अतीत-स्मृति/१९ तक्षशिला की कुछ प्राचीन इमारतें

अतीत-स्मृति
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ २०७ से – २१२ तक

 
१९-तक्षशिला की कुछ प्राचीन इमारतें

भारतवर्ष के शतशः नहीं, सहस्रशः कीर्तिस्तम्भ काल की कुक्षि मे चले गये हैं। उनका अब कही पता नहीं। पुराने खंडहर खोदने से यदि कही उनका कोई भग्नांश निकल आता है तो पुराण-वस्तु-विज्ञानी उससे ग्रीस, फारिस, आसिरिया और बैबीलोनिया की बू निकालने लगते हैं। ऐसी कारीगरी उस समय ग्रीस ही में होती थी, अतएव भारतवासियो ने इसे उसी देश के कारीगरो से सीखा होगा। अथवा ऐसे मन्दिर या महल उस युग में फारिस या काबुल ही में बनते थे, इस कारण, हो न हो, यह वहाँ की नक़ल है। वे लोग इसी तरह के तर्को की उद्भावनायें करने लगते हैं। पहले इस प्रकार के वकों का जोर कुछ अधिक था, पर अब कुछ कम हो गया है। अब भारतवर्ष की पुरानी सभ्यता और पुराने कला-कौशल के चिह्न अधिक मिलते जा रहे है। इस कारण पुरानी तर्कना को कुछ इमारतें गिरने नही तो हिलने जरूर लगी हैं। क्योकि इन चिह्नों से भारतवर्ष की सभ्यता के बहुत पुराने होने के प्रमाण पाये जाते हैं। कुछ नये पुराविदों ने तो इस देश की सभ्यता को लाखों वर्ष की पुरानी सिद्ध करने के लिए पुस्तकें तक लिख डाली हैं।

यहां के अनेक महल, मन्दिर, स्तूप और गढ़ आदि तो काल खा गया। पर इस विनाश के विषय में विशेष शोक करने की ज़रूरत नहीं। क्योंकि जीर्ण होने पर सभी वस्तुओं का नाश अवश्यम्भावी है। परंतु जो इमारतें धर्मान्धों और बर्बर विदेशियों ने धर्मान्धता अथवा उत्पीड़न की प्रेरणा से ही नष्ट कर दी उनके असमय-नाश का विचार करके अवश्य ही शोक होता है। प्राचीन काल में तक्षशिला नामक नगरी बड़ी उन्नत अवस्था मे थी। वह लक्ष्मी की लीला-भूमि थी। वह विद्वानों का विहार-स्थल थी। बड़े बड़े प्रतापी नरेशों का प्रभुता-निकेतन थी। उसका आयतन बहुत विस्तृत था। कई नये नये नगर वहाँ क्स गये थे। कई पुराने नगर उजड़ गये थे। चिन्हों से जान पड़ता है कि ईसा के पांचवे शतक तक तक्षशिला-नगरी विद्यमान थी। तब तक भी वहाँ अनेक अभ्रंकष प्रासाद, स्तूप, विहार आदि उस के वैभव की घोषणा उच्च स्वर से कर रहे थे। अकस्मात् उस पर हूणों ने चढ़ाई कर दी। वहां के तत्कालीन अधीश्वर की हार हुई। विजयी हूणों ने उसे खूब लूटा। पर इतने से भी उनकी तृप्ति न हुई। उन्होंने उसे जला कर खाक ही कर दिया। जो अंश खाक हो जाने से बचा वह उजड़ गया। उस पर जङ्गल उग आया। धीरे-धीरे भग्नांश पृथ्वी के पेट के भीतर दब गये।

आरकियोलाजीकल महकमे ने अब तक्षशिला के खंडहर खोद कर उन टूटी-फूटी इमारतों को बाहर निकालना शुरू किया है। यह काम कई सालों से जारी है। और अब तक जो भग्नांश खोद निकाले गये हैं और उनसे जो चीजें प्राप्त हुई हैं उनका वर्णन इस महकमे को सचित्र सालाना रिपोर्टों में हो चुका है। उनका दिग्दर्शन सरस्वती में प्रकाशित कई नोटो में भी किया जा चुका है। अब इस महकमे के अध्यक्ष, सर जान मार्शल, ने प्रत्येक भग्नांश का विवरण पृथक् पृथक पुस्तक में प्रकाशित करने का क्रम जारी किया है। इससे यह सुभीता होगा कि प्रत्येक स्थान-विशेष का वर्णन एक ही जगह मिल जायेगा। तक्षशिला की खुदाई से अब तक जो ऐतिहासिक पदार्थ-मूर्तियां, स्तूप, औजार, व्यावहारिक वस्तुयें, सिक्के आदि-निकले है उन पर, साधारण तौर पर, एक अलग पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उसका नाम है-A Guide to Taxila, उसमे तक्षशिला में खोद-निकाली गई इमारतो का भी वर्णन है।

प्राचीन तक्षशिला के खंडहरो की सीमा के भीतर एक जगह जौलियाँ (Jaulian) नाम की है। उसे खोदने से जो इमारतें और जो पदार्थ निकले है उनका विवरण एक अलग पुस्तक में, अभी हाल ही में, प्रकाशित हुआ है। वह अँगरेज़ी में है और सचित्र है। नाम है-

Excavations at Taxila-The Stupas and Monastelles at Jaulian.

