखते-देखते एक लॉरी आई। लोगों की निगाह तमाम बाधाओं को चीरती हुई, हवा की गोली की तरह, निशाने पर, जा बैठी।पर,उस समय, गाड़ी से उतरने पर, वे जितनी, मिस डली, मिस कुंदन, मिस हीरा, पन्ना, मोती, पुखराज, रमा, क्षमा, शांति, शोभा, किशमिस और अंगूर बालाएँ थीं, जिनमें किसी ने हिरन की चाल दिखाई, किसी ने मोर की, किसी ने हस्तिनी की, किसी ने नागिन की, सब-की-सब जैसे डामर से पुती, आफ्रिका से हाल ही आई हुई, प्रोफेसर डोवर या मिस्टर चटर्जी की सिद्ध की हुई, हिंदोस्तान की आदिम जाति की ही कन्याएँ और बहनें थीं, और ये सब इतने बड़ेबड़े लोग इन्हें ही कला की दृष्टि से देख रहे थे। कोई छः फीट ऊँची, तिस पर नाक नदारद; कोई डेढ़ ही हाथ की छटंकी, पर होंठ आँखों की उपमा लिए हुए आकर्ण-विस्तृत; किसी की साढ़े तीन हाथ की लंबाई चौड़ाई में बदली हुई--एक-एक क़दम पर पृथ्वी काँप उठती, किसी की आँखें मक्खियों-सी छोटी और गालों में तबले मढ़े हुए; किसी की उम्र का पता नहीं, शायद सन् ५७ के ग़दर में मिस्टर हडसन को गोद खिलाया हो, इस पर जैसी दुलकी चाल सबने दिखाई, जैसे भुलभुल में पैर पड़ रहे हों। जनता गेट से उनके भीतर चले जाने के कुछ सेकेंड तक तृष्णा की विस्तृत अपार आँखों से कला के उस अप्राप्य अमृत का पान करती रही।
कुछ देर के बाद एक प्राइवेट मोटर आई। बिना किसी इंगित के ही जनता की क्षुब्ध तरंग शांत हो गई, सब लोगों के अंग रूप की तड़ित् से प्रहत निश्चेष्ट रह गए। यह सर्वेश्वरी का हाथ पकड़े हुए कनक मोटर से उतर रही थी। सबकी आँखों के संध्याकाश में जैसे सुंदर इंद्र-धनुष अंकित हो गया। सबने देखा, मूर्तिमती की किरण है। उस दिन घर से अपने मन के अनुसार सर्वेश्वरी उसे सजाकर लाई थी। घानी रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए, हाथों में सोने की, रोशनी से चमकती हुई चूड़ियाँ, गले में हीरे का हार, कानों में चंपा, रेशमी फ़ीते से बँधे, तरंगित खुले लंबे बाल, स्वस्थ सुंदर देह, कान तक खिंची, किसी की खोज-सी करती हुई बड़ी-बड़ी आँखें, काले रंग से कुछ स्याह कर तिरछाई हुई भौहें, पैरों में लेडी स्टाकिग और सुनहले रंग के जूते। लोग स्टेज की अभिनेत्री शकुंतला को मिस कनक के रूप में अपलक नेत्रों से देख रहे थे। लोगों के मनोभावों को समझकर सर्वेश्वरी देर कर रही थी। मोटर से सामान उतरवाने, ड्राइवर को मोटर लाने का वक्त बतलाने, नौकर को कुछ भूला हुआ सामान मकान से ले आने की आज्ञा देने में लगी रही। फिर धीरे-धीरे कनक का हाथ पकड़े हुए, अपने अर्दली के साथ, ग्रीन-रूम की तरफ चली गई। लोग जैसे स्वप्न देखकर जागे । फिर चहल-पहल मच गई। लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। धन-कुबेर लोग दूसरे परिचितों से आँख के इशारे बतलाने लगे। इन्हीं लोगों में विजयपुर के कुँवर साहब भी थे। और