अतीत-स्मृति/२ हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति

अतीत-स्मृति
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ ८ से – २२ तक

 
२-"हिन्दू" शब्द की व्युत्पत्ति

किसी किसी का मत है कि हिन्दू शब्द नदीवाचक सिन्धु शब्द का अपभ्रंश है और इंडस (Indus) अर्थात सिन्धु-शब्द से ही अँगरेज़ी शब्द इंडिया (India) की उत्पत्ति है। किसी किसी का मत है कि अरबी हिन्द-शब्द से अँगरेज़ी शब्द इंडिया निकला है। कोई कोई पंडित हिन्दू-शब्द की सिद्धि संस्कृत व्याकरण से करते हैं और कहते हैं कि वह हिसि+दो+धातुओं से बना है और हीन अर्थात् बुरे या कुमार्गगामी लोगों को दोष या दण्ड देने वाले आर्यों का नाम है। बहुत आदमी हिन्दू-शब्द को फ़ारसी भाषा का शब्द मानते हैं और उसका अर्थ चोर, डाकू, राहज़न गुलाम, काला, काफिर आदि करते हैं। फ़ारसी में हिन्दू-शब्द ज़रूर है और अर्थ भी उसका अच्छा नहीं है। इसी से इस शब्द के अर्थ की तरफ़ लोगों का इतना ध्यान गया है। सिन्धु से हिन्दू हो जाना या पुराने ज़माने में हिन्दुओं को तुच्छ दृष्टि से देखने वाले मुसलमानों का, उनके लिए काफिर और ग़ुलाम आदि अर्थों का वाचक शब्द प्रयोग करना, कोई विचित्र बात भी नहीं। परन्तु पंडित धर्म्मानन्द महाभारती न तो इन अर्थों में से किसी अर्थ को मानते हैं और न हिन्दू-शब्द की आज तक प्रसिद्ध व्युत्पत्ति ही को कबूल करते हैं। आपने पुरानी व्युत्पत्ति और पुराने अर्थ को ग़लत साबित करके हिन्दू-शब्द की उत्पत्ति और अर्थ एक नए ही ढंग से किया है। आप ने इस विषय पर, तीन चार वर्ष हुए, बँगला-भाषा में एक लेखमालिका निकाली थी। उसके उत्तर अंश का मतलब हम यहां पर, संक्षेप में, देते है-

फारसी में हिन्दू-शब्द यद्यपि रूढ़ हो गया है तथापि वह उस भाषा का नहीं है। लोगों का यह ख़्याल कि फ़ारसी का हिन्दू-शब्द संस्कृत सिन्धु-शब्द का अपभ्रंश है केवल भ्रम है। ऐसे अनेक शब्द हैं जो भिन्न भिन्न भाषाओं में एक ही रूप में पाये जाते है। यहाँ तक कि उनका अर्थ भी कहीं कही एक ही है। पर वे सब भिन्न भिन्न धातुओं से निकलते हैं। उदाहरण के लिए शिव शब्द को लीजिए। संस्कृत में उसकी साधनिका तीन धातुओं से हो सकती है। पर अर्थ सबका एक ही, अर्थात् कल्याण या मङ्गल का वाचक है। यही 'शिव' शब्द यहूदी भाषा में भी है। वह अँगरेज़ी अक्षरों में "Seeva" लिखा जाता है। पर उचारण उसका शिव होता है। वह यहूदी भाषा में 'शू' धातु से निकला है। उसका अर्थ है "लाल रंग"। यहूदियों में 'शिव' नाम का एक वीर भी हो गया है। अब, देखिए, क्या संस्कृत का 'शिव' यहूदियों के 'शिव' से भिन्न नही? लोग समझते हैं कि संस्कृत का 'सप्ताह' और फ़ारसी का 'हफ़्ता' शब्द एकार्थवाची होने के कारण एक ही धातु से निकले हैं। यह उनका भ्रम है। हफ़्ता एक ऐसी धातु से निकला है जो संस्कृत-सप्ताह शब्द से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। फारसी में से (से)स (स्वाद) स (सीन) श (शीन) ऐसे चार वर्ण हैं जिनका उचारण एक दूसरे से बहुत कुछ मिलता है। अतएव सप्ताह का 'स' हफ़्ता के 'ह' में कभी नहीं बदल सकता। हफ़्ता शब्द सप्ताह का अपभ्रंश नहीं। जो कोई उसे सप्ताह का अपभ्रंश समझते हैं वे भूलते हैं।

