अतीत-स्मृति/४ आर्य्यों का आदिम-स्थान
पूना के "केसरी" नामक प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र के सम्पादक पंडित बाल गङ्गाधर तिलक, बी॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰ को लोग जितना उनकी विद्वत्ता के कारण जानते हैं उससे अधिक उनको उनके दुर्भाग्य के कारण जानते हैं। जब पहले पहल "केसरी" का जन्म हुआ था तभी एक मान-हानि के मुकदमे में फँसने से उनको कई महीने कारागार-वास करना पड़ा था। १८९७ ईसवी में "शिवाजी के उद्गार" शीर्षक कविता प्रकाशित करने पर उनके ऊपर जो आपत्ति पाई उससे उनका नाम प्रायः सारे भारतवर्ष भर ही में नहीं, किन्तु विलायत तक में हुआ। इस आपत्ति मे कुछ अंश से उद्धार पाने में तिलक जी की विद्वत्ता ही उनकी सहायक हुई। वैदिक साहित्य के वे अगाध पंडित हैं, दूसरे देशों के साहित्य में भी उनकी पारदर्शिता कम नहीं है। इस विपत्ति के पाँच सात वर्ष पहिले उन्होने "ओरायन" (Orion or Researches in the Antiquity of the Vedas) नामक एक पुस्तक लिखी थी। ओरायन का अर्थ है "अग्रहायण"। इसमें उन्होंने वैदिक मन्त्रों की प्राचीनता का प्रतिपादन किया है और ईसा के ६००० वर्ष पहिले की बातें उन्होंने वेदों मे सिद्ध की हैं। इसी पुस्तक पर लुब्ध हो कर अध्यापक मोक्षमूलर ने उनको, जब वे पूर्वोक्त विपत्ति में पड़े थे तब, अपना सम्पादित किया हुआ ऋग्वेद भेजा और उनकी सिफ़ारिश महारानी विक्टोरिया तक से की। इसके कुछ ही दिन पीछे ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने उनको आपत्ति-मुक्त कर दिया। परन्तु तिलक महाशय के समान दुर्दैवग्रस्त शायद ही कोई दूसरा मनुष्य हो। एक के अनन्तर एक आपत्ति उनको घेरे ही रहती थी। इस समय भी वे एक वसीयतनामे के झगड़े में फँसे हैं। इसीलिए हम कहते हैं कि उनकी विद्वत्ता के कारण उनको विद्वान ही विशेष जानते हैं, परन्तु दैवदुर्विपाकजनित उनकी आपदाओं के कारण उनको सभी जानते हैं।
विद्वानों का पहिले यह अनुमान था कि ऋग्वेद के प्राचीन से प्राचीन मन्त्र कोई ३००० वर्ष से अधिक पुराने नहीं हैं। परन्तु "ओरायन" में तिलक महाशय ने यह सिद्ध कर दिखाया कि वैदिक ऋचाओं की रचना ईसा के ४,५०० वर्ष पहले और ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना ईसा के २,५०० वर्ष पहले ही हो चुकी थी। उनके मत में वेद और ब्राह्मण इससे अधिक पुराने नहीं हैं। उन्होंने लिखा है कि वैदिक काल में वासन्तिक विषुवत् (वसन्त ऋतु का अहोरात्र-समत्व) अग्रहणी संक्रान्ति में हुआ करता था, परन्तु ब्राह्मण-काल में वही कृत्तिका में होने लगा था। इसी प्रमाण पर उन्होंने वेद और ब्राह्मणकाल का पूर्वोक्त अनुमान किया है। योरप और अमेरिका के विद्वानों ने पहले यह सिद्धान्त स्वीकार न किया, परन्तु उन्होंने जब विशेष गवेषणा की तब उनको भी "ओरायन" के सिद्धान्त पर विश्वास आने लगा। इसका फल यह हुआ कि वेदों की अधिक प्राचीनता सिद्ध हुई। यहाँ तक कि अमेरिका के वोस्टन-विश्वविद्यालय के सभापति डाक्टर वारन ने एक पुस्तक*[१] लिख कर यह अनुमान किया कि मनुष्य-जाति का आदिम निवास उत्तरी ध्रुव के आस पास था और वही हिन्दू तथा पारसियों का स्वर्ग कहलाता था।