न जाने कौन-कौन से राजे-महाराजे सौंदर्य के समुद्र से अतंद्र अम्लान निकली हुई इस अप्सरा की कृपा-दृष्टि के भिक्षुक हो रहे थे। जिस समय कनक खड़ी थी, कुँवर साहब अपनी आँखों से नहीं, खुर्दबीन की आँखों से उसके बृहत् रूप को देख, रूप के अंश में अपने को सबसे बड़ा हक़दार साबित कर रहे थे, और इस कार्य में उन्हें संकोच नहीं हुआ। कनक उस समय मुस्किरा रही थी। भीड़ तितर-बितर होने लगी। अभिनय के लिये पौन घंटा और रह गया। लोग पानी-पान-सोडा-लेमनेड आदि खाने-पीने में लग गए। कुछ लोग बीड़ियाँ फूँकते हुए खुली असभ्य भाषा में कनक की आलोचना कर रहे थे।
ग्रीन-रूम में अभिनेत्रियाँ सज रही थीं। कनक नौकर नहीं थी, उसकी मा भी नौकर नहीं थी। उसकी मा उसे स्टेज पर, पूर्णिमा के चाँद की तरह, एक ही रात में, लोगों की दृष्टि में खोलकर प्रसिद्ध कर देना उचित समझती थी। थिएटर के मालिक पर उसका काफी प्रभाव था। साल में कई बार उसी स्टेज पर टिकट ज्यादा बिकने के लोभ से थिएटर के मालिक उसे गाने तथा अभिनय करने के लिये बुलाते थे। वह जिस रोज उतरती, रंग-मंच दर्शक-मंडली से भर जाता था। कनक रिहर्शल में कभी नहीं गई, यह भार उसकी माता ने ले लिया था।
कनक को शकुंतला का वेश पहनाया जाने लगा। उसके कपड़े उतार दिए गए। एक साधारण सा वस्त्र बल्कल की जगह पहना दिया गया, गले में फूलों का हार। बाल अच्छी तरह खोल दिए गए। उसकी सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा भी सज गईं। उधर राजकुमार को दुष्यंत का वेश पहनाया जाने लगा। और और पात्र भी सजाकर तैयार कर दिए गए।
राजकुमार भी कंपनी में नौकर नहीं था। वह शौक़िया बड़ी-बड़ी कंपनियों में उतरकर प्रधान पार्ट किया करता था। इसका कारण वह खुद मित्रों से बयान किया करता। वह कहा करता था, हिंदी के स्टेज पर लोग ठीक-ठीक हिंदी-उच्चारण नहीं करते, वे उर्दू के उच्चारण की नकल करते हैं, इससे हिंदी का उच्चारण बिगड़ जाता है, हिंदी के उच्चारण में जीभ की स्वतंत्र गति होती है, यह हिंदी ही की शिक्षा के द्वारा दुरुस्त होगी। कभी-कभी हिंदी में वह स्वयं नाटक लिखा करता। यह शकुंतला-नाटक उसी का लिखा हुआ था। हिंदी की शुभ कामना से प्रेरित हो, उसने विवाह भी नहीं किया। इससे उसके घरवाले उस पर नाराज़ हो गए थे। पर उसने परवा नहीं की। कलकत्ता सिटी-कॉलेज में वह हिंदी का प्रोफ़ेसर है। शरीर जैसा हष्ट-पुष्ट, वैसा ही वह सुंदर और बलिष्ठ भी है। कलकत्ते की साहित्य-समितियाँ उसे अच्छी तरह पहचानती हैं।