ईसा के पांच सौ वर्ष बाद मुहम्मद का जन्म हुआ। उनके जन्म के कोई साढ़े सात सौ वर्ष वाद मुसल्मानों ने भारत में पदार्पण किया। यदि हिन्दू-शब्द मुसल्मानों का बनाया हुआ है तो उसकी उमर बारह सौ वर्ष से अधिक नहीं। परन्तु पाठकों को सुन कर आश्चर्य होगा कि हिन्दू-शब्द ईसा के जन्म से भी कई हज़ार वर्ष पहले का है। तो फिर क्या वह वेदों में है! नहीं। किसी शास्त्र में है? नहीं। जैनों या बौद्धों के पुराने ग्रंथों में है। नहीं। फिर है कहां? है वह अग्निपूजक पारसियों के धर्म्मग्रन्थ ज़ेन्दावस्ता मे। जिन पारसियों को आज कल हिन्दू लोग, धर्म्म के सम्बन्ध में, बुरी दृष्टि से देखते हैं उन्हीं के प्राचीनतम ऋषियों और विद्वान् पंडितों ने हिन्दू-शब्द के आदिम रूप को अपने धर्मग्रंथ में स्थान दिया है। वह आदिम रूप हन्द् शब्द है। यहूदियों की धर्म-पुस्तक ओल्ड टेस्टामेंट (बाइबल के पुराने भाग) में भी हन्द् शब्द पाया जाता है। अब देखना है कि इन दोनों ग्रन्थों में से अधिक पुराना ग्रन्थ कौन है।

क्रिश्चियन लोगों का कथन है कि बाइबिल का पुराना भाग क्राइस्ट से पांच हजार वर्ष पहले का है। इसमें कोई सन्देह नहीं। इसे वे पूरे तौर पर सच समझते हैं। पारसी कहते हैं-"Our Zendavesta is as ancient as the creation; It is as old as the Sun or the Moon" "अर्थात् धर्मग्रन्थ जेन्दावस्ता इतना पुराना है जितनी यह सृष्टि; वह इतना प्राचीन है जितना सूर्य्य या चन्द्रमा"। पारसियों की यह उक्ति सच है। इसके प्रमाण-

(१) यहूदियों का धर्म्म-शास्त्र, ओल्ड टेस्टामेंट, हिब्रू अर्थात् इब्रीय भाषा में है और पारसियों की ज़ेन्दावस्ता ज़ेन्द भाषा में। हिब्रू भाषा की अपेक्षा जेन्द भाषा बहुत पुरानी है।

(२) ओल्ड टेस्टामेंट में अनेक नये नये स्थानो और जंगलों का नाम है। वे स्थान और जंगल ज़ेन्दावस्ता के समय मे न थे।

(३) हाल साहेब और मिस्टर मलाबारी कहते हैं कि पुरानी पारसी जाति मे मनु के आर्ष विवाह के समान सभ्य विवाह पद्धति प्रचलित न थी। परन्तु ओल्ड-टेस्टामेंट मे इस ग्रन्थ के विवाह का वर्णन है। ओल्ड-टेस्टामेंट के प्रचार के पूर्ववर्ती समाज में जिस प्रकार की विवाह-प्रथा प्रचलित थी उसका वर्णन ज़ेन्दावस्ता में है।

(४) ज़ेन्दावस्ता में यहूदी शब्द या यहूदी जाति का नाम नही है, पर ओल्ड-टेस्टामेंट में कम से कम नौ दफे पारसी जाति का ज़िक्र है।

(५) बाइबिल में कई जगह लिखा है कि पारसियों ने यहूदियों को जीत कर बहुत काल तक उनके देश में राज किया। पर यहूदियों में किसी ने भी पारसियों को विजय नहीं किया।