तिलक महोदय ने "ओरायन" में जो कुछ कहा है उसकी अनुवृत्ति एक नये अँगरेजी ग्रंथ में उन्होंने की है। उसका नाम है-Arctic Home in the Vedas अर्थात् उत्तरी ध्रुव में रहने का वेदों में प्रमाण। यह अभी कुछ ही दिन हुए प्रकाशित हुआ है। इसमें जो बातें कही गई हैं उनके कुछ अंश का अनुमोदन डाक्टर वारन ने पहले ही से कर रक्खा था जैसा कि ऊपर कहा गया है। डाक्टर वारन ने यह अनुमान किया था कि आदिम आर्य्य उत्तरी ध्रुव के आस पास रहते थे और वही पीछे से स्वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परन्तु इस बात को सप्रमाण सिद्ध करने का पुण्य तिलक ही के भाग्य में था। यह पुस्तक तिलक को उद्भट विद्वत्ता और सुतीक्ष्ण बुद्धि का उत्कट प्रमाण है। इसकी पढ़ कर बड़े बड़े विद्वानों†[२] ने ग्रन्थकर्ता की सहस्र मुख से प्रशंसा
की है। औरों को तो बात ही नहीं "पायनियर" तक ने इसके स्तुति पाठ में अपना एक स्तम्भ खर्च किया है। पहली बार,
तिलक के साथ जब उनके मित्र गोपाल गणेश आगरकर, एम० ए०, कारागार-वासी हुए थे तब उन्होंने कारागार ही में एक पुस्तक लिखी थी। सुनते हैं, तिलक ने भी यह नई पुस्तक, इस बार, जेल में आरम्भ की थी और उसको बहुत कुछ सामग्री उन्होंने वही इकट्ठी की थी। वहाँ के कठिन परिश्रम के अनन्तर जो समय उनको मिलता था उसमे वे वैदिक साहित्य से प्रमाण संग्रह करते थे।
असामान्य-बुद्धि-वैभव-शाली पुरुषों की सभी लीलायें असामान्य होती हैं। बड़ी बड़ी आपत्तियों में भी उनका चित्त चञ्चल नहीं होता; उनकी बुद्धि पूर्व्ववत् बनी रहती है; वे ज़रा भी धैर्य-च्युत नहीं होते। तिलक महाशय इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है।
तिलक ने अपनी इस नई पुस्तक में यह सिद्ध किया है कि
आदिम आर्य्य मेरु प्रदेश, अर्थात् उत्तरी ध्रुव, के आस पास ही
रहा करते थे। इस अनुमान के सिद्ध करने के लिए उन्होंने वेदों
से, पारसियों की धर्म पुस्तक अवेस्ता से, और प्राचीन ग्रीक लोगों
के यहाॅ प्रचलित गाथाओं से प्रमाण उद्घृत किये है। उनके लेखन-
कौशल, उनकी प्रमाण-चयन-प्रणाली, उनकी तकना-पद्धति को
देख कर आश्चर्य होता है। उन्होने अपने मत को इस योग्यता
से प्रतिपादित किया है कि उसे स्वीकार करने में बहुत ही कम
सन्देह किया जा सकता है। किस अकाट्य युक्ति से उन्होंने