तीसरी घंटी बजी। लोगों की उत्सुक आँखें स्टेज की ओर देखने लगीं। पहले बालिकाओं ने स्वागत-संगीत गाया। पश्चात् नाटक शुरू हुआ। पहले-ही-पहल कण्व के तपोवन में शकुंतला के दर्शन कर दर्शकों की ऑखें तृप्ति से खुल गई। आश्रम के उपवन की यह खिली हुई कली अपने अंगों की सुरभि से कंपित, दर्शकों के हृदय को, संगीत की एक मधुर भीड़ की तरह काँपकर उठती हुई देह की दिव्य धुति से, प्रसन्न-पुलकित कर रही थी। जिधर-जिधर चपल तरंग की तरह डोलती, फिरती, लोगों की अचंचल अपलक दृष्टि, उधर-ही-उधर, उस छवि की स्वर्ण-किरण से लगी रहती। एक ही प्रत्यंग-संचालन से उसने लोगों पर जादू डाल दिया। सब उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उसे गौरव-पूर्ण श्राश्चर्य से देखने लगे।
महाराज दुष्यंत का प्रवेश होते ही, उन्हें देखते ही कनक चौंक उठी। दुष्यंत भी अपनी तमाम एकाग्रता से उसे अविस्मय देखते रहे। यह मौन अभिनय लोगों के मन में सत्य के दुष्यंत और शकुंतला की झलक भर गया। कनक मुस्किराई। दोनो ने दोनो को पहचान लिया।
उनके आभ्यंतर भावों की प्रसन्नता की छाया दर्शकों पर भी पड़ी। लोगों ने कहा---बहुत स्वाभाविक अभिनय हो रहा है। क्रमशः आलाप-परिचय, रंग-रस-प्रियता आदि अभिनीत होते रहे। रंगशाला मे बिलकुल सन्नाटा था, जैसे सब लोग निर्वाक, कोई मनोहर स्वप्न देख रहे हों। गांधर्व रीति से विवाह होने लगा। लोग तालियाँ पीटते, सीटियाँ बजाते रहे । शकुंतला ने अपनी माला दुष्यंत को पहना दी। दुष्यंत ने अपनी, शकुंतला को । स्टेज खिल गया।
ठीक इसी समय, बाहर से भीड़ को ठेलते, चेकरों की परवा न करते हुए, कुछ कांस्टेब्लों को साथ ले, पुलिस के दारोगाजी, बड़ी गंभीरता से, स्टेज के सामने, आ धमके ! लोग विस्मय की दृष्टि से एक दूसरा नाटक देखने लगे । दारोगाजी ने मैनेजर को पुकारकर कहा-“यहाँ, इस नाटक-मंडली में, राजकुमार वर्मा कौन है? उसके नाम वारंट है, हम उसे गिरफ्तार करेंगे।"
तमाम स्टेज थर्रा गया। उसी समय लोगों ने देखा, राजकुमार वर्मा, दुष्यंत की ही सम्राट-चाल से, निश्शंक, वन्य दृश्य-पट के किनारे से, स्टेज के बिलकुल सामने, आकर खड़ा हो गया, और वीर की दृष्टि से दारोगा को देखने लगा। वह दृष्टि कह रही थी, हमें गिरफ्तार होने का बिलकुल खौफ नहीं । शकंतला-कनक भी अभिनय को सार्थक करती हुई, किनारे से चलकर अपने प्रिय पति के पास आ, हाथ पकड़, दारोगा को निस्संकोच इस दृष्टि से देखने लगी। कनक को देखते ही शहद की मक्खियों की तरह दारोगा की आँखें उससे लिपट गई। दर्शक नाटक देखने के लिये चंचल हो उठे।
"हमने रुपए खर्च किए हैं, हमारे मनोरंजन का टैक्स लेकर फिर उसमें बाधा डालने का सरकार को कोई अधिकार नहीं। यह दारोगा की मूर्खता है, जो वह अभियुक्त को यहाँ कैद करने आया । उसे निकाल दो।" कॉलेज के एक विद्यार्थी ने जोर से पुकारकर कहा।
"निकाल दो-निकाल दो-निकाल दो" हजारों कंठ एक साथ कह उठे।
ड्राप गिरा दिया गया।
"निकल जाओ-निकल जाओ" पटापट तालियों के वाद्य से स्टेज गृज उठा। सीटियाँ बजने लगीं। "अहा हाहा ! कुर्बान जाऊँ. साफा! कुर्बान जाऊँ डंडा !! छछूंदर जैसी मूंछे ! यह कट्ट, जैसा मुँह !!"