(६) अग्निपूजा पृथ्वी की प्राचीन जातियों में सबसे अधिक प्राचीन प्रथा है। ओल्ड-टेस्टामेंट के समय में अग्नि-पूजा बन्द हो गई थी; पर ज़ेन्दावस्ता के समय में उसका खूब प्रचार था। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि ओल्ड-टेस्टामेंट से ज़ेन्दावस्ता पुराना ग्रन्थ है।

बँगला संवत् १३०६ के ज्येष्ट की "भारती" नामक बँगला मासिक पत्रिका में भारती सम्पादिका श्रीमती सरलादेवी, बी॰ए॰, लिखित एक प्रबन्ध छपा है। उसका नाम है "हिन्दू और निगर"। उसमें लिखा है-"हिन्दू-शब्द संस्कृत-सिन्धु-शब्द से उत्पन्न नहीं है।.........ज़ेन्दावस्ता नामक पारसियों का पुराना, धर्मग्रन्थ वेदों के समय का है। उसमें हिन्दू-शब्द एक दफ़े आया है। हारोबेरेजेति (अल्बुर्ज़) पहाड़ के पास पहले पहल ऐर्य्यन-बयेजो (आर्य निवास) था। धीरे धीरे अहमंज़दाने (पारसियों के परमेश्वर ने) सोलह शहर बसाये। उनमें से पन्द्रहवें शहर का नाम हुआ "हप्तहिन्दव"। वेदों में इसी को "सप्तसिन्धव" कहते हैं। ज़ेन्दावस्ता में तीर-इयास्ते नामक एक पहाड़ के लिए भी, एक बार, 'हिन्दव' शब्द आया है। अनुमान होता है, यही 'हिन्दव' शब्द आज कल के हिन्दूकुश-पर्वत का पिता है।

"व्यवहार में न आने के कारण यह मूल अर्थ धीरे धीरे भूल गया। तब, बहुत दिनों के बाद, वैयाकरण लोगो ने "स्यन्द" धातु के आगे औणादिक "अ" प्रत्यय लगाकर, किसी तरह तोड़ मरोड़कर, समुद्रार्थ-बोधक सिन्धु-शब्द पैदा कर दिया। यह उनकी सिर्फ़ कारीगरी मात्र है"। इत्यादि। यह बात बिलकुल नई है। इसके पहले और किसी ने इसका पता नहीं लगाया।

इससे मालूम हुआ कि हिन्दू-शब्द यवनों की समाप्ति नहीं; उसे मुसलमानों ने नहीं बनाया। ज़ेन्दावस्वा नामक अति प्राचीन और पारसियों के अति पवित्र ग्रन्थ में उसका प्रयोग सबसे पहले हुआ। ज़ेन्दावस्ता ग्रन्थ वेदों का समसामयिक है। प्राचीन पारसी लोग अग्निहोत्री (अग्नि के उपासक) थे। आज कल के पुरातत्वज्ञ उनकी गिनती प्राचीन आर्यों में करते हैं।

अभी तक आपने हिन्दू शब्द का सिर्फ अङ्कु्र देखा। अब देखिए अङ्कुरोत्पन्न वृक्ष और उसके बाद वृक्षोत्पन्न फल।

यहूदियों का धर्मशास्त्र, ओल्ड टेस्टामेंट, ३९ भागों में बँटा हुआ है। अथवा यों कहिए कि उसमें जुदा जुदा ३९ पुस्तकें हैं। उनमें से सत्रहवी पुस्तक का नाम है "दि बुक आफ़ यस्थर" (The Book of Esther) इसका हिब्रू नाम है आज़्थुर। इसके पहले अध्याय मे है-

"Now it came to pass in the days of Ahasuerus. This is Ahasuerus which reigned from India even unto Ethiopia, over an hundred and seven and twenty provinces. Esther, Chapter I. Verse I