इसका भी प्रकाशन सर जान मार्शल ने ही किया है। इसका अधिकांश उन्हीं का लिखा हुआ भी है। अल्पांश के लेखक और कई महाशय हैं। पुस्तक में छोटे बड़े अनेक चित्र हैं।

जौलियाँ में, जहाँ खुदाई हुई है वहाँ, कोई डेढ़ हजार वर्ष

१४ पूर्व बौद्धों के कितने ही स्तूप, विहार और चैत्य आदि थे। वे सब, एक ऊँची जगह, पहाड़ों पर थे। खोदने पर इन इमारतो में आग लग कर गिर जाने के चिह्न पाये गये है। ईसा की पांचवीं सदी में तक्षशिला और उसके आस पास के प्रान्त पर हूणों के धावे हुए थे। उन्होंने उस प्रान्त का विध्वंस-साधन किया था। बहुत सम्भव है, उन्होंने जलाकर इन इमारतों का नाश किया हो।

खोदने से इन खँडहरो में एक बहुत बड़े स्तूप का खण्डांश निकला है। छोटे छोटे स्तूप तो बहुत से निकले है। यहीं, स्तूपों के पास, बौद्ध भिक्षुओं के रहने की जगह भी थी। एक विस्तृत विहार था, जिसमें पचास साठ भिक्षुओं के रहने के लिए अलग अलग कमरे थे। यह दो मंजिला था।

खोदने से, जौलियाँ में, बुद्ध और बोधिसत्वों की बहुत सी मूर्तियां मिली हैं। कई मूर्तियां अखण्डित हैं और बड़ी विशाल हैं। स्तूपों के चारों ओर, कई कतारो मे, मिट्टी और चूने के पलस्तर की और भी सैकड़ों मूर्तियां पाई गई हैं। वे बुद्ध बोधिसत्वों भिक्षुओं, उपासिकाओं, देवों और यक्षों आदि की हैं। इन सब को वेश-भूषा आदि देखकर उस समय के वनाच्छादन और सामाजिक व्यवस्था का सच्चा हाल मालूम हो सकता है। पुरुषों के उणीष और अङ्ग-वस्त्र, स्त्रियों के सलूके और कर्ण-कुण्डल, तथा देवों और यक्षों के कुतूहल-जनक आकार-प्रकार और भावभंगियाँ बड़ी योग्यता से मूर्तियों में दिखाई गई हैं। उस समय के भारतवासियों ने जिन हूणों को म्लेच्छ-संज्ञा दे रक्खी थी उनकी भी मूर्त्तियां मिली हैं। जिन धार्म्मिक बौद्धों ने अपने अपने नाम से स्तूप बनवाये थे उनके खुदवाये हुए, खरोष्ठी लिपि मे, कई अभिलेख भी वहाँ मिले हैं। वे कुछ कुछ इस प्रकार के हैं-

"बुद्धरच्छितस भिक्षुस दनमुखो"

अर्थात् भिक्षु बुद्धरक्षित का दान किया हुआ।

पुरातत्वज्ञों का अनुमान था कि ३०० ईसवी में ही खरोष्ठी लिपि का रवाज भारत से उठ गया था। पर यह बात इन अभिलेखो से गलत साबित हो गई, क्योंकि वे चौथी या पाँचवीं सदी के हैं। इससे ज्ञात हुआ कि और भी सौ दो सो वर्ष तक इस लिपि का रवाज भारत के पश्चिमोत्तर भाग में था।

खोदने से यहाँ अनेक प्राचीन सिक्के, मिट्टी के बर्तन और तांबे के अरधे, चमचे, जंज़ीरें और कील-कांटे आदि निकले है। सोने की भी कुछ चीजें प्राप्त हुई हैं। मिट्टी के एक बर्तन के भीतर एक अधजली पुस्तक भी मिली है। वह भोज-पत्र पर लिखी हुई है। संस्कृत भाषा में है। बौद्धधर्म-विषय का कोई अन्य मालूम होता है। प्रायः बसन्त-तिलकवृत्त में है। खेद है, इसका एक पृष्ट भी पूर्ण नहीं। स्तूपों में अस्थि-भस्म भी मिली है। मालूम होता है, कितने ही छोटे छोटे स्तूपों के भीतर अस्थि-भस्म रक्खी गई थी, क्योंकि रखने की जगह तो बनी हुई है, पर अस्थिगर्भ डिब्बे या बक्स नहीं मिले। वे या तो नष्ट हो गये या निकाल लिये गये। स्तूप नम्बर ११ में एक छतरीदार, ३ फुट ८ इंच
ऊँची, विचित्र बनावट की एक चीज मिली है। वह पलस्तर की है और स्तूपाकार है । उस पर नीला और सुर्ख रंग है। ऊपर कई प्रकार के पत्थर, जिसमें से कुछ रत्न-सदृश भी है, जड़े हुए है। जिस कोठरी के भीतर यह चीज मिली है वह साढ़े दस इंच चौकोर और २ फुट साढ़े आठ इंच ऊँची है। इस स्तूपाकार वस्तु के भीतर लकड़ी की एक छोटी सी डिविया थी। वह सड़ी मिली। उसमें मूंगा, सुवर्ण, हाथी दाँत, बिल्लौर के मनके आदि थे। उसके भी भीतर धातु की एक छोटी सी डिबिया थी। उस डिबिया के भीतर एक और डिबिया थी। उसमें काली काली जरा सी राख थी। यह राख किसी की अस्थियों की अवशिष्ट भस्म के सिवा और क्या हो सकता है।

यदि भारत के प्राचीन खंड़हरों की खुदाई के लिए गवर्नमेंट कुछ अधिक रुपया खर्च करती और यह काम कुछ अधिक झपाटे से होता तो दस ही पाँच सालों में अनेक खंडहर खुद जाते और उनसे निकली हुई वस्तुओं और इमारतों के आधार पर प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में बहुत सुभीता होता। परन्तु, अभाग्य वश, वह दिन अभी दूर मालूम होता है।

[मार्च १८२२