दारोगाजी का सर लटक पड़ा।"भागो—भागो-मागो" के बीच उन्हें भागना ही पड़ा। मैनेजर ने कहा, नाटक हो जाने के बाद आप उन्हें गिरफ्तार कर लीजिए । मैं उनके पास गया था। उन्होंने आपके लिये यह संवाद भेजा है । दारोगा को मैनेजर गेट पर ले जाने लगे, पर उन्होंने स्टेज के भीतर रहकर नाटक देखने की इच्छा प्रकट की। मैनेजर ने टिकट खरीदने के लिये कहा । दारोगाजी एक बार शान से देखकर रह गए। फिर अपने लिये एक आर्चेस्ट्रा का टिकट खरीद लिया। कांस्टेब्लों को मैनेजर ने थर्ड क्लास में ले जाकर भर दिया। वहाँ के लोगों का मनोरंजन की दूसरी सामग्री मिल गई।
थिएटर होता रहा । मिस कनक द्वारा किया हुआ शकुंतला का पार्ट लोगों को बहुत पसंद आया। एक ही रात में वह शहर भर में प्रसिद्ध हो गई।
नाटक समाप्त हो गया । राजकुमार ग्रीन-रूम से निकलने पर गिरफ्तार कर लिया गया।
एक बड़ी-सी, अनेक प्रकार के देश-देश की अप्सराओं, बादशाह-जादियों, नर्तकियों के सत्य तथा काल्पनिक चित्रों तथा बेल-बूटो से सजी हुई दालान; झाड़-फानूस टॅगे हुए ; फर्श पर क्रीमती गलीचे-सा कारपेट बिछा हुआ; मखमल की गद्दीदार कुर्सियाँ, कोच और सोफे तरह-तरह की मेजों के चारो ओर कायदे से रक्खे हुए ; बीच-बीच बड़े-बड़े, आदमी के आकार के ड्योढ़े, शीशे, एक तरफ टेबल-हारमोनियम और एक तरफ पियानो रक्खा हुआ ; और-और यंत्र भी सितार, सुर-बहार, एसराज, वीणा, सरौद, बैंजो, बेला, क्लारियोनेट,कार्नेट, मॅजीरे, तबले, पखावज, सरंगी आदि यथास्थान सुरक्षित रक्खे हुए; कहीं-कहीं छोटी-छोटी मेजों पर चीनी मिट्टी के क्रीमती बर्तन साज के तौर पर रक्खे हुए किसी-किसी में फूलों के तोड़े रंगीन शीशे-जडे तथा झझरियोंदार डबल दरवाजे लगे हुए, दोनो किनारों पर मखमल की सुनहरी जालीदार झूलें चौथ के चाँद के आकार से पड़ी हुई; बीच मे छः हाथाको चौकोर करीब डेढ़ हाथ की ऊँची गट्टी, तकिए लगे हुए, उस पर अकेली बैठी हुई, रात आठ बजे के लगभंग, कनक सुर- बहार बजा रही है। मुख पर चिंता की एक रेखा स्पष्ट खिंची हुई उसके बाहरी सामान से चित्त बहलाने का हाल बयान कर रही है। नीचे लोगों की भीड़ जमा है। सब लोग कान लगाए हुए सुर-बहार सुन रहे हैं।
एक दूसरे कमरे से एक नौकर आया । कहा, माजी कहती हैं, कुछ गाने के लिये कहो । कनक ने सुन लिया। नौकर चला गया। कनक ने अपने नौकर से बाक्स हारमोनियम दे जाने के लिये कहा। हार- मोनियम ले आने पर उसने सुर-बहार बढ़ा दिया । नौकर उस पर गिलाफ चढ़ाने लगा । कनक दूसरे सप्तक के "सी" स्वर पर उँगली रख बेलो करने लगी। गाने से जी उघट रहा था, पर माता की आज्ञा थी, उसने गाया—
"प्यार करती हूँ अलि, इसलिये मुझे भी करते हैं वे प्यार,
बह गई हूँ अजान की ओर, इसलिये यह जाता संसार।
रुके नहीं धनि चरण घाट पर,
देखा मैंने भरण बाट पर,
टूट गए सब प्राट-ठाट घर,
छूट गया परिवार—— तभी सखि, करते हैं वे प्यार।
आप बही या बहा दिया था,
खिंची स्वयं या खींच लिया था,
नहीं याद कुछ कि क्या किया था,
हुई जीव या हार-
तभी री करते हैं वे.प्यार ! खुले नयन जब रही सदा तिर,
स्नेह-तरंगों पर उठ-उठ गिर,
सुखद पालने पर मैं फिर-फिर,
करती थी शृंगार——
मुझे तब करते हैं वे प्यार।