अर्थात् अहासुरस् राजा ने इन्डिया से ईथियोपिया तक राज किया। अब इस बात का विचार करना है कि 'इन्डिया' (हिन्दोस्तान) शब्द किस अर्थ का वाचक है। याद रखिए, यहूदियों का ओल्ड-टेस्टामेंट ग्रन्थ ईसा से पाँच हजार वर्ष पहले का है। वह [हिब्रू भाषा में है। उसीके अँगरेज़ी अनुवाद में 'इंडिया' शब्द आया है। अच्छा, तो यह 'इंडिया' शब्द किस हिब्रू-शब्द का अनुवाद है। वह पूर्वोल्लिखित 'हन्द्' शब्द का भाषान्तर है। हिब्रू में 'हन्द्' शब्द का अर्थ है-विक्रम, गौरव, विभव, प्रजा-शक्ति, प्रभाव इत्यादि। यह बात ओल्ड-टेस्टामेंट में अनेक अवतरणों से साबित की जा सकती है। परन्तु उन सब प्रमाणों को देने से लेख अधिक बढ़ जायगा। इससे हम उन्हें नहीं देते। अब आज़्थुर-पुस्तक से जो वाक्य ऊपर दिया गया है उसके अर्थ का विचार कीजिए-"आहासुरस् राजा ने हन्द् (शक्ति) से इथियोपिया तक राज्य किया। जिस तरह अंगरेज़ी में बहुधा गुण-वाचक शब्द का परिचय सिर्फ उसके गुणों के उल्लेख से होता है उसी तरह हिब्रू भाषा में भी होता है। अतएव, "हन्द् से ईथियोपिया तक राज्य किया" इस वाक्य का अर्थ हुआ "हन्द् (शक्ति विशिष्ट राज्य) से लेकर इथियोपिया तक राज किया।" जिनको इस बात पर विश्वास न हो वे डाक्टर हेग का बनाया हुआ अँगरेज़ी-हिब्रू व्याकरण देखने की कृपा करें।

यहूदी लोग ग्रीक लोगों से पुराने हैं। ग्रीस में एक ऐतिहासिक लेखक हो गया है। उसका नाम था मिगास्थनीज़। उसने एक जगह लिखा है-"यहूदी लोगों ने पारसियों से ज्ञान और शिक्षा और भारतवासियों से धन और प्रभुत्व प्राप्त किया था"। यहूदियों ने भारतवर्ष में व्यापार करके बहुत धन कमाया था, यह बात यहूदियों ने अपने ही लिखे हुए इतिहास में स्वीकार की है। इसके और भी अनेक प्रमाण ग्रीस और रोम-विषयक पुस्तकों में पाये जाते हैं। यहूदी राजा दाऊद के पुत्र सालोमन के विश्व-विख्यात मन्दिर के लिए लकड़ी, चूना, पत्थर इत्यादि मसाला हिन्दोस्तान से गया था। थराक्लूश नामक एक ग्रीक ग्रन्थकार ने लिखा है-"भारतवर्ष का विक्रम और गौरव देख कर ही यहूदी लोग इस देश को हन्द् कह कर पुकारते थे"। अब देखना है कि यहूदी लोगों ने इस हन्द् शब्द को पाया कहां से? पाया उन्होंने पारसियों की ज़ेन्दावस्ता से। प्रमाण-

(१) यहूदियों के देश में बहुत काल तक पारसियो ने राज्य किया। उनके राज्य-काल में यहूदी अदालतों में ज़ेन्द भाषा ही बोलते थे। वे लोग ज़ेन्दावस्ता पढ़ते थे। इस से पारसियों के हिंदव शब्द से यहूदी जरूर परिचित रहे होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।

(२) यहूदियों ने ज़ेन्दावस्ता में अनेक देशों, पर्वतों और नदियों आदि के नाम लिखे हैं। यथा

ज़ेन्द भाषा। हिब्रू भाषा।
तराशश् (Taurus) ... तरश
मोश्जा ... मोशजा
मज़दाहा ... मेशाया(Messiah)
कोशा। ... कोशा
अर्द्जु। ... इयारजउ

हिब्रू-भाषा कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं। वह ज़ेन्द भाषा से उत्पन्न है। अतएव यह बात अखण्डनीय सत्य है कि ज़ेन्द भाषा के हिन्दव शब्द ही ने हिब्रू भाषा में हन्द् रूप धारण किया। इसकी पुष्टि में अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं।