आर्य्यो का आदिम स्थान उत्तरी ध्रुव मे निश्चय किया है, उसका कुछ आभास हम यहाँ पर देना चाहते है। परन्तु उत्तरी ध्रुव में रहने का नाम सुनते ही आश्चर्य होता है और इस बात पर विश्वास नहीं आता। जो प्रदेश सर्वथा हिमाच्छन्न, जहाँ जल और थल में कुछ भी भेद नही, सभी हिममय; जहाँ डाक्टर नानसेन के दृढ़ से दृढ़ जहाज़ बर्फ की चट्टानों से टकरा कर टूटने से बचे; वहाँ वास! यह बिलकुल ही असम्भव जान पड़ता है; परन्तु यदि मेरु-प्रदेश में आर्य्यो का वास न माना जाय तो वेदों के अनेक मन्त्रों का ठीक ठीक अर्थ ही नहीं लग सकता। अतएव आज कल के इस बर्फ से ढके हुए देश मे किसी समय आर्य्यो का निवास लाचार होकर मानना ही पड़ता है।
सूर्य्य की गति के हिसाब से पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध के निरक्ष-वृत्त से ६६ और ९० अंश के बीच का प्रदेश हिम-मण्डल कहलाता है। वह सदैव बर्फ़ से आच्छन्न रहता है। लापलैंड और साइबेरिया का कुछ भाग इसी मण्डल के अन्तर्गत है। इसमे प्रायः लाप जाति के मनुष्य वसते हैं। इस समय वहॉ जितना शीत पड़ता है, किसी समय, इससे भी अधिक पड़ता था। यहाँ तक कि बर्फ की नदियाॅ बड़े वेग से वह निकलती थीं और उनके प्रवाह में पड़ कर देश के देश उजाड़ होकर उनके नीचे दब जाते थे। इस हिम-प्रलय का प्रमाण वर्तमान हाथी का प्रपितामह ममोथ (Mammoth) नामक ऐरावत है। इस समय यह जीव पृथ्वी में नहीं रह गया। परन्तु साइवेरिया में इसके
सैकड़ो अस्थि-पन्जर बर्फ में गड़े हुए पाए गये हैं। किसी किसी ऐरावत के शरीर मे मांस और चमड़ा भी पूर्ववत् पाया गया है। ये जीव हिम-प्रवाह के समय प्रवाह मे पड़कर जमीन में गड़ गये थे। इसके सिवा भूगर्भ-विद्या के जानने वालों ने हिम-प्रलय के और भी कई प्रमाण पाये हैं। पहले प्रलय को हुए न मालूम कितने हजार वर्ष हुए। इसके अनन्तर और भी कई हिम-प्रलय हुए हैं। इस ऐरावत के दांतो में उसका चित्र भी खोदा हुआ मिला है। चित्र निःसंशय मनुष्य ही के द्वारा खींचा गया होगा। फिर, मित्र देश में कोई आठ हजार वर्ष की पुरानी कबरें मिली हैं। उनके भीतर से पत्थरों के हथियार, कई प्रकार के बर्तन और मनुष्यो के सकेश अस्थि-पञ्जर आदि निकले है। इन बातों से सिद्ध है कि जो लोग मानव-जाति की उत्पत्ति ईसा के चार ही पांच हजार वर्ष पहिले मानते है उनका मत सर्वथा अग्राह्य है। ईसा के कम से कम आठ हजार वर्ष पहले ही मनुष्यों की सृष्टि हो चुकी थी।
तिलक महाशय, अपनी इस नई पुस्तक मे, कहते हैं कि पूर्वोक्त हिम-प्रलय के समय पुराने आर्य हिम-मण्डल को छोड़ कर, कुछ दक्षिण की ओर चले आये थे। वहां आने के कई हजार वर्ष पहले वे मेरु-सन्निहित देश (Arctic Region) अर्थात् उत्तरी ध्रुव के निकट रहते थे। उस समय उस प्रदेश में चिरकाल शरद ऋतु रहती थी। जब शीत का आधिक्य अर्थात् हिम-प्रलय हुआ तब उन्होंने वह देश छोड़ दिया। हिम-प्रलय होने पर मेरु-प्रदेश मानव-जाति के रहने योग्य न था। आर्य्यों के दक्षिण की ओर चले आने पर फिर भी हिमके कई खण्ड-प्रलय हुए। इस कारण आर्य्यों को धीरे धीरे वह देश भी छोड़कर और नीचे, दक्षिण की ओर, बढ़ आना पड़ा। तिलक के मत मे अन्तिम हिम-प्रलय हुए १०,००० वर्ष हुए, और कोई ६००० वर्ष ईसा के पहले आर्य-गण मध्य एशिया में रहने लगे थे।