कर्म-कुसुम अपने सब चुन-चुन,
निर्जन में प्रिय के गिन-गिन गुण,
गूथ निपुण कर से उनको सुन,
पहनाया था हार——
इसलिये करते हैं वे प्यार।"
कनक ने कल्याण में भरकर इमन गाया। नीचे कई सौ आदमी मंत्र-मुग्ध से खड़े हुए सुन रहे थे । गाने से प्रसन्न हो सर्वेश्वरी भी अपने कमरे से उठकर कनक के पास आकर बैठ गई। गाना समाप्त हुआ। सर्वेश्वरी ने प्यार से कन्या का चिंतित मुख चूम लिया।
नीचे से एक नौकर ने आकर कहा, विजयपुर के कुँवर साहब के यहाँ से एक बाबू आए हैं, कुछ बातचीत करना चाहते हैं।
सर्वेश्वरी नीचे अपने दो मंजिलेवाले कमरे में उतर गई। यह कनक का कमरा था। अभी थोड़े ही दिन हुए, कनक के लिये सर्वेश्वरी ने सजाया है।
कुछ देर बाद सर्वेश्वरी ऊपर आई । कनक से कहा, कुँवर साहब, विजयपुर, तुम्हारा गाना सुनना चाहते हैं।
"मेरा गाना सुनना चाहते हैं?" कनक सोचने लगी। “अम्मा !" कनक ने कहा- "मैं रईसों की महफिल में गाना नहीं गाऊँगी।"
“नहीं, वे यहीं आएँगे। बस, दो-चार चीजें सुना दो। तबियत अच्छी न हो, तो कहो, कह दें, और कभी आएँगे।"
"अच्छा अम्मा, किसी पत्त पर, कीमती-खूबसूरत पत्ते पर पड़ी हुई ओस की बूंद अगर हवा के झोंके से जमीन पर गिर जाय तो अप्सरा अच्छा या प्रभात के सूरज से चमकती हुई उसकी किरणों से खेलकर फिर अपने मकान, आकाश को चली जाय, तो अच्छा ?" ___दोनो अच्छे हैं उसके लिये । हवा के झूले का आनंद किरणो से हॅसने में नहीं, वैसे ही किरणों से हँसने का आनंद हवा के झूले मे नहीं। और, घर तो वह पहुँच ही जाती है, गिरे या डाल ही पर सूख जाय । "पर अगर हवा में झुलने से पहले ही वह सूखकर उड़ गई हो ?" "तब तो बात ही और है। "मैं उसे यथार्थ रंगीन पंखोंवाली परी मानती हूँ।" "क्या तू खुद ऐसी ही परी बनना चाहती है ?" "हाँ अम्मा, मैं कला को कला की दृष्टि से देखती हूँ। उससे अर्थ- प्राप्ति करना उसके महत्व को घटा देना नहीं ?" ____ "ठीक है, पर यह एक प्रकार बदला है। अर्थवाले अर्थ देते हैं, और कला के जानकार उसका आनंद । संसार में एक-दूसरे से ऐसा ही संबंध है। ____ "कला के ज्ञान के साथ-ही-साथ कुछ ऐसी गंदगी भी हम लोगों के चरित्र में रहती है, जिससे मुझे सख्त नफरत है।" माता चुप रही। कन्या के विशद अभिप्राय को ताड़कर कहा- "तुम इससे बची हुई भी अपने ही जीने से छत पर जा सकती हो, जहाँ सबकी तरह तुम्हें भी आकाश तथा प्रकाश का बराबर अंश मिल सकता है।" ____ "मैं इतना यह सब नहीं समझती । समझती भी हूँ, तो भी मुझे कला को एक सीमा में परिणत रखना अच्छा लगता है। ज्यादा विस्तार से वह कलुषित हो जाती है, जैसे बहाव का पानी, उसमें गंदगी डालकर भी लोग उसे पवित्र मानते हैं। पर कुएँ के लिये यह बात नहीं । स्वास्थ्य के विचार से कुएँ का पानी बहते हुए पानी से बुरा नहीं । विस्तृत व्याख्या तथा अधिक बढ़ाव के कारण अच्छे-से-अच्छे कृत्य बुरे धब्बों से रँगे रहते हैं । ________________