पाठक, आपने महाजनों की मुँड़िया लिपि देखी है। न देखी होगी तो उसकी विशिष्टता से आप ज़रूर हो वाक़िफ होंगे। उसमें आकार, इकार, उकार आदि की मात्रायें नहीं होतीं। इससे बाबा, बीबी, बूबू, बोबो सब एक ही तरह लिखे जाते हैं। अपेक्षित शब्द पढ़ने वाले अपनी बुद्धि से पढ़ लेते हैं। इसी कारण कभी कभी मामा की मामी, किश्ती की कुश्ती, घड़ा का घोड़ा और "अजमेर गये" का "आज मर गये" हो जाता है। हिब्रू भाषा भी ऐसी ही है। उसमें भी इकार, उकार, आदि नहीं है। वह दाहने हाथ की तरफ़ से लिखी जाती है। उसकी पुत्री अरबी और पौत्री फ़ारसी भाषा है। इन दोनों भाषाओं में ज़ेर, ज़बर और पेश आदि चिन्हों के प्रयोग द्वारा वैय्याकरणों ने अकार, इकार और उकार का उच्चाण किसी प्रकार निश्चित कर लिया है। पर हिब्रू में यह बात अब तक नहीं हुई। उसकी वर्णमाला में सिर्फ दो ही एक स्वर हैं, सो भी अपरिस्फुट। चिन्हों के द्वारा अनेक शब्दों का उच्चारण होता है। इससे क्या होता है कि बहुत स्थलों में इकार का लोप हो जाता है। देखिए-

जेन्द। हिब्रू।
किरियाद् .. करयोयद्
शिकिना ... सकना

हिशिया
हिज्रद
विरजोद्

...
...
...

अशयः
यजानुद
वर्जाद्

यदि हम यह कह दें कि हिब्रू में हकार है हा नहीं तो भी अत्युक्ति न होगी। जो शब्द खास हिब्रू का नहीं है उसमें पूरा इकार नही होता। उच्चारण में इकार होने से भी वह लिखा नहीं जाता। यथा-

हिब्रू उच्चारण
जिहोवा
इिञ्जिल
इश्राइल
इजाया
इयाकुब
मरियम

...
...
...
...
...
...
...

हिब्रू लिखावट
जहोवा
अञ्जल्
यश्रहिल
आजाया
आकूब
मर्म

अतएव जेन्द-शब्द हिन्दव का इकार यदि हिब्रू में उड़ जाय तो आश्चर्य ही क्या है? अच्छा, इकार तो यो गया; अब यह बतलाइए कि "हिन्दव" का 'व' कार कहां और किस तरह गया? सुनिए, उसका भी पता हम बतलाते हैं। हिब्रू भाषा में त, थ, द, च, छ, ड, आदि अक्षरों का उचारण होने से व, फ ओ और य का लोप हो जाता है। प्रमाण-

हिब्रू-शब्द
तोवा---

उच्चारण में लोप
तोहा

अस‍्थुवा— अस‍्थुहा
सन्दव— सन्द अथवा सन‍्द्
गदव्— गद्
दाउदव्— दाउद
आदावो— आदाहा

अतएव पारसियों की ज़ेन्दावस्ता का पवित्र हिन्दव-शब्द हिब्रू भाषा में "हन‍्‍द्" हो गया। जो कुछ यहाँ तक लिखा गया उससे यह सिद्धान्त निकला कि—