श्रीमान् तिलक ने आर्य्यों के मेरु प्रदेश में रहने का जो सिद्धान्त निकाला है उसके अब संक्षिप्त प्रमाण सुनिए-
वेदों में उत्तरी ध्रुव सम्बन्धी जो बात हैं वे तो हैं ही, पारसियों की धर्म्मपुस्तक अवेस्ता में यह बात अधिक स्पष्टता से लिखी है कि "एरायन वायजो" (Airyana Vaejo) अर्थात् आर्य्यों का स्वर्ग-लोक एक ऐसे प्रदेश में था जहां वर्ष में एकही बार सूर्योदय होता था। इस स्वर्गलोक को बर्फ की वर्षा ने नाश कर दिया। इसलिए उसे छोड़कर आर्य लोग दक्षिण की ओर चले आये। वेद और अवेस्ता के कितने ही वचन इस बात की साक्षी देते हैं कि हिम-प्रलय के पहले मेरुप्रान्त में बहुत कम जाड़ा पड़ता था। वहां एक प्रकार का सदा वसन्त रहता था। स्पिट्जबर्गन के समान स्थानों में, जहाँ, इस समय नवम्बर से मार्च तक, सूर्य क्षितिज के नीचे रहता है, उस समय ऐसे लता-पत्र और घास-पात उगते थे जो आज कल न बहुत सर्द और न बहुत गर्म जल-वायु वाले देशो ही में होते हैं। इसके सिवा खगोल-विद्या-विषयक कुछ बातें ऐसी हैं जो मेरु-प्रदेश में एक विशेष रूप में पाई जाती हैं। इन विशेष बातो का उल्लेख यदि वेदों में मिले तो उससे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाय कि वैदिक ऋषि उस प्रदेश से परिचित थे और उनके पूर्वज, किसी समय वहां रहते थे।
उत्तरी ध्रुव में आकाश मण्डल सिर के ऊपर घूमता हुआ जान पड़ता है। यह उत्तरी ध्रुव की खगोल-सम्बन्धिनी एक विशेष बात है। उसका वर्णन वेदों में विद्यमान है। उनमें आकाश के घूमने की उपमा चक्के (पहिए) से दी गई है, और लिखा है कि यह दिव्य मण्डल मानों एक धुरी के ऊपर रक्खा हुआ घूम रहा है।
इन्द्राय गिरो अनिशित सर्गा अयः प्रेरयं सगरस्य बुध्नात।
ये अक्षेणेव च क्रिया शचीभिर्विष्वक्तस्तम्भपृथिवीमुत्तधाम्॥
(ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त ८६, मन्त्र ४)
इसमें यह कहा गया है कि इन्द्र अपनी शक्ति से पृथ्वी और आकाश को इस प्रकार अलग अलग थामे हुए है जैसे गाड़ी के दोनों चक्कों को उसका धुरा थामे रहता है। तिलक का कथन है कि आकाश का चक्रवत् भ्रमण मेरु-प्रदेश की अवस्था का सूचक है। इस देश के संस्कृत-साहित्य में यह बात ठौर ठौर पर पाई जाती है कि देवताओं की दिन-रात छः महीने की होती है। यह बात पुराणों में भी लिखी है, महाभारत में भी है, और ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रन्थों में भी है। पुराने ज्योतिषियों ने मेरु पर्वत को पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव माना है, और सूर्य सिद्धान्त में लिखा है-
मेरौ मेषादिचक्राधे देवाः पश्यन्ति भास्करम्।
अ॰१२, श्लोक ६७