असग _ 'प्रवृत्ति के वशीभूत होकर परचात् लोग अनर्थ करने लगते हैं । यही प्रत्याचार धार्मिक अनुष्ठानों में प्रत्यक्ष होरहा है। पर बृहत् अपनी महत्ता मे बृहत् ही है । बहाव और कुएँवाली बात अँचकर फीकी रही।" . "अम्मा, बात यह, तुम्हारी कनक अब तुम्हारी नहीं रही । उसके साने के हार में ईश्वर ने एक नीलम जड़ दिया है।" सर्वेश्वरी ने तअज्जुब की निगाह से कन्या को देखा। कुछ-कुछ उसका मतलब वह समम गई। पर उसने कन्या से पूछा-"तुम्हारे कहने का क्या मतलब कनक ने हाथ की एक चूड़ी, कलाई उठाकर, दिखाई। सर्वेश्वरी हँसने लगी। "तमाशा कर रही है ? यह कौन-सा खेल ?" । "नहीं अम्मा।" कनक गंभीर हो गई, चेहरे पर एक प्रकार स्थिर प्रौढ़ता मलकने लगी-"मैं ठीक कहती हूँ, मैं व्याही हुई हूँ, अब मै महफिल में गाना नहीं गाऊँगी। अगर कहींगाऊँगी भी, तो खूब सोचसममकर, जिससे मुझे संतोष रहे।" सर्वेश्वरी एक दृष्टि से कनक को देखती रही। "यह विवाह कब हुआ, और किससे हुआ ? किया किसने ?” "यह विवाह आपने किया, ईश्वर की इच्छा से, कोहनूर स्टेज पर, कल, हुआ, दुष्यंत का पार्ट करनेवाले राजकुमार के साथ, शकुंतला सजी हुई तुम्हारी कनक का । ये चूड़ियाँ ( एक-एक दोनो हाथों मे; इस प्रमाण की रक्षा के लिये मैंने पहन ली । और देखो" कनक ने बारा-सी सेंदुर की एक बिंदी सर पर लगा ली थी, "अम्मा, यह एक रहस्य हो गया। राजकुमार को." ___माता ने बीच ही में हँसकर कहा-'सुहागिनें अपने पति का नाम नहीं लिया करतीं।" ____ "पर मैं लिया करूंगी। मैं कुछ घूघट काढ्नेवाली सुहागिन तो नहीं कुछ पैदायशी स्वतंत्र हक मैं अपने साथ लगी। नहीं है १८ अप्सरा कुछ दिनक्रत पड़ सकती है। गाने-बजाने पर भी मेरा ऐसा ही विचार रहेगा। हाँ, राजकुमार को तुम नहीं जानतीं, इन्हीं ने मुझे इडन गार्डेन में बचाया था।" ___ कन्या की भावना पर, ईश्वर के विचित्र घटनाओं के भीतर से इस प्रकार मिलाने पर, कुछ देर तक सर्वेश्वरी सोचती रही। देखा, उसके हृदय के कमल पर कनक की इस उक्ति की किरण सूर्य की किरण की तरह पड़ रही थी, जिससे आप-ही-आप उसके सब दल प्रकाश की ओर खुलते जा रहे थे। तरंगों से उसका लेह-समुद्र कनक के रेखा- तट को छाप जाने लगा। इस एकाएक स्वाभाविक परिवर्तन को प्रत्यक्ष कर सर्वेश्वरी ने अप्रिय विरोधी प्रसंग छोड़ दिया। हवा का रुख जिस तरफ हो, उसी तरफ नाव को बहा ले जाना उचित है, जब कि लक्ष्य केवल सैर है, कोई गम्य स्थान नहीं। हँसकर सर्वेश्वरी ने पूछा--"तुम्हारा इस प्रकार स्वयंवरा होना उन्हें भी मंजूर है न, या अंत तक शकुंतला ही की दशा तुम्हें मोगनी होगी और वे तो कैद भी हो गए हैं ?" __कनक संकुचित लज्जा से द्विगुणित हो गई । कहा--"मैंने उनसे तो इसकी चर्चा नहीं की । करना भी व्यर्थ । इसे मैं अपनी ही हद तक रक्खू गी। किसके कैसे खयालात हैं, मुझे क्या मालूम ? अगर वे मुझे मेरे कुल का विचार कर ग्रहण न करें, वो इस तरह का अपमान बरदाश्त कर जाना मेरी शक्ति से बाहर है। वे कैद शायद उसी मामले में हुए हैं। ____उनके बारे में और भी कुछ तुम्हारा समझा हुआ है. ? ___“मैं और कुछ भी नहीं जानती अम्मा ! पर कल तक......सोचती हूँ, थानेदार को बुलाकर कुल बातें पू। और पता लगाकर भी देखू कि क्या कर सकती हूँ।" सर्वेश्वरी ने कुँवर साहब के आदमियों के पास कहला भेजा कि कनक की तबियत अच्छी नहीं, इसलिये किसी दूसरे दिन गाना सुनने की कृपा करें।