(१) हिन्दू-शब्द पहले पहल ज़ेन्दावस्ता में प्रयुक्त हुआ।

(२) पारसी लोग इस शब्द के सृष्टिकर्ता हैं।

(३) यहूदियों ने इसे अपनी भाषा में लेकर हन‍्‍द् कर दिया।

ग्रीक लोग हिन्दोस्तान से बहुत दिनों से परिचित थे। उनको इस देश से खूब अभिज्ञता थी। जिस रास्ते से ग्रीक लोग हिन्दुस्तान आते थे उस रास्ते में एक पहाड़ पड़ता था। कई कारणों से उन्हें उसके पास ठहरना पड़ता था। इस रास्ते का वर्णन उन्होंने आहासुरस् राजा की पुस्तक में पढ़ा था। बर्फ़ से ढकी हुई और बहुत ऊँची पर्वतमाला को रास्ते में देखकर ग्रीक लोगों ने अपने साथियों से उसका नाम पूछा। उन्होंने कहा, नाम हम नहीं जानते। पर उनके साथ एक पुरोहित भी था। उसने कहा "मैंने सुना है कि इसके एक तरफ हन‍्‍द् देश की सीमा है और दूसरी तरफ ईथियोपिया राज्य की राजनैतिक सीमा"। इसी ईथियोपिया राज्य का हिब्रू नाम है कुश (Cush) बाइबिल (ओल्ड-टेस्टामेंट) की पहली पुस्तक, जेनोसिस, के दूसरे अध्याय की तेरहवीं आयत में है-

"And the name of the second river is Gihon; the same it is that compasseth the whole of the Ethiopia"

जहाँ पर यह आयत है उसके किनारे टीका में लिखा है कि इथियोपिया को यहूदी लोग कुश कहते थे। मूल हिब्रू में ईथियोपिया नहीं है। उसकी जगह कुश ही है। इसी कुश शब्द ने ग्रीक भाषा में कोश (Cosh)) रूप धारण किया। यह कोश-शब्द चेतना-विशिष्ट पुल्लिङ्ग है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कोश, इथियोपिया राज्य का नाम है। हिब्रू-भाषा की तरह ग्रीक भाषा के व्याकरण के अनुसार भी कोश-शब्द गुणवाचक है। हिब्रू-भाषा में कुश या कोश शब्द का अर्थ सीमा भी होता है और पर्वत भी होता है। इसी कुश या कोश से 'कोः', 'कोहे' शब्द निकले हैं जिनका अर्थ अरबी और फारसी भाषा में पर्वत था। पुराने ज़माने में इस देश की पश्चिमी सीमा हिन्दूकुश-पर्वत था। रघु के दिग्विजय मे, महाभारतोक्त गान्धारी के विवाह-वर्णन में, और पुराने भूगोल मे इस बात का प्रमाण मिलता है कि हिन्दूकुश के आस-पास भारतीय राजो का राज्य था; पर उसके आगे न था। इन्ही कारणों से ग्रीक लोगों ने हन्द् देश की सीमा के, अथवा हन्द् देश के सीमाज्ञापक पर्वत के, अर्थ में इस पहाड़ का नाम "हन्द् कोश" (Hand kosh) रक्खा। यह बात युक्तिसङ्गत् ओर सन्देह-हीन है। ग्रीक भाषा मे पर्वत-शब्द पुल्लिङ्ग और चेतनावान् है। अपभ्रंश होते होते वह सनद्कोश से "इंडिकस" हो गया। यही "इंडिकस" अंगरेज़ी राज्य में इंडिया (India) हुआ। अब देखिए, ज़ेन्दावस्ता का हिन्दव हिब्रू भाषा मे हुआ हन्द्। हिब्रू भाषा का हन्द् ग्रीक भाषा में हुआ हन्द् कोश-इडिकस। ग्रीक भाषा का इंडिकस अँगरेजी में हुआ है इंडिया।

हिन्दूकुश से अटक के किनारे तक जो लोग रहते है वे पश्तो भाषा बोलते हैं। ये लोग फ़ारस के आदिम निवासी है। फारसी से उनको भाषा बहुत मिलती है। धर्मान्तर ग्रहण करने के पहले ये लोग पारसियों की तरह अग्निपूजक थे। इन्हीं पश्तो बोलनेवाले भारतवासियों ने, अर्थात् ज़ेन्दावस्ता के माननेवाले अग्निसेवक पुराने पारसियो के वंशधरो ने, हन्द् शब्द के आगे हृस्व उ प्रयोग करके, उसे 'हन्दु' के रूप में बदल दिया। पश्तो व्याकरण के अनुसार हन्द् और हिन्द् शब्द के उत्तर हृस्व उ प्रत्यय करने से "युक्त" अर्थ होता है। प्रत्यय होने से हन्द् अर्थात् शक्ति, गौरव, विभव, प्रभाव इत्यादि इत्यादि महिमायुक्त जाति सूचक होती है। क्योकि परतो-व्याकरण के नियमानुसार उ प्रत्यय "गुणवाचक जाति या गुणवाचक पुरुष के आगे होता है"। प्राचीन आर्य्य हिन्दू-जाति के गौरव, पवित्रत्व और विभव आदि को देख कर ही पश्तो बोलने वालो ने उ प्रत्यय का प्रयोग किया था। पश्तो भाषा मे हन्द् और हन्दु शब्द गौरववाचक है। इसके प्रमाण मे पश्तो भाषा के दो पद्य नीचे पढ़िए