यदि आर्य्यों के पूर्वज कभी उत्तरी ध्रुव में रहते थे तो उनके देवता भी निःसन्देह वहीं कहीं रहते रहे होंगे। प्राचीनों पर नवीनों की विशेष श्रद्धा होती है। इस समय हम लोग प्राचीन ऋषि-मुनियों को देवताओ से कम नहीं समझते। अतएव सर्वथा सम्भव है कि वैदिक आर्य्यों ने अपने पूर्वजों को देवता माना हो। अब मनुस्मृति का एक प्रमाण सुनिए-
दैवे राज्यहनी वर्ष प्रविभागस्वयोः पुनः।
अहस्तत्रोद्गयनो रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्॥
अ॰१, श्लोक ६७
अर्थात् मनुष्यों का एक वर्ष देवताओ के एक दिन-रात के बराबर है। इन दोनों का फिर इस प्रकार विभाग किया गया है-सूर्य का उत्तराधिमुख-गमन दिन है और दक्षिणाभिमुख-गमन रात। महाभारत में तो सुमेरु का बहुत अच्छा और स्पष्ट वर्णन है। वनपर्व के १६३ और १६४ अध्यायों में अजन के सुमेरु पर्वत पर जाने का विस्तृत वर्णन है। वहां लिखा है-
एनं त्वहरहर्मेरुं सूर्याचन्द्रमसौ ध्रुवम्।
प्रदक्षिणमुपावृत्य कुरुतः कुरुनन्दन॥
ज्योतीषि चाप्यशेषेण सर्वाप्यनघ सर्वतः।
परियान्ति महाराज गिरराज-प्रदक्षिणम्॥
अ॰ १६३, श्लोक ३७-६८
सूर्य्य और चन्द्रमा प्रति दिन बाईं से दाहिनी ओर को, सुमेरु की प्रदक्षिणा करते हैं; तारागण भी ऐसा ही करते हैं। थोड़ी दूर पर फिर लिखा है—
स्वतेजसा तस्य नगोञमस्य महोपधीनाञ्च तथा प्रभावान्।
विभक्तभावो न बभूव कश्चिदहोनिशानां पुरुषप्रवीर॥
अ॰ १६४, श्लोक ८
अपनी दीप्त और महौषधियों से सुमेरु-पर्वत अन्धकार को यहां तक जीत लेता है कि रात और दिन का भेद ही नहीं रह जाता। आगे लिखा है—
xxx
बभूव रात्रिर्दिवसश्च तेषां सम्वत्सरेणेव समानरूपः॥
अ॰ १६४०, श्लोक १३
वहाँ के रहने वालों का रात-दिन मिला कर हम लोगों का एक वर्ष होता है। इन प्रमाणों से यह सिद्ध है कि महाभारत के समय उसके रचयिता को उत्तरी ध्रुव का ठीक ठीक ज्ञान था। सुमेरु-की दीप्ति का जो उल्लेख है उससे, बहुत करके, मेरुज्योति (Aurora Borealis) से अभिप्राय है। यह ज्योतिर्माला उत्तरी ध्रुव ही में देख पड़ती है। ये बातें ऐसी हैं जो ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धिनी गणना, अर्थात् गणित, द्वारा नहीं जानी गई होंगी, क्योंकि उस समय ज्योतिष-विद्या की इतनी उन्नति नहीं हुई थी। बिना आँख से देखे, अथवा जिसने देखा है उससे सुने, इनका इतना, विशुद्ध ज्ञान नहीं हो सकता। तैत्तिरीय ब्राह्मण में तो स्पष्ट लिखा है कि जिसे हम वर्ष कहते हैं वह देवताओं का एक दिन है, (३, ९, २२, १) पारसियों की अवेस्ता मे भी ठीक एक ऐसी ही उक्ति है।
उत्तरी ध्रुव मे चैत्र से भादों तक अविराम दिन रहता है, और आश्विन से फाल्गुन तक अविराम रात रहती है। यह ९० अक्षांश की बात है। वहां रात के आरम्भ और अन्त में, ५२ दिन तक, बराबर उषःकाल रहता है। ८९ अक्षांश से नीचे के भू-भाग में क्रम क्रम से इस परिणाम में अन्तर पड़ता जाता है। यहां पर यह शंका हो सकती है कि जहाँ ६ महीने रात रहती है वहां मनुष्य कैसे रह सकता है। इसका समाधान बहुत सरल है। पहले तो ऐसे स्थानो में, चार महीने के लगभग, तड़का (उषःकाल) रहता है। गरमियों में पांच बजे प्रातःकाल और सात बजे सायंकाल जितना उजियाला रहता है उतना ही वहां रहता है। अतएव कोई सांसारिक काम, उस समय, एक नहीं सकता। फिर जो दो महीने रात रहती है उसमें मेरु-ज्योति का बहुत ही मनोमोहिक प्रकाश होता है। मेरु प्रदेश में भ्रमण करने वाले डाक्टर नानूसेन ने मेरुज्योति (Aurora Borealis) का बड़ा ही विलक्षण वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि "उसकी शोभा और आभा का वर्णन शब्दों द्वारा किया जाना सर्वथा असम्भव है। वह अन्तर्हित प्रकाशपुञ्ज है। बिना देखे उसकी सुन्दरता का अनुमान मनुष्य को स्वप्न में भी नहीं हो सकता। वह आकाश में नृत्य सा किया करती है। वह कभी कभी तेजोमय सूर्याकृति धारण करके सिर के ऊपर भांति भांति के खेल से करती है।" अतएव, रात में जहाँ ऐसा अलौकिक प्रकाश होता है उस देश को मनुष्य-निवास के सर्वथा योग्य समझना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं। डाक्टर नानूसेन के अनुसार तो मेरु-प्रदेश के समान रमणीय और देश ही नहीं। फिर जिस समय आर्यगण वहां रहते थे उस समय वहां उतना शीत न पड़ता था। शीत कुछ था अवश्य, परन्तु वसन्त ऋतु का सा था। शीत ही के कारण, अनुमान होता है, प्राचीन आर्य हवन करने लगे थे। उनके अग्नि-होत्री और हवन-प्रिय होने का यही कारण जान पड़ता है। दीप-दान इत्यादि की प्रथा भी इसी कारण से प्रचलित हुई जान पड़ती है। दीपक का उपयोग रात ही में होता है। दिन में किसी देवता को दीप दिखलाना और न दिखलाना बराबर है।
प्रति वर्ष विपुव-वृत्त से उत्तर २४ अंश और दक्षिण भी उतने ही अंश तक सूर्य का आवागमन होता है। वैदिक काल में जब सूर्य विषव-वृत्त से उत्तर को जाता था तब उसे उत्तरायण संज्ञा प्राप्त होती थी; और जब वह इस वृत्त से दक्षिण को गमन करता था तब वह दक्षिणायन कहलाता था। उसी उत्तरायण का नाम वेदों में देवयान और दक्षिणायन का पितृयान है। इस देवयान और पितृयान का ऋग्वेद-संहिता में अनेक बार उल्लेख आया है। एक उदाहरण लीजिए-
प्र-मे पन्था देवयाना अदृश्यन्तमर्धन्तो वसुमिरिष्कृतासः
अमूदु केतुरुषसः पुरस्तात्प्रतीव्यागादधि हर्मेभ्यः॥
मं॰७, सूक्त १६, मंत्र २।
परं मृत्यो अनुपदे हि पन्था यस्ते स्व इतरो देवयानात्।
चक्षुष्मते शृरावते ते व्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्
मण्डल १० सूक्त १८, मन्त्र १