पुशरो लबोदे जङ्गीर फेजोयान्।
उरो उरो नम्र लाखियाल् लदे जङ्गेरे
हन्दु जेल् फाल्गो॥१॥
देवाट् देरन् ज, ज़रर् उहे रम्।
कत्लेबे पत्वे देश् तर् गो
हन्दु एन् सां डेरो॥२॥

इस प्रकार ज़ेन्दावस्ता का 'हिन्दव' शब्द पश्तो मे 'हन्द' तक पहुँचा। सिक्खधर्म्म-प्रवर्तक गुरु नानक के सैनिक शिष्यों ने गुरुमुखी भाषा मे उसे 'हिन्दु' कर दिया। नानक के पहले यह शब्द हिन्दव, सिन्धव, हन्दु और हन्द तक रहा। हिन्दु-वंशावतंस सिक्खो ने अन्त में उसे "हिन्दू" के रूप मे परिवर्तित कर दिया। जो लोग कहते हैं कि हिन्दू-शब्द सीमाबद्ध है वे बड़े ही भ्रान्त है। कहाँ फारस, कहाँ यहूदी देश; कहाँ ग्रीस, कहाँ अहासुरस् का राज्य। सब कहीं वही प्राचीन हिन्दू नाम!

इस विवेचना से सिद्ध हुआ कि हिन्दु-शब्द का अर्थ है-विक्रमशाली, प्रभावशाली आदि। सुप्रसिद्ध फरांसीसी लेखक जाकोलियेत (Jaquliethe) ने अपने एक ग्रन्थ मे लिखा है-"असाधारण बल और असाधारण विद्वत्ता के कारण पूर्वकाल मे भारतवर्ष पृथ्वी की सारी जातियों का आदरपात्र था।" जिस हिन्दू-जाति की साधुता, वीरता, विद्या, विभव और स्वाधीनता आदि देख कर पारसी, यहूदी, ग्रीक और रोमन लोग मोहित हो गये और मुसलमान-इतिहास लेखको ने जिस देश को स्वर्ग-भूमि कह कर उल्लेख किया, क्या उसी देश के रहने वाले काफिर काले, ग़ुलाम, कदाकार और परस्तापहारी कहे जा सकते हैं। यह बात क्या कभी विश्वास योग्य मानी जा सकती है? हिन्दू शब्द कदर-बोधक नहीं। हिन्दू-शब्द गौरव, गरिमा, विक्रम और वीरत्व का व्यञ्जक है। तो कहिए, क्या आप अब हिन्दू नाम छोड़ना चाहते हैं? जो ज्ञान, विज्ञान और सर्वशास्त्रीय तत्वों का आदर्श है, जो प्राणशीतलकारी ब्रह्म-विद्या का आकर है, जो विक्रम और विभव की खानि है वही पवित्र और प्रशस्त हिन्दू-नाम हमारे मस्तक की मणि है, हमारे देश का गौरव है, हमारी जाति के महत्व का व्यञ्जक है और वही इस अधःपतित, अर्द्धमृत, पदानत भारतीय आर्य्यजाति के जातीय जीवन का पुनरुद्दीपक है। हिन्दू एक ऐसा शब्द है, एक ऐसा नाम है, जिसके उच्चारण से मग्न हृदय में फिर आशा का सञ्चार हो जाता है; क्षीण देह मे बल-स्रोत फिर वेग से बहने लगता है; अन्तःकरण मे जातीय-गौरव का फिर अभ्युदय हो आता है। और मन में ब्रह्मानन्द का अतर्कित अनुभव होने लगता है। तब हिन्दू-नाम हम छोड़ें क्यों?

[जून १९०६