इसमें "देवयानात् इतरः" इन शब्दों से पितृयान अर्थ लिया गया है; क्योंकि देवयान का उल्टा पितृयान ही हो सकता है। यहां पर पितृयान मृत्यु का मार्ग माना गया है। जब देवयान का आरम्भ उषा अर्थात् प्रात:काल से होता था, तब पितृयान का आरम्भ सायङ्काल से होना ही चाहिए। इसलिए तिलक महाशय का अनुमान है कि देवयान से वैदिक ऋषियो का आशय दिन और पितृयान से रात का था। इन दो भागों में, उस समय, वर्ष विभक्त था। यह लक्षण मेरु-प्रदेश मे तब भी पाया जाता था और अब भी पाया जाता है। पारसियों के धर्म-ग्रंथ में भी यही बात लिखी है। वहाँ उसका और भी स्पष्ट वर्णन है। लिखा है कि "जिसको वर्ष कहते है उसको वे लोग एक दिन मानते हैं। वहां पर चन्द्र, सूर्य्य आदि वर्ष में एकही बार उदित और अस्त होते है और एक दिन एक वर्ष के समान जान पड़ता है।" इससे अधिक स्पष्ट मेरु-प्रदेश का वर्णन और क्या होगा? दक्षिणायन सूर्य ही का नाम पितृ-यान है। पितृयान में मरना अशुभ माना गया है। इस लिए भीष्म शरशय्या पर बहुत दिन तक पड़े पड़े, मरने के लिए, देवयान की प्रतीक्षा करते रहे। पितृयान मे बराबर ६ महीने तक रात रहती थी। रात में मृतकों का दाह-कार्य अच्छी तरह नहीं हो सकता। इसीलिए इस काल में मरना बुरा माना गया है। इससे हज़ारों वर्ष को पुरानी रूढ़ि का चिन्ह, अब तक, इस देश में विद्यमान है। अब यहां यद्यपि केवल १२ घण्टे की रात होती है, तथापि रात में चिता दाह नहीं होता। यह रीति उसी प्राचीन वैदिक रीति की सूचक है।
वैदिक साहित्य में लम्बी उषाओं का भी वर्णन है। जैसे पहले हम एक जगह लिख आए हैं, उत्तरी ध्रुव में लगभग दो महीने तक उषा अर्थात प्रातःकाल रहता है। ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि "गवामयनम्" सत्र में होता (हवन करने वाला) उषःकाल रहते रहते, एक हज़ार ऋक् पाठ करता था। आश्वलायन और आपस्तम्म ने तो यहां तक कहा है कि सूर्योदय के पहले ही वे ऋग्वेद के समय दश मण्डलो की आवृत्ति करेंगे। इससे सिद्ध है कि उस समय बहुत देर में सूर्योदय होता था। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के ७६वें सूक्त के अन्तर्गत तीसरे मन्त्र में लिखा है "सूर्योदय के पहले बहुत दिन थे; उन दिनों में हे उषा, तुम सूर्य की ओर जाती थी"। यहां पर देखिए, बहुत काल-व्यापिनी उषा का स्पष्ट उल्लेख है। ऐसी उषा केवल उत्तरी ध्रुव में होती है; अन्यत्र नहीं।
जैसे प्रमाण ऊपर दिये गये हैं वैसे अनेक प्रमाण तिलक ने अपने अपूर्व-पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ में दिये हैं। वेदों से, ब्राह्मणों से, पुराणों से, ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रंथों से, पारसियों के धर्म-ग्रन्थ से और ग्रीक के लोगो की प्राचीन गाथाओं से उन्होने ऐसे अनेक वचन उद्धृत किये हैं जिनसे निर्विवाद सूचित होता है कि किसी समय हम लोगों के पूर्वज मेरु-प्रदेश मे रहते थे। यही नहीं, भूगर्भविद्या के अखण्डनीय सिद्धान्तों द्वारा उन्होंने यह भी प्रायः सिद्ध कर दिया है कि मानवसृष्टि का आरम्भ हुए अनन्त काल व्यतीत हुआ। पहले हिम-प्रलय के पूर्व्व प्राचीन आर्य्य उत्तरीय ध्रुव के ठीक आस पास रहते थे और अन्तिम खण्ड-प्रलय हुए कोई १०००० वर्ष हुए।
यहां पर एक शङ्का होती है कि यदि आदिम आर्य्य मेरु-प्रदेश में रहते थे; और वेदो मे जो आकाश-मण्डल, चन्द्र-सूर्य, दिन-रात और उषा आदि का वर्णन है वह यदि उसी प्रदेश का है, तो उन्होने वेदों में कहीं इस बात का उल्लेख क्यों नहीं किया। विचार करने का विषय है कि हम लोगो को जब सौ पचास वर्ष की बात स्मरण नहीं रहती, जब हम, इस समय भी इतिहास की बड़ी बड़ी घटनाओं को भूल जाते है, जब हम अपने पूर्वजो के नाम तक कभी कभी नही बतला सकते, तब यदि हज़ारो वर्ष पहले के अपने निवास स्थान को आर्य भूल जायँ तो क्या आश्चर्य है? फिर, वे एक प्रकार से भूले भी नहीं। वंशपरम्परा से जो कुछ उन्होने सुन रक्खा था उसे उन्होंने वैदिक साहित्य में सन्निविष्ट भी कर दिया। देवरूपी अपने पूर्वजों के दिन-रात और सायं प्रातः आदि का थोड़ा बहुत वर्णन करने मे वे नहीं चूके।
हजारों वर्ष से हम लोग वेदाध्ययन करते आये हैं; परन्तु उनके अध्ययन द्वारा आर्य्यों के आदिम स्थान का पता, आज तक, कोई नहीं लगा सका। उसका श्रेय तिलक के लिये था, वह उनको आज प्राप्त हुआ। यदि इस बात का प्रमाणकर्त्ता कोई विलायती पंडित होता तो उसकी कीर्ति न जाने कहां कहां अब तक फैल गई होती। माननीय तिलक इस अर्द्धशिक्षित भारत के वासी हैं; इसलिए उनका यश उतना शीघ्र न प्रसारित होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि और गम्भीर गवेषणा से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तत्व का पता लगाया है। जो कोई उनके ग्रन्थ को पढ़ेगा वह अवश्य उनकी प्रशंशा करेगा। उनकी पुस्तक को पढ़ कर और उनके प्रकाण्ड परिश्रम का विचार करके, पढ़ने वाले के मन में एक अपूर्व भक्ति-भाव उदित होता है। ऐसे अनेक वैदिक मन्त्र हैं जिनका आशय ठीक ठीक समझ में नहीं आता। परन्तु तिलक महोदय के मत का प्रचार होने पर, उनकी पुस्तक से सम्बन्ध रखने वाले उन मन्त्रो का भाव सहज ही में स्पष्ट हो जायगा। पुस्तक-कर्त्ता ने इस पुस्तक के लिए बहुत कुछ सामग्री कारागार ही में एकत्रित कर ली थी। यह उनके लिये और भी प्रशंसा की बात है। एक प्रकार से यह अच्छा ही हुआ जो उनको राज-दण्ड मिला। यदि ऐसा न होता तो इस अज्ञातपूर्व वैदिक तत्व का उद्घाटन भी न होता। खेद की बात है कि ऐसा प्रकाण्ड पंडित, ऐसा वैदिक-तत्व दर्शी, ऐसा श्रमसहिष्णु, ऐसा गवेषणा-धुरन्धर विद्वान इस तरह विपत्ति जाल में फँसता रहे!
[मार्च १९०४
- ↑ * Paradise found on the Cradle of the Human Race as the NorthPole.
- ↑ † इलाहाबाद के म्युअर सेंट्रल कालेज के प्रधान अध्यापक डाक्टर थीवो तिलक के इस सिद्धान्त को सच्चा नहीं समझते। आपने एक व्याख्यान में ऐसा ही कहा है। परन्तु जब तक डाक्टर साहब इस सिद्धान्त का प्रमाण-पूर्वक खण्डन न करें तब तक उनका कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता।